हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा ??

(इस आलेख को हम देवशयनी (आषाढ़ी) एकादशी के पावन पर्व पर साझा करना चाहते थे। किन्तु, मुझे पूर्ण विश्वास है कि- आपको यह आलेख निश्चित ही आपकी वारी से संबन्धित समस्त जिज्ञासाओं की पूर्ति करेगा। आज के  विशेष आलेख के बारे में मैं श्री संजय भारद्वाज जी के शब्दों को ही उद्धृत करना चाहूँगा। –

श्रीक्षेत्र आलंदी / श्रीक्षेत्र देहू से पंढरपुर तक 260 किलोमीटर की पदयात्रा है महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी। मित्रो, विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि-  वारी की जानकारी पूरे देश तक पहुँचे, इस उद्देश्य से 11 वर्ष पूर्व वारी पर बनाई गई इस फिल्म और लेख ने विशेषकर गैर मराठीभाषी नागरिकों के बीच वारी को पहुँचाने में टिटहरी भूमिका निभाई है। यह लेख पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। अधिकांश मित्रों ने पढ़ा होगा। अनुरोध है कि महाराष्ट्र की इस सांस्कृतिक परंपरा को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने में सहयोग करें। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। 🙏

डॉक्यूमेंट्री फिल्म का यूट्यूब लिंक (कृपया यहाँ क्लिक करें 👉  वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा

निर्माण – श्री  प्रभाकर बांदेकर 

लेखन एवं स्वर – श्री संजय भारद्वाज  

भारत की अधिकांश परंपराएँ ऋतुचक्र से जुड़ी हुई एवं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरने वाली हैं। देवता विशेष के दर्शन के लिए पैदल तीर्थयात्रा करना इसी परंपरा की एक कड़ी है। संस्कृत में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है-पापों से तारनेवाला। यही कारण है कि  तीर्थयात्रा को मनुष्य के मन पर पड़े पाप के बोझ से मुक्त होने या कुछ हल्का होने का मार्ग माना जाता है। स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है-जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ।

स्थावर तीर्थ की पदयात्रा करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी इस परंपरा का स्थानीय संस्करण है।

पंढरपुर के विठ्ठल को लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले  महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में मान्यता मिली। तभी से खेतों में बुआई करने के बाद पंढरपुर में विठ्ठल-रखुमाई (श्रीकृष्ण-रुक्मिणी) के दर्शन करने के लिए पैदल तीर्थ यात्रा करने की परंपरा जारी है। श्रीक्षेत्र आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की चरणपादुकाएँ एवं श्रीक्षेत्र देहू से तुकाराम महाराज की चरणपादुकाएँ पालकी में लेकर पंढरपुर के  विठोबा के दर्शन करने जाना महाराष्ट्र की सबसे बड़ी वारी है।

पहले लोग व्यक्तिगत स्तर पर दर्शन करने जाते थे। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, स्वाभाविक था कि संग से संघ बना। 13 वीं शताब्दी आते-आते वारी गाजे-बाजे के साथ समारोह पूर्वक होने लगी।

वारी का शाब्दिक अर्थ है-अपने इष्ट देवता के दर्शन के लिए विशिष्ट दिन,विशिष्ट कालावधि में आना, दर्शन की परंपरा में सातत्य रखना। वारी करनेवाला ‘वारीकर’ कहलाया। कालांतर में वारीकर ‘वारकरी’ के रूप में रुढ़ हो गया। शनैःशनैः वारकरी एक संप्रदाय के रूप में विकसित हुआ।

अपने-अपने गाँव से सीधे पंढरपुर की यात्रा करने वालों को देहू पहुँचकर एक साथ यात्रा पर निकलने की व्यवस्था को जन्म देने का श्रेय संत नारायण महाराज को है। नारायण महाराज संत तुकाराम के सबसे छोटे पुत्र थे। ई.सन 1685 की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी को वे तुकाराम महाराज की पादुकाएँ पालकी में लेकर देहू से निकले। अष्टमी को वे आलंदी पहुँचे। वहाँ से संत शिरोमणि ज्ञानेश्वर महाराज की चरण पादुकाएँ पालकी में रखीं। इस प्रकार एक ही पालकी में ज्ञानोबा-तुकोबा (ज्ञानेश्वर-तुकाराम) के गगन भेदी उद्घोष के साथ वारी का विशाल समुदाय पंढरपुर की ओर चला।

अन्यान्य कारणों से भविष्य में देहू से तुकाराम महाराज की पालकी एवं आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी अलग-अलग निकलने लगीं। समय के साथ वारी करने वालों की संख्या में विस्तार हुआ। इतने बड़े समुदाय को अनुशासित रखने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस आवश्यकता को समझकर 19 वीं शताब्दी में वारी की संपूर्ण आकृति रचना हैबतराव बाबा आरफळकर ने की। अपनी विलक्षण दृष्टि एवं अनन्य प्रबंधन क्षमता के चलते हैबतराव बाबा ने वारी की ऐसी संरचना की जिसके चलते आज 21 वीं सदी में 10 लाख लोगों का समुदाय बिना किसी कठिनाई के एक साथ एक लय में चलता दिखाई देता है।

हैबतराव बाबा ने वारकरियों को समूहों में बाँटा। ये समूह ‘दिंडी’ कहलाते हैं। सबसे आगे भगवा पताका लिए पताकाधारी चलता है। तत्पश्चात एक पंक्ति में चार लोग, इस अनुक्रम में चार-चार की पंक्तियों में अभंग (भजन) गाते हुए चलने वाले ‘टाळकरी’ (ळ=ल,टालकरी), इन्हीं टाळकरियों में बीच में उन्हें साज संगत करने वाला ‘मृदंगमणि’, टाळकरियों के पीछे पूरी दिंडी का सूत्र-संचालन करनेवाला विणेकरी, विणेकरी के पीछे सिर पर तुलसी वृंदावन और  कलश लिए मातृशक्ति। दिंडी को अनुशासित रखने के लिए चोपदार। 

वारी में सहभागी होने के लिए दूर-दराज के गाँवों से लाखों भक्त बिना किसी निमंत्रण के आलंदी और देहू पहुँचते हैं। चरपादुकाएँ लेकर चलने वाले रथ का घोड़ा आलंदी मंदिर के गर्भगृह में जाकर सर्वप्रथम ज्ञानेश्वर महाराज के दर्शन करता है। ज्ञानेश्वर महाराज को माउली याने चराचर की माँ भी कहा गया है। माउली को अवतार पांडुरंग अर्थात भगवान का अवतार माना जाता है। पंढरपुर की यात्रा आरंभ करने के लिए चरणपादुकाएँ दोनों मंदिरों  से बाहर लाई जाती हैं। उक्ति है-‘ जब चराचर भी नहीं था, पंढरपुर यहीं था।’

चरण पादुकाएँ लिए पालकी का छत्र चंवर डुलाते एवं निरंतर पताका लहराते हुए चलते रहना कोई मामूली काम नहीं है। लगभग 260 कि.मी.  की 800 घंटे की पदयात्रा में लाखों वारकरियों की भीड़ में पालकी का संतुलन बनाये रखना, छत्र-चंवर-ध्वज को टिकाये रखना अकल्पनीय है।

वारी स्वप्रेरित अनुशासन और श्रेष्ठ व्यवस्थापन का अनुष्ठान है। इसकी पुष्टि करने के लिए कुछ आंकड़े जानना पर्याप्त है-

  • विभिन्न आरतियों में लगनेवाले नैवेद्य से लेकर रोजमर्रा के प्रयोग की लगभग 15 हजार वस्तुओं (यहाँ तक की सुई धागा भी) का रजिस्टर तैयार किया जाता है। जिस दिन जो वस्तुएँ इस्तेमाल की जानी हैं, नियत समय पर वे बोरों में बांधकर रख दी जाती हैं।
  • 15-20 हजार की जनसंख्या वाले गाँव में 10 लाख वारकरियों का समूह रात्रि का विश्राम करता है।  ग्रामीण भारत में मूलभूत सुविधाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अद्वैत भाव के बिना गागर में सागर समाना संभव नहीं।
  • सुबह और शाम का भोजन मिलाकर वारी में प्रतिदिन 20 लाख लोगों के लिए भोजन तैयार होता है।
  • रोजाना 10 लाख लोग स्नान करते हैं, कम से कम 30 लाख कपड़े रोज धोये और सुखाये जाते हैं।
  • रोजाना 50 लाख कप चाय बनती है।
  • हर दिन लगभग 3 करोड़ लीटर पानी प्रयोग होता है।
  • एक वारकरी दिन भर में यदि केवल एक हजार बार भी हरिनाम का जाप करता है तो 10 लाख लोगों द्वारा प्रतिदिन किये जानेवाले कुल जाप की संख्या 100 करोड़ हो जाती है। शतकोटि यज्ञ भला और क्या होगा?
  • वारकरी दिनभर में लगभग 20 किलोमीटर पैदल चलता है। विज्ञान की दृष्टि से यह औसतन 26 हजार कैलोरी का व्यायाम है।
  • जाने एवं लौटने की 33 दिनों की  यात्रा में पालकी के दर्शन 24 घंटे खुले रहते हैं। इस दौरान लगभग 25 लाख भक्त चरण पादुकाओं के दर्शन करते हैं।
  • इस यात्रा में औसतन 200 करोड़ का आर्थिक   व्यवहार होता है।
  • हर दिंडी के साथ दो ट्रक, पानी का एक टेंकर, एक जीप, याने कम से कम चार वाहन अनिवार्य रूप से होते हैं। इस प्रकार 500 अधिकृत समूहों के साथ कम से कम 2 हजार वाहन होते हैं।
  • एकत्रित होने वाली राशि प्रतिदिन बैंक में जमा कर दी जाती है।
  • रथ की सजावट के लिए पुणे से रोजाना ताजा फूल आते हैं।

हर रात 7 से 8 घंटे के कठोर परिश्रम से रथ को विविध रूपों में सज्जित किया जाता है।

  • एक पंक्ति में दिखनेवाली भक्तों की लगभग 15 किलोमीटर लम्बी ‘मूविंग ट्रेन’ 24 घंटे में चार बार विश्रांति के लिए बिखरती है और नियत समय पर स्वयंमेव जुड़कर फिर गंतव्य की यात्रा आरंभ कर देती है।
  • गोल रिंगण अर्थात अश्व द्वारा की जानेवाली वृत्ताकार परिक्रमा हो, या समाज आरती, रात्रि के विश्राम की व्यवस्था हो या प्रातः समय पर प्रस्थान की तैयारी, लाखों का समुदाय अनुशासित सैनिकों-सा व्यवहार करता है।
  • नाचते-गाते-झूमते अपने में मग्न वारकरी…पर चोपदार का ‘होऽऽ’  का एक स्वर और संपूर्ण नीरव …… इस नीरव में मुखर होता है-वारकरियों का अनुशासन।

वारकरी से अपेक्षित है कि वह गले में तुलसी की माला पहने। ये माला वह किसी भी वरिष्ठ वारकरी को प्रणाम कर धारण कर सकता है।

वारकरी संप्रदाय के लोकाचारों में शामिल है- माथे पर गोपीचंदन,धार्मिक ग्रंथों का नियमित वाचन, शाकाहार, सदाचार, सत्य बोलना, हाथ में भगवा पताका, सिर पर तुलसी वृंदावन, और जिह्वा पर राम-कृष्ण-हरि का संकीर्तन।

राम याने रमनेवाला-हृदय में आदर्श स्थापित करनेवाला, कृष्ण याने सद्गुरु- अपनी ओर खींचनेवाला और हरि याने भौतिकता का हरण करनेवाला। राम-कृष्ण-हरि का अनुयायी वारकरी पालकी द्वारा विश्रांति की घोषणा से पहले कहीं रुकता नहीं, अपनी दिंडी छोड़ता नहीं, माउली को नैवेद्य अर्पित होने से पहले भोजन करता नहीं।

वारकरी कम से कम भौतिक आवश्यकताओं के साथ जीता है। वारी आधुनिक भौतिकता के सामने खड़ी सनातन आध्यात्मिकता है। आधुनिकता अपरिमित संसाधन जुटा-जुटाकर आदमी को बौना कर देती है। जबकि वारी लघुता से प्रभुता की यात्रा है। प्रभुता की यह दृष्टि है कि इस यात्रा में आपको मराठी भाषियों के साथ-साथ बड़ी संख्या में अमराठी भाषी भी मिल जायेंगे। भारतीयों के साथ विदेशी भी दिखेंगे। इस अथाह जन सागर की समरसता ऐसी कि वयोवृद्ध माँ को अपने कंधे पर बिठाये आज के श्रवणकुमार इसमें हिंदुत्व देखते हैं  तो संत   जैनब-बी ताउम्र इसमें इस्लाम का दर्शन करती रही।

वारी, यात्री में सम्यकता का अद्भुत भाव जगाती है। भाव ऐसा कि हर यात्री अपने सहयात्री को धन्य मान उसके चरणों में शीश नवाता है। सहयात्री भी साथी के पैरों में माथा टेक देता है। ‘जे-जे पाहिले भूत, ते-ते मानिले भगवंत……’, हर प्राणी में, हर जीव में माउली दिखने लगे हैं। किंतु असली माउली तो विनम्रता का ऐसा शिखर है जो दिखता आगे है , चलता पीछे है। यात्रा के एक मोड़ पर संतों की पालकियाँ अवतार पांडुरंग के रथ के आगे निकल जाती हैं। आगे चलते भगवान कब पीछे आ गये ,पता ही नहीं चलता। संत कबीर कहते हैं-

कबीरा मन ऐसा भया, जैसा गंगा नीर

पाछे-पाछे हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर

भक्तों की भीड़ हरिनाम का घोष करती हैं जबकि  स्वयं हरि भक्तों के नाम-संकीर्तन में डूबे होते हैं।

भक्त रूपी भगवान की सेवा में अनेक संस्थाएँ और व्यक्ति भी जुटते हैं।  ये सेवाभावी लोग डॉक्टरों की टीम से लेकर कपड़े इस्तरी करने, दाढ़ी बनाने, जूते-चप्पल मरम्मत करने जैसी सेवाएँ निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं।

वारी भारत के धर्मसापेक्ष समाज का सजीव उदाहरण है। वारी असंख्य ओसकणों के एक होकर सागर बनने का जीता-जागता चित्र है। वस्तुतः ‘वा’ और ‘री’ के डेढ़-डेढ़ शब्दों से मिलकर बना वारी यात्रा प्रबंधन का वृहद शब्दकोश है।

  • आनंद का असीम सागर है वारी..
  • समर्पण की अथाह चाह है वारी…
  • वारी-वारी, जन्म-मरणा ते वारी..
  • जन्म से मरण तक की वारी…
  • मरण से जन्म तक की वारी..
  • जन्म-मरण की वारी से मुक्त होने के लिए भी वारी……

वस्तुतः वारी देखने-पढ़ने या सुनने की नहीं अपितु अनुभव करने की यात्रा है। इस यात्रा में सम्मिलित होने के लिए महाराष्ट्र की पावन धरती आपको संकेत कर रही है। 

विदुषी इरावती कर्वे के शब्दों में – महाराष्ट्र अर्थात वह भूमि जहाँ का निवासी पंढरपुर की यात्रा करता है। जीवन में कम से कम एक बार वारी करके महाराष्ट्रवासी होने का सुख अवश्य अनुभव करें।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 2 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

इसी प्रकार दूसरा प्रसंग जनकपुरी में पुष्पवाटिका का है, जहां राम-लक्ष्मण गुरु की आज्ञा से पुष्प लेने के लिए जाते हैं। वहां उसी समय सीता जी माता की आज्ञा से गौरि देवि के पूजन को जाती हैं। मंदिर उसी बाग के तालाब के किनारे है। वहां आकस्मिक रूप से राम ने सीता जी को देखा और मोहित हो गये तथा सीता जी ने सखी के कहने पर श्रीराम की एक झलक देखी। उनकी सौम्य सुन्दर मूर्ति को देखकर उन्हें उनके प्रति आकस्मिक रुचि व अनुराग पैदा हुआ। इस सांसारिक सत्य के मनोभावों को कवि ने इन पंक्तियों से भारतीय मर्यादा को रखते हुये कैसा सुन्दर चित्रित किया है? संकेतों का आनंद लीजिये। (आज का उच्छं्रखल व्यवहार जो देखा जाता है उससे तुलना करते हुये देखिये)- राम लक्ष्मण से सीता को देखकर कहते हैं-

तात जनक तनया यह सोई धनुष यज्ञ जेहिकारण होई।

पूजन गौरि सखी लै आई, करत प्रकाश फिरई फुलवाई।

करत बतकही अनुज सन मन सियरूप लोभान।

मुख सरोज मकरंद छवि करइ मधुप इव पान॥

सीताजी ने भी रामजी के दर्शन सखी के द्वारा कराये जाने पर किये-

लता ओट जब सखिन लखाये स्यामल गौर किसोर सुहाये।

देखि रूप लोचन ललचाने हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥

लोचन मन रामहि उर आनी, दीन्हे पलक कपाट सयानी।

जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी, कहि न सकहि कछु मन सकुचानी॥

केहरि कटि पटपीत धर सुषमा सील निधान।

देखि भानुकुल भूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥

देखन मिस मृग विहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।

निरखि निरखि रघुबीर छवि बाढ़इ प्रीति न थोरि।

सीता मंदिर में पूजा करके गौरी माता से मन में ही प्रार्थना करती हैं-

मोर मनोरथ जानहु जीके। बसहु सदा उरपुर सबही के।

कीन्हेऊ प्रकट न कारण तेहीं। अस कह चरण गहे बैदेही॥

देवि ने प्रार्थना स्वीकार की-

विनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरत मुसुकानी।

सादर सिय प्रसाद सिर धरऊ। बोली गौरि हरषु हिय भरऊ॥

सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजहि मनकामना तुम्हारी।

जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाय कहि।

मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे॥

बिना किसी वार्तालाप के मौन ही मन के भाव बड़ी शालीनता से कवि ने दोनों श्रीराम और सीताजी के व्यक्त करते हुये शुभ-शकुनों के संकेतों से मधुर प्रेमभावों को प्रकट किया है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 1 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

हीरे की कीमत उसकी तराश की उत्कृष्टता और उससे निकलने वाली प्रकाश किरणों की प्रखरता पर होती है। उसी प्रकार साहित्य की महत्ता उसके माधुर्य, हृदय ग्राहिता, अभिव्यक्ति के सौंदर्य और उसकी उपयोगिता पर निर्भर करती है। गद्य हो या पद्य रचनाकार का एक दृष्टिकोण होता है और उसकी कथन या प्रस्तुतिकरण की शैली। एक ही कथानक को प्रस्तुत करने का हर कवि या लेखक का अपना आसान तरीका होता है जो दूसरों से भिन्न होता है। पाठक उस कथनशैली से समझ सकता है कि वह किसकी रचना है। इसीलिये अंग्रेजी में कहावत है ‘स्टाइल इज मैन’ (Style is man) महाकवि महात्मा तुलसीदास ने मानस की रचना अनेकों छंदों का उपयोग करते हुये किया है परन्तु प्रमुख्यत: कथन चौपाई, दोहे और सोरठों में है। यह तो हुई रचना के कलेवर की बात, परन्तु उनकी रचना के प्रस्तुतिकरण में या कथनशैली में एक अनुपम कौशल दिखाई देता है। किसी पात्र के मनोभाव को पाठक पर प्रकट करने के लिये या प्रसंग को नया मोड़ देकर आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपनी कथन प्रणाली को सुन्दर तथा आकर्षक रूप दिया है जो अन्य कवियों की रचनाओं में नहीं दिखता। इनसे उनकी अभिव्यक्ति सरस, सफल और आकर्षक ही नहीं हुई है वरन पाठक के मन को भी एक अलौकिक आनन्दानुभूति देती है। उन्होंने पात्रों के मुँह से सीधे अप्रिय या असमंजस्यपूर्ण कथन नहीं कराया है। बात को कहने या आगे बढ़ाने को या दुविधा की स्थिति टालने का अथवा सामाजिक मर्यादा के निर्वाह के लिये जो झीने झिलमिले परदे का उपयोग किया है वह बड़ा सार्थक, सटीक और मोहक प्रतीत होता है। इससे रचना को समझने में पाठक को जो स्वकल्पना करने का अवकाश मिलता है वह बड़ा रस घोलने वाला मिसरी सा मीठा प्रतीत होता है। वास्तव में समाज में अवगुण्ठन का बड़ा मनोवैज्ञानिक आकर्षण और मधुरता है। इसलिये घरों के दरवाजों, खिड़कियों पर हम चमकीले परदे लगाते हैं। किसी सौंदर्य के उभारने में और उत्सुकता बढ़ाने में अवगुण्ठन का क्या महत्व है यह कहे जाने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने इसलिये विभिन्न स्थानों पर आकाशवाणी, सपने, शगुन-अपशगुन, प्राकृतिक घटनाओं, पशु-पक्षिओं की बोली-वाणी, किसी अन्य पात्र के मन की उत्सुकताओं के द्वारा कथाप्रसंग के मार्मिक भावों को स्पष्ट करते या उन्हें सघनता प्रदान करते हुये अपना अभिप्राय प्रकट किया है। इस कौशल में उन्हें महारत हासिल है जो कम ही सुयोग्य साहित्यकारों को देवी सरस्वती के प्रसाद स्वरूप प्राप्त होती है। ऐसे अनेक प्रसंग प्राय: मानस के हर काण्ड में मिलते हैं। ऐसे कुछ महत्वपूर्ण स्पष्ट प्रसंगों की झलक निम्न अवसरों पर देखिये-

पति-पत्नी हिमवंत और मैना के घर में पार्वती के जन्म लेने पर जब नारद जी पधारे तो उन्होंने पुत्री के भाग्य के विषय में कुछ बताने के लिये मुनिवर से प्रार्थना की। नारद जी ने कन्या के भाग्य के संबंध में कहा-

सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी, सुनहु जे अब अवगुन दुइचारी।

अगुन अनाम मातु-पितु हीना, उदासीन सब संसय छीना।

जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल वेष।

अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख।

ऐसे तो एक शंकर जी ही हैं अत: यदि कन्या तपस्या करे और यदि वे प्रसन्न हो तो लडक़ी को वे पति रूप में मिल सकते हैं। यह सुन माता-पिता को भारी असमंजस हुई। प्रिय बेटी को जंगल में जाकर तपस्या करने को कौन कहे? तव माँ ने दुखी मन से अपनी बेटी को हृदय से लगा लिया। बेटी ने माता को अपने मन का भाव स्पष्ट समझाने के लिये बताया-

सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावहुं तोहि

सुन्दर गौर सुविप्रवर अस उपदेसेउ मोहि।

करहि जाइ तपु सैल कुमारी, नारद कहा सो सत्य विचारी।

मातु-पितहि पुनि यह मत भावा, तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा।

इस प्रकार पार्वती से न माता, न पिता या किसी अन्य ने उन्हें वन में जाकर तपस्या सरीखे कठिन कार्य को संपन्न करने के लिये कहा, वरन स्वप्न के संकेत के द्वारा जटिल समस्या को पार्वती ने स्वत: ही माता से बयान कर सब समस्या सुलझा दी।

क्रमशः…

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 14 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 14 ??

शादी-ब्याह में गाँव जुटता था। जातिप्रथा को लेकर आज जो अरण्यरुदान है, सामूहिकता में हर जाति समाविष्ट है। हरेक अपना दायित्व निर्वहन करता है। ब्याह बेटी का है तो बेटी सबकी है। आज चलन कुछ कम हो गया है पर पहले मोहल्ले के हर घर में विवाह पूर्व बेटी को भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता, हर घर बेटी के साथ यथाशक्ति कुछ बाँध देता।

लोकगीत का अपना सनातन इतिहास है। सत्य तो यह है कि लोकगीतों ने इतिहास बचाया। घर-घर बाप-दादा का नाम याद  रखा, घर-घर श्रुत वंशावलियाँ बनाईं और बचाईं। केवल वंशावली ही नहीं, कुल, गोत्र, शासन, गाँव, खेत, खलिहान, कुलदेवता, कुलदेवी, ग्रामदेवता, आचार, संस्कार, परंपरा, राग, विराग, वैराग्य, मोह, धर्म, कर्म, भाषा, अपभ्रंश, वैराग्य की गाथा, रोमांस के किस्से, सब बचाया। इतना ही नहीं 1857 के स्वाधीनता संग्राम के में कमल और रोटी के चिह्न को अँग्रेजों ने दस्तावेज़ों के रूप में भले जला दिया पर लोकगीतों के मुँह पर ताला नहीं जड़ सका। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रणबाँकुरों के बलिदान को लोकगीतों ने ही जीवित रखा। इसी तरह अनादि काल से चले आ रहे सोलह संस्कारों को धर्मशास्त्रों के बाद  प्रथा में लोगों की ज़ुबान पर लोकगीतों ने ही टिकाये रखा।

त्योहार सामूहिक हैं, एकात्म हैं। व्रत-पर्व, धार्मिक अनुष्ठान, भजन-कीर्तन सब सामूहिक हैं। एकात्मता ऐसी कि त्योहारों में मिठाई का आदान-प्रदान हर छोटा-बड़ा करता है। महिलाएँ व्रत का उद्यापन करें, त्यौहार या अनुष्ठान हरेक में यथाशक्ति एक से लेकर इक्यावन महिलाओं के भोजन/ जलपान का प्रावधान है। लोक-परम्परा भागीदारी का व्रत, त्यौहार  और भागीदारी का अनुष्ठान है। धार्मिक ग्रंथों का पाठ और पारायण भी इसी संस्कृति की पुष्टि करते हैं। श्रीरामचरितमानस का पाठ तो जोड़ने का माध्यम है ही अपितु जो पढ़ना नहीं जानते उन्हें भी साथ लेने के लिए संपुट तो अनिवार्यत: सामूहिक है।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ रद्दी वाला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “रद्दी वाला।)

☆ आलेख ☆ रद्दी वाला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

रद्दी शब्द उर्दू भाषा से है, परंतु हमारी रोजमर्रा के बोलचाल में बहुतायत से उपयोग होता हैं। दैनिक समाचार पत्र पढ़ने के बाद अनुपयोगी हो जाते हैं। इन सबको रद्दी वाले को विक्रय कर दिया जाता हैं। आज की युवा पीढ़ी समाचार पत्र पढ़ने के स्थान पर मोबाईल से ही पूरी जानकारी ले लेती हैं। वैसे हमारे मोबाईल पर भी बहुत रद्दी एकत्र हो जाती हैं। उसको साफ़ करने में भी काफ़ी समय देना पड़ता हैं।

वर्षों पूर्व ये लोग पैदल घूम घूम कर आवाज़ लगाते थे “रद्दी वाला” बाद में साइकिल या ठेले पर घर का अनुपयोगी समान खरीद कर ये ही लोग ले जाते हैं।

ये लोग पहले आधा किलो के बांट से तौल कर ले जाते थे, अब भी एक किलो के बांट का प्रयोग करते हैं। हाथ ठेले/रिक्शे पर चलने वाले इलेक्ट्रॉनिक तराजू भी लेकर चलते हैं। मुंबई प्रवास के समय रद्दी वालों की दुकानें भी देखने को मिली। आप उनको फोन कर बुला सकते है वो घर से रद्दी ले जाते हैं।

घर में पड़े कबाड़ और टूटे फूटे सामान को लेकर वो हमारे घर को स्वच्छ रखने में भी सहयोग कर रहे हैं। अब तो वास्तु शास्त्री भी घर में कबाड़ रखने से मना करते हैं। वर्तमान में पेपर को रिसाइकल किया जाता है, जिसमें इन सबका बड़ा योगदान हैं।

हम में से अधिकतर इनको हेय दृष्टि से देखते है, और वो सम्मान नहीं देते जिसके वो हकदार हैं। हमे हमेशा ये लगता है, कि वो लोग कम तोलते और बेईमानी करते हैं। उनकी आर्थिक दृष्टि को देखते हुए नहीं लगता की वो इस व्यापार से कोई बहुत अधिक धनार्जन करते हैं। शायद हमारा नजरिया गलत हो सकता हैं। रद्दी वाले को अपनी रद्दी नज़र से ना देखकर एक सहयोगी के रूप में देखना ही उचित होगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस का रेखांङ्कित शाश्वत सत्य – प्रेम – भाग – 2 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस का रेखांङ्कित शाश्वत सत्य – प्रेम – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

उर्दू के प्रख्यात शायर- अल्लामा इकबाल ने कहा है-

है राम के वजूद पै हिन्दोस्तां को नाज़

अहले नजर समझते हैं इनको इमामे हिन्द॥

भारत में अनेकों मुस्लिम, विद्वान, रामचरितमानस के अप्रतिम स्नेही भक्त और प्रवचनकार हैं जो इस ग्रंथ की एक-एक चौपाई की विशद व्याख्या करते हैं क्योंकि इस गं्रथ में कथानक और भाव की अप्रतिम माधुरी है।

अनेकों दोहे और चौपाइयां लोकोक्तियों और सूक्तियों के रूप में प्रयुक्त होती हैं। जैसे-

पराधीन सपनेहु सुख नाही।

हित अनहित पशुपक्षिहु जाना।

जो जस करई सो तस फल चाखा।

नहि असत्य सम पातक पुंजा।

जहां सुमति तहां संपत्ति नाना, जहां कुमति तहां विपति निदाना।

आज के भौतिकवादी सोच ने आपसी व्यवहारों में धन के महत्व को बढ़ा दिया है तथा आत्मिक व आध्यात्मिक प्रेम को हृदय से दूर कर रखा है। जहाँ प्रेम है वहां आनन्द है और जहां प्रेम नहीं है वहां अशांति और दुख है। पति-पत्नी में सच्चा प्रेम यदि है तो दोनों एक-दूसरे के मनोभावों को बिना कहे भी पढ़ लेते हैं। भारतीय दाम्पत्य का यह ही मधुर अनुभव है। गंगा तट पर गंगा पार जब राम सीता लक्ष्मण उस तट पर पहुंचे तब निषाद (केवट) को उतराई देने के लिए राम के पास कुछ नहीं था। उनके मन की इस व्याकुलता को उनकी पत्नी सीता जी ने तुरंत ही समझ लिया और उन्होंने उतराई देने अपनी अंगुली से मणिमुद्रिका उतार कर आगे कर दी। मानसकार ने स्नेह की इस अनुभूति को किस सुंदरता से लिखा है-

प्रियहिय की सिय जाननहारी, मणिमुंदरी मनमुदित उतारी।

जहां प्रेम होता है वहां प्रिय के हृदय की बात प्रेमी को दूर से भी समझ में आ जाती है। यही प्रेम का अलौकिक आनंद है कि दो हृदयों को बिना वाणी के भी सबकुछ समझ में आ जाता है। इसलिये प्रेम को पावन कहा है। प्रेम इससे ही भगवान है।

तुलसीदास जी को समन्वयवादी कहा गया है। उन्होंने समन्वयवाद अर्थात् प्रेम की भावना को प्रतिष्ठित किया है। छोटे-बड़े, स्वामी-सेवक, सम्पन्न-निर्धन, भक्ति-ज्ञान, शैव-वैष्णव, सुख-दुख में सबके बीच समन्वय स्थापित कर समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है। मन, वचन और कर्म के समन्वय से ही व्यक्ति का व्यक्तित्व उठता है और जीवन में शांति और सुख प्राप्त होता है। व्यक्ति में देवत्व आता है।

प्रेम से आत्मा का परिष्कार होता है। मन का मैल धुल जाता है। गंगाजी के जल से जैसा शरीर निर्मल हो जाता है। पवित्रता प्राप्त होती है। वैसे ही प्रेम के प्रवाह में मन निर्मल हो जाता है। निर्मल मन में सरलता होती है। कटुता दूर हो जाती है। व्यक्ति के प्रति प्रेम हो या ईश्वर की भक्ति निर्मल मन का बड़ा महत्व है। बिना निर्मल मन के मनुष्य को न तो जीवन में अन्य सहयात्रियों के प्रति भाव जागता है न ईश्वर की भक्ति में ही मन लगता है। प्रेम से ही भक्ति होती है। प्रेम से ही परमार्थ होता है। तुलसीदास जी ने कहा है-

परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।

प्रेम निर्मल मन का सहज धर्म है। उसी से समाज में परोपकार और अध्यात्म भाव में ईश्वरोपासना व भक्ति संभव है। अत: मेरी समझ में मानस का रेखांकित शाश्वत सत्य यही प्रेम है, जिसका मानस में हर प्रसंग में किसी न किसी रूप से वर्णन आया है।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 13 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 13 ??

कोई भी अध्याय जिसका आरम्भ पश्चिमी है, यदि उसे मानव जाति के विनाश में समाप्त नहीं होना है तो उसका अंत भारतीय होना ही चाहिए। इतिहास के इस बेहद खतरनाक क्षण में मानव जाति की मुक्ति का एकमात्र तरीका भरतीय तरीक है।

– डॉ. अर्नॉल्ड टोयनबी

इसी संदर्भ में महान दार्शनिक स्वामी विवेकानंद का यह कथन भी ज्योतिपुँज-सा है-

“भारत में हजारों वर्षों से शांति पूर्वक अपना अस्तित्व बनाए रखा। यहां जीवन तब भी था जब ग्रीस अस्तित्व में नहीं आया था . . . इससे भी पहले जब इतिहास का कोई अभिलेख नहीं मिलता, और परम्पराओं ने उस अंधियारे भूतकाल में जाने की हिम्मत नहीं की। तब से लेकर अब तक विचारों के बाद नए विचार यहां से उभर कर आते रहे और प्रत्येक बोले गए शब्द के साथ आशीर्वाद और इसके पूर्व शांति का संदेश जुड़ा रहा। हम दुनिया के किसी भी राष्ट्र पर विजेता नहीं रहे हैं और यह आशीर्वाद हमारे सिर पर है और इसलिए हम जीवित हैं. . .!‘

जैसा पहले कहा जा चुका है कि भारतीय लोक में दहाई के बिना इकाई का मान नहीं है। समूह के बिना व्यक्ति का अस्तित्व यहाँ अग्राह्य है। यही कारण है कि लोक का क्रियाकलाप सामूहिक है। लोक में नृत्य सामूहिक है। लोक में गायन सामूहिक है। समूह में हर किसी का निबाह हो जाता है। समूह हर किसी को प्रतिभा प्रदर्शन  हेतु मंच देता है तो हरेक के विरेचन के लिए सेतु भी बनता है। सामूहिकता ऐसी कि भोजन भी पंगत में बैठकर सबके साथ ही होगा। भोजन के समय किसी अतिथि के घर आ जाने पर मानसिक विचलन का शिकार हो जाने वाली आधुनिकता की किसी शायर ने लोक से सटीक तुलना करते हुए लिखा है,

एक वो दौर था, सोचता था मेहमान आये तो खाना खाऊँ।

लानत है इस दौर पर, सोचता हूँ मेहमान जाये तो खाना खाऊँ।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस का रेखांङ्कित शाश्वत सत्य – प्रेम – भाग – 1 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस का रेखांङ्कित शाश्वत सत्य – प्रेम – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

मनुष्य का मन विचारों का उद्गम स्थल है। विचार उत्पन्न होने पर ही मनुष्य कोई कार्य करता है। बहुत से विचार तो उठकर विलुप्त हो जाते हैं परन्तु कुछ ऐसे होते हैं जो कार्य कराते हैं। औरों से बिना कहे व्यक्ति को चैन नहीं मिलती हैं। जन साधारण तो अपने विचार मौखिक ही एक दूसरे पर व्यक्त कर अपना सारा कार्य-व्यापार सम्पन्न करते हैं, किन्तु मनीषी कवि लेखक अपने मन के विचारों को लिखकर व्यक्त करते हैं। ऐसे विचार गंभीर होते हैं और जन-जन को दीर्घकाल तक चिन्तन मनन का मसाला सबों को देते हैं। उनसे समाज को मार्गदर्शन भी मिलता है। ये विचार व्यक्ति के व्यक्तित्व समाज की तत्कालीन स्थितियों से प्रभावित होते हैं। इसीलिये उन विद्वानों के द्वारा रचित पुस्तकें समाज को उनके विचारों की सुगंध देती हैं और समाज की समस्याओं को सुलझा सकने के लिए राह दर्शाती हैं। ऊंचे विचारों को दर्शाने वाली ऐसी पुस्तकें युग-युग के लिए अमर हो जाती हैं जैसे गीता या रामायण।

महात्मा तुलसीदास के मानस का अध्ययन करने पर हमें उनकी अवधारणा इच्छा और लेखन के उद्देश्य का ज्ञान होता है। उन्होंने रामचरितमानस की रचना क्यों की, उन्हीं के शब्दों में मानस के प्रारंभ में लिखा है-

नाना पुराण निगमागम सम्मतं यत् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोदपि

स्वान्तस्सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषानिबद्धमतिमंजुलमातनोति।

वे कहते हैं कि विभिन्न वेद शास्त्रों में और बाल्मिकी रामायण में तथा कुछ अन्य गं्रथों में भी जो कुछ कहा गया है उसी को उन्होंने आत्मसुख की भावना से सुख के लिए सरल भाषा में अपनी तरह से लिखा है। इससे स्पष्ट है कि तुलसीदास जी ने नानापुराण निगम, बाल्मिकी रामायण और कुछ अन्य आध्यात्मिक गं्रथों का अध्ययन मनन कर जो सब संस्कृत भाषा में लिखे हुए हैं, उनके भावों को अपने विचारों के अनुसार प्रचलित लोकभाषा (जन-जन की बोलचाल की भाषा) में लिखा है। लोक भाषा में इसलिये लिखा कि जिससे जनसाधारण उसे पढ़ सकें और समझ सकें और उसमें निरूपित विचारों और भावों को लोक कल्याण के लिए व्यवहार में ला सकें।

महात्मा तुलसीदास भगवान राम के अनन्य भक्त थे। मानस में श्रीराम के जीवन का विशद वर्णन ही उनका प्रतिपाद्य विषय है परन्तु हर प्रसंग में उन्होंने जन साधारण के लिये सरल भाषा में लोकत्तियों और सूक्तियों तथा उदाहरणों और दृष्टान्तों के माध्यम से जनजीवन को सीखने और सुखी बनाने के लिए उपदेशात्मक प्रवचन भी लिखा है।

प्रत्येक काण्ड के प्रारंभ में उन्होंने ईश प्रार्थनायें की हैं जो संस्कृत में हैं। परन्तु सम्पूर्ण गाथा हिन्दी (अवधी लोकभाषा) में इसीलिये वर्णित की है, जिससे सामान्य ग्रामवासी भी पढक़र या सुनकर उस कथा प्रसंग से कुछ पा सकें, सीख सकें।  ”स्वान्तस्सुखाय” का अर्थ होता है आत्म सुख के लिये परन्तु विद्वानों का ”स्वान्तस्सुखाय” ”बहुजन हिताय” होता है। हर एक का सुख अलग होता है। परन्तु लेखक या कवि का सुख तो इसी में होता है कि उसकी रचना अधिक लोगों के द्वारा पढ़ी जाय और सराही जाय। जितने अधिक संख्या में लोग उसकी रचना का रसास्वादन करें और उससे उनके विचारों की शुद्धि हो यही कवि या लेखक की सबसे ज्यादा प्रसन्नता होती है। यही उसका आत्मसुख है। इस दृष्टि से देखें तो रामचरित मानस अद्भुत गं्रथ है। भारत में तो हर हिन्दू के घर में उसकी प्रति उपलब्ध है। पढ़ी जाती है और पूजी जाती है। अन्य धर्मावलंबियों द्वारा भी उसे पढ़ा और सराहा जाता है। रामचरितमानस का अनुवाद विश्व की विभिन्न भाषाओं में हो चुका है और दक्षिण-पूर्वी एशिया के मुस्लिम बाहुल्य देशों में भी उसका सम्मान है। तुलसीदास जी की मनोभावना के अनुरूप उनकी अपूर्व आध्यात्मिक रचना ‘मानसÓ को उद्देश्य प्राप्ति भी हुई है और वे प्रसिद्धि के साथ सफल भी हुए हैं। इसमें भगवान राम की जीवन की सम्पूर्ण गाथा है किन्तु उनके जीवन की घटनाओं को आदर्शरूप में प्रस्तुत किया गया है जो पाठक पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ती है। घर-परिवार और समाज में घटित होने वाले छोटे से छोटे व्यवहारों को प्रस्तुत कर कवि ने वह सबकुछ समझा दिया है कि मनुष्य को जीवन में कैसे जीना चाहिये। उसको सब के साथ कैसा संबंध रखना चाहिये और कैसा व्यवहार करना चाहिये, जिससे जीवन में सबसे मधुर संबंध रख द्वेष और कलह से दूर रह प्रेम का व्यवहार कर सफल हो सकें। मानस में प्रेम के सशक्त धागे से मनुष्य मन के समस्त भावों को पुष्प की भांति गूंथकर, कवि ने प्रेम के माध्यम से ही समस्त कठिनाइयों को सुलझाने के मनोवैज्ञानिक सूत्र प्रस्तुत किये हैं। मानस में पारिवारिक हर रिश्ते में प्रेम, भ्रार्तृत्व, सहयोग, विश्वास, श्रद्धा, भक्ति, त्याग, निष्ठा, शौर्य, कर्तव्य का सच्चाई और ईमानदारी से निर्वाह, सदाचार का पालन, दुराचारियों का समाजहित में दमन, विचारों की दृढ़ता, निर्णय की अंडिगता तथा विनम्रता, समानता और सद्भाव के अनुपम आदर्श हैं। मनोविकारों पर विजय पाने से जीवन में सुख-शांति और सामाजिक समृद्धि संभव है तथा भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए दैनिक व्यवहारों में शुद्धता और पवित्रता का पालन किया जाना सुखदायी और परिणामप्रद होता है- इसी का संकेत है। रामकथा के माध्यम से समाज में नई चेतना फूंकना, अपने परम आराध्य राम का जनहितकारी मंगलकर्ता ईश्वरीय स्वरूप हर भक्त हृदय में स्थापित करना, तुलसी का लक्ष्य प्रतीत होता है। श्रीराम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। दीन-दुखियों के शरणदाता हैं। सबके स्वारथरहित सखा हैं। निर्बल के बल है। भक्तों के लिये भवसागर पार कराने वाले पूज्य परमात्मा हैं। उनके प्रति सहज श्रद्धा जागती है। मानस के प्रमुख पात्र (नायक) हैं, किन्तु उनके जीवन से संबंधित हर पात्र आदर्श आचरण वाला है। राम के भाई भरत और लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न, भातृप्रेम और त्याग की प्रतिमूर्ति हैं। मातायें कौशल्या, सुमित्रा तथा कैकेयी भी वात्सल्य की प्रतिमा हैं। आयोध्यावासी नागरिक नितान्त प्रेमल व सदाचारी और धार्मिक हैं। अन्य सभी सेवक सहायक जो वनवास की अवधि में उन्हें मिले- सुग्रीव, हनुमान, अंगद, विभीषण आदि आदर्श सेवक हैं। हर पात्र, जो भी मानस में हैं अपनी भूमिका में आदर्श पात्र हैं। ऐसा तो ग्रंथ विश्व साहित्य में कोई दूसरा नहीं मिलता। इसीलिये यह ग्रंथ बेजोड़ है, कालजयी है तथा मनमोहक है। इसमें राजनीति, धर्मनीति, लोकनीति तथा अध्यात्म की शिक्षायें हैं। दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में- कम्बोडिया, वियतनाम, जावा, सुमात्रा में रामकथा का बड़ा आदर और महत्व है। विभिन्न अवसरों पर वहां रामकथा का रंगमंच पर प्रदर्शन किया जाता है।

क्रमशः…

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 143 ☆ दर्शन-प्रदर्शन (3) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 143 ☆ दर्शन-प्रदर्शन (3) ?

जीवन का दर्शन छोड़ प्रदर्शन के मारे मनुष्य की चर्चा आज जारी रखेंगे। लगभग पौने तीन दशक पूर्व हमने मासिक साहित्यिक गोष्ठियाँ आरंभ की। यह अनुष्ठान गत 27 वर्ष से अखंडित चल रहा है। गोष्ठियाँ आरम्भ होने के कुछ समय बाद ही कविता के बड़े मंचों से निमंत्रण आने लगे। इसी प्रक्रिया में एक रचनाकार से परिचय हुआ। वह मंचों पर तो मिलते पर गोष्ठियों से नदारद रहते। एक बार इस विषय पर चर्चा करने पर बोले, ” मैं टेस्ट मैच का खिलाड़ी हो चुका हूँ। लगातार टेस्ट मैच खेल रहा हूँ। ऐसे में रणजी ट्रॉफी क्यों खेलूँ?” उन्हें कोई उत्तर देना अर्थहीन  था। ऐसे खिलाड़ियों को समय ही उत्तर देता है। समय के साथ टेस्ट मैच पर वन-डे को प्रधानता दी जाने लगी। फिर टी-20 का ज़माना आया, फिर आईपीएल की चकाचौंध और अब तो कुछ स्थानों पर टी-10 के टूर्नामेंट भी होने लगे हैं।

यह नहीं भूलना चाहिए कि फॉर्म हमेशा नहीं रहता। फॉर्म जाने के बाद खुद को सिद्ध करने का मंच है रणजी ट्रॉफी टूर्नामेंट। यहाँ नयी प्रतिभाएं भी  निरंतर आ रही होती हैं। भविष्य में आपको किन-किन से स्वस्थ प्रतियोगिता करनी है, किन-किन के मुकाबले खुद को खड़ा करना है, यह रणजी टूर्नामेंट से ही पता चलता है।

अपने समय के प्रसिद्ध अभिनेता जीतेन्द्र ने एक बार एक साक्षात्कार में कहा था कि हर सुबह जॉगिंग करते समय वह उस समय जो नये और युवा कलाकार आ रहे थे, उन्हें याद किया करते। उन कलाकारों को याद कर, हर नये कलाकार के नाम पर अपनी जॉगिंग 100 मीटर और बढ़ा देते। बकौल उनके उन्हें नये प्रतिस्पर्द्धियों के मुकाबले खुद को फिट रखना था।

अपने आप को फिट रखना है अर्थात निरंतर सीखना है, सीखे हुए को स्मरण रखना है तो बेसिक या आधारभूत को भूलने की गलती कभी मत करना। कहा भी जाता कि ‘बेसिकस् नेवर चेंज।’ रणजी बेसिक है, रणजी आधारभूत है । फॉर्म आएगा, फॉर्म जाएगा पर आधारभूत बनाए रखना, बचाए रखना, आधारभूत का सम्मान अखंडित रखना।

यह भी ध्यान रहे कि जीवन में भी रणजी ट्रॉफी से टेस्ट मैच तक, सब कुछ होता है। एक कोई संस्था/ संस्थान/ व्यक्तित्व ऐसा होता है जो व्यक्ति के उद्भव, विकास और विस्तार में माँ की भूमिका निभाता है। उससे दूर जाना याने फॉर्म जाने के बाद खेल से बाहर हो जाने की आशंका है। कुछ इसी तरह परिवार भी व्यक्ति का आधार है। परिवार में अलग-अलग आर्थिक, सामाजिक, मानसिक स्थिति वाले सदस्य हो सकते हैं। अपने अहंकार, अपने प्रदर्शन-भाव  के चलते परिवार से दूर मत चले जाना। तुम्हारा परिवार तुम्हारे उत्थान में मंगलगीत गाता है, तुम्हारे अवसान में भी परिवार ही संबल बनता है।

चित्रपट उद्योग का ही एक और उदाहरण, पचास के दशक के प्रसिद्ध अभिनेता भगवान दादा का है।  उन्होंने अपने संघर्ष का आरंभ मुंबई की लालूभाई मेंशन चॉल से किया था। 25 कमरों वाले बंगले में जाने के बाद भी चॉल का कमरा दादा ने बेचा नहीं। विधि का विधान देखिए कि फर्श से अर्श की यात्रा उल्टी घूमी और उन्हें अपने जीवन के अंतिम दिन चॉल के उसी कमरे में बिताने पड़े।

इस विषय के समानांतर चलती अपनी एक कविता  साझा कर रहा हूँ-

जब नहीं बचा रहेगा

पाठकों.., अपितु

समर्थकों का प्रशंसागान,

जब आत्ममोह को

घेर लेगी आत्मग्लानि,

आकाश में

उदय हो रहे होंगे

नये नक्षत्र और तारे,

यह तुम्हारा

अवसानकाल होगा,

शुक्लपक्ष का आदि,

कृष्णपक्ष की इति

तक आ पहुँचा होगा,

सोचोगे कि अब

कुछ नहीं बचा

लेकिन तब भी

बची रहेगी कविता,

कविता नित्य है,

शेष सब अनित्य,

कविता शाश्वत है,

शेष सब नश्वर,

अत: गुनो, रचो,

और जियो कविता!

प्रदर्शन से मुक्त होकर अपने-अपने क्षेत्र में, अपने-अपने संदर्भ में कविता में अंतर्निहित दर्शन को जो जी सका, समय साक्षी है कि वही  खिलाड़ी लंबे समय तक पूरे फॉर्म में खेल सका।.. इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ परहित सरिस धरम नहिं भाई ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ परहित सरिस धरम नहिं भाई॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

मनुष्य को अपनी चाह को पूर्ण करने में आनंद मिलता है। हर व्यक्ति जीवन मैं आनंद चाहता है और उसी के लिये कर्म करता है। मनुष्य ही नहीं हर जीव (प्राणी) दुख से दूर हो सुख या आनन्द प्राप्ति के लिए जीवन भर कार्यरत रहता है हर क्षण। अर्थात्ï जीवन का लक्ष्य है आंनद बल्कि परमानंद।

प्रकृति ने प्राणी को ज्ञानेन्द्रियाँ दी हैं जिनसे वह ज्ञान प्राप्त करता है और कर्मेन्द्रियाँ दी हैं जिनसे कर्म कर आनंद पाने की दिशा में बढ़ता है। इनके सिवाय मन है जिससे वह सोचता है समझता है और तभी कुछ करता है। मन ही ज्ञान और कर्म का मूल है। और कर्म का आधार ज्ञान होता है। जब जानता है तभी उस दिशा में जानकार काम करता है। मन यदि सही सोचता और समझता है तो कार्य सही होता है। यदि मन सही नहीं है तो सही कार्य नहीं होता, दुख होता है। मनुष्य घर परिवार समाज में रहता है। उसका सोच विचार और कार्य का आधार और क्षेत्र केवल व्यक्ति नहीं अन्य का संपर्क है अर्थात्ï उसका हर कार्य दूसरों को प्रभावित करता है। और दूसरों से प्रभावित होता है इसलिय उसे वही करना चाहिए जो उसे तथा औरों को आनंद दे। सिद्धान्त: यह सही सोच से ही संभव है और मनुष्य को सोच को सही रखने के लिए ही शिक्षा जरूरी है। आदिकाल से जब से मनुष्य जाति ने सभ्य व्यवहार करना सीखा संस्कृति को जन्म दिया, तब से ही उसे, समाज के अन्य सदस्यों के साथ उचित व्यवहार करने की सीख देने को नीति और अनीति समझाने को समाज को संयमित, सुखी और अनुशासित रखने को धर्म की स्थापना हुई। धर्म का अर्थ है जो धारण किया जाता है। धारण करने का अर्थ है कत्र्तव्य। क्या करना अच्छा है क्या बुरा है-हर धर्म यही विवेचना करता है और उसके समझने और व्यवहार में लाने का उपदेश देता है। विभिन्न देशों में जहाँ प्राचीन  काल में मानव समुदाय पले बढ़े, स्थानीय परिस्थितियेां के अनुसार किसी विशेष व्यक्ति/ देवदूत/ अवतार या फरिश्ते ने उन्हें अनुशासित, संयमित रह सही व्यवहार करने की शिक्षा दी। उद्ïदेश्य हर एक समुदाय का यही रहा कि सब सुखी रहें, कष्ट न हो, सब मिलके एक लक्ष्य को पाने की ओर चलें, आपस में टकराव न हो। इसीलिए विश्व के विभिन्न भागों में विकसित होने वाले मानव समुदायों में वहाँ की परिस्थितियों के अनुसार रहन-सहन, सोच-विचार व्यवहार नीति-नियम विकसित हुए और उसको संचालित करने को अलग-अलग धर्माे की स्थापना हुई। धर्मों के मध्य भी मत भिन्नता के कारण पंथ बने और  उनके अनुयायी सुख शांति और आनंद पाने के लिये उन धर्मांे की शिक्षाओं या उपदेशों के अनुयायी बने। धर्म जो स्थापित हुए थे जन समुदाय में शांति और आनंद  प्रदान करने को लोगों की नासमझी से या गलत प्रचार से दूसरे पंथों या अनुयायियों का विरोध करने वाले बन गये और अंधविश्वासी नासमझ लोगों के व्यवहारों के कारण निरर्थक बैर और लड़ाई के आधार बन गये। हर समुदाय में समझदार दूरदर्शी और दूसरों का हित करने वाले थोड़े ही होते हैं। जो स्वार्थी तात्कालिक हित की बात सोचते हैं हठवादी हैं। ऐसे अधार्मिक ही अधिक होते हैं। इसीलिए धर्मों का जो लाभ होना चाहिए था वह न होकर उसका विपरीत असर समाज में हुआ। अंधविश्वासी ज्यादा हो गये और बढ़ते गये। आबादी के बढऩे के साथ-साथ ऐसे लोगों की संख्या भी बढ़ती गई और आज हम देख रहे हैं कि एक धर्म दूसरे धर्म का सहायक या पूरक होने के स्थान पर विरोधी बनकर उभर रहा है। लड़ाई का कारण बन गया है।

हर धर्म में सही आचरण का ही उपदेश है। मन-वचन और कर्म की एकरूपता की बात प्रथम महत्व की कही गई है। अर्थात्ï मन से सही सोचो, वही सत्य बात मुँह से बोलो और वैसा ही काम करो। परन्तु आज स्वार्थ परता के कारण मन-वचन और कर्म में एक रूपता के स्थान पर विभिन्नता अधिक दिख रही है। इसी से सारे संसार में उलझने हैं, झगड़े हैं, टकराव हैं, मारकाट है, युद्ध है। परिणामत: दूसरों को मारकाट कर अपना हित साधन करने की सोच और वृत्ति ने आतंकवाद को जन्म दिया है जिससे सारा विश्व जल रहा है, दुखी है। हाहाकार कर रहा है। कोई रास्ता नहीं दिख रहा है जग को सुलझाव का। हर धर्म ने मनुष्यों का ध्यान ईश्वर की प्रार्थना उपासना में लगाने के प्रयास के द्वारा उनकी वृत्तियाँ को आनंद प्राप्ति की ओर लगाकर बुराई से हटाने और अच्छाई के द्वारा मोक्ष, मुक्ति या बहिश्त पाने के अधिकारी बनने के लिए मोडऩे का प्रयास किया है। किन्तु आज तक पूरी सफलता नहीं मिली है।

सफलता तभी संभव होगी जब हम अपने ही हेतु नहीं जिनके साथ हम रहते हैं उनके हित के लिए भी सोचें और व्यवहार करें। इसीलिए हजरत मोहम्मद ने अपनी रोटी को पड़ोसी के साथ बांटकर खाने का उपदेश दिया था। ईसामसीह ने समाज के हर व्यक्ति के लिए त्याग करने और उनसे प्रेम करने व उनके दुख को दूर करने के लिए परमपिता से सदा प्रार्थना करने को कहा था। दुखी साथी के दुख को दूर करने के लिए उसकी सेवा करने का उपदेश दिया था। सनातम धर्म (हिन्दू धर्म) कहता है कि सोचो और प्रयास करो कि-

सर्वे  सुखिन:  सन्तु  सर्वे  सन्तु निरामया:,

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुखभागभवेत्ï॥

क्योंकि सारा विश्व ही अपना कुटुम्ब है। वसुधैव कुटुम्बकम्ï। सही बात हर धर्म ने बार-बार उच्च स्वर में कही है परन्तु आज लाउडस्पीकर लगाकर भक्तिभाव की दुहाई देने वाले तथा कथित धार्मिक लोगों के मन में धर्माेपदेश नहीं असर कर पाये हैं और यही आज के विश्व में न केवल मानव जाति की वरन समस्त प्रकृति और प्राणियों की दुर्दशा का कारण है।

“मानस” में तुलसीदास जी ने इस विषमता को बारीकी से देखा गहराई से सोचा और बड़ी सशक्त वाणी में कहा है-

परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई॥

यदि परहित की बात हमें सदा याद रहे तो हमसे बड़ा धार्मिक और कौन हो सकता है और इस संसार को सुखी और समृद्ध होने से कौन रोक सकता है?

धर्म का सरल सूत्र यही है और धार्मिक होने के लिए परम्ï आनंद की प्राप्ति के लिए इससे बड़ा कोई उपाय भी संभव नहीं है। अत: इस मूलमंत्र का जाप भी होना चाहिये और हर कार्य भी इसी माप से किया जाना चाहिऐ।

यह मंत्र समस्त मानव जाति के लिए उपयोगी है किसी एक धर्म के अनुयायियों के लिए नहीं।

इसी के आधार पर अपना कत्र्तव्य निर्धारित कर व्यक्ति न केवल खुद को और समाज को सुख और आनंद दे सकता है वरन जीवन के उपरान्त परमपिता के चरणों में मोक्ष पा परमानंद को प्राप्त हो सकता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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