हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ आध्यात्मिक चेतना आवश्यक ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ आध्यात्मिक चेतना आवश्यक ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

‘मनुष्य’ शब्द सामान्यत: मनुष्य शरीर की आकृति का बोध कराता है, परन्तु साथ ही इसी संदर्भ में उसके सामाजिक व्यवहारों की भी छवि उभरती है। शरीर द्वारा संपादित होने वाले सभी वैयक्तिक तथा सामाजिक व्यवहारों का परिचालन मन और बुद्धि के माध्यम से वह अदृश्य चेतना शक्ति करती है जिसे आत्मा कहते हैं। सम्पूर्ण जीवन भर सोच-विचारों और क्रिया कलापों की उधेड़बुन इसी चेतना का खेल है। यह चेतना सभी छोटे-बड़े प्राणियों में विद्यमान है। बिना इस चेतना या आत्मा के शरीर को शरीर नहीं शव कहा जाता है। मनुष्य तभी तक सक्रिय है जब तक उसके शरीर में आत्मा है। इससे यह बहुत स्पष्ट है कि मनुष्य केवल शरीर नहीं है, शरीर में स्थित अदृश्य आत्मा ही प्रधान है। मृत्यु क्यों होती है? और तब आत्मा इस शरीर को पुराने वस्त्र की भांति छोडक़र कहां और क्यों चली जाती है? यह प्रश्न आदिकाल से अब तक अनुत्तरित है और शायद आगे भी रहे। विभिन्न धर्मावलंबियों, मनीषियों ने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार इस रहस्य के भिन्न-भिन्न उत्तर देने के प्रयास किये हैं, किन्तु गुत्थी सुलझ नहीं पाई है। इसी अनसुलझी गुत्थी को बहुतों ने परमात्मा की माया कहा है। माया ही संसार में जन्म-मरण, सृजन और ध्वंस का चक्र चालू है और प्रत्येक प्राणी इस चक्र में फंसा ऊपर-नीचे घूम रहा है। जीवन यात्रा में शरीर और आत्मा उसके साथ हैं जो एक दूसरे के पूरक हैं। आत्मा सक्षम शक्ति है जो जीवन पथ में आने वाली समस्याओं का निराकरण कर अभिनव मार्ग बना सकती है। शरीर उनका साधन है। जीवन में विविधता है। किन्हीं दो व्यक्तियों के जीवन में समानता से अधिक विभिन्नता है। एक सुखी है दूसरा दुखी, कोई बड़ा है कोई छोटा, एक विचारवान ज्ञानी है, दूसरा अज्ञानी तथा कोई सम्पन्न है तो कोई विपन्न। किन्तु अनेकों विरोधाभासों के बीच भी एक अनुपम समानता है कि संसार का प्रत्येक प्राणी आनंद व सुख की कामना करता है और निरंतर उसी की प्राप्ति के प्रयत्नों में रत दिखता है। सुख प्राप्ति के लिये सही प्रयत्न करने को स्वस्थ शरीर और स्वस्थ संतुलित आत्मा का होना आवश्यक है। शरीर के स्वास्थ्य के लिये तो जानकारी, चिकित्सक, चिकित्सालय और औषधियां उपलब्ध है, किन्तु आत्मा और उसकी रुग्णता की जानकारी बहुत कम को है। बारीकी से अवलोकन करने पर समझ में आता है कि बहुसंख्यक आत्मायें अस्वस्थ हैं। इसी का परिणाम समाज में बढ़ते अनाचार, अत्याचार, दुर्विचार और व्यभिचार हैं जो समाज के कष्टों को बढ़ा रहे हैं और मानवता के विकास में बाधक हैं। स्थिति में सुधार के लिये शरीर और आत्मा का उपचार साथ-साथ होना चाहिये। यही विकास के लिये शरीर को भौतिक स्वास्थ्य तथा सुख-सुविधायें जरूरी हैं, तो उसमें निवास करने वाली शक्ति सवरूपा आत्मा को आध्यात्मिक ज्ञान और पावनता की आवश्यकता है। आज इसी की कमी है। केवल भौतिक विकास के दृष्टिकोण ने आध्यात्मिक विज्ञान के क्षेत्र में आवश्यक रुझान में अवरोध उत्पन्न कर दिया है और जीवन को असंतुलित कर रखा है। भौतिक विचार वाले उदारमना, भ्रातत्वभाव रखने वाले नागरिक उपलब्ध हो सकेंगे तो अनाचारों पर रोक लगाने में सक्षम होंगे। इसलिये प्रत्येक घर परिवार में आध्यात्मिक चेतना का प्रकाश परम आवश्यक है।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ अप्पदीपो भव ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ अप्पदीपो भव ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

‘अप्पदीपोभव’– यह उपदेश था महात्मा बुद्ध का अपने शिष्यों को। इस सूत्र वाक्य का अर्थ है- अपना दीपक आप बनो। संसार में जीवनपथ अज्ञात है, अंधकारपूर्ण है। कोई नहीं जानता कि कल क्या होगा। मनुष्य को यदि ऐसे अंधेरे मार्ग पर यात्रा करनी है, जो अनिवार्य है, तो उसे प्रकाश की बड़ी आवश्यकता है। प्रकाश दीपक से मिलता है। इसलिये उन्होंने उपदेश दिया कि अपना दीपक खुद बनो। किसी अन्य का सहारा चाहना उचित नहीं होगा। दूसरा तो थोड़ी दूर तक ही साथ दे सकेगा। अपने खुद के दीपक से सतत् संपूर्ण रास्ता प्रकाशित करने का भरोसा किया जा सकता है। खुद का प्रकाश होने पर आत्मविश्वास से चला जा सकता है। इस छोटे से गुरुमंत्र में बड़ा अर्थ भांभीर्य है। इस पर जितना चिंतन और इसका मंथन किया जाय उतना ही विस्तृत अर्थ निकलता है, उतना ही आनंद की अनुभूति होती है और आत्मविश्वास बढ़ता है। कार्यक्षेत्र कोई भी हो, काम करने वाले को स्वत: ही अपनी समझदारी से उस कार्य को संपन्न कर सफलता पानी होती है। दूसरे तो केवल दर्शक होते हैं। परिश्रम और आत्मविश्वास ही सफलता दिलाते हैं। इसके लिये काम की सारी तैयारी अपने ज्ञान के प्रकाश में खुद को ही करनी होती है। इसीलिये ज्ञान को प्रकाश का पर्याय कहा गया है। ज्ञान की साधना करना विवेचना कर वास्तविकता को समझना ही अपने ज्ञानदीप को प्रकाशित करना या जगाना है। इसी ज्ञान के प्रकाश में बढक़र जीवन यात्रा के लक्ष्य को पाना आनंददायी होता है। अपना रास्ता खोजने को, खुद ज्ञान प्राप्त करो और उसके प्रकाश में आगे निर्भीक रूप से बढ़ो। ज्ञान ही मुक्ति प्रदाता है। इसलिये आप स्वत: अपना दीपक जलाओ। ज्ञान के समान सहायक और कोई नहीं है। गीता में भी कहा गया है-

‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रं इह विद्यते।’

जो कुछ महात्मा बुद्ध ने अपने अनुभव से अपने शिष्यों को उपदेश में कहा है, प्रकारान्तर से गीता में भी वही बात स्पष्टत: कही गई है-

उद्धरेतात्मना आत्मानं न आत्मानं अवसादयेत्।

आत्मैव हि आत्मनो बन्धु: आत्मैव रिपु आत्मन:॥

अर्थ है- अपना उद्धार खुद करना चाहिये, खुद को पतन के गर्त में गिराना नहीं चाहिये। मनुष्य स्वत: ही अपना मित्र है और स्वत: ही अपना शत्रु है। कठिनाई में, जैसे मित्र अपने मित्र की सहायता कर उसका हित करता करता है वैसे ही अपनी सहायता हिम्मत के साथ खुद करें तो मनुष्य अपना मित्र है और इसके विपरीत, निराश हो कुछ न कर अपनी अवनति का कारण बने तो खुद का शत्रु है। समान परिस्थितियों में दो भिन्न व्यक्तियों के व्यवहारों में यह इस संसार में साफ दिखाई देता है। एक हिम्मत से काम ले सफलता या यश पाता है और दूसरा हिम्मतहार कर चुप बैठ जाता है और विफलता से अपयश का भागी होता है।

व्यक्ति की बुद्धि और कर्म ही उसे ऊंचा उठाते हैं या गिराते हैं। इसलिये मनुष्य को सही ज्ञान का सहारा ले आत्मविश्वास से सोच समझ कर जीवन पथ पर बढऩा चाहिये- अपना दीपक आप बनना चाहिये। ‘मन के जीते जीत है, मन के हारे हार।’ मनस्वी अपने ज्ञान की ज्योति के प्रकाश में ही आगे बढ़ युग में नया इतिहास रचते हैं।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग -2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पारकी अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

पुराने समय में गर्मी की छुट्टियों में यात्रा करना बड़ा कठिन कार्य होता था। ट्रेन की नब्बे दिन अग्रिम टिकट सुविधा का लाभ लेकर टिकट किसी गर्म कोट की जेब में संभाल कर रखने के चक्कर में पच्चीस प्रतिशत राशि से डुप्लीकेट टिकट खरीदने पड़े थे। क्योंकि कोट ड्राई क्लीन करने के लिए, बिना जेब टटोलने पर देने के कारण हमारे हाथ मोटे वाले सोट्टे से पिताश्री द्वारा तोड़ ही डाले गए थे।

आज तो किसी भी पल टैक्सी, हवाई यात्रा की व्यवस्था ऑन लाइन उपलब्ध हों गई हैं।बस पैसा फेंको और तमाशा देखो। जयपुर से सबसे पहले टैक्सी (एक तरफ शुल्क) से दिल्ली की रवानगी की गई। नब्बे के दशक डिलक्स बस में यात्रा करना अमीर परिवार के लोग करते थे या बैंक / सरकारी कर्मचारी प्रशासनिक कारण से यात्रा कर रहे होते थे। विगत दिनों टैक्सी यात्रा के समय बसों का कम दिखना और टैक्सियों का अधिक चलन को हमारी प्रगति का पैमाना भी माना जा सकता हैं।

करीब तीन सौ किलोमीटर के रास्ते में दोनों तरफ सौ से अधिक अच्छे बड़े होटल खुल चुके हैं। इन होटलों में खाने के अलावा अनेक दुकानें भी हैं। जहां पर कपड़े, ग्रह सज्जा और अन्य आवश्यकताओं का सामान उपलब्ध हैं। बच्चों के मुफ्त झूले इत्यादि भी राहगीर को आकर्षित करते हैं। कई होटलों में दरबान आपकी कार का दरवाज़ा खोल/ बंद करने के बाद बक्शीश की उम्मीद से रहता हैं। मुफ्त कार की सफाई भी राहगीर को वहां रुकने की इच्छा प्रबल कर देती हैं। टैक्सी ड्राइवर को मुफ्त भोजन देकर होटल वाले इस खर्चे को यात्री द्वारा खरीदे गए भोजन के बिल में ही तो जोड़ कर अपनी लागत निकाल लेते हैं। सभी  व्यापार करने वाले इस प्रकार की रणनीति अपना कर ही सफल होते हैं।

हमारे टैक्सी चालक ने भी तीव्र गति से हमें दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय विमानतल पर समय पूर्व पहुंचा दिया। अब लेखनी बंद कर रहा हूँ, सुरक्षा जांच के बाद अगले भाग में मिलेंगे।

क्रमशः… 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ चिन्तन का अर्थ ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ चिन्तन का अर्थ ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

चिन्तन का अर्थ है किसी एक विषय पर गम्भीरता से गहन सोच विचार करना। मनुष्य छोटे बड़े जो भी कार्य करता है, उसके पहले उसे सोचना, विचारना अवश्य ही पड़ता है, क्योंकि जो भी काम किया जाता है, उसके भले या बुरे कुछ परिणाम अवश्य होते हैं। भले उद्देश्य को ध्यान में रखकर जो कार्य किये जाते हैं, उनके परिणाम अच्छे होते हैं और कर्ता को भी उनका हित लाभ होता है किन्तु इसके विपरीत जो कार्य किये जाते हैं उनका परिणाम अहितकारी होता है और कर्ता के लिये अपयशकारी होता है। अत: नीति नियम यही है कि हर काम को करने से पहले उसकी रीति और परिणाम को ध्यान में रख विचार किया जावे। विचार से ही योजना बनती है और योजनाबद्ध तरीके से ही कार्य संपन्न होता है। ऐसा कार्य वांच्छित फलदायी होता है। चोर, डाकू, लुटेरे भी सोच विचार कर दुष्टता के अनैतिक कार्य करते हैं। समझदार अन्य लोगों की तो बात ही क्या है।

चिन्तन या सोच विचार का जीवन में बड़ा महत्व है। विचार से ही कर्म को जनम मिलता है। कर्म ही परिणाम देते हैं। अत: जो जैसा काम करता है वैसा ही फल पाता है। इसीलिये कहा है- ‘जो जैसी करनी करे सो वैसो फल पाय’। परन्तु फिर भी दैनिक जीवन में बहुत से लोग विचारों को जो महत्व देना चाहिये वह नहीं देते। इसी से बहुत सी बातें बिगड़ती हैं। आपसी बैरभाव, विद्वेष और लड़ाई झगड़े बिना विचार के सहसा किये गये कार्यों के परिणाम हैं। जो व्यक्ति जितना बड़ा और प्रभाव क्षेत्र उसका जितना विशाल होता है उसके द्वारा किये गये कार्यों का प्रभाव भी उतने ही विशाल क्षेत्र पर पड़ता है। उसका परिणाम भी एक दो व्यक्ति या परिवार तक ही को नहीं भोगना पड़ता वरन आने वाली पीढिय़ों को सदियों तक भोगना पड़ता है। हमारे देश में काश्मीर की समस्या ऐसे ही सहसा बिना गंभीर चिन्तन के उठाये गये कदम का ही शायद दुखदायी परिणाम है।

कर्म ही मनुष्य के भाग्य का निर्माता है। व्यक्ति जैसा सोचता है, वैसा ही करता है। जो जैसा करता है वैसा ही बनता है और वैसा ही फल पाता है, जो उसके भविष्य को बनाता या बिगड़ता है। इसलिये कहा है- ‘बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय।’ एक क्षण की बिना विचार किये कार्य के द्वारा घटित घटना न जाने कितनों के धन-जन की हानि कर देती है। छोटी सी असावधानी बड़ी-बड़ी दुर्घटनाओं को जन्म दे देती है और अनेकों को भावी पीढिय़ों के विनाश के लिये पछताते रहने को विवश कर जाती है।

इसलिये विचार या चिन्तन को उचित महत्व दिया जाना चाहिये। सही सोच विचार से किये जाने वाले कार्यों से ही हितकर परिणामों की आशा की जा सकती है। तभी व्यक्ति परिवार, समाज और राष्ट्र का उद्धार संभव हो सकता है। विचार ही समाज या देश के विकास या विनाश की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। इतिहास इसका प्रमाण है। एक नहीं अनेक उदाहरण हैं, जहां शासक के उचित या अनुचित विचारों ने संबंधित देश के भविष्य को नष्ट किया या सजाया संवारा है। भारत के इतिहास से सम्राट अशोक इसका एक प्रमुख और सुस्पष्ट उदाहरण है। जिसके एक चिनतन ने कलिंग प्रदेश में प्रचण्ड युद्ध और विनाश के ताण्डव को जन्म दिया और युद्ध की विभीषिका से तंग आकर जब उसने अपने कृत्यों पर पुनर्विचार किया तो उसके नये चिन्तन ने उसे शांति का अग्रदूत बनाकर बौद्ध धर्म का अनुशासित महान अप्रतिम प्रचारक बना दिया।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ पाप क्या पुण्य क्या? ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ पाप क्या पुण्य क्या? ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

पाप क्या है और पुण्य क्या है? इस प्रश्न का उत्तर आज भी अनेकों के पास नहीं है, क्योंकि उनकी बुद्धि में इसकी अवधारणा स्पष्ट नहीं है। सामान्यत: व्यवहार में सच बोलना भगवान का भजन-पूजन करना, तीर्थाटन करना, दान देना, पुण्य के कार्य हैं और झूठ बोलना, चोरी करना, अन्य प्राणियों को सताना, अपने निर्धारित कर्तव्यों को न करना पाप है। परन्तु जो प्राय: नित्य देखने में आता है वह इसके विपरीत है। सच बोलना पुण्य कार्य होते हुये सच प्राय: कम ही लोग बोलते हैं और अन्यों का सताना पाप कार्य होते हुये भी अधिकांश लोग मछली, मुर्गी, बकरी को मारकर मांसाहार से अपना पेट भरते हैं। समाज में सात्विकता और सदाचार के दर्शन कम होते हैं, जबकि अत्याचार और दुराचार सर्वत्र परिव्याप्त दिखता है। ऐसा क्यों है? इसका एक मुख्य कारण तो शायद यह है कि मनुष्य के अधिकांश क्रियाकलाप स्वार्थ और सुख की प्रेरणा से संचालित होते हैं और दूसरा यह कि वर्तमान वैज्ञानिक युग में जीवन की आपाधापी में वह अपनी संवेदनायें खो चला है। बुद्धिवादी मनुष्य तत्काल लाभ के कार्यों को प्राथमिकता देने लगा है। वह मानने लगा है कि पुण्य की श्रेणी में परिभाषित कार्यों का लाभ तुरंत तो नहीं मिलता दिखता क्या पता भविष्य में मिले न मिले।

सुदूर अतीत के धर्मप्राण समाज को पाप-पुण्य की मान्य अवधारणाओं ने स्वानुशासित रखने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। धीरे-धीरे अशिक्षा और अज्ञानवश आडम्बरपूर्ण परिपाटियों ने स्थान ले लिया और वर्तमान युग से शिक्षा के प्रभाव से तथा पश्चिमी हवा के प्रवाह से हमारी मान्यताओं में भारी परिवर्तन ला दिये हैं। तर्कशील समाज प्राचीन परिपाटियों को तोडक़र कुछ नया करने में अपना बड़प्पन समझता है और पुरातन मान्यताओं को पिछड़ापन मानने लगा है। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है कि-

‘सभी पुराना बुरा है, सभी नया अवदात

अति नवीनता कर रही आज कई अपघात॥’

वास्तव में पाप-पुण्य की व्याख्या समय और दृष्टिकोण सापेक्ष्य हैं। एक ही कार्य उद्देश्य की भिन्नता से एक परिस्थिति में पाप हो सकता है। जबकि दूसरी परिस्थितियों में पुण्य। उदाहरणार्थ एक व्यक्ति अपने हित के लिये यदि किसी का कत्ल कर देता है तो वह पाप है। कानून भी स्वार्थवश की गई हत्या को जुर्म करार देता है और उसका दण्ड फांसी है। किन्तु दूसरी परिस्थिति में एक ही व्यक्ति समाज या देश हित में आक्रमणकारी अनेकों शत्रुओं की हत्या करता हैं, तो वह पुण्य है। शासन उसे परमवीर चक्र से पुरस्कृत कर सम्मानित करता है। कार्य एक ही है हत्या, किन्तु भिन्न परिस्थितियों में एक पाप है और एक पुण्य। इससे स्पष्ट है कि पाप या पुण्य की भावना उद्देश्य मूलक है। देशकाल के अनुरूप है और जन सामान्य के हित में है। साथ ही समाज को नैतिक और अनुशासित आचरण करने में मार्गदर्शक है। प्रत्येक को अपने और अनुशासित आचरण करने में मार्गदर्शक है। प्रत्येक को अपने कर्तव्यों और दायित्वों का बोध सरलता से इसके माध्यम से दिया जाता रहा है।

प्रत्येक व्यक्ति द्वारा जीवन में अन्य व्यक्तियों तथा समस्त सृष्टि के साथ क्या किया जाना क्या उचित है और क्या अनुचित है, इसकी व्याख्या कर धर्म उचित शिक्षा देता है। कर्तव्य का ही दूसरा नाम धर्म है। प्रत्येक धर्म जनकल्याण के लिये है। इसीलिये हमारे धार्मिक ग्रंथों में पाप-पुण्य की बड़ी सरल और सटीक व्याख्या की गई है-

‘परोपकारं पुण्याय, पापाय परपीडऩम्’

अर्थात् पुण्य पाने के लिये परोपकार करो, दूसरों को पीड़ा देना पाप होता है। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में इसी बात को बोलचाल की भाषा में कहा है-

परहित सरिस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई॥

इस सरल मंत्र को आत्मसात कर यदि जीवन में इस पर सब अमल करें तो विश्व में सर्वत्र सुख-शांति और समृद्धि हो तथा सारे झगड़े समाप्त हो जायें।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 148 ☆ सदाहरी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 148 ☆ सदाहरी ?

आवश्यक मीटिंग में भाग लेने के लिए निकला हूँ। सामान्यतः भीड़भाड़ के मुकाबले तुलनात्मक रूप से कम भीड़ वाली जगह से निकलना मुझे पसंद है, फिर भले ही रास्ता कुछ लंबा ही क्यों ना हो। इसी स्वभाव के चलते भीड़भाड वाले सिग्नल के बजाय बीच की एक गली से निकला। पाया कि जिस भीड़-भड़क्के से बचने के लिए इस गली में प्रवेश किया था, उससे किसी प्रकार की मुक्ति का कोई लक्षण यहाँ भी नहीं दिख रहा है। अनुभव हुआ कि भीड़ के अधिकांश लोग गर्दन ऊँची किये कुछ देख रहे हैं। खरबूज़ों को देखकर खरबूज़े ने रंग बदला और मेरी गरदन भी ऊँची होकर उसी दिशा में देखने लगी।

आँखों ने देखा कि खेल-तमाशा दिखाने वाला एक नट सड़क पर चला जा रहा है। आगे-आगे चलती उसकी पत्नी डफली बजा रही है। अलबत्ता इसमें मजमा जुड़ने जैसी कोई बात नहीं थी। गले से पैंतालीस डिग्री ऊँची उठी आँखों को एकाएक भीड़ जमा होने का कारण मिल गया। नट के सिर पर उसके दस-बारह साल की बेटी रीढ़ की हड्डी सीधी किये खड़ी है। उसके दोनों पैर आपस में लगभग जुड़े हुए हैं । कंधे पर खड़े कलाबाज तो अनेक देखे पर सिर पर खड़े होकर संतुलन साधना आज देख रहा हूँ। बीच-बीच में बिटिया हाथों से कुछ करतब भी दिखा रही है। एकाग्र, लक्ष्यकेंद्रित, दायित्व के बोध से पिता के सिर का बोझ कम करती बेटी।

रुककर फोटो खींचने की स्थिति नहीं थी, अतः मन के पटल पर भीतर के कैमरे ने दृश्य को उकेर दिया। नन्ही आयु में माता-पिता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नहीं अपितु उनके कंधों से भी ऊँचा उठकर रोटी कमाने का दायित्व उठाती बेटी।

वस्तुत: हर हाल में माता-पिता के साथ खड़े होनेवाली बेटियों को अब तक भी समाज से समुचित स्थान नहीं मिला है। कहा जाता है कि हर बेटी के भाग्य में माता-पिता होते हैं पर बेटी का माता-पिता होना सौभाग्य होता है। संचित पुण्य से मिलता है सौभाग्य। बचपन से माँ से सुनता आया हूँ कि पुण्य की जड़ सदा हरी रहती है। ‘सदाहरी’ का उल्लेख हुआ तो इसी शीर्षक की अपनी कविता बरबस याद हो आई-

तपता मरुस्थल / निर्वसन धरती,

सूखा कंठ / झुलसा चेहरा,

चिपचिपा बदन / जलते कदम,

दूर-दूर तक,

शुष्क और / बंजर वातावरण था,

अकस्मात / मेरी बिटिया हँस पड़ी,

अब / लबालब पहाड़ी झरने हैं,

आकंठ तृप्ति है/ कस्तूरी-सा महकता मन है

तलवों में जड़ी मखमल है/ उर्वरा हर रजकण है,

हरित वसन है / धरा पर श्रावण है..!

बेटी का माता-पिता होने का सौभाग्य हर युगल को मिले।..तथास्तु!

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #133 ☆ मानव जीवन में हाथों उपयोगिता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 133 ☆

☆ ‌ मानव जीवन में हाथों उपयोगिता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

हिंदी भाषा में एक  कहावत है कि – हाथ कंगन को आरसी क्या पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या?  जो मानव जीवन में हाथ की महत्ता दर्शाती है ।

सूरदास जी का यह कथन भी हाथ की महत्ता समझाता है जिसके पीछे विवशता, खीझ, तथा चुनौती का भाव स्पष्ट दिखाई देता है।

हाथ छुड़ाये जात हो, निर्बल जानि के मोय।

हृदय से जब जाओ, तो सबल जानूँगा तोय।। 

वैसे तो जीव जब योनियों में पलता है, तो  उसका आकार प्रकार योनि गत जीवन व्यवहार वंशानुगत गुणों के आधार पर तय होता है और शारीरिक संरचना  की बनावट अनुवांशिक गुणों के आधार पर तय होती है। जीव जगत के अनेकों भेद तथा वर्गीकरण है। पौराणिक मान्यता केअनुसार चौरासी लाख योनियां है, जिसमें जलचर, थलचर, नभचर, कीट पतंगों तथा जड़ चेतन आदि है। सबकी शारीरिक बनावट अलग-अलग है। रूप रंग का भी भेद है। हर योनि के जीव की आवश्यकता के अनुसार शारिरिक अंगों का  विकास हुआ है। इसी क्रम में मानव शरीर में हाथ का विकास हुआ, जिसे भाषा साहित्य के अनुसार हस्त, भुजा, पाणि, बाहु, कर, आदि समानार्थी नाम से संबोधित करते हैं।

चक्र हाथ में धारण करने के कारण भगवान विष्णु का नाम चक्रधर तथा चक्रपाणि पड़ा तथा हमारे ‌षोडस संस्कारों में एक प्रमुख संस्कार पाणिग्रहण संस्कार भी है जिससे हमारे जीवन की दशा और दिशा तय होती है। आशीर्वाद की मुद्रा में उठे हुए हाथ जहां व्यक्ति के भीतर अभयदान के साथ प्रसंन्नता प्रदान करता है वहीं दण्ड देने के लिए सबल के उठे हाथ  आश्रितों के हृदय में सुरक्षा का भरोसा दिलाते हैं।

हमारी पौराणिक मान्यता के अनुसार हाथ की बनावट तथा उसकी प्रकृति के बारे में हस्त रेखाएं बहुत कुछ कहती हैं, पौराणिक मान्यताओं अनुसार

कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती।

करमूले स्थ‍ितो ब्रह्मा प्रभाते करदर्शनम्।।

अर्थात् हाथ के अगले भाग में लक्ष्मी, मध्य में  विद्या की देवी सरस्वती तथा कर के मूल में सृष्टि सृजन कर्ता ब्रह्मा का निवास होता है इस लिए प्रभात वेला में उठने के पश्चात अपना हाथ देखने से इंसान मुखदोष दर्शन से बच जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हाथ में ही सूर्य, चंद्रमा, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु आदि नवग्रहों के स्थान  निर्धारित है, जिसके उन्नत अथवा दबे हुए स्थान देख कर व्यक्ति जीवन के भूत भविष्य वर्तमान के घटनाक्रम की भविष्यवाणी की जाती है तथा नवग्रहों की शांति के लिए सबेरे उठ कर हमारे शास्त्रों में नवग्रह वंदना करने का विधान है, ताकि हमारा दिन मंगलमय हो।

ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरांतकारी भानु: शशि भूमि सुतो बुधश्च।

गुरुश्च शुक्र शनि राहु केतव सर्वे ग्रहा शांति करा भवंतु।

हाथ जहां हमारे दैनिक जीवन की नित्य क्रिया संपादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं वहीं हाथ लोकोपकार करते हुए, सबलों से निर्बलों की रक्षा करते हुए उद्धारक की भूमिका भी निभाते हैं, अपराधी को दंडित भी करते हैं। उसमें ही हस्त रेखा का सार छुपा बैठा है।

व्यक्ति  के हाथ के मणिबंध से लेकर उंगली के पोरों तथा नाखूनों की बनावट व रेखाएं देखकर इंसान के जीवन व्यवहार की भविष्यवाणी एक कुशल हस्तरेखा विशेषज्ञ कर सकता है। हाथों का महत्व  मानव जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। तभी किसी विद्वान का मत है कि हाथों की शोभा दान देने से है, कंगन पहनने से नहीं ।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ नर नारी सहयोग ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ नर नारी सहयोग ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

एक सडक़ जंगल से होकर गुजरती थी। वन में सडक़ के किनारे एक पुराना पेड़ था। पेड़ के पास ही बरसात में एक लता उत्पन्न हो गई। वह पेड़ का सहारा लेकर बढ़ चली। उस पेड़ से लिपटकर वह धीरे-धीरे ऊपर बढ़ते हुये पेड़ की ऊंचाई तक पहुंच गई। पेड़ की डालों पर छा गई और फूलने-फलने लगी। जो भी पदयात्री रास्ते से निकलते उनकी दृष्टि वृक्ष पर जाती। बेल के फूल-फलों से वृक्ष बड़ा सुन्दर दिखता था। उस वृक्ष की विशालता से सौंदर्य का भी विस्तार हो रहा था। इस से वृक्ष को अहंकार हो गया कि लता के विकास और सौंदर्य का श्रेय तो उसे ही है। यदि उसने लता को आश्रय न दिया होता तो लता कहां होती और उसका सौंदर्य कहां होता जो सब राह चलने वाले निहार कर खुश होते हैं और प्रशंसा करते हैं। यदि उस का सहारा न मिलता तो लता कब की नष्ट हो गई होती।

उसने एक दिन लता को धमकाते हुये कहा- ‘अरी! ना समझ बेल, इतनी इठलाती क्यों है? मेरी बात मान कर रहा कर नहीं तो मैं तुझे गिराकर मिट्टी में मिला दूंगा।’

जब वह लता को यों डांट रहा था तभी वहां से दो पथिक रास्ते से निकले। वे आगे जा रहे थे। एक ने दूसरे से कहा- ‘बन्धु देख रहे हो, यह सामने वाला ऊंचा पेड़ कितना सुन्दर दिखाई दे रहा है। इसकी छाया कितनी सघन और मोहक है। इसके साथ जो बेल चढ़ी हुई है उसके फूल कितनी अच्छी सुगंध फैला रहे हैं। आओ, इसके नीचे छाया में थोड़ी देर विश्राम कर लें फिर रुक कर आगे चलेंगे।’

उनकी बातें सुन वृक्ष अपना अभिमान भूल गया। उसे पथिकों की बातों से स्पष्ट समझ में आ गया कि उसका अभिमान व्यर्थ है, क्योंकि उन्होंने लता और उसमें लगे फूलों की सुगन्ध से आकर्षित होकर वृक्ष और उसकी छाया की प्रशंसा की थी और वहां पर थोड़ी देर रुकने का मन बनाया था। उसकी प्रशंसा का कारण लता का साथ था। अपने झूठे अभिमान में व्यर्थ ही वह लता को डांट रहा था। यदि लता उसके सहारा से विकसित न हुई होती तो उस पेड़ का सौंदर्य कहां उभरा होता। उसकी प्रशंसा लता के ही कारण संभव हो सकी थी।

कथा का मर्म यह है कि जैसे पेड़ की शोभा लता से है और लता की शोभा व प्रशंसा वृक्ष के सहारे और संग से होती है, वैसे ही समाज में पुरुष और नारी की स्थिति है। उनके साथ और सहयोग से ही दोनों की शोभा, सम्मान और दोनों की पारस्परिक उन्नति होती है। दोनों ही एक दूसरे के सहयोगी तथा पूरक सहचर जीवनयात्री है। प्रत्येक एक दूसरे के परिपूरक हैं। न कोई छोटा है न कोई बड़ा। हां सच में एक के बिना दूसरा अधूरा है। दोनों को एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिये और दोनों को मिलकर रहना चाहिये तभी उनकी शोभा है।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

परमात्मा ने प्रकृति को सृजन, विकास और समृद्धि देने का सामथ्र्य दिया है। एक छोटे से बीज को प्रकृति अपनी गोद में ले अंकुरित और क्रमश: विकसित कर एक विशाल वृक्ष के रूप में उभार प्रदान करती है जो कभी अनेकों श्रान्त पथिकों को छाया, सुरभि और सुमधुर फल देकर सुख और शांति देने वाले बन जाते हैं। प्रकृति उन सबका जो उनसे स्नेह करते हैं, माता के समान पालन-पोषण करती और उन्हें संसार में समृद्धि दे जनसेवा के लिये सुयोग्य और सक्षम बना सुख का वरदान देती है। परन्तु स्वार्थी धनलोलुप मनुष्य ने प्रकृति की गोद में खेलते खाते भी इस तथ्य को नहीं समझा और आधुनिकता के मोह में अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मार ली है। प्रकृति जो परमात्मा की प्राणी मात्र के लिये हितकारी परम शक्ति है, को मनुष्य अपने स्वार्थ के लिये नष्ट करने में लगा है और सुख प्राप्ति के स्थान में नये-नये दुखों को अनजाने में आमंत्रित करता जा रहा है। प्रकृति के उपकारों के प्रति आभारी न होकर अशिष्ट मानव ने उसका केवल दोहन किया है, इसी से आज जल, भूमि, वायु और नभ के प्रदूषणों से पीडि़त है। लोग समझते हैं कि सुख, धन संचय में है, ऊँची अट्टालिकाओं वाले गगनचुंबी भवनों में मोटे प्रतल्पों वाले पलंगों और सोफों में है। साधन सम्पन्न सजे-धजे कमरों में है। इसलिये वह अपना भण्डार जोड़ता जाता है। परन्तु वास्तविकता इससे बहुत भिन्न है। यदि सुख भव्य भवनों और समग्र एकत्रित संसाधनों में होता तो अनेक निवासी उन्हें छोडक़र एक दो दिन के लिये ही सही अपनी कारों में भागकर किसी सौंदर्यपूर्ण प्राकृतिक स्थल, निसर्ग द्वारा सुसमृद्ध वन स्थलों, पहाड़ों और पिकनिक स्पाटों की ओर क्यों जाते?

संसार में जिसने जन्म पाया है, जन्म के साथ ही कुछ विशेष गुण-धर्म भी पाये हैं। उन गुण-धर्मों के विपरीत हठात् प्रयत्नों ने प्राणियों की सुख-शांति को नष्ट कर नई समस्याओं को जन्म दिया है। आज का प्रगतिशील तथाकथित सुसमृद्ध विश्व हर क्षेत्र में इसका सहज अनुभव कर रहा है। परन्तु सात्विक पथ से भटककर आज मनुष्य नये रास्ते पर इतना आगे आ गया है कि अब पुराने पथ पर लौटना ही उसे भटकाव नजर आता है और असंभव भी है।

प्रकृति ने जिस कठोर और कोमल जीवन तंतुओं से विश्व का ताना बाना बुना है, उसका सूक्ष्म निरीक्षण परीक्षण और विश्लेषण बड़ा ही मनोज्ञ एवं आल्हादकारी विषय है। ऐसा क्यों है किसी के गुणधर्मों में कठोरता और किसी में अपार कोमलता है। शायद यह इसलिये है कि प्रत्येक की भूमिका निर्धारित है जो दूसरों की भूमिका से अलग है, जो सृष्टि की संचालन व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। अपने गुण-धर्मों के माध्यम से ही वह कुछ अनूठा कर सकता है। जो अन्य नहीं कर सकते। क्या सूर्य और चांद पर्वत और नदियां, वृक्ष और लतायें, पाषाण और पुष्प चट्टानें और सागर की जलोर्मियां इस भिन्नधर्मिता का स्पष्ट उद्घोष नहीं करतीं? क्या उनके जीवन उद्देश्य भिन्न भिन्न नहीं है? अपने प्रकृतिदत्त गुणधर्मों का परित्याग हर कोई अपनी जीवन यात्रा सुचारू ढंग से पूरी कर सकता है? अपने गुणधर्मों का प्राकृतिक स्वभाव का त्याग न केवल हानिकारक है वरन् भयावह भी है। शेर घास नहीं खा सकता और मृग मांसाहार नहीं कर सकता। गीता में कहा है- ‘स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।’

जब भी मर्यादाओं का अतिक्रमण होता है कोई विस्फोट होता है और यह प्रकृति के विरुद्ध अनर्थकारी ही होता है। मर्यादाओं की रक्षा आवश्यक है, क्योंकि उसमें न केवल सुख है वरन् सुषमा और आल्हाद भी है और वह मंगलदायी वातावरण के सृजन की क्षमता भी रखती है।

अत: प्रकृति के प्रति प्रेम और सौंदर्य की भावना वास्तविक सुख के लिये नितांत आवश्यक है। प्रकृति समन्वयवादी है और यही वह इन सबसे चाहती है, जिन्हें उसने उपजाया है। आज समन्वय के अभाव ने ही संसार में नये-नये टकरावों और कष्टों को जन्म दिया है। विविधता में एकता की भावना से मनुष्य सुखी रह सकता है और सभी को यथोचित उत्कर्ष के अवसर मिल सकते हैं।

सघन वनों में विभिन्न वनस्पतियों और विरोधी स्वभाव के प्राणियों का आवास और समृद्धि मनुष्य को सही सीख और हिलमिल के रहने की सूझ क्यों नहीं देता? आज खेमों में बंटे विश्व को- ‘जियो और जीने दो’ की पावन भावना की जरूरत है।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #142 ☆ दर्द की इंतहा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख दर्द की इंतहा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 142 ☆

☆ दर्द की इंतहा

‘दर्द को भी आधार कार्ड से जोड़ दो/ जिन्हें मिल गया है दोबारा ना मिले’ बहुत मार्मिक उद्गार, क्योंकि दर्द हमसफ़र है; सच्चा जीवन-साथी है; जिसका आदि-अंत नहीं। ‘दु:ख तो अपना साथी है’ गीत की ये पंक्तियां मानव में आस्था व विश्वास जगाती हैं; मन को ऊर्जस्वित व संचेतन करती है। वैसे तो रात्रि के पश्चात् भोर,अमावस्या के पश्चात् पूर्णिमा व दु:ख के पश्चात् सुख का आना निश्चित है; अवश्यंभावी है। सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं और एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा दस्तक देता है।

समय निरंतर अबाध गति से चलता रहता है; कभी रुकता नहीं। सो! जो आया है अवश्य जाएगा। इसलिए ऐ मानव! तू किसी के आने की ख़ुशी व जाने का मलाल मत कर। ‘कर्म-गति अति न्यारी/ यह टारे नहीं टरी।’ इसके मर्म को आज तक कोई नहीं जान पाया। परंतु यह तो निश्चित् है कि ‘जैसा कर्म करता,वैसा ही फल पाता इंसान’ के माध्यम से मानव को सदैव सत्कर्म करने की सीख दी गयी है। 

अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित् है। परंतु भविष्य सदैव वर्तमान के रूप में दस्तक देता है। वर्तमान ही शाश्वत् सत्य है,शिव है और सुंदर है। मानव को सदैव वर्तमान के महत्व को स्वीकारते हुए हर पल को ख़ुशी से जीना चाहिए। चारवॉक दर्शन में भी ‘खाओ-पीओ,मौज उड़ाओ’ का संदेश निहित है। आज की युवा पीढ़ी भी इसका अनुसरण कर रही है। शायद! इसलिए ‘वे यूज़ एंड थ्रो’ में विश्वास रखते हैं और ‘लिव इन’ व ‘मी टू’ की अवधारणा के पक्षधर हैं। वे पुरातन जीवन मूल्यों को नकार चुके हैं,क्योंकि उनका दृष्टिकोण उपयोगितावादी है। वे अहंनिष्ठ क्षणवादी सदैव हर पल को जीते हैं। संबंध-सरोकारों का उनके जीवन में कोई मूल्य नहीं तथा रिश्तों की अहमियत को भी वे नकारने लगे हैं,जिसका प्रतिफलन पति-पत्नी में बढ़ते अजनबीपन के एहसास के परिणाम-स्वरूप तलाक़ों की बेतहाशा बढ़ती संख्या को देखकर लगाया जा सकता है। सब अपने-अपने द्वीप में कैद एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं,जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा उनके आत्मज भुगत रहे हैं। वे मोबाइल व मीडिया में आकण्ठ डूबे रहते हैं और नशे की लत के शिकार हो रहे हैं जिसका विकराल रूप मूल्यों के विघटन व सामाजिक विसंगतियों के रूप में हमारे समक्ष है। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं,रिश्तों की अहमियत रही नहीं और अपहरण,फ़िरौती,दुष्कर्म व हत्या के हादसों में निरंतर इज़ाफा हो रहा है। चहुंओर संशय व अविश्वास का वातावरण व्याप्त है,जिसके कारण इंसान पल भर के लिए भी सुक़ून की साँस नहीं ले पाता। 

दूसरी ओर अमीर-गरीब की खाई सुरसा के मुख की भांति बढ़ती जा रही है और हमारा देश इंडिया व भारत दो रूपों में विभाजित परिलक्षित हो रहा है। एक ओर मज़दूर,किसान व मध्यमवर्गीय लोग,जो दिन-भर परिश्रम करने के पश्चात् दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते और आकाश की खुली छत के नीचे अपना जीवन बसर करने को विवश हैं। दूसरी ओर बाल श्रमिक शोषण व बाल यौन उत्पीड़न का घिनौना रूप हमारे समक्ष है। एक घंटे में पांच बच्चे दुष्कर्म का शिकार होते हैं; बहुत भयावह व चिंतनीय स्थिति है। दूसरी ओर धनी लोग और अधिक धनी होते जा रहे हैं,जिनके पास असंख्य सुख-सुविधाएं हैं और वे निष्ठुर, संवेदनहीन, आत्मकेंद्रित व निपट स्वार्थी हैं। शायद! इसी कारण गरीब लोग दर्द को आधार-कार्ड से जोड़ने की ग़ुहार लगाते हैं,ताकि छल-कपट से लोग पुन: वे सुविधाएं प्राप्त न कर सके। उनके ज़हन में यह भाव दस्तक देता है कि यदि ऐसा हो जायेगा तो उन्हें जीवन में पुन: अभाव व असहनीय दर्द सहन नहीं करना पड़ेगा,क्योंकि वे अपने हिस्से का दर्द झेल चुके हैं। परंतु इस संसार में यह नियम लागू नहीं होता। भाग्य का लिखा निश्चित् होता है,अटूट होता है,कभी बदलता नहीं। सो! उन्हें इस तथ्य को सहर्ष क़ुबूल कर लेना चाहिए कि कृत-कर्मों का फल जन्म-जन्मांतर तक मानव के साथ-साथ चलता है और उसे अवश्य भोगना पड़ता है। इसलिए सुंदर भविष्य की प्राप्ति हेतू सदैव अच्छे कर्म करें ताकि भविष्य उज्ज्वल व मंगलमय हो सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

14 जुलाई 2022.

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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