हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 151 ☆ सादी पोशाक के सैनिक – 1 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

संजय उवाच # 151 ☆ सादी पोशाक के सैनिक 🇮🇳 – 1 ?

आज़ादी का अमृत महोत्सव चल रहा है। 13 अगस्त से ‘हर घर तिरंगा’ अभियान भी आरंभ हो चुका है। देश का सम्मान है तिरंगा। इस तिरंगे को प्राप्त करने के लिए अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना बलिदान दिया है। राष्ट्रध्वज की शान बनाए रखने के लिए 1947 से अब तक हज़ारों सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए हैं।  सैनिक शब्द के साथ ही सेना की पोशाक पहने ऐसे पुरुष या स्त्री का चित्र उभरता है जिसके लिए हर नागरिक के मन में अपार आदर और विश्वास है।

सेना की पोशाक पहन सकने का सौभाग्य हरेक को प्राप्त नहीं होता। इस सौभाग्य का अधिकारी सैनिक तो सदा वंदनीय है ही, साथ ही देश के हर नागरिक में भी एक सैनिक बसता है, फिर चाहे उसने सेना की पोशाक पहनी हो या नहीं। सादी पोशाक के ऐसे ही एक सैनिक का उल्लेख आज यहाँ  करेंगे जिसने पिछले दिनों अपनी कर्तव्यपरायणता से देश और मानवता की सर्वोच्च सेवा की।

पैंतालीस वर्षीय इस सेवादार का नाम था जालिंदर रंगराव पवार। जालिंदर, सातारा के खटाव तहसील के पलशी गाँव के निवासी थे। वे  महाराष्ट्र राज्य परिवहन महामंडल की बस में ड्राइवर की नौकरी पर थे। 3 अगस्त 2022 को वे पुणे से 25 यात्रियों को बस में लेकर म्हसवड नामक स्थान के लिए निकले। अभी लगभग 50 किलोमीटर की दूरी ही तय हुई थी कि उन्हें तेज़ चक्कर आने लगे। क्षण भर में आने वाली विपदा को उन्होंने अनुभव कर लिया। गति किसी तरह धीमी करते हुए महामार्ग से हटाकर बस एक तरफ रोक दी। बस रुकते ही स्टेयरिंग पर सिर रख कर सो गए और उसके बाद फिर कभी नहीं उठे। बाद में जाँच से पता चला कि तीव्र हृदयाघात के कारण उनकी मृत्यु हुई थी। अपने जाने की आहट सुनते ही बस में सवार  यात्रियों की जान का विचार करना, बस को हाईवे से हटाकर रास्ते के किनारे खड़ा कर भीषण दुर्घटना की आशंका को समाप्त करना, न केवल अकल्पनीय साहस है अपितु मनुष्यता का उत्तुंग सोपान भी है। 

सैनिक अपने देश और देश के नागरिकों की रक्षा करते हुए सर्वोच्च बलिदान देता है। जालिंदर रंगनाथ पवार ने भी अपने कर्तव्य का निर्वहन किया, नागरिकों के जीवन की रक्षा की और मृत्यु से पूर्व सैनिक-सा जीवन जी लिया।

आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए सीमा पर अपना बलिदान देने वाले सैनिकों, आतंकवादियों से मुठभेड़ करते हुए हमें बचाने के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले सैनिकों, सेना की पोशाक में राष्ट्र की रक्षा के लिए खड़े सैनिकों को नमन करने के साथ-साथ सादी पोशाक के इन सैनिकों को भी सैल्युट अवश्य कीजिएगा।

आज़ादी के अमृत महोत्सव की शुभकामनाएँ। जय हिंद।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ दुख का मूल तृष्णा॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ दुख का मूल तृष्णा ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

महात्मा बुद्ध ने अपने गहन, अध्ययन, मनन और चिन्तन के बाद यह बताया कि संसार में मानव मात्र के दुख का एकमेव कारण तृष्णा है। तृष्णा का शाब्दिक अर्थ है- प्यास। अर्थात् पाने की उत्कट इच्छा। सच है मनुष्य के दुखों का कारण उसकी कामनायें ही तो हैं। कामनायें जो अनन्त हैं और जिन की पुनरावृत्ति भी होती रहती है। कामना जागृत होने पर उसे प्राप्ति की या पूरी करने की प्रक्रिया शुरु हो जाती है। एक के पूरी होते ही दूसरी तृष्णा की उत्पतित होती है। नई तृष्णा की या पुनरावृत्त तृष्णा की पुन: पूर्ति के लिये प्रयत्न होते हैं और मनुष्य जीवन भर अपनी इसी पूर्ति के दुष्चक्र में फंसा हुआ चलता रहता है। इच्छा की पूर्ति न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है, जिससे अज्ञान, मति-भ्रम और अनुचित व्यवहारों की श्रृंखला चल पड़ती है। जिनसे परिणामत: दुख होता है। सारत: समस्त दुखों का मूल तृष्णा है। इसी तृष्णा को आध्यात्मिक चिन्तकों में माया कहा है? माया का सरल अर्थ है वह स्वरूप जो वास्तव में नहीं किन्तु भासता है। जैसे तीव्र गर्मी की दोपहर में रेतीले मैदान पर दूर से देखते पर जलतरंगों का भास होता है, जिसे मृगतृष्णा या मृगमरीचिका कहा जाता है। गहराई से चिन्तन करें तो समझ में आता है कि यह संसार भी कुछ ऐसा ही झूठा है। जो दिखता है वैसा है नहीं। समयचक्र तेजी से परिवर्तन करता चलता है। जो अभी है वह थोड़ी देर के बाद नहीं है। आज का परिदृश्य कल फिर वैसा दिखाई नहीं देता। यह परिवर्तन न केवल ऊपरी बल्कि भीतरी अर्थात् आन्तरिक भी है। मन के भाव भी क्षण-प्रतिक्षण बदलते रहते हैं इससे आज जो जैसा परिलक्षित होता है, कल भी वैसा ही नहीं लगता। यही तो विचारों की क्षणभंगुरता और खोखलापन सिद्ध करता है और यह माया ही सबको भुलावे में डालकर दुखी बनाये हुये है। इसीलिये कबीर महात्मा ने कहा- माया महाठगिनि हम जानी। इस महाठगिनी माया या तृष्णा से बचने के दो ही रास्ते हैं। 1. जो इच्छा हो उसको अपने पुरुषार्थ से पूर्ति कर के उस सुफल का उपभोग कर सुखी हो या 2. तृष्णा की पूर्ति का सामथ्र्य न हो तो इच्छा का परित्याग करना या त्याग करना उस प्रवृत्ति का जिससे मन में प्राप्ति की इच्छायें जन्म लेती हैं। चूंकि सबकुछ, सब परिस्थितियों में सहजता से नहीं मिल पाता इसलिये विचारकों ने त्याग की वृत्ति को प्रधानता दी है। त्याग को भी दो प्रकार से समझा जा सकता है। एक तो विचारों का त्याग अर्थात् विचार का ही न उत्पन्न होना और दूसरा वह संग्रह (वस्तु आदि) जो नई इच्छाओं को उत्पन्न करती है। इसलिये कोई संग्रह ही न किया जाये। इसी भाव की पराकाष्ठा जैन सन्यासियों के आचरण में परिलक्षित होती है कि वे दिगम्बर रहकर जीवन व्यतीत करते हैं। किसी वस्तु को आवश्यक न मान सब कुछ त्याग देते हैं। इसीलिये हमारे यहां त्याग तप और दान की बड़ी महिमा है। सभी धर्मों में परोपकार और दान के लिये यथोचित त्याग करने का उपदेश दिया है। धर्मोपदेश के उपरांत भी किससे कितना त्याग संभव है यह व्यक्ति खुद ही समझ सकता है। जीवन में त्याग के दर्शन को समझकर भी मनुष्य कर्म का पूर्णत: परित्याग नहीं कर सकता। अत: गीता ने इसी को और स्पष्ट करने के लिये कहा है-

‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्’ अर्थात् हे मानव तेरा अधिकार मात्र कर्म पर है उसके परिणाम (फल) पर नहीं, क्योंकि फल तो किसी अन्य शक्ति के हाथ में है इसीलिये तू कर्म तो कर, क्योंकि वह तो तेरा आवश्यक उपक्रम है, किन्तु उसके फल की कामना को त्याग कर जिससे परिणाम चाहे जो भी हो तुझे दुख न हो।

वास्तव में सच्चा सुख त्याग में है। त्याग का अर्थ दान भी और स्वेच्छा का विसर्जन भी लिया जाकर अपना संग्रह बहुजन हिताय, बहुजन७ सुखाय बांटने में सुख और संतोष पाया जा सकता है। कहा है- संतोषं परम सुखम्। 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ प्राकृतिक परिवर्तन ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ प्राकृतिक परिवर्तन ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

यदि हम अपने परिवेश में प्रकृति का बारीक निरीक्षण करें तो देखते हैं कि बस्ती से दूर भी प्रत्येक वृक्ष उचित हवा-पानी और सूर्य का प्रकाश पाकर ऋतु के अनुकूल बढ़ता है, फूलता है, फलता है, छाया देता है और स्वभाववश जनसेवा में अपने फूल अर्पित करता है। यहां तक कि जो उसे पत्थर मारते हैं उन्हें भी अपनी सेवा से उपकृत करता है। अपनी निश्चित अवधि तक जीता है और एक दिन बिना किसी आडम्बर के शांत हो जाता है। अपने द्वारा दी गई सेवा का न तो कोई बखान करता है न ही कोई अभिमान।

उच्च गिरी-श्रृंगों की किसी सघन उपत्यका से कोई अनजान नदी पतली सी जलधारा के रूप में निकलती है। आगे बढ़ती है। कटीली झाडिय़ों से होती चट्टानों पर गिरती-उठती बढ़ती हुई जल संग्रह करके उपजाऊ खेतों को खींचती विभिन्न प्रकार की फसलों का उत्पादन बढ़ाती सदा आगे बढ़ी चलती है। वनों से शहरों में पहुंचाती। उद्योगों, कारखानों को संचालित करने में सहयोग देती, जनसमुदाय से अपने सौंदर्य से अभिभूत करती, कलाकारों को प्रेरणा देती, व्यापार बढ़ाती, लाखों की प्यास बुझाती, अनेकों को आजीविका जुटाती, भरण-पोषण करती, प्राणियों को सुखी बनाती अपनी जीवनयात्रा सागर तक पहुंचकर पूरी करती परन्तु कभी अपनी न तो प्रशंसा करती और न कार्यों का विज्ञापन।

कालचक्र की अपनी गति है। निर्धारित समय पर सभी ऋतुयें आतीं। अपने सुखद आगमन से जनसेवा करतीं। विगत ऋतुओं के संत्रास से सबको बचाती नये-नये फल-फूलों-फसलों को बढ़ाने में योगदान देती और अपने नियमितता में बिना कोई परिवर्तन किये संसार को सरस और सुखद बनाये रखती है।

खास प्राकृतिक परिवेश अपने आकर्षक रूप में नश्वर संसार पर अपनी भूमिका निष्पादित कर जन मन को आनंदित और आप्लावित करने में कोई कोर कसर नहीं रखता। धरती की सजावट और श्रृंगार करता भूमंडल में विविधता व समरसता बनाये रखता है। प्राणिमात्र में नवजीवन का संचार करता पर कभी दर्शकों से कोई मूल्य नहीं लेता।

इसी प्रकार जहां देखो वहां संसार में जहां जो परिवर्तन होते रहते हैं उनमें भी एक यांत्रिक, समरसता, सद्भावना का भाव परिलक्षित होता है। कभी-कभी ऐसा दिखता है उनसे कोई बड़ा नुकसान हो रहा है, परन्तु उससे भी दूरगामी हित लाभ ही होता है, जिसे मनुष्य अपनी सीमित दृष्टि से समझ नहीं पाता। किन्तु यह सब देखकर भी अपने स्वार्थवश मानव मन में लोकहित की भावना का न तो उदय होना परिलक्षित होता है न ही उसके व्यवहार में उदारता नियमितता, कर्मनिष्ठा, पारस्परिक प्रेम व आपसी सहयोग ही बढ़ता दिखाई देता है। छोटे-छोटे प्रकरणों में मनुष्य की आत्म प्रशंसा, अहंकार, द्वेष तथा दूसरों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की प्रवृत्ति ही प्रमुख दिखाई देती है। आज जगह-जगह फैले आतंकवाद, लूट, खसोट, हत्या, अग्निकांड के पीछे मनुष्य मन की दुर्भावना और मैल ही साफ दिखाई देता है। मानव के व्यवहार में मानवता की कमी है। इसी से आज मानव समाज में विश्व व्यापी दुख, अविश्वास और सदाचार की तथा नैतिकता का घोर संकट सा छा गया है। आवश्यकता है कि मनुष्य अपने खुद को समझे अपनी अच्छाइयों को पहचाने और नये समाज के निर्माण के लिये अपनी मानसिकता को बदलने का संकल्प करें तभी दुख और समृद्धि की स्थापना होगी। मनुष्य का मन वास्तव में उसके सारे कर्मों और व्यवहारों का केन्द्र है व उद्गम भी। यदि मन संकल्प कर ले तो संसार में कोई भी परिवर्तन किये जाने में कठिन नहीं है। मन के एक दृढ़ संकल्प से दुनिया से हर व्यवहार बदला जा सकता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #145 ☆ वक्त, मौसम और फ़ितरत ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वक्त, मौसम और फ़ितरत। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 145 ☆

☆ वक्त, मौसम और फ़ितरत

वक्त,मौसम व लोगों की फ़ितरत एक-सी होती है। कौन, कब,कहां बदल जाए– कह नहीं सकते,क्योंकि लोग वक्त देखकर इज़्ज़त देते हैं। सो! वे आपके कभी नहीं हो सकते, क्योंकि वक्त देखकर तो सिर्फ़ स्वार्थ-सिद्धि की जा सकती है; रिश्ते नहीं निभाए जा सकते। वक्त परिवर्तनशील है; कभी एक-सा नहीं रहता; निरंतर बहता रहता है। भविष्य अनिश्चित् है और उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। ‘कल क्या हो, किसने जाना।’ भले ही ज़िंदगी का सफ़र सुहाना है। परंतु मानव को किसी की मजबूरी व भरोसे का फायदा नहीं उठाना चाहिए, क्योंकि ‘सब दिन ना होत समान।’ नियति प्रबल व अटल है। इसलिए मानव को वर्तमान में जीने का संदेश दिया गया है,क्योंकि भविष्य सदैव वर्तमान के रूप में दस्तक देता है। वक्त के साथ लोगों की सोच,नज़रिया व कार्य-व्यवहार भी बदल जाता है। सो! किसी पर भी भरोसा करना कारग़र नहीं है।

इंसान मौसम की भांति रंग बदलता है। ‘मौसम भी बदलते हैं/ दिन रात बदलते हैं/ यह समाँ बदलता है/ हालात बदलते हैं/ यादों से महज़ दिल को/ मिलता नहीं सुक़ून/ ग़र साथ हो सुरों का/ नग़्मात बदलते हैं।’ मेरी स्वरचित पंक्तियाँ मानव को एहसास दिलाती हैं कि जैसे रात्रि के पश्चात् दिन,पतझड़ के पश्चात् बसंत और दु:ख के पश्चात् सुख का आना निश्चित् व अवश्यंभावी है; उसी प्रकार समय के साथ-साथ मानव की सोच,नज़रिया व जज़्बात भी बदल जाते हैं। अतीत की स्मृतियों में रहने से मानव सदैव अवसाद की स्थिति में रहता है; उसे कभी भी सुक़ून की प्राप्ति नहीं होती। यदि सुरों के साथ संगीत भी हो तो उसका स्वरूप मनभावन हो जाता है और प्रभाव-क्षमता भी चिर-स्थायी हो जाती है। यही जीवन-दर्शन है। जो व्यक्ति इसके अनुसार व्यवहार करता है; उसे कभी आपदाओं का सामना नहीं करना पड़ता।

‘समय अच्छा है,तो सब साथ देते हैं और बुरे वक्त में तो अपना साया भी साथ छोड़ देता है।’ इसलिए मानव को वक्त की महत्ता को स्वीकारना चाहिए। दूसरी ओर आजकल रिश्ते स्वार्थ पर आधारित होते हैं। इसलिए वे विश्वास के क़ाबिल न होने के कारण स्थायी नहीं होते,क्योंकि आजकल मानव धन-संपदा व पद-प्रतिष्ठा देख कर ही दुआ-सलाम करता है। ऐसे रिश्ते छलना होते हैं,क्योंकि वे रिश्ते विश्वास पर आश्रित नहीं होते। विश्वास रिश्तों की नींव है और प्रतिदान प्रेम का पर्याय अर्थात् दूसरा रूप है। स्नेह व समर्पण रिश्तों की संजीवनी है। ज़िंदगी में ज्ञान से अधिक गहरी समझ होनी चाहिए। वास्तव में आपको जानते तो बहुत लोग हैं, परंतु समझते बहुत कम हैं। वास्तव में जो लोग आपको समझते हैं; आपके प्रिय होते हैं और आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पर पक्षधर बन कर खड़े रहते हैं। वे अंतर्मन से आपके साथ जुड़े होते हैं; आपका हित चाहते हैं और जीवन में ऐसे लोगों का मिलना अत्यंत कठिन होता है– वे ही दोस्त कहलाने योग्य होते हैं।

सच्चा साथ देने वालों की बस एक निशानी है कि वे ज़िक्र  नहीं; हमेशा आपकी फ़िक्र करते हैं। उनके जीवन के निश्चित् सिद्धांत होते हैं; जीवन-मूल्य होते हैं, जिनका अनुसरण वे जीवन-भर सहर्ष करते हैं। वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि मानव जीवन क्षणभंगुर है,पंचतत्वों से निर्मित्त है और उसका अंत दो मुट्ठी राख है। ‘कौन किसे याद रखता है/ ख़ाक हो जाने के बाद/ कोयला भी कोयला नहीं रहता/ राख हो जाने के बाद। किस बात का गुमान करते हो/ वाह रे बावरे इंसान/ कुछ भी नहीं बचेगा/ पंचतत्व में विलीन हो जाने के बाद’– यही जीवन का अंतिम सत्य है। इसलिए मानव को यह सीख दी जाती है कि जीवन में भले ही हर मौके का फायदा उठाओ; मगर किसी की मजबूरी व भरोसे का नहीं,क्योंकि ‘सब दिन न होत समान।’ नियति अटल व  बहुत प्रबल है। कल अर्थात् भविष्य के बारे में कोई नहीं जानता। इसलिए किसी की विवशता का लाभ उठाना वाज़िब नहीं,क्योंकि विधाता अर्थात् वक्त पल भर में किसी को अर्श से फर्श पर लाकर पटक देता  है तथा रंक को सिंहासन पर  बैठाने की सामर्थ्य रखता है। इसलिए मानव को सदैव अपनी औक़ात में रहना चाहिए तथा जो निर्धारित सीमाओं का उल्लंघन करता है; मर्यादा का अतिक्रमण करता है,उसका पतन होना होने में समय नहीं लगता।

स्वेट मार्टेन के मतानुसार विश्वास ही हमारा अद्वितीय संबल है, जो हमें मंज़िल पर पहुंचा देता है तथा यह मानव की धरोहर है। किसी का विश्वास तोड़ना सबसे बड़ा पाप है। इसलिए मानव को किसी से विश्वासघात नहीं करना चाहिए, क्योंकि भावनाओं से खिलवाड़ करना उचित नहीं है। सो! यह रिश्तों से निबाह करने का सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम साधन है। संबंध व रिश्ते कभी अपनी मौत नहीं मरते; उनका क़त्ल किया जाता है और उन्हें अंजाम देने वाले हमारे अपने क़रीबी ही होते हैं। इस कलियुग में अपने ही,अपने बनकर, अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं। वास्तव में हम भी वही होते हैं,रिश्ते भी वही होते हैं और बदलता है तो बस समय, एहसास और नज़रिया। परंतु रिश्तों की सिलाई अगर भावनाओं से हुई हो,तो उनका टूटना मुश्किल है और यदि स्वार्थ से हुई है,तो टिकना असंभव है– यही है जीवन का सार।

रिश्तों को क़ायम रखने के लिए मानव को कभी गूंगा,तो कभी बहरा बनना पड़ता है। रिश्ते व नाते मतलब पर चलने वाली रेलगाड़ी है,जिसमें जिसका स्टेशन आता है; उतरता चला जाता है। आजकल संबंध स्वार्थ पर आधारित होते हैं। यह कथन भी सर्वथा सत्य है कि ‘जब विश्वास जुड़ता है, पराए भी अपने हो जाते हैं और जब वह टूटता है तो अपने भी पराए हो जाते हैं।’ वैसे कुछ बातें समझाने पर नहीं,स्वयं पर गुज़र जाने पर समझ में आती हैं। बुद्धिमान व्यक्ति दूसरों के अनुभव से सीखते हैं और मूर्ख व्यक्ति लाख समझाने पर भी नहीं समझते। ‘उजालों में मिल जाएगा कोई/ तलाश उसी की करो/ जो अंधेरों में साथ दे अर्थात् ‘सुख के सब साथी, दु:ख में न कोय।’ सुख में तो बहुत साथी मिल जाते हैं,परंतु दु:ख व ग़मों में साथ देने वाले बहुत कठिनाई से मिलते हैं। वे मौसम की तरह रंग नहीं बदलते; सदा आपके साथ रहते हैं, क्योंकि वे मतलब-परस्त नहीं होते। इसलिए मानव को सदैव यह संदेश दिया जाता है कि रिश्तों का ग़लत इस्तेमाल कभी मत करना,क्योंकि रिश्ते तो बहुत मिल जाएंगे,परंतु अच्छे लोग ज़िंदगी में बार-बार नहीं आएंगे। सो! उनकी परवाह कीजिए; उन्हें समझिए– ज़िंदगी सीधी-सपाट व अच्छी तरह बसर होगी। जीवन में मतभेद भले हो जाएं; मनभेद कभी मत होने दो और मन में मलाल व आँगन में दीवारें मत पनपने दो। संवाद करो,विवाद नहीं तथा जीवन में समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाओ। अहं का त्याग करो, क्योंकि यह मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। इसे अपने हृदय में कभी भी आशियाँ मत बनाने दो। यह दिलों में दरारें उत्पन्न करता है,जिन्हें पाटना मानव के वश में नहीं रहता। सो! परमात्म-सत्ता में विश्वास रखें,क्योंकि वह जानता है कि हमारा ही हमारा हित किसमें है?

वैसे समय के साथ सब कुछ बदल जाता है और मानव शरीर भी पल-प्रतिपल मृत्यु की ओर जाता है। ‘यह किराए का मकान है/ कौन जाने कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे!/ खाली हाथ तू जाएगा’ मेरे स्वरचित गीत की पंक्तियाँ यह एहसास दिलाती हैं कि मानव को इस नश्वर संसार को तज खाली हाथ लौट जाना है। इसलिए उसे मोह-ममता का त्याग कर निस्पृह भाव से जीवन बसर करना चाहिए। ‘अपने क़िरदार की हिफाज़त जान से बढ़कर कीजिए,क्योंकि इसे ज़िंदगी के बाद भी याद किया जाता है अर्थात् मानव अपने सत्कर्मों  से सदैव ज़िंदा रहता है और चिर-स्मरणीय हो जाता है। यह चिरंतन सत्य है कि लोग तो स्वार्थ साधते ही नज़रें फेर लेते हैं।

इसलिए वक्त, मौसम व लोगों की फ़ितरत विश्वसनीय नहीं  होती। यह दुनिया पल-पल रंग बदलती है। इसलिए भरोसा ख़ुद पर रखिए; दूसरों पर नहीं और अपेक्षा भी ख़ुद से कीजिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि जब उम्मीद टूटती है तो बहुत तक़लीफ होती है। मुझे स्मरण है हो रही है स्वरचित गीत की पंक्तियां ‘मोहे ले चल मांझी उस पार/ जहाँ न हो रिश्तों का व्यापार।’ ऐसी मन:स्थिति में मन कभी वृंदावन धाम जाना चाहता है तो कभी गंगा के किनारे जाकर सुक़ून की साँस लेना चाहता है। भगवान बुद्ध ने भी इस संसार को दु:खालय कहा है। इसलिए मानव शांति पाने के लिए प्रभु की शरणागति चाहता है और यह स्थिति तब आती है,जब दूसरे अपने उसे दग़ा दे देते हैं,विश्वासघात करते हैं। ऐसी विषम स्थिति में प्रभु की शरण में ही चिन्ताओं का शमन हो जाता है। विलियम जेम्स के शब्दों में ‘विश्वास उन शक्तियों में से है,जो मनुष्य को जीवित रखती हैं और विश्वास का पूर्ण अभाव ही जीवन का अवसान है।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ प्राकृतिक परिवर्तन ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ प्राकृतिक परिवर्तन ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

यदि हम अपने परिवेश में प्रकृति का बारीक निरीक्षण करें तो देखते हैं कि बस्ती से दूर भी प्रत्येक वृक्ष उचित हवा-पानी और सूर्य का प्रकाश पाकर ऋतु के अनुकूल बढ़ता है, फूलता है, फलता है, छाया देता है और स्वभाववश जनसेवा में अपने फूल अर्पित करता है। यहां तक कि जो उसे पत्थर मारते हैं उन्हें भी अपनी सेवा से उपकृत करता है। अपनी निश्चित अवधि तक जीता है और एक दिन बिना किसी आडम्बर के शांत हो जाता है। अपने द्वारा दी गई सेवा का न तो कोई बखान करता है न ही कोई अभिमान।

उच्च गिरी-श्रृंगों की किसी सघन उपत्यका से कोई अनजान नदी पतली सी जलधारा के रूप में निकलती है। आगे बढ़ती है। कटीली झाडिय़ों से होती चट्टानों पर गिरती-उठती बढ़ती हुई जल संग्रह करके उपजाऊ खेतों को खींचती विभिन्न प्रकार की फसलों का उत्पादन बढ़ाती सदा आगे बढ़ी चलती है। वनों से शहरों में पहुंचाती। उद्योगों, कारखानों को संचालित करने में सहयोग देती, जनसमुदाय से अपने सौंदर्य से अभिभूत करती, कलाकारों को प्रेरणा देती, व्यापार बढ़ाती, लाखों की प्यास बुझाती, अनेकों को आजीविका जुटाती, भरण-पोषण करती, प्राणियों को सुखी बनाती अपनी जीवनयात्रा सागर तक पहुंचकर पूरी करती परन्तु कभी अपनी न तो प्रशंसा करती और न कार्यों का विज्ञापन।

कालचक्र की अपनी गति है। निर्धारित समय पर सभी ऋतुयें आतीं। अपने सुखद आगमन से जनसेवा करतीं। विगत ऋतुओं के संत्रास से सबको बचाती नये-नये फल-फूलों-फसलों को बढ़ाने में योगदान देती और अपने नियमितता में बिना कोई परिवर्तन किये संसार को सरस और सुखद बनाये रखती है।

खास प्राकृतिक परिवेश अपने आकर्षक रूप में नश्वर संसार पर अपनी भूमिका निष्पादित कर जन मन को आनंदित और आप्लावित करने में कोई कोर कसर नहीं रखता। धरती की सजावट और श्रृंगार करता भूमंडल में विविधता व समरसता बनाये रखता है। प्राणिमात्र में नवजीवन का संचार करता पर कभी दर्शकों से कोई मूल्य नहीं लेता।

इसी प्रकार जहां देखो वहां संसार में जहां जो परिवर्तन होते रहते हैं उनमें भी एक यांत्रिक, समरसता, सद्भावना का भाव परिलक्षित होता है। कभी-कभी ऐसा दिखता है उनसे कोई बड़ा नुकसान हो रहा है, परन्तु उससे भी दूरगामी हित लाभ ही होता है, जिसे मनुष्य अपनी सीमित दृष्टि से समझ नहीं पाता। किन्तु यह सब देखकर भी अपने स्वार्थवश मानव मन में लोकहित की भावना का न तो उदय होना परिलक्षित होता है न ही उसके व्यवहार में उदारता नियमितता, कर्मनिष्ठा, पारस्परिक प्रेम व आपसी सहयोग ही बढ़ता दिखाई देता है। छोटे-छोटे प्रकरणों में मनुष्य की आत्म प्रशंसा, अहंकार, द्वेष तथा दूसरों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की प्रवृत्ति ही प्रमुख दिखाई देती है। आज जगह-जगह फैले आतंकवाद, लूट, खसोट, हत्या, अग्निकांड के पीछे मनुष्य मन की दुर्भावना और मैल ही साफ दिखाई देता है। मानव के व्यवहार में मानवता की कमी है। इसी से आज मानव समाज में विश्व व्यापी दुख, अविश्वास और सदाचार की तथा नैतिकता का घोर संकट सा छा गया है। आवश्यकता है कि मनुष्य अपने खुद को समझे अपनी अच्छाइयों को पहचाने और नये समाज के निर्माण के लिये अपनी मानसिकता को बदलने का संकल्प करें तभी दुख और समृद्धि की स्थापना होगी। मनुष्य का मन वास्तव में उसके सारे कर्मों और व्यवहारों का केन्द्र है व उद्गम भी। यदि मन संकल्प कर ले तो संसार में कोई भी परिवर्तन किये जाने में कठिन नहीं है। मन के एक दृढ़ संकल्प से दुनिया से हर व्यवहार बदला जा सकता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ज्योतिष साहित्य ☆ वर्ष 2022 में रक्षाबंधन कब मनाएं ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

स्व परिचय 

मैं एक बहुत साधारण व्यक्ति हूं । मेरा जन्म 1/5 /1958 को बलिया जिले के भीम पट्टी गांव में हुआ था । प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा राजकीय इंटर कॉलेज गोंडा में हुई ।  बाद में मोतीलाल नेहरू रिजिनल इंजीनियरिंग कॉलेज से विद्युत यांत्रिकी में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके उपरांत मैं मध्य प्रदेश विद्युत मंडल में सहायक अभियंता के पद पर पदस्थ हुआ तथा 40 वर्ष की सेवा उपरांत 30 अप्रैल 2020 को मुख्य अभियंता के पद से सेवानिवृत्त हुआ ।

सर्वप्रथम बाल्यावस्था में ही गोंडा में पंडित बृहस्पति पाठक जी से ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त करना प्रारंभ किया । उसके उपरांत सागर आने पर पंडित शिव शंकर पालीवाल जी से ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त किया । वर्तमान में यूट्यूब के चैनल आसरा ज्योतिष को संचालित करता हूं ।  इस चैनल में मेरे द्वारा 43 भविष्यवाणी की गई हैं, जिसमें से एक को छोड़कर बाकी सभी सही निकली। यहां तक की बताई गई तारीख को ही घटना घटित हुई।

(ई-अभिव्यक्ति में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी का हार्दिक स्वागत है। विज्ञान की अन्य विधाओं में भारतीय ज्योतिष शास्त्र की अपना स्थान है। हम अक्सर शुभ कार्यों के लिए शुभ मुहूर्त, शुभ विवाह के लिए सर्वोत्तम कुंडली मिलान आदि करते हैं। हमें प्रसन्नता है कि ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए समय-समय पर अपने ज्योतिष विज्ञान की जानकारी साझा करना स्वीकार किया है। इसके लिए हम सभी आपके हृदयतल से आभारी हैं।

आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर आपका ज्ञानवर्धकआलेख  ‘वर्ष 2022 में रक्षाबंधन कब मनाएं’।)

☆ आलेख ☆ ज्योतिष साहित्य ☆ वर्ष 2022 में रक्षाबंधन कब मनाएं ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ऐसा देखा जा रहा है कि पिछले कुछ वर्षों से हिंदू धर्म के प्रत्येक त्योहार पर त्योहार की तारीख को लेकर बिना बात का बतंगड़ बना कर विभिन्न चैनल और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में फैलाया जाता है । इसका असर हमारे समाज पर तीज त्योहारों के लिए श्रद्धा का भाव में कमी को लेकर दिखाई पड़ता है। कई लोगों को भ्रम है किइस बार भी रक्षाबंधन 11 को है या 12 को, इस संबंध में हम आपको  पंचांग के आधार पर सटीक जानकारी देने का प्रयास कर रहे हैं।  

आप किसी भी पंचांग में देखें इस बार रक्षाबंधन का त्यौहार 11 तारीख को बताया गया है तथा 12 तारीख को दान देने हेतु कहा गया है । ऐसा हमारे सभी त्योहारों में होता है कि जिस दिन त्यौहार है अगर उस दिन आप दान नहीं दे पाए तो उसके अगले भी आप दान दे सके ।

रक्षाबंधन का त्यौहार श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णमासी को श्रवण नक्षत्र में मनाया जाता है । भुवन विजय पंचांग के अनुसार इस वर्ष 11 अगस्त को पूर्णमासी प्रातः काल 9:18 से प्रारंभ हो रही है और 12 तारीख को प्रातः काल 6:59 तक रहेगी । श्रवण नक्षत्र 11 अगस्त को प्रातः काल 6:22 से अगले दिन अर्थात 12 अगस्त को प्रातः काल 4:52 तक है । अतः हम इस बात के लिए विवश है के 11 अगस्त को प्रातः काल 9:18 से अगले दिन 12 तारीख को प्रातः काल काल 4:52 के बीच में रक्षाबंधन का पर्व मनावें ।
कलयुग के कुछ महान विद्वानों ने इसमें यह बताया है कि 11 तारीख को 9:23 से प्रारंभ होगी जो कि रात्रि के 8:09 तक रहेगी । भद्राकाल होने के कारण हम इस दिन रक्षाबंधन का त्यौहार नहीं मना सकते हैं। इन विद्वानों से मेरा कहना है कि उनके अनुसार 8:09 के बाद तो भद्रा काल बिल्कुल ही नहीं रहेगा अतः 8:09 के उपरांत रक्षाबंधन का त्यौहार बिल्कुल मनाया जा सकता है ।

दूसरी बात यह भी है की 11 अगस्त 2022 की संपूर्ण दिन चंद्रमा मकर राशि में रहेगा, एवं चंद्रमा के मकर राशि में होने से भद्रा का वास इस दिन पाताल लोक में रहेगा। पाताल लोक में भद्रा के रहने से यह अशुभ नहीं है ।। इसलिए पूरे दिन सभी लोग अपनी सुविधा के अनुसार राखी बांधकर त्यौहार मना सकते हैं।।

मुहुर्त्त चिन्तामणि के अनुसार जब चंद्रमा कर्क, सिंह, कुंभ या मीन राशि में होता है तब भद्रा का वास पृथ्वी पर होता है. चंद्रमा जब मेष, वृष, मिथुन या वृश्चिक में रहता है तब भद्रा का वास स्वर्गलोक में रहता है. कन्या, तुला, धनु या मकर राशि में चंद्रमा के स्थित होने पर भद्रा पाताल लोक में होती है.

भद्रा जिस लोक में रहती है वही प्रभावी रहती है. इस प्रकार जब चंद्रमा कर्क, सिंह, कुंभ या मीन राशि में होगा तभी वह पृथ्वी पर असर करेगी अन्यथा नही. जब भद्रा स्वर्ग या पाताल लोक में होगी तब वह शुभ फलदायी कहलाएगी.

इसी कारण बस भारतवर्ष के सभी पंचांग में रक्षाबंधन 11 अगस्त को मनाने के लिए कहा गया है तथा 11 अगस्त या 12 अगस्त को आप दान इत्यादि दे सकते हैं ।
मेरा आप सभी से अनुरोध है पंचांग में दी गई जिसके ऊपर त्यौहार मनाए और किसी तरह के भ्रम में ना रहे।

 – ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 175 ☆ स्वतंत्रता बाद हिंदी की प्रगति ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – स्वतंत्रता बाद हिंदी की प्रगति।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 175 ☆  

? आलेख – स्वतंत्रता बाद हिंदी की प्रगति ?

आजादी के बाद विदेशो में हिंदी की प्रगति पर संतोष करना बुरा नहीं है , आज भारतीय डायसपोरा सम्पूर्ण विश्व में फैला मिलता है , मैं अरब देशों से अमेरिका तक बच्चों के साथ घूम आया , जानते बूझते कोशिश कर अंग्रेजी से बचता रहा और मेरा काम चलता चला गया । यद्यपि साहित्यिक हिंदी में बहुत काम जरूरी लगता है। देश के भीतर हिंदी बैल्ट में स्थिति अच्छी है , अन्य क्षेत्रों में हिंदी को लेकर राजनीति हावी लगती है।

हिंदी राजभाषा या राष्ट्रभाषा के रूप में लोकप्रिय हो रही है यह विचारणीय है।स्पष्ट रूप से राष्ट्र भाषा के स्वरूप में हिंदी बेहतर है , राजभाषा में तो गूगल अनुवाद ही सरकारी वेबसाइटो पर मिलते हैं । हिंदी की भाषागत शुद्धता के प्रति जागरूकता आवश्यक है ।

हिंदी की भाषागत शुद्धता के प्रति असावधानी को सहजता से स्वीकार करना हिंदी के व्यापक हित में प्रतीत होती है।

विधिक और प्रशासनिक भाषा के रूप में हिंदी अपनी जटिलता के साथ परिपक्व हुई है । हिंदी की तकनीकी जटिलता को उपयोगकर्ता व्यवहारिक रूप से आज भी स्वीकार नहीं कर सके हैं। आज भी न्यायिक जजमेंट को प्रमाणिक तरीके से समझने में अंग्रेजी कापी में ही आर्डर पढ़ा जाता है।

हिंदी को एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में लोकप्रिय बनाने के लिए शिक्षण और प्रशिक्षण में ध्यान दिया जाना चाहिए । सही व्याकरण के साथ तकनीकी हिंदी का उपयोग कम लोग ही करते दिखते हैं । वैश्विक स्तर पर हिंदी को व्यापक रूप से प्रतिस्थापित करने के लिए आवश्यक है कि जिस देश में प्रवासी भारतीय जा रहे हों , उस देश की भाषा , अंग्रेजी और हिन्दी में समान दक्षता तथा प्रमाणित योग्यता विकसित करने के लिए योग्यता विकसित करने के प्रयास बढ़ाएं जाएं।

हिंदी को सामाजिक न्याय की भाषा के रूप में प्रस्तुत और प्रयुक्त करने की विशेष जरूरत है। महात्मा गांधी ने हिंदी को देश की एकता के सूत्र के रूप में देखा था ।

देवनागरी में विभिन्न भारतीय भाषाओं को लिखना , कम्प्यूटर पर सहज ही स्थानीय भाषाओं व लिपियों के रूपांतरण की तकनीकी सुविधाएं स्वागत योग्य हैं । सरल हिंदी का अधिकाधिक शासकीय कार्यों और व्यवहार में उपयोग सामाजिक न्याय की वाहिका के रूप में हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ाता है।

ज्यों ज्यों नई पीढ़ी का न्यायिक प्रकरणों में हिंदी भाषा में सामर्थ्य बढ़ता जायेगा , संदर्भ दस्तावेज हिंदी में सुलभ होते जायेंगे , हिंदी न्यायालयों में प्रतिस्थापित होती जायेगी ।

आवश्यक है कि ऐसा वातावरण बने कि मौलिक सोच तथा कार्य ही हिंदी में हो , अनूदित साहित्य या दांडिक प्रावधान हिंदी को उसका मौलिक स्थान नहीं दिला सकते। हिंदी की बोलियों या प्रादेशिक भाषाओं का समानांतर विकास हिंदी के व्यापक संवर्धन में सहायक ही सिद्ध होगा । बुनियादी शिक्षा में त्रिभाषा फार्मूला किंचित सफल ही सिद्ध हुआ है । किसी भी अन्य भाषा या बोली की स्वतंत्रता हिंदी के विकास को प्रतिरोधित नहीं कर सकती।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ घरोंदों से खेल ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ घरोंदों से खेल ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

नदी या समुद्र तट की चमकीली आकर्षक रेत पर बच्चों को खेलते और स्वेच्छानुसार मन मोहक घरोंदे बनाते प्राय: सभी ने देखा है। अपने घरोंदों को नये-नये सजीले रूप देकर औरों के बनाये हुये घरोंदों से ज्यादा सुन्दर सिद्ध करने के लिये उन्हें आपस में उलझते और बने हुये को बिगाडक़र परिश्रम से फिर नया बेहतर बनाते भी उन्हें प्राय: देखा जाता है। ऐसा कर वे स्वेच्छानुसार अपने उपलब्ध समय का उपयोग करते रहते भी मनोरम स्वप्नलोक में प्रसन्न दिखाई देते हैं।

पर जैसे ही शाम के अंधेरे की चादर पसरती दिखाई देती है, उन्हें घर लौटने की याद आ जाती है। सभी अपने बनाये सुन्दर निर्माण को जी भरके निहारते और पुलकित होते हैं पर घर लौटने की जल्दी में घुपते अंधेरे में अपने ही हाथों मिटाकर, नये दिन, नई कल्पना से और बढिय़ा बनाने की आशा ले सब मिलकर हंसते उछलते अपने घरों की ओर प्रसन्नतापूर्वक लौट जाते हैं। बच्चों का यह सामान्य स्वभाव ही होता है कि समय और श्रम देकर अपने ही निर्माण को जो सारी मनोकामनाओं के अनुरूप शायद कभी भी नहीं बन पाता, स्वत: ही मिटाकर और अधिक आकर्षक बनाने की क्षमता रख मिटा डालने में कभी दुख का अनुभव नहीं करते बल्कि ऐसा करके वे अधिक खुश होते हैं।

किन्तु कभी क्या सांसारिक जीवन में मानव प्रवृत्ति को भी देखने, पढऩे और समझने का प्रयत्न किया है? जीवन में मनोवांछित सफलता तो शायद ही कभी एकाध भाग्यवान को प्राप्त हो पाती है, अधिकांशजनों को तो इच्छित सफलता शायद दूर ही दिखती है। फिर भी अपने आकस्मिक या संचित प्रयत्नों से भला या बुरा वह जो भी जोड़ पाता या बना पाता है, उससे उसका इतना मोह हो जाता है कि अपने अनुपयोगी निरर्थक संग्रह से भी वह विलग नहीं होना चाहता।

माया-मोह की आपाधापी में जीवन बीतता जाता है और जैसे-जैसे जीवन संध्या उतरती आती है उसकी आसक्ति शायद और अधिक बढ़ती जाती है। वह मन के लोभ व मोह के मनोविकारों के चंगुल में और अधिक फसता जाता दिखाई देता है। इससे वृद्धावस्था में जीवन कठिन और दुखद हो जाता है। साथ ही संपर्क में आनेवाले सभी परिवारजनों की शांति सुख भी विपरीत न दिशा मेें प्रभावित होती दिखाई देती है। जीवन का आनंद नष्ट हो जाता है।

कितना अच्छा होता कि जीवन संध्या के बढ़ते अंधकार में सामान्य संसारीजन भी रेतीले तटों पर खेलने वाले बच्चों की सहज प्रवृत्ति के अनुसार ही अपने आजीवन प्रयत्नों से किये गये निर्माणों और संचयों को जो थोड़े या अधिक भले या बुरे जैसे भी हों बालकों के निर्मित घरोंदों की भांति स्वत: अपने हाथों खुशी खुशी तोडक़र हीं नहीं प्रसन्नता पूर्वक छोडक़र ईश्वर की स्तुति और आरती में अपनी जीवन संध्या को समर्पित करते हुये उदारतापूर्वक मंदिर में प्रसाद वितरण की भांति जनहित में प्रदान कर आंतरिक खुशी का अनुभव करते। जिस परमपिता परमात्मा ने, संसार सागर के सुनहरे रेणुतट पर रहने और खेलने का कृपापूर्वक सुअवसर प्रदान किया, उसके प्रति कृतज्ञता के भाव में रम सकें। संसार सागर के तट पर जिसका ज्योति स्तंभ अंधेरी रात में भटकते जलयानों को अपने प्रकाश से आश्रय प्रदान करने का आमंत्रण देता है, उसके आलोक को समाहित कर अनन्त शाांति का अनुभव करें। तब ही मनुष्य को बच्चों के मन में प्रस्फुटित होने वाली सच्ची खुशी का अनुभव हो सकता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अविराम 1111 – लिखता हूँ, सो जीता हूँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि अविराम 1111 – लिखता हूँ, सो जीता हूँ – संजय भारद्वाज ??

यक्ष प्रश्न है कि कहाँ से आरम्भ करूँ? उत्तर के शोध में में खुद को 2017 में खड़ा पाता हूँ। 1982 के  बाद से लेखन सदा प्रचुर मात्रा में हुआ  पर 2017 से नियमित-सा हो चला।  

कविता, लघुकथा, आलेख, संस्मरण, व्यंग्य, कहानी, नाटक, एकांकी, रेडियो रुपक और ‘उवाच’ के रूप में अभिव्यक्ति जन्म लेती रही। सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव के बाद पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ विभिन्न ऑनलाइन प्लेटफार्मों द्वारा भी पाठकों तक पहुँचने लगी थी। तत्पश्चात जून 2019 में ‘ई-अभिव्यक्ति’ ने ‘संजय उवाच’ को साप्ताहिक रूप से प्रकाशित करना आरम्भ किया। 

फिर सम्पादक आदरणीय बावनकर जी का एक पत्र मिला। पत्र में उन्होंने लिखा था, “आपकी रचनाएँ इतनी हृदयस्पर्शी हैं कि मैं प्रतिदिन उदधृत करना चाहूँगा। जीवन के महाभारत में ‘संजय उवाच’ साप्ताहिक कैसे हो सकता है?” 

‘संजयकोश’ में यों भी लिखना और जीना पर्यायवाची हैं। फलत: इस पत्र की निष्पत्तिस्वरूप ठीक 1111 दिन पहले अर्थात 25 जुलाई 2019 से सोमवार से शनिवार ‘संजय दृष्टि’ के अंतर्गत ‘ई-अभिव्यक्ति’ ने इस अकिंचन के ललित साहित्य को दैनिक रूप से प्रकाशित करना आरम्भ किया। रविवार को ‘संजय उवाच’ प्रकाशित होता रहा।

आज पीछे मुड़कर देखने पर पाता हूँ कि इन 1111 दिनों ने बहुत कुछ दिया। ‘नियमित-सा’ को नियमित होना पड़ा। अलबत्ता नियमित लेखन की अपनी चुनौतियाँ और संभावनाएँ भी होती हैं। नियमित होना अविराम होता है। हर दिन शिल्प और विधा की नई संभावना बनती है तो पाठक को प्रतिदिन कुछ नया देने की चुनौती भी मुँह बाए खड़ी रहती है। अनेक बार पारिवारिक, दैहिक, भावनात्मक कठिनाइयाँ भी होती हैं जो शब्दों के उद्गम पर कुंडली मारकर बैठ जाती हैं। विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि यह कुंडली, भीतर की कुंडलिनी को कभी प्रभावित नहीं कर पाई। माँ शारदा की अनुकंपा ऐसी रही कि लेखनी हाथ में आते ही पथ दिखने लगता और लेखक पथिक बन जाता।

पथ में जो दिखा, पथिक उसे शब्दों में अंकित करने लगा। समय साक्षी है कि ‘संजय’ के पास अपने समय का आँखों देखा हाल सुनाने के अलावा विकल्प होता भी नहीं।  इसी बाध्यता ने कभी लिखवाया-

दिव्य दृष्टि की

विकरालता का भक्ष्य हूँ,

शब्दांकित करने

अपने समय को विवश हूँ,

भूत और भविष्य

मेरी पुतलियों में

पढ़ने आता है काल,

वरद अवध्य हूँ

कालातीत अभिशप्त हूँ!

पथिक ने अनेक बार यात्रा के बीच पोस्ट लिखी और भेजी। कभी किसी आयोजन में मंच पर बैठे-बैठे रचना भीतर किल्लोल करने लगी, तभी लिखी और भेजी। ड्राइविंग में कुछ रचनाओं ने जन्म पाया तो कुछ ट्रैफिक के चलते प्रसूत ही नहीं हो पाईं।

तब भी जो कुछ जन्मा, पाठकों ने उसे अनन्य नेह और अगाध ममत्व प्रदान किया। कुछ टिप्पणियाँ तो ऐसी मिलीं कि लेखक नतमस्तक हो गया।

नतमस्तक भाव से ही कहना चाहूँगा कि लेखन का प्रभाव रचनाकार मित्रों पर भी देखने को मिला। अपनी रचना के अंत में दिनांक और समय लिखने का आरम्भ से स्वभाव रहा। आज प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से जुड़े 90 प्रतिशत से अधिक रचनाकार अपनी रचना का समय और दिनांक लिखने लगे हैं। 

विनम्रता से एक और आयाम की चर्चा करना चाहूँगा। लेखन की इस नियमितता से प्रेरणा लेकर अनेक मित्र नियमित रूप से लिखने लगे। किसी लेखक के लिए यह अनन्य और अद्भुत पारितोषिक है।

आदरणीय हेमंत जी इस नियमितता का कारण और कारक बने। उन्हें हृदय की गहराइयों से अनेकानेक धन्यवाद।

नियमित रूप से अपनी प्रतिक्रिया देनेवाले पाठकों के प्रति आभार। ‘आप हैं सो मैं हूँ।’ मेरा अस्तित्व आपका ऋणी है।

दो हाथोंवाला

साधारण मनुष्य था मैं मित्रो!

तुम्हारी आशा और

तुम्हारे विश्वास ने

मुझे सहस्त्रबाहु कर दिया!

आप सबके ऋण से उऋण होना भी नहीं चाहता। घोर स्वार्थी हूँ। चाहता हूँ कि समय के अंत तक यात्रा करता रहूँ, समय के अंत तक हज़ार हाथों से रचता रहूँ।

 

(लिखता हूँ, सो जीता हूँ।)

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ साहित्य की उपादेयता ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ साहित्य की उपादेयता ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

मनुष्य जिस समाज और जिस परिवेश में रहता है, उससे प्रभावित होता है। उससे सीखता है, समझता है और वैसा ही व्यवहार करता है। समाज के संपर्क में आ अच्छाइयों की सराहना करता है, दुखी जनों के प्रति संवेदनायें प्रकट करता है। जीवन संघर्ष में मनुष्य परिश्रम कर सफलता पाना चाहता है और आनन्द प्राप्ति की आकांक्षा से भावी जीवन के नित नये सपने देखता रहता है।

सतत एकरूपता के संघर्ष से ऊबकर वह कुछ नवलता चाहता है। जैसे रोज-रोज एक से भोजन से मन ऊब जाता है उसे नये स्वाद पाने की चाह रहती है और इसीलिये घरों में गृहणियां नित कुछ नये स्वाद का भोजन तैयार किया करती हैं, वैसे ही दैनिक जीवन में कुछ नया देखने और आनंद पाने को व्यक्ति घर से बाहर घूमने जाता है। नदी का किनारा, कोई बाग बगीचा, कोई सुन्दर दृश्य वाला स्थान या मन बहलाव का साधन उसे ताजगी देता है, स्फूर्ति देता है, थकान दूर करता है, नई प्रेरणा देता है तथा उसकी कार्यक्षमता को बढ़ाता है। इसी दृष्टि से आज पर्यटन का महत्व बढ़ चला है।

यदि व्यक्ति बाहर न जा सके तो उसे बाहर का वातावरण उसी के कक्ष में उपलब्ध हो सके इसी का प्रयास पुस्तकें करती हैं। साहित्यकारों के द्वारा विभिन्न रुचि के ललित साहित्य का सृजन इसी दृष्टि से किया जाता है। ज्ञानवर्धक पुस्तकों से भी नया ज्ञान और जीवन को नई दृष्टि मिलती है। आज सिनेमा, टीवी, रेडियो आदि का भी प्रचार इसी आनंद प्राप्ति के लिये बढ़ गया है। ये सभी पुस्तकों में प्रकाशित साहित्य की भांति ही व्यक्ति को सोचने, समझने, सीखने और मनोरंजन के लिये नये प्रसंग और स्थितियां प्रदान करते हैं।

साहित्यकार अपनी कल्पना से एक नये सुखद संसार का सृजन करता है, इसीलिये उस नये संसार में विचरण कर सुख की अनुभूति के लिये पुस्तकें, कविता, उपन्यास, नाटक, यात्रा वृतांत, निबंध, जीवन गाथायें, वार्तालाप आदि। अपनी रुचि के अनुसार किसी भी विधा में साहित्य रचा जाता है और पाठक अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार चुनकर पुस्तकों को पढ़ता है। सभी रचनाओं का उद्देश्य किन्तु पाठक को आनन्द देना, कोई नया संदेश देना, सोचने समझने को दिशा देना, मन मस्तिष्क को तृप्ति देना या उनका मनोरंजन कर कल्पना लोक की सैर करा प्रसन्नता प्रदान करना ही होता है। यह परिवर्तन कभी-कभी पाठक की जीवनधारा को बदल देने की भी क्षमता रखता है। इसीलिये सत्साहितय को मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ मित्र कहा जाता है और पुस्तकालयों व वाचनालयों को ज्ञान का कोषालय तथा जीवन का सृजनालय कहा जाता है। साहित्य समाज के सात्विक उत्थान, नैतिक जागरण, कल्याण तथा मनोरंजन का अनुपम साधन है। जो कुछ कठिन प्रयत्नों के बाद भी परिवेश में दुर्लभ होता है। वह मनवांछित वातावरण पुस्तकों के माध्यम से कल्पनालोक में अनायास ही पाठक को मिल जाता है, जिसके प्रकाश में अनेकों समस्यायें सरलता से सुलझाई जा सकती हैं। साहित्य की यही सबसे बड़ी उपदेयता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares
image_print