(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – कोई न हारे जिंदगी।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 173 ☆
आलेख – कोई न हारे जिंदगी
गाहे बगाहे युवा छात्र छात्राओ की आत्म हत्या के मामले प्रकाश में आते हैं. ये घटनायें प्रत्येक शहरी के लिये चिंता की बात हैं. वे क्या कारण बन जाते हैं जब अपने परिवार से दूर, पढ़ने के उद्देश्य से शहर आये बच्चे अपना मूल उद्देश्य, परिवार और समाज का प्यार भूलकर मृत्यु को चुन लेते हैं? कभी कोई किसान जिंदगी की दौड़ में लड़खड़ा कर लटक जाता है, तो कभी प्यार में ठुकराये पति पत्नी, प्रेमी प्रेमिका किसी झील में छलांग लगा देते हैं. मौत को जिंदगी से बेहतर मान बैठने की गलती दूसरे दिन के अखबार को अवसाद से भर देती है.
समाज और शहर की जिम्मेदारी इतनी तो बनती है कि हम एक ऐसा खुशनुमा माहौल रच सकें जहाँ सभी सकारतमकता से जीने को प्रेरित हों. जीवन के प्रति ऐसे पलायन वादी दृष्टिकोण रखने लगे लोगों के संगी साथियों के रूप में हममें से कोई न कोई कालेज, होस्टल, घर या कार्य स्थल पर अवश्य उनके साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष हमेशा होता है, जो दुर्घटना के उपरांत साक्ष्य बन कर पोलिस को जानकारी देता है. किंतु उसकी उदासीनता आत्ममुग्धता, पड़ोसी का मन नहीं पढ़ पाती. हम यंत्रवत कैमरे भर नहीं हैं. हम सबकी, प्रत्येक शहरी की व्यक्तिगत जबाबदेही है कि अपने परिवेश में किंचित सूक्ष्म नजर रखें कि किसी को हमसे किसी तरह की मदद, किसी आत्मीय भाव, कुछ समय तो नहीं चाहिये?
प्रगति के लिये, अपने आप में खोये हुये, नम्बरों और घड़ी की सुई के साथ दौड़ लगाते हम कहीं ऐसे प्रगतिशील शहरी तो नहीं बन रहे कि हमारे आस पास कोई मृत्यु को जिंदगी से बेहतर मान रहा है और हम इससे बेखबर भाग रहे हैं. नये घर, नये वाहन, नई नौकरी के इर्द गिर्द यह यंत्रवत दौड़ ही शहर की अच्छी सिटिजनशिप के लिये पर्याप्त नही है. हमारा शहर वह सामाजिक समूह बने जहाँ सामूहिक जागृत चेतना हो, सामूहिक उत्सवी माहौल हो, सामूहिक प्रगति हो. कोई जिंदगी से हताश न हो. इसके लिये किसी संस्था, किसी सरकारी कार्यक्रम की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी महज हममें से हरेक के थोड़े से चैतन्य व्यवहार की आवश्यकता है.
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
पुरानी आदतें जीवन के साथ ही जाती हैं। बचपन में पिताजी रेल यात्रा के प्रस्थान समय से कम से कम दो घंटे पूर्व स्टेशन पर पहुंच जाते थे। हमारा एक समय का भोजन तो प्लेटफार्म पर ही हुआ करता था। अपने जीवन के अंतिम दौर में हमने भी विमानतल पर दो घंटे पूर्व पहुंच कर घर से लाए हुए भोजन का आनंद लिया।
विमान प्रस्थान के चार घंटे पूर्व प्रवेश करने के लिए लंबी लाइन लगी हुई थी। रात्रि के बारह बजे का समय, लाइन में खड़े युवा बहुत परेशान हो रहे थे। हमारे जैसे लोगों को कोई परेशानी नहीं थी, क्योंकि साठ के दशक में राशन की लाइन में घंटो खड़े रहकर पीएल 480 वाला लाल गेहूं घर के लिए लाना पड़ता था।
मन में एक भय अवश्य रहता है, कि कहीं टिकट, पासपोर्ट इत्यादि में कोई कमी ना निकल जाय। ऊपर वाले की कृपा से सब कुछ दो घंटे में हो गया था। विमानतल में भी प्रस्थान के कई प्लेटफार्म होते हैं। उन तक पहुंचने के लिए काफ़ी दूर जाना पड़ता हैं। रास्ते में कस्टम फ्री मदिरा, सिगरेट और अन्य सैंकड़ों दुकानें जिनमें सभी सामान खुला पड़ा हुआ था। कोई शटर, ताले नहीं दिख रहे थे। शायद इसी को रामराज्य कहते हैं। चूँकि दुकानें चौबीसों घंटे खुली रहती हैं, इसलिए चोरी इत्यादि की संभावना कम होती है। वैसे आजकल तो सीसी टीवी कैमरे ही चोरों के लिए सिरदर्द बने हुए हैं। बाजार में इतनी चकाचौंध कि आँखें फट रही थी। अपने प्लेटफार्म पर पहुंच कर इंतजार करने लगे, तभी एक तिपैया वाहन हवाई जहाज के आकार में मदिरा की बिक्री में लगा हुआ था। घूम घूम कर प्लेटफार्म पर बैठे हुए यात्रियों के आकर्षण का केंद्र बन चुका था। हमारा प्लेन भी प्लेटफार्म पर लग गया और हम प्रवेश की लाइन में लग गए। अगले भाग के लिए इंतजार करें। हमने भी तो विगत छः घंटे इंतजार में ही व्यतीत किए हैं।
☆ ॥ जग का पालनकर्ता॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
छत्रपति शिवाजी लोकप्रिय प्रजावत्सल योग्य शासक थे। एक बार उनके राज्य में वर्षा न होने के कारण अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गई। जनता को रोजगार उपलब्ध करा भोजन दे सकने की भावना से उन्होंने कुछ निर्माण कार्य शुरु कराये। हजारों गरीब परिवारों का उससे पेट पलने लगा।
एक दिन महाराज स्वत: निरीक्षण करने के लिये निर्माण स्थल गये। यह देखकर वे फूले न समाये कि भारी संख्या में मजदूर कार्य कर रहे थे। उनके मन में भाव आया कि वे इतने अधिक लोगों को आजीविका प्रदान कर बड़ा उपकार कर रहे हैं। यदि वे निर्माण कार्य शुरु न किये गये होते तो कितनों को भूखा मरना पड़ता। तभी अपनी यात्रा पर निकले उनके गुरु समर्थ स्वामी रामदास अचानक वहां से जाते दिखे। शिवाजी महाराज ने उन्हें विनत प्रणाम किया और बताया कि कैसी उदारता से धनराशि व्यय कर उन्होंने गरीबों के लिये नये निर्माण कार्य शुरु कर उनकी उदरपोषण की व्यवस्था प्रदान की है। गुरुदेव को शिवाजी के कथन में गर्वोक्ति की गंध का आभास हुआ। उस दिन यह सुनकर वे कुछ न बोले। मौन सिर हिला, आशीर्वाद दे वे अपनी यात्रा पर आगे बढ़ गये। एक दिन किसी अन्य क्षेत्र में चल रहे निर्माण कार्य का अवलोकन करने को महाराज के विशेष आमंत्रण पर वे वहां गये। तालाब खुदवाया जा रहा था। बड़ी संख्या में मजदूर कार्य पर थे। उन्होंने गुरुवर को बताया कि राज्य में विभिन्न क्षेत्रों में गरीबों को भोजन देने के लिये ऐसे ही कई कार्य शुरु कराये गये हैं। तालाब के लिये खोदे जाने वाली जमीन में आई एक चट्टान को तुड़वाने का गुरुजी ने निर्देश दिया। शिवाजी महाराज ने गुरु आज्ञा का पालन करते हुये एक मजदूर को चट्टान तोडऩे का आदेश दिया। उसके टूटते ही सबने आश्चर्य से देखा कि उसके बीच में से गीली मिट्टी से उछलकर एक मेंढक बाहर कूदा। मेंढक की ओर उंगली उठाते हुये स्वामी रामदास जी ने शिवाजी से प्रश्न किया- क्या इस मेंढक के पालन-पोषण के लिये भी राजकोष से खर्च किया जाता है? शिवाजी महाराज निरुततर थे। इसका भला वे क्या उत्तर देते? उनका गर्व का भाव चट्टान की भांति ही चूर-चूर हो गया। उन्हें अपनी भूमिका का बोध हुआ। वे समझ गये कि राजा के रूप में प्रजानन की रक्षा, सहायता और प्रतिपालन के लिये शायद वे केवल एक माध्यम हैं। सृष्टि के समस्त प्राणियों की रक्षा और प्रतिपालन तो ईश्वर ही करता है। यदि ऐसा न होता तो चट्टान के भीतर मेंढक सुरक्षित और जीवित कैसे रहता। राजा या शासन तो प्रजा के हित साधन का व्यवस्थापक है। सभी को निरभिमान भाव से अपना कर्तव्य करना उचित है। अपने गुरुदेव के दिये गये सूत्रों को समझकर सत्पथ पर चलने की शक्ति पा शिवाजी युग के इतिहास पुरुष बन यशस्वी शासक हो सके।
☆ ॥ मन का तन पर प्रभाव॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ – यह पुरानी कहावत है। आशय है कि यदि मन प्रसन्न है तो गंगा का सुख घर में ही है। स्नान और शांति की खोज में गंगा जी तक किसी तीर्थस्थल तक जाने की आवश्यकता नहीं होती। जीवन में सभी का व्यक्तिगत अनुभव है कि मन जब खुश रहता है तो सारा वातावरण सुहाना दिखता है और मन की खिन्नता में कुछ भी अच्छा नहीं लगता। खाना, पीना, गाना, बोलना, बताना सभी के प्रति विरक्ति हो जाती है और एक उदासी घेर लेती है। मानव शरीर तो आत्मा का आवरण या वाहन मात्र है। प्रमुख तो वह चेतन आत्मा है जो व्यक्ति को संचालित करती है। सोचती-विचारती है, संकल्प करती है और फिर शरीर को काम के लिये प्रेरित करती है तथा इच्छानुसार कार्य संपादित कराती व फल प्राप्ति कराती है। मन की खुशी से ही तन की खुशी है, तन मन का अनुगमनकर्ता है। मानसिक भावनाओं का शारीरिक क्रियाकलापों पर गहरा असर होता है। यदि किसी ने वार्तालाप के प्रसंग में अपशब्द कहे तो मन उससे दुखी हो जाता है। परिणाम स्वरूप शरीर शिथिल होता है, किसी कार्य को करने से रुचि हट जाती है। व्यक्ति कहता है कि कुछ करने का मूड नहीं है। जीवन में हर क्षेत्र में हमेशा मन का तन से यही गहरा संबंध है, इसलिये एक की अस्वस्थता दूसरे को प्रभावित करती है। यदि शरीर को आकस्मिक चोट लग जाती है या बुखार हो जाता है तो मन की आकुलता बढ़ जाती है। किसी मानसिक कार्य को संपादित करने में मन नहीं लगता। व्यक्ति के दैनिक व्यवहार भी प्रभावित होते हैं।
मन का तन पर और तन का मन पर भारी प्रभाव पड़ता है। बड़े-बड़े कार्य यह तन, मन की खुशी के लिये प्रसन्नतापूर्वक उत्साह और उमंग से संपन्न कर डालता है और विपरीत परिस्थिति में कुछ भी करने में रुचि नहीं रखता। इसलिये कहा है ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ यदि मन किसी संकल्प को पूरा करने को तैयार हैं तो आत्मविश्वास बढ़ा रहता है और कठिनाइयों पर सरलता से विजय पा ली जाती है, परन्तु यदि मन का संकल्प कमजोर है, विचारों में ढीलापन है तो हर युद्ध में जीत मुश्किल है। हार का कारण मन के संकल्प की कमजोरी ही होती है। यदि मन सबल और स्वस्थ है तो कार्य संपादन में साधनों की कमी खटकती नहीं और यदि मन अस्वस्थ है तो सारे साधनों के रहते भी सफलता हाथ से फिसल जाती है। मनोभावों की छाया तन पर स्पष्ट दिखाई देती है। रंगमंच पर अभिनेता के मन में जो भाव प्रधान रूप से उत्पन्न होते हैं उसके चेहरे और हाव भावों में अभिनय के रूप में स्पष्ट झलकते हैं और दर्शक उनकी प्रशंसा करते हैं। अत: मन का तन पर भारी प्रभाव पड़ता है। अब तो भेषज विज्ञान भी यह मानने लगा है कि शरीर की रुग्णता को दूर करने में मन की आशावादिता और प्रसन्नता का बड़ा हाथ होता है। मन से स्वस्थ मरीज को डॉक्टरों द्वारा दी गई दवायें उसे जल्दी स्वस्थ कर देती हैं जबकि अन्यों को अधिक समय लगता है पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्ति में। मन और तन का पारस्परिक गहरा नाता है।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 149 ☆ अतिलोभात्विनश्यति – 1 ☆
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।
दैवासुरसम्पद्विभागयोग का वर्णन करते हुए श्रीमद्भगवद्गीता के 16वें अध्याय के 21वें श्लोक में यह योगेश्वर का उवाच है। भावार्थ है कि काम, क्रोध तथा लोभ आत्मनाश कर नर्क में ढकेलने वाले तीन द्वार हैं। अतः इन तीनों का त्याग कर देना चाहिए।
इनमें से लोभ के विषय में आज विचार करेंगे। विचार करो कि पेट तो भर गया है पर स्वादवश जिह्वा ‘थोड़ा और’, ‘थोड़ा और’ की रट लगाए बैठी है। पेट में जगह ना होने पर भी भोजन ठूँसने का जो परिणाम होता है, उससे लोभ को सरलता से समझा जा सकता है।
लोलुपता, लालच या अधिकाधिक लाभ लेने की वृत्ति धन, प्रसिद्धि, रूप आदि हर क्षेत्र में लागू है। आदमी की आवश्यकताएँ तो मुट्ठी भर हैं पर पर उसकी लोलुपता असीम है।
आवश्यकता और लोलुपता का एक पहलू यह है कि तुम अपने में फ्लैट में आराम से रह रहे हो। 800 स्क्वायर फीट का यह फ्लैट तुम्हारी आवश्यकता के अनुरूप है। इससे अधिक स्पेस नहीं चाहिए तुम्हें पर लोलुपता का आलम यह कि तुम किसी और के लिए कोई स्पेस छोड़ना ही नहीं चाहते। मन के एक कोने में तो बिल्डिंग के सारे फ्लैट अपने नाम कर लेने का लोभ दबा पड़ा है। ध्यान देना कि यह ‘तुम’ केवल तुम नहीं हो, इसमें ‘मैं’, ‘हम’ सभी समाहित हैं।
लोभ ऐसा राक्षस है जिसका पेट कभी नहीं भरता। स्मृति में एक दृष्टांत कौंध रहा है। किसी नगर में एक अत्यंत लोभी व्यक्ति रहा करता था। उसके पास आवश्यकता से अधिक संचय हो चुका था पर तृष्णा थी कि मिटती ही न थी। नित और अधिक धन कमाने की वासना मन में जन्मती और प्रति क्षण अधिक संचय के नये-नये तरीके खोजा करता। इसी उधेड़-बुन में एक दिन वह घोड़े पर सवार होकर जंगल से गुज़र रहा था। विश्राम के लिए एक घने पेड़ के नीचे रुका। घोड़ा घास चरने में लग गया और लोभी विश्राम के बजाय धन बढ़ाने की सोच में। तभी किसीके स्वर ने उसे बुरी तरह से चौंका दिया। स्वर पूछ रहा था- ‘क्या सोच रहे हो?’ घबराए लोभी ने यहाँ- वहाँ देखा तो कोई नहीं था। फिर समझ में आया कि वह वृक्ष ही उस से संवाद कर रहा था। वृक्ष बोला, ‘यदि रातों-रात बहुत अधिक धन पाना चाहते हो तो सुनो। मेरी याने इस पेड़ की जड़ के पास सात कलश गड़े हुए हैं। इनमें से छह औंधे मुँह गड़े हैं जबकि सातवाँ सीधा गड़ा हुआ है। छह कलशों में ऊपर तक सोना भरा है जबकि सातवाँ अभी आधा ही भरा है। यदि तुम सातवाँ कलश सोने से पूरा भर दो तो सारे कलश तुम्हारे हो जाएँगे। हाँ, ध्यान रहे कि यदि तुम कलश नहीं भर सके तो तुम अपने डाले सोने से हाथ धो बैठोगे क्योंकि इस कलश के पेट में जाने के बाद सोना वापस नहीं आता।’
लोभी खुशी से उछल पड़ा। घोड़ा दौड़ाता घर पहुँचा। पत्नी को सारा किस्सा सुनाया। फिर घर में रखा सारा सोना एक बड़ी पोटली में बांधकर जंगल ले आया। उसके पास बहुत सोना था। लोभी को विश्वास था कि इतने सोने से एक नहीं बल्कि दो कलश भी भर सकते हैं। थोड़ी-सी खुदाई के बाद ही उसे एक चमकदार कलश दिखाई देने लगा। घर से लाया सोना थोड़ा-थोड़ा कर उसमें उँड़ेलने लगा। हर बार सोना डालने के बाद झाँक कर देखने की कोशिश करता कि शायद इस बार भर गया हो। अंतत: कलश ने सारा सोना गड़प लिया पर भरा नहीं। लोभी रोने लगा। पेड़ से पूछा, ‘ इतना अधिक सोना था फिर भी यह कलश भरा क्यों नहीं?’ पेड़ ज़ोर- ज़ोर से हँस पड़ा और कहा,’नादान, यह लोभ का कलश है, जो कभी नहीं भरता।’
सच है, लोभ का कलश कभी नहीं भरता। सुभाषित में उतरा सनातन दर्शन कहता है,
लोभ मूलानि पापानि संकटानि तथैव च।
लोभातप्रवर्तते वैरम् अतिलोभात्विनश्यति।
लोभ विनाश का कारण बनता है। संभव हुआ तो आगे के आलेखों में ‘अतिलोभात्विनश्यति’ की विवेचना जारी रखेंगे।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
नाद शब्द का शाब्दिक अर्थ है, अव्यक्तशब्द, ध्वनि, आवाज, यह व्याकरणीय संरचना एवम् शब्द भेद के अनुसार पुल्लिंग है। इसके दो भेद हैं आहद और अनहद नाद यह ऐसी अव्यक्त ध्वनि है जो निरंतर अविराम अनंत अंतरिक्ष में गूंज रही है, जो अव्यक्त है जिसे गहन एकाग्रता और ध्यान में स्थित होने के बाद ही श्रवण किया जा सकता है। यह गीतों का भाव है। यह संगीतो का प्रभाव है। यह ब्रह्म स्वरूप है। इसमें स्तंभन शक्ति समाहित है। सम्मोहन इसका प्रभाव है।
हमारे भाषा साहित्य तथा संगीत की आत्मा नाद ही है। यही नहीं संस्कृत वांग्मय के उद्भट विद्वान महर्षि पाणिनि के चौदह सूत्रों के मूलाधार शिव के डमरू के नाद से ही तो प्रगट हुए हैं। तो वहीं पर मां सरस्वती की वीणा के तारों की झंकार तथा कृष्ण की मुरली अथवा बांसुरी के तानों के सम्मोहन से क्या पशु, क्या पंछी, क्या सारी सृष्टि का जीव जगत कोई भी बच पाया है क्या? क्या गीत और संगीत के सुमधुर सधे स्वर तथा वाद्ययंत्रों के ताल मेल आधारित कर्णपटल से टकराने वाली स्वर लहरी के संम्मोहन से कोई बच पाया है? आखिर ऋषियों मुनियों की शोध, तथा पशु पक्षियों की बोली का मूलाधार शब्द नाद ही तो है। हम तो कोयल तथा पपीहे की कूक में भी संगीत का लय ताल खोज लेते हैं। यह अव्यक्त ब्रह्म स्वरुप भी है वेदों की ऋचाओं में समाहित लयबद्ध सस्वर पाठ की आत्मा भी शब्द नाद ही तो है।
जब वो यज्ञ मंडपों में गूंजती है और उसकी प्रतिध्वनि कर्णपटल से टकराती है तो इसका अर्थ न समझने वाले के भी तन और मन को पवित्र कर देती है। आखिर सामवेद का गान भी तो नाद की ही कोख से पैदा हुआ है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नाद का संबंध सृष्टि के समस्त जीव जगत से जुड़ा हुआ है। यह हमारी संस्कृति और सभ्यता की आत्मा है यह परमात्मा की देन है आखिर ॐ शब्द की ध्वनि में ऐसा क्या है जो मन को अपने आकर्षण से बांध कर स्तंभित कर देता है।
☆ ॥ मोक्ष या मुक्ति॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार मानव जीवन के चार पुरुषार्थ निर्धारित किये गये हैं। ये हैं अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष। पुरुषार्थ से आशय है उन लक्ष्यों का जो व्यक्ति को अपने जीवन में परिश्रम करके प्राप्त करने चाहिये। अर्थ का अभिप्राय धन कमाना, धर्म का आशय धार्मिक मान्यताओं का परिपालन, काम का मतलब जीवन में धर्मानुसार इच्छाओं की पूर्ति करना, सांसारिक आवश्यकताओं और सुखद महत्वाकांक्षाओं की प्राप्ति कर परिवार में रह सुखोपभोग करना तथा अन्तिम मोक्ष का आशय है शरीर में स्थित जीवात्मा को जीवन यात्रा की समाप्ति पर जीवनदाता परमात्मा में एकाकार कर देना।
मोक्ष या मुक्ति क्या है और यह कैसे प्राप्त होता है, हर भारतीय के मन में यह प्रश्न सदा बना रहता है। अधिकांश विचारकों की मान्यता है कि धर्मपरायण पुण्य कार्य करने वाले परोपकारी व्यक्तियों की आत्माओं को मृत्यु के उपरांत मोक्ष मिलता है। इसीलिये लोग पूजा पाठ, दानपुण्य, तीर्थाटन और विभिन्न खर्चीले धार्मिक अनुष्ठान करते रहते हैं। परन्तु ऐसा सब करने से वास्तव में मोक्ष मिलता है या नहीं निश्चित रूप से कोई नहीं जानता। हां, ऋषियों की दृष्टि से देखा जाय तो मनीषा कहती है कि- मोह का क्षय ही मोक्ष है। जीवन में त्याग की प्रतिष्ठा करना तथा तृष्णा वासना और अहंकार के बंधनों को काटकर सरल निर्बंध निर्बाध जीवन जीना ही मुक्ति पाना या मोक्ष है। जो इसी जीवनकाल में पुरुषार्थ से साध्य है।
इस मोक्ष देने वाले ज्ञान का स्वरूप भारतीय दर्शन की विभिन्न विधाओं में भिन्न हो सकता है, किन्तु लक्ष्य सभी का एक ही है- जीवन को सांसारिक माया के बंधनों से मुक्त करना। अध्यात्म ज्ञानियों का कथन है कि मानव जीवन मिला ही इसीलिये है कि व्यक्ति ज्ञान और कर्म की साधना से ऐसे कार्य करे जिससे वह मोक्ष बंधन से छूटकर अपने सृष्टिकर्ता परमात्मा को पा सके।
गीता में भगवान कृष्ण ने जीवन जीने की उस उच्चशैली का जो मोक्ष दिलाती है बड़ा सुन्दर और विशद वर्णन कर अर्जुन को समझाया है। उन्होंने कहा है कि संसार में रहते मनुष्य, जो भी कार्य संपन्न करे उसमें वह उसके कर्ता होने का अभिमान न रखे। जो कुछ संसार में व्यक्तियों के द्वारा समय समय पर संपादित होता है उसका कर्ता वह व्यक्ति नहीं कोई और है। व्यक्ति तो कार्य का एक साधन मात्र है। कर्ता कर्म करते हुये स्वत: अपने बंधनों को काटे। लोभ, मोह, अहंकार से खुद को अलग रखे। परमात्मा शक्ति के अनुग्रह से कार्य के सम्पादित होने की अनुभूति कर सफलता का श्रेय परमपिता के चरणें में समर्पित करे। यदि व्यक्ति ऐसा मन बनाकर जीवन जिये तो मोक्ष का तत्वज्ञान समझ कर वह जीवन में सफलतापूर्वक जी सकता है और दुष्प्रवृत्तियों से अलग रह जीवन में ही मुक्ति या मोक्ष पाने का अनुभव कर सकता है।
☆ ॥ विज्ञापन का युग ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
आज का युग विज्ञापन का युग है। हर वस्तु का महत्व उसके विज्ञापन से बढ़ जाता है। बिना विज्ञापन के अत्यन्त उपयोगी, महत्वपूर्ण व गुणकारी वस्तु भी अनजान और उपेक्षा के अंधकार में दबी रह जाती है। जो बात वस्तु के लिये लागू होती है वही व्यक्ति के लिये भी है। सुयोग्य गुणवान व्यक्तियों को समाज में वह उभार नहीं मिल पाता है जो किसी प्रचार या विज्ञापन से एक अयोग्य व्यक्ति में मिल जाता है और उसकी ख्याति दूर तक फैल जाती है। प्रभावी विज्ञापन से महत्वहीन वस्तु या व्यक्ति बाजार में चमकने लगते हैं। विपणन व्यवस्था की प्रखर नीति से वस्तु के वास्तविक मूल्य से बहुत अधिक उसका मूल्यांकन किया जाने लगता है और उसके भाव बढ़ जाते हैं। विज्ञापन लोगों के मन में एक रुझान या आकर्षण पैदा करता है और उसे पाने की लालसा जगाता है। पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले विज्ञापनों की भाषा और टीवी पर प्रदर्शित किये जाने वाले विज्ञापनों के प्रदर्शन से विज्ञापन के तत्व को समझा जा सकता है। शब्द थोड़े किन्तु आकर्षक और ध्वन्यातक होते हैं। दृश्य ऐसे जो बेधक और मनमोहक होते हैं। विपणन हेतु प्रकाशित की जाने वाली वस्तुओं की गुणवत्ता को प्राय: फिल्म जगत के ऐसे अभिनेता के द्वारा वर्णित कर व्याख्यापित किया जाता है जो जनसाधारण के प्रिय मनबसे होते हैं। आजकल खेल जगत, राजनीति या नृत्य संगीत के क्षेत्र में विख्यात हीरो या हीरोईन का भी इस हेतु उपयोग में विज्ञापनों में रुझान देखा जा रहा है। मनोविज्ञान के तत्वों के आधार पर सुन्दर व आकर्षक विज्ञापन प्रस्तुत करना अब एक कला है जो विपणन की प्रभावी तकनीक के रूप में विकसित हो रही है। नई वस्तु के बाजार में आने के पहले उसके विज्ञापन प्रकाशित किये जाने लगे हैं, ताकि खरीददारों को लुभाकर अनका समुदाय तैयार कर लिया जाय। ऐसे करने से वस्तु के विपणन में सरलता होती है। हर उत्पाद जो बाजार में लाया जाता है, उससे उत्पादक लाभ कमाना चाहता है। यह लाभ वस्तु की बिक्री की मात्रा से संबंधित होता है। जितनी बिक्री बढ़ेगी उतना ही लाभ बढ़ेगा, इसलिये विज्ञापन के विभिन्न साधनों का दिनोंदिन अधिक उपयोग किया जाने लगा है। कहीं भी किसी रास्ते में निकल जाइये, बड़े-बड़े शहरों में प्रमुख भीड़ के स्थानों में बड़े-बड़े होर्डिंग्स देखने को मिलते हैं। ये शहर की सुंदरता और म्यु. कमेटी या कार्पोरेशन की आमदनी के भी स्रोत बन गये हैं। जिन वस्तुओं के विज्ञापन नहीं है उनकी बिक्री भी नहीं हो पाती और जिनके जितने अधिक स्रोतों से विज्ञापन हो रहे हैं उनकी उतनी ही अधिक बिक्री होती है और उनसे लाभ मिलता है। हर उत्पाद के समानान्तर अनेकों उत्पाद बाजार में अनेक विकल्प के रूप में उपलब्ध हैं किन्तु बिक्री उन्हीं की ज्यादा हो रही है जिनके विज्ञापनों ने उपभोक्ताओं का मन मोह लिया है और उत्पाद में गुणवत्ता है। अब तो विश्व-बाजार की संस्कृति का युग है। एक ही कंपनी अपने उत्पाद सारे विश्व में प्रस्तुत कर रही है। अत: विज्ञापन विपणन और भारी लाभ की संभावनायें तेजी से बढ़ी हैं परन्तु उतनी प्रतियोगिता भी बढ़ी है और उद्योगों में संघर्ष भी। बिना विज्ञापन व्यापार अब संभव नहीं।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सहनशक्ति बनाम दण्ड। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 143 ☆
☆ सहनशक्ति बनाम दण्ड ☆
‘युगों -युगों से पुरुष स्त्री को उसकी सहनशीलता के लिए ही दण्डित करता आ रहा है, ‘ महादेवी जी का यह कथन कोटिश: सत्य है, जिसका प्रमाण हमें गीता के इस संदेश से भी मिलता है कि ‘अन्याय करने वाले से अधिक दोषी अन्याय सहन करने वाला होता है’, क्योंकि उसकी सहनशीलता उसे और अधिक ज़ुल्म करने को प्रोत्साहित करती है। इसलिए एक सीमा तक तो सहनशक्ति की महत्ता स्वीकार्य है, परंतु उसे आदत बना लेना कारग़र नहीं है। इसलिए मानव में विरोध व प्रतिकार करने का सामर्थ्य होना आवश्यक है। वास्तव में वह व्यक्ति मृत के समान है, जो ग़लत बात को ग़लत ठहरा कर विरोध नहीं जताता। इसके प्रमुखत: दो कारण हो सकते हैं– आत्मविश्वास की कमी और असीम सहनशीलता। यह दोनों स्थितियां ही भयावह और मानव के लिए घातक हैं। आत्मविश्वास से विहीन मानव का जीवन पशु-तुल्य है, क्योंकि जो आत्मसम्मान की रक्षा नहीं कर सकता; वह परिवार, समाज व देश के लिए क्या करेगा? वह तो धरती पर बोझ है; न उसकी घर-परिवार में इज़्ज़त होती है, न ही समाज में उसे अहमियत प्राप्त होती है। अत्यधिक सहनशीलता के कारण वह शत्रु अर्थात् प्रतिपक्ष के हौसले बुलंद करता है। परिणामत: समाज में आलसी व कायर लोगों की संख्या में इज़ाफा होने लगता है। प्राय: ऐसे लोग संवेदनहीन होते हैं और उनमें साहस व पुरुषत्व का अभाव होता है।
नारी को सदैव दोयम दर्जे का प्राणी स्वीकारा जाता है, क्योंकि उसमें अपना पक्ष रखने का साहस नहीं होता और वह शांत भाव से समझौता करने में विश्वास रखती है। इसके पीछे कारण कुछ भी रहे हों; पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक या उसका समर्पण भाव– सभी नारी को उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देते हैं, जहां वह निरंतर ज़ुल्मों की शिकार होती रहती है। पुरुष दंभ के सम्मुख वह प्रतिकार व विरोध में अपनी आवाज़ नहीं उठा सकती। इस प्रकार पुरुष उस पर हावी होता जाता है और समझ बैठता है कि वह पराश्रिता है; उसमें साहस व आत्म-विश्वास की कमी है। सो! वह उसके साथ मनचाहा व्यवहार करने को स्वतंत्र है। इस प्रकार यह सिलसिला चल निकलता है। अवमानना, तिरस्कार व प्रताड़ना उसके गले के हार अर्थात् विवशता बन जाते हैं और उसके जीने का मक़सद व उपादान बन जाते हैं, जिसे वह नियति स्वीकार अपना जीवन बसर करती रहती है।
यदि हम उक्त तथ्य पर दृष्टिपात करें, तो नियति व स्वीकार्यता-बोध मात्र हमारी कल्पना है, जिसे हम सहजता व स्वेच्छा से अपना लेते हैं। यदि व्यक्ति प्रारंभ से ही ग़लत बात का प्रतिरोध करता है और अपने कर्म को अंजाम देने से पहले सोच-विचार करता है, उसके हर पहलू पर दृष्टिपात करता है– शत्रु के बुलंद हौसलों पर ब्रेक लग जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं, 2007 में प्रकाशित स्वरचित काव्य-संग्रह की अंतिम कविता की पंक्तियां– ‘बहुत ज़ुल्म कर चुके/ अनगिनत बंधनों में बाँध चुके/ मुझ में साहस ‘औ’ आत्म- विश्वास है इतना/ छू सकती हूं मैं/ आकाश की बुलंदियां।’ जी हाँ! यह संदेश है नारी जाति के लिए कि वह सशक्त, सक्षम व समर्थ है। वह आगामी आपदाओं का सामना कर सकती है। परंतु वह पिता, पुत्र व पति के बंधनों में जकड़ी, ज़ुल्मों को मौन रहकर सहन करती रही, क्योंकि उसने अंतर्मन में संचित शक्तियों को पहचाना नहीं था। परंतु अब वह स्वयं को पहचान चुकी है और आकाश की बुलंदियों को छूने में समर्थ है। आज की नारी ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो/ आसमान को’ में झलकता है उसका अदम्य साहस व अटूट विश्वास, जिसके सहारे वह हर कठिन कार्य को कर गुज़रती है और ऐलान करती है कि ‘असंभव शब्द का उसके शब्दकोश में स्थान है ही नहीं; यह शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में पाया जाता है।’
परंतु 21वीं सदी में भी महिलाओं की दशा अत्यंत शोचनीय व दयनीय है। वे आज भी पिता, पति व पुत्र द्वारा प्रताड़ित होती है, क्योंकि तीनों का प्रारंभ ‘प’ से होता है। सो! वे उनके अंकुश से आजीवन मुक्त नहीं हो पाती। घरेलू हिंसा, अपनों द्वारा उसकी अस्मिता पर प्रहार, फ़िरौती, दुष्कर्म, तेज़ाब कांड व हत्या के सुरसा की भांति बढ़ते हादसे उनकी सहनशक्ति के ही दुष्परिणाम हैं। यदि बुराई को प्रारंभ में ही दबाकर समूल नष्ट कर दिया जाता तो परिदृश्य कुछ और ही होता। महिलाएं पहले भी दलित थीं, आज भी हैं और कल भी रहेंगी। उनके अतीत, वर्तमान व भविष्य में कोई परिवर्तन संभव नहीं हो सकता; जब तक वे साहस जुटाकर ज़ुल्म करने वालों का सामना नहीं करेंगी।
वैसे यह नियम बच्चों, युवाओं व वृद्धों सब पर लागू होता है। उन्हें आगामी आपदाओं, विषम व असामान्य परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए, क्योंकि हौसलों के सम्मुख कोई भी टिक नहीं सकता। ‘लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती/ कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।’ सोहनलाल द्विवेदी जी इस कविता के माध्यम से यह संदेश देते हैं कि यदि आप तूफ़ान से डर कर व लहरों के उफ़ान को देख कर अपनी नौका को बीच मंझधार नहीं ले जाओगे तो नौका कैसे पार उतर पाएगी? संघर्ष रूपी अग्नि में तप कर ही सोना कुंदन बनता है। इसलिए कठिन परिस्थितियों के सम्मुख कभी भी घुटने नहीं टेकने चाहिएं तथा मैदान-ए-जंग में मन में इस भाव को प्रबल रखने की दरक़ार है कि ‘तुम कर सकते हो।’ यदि निश्चय दृढ़ हो, हौसले बुलंद हों, दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं। नैपोलियन बोनापार्ट भी यही कहते थे कि असंभव शब्द मूर्खों के शब्द कोश में होता है। इस नकारात्मक भाव को अपने ज़हन में प्रविष्ट न होने दें –’जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि तथा नज़रें बदलते ही नज़ारे बदल जाते हैं और नज़रिया बदलते ज़िंदगी।’ यदि नारी यह संकल्प कर ले कि वह अकारण प्रताड़ना सहन नहीं करेगी और उसका साहसपूर्वक विरोध करेगी, ‘तो क्या’ और अब मैं तुम्हें दिखाऊँगी कि ‘मैं क्या कर सकती हूं।’ उस स्थिति में पुरुष भयभीत हो जायेगा और अपने मिथ्या सम्मान की रक्षा हेतु मर्दांनगी नहीं दिखायेगा। धीरे-धीरे दु:ख भरे दिन बीत जायेंगे व खुशियों की भोर होगी, जहाँ समन्वय, सामंजस्य ही नहीं; समरसता भी होगी और ज़िंदगी रूपी गाड़ी के दोनों पहिए समान गति से दौड़ेंगे।
☆ ॥ सहयोग॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
संकल्प, बल और बुद्धि में एक दिन विवाद हो रहा था। प्रत्येक को अभिमान था कि उसके बिना सफलता की प्राप्ति असंभव है। विवाद समाप्त होने नहीं आ रहा था। बिना किसी योग्य निर्णायक के फैसला कैसे हो? खैर तीनों इस बात पर राजी हुये कि विवेक से इस विषय पर उसका अभिमत जाना जाय। जो वह कहे उसे मान लिया जाय। तीनों विवेक के पास जाकर उन्होंने उससे अपना निर्णय देने की प्रार्थना की। विवेक ने सोचा कि यदि वह किसी एक का नाम लेगा तो उस पर पक्षपात का आरोप लग सकता है और शेष दो आक्रोशित हो सकते हैं। इसलिये उसने प्रत्यक्ष प्रयोग विधि से सबको अपने निर्णय को मान्य कराने का सोचा। वह तीनों को साथ ले गांव में गया। गली में खेलते हुये बालक दिखे। विवेक ने एक को बुला उसे एक टेढ़ी छोटी लोहे की छड़ और वजनदार हथोड़ा दिखाकर जो उसने प्रयोग के लिये साथ रख लिया था, पूछा क्या वह हथौड़े से टेढ़ी छड़ को सीधी कर सकता है? बालक ने खेल समझकर कोशिश की। हथौड़ा वजनदार था इससे वह उसे उठा न सका। इच्छा होते भी बल या शक्ति की कमी के कारण काम न हो सका। आगे बढऩे पर एक श्रमिक एक पेड़ की छाया में लेटा हुआ दिखा। विवेक ने उसे वह टेढ़ी छड़ और हथौड़ा दिखाकर पूछा क्या वह उस छड़ को ठोंककर सीधी कर सकेगा। श्रमिक ने कहा- यह भी क्या कोई बड़ी बात है? पर चूंकि वह भोजन करके थोड़ा विश्राम कर रहा था इसलिये उसने कहा उसका उस समय परिश्रम करने का मन नहीं है। बाद में कर देगा। काम न होने से वे सब और आगे गये। खेत की ओर जाता हुआ एक हष्ट-पुष्ट किसान दिखा। उसके पास पहुंचकर विवेक ने तीनों के समक्ष उससे वह छड़ और हथौड़ा (धन) दिखाकर पूछा कया वह उस छड़ को सीधी कर सकने की कृपा करेगा। उसने कहा- भैया ये भी भला क्या कोई बड़ी बात है? उसने छड़ को वहीं जमीन पर रखकर, मन से उस पर पूरी ताकत से प्रहार किया पर छड़ सीधी न होकर जमीन में धंस गई और धूल उड़ी जो सहसा किसान की आंख में लगी। कार्य सम्पन्न न हो सका क्योंकि किसान ने कार्य संपादित करने के लिये बुद्धि का सही उपयोग नहीं किया। यदि कोई पत्थर या कड़े धरातल पर छड़ को रखकर पीटा जाता तो छड़ सीधी हो गई होती। तीनों प्रकरणों को दिखाकर विवेक ने बताया कि पहले प्रकरण में बालक में बल की कमी थी, दूसरे प्रकरण में श्रमिक में क्षमता तो थी पर संकल्प की कमी थी और तीसरे प्रकरण में किसान में सही बुद्धि की कमी थी। इससे छोटी सी छड़ सीधी नहीं हो सकी। तीनों घटनाओं की विवेचना से तीनों- संकल्प, बल और बुद्धि की समझ में आ गया कि सफलता पाने में किसी एक का विशेष महत्व नहीं है वरन् तीनों के सहयोग और समन्वय का महत्व है। न कोई बड़ा है न छोटा। सभी तीनों समान रूप से महान हैं। सभी को सम्मिलित रूप से श्रेय दिया जाना उचित है। किसी को अपना अभिमान नहीं होना चाहिये। निर्णय को तीनों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया, विवाद समाप्त हो गया।