हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #161 ☆ उम्मीद, कोशिश, प्रार्थना ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख उम्मीद, कोशिश, प्रार्थना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 161 ☆

☆ उम्मीद, कोशिश, प्रार्थना ☆

‘यदि आप इस प्रतीक्षा में रहे कि दूसरे लोग आकर आपको मदद देंगे, तो सदैव प्रतीक्षा करते रहोगे’ जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का यह कथन स्वयं पर विश्वास करने की सीख देता है। यदि आप दूसरों से उम्मीद रखोगे, तो दु:खी होगे, क्योंकि ईश्वर भी उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। इसलिए विपत्ति के समय अपना सहारा ख़ुद बनें, क्योंकि यदि आप आत्मविश्वास खो बैठेंगे, तो निराशा रूपी अंधकूप में विलीन हो जाएंगे और अपनी मंज़िल तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे। ज़िंदगी तमाम दुश्वारियों से भरी हुई है, परंतु फिर भी इंसान ज़िंदगी और मौत में से ज़िंदगी को ही चुनता है। दु:ख में भी सुख के आगमन की उम्मीद कायम रहती है, जैसे घने काले बादलों में बिजली की कौंध मानव को सुक़ून प्रदान करती है और उसे अंधेरी सुरंग से बाहर निकालने की सामर्थ्य रखती है।

मुझे स्मरण हो रही है ओ• हेनरी• की एक लघुकथा ‘दी लास्ट लीफ़’ जो पाठ्यक्रम में भी शामिल है। इसे मानव को मृत्यु के मुख से बचाने की प्रेरक कथा कह सकते हैं। भयंकर सर्दी में एक लड़की निमोनिया की चपेट में आ गई। इस लाइलाज बीमारी में दवा ने भी असर करना बंद कर दिया। लड़की अपनी खिड़की से बाहर झांकती रहती थी और उसके मन में यह विश्वास घर कर गया कि जब तक पेड़ पर एक भी पत्ता रहेगा; उसे कुछ नहीं होगा। परंतु जिस दिन आखिरी पत्ता झड़ जाएगा; वह नहीं बचेगी। परंतु आंधी, वर्षा, तूफ़ान आने पर भी आखिरी पत्ता सही-सलामत रहा…ना गिरा; ना ही मुरझाया। बाद में पता चला एक पत्ते को किसी पेंटर ने, दीवार पर रंगों व कूची से रंग दिया था। इससे सिद्ध होता है कि उम्मीद असंभव को भी संभव बनाने की शक्ति रखती है। सो! व्यक्ति की सफलता-असफलता उसके नज़रिए पर निर्भर करती है। नज़रिया हमारे व्यक्तित्व का अहं हिस्सा होता है। हम किसी वस्तु व घटना को किस अंदाज़ से देखते हैं; उसके प्रति हमारी सोच कैसी है–पर निर्भर करती है। हमारी असफलता, नकारात्मक सोच निराशा व दु:ख का सबब बनती है। सकारात्मक सोच हमारे जीवन को उल्लास व आनंद से आप्लावित करती है और हम उस स्थिति में भयंकर आपदाओं पर भी विजय प्राप्त कर लेते हैं। सो! जीवन हमें सहज व सरल लगने लगता है।

‘पहले अपने मन को जीतो, फिर तुम असलियत में जीत जाओगे।’ महात्मा बुद्ध का यह संदेश आत्मविश्वास व आत्म-नियंत्रण रखने की सीख देता है, क्योंकि ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ सो! हर आपदा का साहसपूर्वक सामना करें और मन पर अंकुश रखें। यदि आप मन से पराजय स्वीकार कर लेंगे, तो दुनिया की कोई शक्ति आपको आश्रय नहीं प्रदान कर सकती। आवश्यकता है इस तथ्य को स्वीकारने की…’हमारा कल आज से बेहतर होगा’–यह हमें जीने की प्रेरणा देता है। हम विकट से विकट परिस्थिति का सामना कर सकते हैं। परंतु यदि हम नाउम्मीद हो जाते हैं, तो हमारा मनोबल टूट जाता है और हम अवसाद की स्थिति में आ जाते हैं, जिससे उबरना अत्यंत कठिन होता है। उदाहरणत: पानी में वही डूबता है, जिसे तैरना नहीं आता। ऐसा इंसान जो सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है, वह उन्मुक्त जीवन नहीं जी सकता। उसकी ज़िंदगी ऊन के गोलों के उलझे धागों में सिमट कर रह जाती है। परंतु व्यक्ति अपनी सोच को बदल कर, अपने जीवन को आलोकित-ऊर्जस्वित कर सकता है तथा विषम परिस्थितियों में भी सुक़ून से रह सकता है।

उम्मीद, कोशिश व प्रार्थना हमारी सोच अर्थात् नज़रिए को बदल सकते हैं। सबसे पहले हमारे मन में आशा अथवा उम्मीद जाग्रत होनी चाहिए। इसके उपरांत हमें प्रयास करना चाहिए और अंत में कार्य-सम्पन्नता के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। उम्मीद सकारात्मकता का परिणाम होती है, जो हमारे अंतर्मन में यह भाव जाग्रत करती है कि ‘तुम कर सकते हो।’ तुम में साहस,शक्ति व सामर्थ्य है। इससे आत्मविश्वास दृढ़ होता है और हम पूरे जोशो-ख़रोश से जुट जाते हैं, अपने लक्ष्य की प्राप्ति की ओर। यदि हमारी कोशिश में कमी रह जाएगी, तो हम बीच अधर लटक जाएंगे। इसलिए बीच राह से लौटने का मन भी कभी नहीं बनाना चाहिए, क्योंकि असफलता ही हमें सफलता की राह दिखाती है। यदि हम अपने हृदय में ख़ुद से जीतने की इच्छा-शक्ति रखेंगे, तो ही हमें अपनी मंज़िल अर्थात् निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी। अटल बिहारी बाजपेयी जी की ये पंक्तियां ‘छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता/ टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता’ जीवन में निराशा को अपना साथी कभी नहीं बनाने का सार्थक संदेश देती हैं। हमें दु:ख से घबराना नहीं है, बल्कि उससे सीख लेकर आगे बढ़ना है। जीवन में सीखने की प्रक्रिया निरंतर चलती है। इसलिए हमें दत्तात्रेय की भांति उदार होना चाहिए। उन्होंने अपने जीवन में चौबीस गुरु धारण किए और छोटे से छोटे जीव से भी शिक्षा ग्रहण की। इसलिए प्रभु की रज़ा में सदैव खुश रहना चाहिए अर्थात् जो हमें परमात्मा से मिला है; उसमें संतोष रखना कारग़र है। अपने भाग्य को कोसें नहीं, बल्कि अधिक धन व मान-सम्मान पाने के लिए सत्कर्म करें। परमात्मा हमें वह देता है, जो हमारे लिए हितकर होता है। यदि वह दु:ख देता है, तो उससे उबारता भी वही है। सो! हर परिस्थिति में सुख का अनुभव करें। यदि आप घायल हो गए हैं या दुर्घटना में आपका वाहन का टूट गया, तो भी आप परेशान ना हों, बल्कि प्रभु के शुक्रगुज़ार हों कि उसने आपकी रक्षा की है। इस दुर्घटना में आपके प्राण भी तो जा सकते थे; आप अपाहिज भी हो सकते थे, परंतु आप सलामत हैं। कष्ट आता है और आकर चला जाता है। सो! प्रभु आप पर अपनी कृपा-दृष्टि बनाए रखें।

हमें विषम परिस्थितियों में अपना आपा नहीं खोना चाहिए, बल्कि शांत मन से चिंतन-मनन करना चाहिए, क्योंकि दो-तिहाई समस्याओं का समाधान स्वयं ही निकल आता है। वैसे समस्याएं हमारे मन की उपज होती हैं। मनोवैज्ञानिक भी हर आपदा में हमें अपनी सोच बदलने की सलाह देते हैं, क्योंकि जब तक हमारी सोच सकारात्मक नहीं होगी; समस्याएं बनी रहेंगी। सो! हमें समस्याओं का कारण समझना होगा और आशान्वित होना होगा कि यह समय सदा रहने वाला नहीं। समय हमें दर्द व पीड़ा के साथ जीना सिखाता है और समय के साथ सब घाव भर जाते हैं। इसलिए कहा जाता है,’टाइम इज़ ए ग्रेट हीलर।’ सो दु:खों से घबराना कैसा? जो आया है, अवश्य ही जाएगा।

हमारी सोच अथवा नज़रिया हमारे जीवन व सफलता पर प्रभाव डालता है। सो! किसी व्यक्ति के प्रति धारणा बनाने से पूर्व भिन्न दृष्टिकोण से सोचें और निर्णय करें। कलाम जी भी यही कहते हैं कि ‘दोस्त के बारे में आप जितना जानते हैं, उससे अधिक सुनकर विश्वास मत कीजिए, क्योंकि वह दिलों में दरार उत्पन्न कर देता है और उसके प्रति आपका विश्वास डगमगाने लगता है।’ सो! हर परिस्थिति में खुश रहिए और सुख की तलाश कीजिए। मुसीबतों के सिर पर पांव रखकर चलिए; वे आपके रास्ते से स्वत: हट जाएंगी। संसार में दूसरों को बदलने की अपेक्षा उनके प्रति अपनी सोच बदल लीजिए। राह के काँटों को हटाना सुगम नहीं है, परंतु चप्पल पहनना अत्यंत सुगम व कारग़र है।

सफलता और सकारात्मकता एक सिक्के के दो पहलू हैं। आप अपनी सोच व नज़रिया कभी भी नकारात्मक न होने दें। जीवन में शाश्वत सत्य को स्वीकार करें। मानव सदैव स्वस्थ नहीं रह सकता। उम्र के साथ-साथ उसे वृद्ध भी होना है। सो! रोग तो आते-जाते रहेंगे। वे सब तुम्हारे साथ सदा नहीं रहेंगे और न ही तुम्हें सदैव ज़िंदा रहना है। समस्याएं भी सदा रहने वाली नहीं हैं। उनकी पहचान कीजिए और अपनी सोच को बदलिए। उनका विविध आयामों से अवलोकन कीजिए और तीसरे विकल्प की ओर ध्यान दीजिए। सदैव चिंतन-मनन व मंथन करें। सच्चे दोस्तों के अंग-संग रहें; वे आपको सही राह दिखाएंगे। ओशो भी जीवन को उत्सव बनाने की सीख देते हैं। सो! मानव को सदैव आशावादी व प्रभु का शुक्रगुज़ार होना चाहिए तथा प्रभु में आस्था व विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि वह हम से अधिक हमारे हितों के बारे में जानता है। समय बदलता रहता है; निराश मत हों। सकारात्मक सोच रखें तथा उम्मीद का दामन थामे रखें। आत्मविश्वास व दृढ़संकल्प से आप अपनी मंज़िल पर अवश्य पहुंच जाएंगे। एमर्सन के इस कथन का उल्लेख करते हुए मैं अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी ‘अच्छे विचारों पर यदि आचरण न किया जाए, तो वे अच्छे सपनों से अधिक कुछ भी नहीं हैं। मन एक चुंबक की भांति है। यदि आप आशीर्वाद के बारे में सोचेंगे; तो आशीर्वाद खिंचा चला आएगा। यदि तक़लीफ़ों के बारे में सोचेंगे, तो तकलीफ़ें खिंची चली आएंगी। सो! हमेशा अच्छे विचार रखें; सकारात्मक व आशावादी बनें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ जन्मदिवस विशेष – “’अश्क’ जिन्हें केवल लिखने के लिए ही धरती पर भेजा गया ” ☆ डॉ. हरीश शर्मा ☆

उपेंद्र नाथ ‘अश्क’ 

☆ आलेख ☆  जन्मदिवस विशेष – “’अश्क’ जिन्हें केवल लिखने के लिए ही धरती पर भेजा गया ” ☆ डॉ. हरीश शर्मा 

हिंदी उपन्यास और गद्य क्षेत्र में मध्यवर्गीय जीवन को चित्रित करने वाले उपेन्द्रनाथ अश्क 14 दिसम्बर, 1910 की दोपहर जालंधर में पैदा हुए और वो खुद इस बारे में कहते हैं कि दोपहर में पैदा होने वाले थोड़े शरारती और अक्खड़ माने जाते है।

एक हठी और सख्त पिता तथा सहनशीलता की मूरत माँ से पैदा हुआ ये आदमी कमाल के बातूनी और मोहक व्यक्तित्व को लेकर पैदा हुआ । पंजाब के निम्न मध्यवर्गीय मुहल्ले में पला बढ़े अश्क जी ने लाहौर, जालंधर, मुंबई से होते हुए इलाहाबाद को अपना पक्का ठिकाना बनाया। आप सोच कर देखिए कि उर्दू में लिखने की शुरुआत करने वाले उपेन्द्रनाथ अश्क को 1932 में एक खत के द्वारा मुंशी प्रेमचंद हिंदी में लिखने की प्रेरणा देते हैं और अश्क हिंदी की ओर मुड़ते हुए उस समय की चर्चित पत्रिका ‘चंदन’ में छपना शुरू हो जाते हैं । इस पर उर्दू के चर्चित कथाकार कृष्ण चन्दर लिखते हैं, अश्क मुझसे बहुत पहले लिखना शुरू कर चुके थे और लोकप्रियता की मंजिल तय करके उर्दू कहानीकारों की पहली पंक्ति में आ चुके थे । उस जमाने मे सुदर्शन जी लाहौर से कहानी की एक बहुत ही अच्छी पत्रिका ‘चंदन’ निकालते थे और अश्क जी की कहानियाँ अक्सर उसमें छपती थीं ।

अश्क जी चर्चित कथाकार राजेन्द्र सिंह बेदी, सहादत हसन मंटो के समकालीन रहे । 1947 में इनके साथ ही लाहौर रेडियो स्टेशन के लिए कृष्ण चंदर भी नाटक लिखा करते थे । अश्क जी लाहौर रेडियो पर नाटक लिखने के लिए बाकायदा तनख्वाह पाते थे ।

अश्क जी की लोकप्रियता का सबसे बड़ा सबूत उनकी 57वीं वर्षगाठ पर लिखे गए संस्मरणों की किताब ‘अश्क, एक रंगीन व्यक्तित्व’ है, जिसमे हिंदी और उर्दू के कई जाने माने चेहरों ने अश्क जी पर अपने अनुभव साझा किए हैं, इन साहित्यकारों में शिवपूजन सहाय, मार्कण्डेय, सुमित्रानन्दन पंत, भैरवप्रसाद गुप्त, राजेंद्रयादव, मोहन राकेश, जगदीश चन्द्र माथुर, फणीश्वर नाथ रेणु, शेखर जोशी, ख्वाजा अहमद अब्बास, कृष्ण चन्दर, बेदी, देवेंद्र सत्यार्थी, शानी आदि ने लिखा । इस अर्ध शती समारोह के अवसर पर लेनिनग्राद से लेखक बारानिकोव ने भी संस्मरण लिखा है।

अश्क जी ने अपना पहला उपन्यास ‘सितारों के खेल’ 1940 में लिखा और फिर ‘गिरती दीवारें’ बड़ी बड़ी आँखें, एक नन्ही कंदील, बांधो न नाव इस ठाँव, शहर में घूमता आईना, पलटती धारा, निमिषा, गर्म राख सहित दस उपन्यास लिखे । उपन्यास ‘इति नियति’ उनकी अंतिम रचना थी जो उनकी मृत्यु के उपरांत 2004 में छपा। इसके इलावा अश्क जी ने साहित्य की हर विधा में हाथ आजमाया । उन्होंने लगभग सौ किताबें हिंदी साहित्य को दीं ।

अश्क जी द्वारा लिखे नाटक भारत और लंदन तक में खेले गए । उनका लिखा नाटक ‘अंजो दीदी ‘तो जालंधर में एक ही दिन छह जगह खेला गया । उनके अन्य चर्चित नाटक स्वर्ग की झलक, छठा बेटा, कैद और उड़ान, जय पराजय आदि भारत के विभिन्न राज्यों और विदेशों में चर्चित रहें । अश्क जी का मंटो पर लिखे संस्मरण की किताब, ‘मंटो: मेरा दुश्मन’ बहुत चर्चित रहा ।

अश्क जी ने दर्जनों कहानियाँ हिंदी और उर्दू साहित्य की झोली में डाली । ‘छींटे, काले साहब, बैंगन का पौधा, पिंजरा, आदि कहानी संग्रहो में सौ के लगभग कहानियां उन्होंने लिखी ।

उनके पूरे साहित्य में लाहौर,जालंधर क्षेत्र का पंजाबी मध्यवर्ग मुखर रहा । उपन्यासों में तो वे चेतन नाम के पात्र द्वारा अपने ही जीवन की एक लंबी कथा लिखते रहे जिसने पंजाब के मध्यवर्ग के हर कोण को बहुत बारीकी से पकड़ा । बंटवारे से पहले और बाद के संदर्भो को समझने के लिए उनके उपन्यास एक अहम दस्तावेज हैं ।

मैं खुद 2003 में जब अश्क जी पर पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में शोध कर रहा था तो विभाग अध्यक्ष डॉ चमनलाल जी ने बताया कि डेजी रोकवेल की एक किताब अंग्रेजी में अश्क जी पर आई है । अमेरिकन लेखक और अनुवादक डेजी रोकवेल वही नाम है जिसे गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद के लिए अभी हाल ही में बुकर पुरस्कार मिला ।

डेजी की किताब उपेन्द्रनाथ अश्क, अ क्रिटिकल बायोग्राफी’ में भी अश्क जी के जीवन और उनकी रचना प्रक्रिया पर बहुत शोधात्मक काम हुआ है । डेजी ने अश्क के उपन्यास ‘गिरती दीवारें’ और ‘शहर में घूमता आईना’ को भी अंग्रेजी में अनुवाद किया।  इससे अश्क के महत्व का अंदाजा स्वयं ही लगाया जा सकता है कि वे कॉटन महत्व पूर्ण व्यक्ति थे ।

अश्क जी को उनके लेखन के लिए कभी किसी पुरस्कार की आकांक्षा नही थी, आकाशवाणी को दिए एक साक्षात्कार में वो कहते हैं “लिखना मेरे लिए जीवन है और मैं अखबारों की संपादकीय, वकालत को छोड़कर लेखन में ही लग गया क्योंकि इससे मुझे खुशी मिलती थी ।” अश्क जी न केवल देश की राज्य सरकारों ने सम्मानित किया बल्कि विदेश में भी सम्मानित हुए । उनके उपन्यास ‘बड़ी बड़ी आंखे’ 1956 में भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत हुआ । ‘शहर में घूमता आईना, पत्थर अल पत्थर, हिंदी कहानियाँ और फैशन (आलोचना) आदि को पंजाब सरकार द्वारा पुरस्कृत किया गया । ‘साहब को जुकाम है’ एकांकी नाटक को पंजाब तथा उत्तर प्रदेश सरकार ने सम्मान से पुरस्कृत किया | संगीत नाटक अकादमी ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ नाटककार का सम्मान दिया । 1972 में अश्क जी को नेहरू पुरस्कार मिला तथा रूस जाने का निमंत्रण दिया गया ।  पंजाब सरकार के भाषा विभाग ने अपने इस धरती पुत्र की स्वर्ण जयंती मनाई गई तथा उनके गृहनगर जालंधर में लोकसम्मान किया गया । इसी प्रकार अश्क की अर्धशती केवल जालंधर और इलाहाबाद में नही बल्कि रूस के लेनिनग्राद में भी मनाई गई । जीवन के अंतिम दिनों में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा उन्हें एक लाख रुपये का ‘इकबाल सम्मान’ देने की भी घोषणा हुई । इस प्रकार अश्क जी अपने अथक लेखन के लिए अनगिनत पुरस्कारों से सम्मानित हुए ।

इस दौरान वे गम्भीर बीमारियों से लगातार जूझते रहे पर लेखन ने उन्हें हमेशा ऊर्जा दी और जीते रहने की संजीवनी बूटी दी ।

वे लगातार लिखते रहे । वे खुद लिखते हैं कि दस से पंद्रह पेज जब तक वे रोजाना लिख न लें उन्हें चैन नही पड़ता था। शायद इसी कारण वे अपने बृहद उपन्यासों की रचना कर पाए। उनका उपन्यास ‘शहर में घूमता आईना’ जो लगभग 450 पृष्ठों में फैला है, एक ही दिन की कथा है, जिसमे वो बहुत से पात्रों और स्थान का वर्णन करते हुए उनकी मनोवैज्ञानिक, सामाजिक तथा आर्थिक दशा को दिखाते हैं | उनके पास हर विधा में लिखने की जो कला थी, वो उन्हें हर प्रकार की ऊब से परे रखती ।

विविधता ने उनकी कलम को कभी रुकने न दिया । इसलिए वे उपन्यास, कहानी, नाटक, एकांकी, लेख, आलोचना, संस्मरण के बीच पाला बदल बदल कर आगे बढ़ते रहे । बीमारियां चलती रही पर उन्होंने इन्ही के साथ जीना सीखते हुए लिखना जारी रखा। उन्होंने बीमारी के दौरान लाभ उठाते हुए टालस्टाय, दस्तोवस्की, जेन आस्टन, मैन्टरलिक,पिरेन्डलो और बर्नार्ड शा को पढ़कर अपने लेखन को नया शिल्प दिया और इन क्लासिक रचनाओं को पढ़कर लिखने की प्रेरणा पाते रहे । कहने के लिए उनके पास अपना खुद का जीवन था, जिसमे मुहल्ले, बदहाली, आर्थिक विषमता, संघर्ष और एक नौजवान के जीवन की लंबी किस्सागोई मौजूद थी । उन्होंने एक साक्षात्कार में भी कहा, “मुझे सच में किसी बात का अफसोस नही, मुझे संतोष है कि जैसे भी जिया, अपनी तरह जिया और अपनी जिंदगी से कुछ लिया तो बदले में कुछ कम नही दिया।”

अश्क जी की लेखन परम्परा को उनके पुत्र नीलाभ ने आगे बढ़ाया । उसी के नाम से उन्होंने इलाहाबाद में नीलाभ प्रकाशन शुरू किया था । नीलाभ हिंदी के चर्चित कवि, अनुवादक रहे | काफी समय बी बी सी लंदन में भी उन्होंने काम किया । अब वे भी इस दुनिया से जा चुके हैं ।

9 जनवरी 1996 को अश्क जी ने अंतिम सांस ली । वे अपने पीछे एक बड़ा साहित्य कर्म छोड़ कर गए जो रचनाओं के रूप में एक समाज और क्षेत्र का शाश्वत  दस्तावेज है ।

© डॉ. हरीश शर्मा

मो 9463839801

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -12 – झीलें ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – परदेश की अगली कड़ी  “झीलें।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 12 – झीलें ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मुम्बई निवास के समय “बल्लार्ड पियर” के नाम का क्षेत्र सुना/देखा था। अमेरिका के शिकागो शहर में भी एक स्थान है, “नेवी पियर” गूगल से जब पियर का अनुवाद ढूंढा तो उसने पहले तो नाशपाती नामक फल बता दिया, हमें लगा जुलाई माह (सावन) के आस पास ही इस फल का मौसम रहता है। गूगल भी हमारे समान मौसम को मानता होगा, हम तो जीवन में मौसम को ही सबसे अधिक महत्व देते हैं।

नेवी पियर क्षेत्र यहां की सबसे बड़ी “मिशेगन झील” के एक तट को बांध कर बनाए गया था। झील इतनी बड़ी है, तो नेवी (नौसेना) भी इसका उपयोग करती रही होगी। अब ये एक दर्शनीय भ्रमण स्थल है, जहां हमेशा भीड़ रहती है। आसपास के क्षेत्र में उत्तर भारत के मेरठ शहर में प्रतिवर्ष भरने वाले “नौचंदी मेले” जैसा नज़ारा रहता हैं। खाने पीने की सैकड़ों दुकानें, बच्चे और बड़ो के विद्युत संचालित झूले, सार्वजनिक संगीत के माहौल में झूमते हुए युवा, मनोरंजन के नाम पर सब कुछ है।

मिशीगन झील एक “शिकागो नदी” से भी जुड़ी हुई है। झील में एकल नाव से दो सौ लोगों के बैठने वाले जहाज तक घूमने के लिए उपलब्ध हैं। पैसा फेक और तमाशा देख वाली कहावत यहां भी चरितार्थ होती है।

यहां के युवा “पानी के खेल” (वाटर स्पर्ट्स) को भी बहुत शौक से खेलते हुए प्रकृति द्वारा उपलब्ध साधन का सही उपयोग करते हैं।

यहां के अमीर अपनी बड़ी वाली कार को नाव की छत पर रखकर आनंद लेने आते हैं। बड़े अमीर बड़ी नाव (Y वाला याट) को कार के साथ खींच कर लाते हैं। पुरानी कहावत है “जितना गुड डालेंगे उतना ही मीठा हलवा होगा। सावन आरंभ हो चुका है, तो कुछ मीठा हलवा हो जाए

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 165 ☆ चिंतन – “महत्व श्रम”☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय आलेख–चिंतन – “महत्व श्रम”)

☆ आलेख # 165 ☆ चिंतन – “महत्व श्रम” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

स्त्री -पुरुषों के पास समय बिताने के लिए कोई काम न हो तो वे पतित हो जाते हैं। हमे काम मतलब श्रम से जी नहीं चुराना चाहिए, अन्यथा हम ऐसी वस्तु बन जायेंगे जिसका प्रकृति के लिए कोई उपयोग नहीं होगा। ”फल हीन अंजीर” की कथा याद करो जिसमे कहा गया था कि- बिना काम स्त्री-पुरुष झगड़ालू , असंतुष्ट, अधीर और चिड़चिड़े हो जाते हैं, चाहे ऊपर से वे कितने ही मीठे और मिलनसार ही क्यों न दिखाई दें। जो यह शिकायत करे कि ”मेरे पास कोई काम नहीं है” या ”मुझसे काम नहीं बनता” उसे झगड़ालू और शिकायत से भरा हुआ समझना चाहिए, उसके चेहरे पर थकावट सी छाई हुई होगी, … उसका चेहरा देखने में भला न प्रतीत हो रहा होगा।

कई लोग ऐसा सोचते हैं कि उनके पास काम नहीं है तो वे भाग्यवान हाँ या उनसे काम नहीं बनता तो वे खुशहाल है यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि काम का न होना सौभाग्य या मनचाही वस्तु है । काम न करना एक तरह से प्रक्रति के विरुद्ध -विद्रोह है, मनुष्यता या पौरुष का अपमान है। यह पुर्णतः अप्राकृतिक और लोकिक नियमो के विपरीत है … अपनी रोजी-रोटी के लिए थोड़ी कमाई कर के अपने अन्दर अहं पाल लेना … बाल-बच्चे पैदा कर के घर चला लेना क्या इतना ही पर्याप्त है इस जीवन के लिए … सोचो तो जरा … अरे भाई कुछ काम करो। कुछ काम करो … जग में रह कर कुछ नाम करो यह जन्म हुआ कुछ व्यर्थ न हो …। तो कुछ तो ऐसा ‘काम’ कर लो जिससे पूरे विश्व के उत्थान का रास्ता प्रशस्त हो… जिस दिन इस धरती पर श्रम और काम की कीमत गिर जायेगी उस दिन यहाँ की सारी चहल-पहल और खुशहाली  मिटटी में मिल जायेगी … अतः हमें अपने काम और श्रम के द्वारा इस संसार को बहुत सुन्दर बनाना है काम। 

काम और श्रम ही वास्तव में असली देवता है ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 166 ☆ कबिरा संगत साधु की… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना सम्पन्न हो गई है। 🌻

अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी  

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं । यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है। ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 166 ☆ कबिरा संगत साधु की… ☆?

जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं,

मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति।

चेत: प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं,

सत्संगति: कथयं किं न करोति पुंसाम्।।

अर्थात् अच्छे मित्रों का साथ बुद्धि की जड़ता को हर लेता है, वाणी में सत्य का संचार करता है, मान और उन्नति को बढ़ाता है और पाप से मुक्त करता है | चित्त को प्रसन्न करता है और हमारी कीर्ति को सभी दिशाओं में फैलाता है। आप ही बताइए कि सत्संगति मनुष्यों का कौन- सा भला नहीं करती!

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। सामाजिक है अर्थात समाज में रहनेवाला है। समाज, समूह से बनता है। तात्पर्य है कि मनुष्य समूह में रहनेवाला प्राणी है। ऐसे में एक-दूसरे की संगति स्वाभाविक है। साथ ही यह भी स्वाभाविक है कि समूह के हर सदस्य पर एक-दूसरे के  स्वभाव का, विचारों का, गुण-अवगुण का प्रभाव पड़े। ऐसे में अपनी संगति का विचारपूर्वक चुनाव आवश्यक हो जाता है।

अध्यात्म में सत्संगति का विशेष महत्व है। ‘सत्संग’ के प्रभाव से मनुष्य की सकारात्मकता सदा जाग्रत रहती है।

सत्संग के महत्व से अनजान एक युवा  कबीरदास जी के पास पहुँचा। कहने लगा, ‘मैं शिक्षित हूँ, समझदार हूँ। अच्छाई और बुराई के बीच अंतर ख़ूब समझता हूँ। तब भी मेरे माता-पिता और  परिवार के बुज़ुर्ग मुझे सत्संग में जाने के लिए बार-बार कहते हैं। अब आप ही बताइए कि भला मैं सत्संग में क्यों जाऊँ?”

कबीर कुछ नहीं बोले। केवल एक  हथौड़ा उठाया और पास ही ज़मीन में गड़े एक खूँटे पर दे मारा। कोई उत्तर न पाकर युवक वहाँ से लौट गया।

अगले दिन युवक फिर आया। उसने फिर अपना  प्रश्न दोहराया। कबीर फिर कुछ नहीं बोले। फिर हथौड़ा उठाकर उसी खूँटे पर दे मारा। खूँटा ज़मीन में कुछ और गहरा गड़ गया। युवक लौट गया।

तीसरे दिन वह फिर आया। फिर वही प्रश्न, उत्तर में कबीर द्वारा फिर खूँटे को हथौड़े से ज़मीन में और गहरा गाड़ना। अब युवक का धैर्य जवाब दे गया। रुष्ट स्वर में बोला, “महाराज आप मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं जानते या नहीं देना चाहते तो न सही पर रोज़-रोज़ यूँ मौन धारण कर इस खूँटे पर हथौड़ा क्यों चलाते हैं?” कबीर मुस्कराकर बोले, “मैं रोज़ तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देता हूँ पर तुम समझदार होकर भी समझना नहीं चाहते। मैं रोज़ खूँटे पर हथौड़ा मारकर ज़मीन में इसकी पकड़ मज़बूत कर रहा हूँ अन्यथा हल्की-सी ठोकर से भी इसके उखड़ने का डर है।..बेटा, मनुष्य का मन इस खूँटे की तरह है। मन के खूँटे पर सत्संग का प्रहार और संस्कार निरंतर होता रहना चाहिए ताकि मनुष्य सकारात्मक चिंतन कर सके, बेहतर मनुष्य बन सके। सकारात्मकता जितनी गहरी होगी, जीवन में कठिनाइयाँ और संकट उतने ही उथले लगेंगे। इसलिए सत्संग अनिवार्य है।”

सत्संग या सज्जनों के साथ के इसी महत्व ने कबीरदास जी से लिखवाया,

कबिरा संगत साधु की, ज्यों गंधी की बास।

जो कुछ गंधी दे नहीं, तो भी बास सुबास।।

गंधी या इत्र बेचनेवाला कुछ न भी दे तब भी उसकी उपस्थिति से ही वातावरण में सुगंध फैल जाती है। सत्संगति का भी यही आनंद है।

 © संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #150 ☆ आलेख – श्री सत्यनारायण व्रत पूजा कथा रहस्य ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 150 ☆

☆ ‌आलेख – श्री सत्यनारायण व्रत पूजा कथा रहस्य ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

(दो शब्द रचनाकार के – आज मुझे पुरोहित कर्म करते हुए काफी समय गुजर गया है अपनी पुरोहित कर्म के दौरान तमाम जिज्ञासु जन मुझसे प्रश्न करते रहे कि आखिर वह कौन सी कथा थी जिसे भगवान विष्णु जी ने दरिद्रता से मुक्ति के लिए उस गरीब को उपाय के रूप में सुनाया। अपने अध्ययन में मैंने जो भी तथ्य पाया उसे जिज्ञासु जन की जिज्ञासा शांत करने के लिए सबके समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ । इस प्रस्तुति का आधार पौराणिक मान्यताओं-कथाओं के तथ्य पर आधारित है, जो किसी विवाद को नहीं स्वीकार करता। इसका समर्थन अथवा विरोध पाठक वर्ग के स्वविवेक पर निर्भर है।)

श्री सत्य नारायण कथा का मूल उदगम स्कंध पुराण के रेवा खंड से लिया गया है। पौराणिक श्रुति के अनुसार मृत्यु लोक के दुख पीड़ा जैसी तमाम कष्टो से जूझते हुए प्राणी के मुक्ति के लिए नैमिषारण्य  तीर्थ क्षेत्र में जो कभी अठ्ठासी हजार ऋषियों का संकुल था, वहीं पर श्री सत्यनारायण व्रत कथा का प्रादुर्भाव हुआ और यह कथा प्रचलन में आई।

ऋषि शौनक जी तथा अन्य ऋषियों ने महात्मा सूत जी से सरल सहज तथा सूक्ष्म उपाय पूछा था, उन्होंने जो पूजा कथा बताई वह इस प्रकार है।

उन्होंने बताया कि एक बार देवर्षि नारद जी भगवान विष्णु के पास गए तथा लोकहित की इच्छा से प्रश्न किया कि – “हे सर्वेश्वर! मैंने पृथ्वी लोक के भ्रमण के दौरान दुख और पीड़ा से व्याकुल मानव समाज देखा है, जिससे मेरा हृदय करूणासिक्त हो रहा है, इससे मुक्ति का कोई उपाय हो तो मुझे बताएं।”

उनकी लोकहित वाणी सुनकर भगवान ने कहा कि- “हे देवर्षि! आप का प्रश्न लोकहित से जुड़ा है इस निमित्त मैं यह उपाय अवश्य बताऊंगा।”

देवर्षि नारद जी ने आगे कथा का विस्तार करते हुए बताया और व्रत पूजा का विधान समझाया। यदि हम सत्यनारायण कथा पुस्तक के शीर्षक का विवेचन करें तो सारा अर्थ स्पष्ट हो जाता है। अर्थात् श्री सत्यनारायण व्रत पूजा कथा- जिसका आशय है पहले व्रत का संकल्प, तत्पश्चात पूजा विधान, फिर कथा विधान। अर्थात् कथा का अध्ययन यह सिद्ध करता हैं कि कथा श्रवण के पूर्व ब्राह्मण ने कथा पूजा करने का संकल्प लिया, जिसके संकल्प मात्र से उसे प्रचुर मात्रा में धन मिला। फिर पूजा का विधान किया और उसके बाद कथा के बाद प्रसाद वितरण किया जो उसका नैमित्तिक कर्म बन गया। वही स्थिति लकड़हारे की हुई, लेकिन संकल्प पूर्ण नहीं करने पर साधूराम बनिया को अपने जीवन के संत्रास से गुजरना पड़ा। वहीं राजा को प्रसाद न ग्रहण करने के कारण दुख भोगना पड़ा। वहीं अधूरी कथा छोड़ने के कारण लीलावती तथा कन्या कलावती को पिता तथा पति के दर्शन से विमुख होना पड़ा था।

भगवान विष्णु ने अपने स्वरूप शालिग्राम के विग्रह पूजन का निर्देश दिया – फिर भगवान विष्णु वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर उस भिक्षुक ब्राह्मण से मिले, जो सुदामा की तरह भूख की पीड़ा से भिक्षा मांगने के लिए दर दर भटकता फिर रहा था। उन्होंने उस ब्राह्मण से पूछा था कि- हे ब्राह्मण! आप आखिर इस प्रकार क्यों दर दर भटकते  घूम रहे हैं।

तब ब्राह्मण ने कहा  –  “मैं गरीबी के मकड़जाल में फंसा हुआ भूख की पीड़ा से व्याकुल भिक्षा मांगने हेतु विवश हो भटकता फिर रहा हूँ । इस गरीबी के अभिशाप से मुक्ति हेतु यदि कोई उपाय जानते हो तो बताएं मैं उसे अवश्य पूरा करूंगा। तब उन नारायण रूप में आए वृद्ध  ब्राह्मण  के वेष में भगवान श्री विष्णु जी ने अपने शालिग्राम रूपी विग्रह की सत्यनारायण व्रत पूजा कथा का विधान बताया, जो सर्व कामना पूर्ण करती है। भगवान शालिग्राम विग्रह की कथा देवासुर संग्राम के जालंधर वध से संबंधित है जिसे सारा विद्वत समाज परिचित है। जो वृंदा के शाप के कारण शालिग्राम की पाषाण खंड के रूप में परिणत हो गई तथा भगवान विष्णु के वरदान से वृंदा तुलसी के बिरवा के रूप में अवतरित हुई। बिना तुलसी दल तथा मंजरी के आज़ भी भगवान विष्णु की पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती।

शेष सत्यनारायण व्रत में पूजा का विधान बताया गया है। पूजा में सर्व प्रथम पवित्रीकरण के बाद प्रथम पूज्य भगवान श्री गणेश तथा माता गौरी के आह्वान पूजन का विधान है जिसके बारे में यह विश्वास है कि यदि कुमारी कन्या विधान पूर्वक माँ गौरी का पूजन कर उन्हें सिंदूर चढ़ाती है तो उन्हें मनवांछित वर की प्राप्ति होती है और जो पत्नी पति मिल कर माँ  गौरी और गणेश जी को पूजन के साथ सिंदूर चढ़ाते है तो उस परिवार में सुख शांति समृद्धि सौहार्द तथा जीवन में प्रेम बना रहता है।

गौरी पूजन का प्रमाण  हमें माता सीता के स्वयंवर के समय गौरी पूजन के रूप में मिलता है।

विनय प्रेम बस भई भवानी।

खसी माल मूरति मुस्कानी।

वर सहज सुन्दर सांवरो ।

करुणा निधान सुजान शील स्नेह जानत रावरो ॥

एहि भांति गौरी असीस सुन सिय सहित हिय हरषित अली।

तुलसी भवानी पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मन्दिर चली ॥

इसके बाद पृथ्वी पूजन का विधान है जिसके बारे में मान्यता है कि पृथ्वी ही हमारे जीवन का आधार है, इस के बिना जीवन संभव ही नहीं है। उसी से हमें अन्न वस्त्र, फल फूल,  हीरे-जवाहरात मिलते हैं जो हमारी संपन्नता का प्रतीक है। उसके बाद फिर भगवान वरूण देव की पूजा का विधान है जिसके लिए हम घट पूजा करते हैं। अगले चरण में हम नवग्रह शांति के लिए नवग्रहों की पूजा करते हैं। उस के पश्चात हम  दीप के रूप में अग्नि देवता की पूजा करते हैं। तत्पश्चात भगवान शालिग्राम के विग्रह की पूजा करते हैं। इस प्रकार एक पूजा में ही पंच पूजा समाहित है जिसका उद्देश्य लोक हितकारी है।

शेष पांचों अध्याय तो हमें यह समझाते हैं शालिग्राम की पूजा तो दरिद्र ब्राह्मण, लकड़हारा, नि:संतान साधूराम बनिया, राजा, तथा गोप गण, अर्थात् समाज का सभी वर्ग ने किया। अपनी मंशा के अनुरूप फल प्राप्त किया । जिसने संकल्प लेकर भी पूजा नहीं किया। वह ईश्वर के रूष्ट होने पर अनेकों कष्ट सहने पर मजबूर हुआ।

यही सत्य नारायण पूजा कथा तथा व्रत का विधान है जिसे बार बार एक व्यक्ति ने दूसरे को बताया यह श्रुति कथा आज भी पूरे श्रद्धा विश्वास के साथ कही सुनी सुनाई जाती है। यही तो है भगवान सत्यनारायण व्रत पूजा कथा।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #160 ☆ अधूरी ख़्वाहिशें ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अधूरी ख़्वाहिशें । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 160 ☆

☆ अधूरी ख़्वाहिशें  ☆

‘कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही ठीक है/ ज़िंदगी जीने की चाहत बनी रहती है।’ गुलज़ार का यह संदेश हमें प्रेरित व ऊर्जस्वित करता है। ख़्वाहिशें उन स्वप्नों की भांति हैं, जिन्हें साकार करने में हम अपनी सारी ज़िंदगी लगा देते हैं। यह हमें जीने का अंदाज़ सिखाती हैं और जीवन-रेखा के समान हैं, जो हमें मंज़िल तक पहुंचाने की राह दर्शाती है। इच्छाओं व ख़्वाहिशों के समाप्त हो जाने पर ज़िंदगी थम-सी जाती है; उल्लास व आनंद समाप्त हो जाता है। इसलिए अब्दुल कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने का संदेश दिया है। ऐसे सपनों को साकार करने हित हम अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं और वे हमें तब तक चैन से नहीं बैठने देते; जब तक हमें अपनी मंज़िल प्राप्त नहीं हो जाती। भगवद्गीता में भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कही गई है, क्योंकि वे दु:खों का मूल कारण हैं। अर्थशास्त्र  में भी सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं  की पूर्ति को असंभव बताते हुए उन पर नियंत्रण रखने का सुझाव दिया गया है। वैसे भी आवश्यकताओं की पूर्ति तो संभव है; इच्छाओं की नहीं।

इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए कष्टकारी व उसके विकास में बाधक होते हैं। इसलिए उम्मीद मानव को स्वयं से रखनी चाहिए, दूसरों से नहीं। प्रथम मानव को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है; द्वितीय निराशा के गर्त में धकेल देता है। सो! गुलज़ार की यह सोच भी अत्यंत सार्थक है कि कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही कारग़र है, क्योंकि वे हमारे जीने का मक़सद बन जाती हैं और हमारा मार्गदर्शन करती हैं। जब तक ख़्वाहिशें ज़िंदा रहती हैं; मानव निरंतर सक्रिय व प्रयत्नशील रहता है और उनके पूरा होने के पश्चात् ही सक़ून प्राप्त करता है।

‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है/ मुझे ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ जी हां! मानव से जीवन में संघर्ष करने के पश्चात् मील के पत्थर स्थापित करना अपेक्षित है। यह सात्विक भाव है। यदि हम ईर्ष्या-द्वेष को हृदय में धारण कर दूसरों को पराजित करना चाहेंगे, तो हम स्व-पर व राग-द्वेष में उलझ कर रह जाएंगे, जो हमारे पतन का कारण बनेगा। सो! हमें अपने अंतर्मन में स्पर्द्धा भाव को जाग्रत करना होगा और अपनी ख़ुदी को बुलंद करना होगा, ताकि ख़ुदा भी हमसे पूछे कि बता! तेरी रज़ा क्या है? विषम परिस्थितियों में स्वयं को प्रभु-चरणों में समर्पित करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। सो! हमें वर्तमान के महत्व को स्वीकारना होगा, क्योंकि अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित है। इसलिए हमें साहस व धैर्य का दामन थामे वर्तमान में जीना होगा। इन विषम परिस्थितियों में हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखना है तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखना है।

संसार में असंभव कुछ भी नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और हम वह सब सोच सकते हैं; जिसकी हमने आज तक कल्पना नहीं की। कोई भी रास्ता इतना लम्बा नहीं होता; जिसका अंत न हो। मानव की संगति अच्छी होनी चाहिए और उसे ‘रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं’ में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं, जड़ें नहीं। जीवन संघर्ष है और प्रकृति का आमंत्रण है। जो स्वीकारता है, आगे बढ़ जाता है। इसलिए मानव को इस तरह जीना चाहिए, जैसे कल मर जाना है और सीखना इस प्रकार चाहिए, जैसे उसको सदा ज़िंदा रहना है। वैसे भी अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें पढ़ना पड़ता है। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे लोग जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन की सोच रखते हैं। परिश्रम सबसे उत्तम गहना व आत्मविश्वास सच्चा साथी है। किसी से धोखा मत कीजिए; न ही प्रतिशोध की भावना को पनपने दीजिए। वैसे भी इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो हम किसी से करते हैं। जीवन में तुलना का खेल कभी मत खेलें, क्योंकि इस खेल का अंत नहीं है। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद भाव समूल नष्ट हो जाता है।

ऐ मन! मत घबरा/ हौसलों को ज़िंदा रख/ आपदाएं सिर झुकाएंगी/ आकाश को छूने का जज़्बा रख। इसलिए ‘राह को मंज़िल बनाओ,तो कोई बात बने/ ज़िंदगी को ख़ुशी से बिताओ तो कोई बात बने/ राह में फूल भी, कांटे भी, कलियां भी/ सबको हंस के गले से लगाओ, तो कोई बात बने।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियों द्वारा मानव को निरंतर कर्मशील रहने का संदेश प्रेषित है, क्योंकि हौसलों के जज़्बे के सामने पर्वत भी नत-मस्तक हो जाते हैं। ऐ मानव! अपनी संचित शक्तियों को पहचान, क्योंकि ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ यह गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ सो! रिश्ते-नातों की अहमियत समझते हुए, विनम्रता से उनसे निबाह करते चलें, ताकि ज़िंदगी निर्बाध गति से चलती रहे और मानव यह कह उठे, ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो मेरी उड़ान को।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 59 – पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ… ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ।)   

☆ आलेख  # 59 – पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ…  ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

स्वयं को पढ़ना सबसे कठिन कार्य है, इसलिए कबीर कह गये कि

“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। 

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”

ज्ञान अगर पुस्तकों से मिलता तो गौतम बुद्ध ,एल्बर्ट आईंस्टीन और आचार्य रजनीश को किसी विश्वविद्यालय से मिलता, पेड़ के नीचे नहीं. प्रतिभा पुस्तकों से अगर मिलने लगती तो क्रिकेट साहित्य पढ़कर सचिन तेंदुलकर, संगीत शास्र पढ़कर लता मंगेशकर और शतरंज की पुस्तकें पढ़कर आनंद विश्वनाथन हजारों या लाखों की संख्या में आते रहते. ये बात अलग है कि सिर्फ वृक्ष के नीचे बैठने से ही ज्ञान प्राप्त नहीं होता. मूलतः चिंतन, मनन और रिसर्च की प्रवृत्ति के साथ साथ वस्तु, व्यक्ति या घटनाओं का ऑब्जरवेशन महत्वपूर्ण है.

Creativity is important rather than copy and paste.

शायद इसलिए भी रचनाकार वही करिश्मा बार बार नहीं दोहरा पाते क्योंकि वे नया रचने का जोखिम लेने से बचना चाहते हैं. तो जो हिट हुआ है, उसकी सीरीज़ बनाते रहते हैं और पैसे कमाते रहते हैं पर ये तो वणिकता है, रचनात्मकता नहीं.

पुस्तकें जानकारियों का संग्रह होती हैं जैसे कि आज के युग में गूगल. पर अविष्कार की ताकत न गूगल में है न ही पोथियों में. वे तो एक बार ही सजीव थीं जब लिखी गईं पर फिर तो जड़ हो गईं और उनसे ज्यादा जड़ता तो उनमें है जो आँख बंद कर वही पढ़े जा रहे हैं, वही रटे जा रहे हैं और वही बोले जा रहे हैं. उससे आगे सोचना बंद कर वही पर्याप्त है ऐसी धारणा बना चुके हैं. ऐसे जड़ लोगों से बेहतर तो वायरस हैं जो अपने आपको निरंतर अपडेट करते रहते हैं. ओमिक्रान, कोरोना का अपडेट है. मनुष्य जब तक वेक्सीन बनाकर, टेस्ट करने के बाद पूर्ण वेक्सीनेशन तक पहुंचेगा, उससे पहले ही ये अपना अगला वरस  वर्जन लेकर मार्केट में आ जाते हैं. तुम डाल डाल हम पात पात. हमारे पास तो कहावतें भी पीढ़ियों पुरानी हैं.

सनातन का प्रयोग तो धर्म नामक शब्द के साथ ज्यादा प्रचलित है जिसका भावार्थ यही है कि जो सदा नूतन हो, नदी के समान प्रवाहित होता रहे न कि कुंये के समान जड़ रहे.  कुयें की इसी जड़ता से शब्द बना है “कूपमंडूकता ” गहरा पर चारों तरफ से घिरा हुआ. याने बंधन, प्रोटोकॉल, सीमा को ही अंतिम क्षमता मान लेने की मानसिकता. इसलिये ही कुएं की नहीं नदियों की पूजा होती है, उन्हें माता का सम्मान दिया जाता है, पवित्रता का पर्याय माना जाता है,  स्थिरता नहीं बल्कि प्रवाह, निरंतरता, नूतनता ही सम्मान पाते है. क्योंकि ये सीमाओं के बंधनों से मुक्त हैं. संपूर्ण अंतरिक्ष गतिशील है और समय भी.ये गतिशीलता ही जीवन है और जीवन का सत्य भी. Move on बहुत नयी तो नहीं पर बहुत पुरानी कहावत भी नहीं है.

सुप्रभात, आपके जीवन में नूतनता से भरा दिवस शुभ हो.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 165 ☆ तीर्थाटन – 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 165 ☆ तीर्थाटन – 2 ☆?

गतांक में हमने विभिन्न ग्रंथों में वर्णित व्याख्या के आधार पर तीर्थाटन के धार्मिक, आध्यात्मिक महत्व को समझने का प्रयास किया था। सनातन दर्शन पग-पग पर विराट है। जंगम, स्थावर तथा मानस तीर्थों में वर्गीकरण इसी विराट की प्रतीति है। तीन शब्दों में वर्गीकृत यह सीमित, तीनों लोक नाप लेने जैसा असीमित है। आज हम सर्वसामान्य व्यक्ति द्वारा अनुभूत तीर्थ के महत्व की चर्चा करेंगे।

1) सभी तीर्थ जलवायु की दृष्टि से बेहद उपयोगी स्थान हैं। इनमें से अधिकांश स्थानों पर नदी का जल स्वास्थ्यप्रद है। अनेक प्राकृतिक लवण पाये जाते हैं जिससे जल सुपाच्य और औषधि का काम करता है। विशेषकर गंगाजल को संजीवनी यों ही नहीं कहा गया। बढ़ती जनसंख्या, प्रदूषण, उचित रखरखाव के अभाव ने अनेक स्थानों पर तीर्थ की अवस्था पहले जैसी नहीं रहने दी है तथापि गंगा का अमृतवाहिनी स्वरूप आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है।

2) तीर्थयात्रा को पदयात्रा से जोड़ने की उदात्त दृष्टि हमारे पूर्वजों की रही। आयुर्वेद इसे प्रमेह चिकित्सा कहता है। पैदल चलने से विशेषकर कमर के नीचे के अंग पुष्ट होते हैं। पूरे शरीर में ऊर्जा का प्रवाह होता है। भूख अच्छी लगती है, पाचन संस्थान प्रभावी रूप से काम करता है।

3) व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करने की कुँजी है तीर्थाटन। लोकोक्ति है, ‘जिसके पैर फटे न बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई!’ तीर्थाटन में अच्छे-बुरे, अनुकूल-प्रतिकूल सभी तरह के अनुभव होते हैं। अनुभव से अर्जित ज्ञान, किताबी ज्ञान से अनेक गुना प्रभावी, सच्चा और सदा स्मरण रहनेवाला होता है। इस आलेख के लेखक की एक चर्चित कविता की पंक्तियाँ हैं,

उसने पढ़ी
आदमी पर लिखी किताबें,
मैं आदमी को पढ़ता रहा..!

तीर्थाटन में नये लोग मिलते हैं। यह पढ़ना-पढ़ाना जीवन को स्थाई सीख देता है।

4) संग से संघ बनता है। तीर्थाटन में मनुष्य साथ आता है। इनमें वृद्धों की बड़ी संख्या होती है। सत्य यह है कि अधिकांश बुजुर्ग, घर-परिवार-समाज से स्वयं को कटा हुआ अनुभव करते हैं। परस्पर साथ आने से मानसिक विरेचन होता है, संवाद होता है। मनुष्य दुख-सुख बतियाना है, मनुष्य एकात्म होता है। पुनः अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ स्मरण आती हैं,

विवादों की चर्चा में
युग जमते देखे,
आओ संवाद करें,
युगों को
पल में पिघलते देखें..!
मेरे तुम्हारे चुप रहने से
बुढ़ाते रिश्ते देखे,
आओ संवाद करें,
रिश्तो में दौड़ते बच्चे देखें..!

बूढ़ी नसों में बचपन का चैतन्य फूँक देती है तीर्थयात्रा।

5) तीर्थाटन मनुष्य को बाहरी यात्रा के माध्यम से भीतरी यात्रा कराता है। मनुष्य इन स्थानों पर शांत चित्त से पवित्रता का अनुभव करता है। उसके भीतर चिंतन जन्म लेता है जो चेतना के स्तर पर उसे जाग्रत करता है। यह जागृति मनुष्य को संतृप्त की ओर मोड़ती है। अनेक तीर्थ कर चुके अधिकांश लोग शांत, निराभिमानी एवं परोपकारी होते हैं।

6) तीर्थाटन में साधु-संत, महात्मा, विद्वजन का सान्निध्य प्राप्त होता है। यह सान्निध्य मनुष्य की ज्ञानप्राप्ति की जिज्ञासा और पिपासा को न्यूनाधिक शांत करता है। व्यक्ति, सांसारिक और भौतिक विषयों से परे भी विचार करने लगता है।

7) किसी भी अन्य सामुदायिक उत्सव की भाँति तीर्थाटन में भी बड़े पैमाने पर वित्तीय विनिमय होता है, व्यापार बढ़ता है, आर्थिक समृद्धि बढ़ती है। वित्त के साथ-साथ वैचारिक विनिमय, भजन, कीर्तन, प्रवचन, सभा, प्रदर्शनी आदि के माध्यम से मनुष्य समृद्ध एवं प्रगल्भ होता है।

सार है कि संसार से तारता है तीर्थ। विश्वास न हो तो तीर्थाटन करके देखें। ..इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #159 ☆ परखिए नहीं – समझिए ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख परखिए नहीं–समझिए । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 159 ☆

☆ परखिए नहीं–समझिए ☆

जीवन में हमेशा एक-दूसरे को समझने का प्रयत्न करें; परखने का नहीं। संबंध चाहे पति-पत्नी का हो; भाई-भाई का हो; मां-बेटे का हो या दोस्ती का… सब विश्वास पर आधारित हैं, जो आजकल नदारद है। परंंतु हर व्यक्ति को उसी की तलाश है। इसलिए ‘ऐसे संबंध जिनमें शब्द कम और समझ ज्यादा हो; तक़रार कम, प्यार ज़्यादा हो; आशा कम, विश्वास ज़्यादा हो–की दरक़ार हर इंसान को है। वास्तव में जहां प्यार और विश्वास है, वही संबंध सार्थक है, शाश्वत है। समस्त प्राणी जगत् का आधार प्रेम है, जो करुणा का जनक है और एक-दूसरे के प्रति स्नेह, सौहार्द, सहानुभूति व त्याग का भाव ‘सर्वे भवंतु सुखीनाम्’ का प्रेरक है। वास्तव में जहां भावनाओं का सम्मान है, वहां मौन भी शक्तिशाली होता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘खामोशियां भी बोलती हैं और अधिक प्रभावशाली होती हैं।’

यदि भरोसा हो, तो चुप्पी भी समझ में आती है, वरना एक-एक शब्द के अनेक अर्थ निकलने लगते हैं। इस स्थिति में मानव अपना आपा खो बैठता है। वह सब सीमाओं को लाँघ जाता है और मर्यादा के अतिक्रमण करने से अक्सर अर्थ का अनर्थ हो जाता है, जो हमारी नकारात्मक सोच को परिलक्षित करता है, क्योंकि ‘जैसी सोच, वैसा कार्य व्यवहार।’ शायद! इसलिए कहा जाता है कि कई बार हाथी निकल जाता है, पूँछ रह जाती है।

संवाद जीवन-रेखा है और विवाद रिश्तों में अवरोध उत्पन्न करता है, जो वर्षों पुराने संबंधों को पल-भर में मगर की भांति लील जाता है। इतना ही नहीं, वह दीमक की भांति संबंधों की मज़बूत चूलों को हिला कर रख देता है और वे लोग, जिनकी दोस्ती के चर्चे जहान में होते हैं; वे भी एक-दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। उनके अंतर्मन में वह विष-बेल पनप जाती है, जो सुरसा के मुख की मानिंद बढ़ती चली जाती है। इसलिए छोटी-छोटी बातों को बड़ा न किया करें, उससे ज़िंदगी छोटी हो जाती है…बहुत सार्थक संदेश है। परंंतु यह तभी संभव है, जब मानव क्रोध के वक्त रुक जाए और ग़लती के वक्त झुक जाए। ऐसा करने पर ही मानव जीवन में सरलता व असीम आनंद को प्राप्त कर सकता है। सो! मानव को ‘पहले तोलो, फिर बोलो’  अर्थात् सोच-समझ कर बोलने का संदेश दिया गया है। दूसरे शब्दों में तुरंत प्रतिक्रिया देने से मानव मन में दूरियां इस क़दर बढ़ जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है और जीवन-साथी– जो दो जिस्म, एक जान होते हैं; नदी के दो किनारों की भांति हो जाते हैं, जिनका मिलन जीवन-भर संभव नहीं होता। इसलिए बेहतर है कि आप परखिए नहीं, समझिए अर्थात् एक-दूसरे की परीक्षा मत लीजिए और न ही संदेह की दृष्टि से देखिए, क्योंकि संशय, संदेह व शक़ मानव के अजात-शत्रु हैं। वे विश्वास को अपने आसपास भी मंडराने नहीं देते। सो! जहां विश्वास नहीं; सुख, शांति व आनंद कैसे रह सकते हैं? परमात्मा भाग्य नहीं लिखता; जीवन के हर कदम पर हमारी सोच, विचार व कर्म हमारा भाग्य लिखते हैं। इसलिए अपनी सोच सदैव सकारात्मक रखिए। संसार में जो भी अच्छा लगे, उसे ग्रहण कर लीजिए और शेष को नकार दीजिए। परंतु किसी की आलोचना मत कीजिए, आपका जीवन सार्थक हो जाएगा। वे सब आपको मित्र सामान लगेंगे और चहुंओर ‘सबका मंगल होय’ की ध्वनि सुनाई पड़ेगी। जब मानव में यह भावना घर कर लेती है, तो उसके हृदय में व्याप्त स्व-पर व राग-द्वेष की भावनाएं मुंह छुपा लेती हैं अर्थात् सदैव के लिए लुप्त हो जाती हैं और दसों दिशाओं में दिव्य आनंद का साम्राज्य हो जाता है।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। वह हमें किसी के सम्मुख झुकने अर्थात् घुटने नहीं टेकने देता, क्योंकि वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है और दूसरों को नीचा दिखा कर ही सुक़ून पाता है। सुख व्यक्ति के अहं की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की। इसलिए दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण व्यक्ति का जीवन ही सार्थक व सफल होता है। इसलिए मानव को सुख में अहं को निकट नहीं आने देना चाहिए और दु:ख में धैर्य नहीं खोना चाहिए। दोनों परिस्थितियों में सम रहने वाला मानव ही जीवन में अलौकिक आनंद प्राप्त कर सकता है। सो! जीवन में सामंजस्य तभी पदार्पण कर सकेगा; जब कर्म करने से पहले हमें उसका ज्ञान होगा; तभी हमारी इच्छाएं पूर्ण हो सकेंगी। परंतु जब तक ज्ञान व कर्म का समन्वय नहीं होगा, हमारे जीवन की भटकन समाप्त नहीं होगी और हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होगी। इच्छाएं अनंत है और साधन सीमित। इसलिए हमारे लिए यह निर्णय लेना आवश्यक है कि पहले किस इच्छा की पूर्ति, किस ढंग से की जानी कारग़र है? जब हम सोच-समझकर कार्य करते हैं, तो हमें निराशा का सामना नहीं करना पड़ता; जीवन में संतुलन व समन्वय बना रहता है।

संतोष सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम धन है। इसलिए हमें जो भी मिला है, उसमें संतोष करना आवश्यक है। दूसरों की थाली में तो सदा घी अधिक दिखाई देता है। उसे देखकर हमें अपने भाग्य को कोसना नहीं चाहिए, क्योंकि मानव को समय से पहले और भाग्य से अधिक कभी, कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। संतोष अनमोल पूंजी है और मानव की धरोहर है। ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान,’ रहीम जी की यह पंक्ति इस तथ्य की ओर इंगित करती है कि संतोष के जीवन में पदार्पण करते ही सभी इच्छाओं का शमन स्वतः हो जाता है। उसे सब धन धूलि के समान लगते हैं और मानव आत्मकेंद्रित हो जाता है। उस स्थिति में वह आत्मावलोकन करता है तथा दैवीय व अलौकिक आनंद में डूबा रहता है; उसके हृदय की भटकन व उद्वेलन शांत हो जाता है। वह माया-मोह के बंधनों में लिप्त नहीं होता तथा निंदा-स्तुति से बहुत ऊपर उठ जाता है। यह आत्मा-परमात्मा के तादात्म्य की स्थिति है, जिसमें मानव को सम्पूर्ण विश्व तथा प्रकृति के कण-कण में परमात्म-सत्ता का आभास होता है। वैसे आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत है। संसार में सब कुछ मिथ्या है, परंतु वह माया के कारण सत्य भासता है। इसलिए हमें तुच्छ स्वार्थों का त्याग कर सुक़ून व अलौकिक आनन्द प्राप्त करने का अनवरत प्रयास करना चाहिए। इसके लिए आवश्यकता है उदार व विशाल दृष्टिकोण की, क्योंकि संकीर्णता हमारे अंतर्मन में व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों को पोषित करती है। संसार में जो अच्छा है, उसे सहेजना बेहतर है और जो बुरा है, उसका त्याग करना बेहतर है। इस प्रकार आप बुराइयों से ऊपर उठ सकते हैं। उस स्थिति में संसार आपको सुखों का सागर प्रतीत होगा; प्रकृति आपको ऊर्जस्वित करेगी और चहुंओर अनहद नाद का स्वर सुनाई पड़ेगा।

अंत में मैं कहना चाहूंगी कि जीवन में दूसरों की परीक्षा मत लीजिए, क्योंकि परखने से आपको दोष अधिक दिखाई पड़ेंगे। इसलिए केवल अच्छाई को देखिए ;आपके चारों ओर आनंद की वर्षा होने लगेगी। सो! दूसरों की भावनाओं को समझने और उनकी बेरुखी का कारण जानने का प्रयास कीजिए। जितना आप उन्हें समझेंगे, आपकी दोष-दर्शन की प्रवृत्ति का अंत हो जाएगा। इंसान ग़लतियों का पुतला है और कोई भी इंसान पूर्ण नहीं है। फूल व कांटे सदैव साथ-साथ रहते हैं, उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। सृष्टि में जो भी घटित होता है–मात्र किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं; सबके मंगल के लिए कारग़र व उपयोगी सिद्ध होता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

29.8.22

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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