हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ जियो और जीने दो ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ जियो और जीने दो ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

परमात्मा ने प्रकृति को सतत विकास और समृद्धि का वरदान दिया है। संसार में सबके लिये रहने, भोजन करने और विकसित होने की पूरी व्यवस्था की है। जल, भोजन, वायु, उष्णता और आकाश प्रदान कर सबको पनपने और निर्बाध बढऩे रहने का उपक्रम किया है। वनस्पति और प्राणि संवर्ग एक-दूसरे के पूरक तथा सहयोगी बनाये गये हैं। परन्तु स्वार्थी मनुष्य ने अन्य प्राणियों, वनस्पतियों, भूमि, जल, वायु और आकाश का अपनी इच्छानुसार स्वार्थपूर्ति हेतु उपयोग कर अनावश्यक दोहन कर सबको प्रदूषित कर डाला है। यह प्रदूषण स्वत: उसके विनाश का कारण हो चला है। स्वार्थ में मस्त होकर धनार्जन के लोभ में वह भूला हुआ है।

प्रकृतिदत्त जीवन दायिनी वायु धुयें से प्रदूषित है। जल अर्थात् नदियां और जलाशय मलिन प्रवाहों से भर गये हैं। जल प्रदूषित हो गया। बीमारियां फैला रहा है। भूमि पर्याप्त उत्पन्न करने की क्षमता खोती जा रही है क्योंकि रासायनिक खादों से उर्वरा शक्ति खो रही है। कृषि भूमि पर भवन और कारखाने लगा दिये गये हैं। खदानों से जरूरत से अधिक खुदाई कर कोयला लोह अयस्क तथा अन्य मूल्यवान धातुयें और उत्पाद निकाले जा रहे हैं। शुद्ध भोज्य पदार्थ दुर्लभ हो रहे हैं। आकाश में ओजोन परत जो जीवन रक्षक कवच का काम करती है फट गई है। वायुमण्डल का तापमान असंतुलित हो गया है। प्राकृतिक बर्फ की चादर पिघल कर फट रही है। अत: उष्णता बढ़ रही है। मौसमों में असंतुलन आ गया है। वनस्पति-वृक्षों को काटा जा रहा है, अत: वनों का क्षेत्रफल कम हो रहा है। जिससे असंतुलन बढ़ रहा है। वन्य प्राणियों के आवास नष्ट हो रहे हैं जिससे उनकी प्रजातियां ही नष्ट हो रही हैं। वन्य पशुओं का मांस और धन के लिये शिकार किया जा रहा है। मनुष्य ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये नदी, पहाड़, खेत, वन, वन्य प्राणियों किसी को नहीं छोड़ा है और उनसे निर्दयता पूर्वक बर्ताव कर रहा है। यही तो पाप है जो आज मनुष्य निर्भय होकर कर रहा है।

सभी धर्मों ने मनुष्य को उपदेश दिया है कि संसार में जितने भी जीव जन्तु प्राणी हैं सभी मानव जीवन में सहायक हैं। उनकी तथा प्राकृतिक सर्जना की रक्षा भर ही नहीं उनकी संवृद्धि में सहयोग करके पुण्य लाभ प्राप्त करना चाहिये। किसी का विनाश न किया जाय, इसी सिद्धांत को सामने रख भगवान महावीर ने कहा था- ‘अहिंसा परमो धर्म:’। अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है। जो धर्म का पालन करते हैं उन्हें पुण्य लाभ होता है और उन्हें सद्गति प्राप्त होती है। यदि मनुष्य दया भाव रखकर सबके साथ बर्ताव करे तो वह स्वत: भी सुखी हो। उसे जीवन के लिये प्रकृति सबकुछ प्रदान करे और वनस्पति तथा सभी प्राणियों को सुखी रख सके। इसी जनकल्याणकारी सिद्धांत को प्रतिपादित कर महावीर जी ने कहा था- ‘जियो और जीने दो’ अर्थात् खुद भी जियो और सुखी रहो तथा अन्य सभी को भी जीने और सुखी रहने दो। सूत्र रूप में सुख प्राप्ति के लिये अहिंसा के इस सिद्धांत से बड़ा मार्गदर्शक सिद्धांत क्या हो सकता है। मनुष्य को इसका मनन चिंतन और अपने जीवन में परिपालन करना आवश्यक है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ अहंकार का त्याग करें ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ अहंकार का त्याग करें ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

भूतल पर हमें अनुपम प्राकृतिक संरचना दिखाई देती है। इसमें तरह-तरह की वनस्पतियां और आश्चर्य में डाल देने वाला प्राणि जगत है। प्राणियों में जलचर, नभचर, थलचर सभी हैं। छोटे-छोटे कीट पतंगों से लेकर हाथी तक विशालकाय भयानक प्राणी हैं। बिना पैर के जीव जन्तुओं से लेकर बहुपद वाले थलचर और छोटी पंखियों से लेकर विशाल पंखधारी नभचर भी हैं। प्रकृति की यह अद्भुत व्यवस्था है। सब अपनी-अपनी मर्यादाओं में रहकर व्यवहार करते हैं। सबमें एक समन्वय है। अनेकताओं के बीच में एक रूपता है। समस्त सृष्टि हर घटक का उद्भव, विकास और अवसान निरन्तर अबाध गति से चलता रहता है। सबके जीवन क्रम में पारस्परिक सहयोग और समन्वय के आयाम भी दिखाई देते हैं। यदि ऐसा न होता तो जीवन दूभर हो जाता। सब अपने में अकेले होते हुये भी एक परिवार के सदस्य हैं और प्रत्येक के कुछ निर्धारित कार्य हैं, जो दूसरों को किसी न किसी प्रकार हितकारी हैं। इसी सृष्टि का बारीक अध्ययन कर भारतीय मनीषियों ने कहा- ‘वसुधैव कुटुम्बकम’।

परन्तु  बुद्धिवादी मनुष्य ने अपने विकास क्रम में नई-नई खोजें करके प्राकृतिक संतुलन को बदल दिया है। मेरे-तेरे की विभाजन रेखायें खींचकर संपूर्ण प्राकृतिक संपदाओं को टुकड़ों में बांट डाला है और उनपर अपना स्वत्व जमा रखा है। भूमि, नदी, पहाड़ ही नहीं अविभाज्य सागरों और आकाश पर भी अपना अधिकार दिखाता है। अब तो स्थिति यह हो गई है कि एक परिवार की सम्मिलित भूमि और संपत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार व बंटवारे के लिये झगड़े हो रहे हैं। विश्व को विखंडित कर नई-नई सीमायें बनाई जा रही हैं और इसी के लिये स्वार्थवश बड़ी-बड़ी लड़ाईयां हो चुकी हैं। समस्त विश्व में अधिकार और धन संपत्ति के विभाजन से वैरभाव व मनोमालिन्य बढ़ रहे हैं। सब जानते हैं कि एकदिन यह सब यहीं छोडक़र मृत्यु की गोद में सोना होगा परन्तु मोह माया और अहंकार के भाव के कारण मन की चाह बढ़ती जाती है। आध्यात्मिक चिंतक इसीलिये कहते हैं कि यही मेरी-तेरी की भावना माया है, जो मनुष्य को सच्चिदानंद की प्राप्ति में बाधक है। पढ़लिखकर समझदार होने के बाद भी हमारे व्यवहार अज्ञानों या अनपढ़ मूर्खों सरीखे होते हैं।

आध्यात्मिक दृष्टि से सारा संसार एक परिवार है पर फिर भी वैसा व्यवहार लोग नहीं कर पाते हैं। यही कारण है कि मनुष्य निरंतर किसी न किसी वस्तु के अभाव में दुखी होता रहता है। हमारे अहंकार ने ही सारे भूमंडल को राजनैतिक खण्डों में बांटकर नये-नये राज्य व देश  बना लिये हैं और पारस्परिक स्वार्थ में फंसकर अप्राकृतिक सीमाओं में कटीले तारों के घेरे लगा लिये हैं। थोड़े से स्वार्थ के लिये क्रोध कर लड़ते हैं और एक दूसरे को मार डालने में भी पीछे नहीं रहते। हमने अपने खुद को खुश करने के लिये कटीली बाड़ों में अपने को कैद कर रखा है। अपने को कैदकर खुद को अहंकार में रख दूसरे से लड़ते और दोनों पक्षों को दुखी करते हैं। यदि हमें सच्चे सुख की वास्तविक अभिलाषा है तो हमें सबसे मिलकर रहना होगा। अपने लगाये कटीले घेरों को तोडऩा होगा। वास्तविक सुख आपस में, प्रेम में, सहयोग में व समरसता में है। एकीकरण में है विभाजन में नहीं। ईश्वर ने सृष्टि को समग्रता में रचा है। हमें उसकी रचना के रहस्य और उद्देश्य को समझकर संवेदनशील बनना होगा और सबके साथ भावनात्मक एकता से रहना होगा। अहंकार को छोडऩा होगा और वसुधैव कुटुम्बकम के भाव को विकसित कर रहना होगा तभी सुखी हो सकेंगे।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 153 ☆ सं गच्छध्वम्, सं वदध्वम्! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना – माधव साधना (11 दिवसीय यह साधना गुरुवार दि. 18 अगस्त से रविवार 28 अगस्त तक)

इस साधना के लिए मंत्र है – 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

(आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं )

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 153 ☆ सं गच्छध्वम्, सं वदध्वम्! ?

स्मरण हो आता है वह समय जब रेल का आरक्षण लेना लगभग आधे दिन की प्रक्रिया थी। कामकाजी समय से आधा दिन निकालना संभव न होता। इसके चलते 250-300 किलोमीटर की यात्रा प्राय: अनारक्षित डिब्बे में होती। रेल हो या बस, सीट पाया व्यक्ति अपने स्थान से टस से मस नहीं होना चाहता था। नये यात्री है को स्थान देने के बजाय अपने लिए आवश्यकता से अधिक स्थान सुरक्षित कर लेने की वृत्ति प्रायः देखने को मिलती थी। न्यूनाधिक यही स्थिति अब भी होगी। इस वृत्ति पर मनुष्य के क्रमिक विकास का सिद्धांत लागू नहीं हुआ। केवल प्रदर्शन का क्रमिक विकास हुआ।

आँखो दिखता सच यह है कि स्थूल रूप से मनुष्य दूसरे को स्थान नहीं देना चाहता। अंतश्चेतना के स्तर पर देखें तो अनेक बार मनुष्य न केवल भौतिक रूप से किसी के लिए स्पेस देने को इंकार करता है बल्कि मानसिक रूप से भी दूसरों के विचार के लिए कोई जगह छोड़ना नहीं चाहता।

स्मरण आती है, विद्यालय के दिनों की एक घटना। साथ ही स्मरण आते हैं हमारे प्रधानाध्यापक श्रद्धेय सत्यप्रकाश जी गुप्ता सर। मैं जब नौवीं में पढ़ा करता था, सर प्रधानाध्यापक बनकर पाठशाला में आए थे। मैं जो निबंध लिखता या ललित रूप से जो कुछ भी लिखता, उसे वे बेहद पसंद करते। विशेषकर राजनीतिक-सामाजिक  विषयों पर मेरा लेखन उन्हें बहुत भाता। उदाहरण के लिए ‘यदि मैं प्रधानमंत्री होता’ जैसे विषयों पर अपनी आयु के अनुरूप अपने विचारों को मैं प्रखरता से प्रकट करता। आज लगता है कि संभवत: यह विचार एकांगी अथवा एकतरफा होते होंगे। सर इन विचारों को पढ़-सुनकर प्रसन्न होते, पीठ थपथपाया करते।

मैं दसवीं में पहुँचा। बोर्ड की परीक्षा थी। दसवीं के बच्चों का विदाई समारोह होता था। विदाई समारोह के दो-चार दिन पहले सर ने मुझे अपने ऑफिस में बुलाया। वे बालक कहकर संबोधित किया करते थे। अत्यंत स्नेह से बोले, “बालक बोर्ड की परीक्षा में किसी राजनीतिक विषय  जैसे ‘यदि मैं प्रधानमंत्री होता’ पर निबंध मत लिखना। सामाजिक विषय पर लिखना।” पंद्रह वर्ष की अवस्था, जोश अधिक और होश कम। मैंने कहा, “मैं इसी पर लिखूँगा। यह मेरी पसंद का विषय है।”…” तुम्हारे अंक कम हो सकते हैं बालक, क्योंकि आवश्यक नहीं कि परीक्षक तुम्हारे विचारों से सहमत हो। मैं तुम्हें मेरिट लिस्ट में देखना चाहता हूँ, इसलिए प्रयास करना कि राजनीतिक विषय से बच सको।” उन्हें जीवन का विशद अनुभव था। मेरी आँखों में मेरी प्रतिक्रिया को उन्होंने पढ़ लिया। कुछ देर पहले प्रत्यक्ष सुन भी चुके थे। क्षण भर चुप रहकर बोले, “ठीक है, यदि ऐसे किसी विषय पर लिखो भी तो दूसरे के विचारों के लिए जगह छोड़ देना।”

घटना 42 वर्ष पूर्व की है। सर स्वर्गवासी हो चुके पर उनका अ-क्षर वाक्य चिरंजीव होकर आज भी मेरा मार्गदर्शन कर रहा है।

कालांतर में अनुभव ने सिखाया कि दूसरे के विचार के लिए विचार करना कितना आवश्यक है। संतान, जीवनसाथी, मित्र, परिवार, परिचित सब पर लागू होती है यह आवश्यकता।  कार्यालय, व्यापार, सामाजिक जीवन में यदि  आप नेतृत्व कर रहे हैं तो अनेक बार दो-टूक निर्णय लेने की स्थिति बनती है। ऐसे में प्रशंसा-आलोचना से परे निर्णय लेकर उसे समयबद्ध क्रियान्वयन तक भी ले जाना होता है। तथापि इस प्रक्रिया में भी जो लोग असहमत हैं या भिन्न मत रखते हैं, उनके विचारों के लिए जगह छोड़ना आवश्यक है। सामासिकता कहती है कि दूसरों के विचार के लिए जितनी जगह छोड़ते जाओगे, उतना ही तुम्हारा स्पेस अपने आप बढ़ता जाएगा। है न ग़ज़ब का समीकरण! दूसरों को स्पेस दो तो घटने के बजाय बढ़ता है अपना स्पेस!

ऋग्वेद यूँ ही नहीं कहता, ‘सं गच्छध्वम्, सं वदध्वम्!’ अर्थात मिलकर चलें, मिलकर बोलें। सांप्रतिक जीवन शैली में मिलकर चलना-बोलना न हो सके तब भी दूसरे के विचार के लिए स्थान छोड़कर अपौरूषेय के मार्ग का अवलंबन किया जा सकता है।..इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

सोती हुई आंखों से देखे जो जाते हैं उन्हें स्वप्न कहा जाता है और जागते हुये जो कुछ देखा जाता है उसे सत्य कहा जाता है। जन सामान्य में व्यवहारिक धारणा यही है, किन्तु क्या यह सर्वथा सत्य है? कवि, चित्रकार या वास्तुविद किसी रचना के पहले अपनी रचना का मानसिक प्रतिरूप तैयार करता है। उसके बाद ही अपनी कल्पना को शब्दों या रेखाओं और रंगों से उकेर कर रूप देता है। वह जो सोचता विचारता है वह कल्पना भी उसका स्वप्न होता है। इसीलिये ‘स्वप्न का साकार करना’ एक मुहावरा बन गया है, जिसका अर्थ है कल्पना को वास्तविकता में बदल देना या निर्माण करना। इस प्रकार अपने काल्पनिक चित्र को वास्तविकता में प्रकट कर देने में कर्ता या कलाकार को एक आनन्द और सुख मिलता है।

हर एक के मन में हमेशा कुछ विचार और उनका चित्र उभरते रहते हैं। नींद में देखे जाने वाले अच्छे या बुरे बहुत से स्वप्नों का जैसे कोई उपयोग नहीं होता ऐसे ही बहुत से काल्पनिक चित्र और विचार निरर्थक ही होते हैं और समय की तरंगों के साथ खो जाते हैं। पर कुछ इतने महत्वपूर्ण होते हैं कि वे जीवन की भावी इमारत को सही रूप देने में सहायक होते हैं और वे एक ही व्यक्ति की नहीं बल्कि उससे संबंधित अनेकों के जीवन को प्रभावित करते हैं। उन पर भविष्य के नव निर्माण की नींव खड़ी कर दी जाती है। ऐसे सार्थक विचारकों और महत्वपूर्ण स्वप्नों के सजाने वालों को चिन्तक, विचारक या स्वप्नदृष्टा कहा जाता है। इन स्वप्नदृष्टा विचारकों और चिन्तकों की भी दो श्रेणियां हैं। एक वे हैं जो इस विश्व में जो प्रकृति प्रदत्त है और दृश्यमान है उस पर चिन्तन खोज और प्रकृति के रहस्यों को उद्घाटित कर नये-नये अविष्कार करके इस धराधाम में सुख-सुविधायें उपलब्ध कराने में लगे हैं। ये भौतिक शास्त्री या विज्ञानी है। जो कुछ संसार में दिखाई देता है वह सभी परिवर्तन शील है और नाशवान है अत: अनित्य है। इसकी अध्ययन और खोज इन भौतिक विज्ञानियों का काम है। दूसरे वे लोग हैं जो इनसे भिन्न हैं। वे अपने चिन्तन मनन से उन तत्वों पर खोज या अनुसंधान करते हैं जो आंखों को दिखाई नहीं देता। जैसे प्राणियों के शरीर और प्रकृति का सारा स्वरूप तो देखा जा सकता है परन्तु शरीर को संचालित करने वाली चेतना जिसे आत्मा कहा जाता है अदृश्य है। मनुष्य या प्राणियों के मृत्यु के उपरांत शरीर तो रह जाता है परन्तु अदृश्य चेतना आत्मा कहीं चली जाती है। आत्मा जैसे अदृश्य है वैसे ही परमात्मा अदृश्य है। इन अदृश्य तत्वों के विचारकों को अध्यात्म विज्ञानी या अध्यात्मिक चिन्तक कहा जाता है। ये उन अदृश्य तत्वों पर विचार और अनुसंधान करते हैं जो अदृश्य हैं अनश्वर हैं। इन्हीं के चिन्तन के परिणाम स्वरूप मनुष्य को यह ज्ञान हो सका कि ईश्वर नाम की महाशक्ति भी है जिसने सारी सृष्टि रची है और उसका वह संचालन भी कर रही है। यह अनश्वर अर्थात् नष्ट न होने वाला तत्व नित्य है अजर अमर है।

जो कुछ नाशवान है उसे धर्मगुरुओं ने मिथ्या कहा है और जो अमर है अपरिवर्तनशील है उसे सत्य कहा है। आदि शंकराचार्य का यह कथन- ‘ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या’ का अर्थ यही है कि आत्मा व परमात्मा नित्य है इसलिये सत्य है और जगत अर्थात् संसार में अन्य जो कुछ भी दिखाई देता है व परिवर्तनशील और नाशवान है इसलिये वह सब मिथ्या है।

संसार का जीवन में अपना बड़ा महत्व है व्यक्ति के लिये सदा मतलब भी रखता है। कई लोग जो यह अर्थ निकालते हैं कि जगत का कोई अस्तित्व ही नहीं है केवल आत्मा या ईश्वर तत्व ही है, अनुचित है और गलत है। सत्य और मिथ्या शब्दों का सही अर्थ समझ कर उनके उक्त सूत्र को सही समझकर अर्थ करना चाहिये।

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ आदर्श के अनुकरण की आवश्यकता ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ आदर्श के अनुकरण की आवश्यकता ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

जीवन को सही दिशा में विकसित करने के लिये एक आदर्श की आवश्यकता होती है। सामने कोई आदर्श रहने से उसका अनुकरण कर चलने से कोई निश्चित उपलब्धि पाई जा सकती है, मार्ग सरल हो जाता है। जैसे कोई चित्रकार सामने कोई मॉडल रख उसकी अनुकृति बनाना सरल पाता है वैसे ही जीवन को किसी निर्धारित सांचें में ढालना आदर्श का अनुकरण कर बढऩा आसान होता है। स्वरुचि के अनुसार जिस किसी भी क्षेत्र में विकास करना हो, उस क्षेत्र के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति के जीवन विकास क्रम को समझना और उसका क्रमिक अनुकरण करना उचित होता है। किसी भी लक्ष्य को पाने के लिये एक सफल मार्गदर्शक चाहिये। उसकी प्रेरणा और अनुकरण से उस पथ पर चलना और आने वाली कठिनाइयों से जूझ सकना आसान हो जाता है। शिक्षा, समाजसेवा, व्यवसाय, व्यापार, विज्ञान, धर्म, अध्यात्म, योग, भक्ति, राजनीति या चिकित्सा यहां तक कि खेल के क्षेत्र में भी मार्गदर्शन के लिये आदर्श का होना अच्छा है। यह विश्व विभिन्नताओं से भरा पड़ा है। आज हर क्षेत्र में विकास की संभावनायें हैं और आदर्श  उपलब्ध हैं। सुयोग्य आदर्श की जानकारी विभिन्न स्रोतों से प्राप्त की जा सकती है। स्वत: के ज्ञान और खोज से अखबारों से टीवी से पत्र-पत्रिकाओं से और सत्साहित्य से। इसीलिये साहित्य को जीवनोत्कर्ष के लिये सहायक कहा जाता है। पुस्तकों ने अनेकों के विकास के दरवाजे खोले हैं। पुस्तकें सबकी परम मित्र हैं। अनेकों सफल महापुरुषों ने अपने पूर्ववर्ती नायकों के जीवन चरित्र पुस्तकों में पढक़र अपने रास्ते चुने हैं और सत्य अहिंसा, जनसेवा, करुणा के भावों को जगाकर उनका अनुकरण करने का संकल्प कर जीवन को सजाया और संवारा है तथा खुद महान बन सके हैं। आदर्श का चित्र मन में बस जाने से उसके प्रति श्रद्धाभाव वैसे ही उत्पन्न हो जाता है जैसे भक्त के मन में भगवान के प्रति अनुरक्ति श्रद्धा और विश्वास। यही विश्वास सफलता देता है। कहा है- विश्वास: फलदायक:। विश्वास से ही भक्त को भगवान मिलते हैं। विश्वास और श्रद्धा से ही व्यक्ति को हर क्षेत्र में सफलता मिलती है। हर उपासक के सामने जाने या अनजाने में भी कोई एक आदर्श तो होता ही है। आदर्श की प्रतिमा सतत प्रेरणा देती है। शक्ति भी देती है, जिससे लक्ष्य को पाया जाता है। हर एक के लिये उसके विश्वास और निष्ठा के अनुसार आदर्श अलग-अलग हो सकते हैं। एक ही आदर्श सभी के लिये आदर्श नहीं हो सकता। किसी के लिये आदर्श राम है तो किसी के आदर्श कृष्ण है और किसी के लिये शिव अथवा हनुमान जी। हर मनोदशा का जीवन में भिन्न आदर्श हो सकता है। एक ही व्यक्ति का एक परिस्थिति में कार्य संपादन का आदर्श एक हो सकता है और दूसरी परिस्थिति में कुछ अन्य। मूलत: आदर्श की आवश्यकता सफलता के लिये लक्ष्य को पाने के लिये होती है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #147 ☆ रिश्ते बनाम संवेदनाएं ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख रिश्ते बनाम संवेदनाएं। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 147 ☆

☆ रिश्ते बनाम संवेदनाएं

सांसों की नमी ज़रूरी है, हर रिश्ते में/ रेत भी सूखी हो/ तो हाथों से फिसल जाती है। प्यार व सम्मान दो ऐसे तोहफ़े हैं; अगर देने लग जाओ/ तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं–जैसे जीने के लिए एहसासों की ज़रूरत है; संवेदनाओं की दरक़ार है। वे जीवन का आधार हैं, जो पारस्परिक प्रेम को बढ़ाती हैं; एक-दूसरे के क़रीब लाती हैं और उसका मूलाधार हैं एहसास। स्वयं को उसी सांचे में ढालकर दूसरे के सुख-दु:ख को अनुभव करना ही साधारणीकरण कहलाता है। जब आप दूसरों के भावों की उसी रूप में अनुभूति करते हैं; दु:ख में आंसू बहाते हैं तो वह विरेचन कहलाता है। सो! जब तक एहसास ज़िंदा हैं, तब तक आप भी ज़िंदा मनुष्य हैं और उनके मरने के पश्चात् आप भी निर्जीव वस्तु की भांति हो जाते हैं।

सो! रिश्तों में एहसासों की नमी ज़रूरी है, वरना रिश्ते सूखी रेत की भांति मुट्ठी से दरक़ जाते हैं। उन्हें ज़िंदा रखने के लिए आवश्यक है– सबके प्रति प्रेम की भावना रखना; उन्हें सम्मान देना व उनके अस्तित्व को स्वीकारना…यह प्रेम की अनिवार्य शर्त है। दूसरे शब्दों में जब आप अहं का त्याग कर देते हैं, तभी आप प्रतिपक्ष को सम्मान देने में समर्थ होते हैं। प्रेम के सम्मुख तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। रिश्ते-नाते विश्वास पर क़ायम रह सकते हैं, अन्यथा वे पल-भर में दरक़ जाते हैं। विश्वास का अर्थ है, संशय, शंका, संदेह व अविश्वास का अभाव–हृदय में इन भावों का पदार्पण होते ही शाश्वत् संबंध भी तत्क्षण दरक़ जाते हैं, क्योंकि वे बहुत नाज़ुक होते हैं। ज़िंदगी की तपिश को सहन कीजिए, क्योंकि वे पौधे मुरझा जाते हैं, जिनकी परवरिश छाया में होती है। भरोसा जहाँ ज़िंदगी की सबसे महंगी शर्त है, वहीं त्याग व समर्पण का मूल आधार है। जब हमारे अंतर्मन से प्रतिदान का भाव लुप्त हो जाता है; संबंध प्रगाढ़ हो जाते हैं। इसलिए जीवन में देना सीखें। यदि कोई आपका दिल दु:खाता है, तो बुरा मत मानिए, क्योंकि प्रकृति का नियम है कि लोग उसी पेड़ पर पत्थर मारते हैं, जिस पर मीठे फल लगते हैं। सो! रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोग ग़ैरों की बातों में आकर अपनों से उलझ जाते हैं। इसलिए अपनों से कभी मत ग़िला-शिक़वा मत कीजिए।

‘जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए तथा जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए।’ हर पल, हर दिन प्रसन्न रहें और जीवन से प्यार करें; यह जीवन में शांत रहने के दो मार्ग हैं। जैन धर्म में भी क्षमापर्व मनाया जाता है। क्षमा मानव की अद्भुत् व अनमोल निधि है। क्रोध करने से सबसे अधिक हानि क्रोध करने वाले की होती है, क्योंकि दूसरा पक्ष इस तथ्य से बेखबर होता है। रहीम जी ने भी ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ के माध्यम से यह संदेश दिया है। संवाद संबंधों की जीवन-रेखा है। इसे कभी मुरझाने मत दें। इसलिए कहा जाता है कि वॉकिंग डिस्टेंस भले रखें, टॉकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें। स्नेह का धागा व संवाद की सूई उधड़ते रिश्तों की तुरपाई कर देते हैं। सो! संवाद बनाए रखें, अन्यथा आप आत्मकेंद्रित होकर रह जाएंगे। सब अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाएंगे– एक-दूसरे के सुख-दु:ख से बेखबर। ‘सोचा ना था, ज़िंदगी में ऐसे फ़साने होंगे/ रोना भी ज़रूरी होगा, आंसू भी छुपाने होंगे’ अर्थात् अजनबीपन का एहसास जीवन में इस क़दर रच-बस जाएगा और आप उस व्यूह से चाहकर भी उससे मुक्त नहीं हो पाएंगे।

आज का युग कलयुग अर्थात् मशीनी युग नहीं, मतलबी युग है। जब तक आप दूसरे के मन की करते हैं; तो अच्छे हैं। एक बार यदि आपने अपने मन की कर ली, तो सभी अच्छाइयां बुराइयों में तबदील हो जाती हैं। इसलिए विचारों की खूबसूरती जहां से मिले; चुरा लें, क्योंकि चेहरे की खूबसूरती तो समय के साथ बदल जाती है; मगर विचारों की खूबसूरती दिलों में हमेशा अमर रहती है। ज़िंदगी आईने की तरह है, वह तभी मुस्कराएगी, जब आप मुस्कराएंगे। सो! रिश्ते बनाए रखने में सबसे अधिक तक़लीफ यूं आती है कि हम आधा सुनते हैं; चौथाई समझते हैं; बीच-बीच में बोलते रहते हैं और बिना सोचे-समझे प्रतिक्रिया व्यक्त कर देते हैं। सो! उससे रिश्ते आहत होते हैं। यदि आप रिश्तों को लंबे समय तक बनाए रखना चाहते हैं, तो जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार लें, क्योंकि उपेक्षा, अपेक्षा और इच्छा सब दु:खों की जननी हैं और वे दोनों स्थितियां ही भयावह होती हैं। मानव को इनके चंगुल से बचकर रहना चाहिए। हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को संजोकर रखना चाहिए और साहस व धैर्य का दामन थामे आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। जहां कोशिशों का क़द बड़ा होता है; उनके सामने नसीबों को भी झुकना पड़ता है। ‘है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।’ आप निरंतर कर्मरत रहिए, आपको सफलता अवश्य प्राप्त होगी। रिश्तों को बचाने के लिए एहसासों को ज़िंदा रखिए, ताकि आपका मान-सम्मान बना रहे और आप स्व-पर व राग-द्वेष से सदा ऊपर उठ सकें। संवेदना ऐसा अस्त्र है, जिससे आप दूसरों के हृदय पर विजय प्राप्त कर सकते हैं और उसके घर के सामने नहीं; उसके घर अथवा दिल में जगह बना सकते हैं। संवेदना के रहने पर संबंध शाश्वत बने रह सकते हैं। रिश्ते तोड़ने नहीं चाहिए। परंतु जहां सम्मान न हो; जोड़ने भी नहीं चाहिएं। आज के रिश्तों की परिभाषा यह है कि ‘पहाड़ियों की तरह ख़ामोश हैं/ आज के संबंध व रिश्ते/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ ही नहीं आती।’ सचमुच यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

16.7.22.

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ ज्ञान की पवित्रता को समझिए ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ ज्ञान की पवित्रता को समझिए ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

गीता भारतीय चिन्तन का अद्भुत ग्रंथ है। उसके श्लोकों के अध्ययन और विश्लेषण से मानव जीवन के अनेकानेक रहस्यों का उद्घाटन होता है। पढऩे और समझने से एक विशेष आनन्द की अनुभूति होती है। गीता का उपदेश तो आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण ने अर्जुन को अपने कर्तव्य के प्रति सजग करने को दिया था, किन्तु उसके श्लोक समय की इतनी लंबी अवधि बीत जाने के उपरांत आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, बल्कि यूं भी कह सकते हैं कि इतने लंबे अंतराल के बाद जब वर्तमान विश्व ने बेहद उन्नति कर प्रत्येक क्षेत्र में बहुत अधिक विकास कर लिया है, तब गीता के कथन की प्रासंगिकता और उज्जवलता और भी अधिक स्पष्ट समझ में आती है।

गीता कहती है- ज्ञान के समान इस संसार में और कुछ भी पवित्र नहीं है। आशय है कि ज्ञान की प्राप्ति से अज्ञान का अंधकार नष्ट हो जाता है और अज्ञान के कारण जो बात समझ में नहीं आती, वह साफ समझ में आने लगती है। हर कठिनाई का हल साफ दिखाई देने लगता है और व्यक्ति सहज ही सफलता पाने की दिशा में आगे बढ़ जाता है, इसलिये ज्ञान के समान इस संसार में और कुछ भी पवित्र नहीं है, क्योंकि ज्ञान की पवित्रता सद्वृत्ति को जगाती है और जीवन को नयी दिशा दिखाती है। ज्ञान के बिना प्रगति असंभव है, इसलिये सही ज्ञान को प्राप्त करने का निरन्तर प्रयास किया जाना चाहिये। गीता के काल में समाज के पास जो ज्ञान उपलब्ध था, आज उससे बहुत अधिक ज्ञान उपलब्ध है। उसी ज्ञान की प्राप्ति के फलस्वरूप आज मानव जीवन बहुत सरल और सुविधायुक्त हो गया है।

विगत दो शताब्दियों में विज्ञान की मदद से विश्व ने जो कुछ पा लिया है, वह ज्ञान की प्राप्ति के चमत्कार से संभव हुआ है। आज सूचना प्रौद्योगिकी से ही पल भर में दुनिया के किसी भी कोने में होने वाले किसी भी घटना की न केवल सूचना मिल जाती है, वरन् उस घटना के चित्र भी हम घर बैठे टीवी के माध्यम से देख लेते हैं। संचार माध्यमों के विकास ने तथा गमनागमन की सुविधाओं ने मनुष्य के ज्ञान को बहुत समृद्ध कर दिया है। विश्व एक गांव की भांति सिमटकर अत्यंत छोटा हो गया है। इस भू-भाग पर ही नहीं, जल, थल और आकाश मार्ग भी आवागमन के लिये सुलभ हो गये हैं और इतना ही क्यों? अंतरिक्ष की यात्रायें कर व्यक्ति अन्य ग्रहों और उपग्रहों तक पहुंचकर वहां की सब जानकारियां प्रापत कर रहा है। वहां के चित्र भी वह घर बैठे अपने टीवी सेट पर देख सकता है।

ज्ञान के विस्तार ने सुख-सुविधायें न केवल बढ़ाई हैं, बल्कि उनकी प्राप्ति के तरीकों की नई-नई तकनीक उपलब्ध करा दी हैं, जिससे जीवन सरल और सुखद हो गया है। सूचना प्रौद्योगिकी ने विश्व के दूरस्थ विश्वविद्यालयों को जोड़ दिया है। एक विश्वविद्यालय में एक विद्वान द्वारा दिये जा रहे व्याख्यान को सभी विश्वविद्यालयों तथा अन्य संस्थानों में उसी समय सुना व समझा जा सकता है और प्रश्नोत्तर द्वारा कठिनाइयां दूर की जा सकती हैं, चिकित्सा के क्षेत्र में रोग के निदान तथा सर्जरी तक की जा सकती है। प्रशासन के क्षेत्र में जो सूचनायें महीनों में पहुंच पाती थीं, वे तुरन्त इंटरनेट द्वारा या मोबाइल फोन द्वारा क्षण भर में कभी भी किसी भी जगह पहुंचाई जा सकती है तथा प्रशासनिक आदेश तुरंत भेजकर समस्याओं का निरीक्षण अविलम्ब किया जा सकता है। यह सब ज्ञान के प्रसार की सुविधा से हुआ है।

ज्ञान की पवित्रता को और महत्ता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है? समाज को जो सुविधा उपलब्ध हो जाती है, उसका महत्व कम समझा जाने लगता है पर गीता के शब्दों की सत्यता को अनुभव से समझा जा सकता है। समय ने जो ज्ञान का उपहार देकर मानव जीवन को आसान बना दिया है, वह आने वाले समय में और भी नये अवदान देने के लिये ज्ञान की उपासना में रत है। कल और भी नये रहस्यों का उद्घाटन होना बहुत संभव है। इस प्रकार ज्ञान प्रत्यक्ष देवता है। ज्ञान से पावन कुछ नहीं है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 177 ☆ शाहरुख हैदर की चर्चित कविता ” मैं एक शादी शुदा औरत हूं ” पर सोचते हुए… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – शाहरुख हैदर की चर्चित कविता ” मैं शादी शुदा औरत हूं ” पर सोचते हुए…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 177 ☆  

? आलेख – शाहरुख हैदर की चर्चित कविता “मैं एक शादी शुदा औरत हूं” पर सोचते हुए… ?

शाहरूख हैदर ईरान की शायरा हैं। उनकी यह नज्म ”मैं एक शादीशुदा औरत हूं”, कई देशों में समाज के आधे हिस्से के प्रति लोगों का नजरिया बताने को काफी है।

आप यह कविता हिन्दी कविता के फेसबुक वाल पर इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं 👉  “मैं एक शादी शुदा औरत हूँ”

महिलाओ को समाज का आधी आबादी कहा जाता है, पर मेरा मानना है की वे आधी से कहीं अधिक हैं, क्योंकि पुरुष का वजूद ही उनके बिना शून्य है, बच्चो का जन्म उनका  लालन पालन, परिवार संस्था का अस्तित्व सब कुछ स्त्री पर ही निर्भर है, इसलिए स्त्री आधी से ज्यादा तवज्जो की हकदार है। किंतु दुनिया के अनेक हिस्सों में हालत वास्तव में कैसे हैं, यह बात रेखांकित करती है यह कविता। सिहरन होती है, रोंगटे खड़े करती है यह बेबाक बयानी। इसे हर लड़की और औरत को ही नहीं हर इंसान को कम से कम एक बार तो जरूर पढ़ना चाहिए, ये जानने के लिए ही सही कि, दुनिया के बाकी हिस्से में औरतों का क्या हाल है!  संसार की हर औरत का हाल कमोबेश एक जैसा ही है।  ये नज्म कम बल्कि एक तहरीर है औरत की, मर्दवादी समाज के खिलाफ। जिसमें सरहदों की हदें मायने नहीं रखती। हर मुल्क की सीमाओं में औरतों की चीखें गूंजती हैं। अंधेरा ही नहीं बल्कि दिन का उजाला भी डराता है। जब शादी शुदा औरत की यह दुर्दशा है जिसका एक अदद शौहर कथित रूप से उसकी रक्षा के लिए मुकरर्र है, तो फिर स्वतंत्र स्त्री की दुर्दशा समझना मुश्किल नहीं है।

हमारा देश तो लोकतंत्र है, यहां तो वुमन लिबर्टी के पैरोकार हैं पर यहां का हाल भी देख लीजिए। हर रोज गैंगरेप की खबरें, दुष्कर्म के बाद हत्या और छेड़खानियां आम हैं। राजनीति में कोई कहता है की स्त्री को बुरके में या घूंघट में कैद कर रखो, कोई बलात्कारियों को उनकी उम्र की गलती बता कर माफ करना चाहता है, तो कोई कहता है की बलात्कार पर फांसी की सजा के चलते स्त्रियों की हत्या होती है। क्या वजह है कि आज स्त्रियों के प्रति व्यवहार सुधारने का आव्हान करना पड़ रहा है ?

क्यों एक लड़की अपने से छोटे भाई का हाथ थामे भीड़ में खुद को सुरक्षित महसूस किया करती है ?

यह सारा परिदृश्य सुधारना होगा, और साहित्य को इसमें अपनी भूमिका निभाना है। शाहरुख हैदर की यह कविता महज किसी एक देश में स्त्रियों  के हालत ही नहीं बताती इसके सॉल्यूशन भी बताने हैं। मलाला युसूफजई की तरह कुछ ग्राउंड पर करना है, जाने कितने नोबल प्राइज बांटे जाने हैं, पर कोई काम तो किए जाएं जिनसे हालात बदल जाएं और शादी शुदा औरत ही नहीं सारी स्त्री जात, इंसान के रूप में स्वीकार की जाएं।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ लोभ ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ लोभ ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

मायाकृत मनोविकारों ने मनुष्य को फंसा रखा है। उसका दास बना मनुष्य उनकी इच्छानुसार नाचता रहता है। मन कभी यहां, कभी वहां आकर्षित करता रहता है, जिससे मनुष्य एकाग्रचित्त होकर ध्यान नहीं कर पाता, भटकता रहता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर उसे अपने अनुसार जाल में फंसाकर घुमाते रहते हैं। लोभ भी काम के समान ही एक प्रबल मनोविकार है, जिसने हर एक को अपने वश में कर रखा है। लोभ का अर्थ है लाभ पाने की उत्सुकता में चक्कर में घूमते रहना।

मनुष्य जीवन की आवश्यकतायें तो थोड़ी होती हैं परन्तु वे अनन्त भी हैं। आवश्यकतायें सुविधा के प्रलोभन देकर आदमी को चक्कर में घुमाती रहती हैं। कुछ नया प्राप्ति के मोह ने हर एक को लोभ में फंसाया है। अपने सरल और सादे जीवन को मनुष्य ने आडम्बरमय बना रखा है। उसकी जरूरत बेहद बढ़ गई है। मन में जो इच्छायें लोभवश उत्पन्न होती हैं उन सबको जीवन में जुटा पाना किसी के वश की बात नहीं रही। आज के वैभवशाली युग में विलास की अनेकों वस्तुयें हम दूसरों को उपयोग करते देखकर अपना मन उन्हें पाने का बनाते जाते हैं। आज के युग में विज्ञापनों ने भी इस बीमारी को बढ़ाया है। हर नई वस्तु कुछ दिन बाद बदल जाती है। उससे अधिक उपयोगी उपकरण बाजार में आ जाते हैं। उनमें अधिक आकर्षण होता है और ये सभी सुख के साधन समय और आवश्यकता के अनुसार बदलते और बढ़ते जाते हैं। समय के परिवर्तन, नये अविष्कारों तथा बढ़ती जरूरतों ने हमारे लोभ या लालच को खूब बढ़ा दिया है और हमारे मन को अतृप्ति की आग में झोंक दिया है। हर आवश्यकता की पूर्ति के लिये हर व्यक्ति कोल्हू के बैल की भांति घूमता रहता है पर अपने लक्ष्य को न देख पाता न छू पाता है।

आवश्यकता है कि कुछ धन की वृद्धि के साथ कुछ वैभव प्रदर्शन के लिये कुछ समय परिवर्तन के साथ बदलती रहती है। इसी अंधी दौड़ ने मनुष्य के मन में धन प्राप्ति का लोभ बेहद बढ़ा दिया है और आज जीवन की आपाधापी को नित नया स्वरूप देता जा रहा है। धन प्राप्त करने की कामना ने मनुष्य को अनैतिक कृत्य करने को उत्प्रेरित किया है और समाज में उसी के कारण दुराचार, बुराईयां फैलती जाती हैं। प्रत्येक में लोभ की मात्रा कम या अधिक होती है। नीतिशास्त्र और धर्मों ने इसीलिये लोभ को त्यागने का उपदेश दिया है। कहा है लोभ पाप का मूल है। लोभ को संयमित करना आवश्यक है। संतोष से लोभ को संयम में रखा जा सकता है। संतोष से व्यक्ति संग्रह करने की वृत्ति से बच सकता है और सुखी हो सकता है।

वास्तव में जीवन के लिये बहुत सीमित आवश्यकता है। सनातन धर्म में जीवन काल को चार भागों में बांट कर जनहितकारी, परोपकारी, जीवन व्यतीत करने की शिक्षा दी है। ये चार आश्रम के रूप में वर्णित हैं, ब्रम्हचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। प्रत्येक की धर्म और कर्तव्य हैं, जो सभी जानते हैं। मनुष्य तृतीय आश्रम में वानप्रस्थ अर्थात् वन में रहकर लोभ को त्याग कर बहुत थोड़ी आवश्यकताओं भोजन, वस्त्र और जनसेवा मात्र से जीवन यापन कर सकता है और सन्यास में तो और भी सीमित एक कोपीन, दण्ड व कमण्डल से जीवन यापन कर सकता है। भारत में सभी धर्मों में लोभ-लालच को छोडक़र परमार्थ, तप और त्याग को महत्व दे जीने के आदेश दिये हैं। जैन धर्म ने तो वस्त्र तक त्याग कर दिगम्बर रहने की साधना को जीवन दर्शन बताया है। सत्य, अहिंसा, दया, सेवा, साधनापूर्ण जीवन बिताने पर लोभ समाप्त किया जा सकता है। इसीलिये सनातन धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म और इस्लाम तथा क्रिश्चियन धर्मों में दान की महिमा बताई गई है और सात्विक जीवन से ईश्वरोपासना कर सच्चे अर्थ में मनुष्य बन मुक्ति प्राप्ति का उपदेश है। लोभ से मुक्त होना ही वास्तव में मुक्ति है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ सेवा का प्रतिफल ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ सेवा का प्रतिफल ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

जिस मार्ग से पैदल तीर्थयात्री प्रयागराज को जाते थे वहीं पर एक छोटा सा गांव था। गांव में एक किसान का घर था। किसान धार्मिक वृत्ति वाला था। यात्रियों की सुविधा के लिये उसने अपने घर के पास मार्ग में एक कुटिया बनवा दी थी और वहीं एक कुआं खुदवा दिया था। अभिप्राय था कि थके हारे तीर्थयात्री मार्ग में आवश्यकतानुसार थोड़ा विश्राम कर लें। प्रतिदिन किसी एक यात्री को वह अपने घर में नियमित रूप से भोजन भी कराता था। विचार था कि कोई भूखा यात्री प्रसाद पा ले। इसे ही वह बड़ा पुण्य मानता था। यही उसकी सेवा थी। यही उसकी तीर्थयात्रा थी।

किसान का बड़ा लडक़ा इस व्यय से अप्रसन्न था। वह इस सेवा को परिवार पर अनावश्यक बोझ समझता था। चूंकि किसान परिवार गरीब था, आमदनी का जरिया कृषि के सिवा कुछ था नहीं। कभी कभी खेती से अन्न कम उपजता था, इसलिये लडक़ा प्रतिदिन एक अतिथि के अतिरिक्त भोजन को परिवार पर बड़ा बोझ मानता था। उसकी दृष्टि में उनकी ऐसी सामथ्र्य नहीं थी कि ऐसी सेवा करता रहे। इसलिये लडक़ा अपने पिता को ऐसा परोपकार करने से रोकता था। वह पिता से मतभिन्नता के कारण अप्रसन्न था। परन्तु वृद्ध पिता अपनी आन्तरिक भावना के कारण तीर्थयात्रियों की सेवा करने का संकल्प ले चुका था, इसीलिये पुत्र के विरोध के बाद भी यह सेवा का कार्य बराबर करता था।

एक दिन पिता को किसी रिश्तेदार के यहां शादी में दूर ग्राम को जाना पड़ा। उसने जाते समय बेटे से कहा कि वह उसकी नियमित सेवा को जारी रखे तथा किसी एक तीर्थयात्री को प्रतिदिन भोजन कराता रहे। उसका विश्वास था कि परोपकार और यथासंभव सेवा ही जीवन में सुखदायी होती है। सेवा के लाभ को और जीवन में सेवा के महत्व को पुत्र समझे। उसने लडक़े को एक घड़ा दिया और कहा कि प्रतिदिन एक व्यक्ति को भोजन कराके उसका आशीर्वाद ले और उसके आगे तीर्थयात्रा हेतु निकल जाने के बाद उस घड़े में एक कंकड़ डाल दे। प्रतिदिन वह ऐसा करता रहे और कंकड़ डाल देने के बाद घड़े को ढांक दे। खोलकर कभी न देखे।

ऐसा करने से शादी से वापस आने पर वह कंकड़ों की गिनती कर जान सकेगा कि पुत्र ने उसके सूने में कितने यात्रियों को भोजन कराया। पिता की इस बात को मानकर अपनी इच्छा के विपरीत भी पिता की आज्ञा का पूरा पालन किया। एक व्यक्ति को भोजन कराने के व उसके चले जाने के बाद पुत्र घड़े में प्रतिदिन एक कंकड़ डालता रहा। कुछ दिनों बाद पिता वापस आया। उसने पुत्र से पूछा कि क्या वह बतलाये गये नियम का पालन करता रहा? पुत्र के ‘हां’ कहने पर वह खुश हुआ और उसने घर के सब लोगों को इकट्ठा कर उनके सामने घड़े को लाकर उलटने को कहा। कंकड़ों को गिनने का जब क्रम सबके सामने जारी था तब उनमें एक सोनेू की मोहर भी निकली। सब चकित थे कि डाले तो कंकड़ थे- यह मोहर कहां से आई? पिता ने पुत्र और परिवार को समझाया कि वह मोहर किसी भगवतभक्त पुण्य-आत्मा द्वारा दिये गये आशीष का परिणाम है, जो उस भूखे और प्यासे भक्त ने जल-भोजन और आवास की सुविधा से तृप्त होकर उस परिवार को दी होगी।

यह देख और सुनकर पुत्र को परिवार के सभी जनों को विश्वास हुआ कि दान और सेवा का अनजाने में ही शुभ फल प्राप्त होता है। सबकी सहमति से यह सेवाकार्य किसान के यहां आगे भी सतत रूप से चलता रहा। मनोभावना से दान और सेवा का शुभ परिणाम अवश्य मिलता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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