हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #133 ☆ सुनना और सहना ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सुनना और सहना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 133 ☆

☆ सुनना और सहना

‘हालात सिखाते हैं सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह ही होता है’ गुलज़ार इस कथन के माध्यम से समय व परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हैं। वैसे यह तथ्य महिलाओं पर अधिक लागू होता है, क्योंकि ‘औरत को सहना है, कहना नहीं और यही उसकी नियति है।’ उसे तो अपना पक्ष रखने का अधिकार भी प्राप्त नहीं है। वैसे कोर्ट-कचहरी में भी आरोपी को अपना पक्ष रखने की हिदायत ही नहीं दी जाती; अवसर भी प्रदान किया जाता है। परंतु औरत की नियति तो उससे भी बदतर है। बचपन से उसे समझा दिया जाता है कि यह घर उसका नहीं है और पति का घर उसका होगा। परंतु पहले तो उसे यह सीख दी जाती थी कि ‘जिस घर से डोली उठती है, उस घर से अर्थी नहीं उठती। इसलिए तुम्हें इस घर में अकेले लौट कर नहीं आना है।’ सो! वह मासूम आजीवन उस घर को अपना समझ कर सजाती-संवारती है, परंतु अंत में उस घर से उस अभागिन को दो गज़ कफ़न भी नसीब नहीं होता और उसके नाम की पट्टिका भी कभी उस घर के बाहर दिखाई नहीं पड़ती।

परंतु समय के साथ सोच बदली है और आठ से दस प्रतिशत महिलाएं सशक्त हो गई हैं– शेष वही ढाक के तीन पात। कुछ महिलाएं समानता के अधिकारों का दुरुपयोग भी कर रही हैं। वे ‘लिव इन व मी टू’ के माध्यम से हंसते-खेलते परिवारों में सेंध लगा रही हैं तथा दहेज व घरेलू हिंसा आदि के झूठे इल्ज़ाम लगा पति व परिवारजनों को सीखचों के पीछे पहुंचा अहम् भूमिका वहन कर रही हैं। यह है परिस्थितियों के परिर्वतन का परिणाम, जैसा कि गुलज़ार ने कहा है कि समानता का अधिकार प्राप्त करने के पश्चात् महिलाओं की सोच बदली है। वे अब आधी ज़मीन ही नहीं, आधा आसमान लेने पर  आमादा हो रही हैं। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘मौसम भी बदलते हैं, हालात बदलते हैं/ यह समाँ बदलता है, जज़्बात बदलते हैं/ यादों से महज़ मिलता नहीं, दिल को सुक़ून/  ग़र साथ हो सुरों का, नग़मात बदलते हैं।’ जी हां! यही सत्य है जीवन का– समय के साथ- साथ व्यक्ति की सोच भी बदलती है। वैसे स्मृतियों में विचरण करने से दिल को सुक़ून नहीं मिलता। परंतु यदि सुरों अथवा संगीत का साथ हो, तो उन नग़मों की प्रभाव-क्षमता भी अधिक हो जाती है।

‘संसार में मुस्कुराहट की वजह लोग जानना चाहते हैं; उदासी की वजह कोई नहीं जानना चाहता।’ यहां ‘सुख के सब साथी, दु:ख में ना कोय।’ सो! इंसान सुखों को इस संसार के लोगों से सांझा नहीं करना चाहता, परंतु दु:खों को बांटना चाहता है। उस स्थिति में वह आत्म- केंद्रित रहते हुए दूसरों से संबंध-सरोकार रखना पसंद नहीं करता। अक्सर लोग सत्ता व धन- सम्पदा व सम्मान वाले व्यक्ति का साथ देना पसंद करते हैं; उसके आसपास मंडराते हैं, परंतु दु:खी व्यक्ति से गुरेज़ करते हैं। यही है ‘दस्तूर- ए-दुनिया।’

‘हौसले भी किसी हक़ीम से कम नहीं होते/ हर तकलीफ़ में ताकत की दवा देते हैं।’ मानव का साहस, धैर्य व आत्मविश्वास किसी वैद्य से कम नहीं होता। वे मानव को मुसीबतों में उनका सामना करने की राह सुझाते हैं। जैसे एक छोटी-सी दवा की गोली रोग-मुक्त करने में सहायक सिद्ध होती है, वैसे ही  संकट काल में सहानुभूति के दो मीठे बोल संजीवनी का कार्य करते हैं। ‘मैं हूं ना’ यह तीन शब्द से उसे संकट-मुक्त कर देते हैं। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए तथा हार होने से पहले पराजय को नहीं स्वीकारना चाहिए। दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला कहते हैं ‘हिम्मतवान् वह नहीं, जिसे डर नहीं लगता, बल्कि वह है जो डर को जीत लेता है’ तथा वैज्ञानिक मैडम क्यूरी का मानना है कि ‘जीवन डरने के लिए नहीं: समझने के लिए है। सकारात्मक संकल्प से ही हम मुश्किलों से बाहर निकल सकते हैं।’ सो! संसार में वीर पुरुष ही विजयी होते और कायर व्यक्ति का जीना प्रयोजनहीन होता है। इसके साथ हम सकारात्मक सोच व दृढ़-संकल्प से कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। नैपोलियन का यह संदेश अनुकरणीय है कि ‘समस्याएं भय व डर से उत्पन्न होती हैं। यदि डर की जगह विश्वास ले ले, तो वे अवसर बन जाती हैं। वे विश्वास के साथ आपदाओं का सामना कर उन्हें अवसर में बदल डालते थे।’ इसलिए हर इंसान को अपने हृदय से डर को बाहर निकाल फेंकना चाहिए। यदि आप साहस-पूर्वक यह पूछते हैं–’इसके बाद क्या’ तो प्रतिपक्ष के हौसले पस्त हो जाते हैं। जिस दिन मानव के हृदय से भय निकल जाता है; वह आत्मविश्वास से आप्लावित हो जाता है और आकस्मिक आपदाओं का सामना करने में स्वयं को समर्थ पाता है। हमारे हृदय का भय का भाव ही हमें नतमस्तक होने पर विवश करता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में यही संदेश दिया है कि ‘अन्याय करने वाले से अधिक दोषी अन्याय सहन करने वाला होता है।’ हमारी सहनशीलता ही उसे और अधिक ज़ुल्म करने को प्रोत्साहित करती है। जब हम उसके सम्मुख डटकर खड़े हो जाते हैं, तो वह अपनी झेंप मिटाने के लिए अपना रास्ता बदल लेता है। यह अकाट्य सत्य है कि हमारा समर्पण ही प्रतिपक्ष के हौसलों को बुलंद करता है।

मौन नव निधियों की खान है; विनम्रता आभूषण है। परंतु जहां आत्म-सम्मान का प्रश्न हो, वहाँ उसका सामना करना अपेक्षित व श्रेयस्कर है। ऐसी स्थिति में मौन को कायरता का प्रतीक स्वीकारा जाता है। सो! वहाँ समझौता करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। भले ही सुनना व सहना हमें हालात सिखाते हैं, परंतु उन्हें नतमस्तक हो स्वीकार कर लेना पराजय है।

‘यदि तुम स्वयं को कमज़ोर समझते हो, तो कमज़ोर हो जाओगे। यदि ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, तो ताकतवर’– स्वामी विवेकानंद जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। हमारी सोच ही हमारा भविष्य निर्धारित करती है। इसलिए जीवन में नकारात्मकता को जीवन में कभी भी घर न बनाने दो। रोयटी बेनेट  के अनुसार चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमें हमारा साक्षात्कार कराने हेतु आती हैं कि हम कहां हैं? तूफ़ान हमारी कमज़ोरियों पर आघात करते हैं, लेकिन तभी हमें अपनी शक्तियों का आभास होता है। समाजशास्त्री प्रौफेसर कुमार सुरेश के शब्दों में ‘अगर हमारा परिवार साथ है, तो हमें मनोबल मिलता है और हम हर संकट का सामना करने को तत्पर रहते हैं।’ अरस्तु के शब्दों में ‘श्रेष्ठ व्यक्ति वही बन सकता है, जो दु:ख और  चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा मानकर आगे बढ़ता है।’ सो! मानव को उन्हें प्रभु-प्रसाद व अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल स्वीकारना चाहिए। माता देवकी व वासुदेव को 14 वर्ष तक काराग़ार में रहना पड़ा। देवकी के कृष्ण से प्रश्न करने पर उसने उत्तर दिया कि इंसान को अपने कृत-कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। आप त्रेतायुग में माता कैकेयी व पिता वासुदेव दशरथ थे। आपने मुझे 14 वर्ष का वनवास दिया था। इसलिए आपकी मुक्ति भी 14 वर्ष पश्चात् ही संभव थी। सो! ‘जो हुआ, जो हो रहा है और जो होगा, अच्छा ही होगा। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए और हर परिस्थिति का खुशी से स्वागत् करना चाहिए। समय कभी थमता नहीं; निरंतर गतिशील रहता है। इसलिए मन में कभी मलाल को मत आने दो। यह समाँ भी गुज़र जाएगा और उलझनें भी समयानुसार सुलझ जाएंगी। उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला दें, तो सब अच्छा ही होगा। औचित्य-अनौचित्य में भेद करना सीखें और विपरीत परिस्थितियों में प्रसन्न रहें, क्योंकि शरणागति ही शांति पाने का सर्वोत्तम साधन है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 157 ☆ आलेख  – शिव लिंग का आध्यात्मिक महत्व… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  आलेख  शिव लिंग का आध्यात्मिक महत्व…! इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 157 ☆

? आलेख  – शिव लिंग का आध्यात्मिक महत्व.. ?

सनातन संस्कृति में भगवान शिव को सर्वशक्तिमान माना जाता है।  भगवान शिव की पूजा  शिवलिंग के स्वरूप में भी की  जाती है।

ब्रह्मा, विष्णु और महेश, ये तीनों देवता सृष्टि की स्थापना , लालन पालन , तथा प्रलय के सर्वशक्तिमान देवता हैं।

दरअसल, भगवान शिव का कोई स्वरूप नहीं है, उन्हें निराकार माना जाता है। शिवलिंग के रूप में उनके इसी निराकार रूप की आराधना की जाती है।

शिवलिंग का अर्थ:

‘लिंगम’ शब्द ‘लिया’ और ‘गम्य’ से मिलकर बना है, जिसका अर्थ ‘आरंभ’ और ‘अंत’ होता है। दरअसल, मान्यता  है कि शिव से ही ब्रह्मांड प्रकट हुआ है और यह उन्हीं में मिल जाएगा।

शिवलिंग में ब्रम्हा विष्णु महेश तीनों देवताओ का वास माना जाता है। शिवलिंग को तीन भागों में बांटा जा सकता है। सबसे निचला हिस्सा जो आधार होता है, दूसरा बीच का हिस्सा और तीसरा शीर्ष सबसे ऊपर जिसकी पूजा की जाती है।

निचला हिस्सा ब्रह्मा जी (सृष्टि के रचयिता), मध्य भाग विष्णु (सृष्टि के पालनहार) और ऊपरी भाग भगवान शिव (सृष्टि के विनाशक) हैं। अर्थात शिवलिंग के जरिए ही त्रिदेव की आराधना हो जाती है।

अन्य मान्यता के अनुसार,  शिव लिंग में  शिव और शक्ति,का एक साथ में वास माना जाता है।

पिंड की तरह आकार के पीछे आध्यात्मिक और वैज्ञानिक, दोनों कारण है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो शिव ब्रह्मांड के निर्माण के आधार मूल हैं। अर्थात शिव ही वो बीज हैं, जिससे पूरा संसार बना है। वहीं अगर वैज्ञानिक दृष्टि से बात करें तो ‘बिग बौग थ्योरीज कहती है कि ब्रह्मांड का निमार्ण  छोटे से कण से हुआ है। अर्थात शिवलिंग के आकार को इसी से  जोड़कर  देखा जाता है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पोस्टकार्ड ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “पोस्ट कार्ड।)

☆ आलेख ☆ पोस्टकार्ड  ☆ श्री राकेश कुमार ☆

संदेश भेजने का सबसे प्रचलित साधन जिसका उपयोग लंबे समय तक चला।ये तो संचार क्रांति ने पोस्ट कार्ड का जीवन ही समाप्त सा कर दिया। साठ के दशक में छः पैसे या इक्कनी प्रति पोस्ट कार्ड हुआ करता था। उस समय दो पोस्ट कार्ड जुडे़ हुए रहते थे, जिसको जवाबी कार्ड कहा जाता था। पोस्ट कार्ड भेजने वाला ही एक जवाबी कार्ड साथ में अपना पत्ता लिख कर भेजता थ। शिक्षा की कमी के कारण पोस्टमैन अपनी लेखनी से पूछ कर जवाब लिख देता था। शिक्षा के प्रसार के कारण कुछ वर्ष पूर्व जवाबी कार्ड बंद हो गया हैं, वैसे अब पोस्ट कार्ड देखे हुए भी दशक से अधिक समय हो चुका हैं।

बाल्य काल में पिताजी के नाम से उर्दू भाषा में लिखा हुआ पोस्ट कार्ड आता था, तो अंदाज लगाते थे किस नातेदार का होगा। यदि उस पर  हल्दी के छीटें होते थे तो खुशी का समाचार होता था। किनारे से थोड़ा सा फटा हुआ कार्ड किसी दुःख की खबर वाला होता था। जिसको पढ़ने के बाद तुरंत नष्ट कर दिया जाता था। कारण ये ही रहा होगा। बार बार आंखों के सामने आने से मन दुःखी होता होगा।

व्यापार में भी पोस्ट कार्ड का भरपूर उपयोग हुआ। कम कीमत के कारण व्यापारी इसका बहुत उपयोग करते थे। बाद में सरकार ने छपे हुए कार्ड की कीमत में वृद्धि कर इसके व्यापारिक उपयोग को सीमित करने में सफलता प्राप्त की थी। कम आय या गरीब व्यक्ति इसी के सहारे अपने से दूर रहने वाले से जुड़ा रहता था।

वर्ष नब्बे में भिलाई शाखा की बिल्स सीट में कार्यरत रहते हुए शाखा प्रबंधक की सहमति से पोस्ट कार्ड छपवा कर बिल भेजने वाली कम्पनी को बैंक का बिल क्रमांक लिख कर पावती भेज देते थे। डाक किताब में प्रवष्टि पर समय खर्च बचाने के लिए पूरा खर्च प्रिंटिंग मद में डाल दिया गया था। इस सिस्टम से बिल भेजने वाली कंपनियों के काम काफी हद तक सुचारू और सुविधाजनक हो गए थे। एक शहर में तो कुकिंग गैस की बुकिंग करने के लिए भी हमने पोस्ट कार्ड का उपयोग किया था। आजकल तो शायर भी ऐसी बातें करने लगे हैं।                        

डाकिया वापिस ले आया आज खत मेरा,

बोला पता सही था मगर लोग बदल गए हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 138 ☆ स्थितप्रज्ञ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 138 ☆ स्थितप्रज्ञ ?

एक ऑटो रिक्शा ड्राइवर हमारी सोसायटी के पास ही रहा करते थे। सज्जन व्यक्ति थे।अकस्मात मृत्यु हो गई। एक दिन लगभग उसी जगह एक रिक्शा खड़ा देखा तो वे सज्जन याद आए। विचार उठा कि आदमी के जाने के बाद कोई उसे कितने दिन याद रखता है? चिता को अग्नि देने के बाद परिजनों के पास थोड़ी देर  रुकने का समय भी नहीं होता।

एक घटना स्मरण हो आई। एक करीबी परिचित परिवार में शोक प्रसंग था। अंतिम संस्कार के समय, मैं श्मशान में उपस्थित था। सारी प्रक्रिया चल रही थी। लकड़ियाँ लगाई जा रही थीं। साथ के दाहकुंड में कुछ युवा एक अधेड़ की देह लेकर आए थे। उन्होंने नाममात्र लकड़ियाँ लेकर अधिकांश उपलों का उपयोग किया। श्मशान का कर्मचारी समझाता रह गया, पर केवल उपलों के उपयोग से से देह के शीघ्र फुँक जाने का गणित समझा कर अग्नि देने के तुरंत बाद  वे सब चलते बने।

हमें सारी तैयारी में समय लगा। दाह दिया गया। तभी साथ वाले कुंड पर दृष्टि गई तो जो दृश्य दिखा, उससे भीतर तक मन हिल गया। मानो वीभत्स और विदारक एक साथ सामने हों। उस देह का एक पाँव अधजली अवस्था में लगभग पचास अंश में ऊपर की ओर उठ गया था। अधिकांश उपलों के जल जाने के कारण देह के कुछ अन्य भाग भी दिखाई दे रहे थे। 

श्मशान के कर्मचारी से सम्पर्क करने पर उसने बताया कि हर दिन ऐसे एक-दो मामले तो होते ही हैं, जिनमें परिजन तुरंत चले जाते हैं। बाद में फोन करने पर भी नहीं आते। अंतत:  मृत देह का समुचित संस्कार श्मशान के कर्मचारी ही करते हैं।

लोकमान्यता है कि जिसका कोई नहीं होता, उसका भी कोई न कोई होता है। अपनी कविता ‘स्थितप्रज्ञ’ याद हो आई-

शव को / जलाते हैं / दफनाते हैं,

शोक, विलाप / रुदन, प्रलाप,

अस्थियाँ, माँस, / लकड़ियाँ, बाँस,

बंद मुट्‌ठी लिए / आदमी का आना,

मुट्‌ठी भर होकर / आदमी का जाना,

सब देखते हैं /सब समझते हैं,

निष्ठा से / अपना काम करते हैं,

श्मशान के ये कर्मचारी

परायों की भीड़ में /अपनों से लगते हैं,

घर लौटकर /रोज़ाना की सारी भूमिकाएँ

आनंद से निभाते हैं / विवाह, उत्सव

पर्व, त्यौहार /सभी मनाते हैं

खाते हैं, पीते हैं / नाचते हैं, गाते हैं,

स्थितप्रज्ञता को भगवान,

मोक्षद्वार घोषित करते हैं,

संभवत: / ऐसे ही लोगों को,

स्थितप्रज्ञ कहते हैं..!

विश्वास हो गया कि जिसका कोई नहीं होता, उसका भी कोई न कोई होता है। इस स्थितप्रज्ञता को प्रणाम !

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #132 ☆ समय व ज़िंदगी ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख समय व ज़िंदगी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 132 ☆

☆ समय व ज़िंदगी

समय व ज़िंदगी का चोली दामन का साथ है तथा वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक हैं। ज़िंदगी समय की  महत्ता, सदुपयोग व सर्वश्रेष्ठता का भाव प्रेषित करती है, तो समय हमें ज़िंदगी की कद्र करना सिखाता है। समय नदी की भांति निरंतर बहता रहता है; परिवर्तनशील है; कभी रुकता नहीं और ज़िंदगी चलने का दूसरा नाम है। ‘ज़िंदगी चलने का नाम/ चलते रहो सुबहोशाम।’ ज़िंदगी हमें यह सीख देती है कि ‘गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता और हम अपनी सारी संपत्ति देकर उसके बदले में एक पल भी नहीं खरीद सकते।’ सो! समय को अनमोल जान कर उसका सदुपयोग करें। दूसरी ओर समय ज़िंदगी की महत्ता बताते हुए इस तथ्य को उजागर करता है कि ज़िंदगी की कद्र करें, क्योंकि मानव जीवन  उसे चौरासी लाख योनियों के पश्चात् प्राप्त होता है। इसलिए कहा गया है कि ‘यह जीवन बड़ा अनमोल/ ऐ मनवा! राम राम तू बोल।’ एक पल भी बिना सिमरन के व्यर्थ नष्ट नहीं जाना चाहिए, क्योंकि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य कैवल्य की प्राप्ति है।

ज्ञान प्राप्ति के तीन साधन हैं– मनन, अनुसरण व अनुभव। मनन सर्वश्रेष्ठ मार्ग है और सत्य है। अनुसरण सरल व सहज मार्ग है और अनुभव सबसे कड़वा होता है। महात्मा बुद्ध के उपरोक्त कथन में जीवन जीने की कला का दिग्दर्शन है। सो! मानव को हर वस्तु व व्यक्ति के विषय के बारे में चिंतन-मनन करना चाहिए, ताकि उसकी उपयोगिता-अनुपयोगिता, औचित्य-अनौचित्य व लाभ-हानि के बारे में सोच कर निर्णय लिया जा सके। यह सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम मार्ग है। अनुसरण बनी-बनाई लीक पर चलना। मानव को सीधे- सपाट व देवताओं-महापुरूषों द्वारा बताए गये मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। ज्ञान-प्राप्ति का अंतिम मार्ग है अनुभव; जो कटु होता है। ऐसा व्यक्ति दूसरों पर लेशमात्र भी विश्वास नहीं करता। वह ग़लत-ठीक के भेद से अवगत नहीं हो पाता। जैसे एक बच्चा बड़ों की बात न मान कर आग को छूता है और जल जाता है और रोता व पछताता है। वास्तव में यह एक कटु अनुभव है, जिसका परिणाम कभी भी श्रेयस्कर नहीं होता। सो! महापुरुषों की सीख पर विश्वास करके उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अनुसरण करना अत्यंत कारग़र है।

मैक्सिम गोर्की के मतानुसार ‘कोई सराहना करे या निंदा दोनों ही अच्छे हैं, क्योंकि प्रशंसा हमें प्रेरणा देती है और निंदा हमें असामान्य स्थितियों में सावधान होने का अवसर प्रदान करती है।’ यह तो आम के आम, गुठलियों के दाम वाली स्थिति है। जब काम स्वेच्छा से हो, तो जीवन में आनंद-प्रदाता है और जब पाबंदी में हो, तो जीवन गुलामी है। यदि मानव की सोच सकारात्मक है, तो प्रशंसा व निंदा दोनों स्थितियाँ हितकारक व प्रेरक हैं, क्योंकि जहां प्रशंसा मानव को प्रोत्साहित व ऊर्जस्वित करती है; वहीं निंदा हमें अनहोनी से बचाती है। प्रशंसा में लोग फूले नहीं समाते तथा निंदा में हताश हो जाते हैं। वास्तव में ये दोनों स्थितियां भयावह हैं। इसलिए मानव को स्वतंत्रतापूर्वक जीने का संदेश दिया गया है, क्योंकि पाबंदी अर्थात् परतंत्रता में रहकर कार्य करना व जीवन-यापन करना गुलामी है। अमुक विषम परिस्थितियों में मानव का सर्वांगीण विकास संभव नहीं है। वैसे मानव हर स्थिति में यह चाहता है कि प्रत्येक कार्य उसकी इच्छानुसार हो, परंतु ऐसा संभव नहीं होता। हम सब उस सृष्टि-नियंता के हाथ की कठपुतलियाँ हैं और वह हमसे बेहतर जानता है कि हमारा हित किस में है। वैसे भी स्वतंत्रता में आनंद है और निर्धारित नियम व कायदे-कानून व दूसरों के आदेशों की अनुपालना के हित कार्य करना परतंत्रता है; गुलामी है। इस स्थिति में मानव की दशा पिंजरे में बंद पक्षी जैसी हो जाती है। वह स्वतंत्र विचरण हेतु हाथ-पांव चलाता तो है,परंतु सब निष्फल। अंत में वह निराश होकर जीवन ढोने को विवश हो जाता है।

दो मिनट में ज़िंदगी नहीं बदलती, परंतु सोच-समझ कर लिए गये निर्णय से ज़िंदगी बदल जाती है। इसलिए मानव से यह अपेक्षा की जाती है कि वह निर्णय लेने से पूर्व उस समस्या के विभिन्न पहलुओं पर चिन्तन-मनन करे, ताकि उसे श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त हो सकें। मुझे स्मरण हो रही हैं श्री जयशंकर प्रसाद की पंक्तियां ‘ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/ इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक दूसरे से मिल ना सके/ यह विडंबना है जीवन की’ के माध्यम से उन्होंने इच्छा-पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म के सामंजस्य की सीख दी है। इसके विपरीत आचरण करना मानव जीवन की विडंबना है।

मुझे स्मरण हो रही हैं आनंद फिल्म के गीत की वे पंक्तियां–’जिंदगी एक सफ़र है सुहाना/ यहां कल क्या हो किसने जाना’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। सो! इस गीत के माध्यम से वर्तमान में जीने का सुंदर संदेश प्रेषित है। ज़िंदगी के सुहाने सफ़र में कल की चिंता मत करें और आज को जी लें, क्योंकि कल कभी आता नहीं। भविष्य सदैव वर्तमान के रूप में दस्तक देता है। गीता में भी यही संदेश प्रेषित है कि ‘जो हो रहा है अच्छा है; जो होगा वह भी अच्छा ही होगा और जो हो चुका है; वह भी अच्छा ही था। इसलिए ऐ मानव! तू हर स्थिति में खुश रहना सीख ले। जो इंसान अपनी इच्छाओं, आशाओं, आकांक्षाओं व तमन्नाओं पर अंकुश लगाना सीख जाता है; उसे संसार रूपी भंवर में नहीं फंसना पड़ता और वह अपनी मंज़िल पर अवश्य पहुंच जाता है। अक्सर  अधिक समझदार व्यक्ति की हज़ारों ख़्वाहिशें दिल में ही रह जाती हैं, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है।

‘सुख के सब साथी, दु:ख में ना कोई’ अर्थात् लोग मुस्कुराहट की वजह जानना चाहते हैं;  उदासी की वजह कोई नहीं पूछता।’ इसलिए मानव को ख़ुद से मुलाकात करने की सब ख दी गयी है। जब मानव स्वयं को समझ लेता है; वह आत्मावलोकन करने लगता है, तो उसे दूसरे लोगों के साहचर्य व सहयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। समस्याएं हमारे मस्तिष्क में कैद होती हैं और अधिकतर बीमारियों की वजह चिंता होती है। इसका कारण यह है कि मनुष्य चुनौतियों को समस्याएं समझने लगता है और बड़े होने तक वे अवचेतन मन में इस क़दर रच-बस जाती हैं कि लाख चाहने पर भी उनसे निज़ात नहीं पा सकता। उस स्थिति में हम सोच- विचार ही नहीं करते कि यदि समस्याएं ही नहीं होंगी, तो हमारी प्रगति कैसे संभव होगी और हमारी आय के साधन भी नहीं बढ़ेंगे। वैसे समस्याओं के साथ ही समाधान जन्म ले चुके होते हैं। यदि सतही तौर पर समस्त समस्याओं से उलझा जाए, तो उन्हें सुलझाने में न केवल आनंद प्राप्त होता है, बल्कि गहन अनुभव भी प्राप्त होता है। नेपोलियन के मतानुसार ‘समस्याएं तो भय व डर के कारण उत्पन्न होती हैं। यदि डर का स्थान विश्वास ले ले, तो वे अवसर बन जाती हैं। वे विश्वास के साथ आपदाओं का सामना करते थे। इसलिए वे समस्याओं को सदैव अवसर में बदल डालते थे।

समय अनमोल है। यह हमें जीने की कला व कद्र करना सिखाता है और ज़िंदगी समय उपयोगिता का पता ठ पढ़ाती है। सुख-दु:ख एक सिक्के के दो पहलू होते हैं और समस्याएं भी आती-जाती रहती हैं। सो! मानव को धैर्यपूर्वक समस्याओं का सामना करना चाहिए तथा आत्मविश्वास रूपी धरोहर को सहेज कर रखना चाहिए, ताकि हम आपदाओं को अवसर में बदल सकें। समय और ज़िंदगी सबसे बड़े शिक्षक हैं; सीख देकर ही जाते हैं। वैसे इंसान की सोच ही उसे शक्तिशाली या दुर्बल बनाती है। बनूवेनर्ग के मतानुसार ‘वह किसी महान् कार्य के लिए पैदा नहीं हुआ; जो वक्त की कीमत नहीं जानता।’ भगवान श्रीकृष्ण भी ‘पूर्णता के साथ किसी और के जीवन की नकल कर, जीने की तुलना में अपने को पहचान कर अपूर्ण रुप से जीना बेहतर स्वीकारते है।’ मानव को टैगोर की भांति ‘एकला चलो रे’ की राह पर चलते हुए अपनी राह का निर्माण स्वयं करना चाहिए, क्योंकि वह मार्ग आगामी पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय बन जाता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #115 – बाल साहित्य – हैलो की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है बच्चों के लिए एक ज्ञानवर्धक आलेख – “हैलो की आत्मकथा ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 115 ☆

बाल साहित्य – हैलो की आत्मकथा ☆ 

आप ने मेरा नाम सुना है. अकसर बोलते भी हो. जब आप के पास टैलीफोन आता है. तब आप यही शब्द सब से पहले बोलते हो. मगर, आप ने सोचा है कि आप यह शब्द क्यों बोलते हो? नहीं ना?

चलो ! मैं आप को बताती हूं. इस के शुरुवात की एक रोचक यात्रा. मैं यह कहानी आप को बताती हूँ. आप इसे ध्यान से सुनना. यह मेरी आत्मकथा भी है. 

हैलो ! इस नाम को हरेक की जबान पर चढ़ाने का श्रेय अलेक्जेंडर ग्राहम बैल को जाता है. हां, आप ने ठीक सुना और समझा. ये वही महान आविष्कारक ग्राहम बैल हैं, जिन्हों ने टैलीफोन का आविष्कार किया था.

हैलो ! चौंकिए मत. मेरा नाम हैलो ही है. मैं एक जीती जागती लड़की थी. मेरा पूरा नाम था मारग्रेट हैलो. ग्राहम बैल मुझ से बहुत प्यार करते थे. मैं उन की सब से प्यारी दोस्त थी. वे प्यार से मुझे हैलो कह कर पुकारते थे.

वे भी मेरे सब से अच्छे दोस्त थे. इस वजह से हम अपनी बातें आपस में साझा किया करते थे. वे अपनी सब बातें मुझे बातते थे. मैं भी अपनी सब बातें उन्हें बताती थी. जैसा अकसर दोस्तों के बीच होता है, वैसा हमारे बीच बातों का आदानप्रदान होता रहता था.

यह उन दिनों बात की है जब वे टैलीफोन का आविष्कार कर रहे थे. तब वे उस फोन का परिक्षण मुझे फोन कर के करते थे. इस के लिए उन्हों ने एक फोन का एक चोंगा मुझे दे रखा था. दूसरा चोंगा उन के पास रखा हुआ था.

उस में उन्हों ने कई सुधार किए. इस के बाद वे मुझे फोन करते.  सुनते-देखते सुधार के बाद कुछ अच्छा हुआ है. इस के लिए वे अक्सर फोन लगाते थे. तब वे सब से पहला शब्द में मेरे नाम बोलते थे- हैलो !

ऐसा उन्हों ने अनेकों बार किया. इस बात को उन के मित्र भी जानते थे. परिक्षण के दौरान भी उन्हों ने सब से पहला शब्द हैलो ही बोला था. तब से यह शब्द टैलीफोन करने- वालों के लिए एक संबोधन बन गया. जब भी कोई किसी को टैलीफोन करता या किसी का टैलीफोन उठाता सब से पहला यही शब्द बोलता था.

इस से यह शब्द टैलीफोन के लिए चल निकला.

यह शब्द ग्राहम बैल की देन है. इन्हों ने टैलीफोन सहित अनेक आविष्कार किए है. इन के अविष्कार ने ग्राहम बैल को अमर बना दिया हैं. मगर आप यह जान कर हैरान हो जाएगे कि आज तक उन का नाम इतनी बार नहीं बोला गया होगा जितनी बार मेरा नाम- हैलो बोला गया है. हमेशा बोला जाता रहेगा.

वे टैलीफोन के आविष्कारक और मेरे सब से अच्छे दोस्त थे. उन्हों ने मेरा नाम अमर कर दिया. मुझे उन की दोस्ती पर नाज है. ऐसा दोस्त सभी को मिले. यह आशा करती हूँ. चुंकि ग्राहम बैल ने सब से पहले मुझे ही टैलीफोन किया था. इस हिसाब से टैलीफोन की सब से पहली स्रोता मैं ही बनी थी. इस तरह दो प्रसिद्धि मेरे साथ जुड़ गई है. जिस ने मुझे सदा के लिए अमर बना दिया.

आशा है आप को मेरी यह आत्मकथा अच्छी लगी होगी.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

31/03/2019

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मातृ दिवस विशेष – ओ माँ, प्यारी माँ… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ मातृ दिवस विशेष – ओ माँ, प्यारी माँ… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(नभछोर में आज सायं /एक साल पहले)

जन्म होते ही जिसे सबसे पहले बच्चा देखता है वह उसकी माँ होती है , प्यारी प्यारी माँ । पिता तो सूचना मिलने पर बाद में प्रवेश करता है उसके जीवन में । सबसे बड़ी सुरक्षा माँ की गोदी में महसूस करता है । पिता को भी कई बार इंकार कर देता है । माँ ही पहली शिक्षिका ।

मुझे अपना बचपन याद है । स्कूल के लिए तख्ती चमका कर देती थी । स्कूल से लौटने पर हिंदी की खूबसूरत लिखावट बनाती थी । इसलिए स्कूल काॅलेज तक मेरी लिखावट की प्रशंसा होती रही । दैनिक ट्रिब्यून में एक बार यूनियन की कोई सूचना टाइप न हो पाई तो मेरे पास आए कि लिख दो ।आपकी लिखावट टाइप से ज्यादा अच्छी है तो माँ बहुत याद आई । पिता नहीं रहे छोटी उम्र में । मैं ही भाई बहनों में सबसे बड़ा । माँ हर मुसीबत में कहती हऊ फेर यानी कोई चिंता की बात नहीं । यह हऊ फेर मेरे जीवन का मंत्र है । सब समस्या इस हऊ फेर से हल हो जाती है ।

शिवाजी मराठा की माँ जीजाबाई ने क्या कम रोल निभाया उनके जीवन में ? जीजाबाई जैसी माँ सबको नसीब नहीं होती और सब बच्चे शिवाजी मराठा नहीं बनते ।

आज माँ दिवस है । हम इसे अंग्रेजी स्टाइल में मदर्स डे कह कर मनाते हैं । सब विदेशी स्टाइल । वेलेनटाइन डे । वसंत पंचमी नहीं मनाते उतनी धूमधाम से । क्रिसमस पर खुश । नववर्ष पर खुश । विक्रम संवत भूल जाते हैं । माँ हमारी हिंदी भाषा और हम अंग्रेजी माँ के गुणगान करते नहीं थकते । भाषाएं जितनी सीख लें कोई बात नहीं पर मौसी के लिए माँ को भूल जाओ । यह तो बड़ी चिंता कि बात हुई न । हिंदी भाषी का मजाक उड़ाओ और अंग्रेजी भाषा वाले को गले लगाओ । यह तो बहुत चिंता की बात ।

आज माँ दिवस पर माँ को याद कीजिए । माँ ने क्या क्या सिखाया, उसका शुक्रिया कीजिए । माँ सिर्फ खुशी में खुश होती है । बदले में कोई गिफ्ट नहीं माँगती। बस । गद्गद् हो जाती है मानो उसकी तपस्या पूरी हो गयी हो ।

मुझे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी से कथा संग्रह एक संवाददाता की डायरी पर सम्मान पुरस्कार मिला तो पहुंचा नवांशहर अपने घर । माँ की खुशी का कोई पारावार नहीं था । पूरे मोहल्ले में लड्डू बांटने गयी ।

कुछ नहीं माँगा अपना लिए । माँ देती ही देती है । कभी बदले में कुछ माँगती नहीं । सबकी माँएं ऐसी ही ममतामयी होती हैं । पर हम लौटाना भूल जाते हैं । प्लीज । माँ दिवस को सिर्फ मनाने की बात न कीजिए । माँ को सम्मान दीजिए । माँ हमारे लिए सबसे पहले भाग कर दरवाजा खोलती है जबकि हम वृद्धावस्था में उसके लिए दरवाजे बंद कर देते हैं और मोक्षाश्रम छोड़ आते हैं । माँ का ऋण कब उतारोगे भाई ?

माँ हुदी ए माँ
ओ दुनिया वालेयो…

©  श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆रिएलिटी शोज : कितने रियल ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “रिएलिटी शोज : कितने रियल ?।)

☆ आलेख ☆ रिएलिटी शोज : कितने रियल ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मनोरंजन के साधन में जब से इडियट बॉक्स( टीवी) ने बड़े पर्दे ( सिनेमा) को पछाड़ कर प्रथम स्थान प्राप्त किया, तो उसमें रियलिटी शोज का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वर्षों चलने वाले सीरियल्स जब ज्यादा ही सीरियस / स्टीरियो टाइप होने लगे तो दर्शकों ने रिएलिटी शोज को सरताज़ बना डाला हैं। वैसे अंग्रेजी की एक कहावत है कि “majority is always of fools”.

विगत एक दशक से अधिक समय से तो संगीत, नृत्य और विविध प्रकार के रियलिटी शोज का तो मानो सैलाब सा आ गया हैं।

अधिकतर भाग लेने वाले बच्चे गरीब घरों से होते हैं, या उनकी गरीबी और पिछड़ेपन से दर्शकों की भावनाओ के साथ खिलवाड़ किया जाता है। कोई अपने घर की एक मात्र आजीविका गाय पशु को बेच कर मायानगरी में आकर सितारा  बनना चाहता है, तो कोई ऑटो चालक का बच्चा ऑटो की बलि देकर मुंबई आता है। क्या माध्यम या उच्च वर्ग के बच्चे इन कार्यक्रमों में कीर्तिमान स्थापित नहीं कर सकते हैं?

कार्यक्रम के प्रायोजक/ चैनल विजेता बनने के लिए अपनी शर्तें और नियम का हवाला देकर आपको जीवन भर या लंबे समय के लिए “बंधुआ मज़दूर” बनने के लिए मजबूर कर देते हैं।                             

अब लेखनी को विराम देता हूं, क्योंकि मेरे सब से चहेते कार्यक्रम का फाइनल जी नही फिनाले का समय हो गया है। टीवी पर रिमाइंडर आ गया है, इसलिए मिलते है, अगले भाग में।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 137 ☆ मायोपिआ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 137 ☆ मायोपिआ ?

दिन के गमन और संध्या के आगमन का समय है। पदभ्रमण करते हुए बहुत दूर निकल चुका हूँ।  अब लौट रहा हूँ। आजकल कोई मार्ग ऐसा नहीं बचा जिस पर ट्रैफिक न हो। ऐसी ही एक सड़क के पदपथ पर हूँ। कुछ दूरी पर सेना द्वारा संचालित एक स्थानीय विद्यालय है। इसके ठीक सामने एक सैनिक संस्थान है। धुँधलके का समय है, स्वाभाविक है कि इमारतें और पेड़ भी धुँधले दिख रहे हैं। इससे विपरीत स्थिति वह है, जिसमें धुँधलाती तो आँखें हैं और लगता है जैसे इमारतें और पेड़ धुँधला गए हों। प्रत्यक्ष और आभास में यही अंतर है।

 विद्यालय से लगे पदपथ पर चल रहा हूँ। देखता हूँ कि कुछ दूरी पर पथ से सटकर एक बाइक खड़ी है। पुरुष बाइक के सहारे खड़ा है। यह भी आभासी है। सत्य तो यह है कि बाइक उसके सहारे खड़ी है। उसके साथ की स्त्री नीचे पदपथ पर चेहरा झुकाए बैठी है। एक तरह की आशंका भीतर घुमड़ने लगी। यद्यपि किसी के निजी जीवन में प्रवेश करने का अधिकार किसी दूसरे को नहीं होता तथापि संबंधित स्त्री यदि किसी प्रकार की कठिनाई में है तो उसकी सहायता की जानी चाहिए। इस भाव ने कदम उसी दिशा में बढ़ाए। थोड़ा और चलने पर यह जोड़ा साफ-साफ दिखाई देने लगा । दूर से ऐसा कुछ लग नहीं रहा था कि दोनों में किसी प्रकार के विवाद की स्थिति हो । मेरे और उनके बीच की दूरी अब मुश्किल 20 फीट रह गई थी। देखता हूँ कि अपने आँचल से ढक कर वह शिशु को स्तनपान करा रही है। स्वाभाविक है था कि मैंने अपने दिशा में परिवर्तन कर लिया।

 दिशा में परिवर्तन के साथ विचार भी बदले,  मंथन आरंभ हुआ। कैसी और किन-किन परिस्थितियों में संतान का पोषण करती है माँ, उसे अमृत-पान कराती है! माँ के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता है शिशु।

 मंथन कुछ और आगे बढ़ा और विचार उठा कि प्रकृति भी तो माँ है। मनुष्य द्वारा मचाये जाते सारे विध्वंस के बीच आशा की एक किरण बनकर खड़ी रहती है प्रकृति। आश्चर्य देखिये कि माँ की कोख में विष उँड़ेलता मनुष्य अपने कृत्य पर लज्जित नहीं होता, प्रकृति का अनवरत शोषण करता हुआ लजाता नहीं अपितु पंचतत्वों के संहार में निरंतर जुटा होता है। विरोधाभास यह कि पंचतत्वों का संहारक, पंचतत्वों से बनी काया के छूटने पर दुख मनाता है। मनुष्य लघु तो देख लेता है पर प्रभु उसे दिखता नहीं,  निकट का देख लेता है, पर दूर का ओझल रहता है। नेत्रविज्ञान इसे मायोपिआ कहता है। आदमी के इस शाश्वत मायोपिआ का एक चित्र कविता के माध्यम से देखिए-

 वे रोते नहीं

धरती की कोख में उतरती

रसायनों की खेप पर,

ना ही आसमान की प्रहरी

ओज़ोन की पतली होती परत पर,

दूषित जल, प्रदूषित वायु,

बढ़ती वैश्विक अग्नि भी,

उनके दुख का कारण नहीं,

अब…,

विदारक विलाप कर रहे हैं,

इन्हीं तत्वों से उपजी

एक देह के मौन हो जाने पर…,

मनुष्य की आँख के

इस शाश्वत मायोपिआ का

इलाज ढूँढ़ना अभी बाकी है..!

हर हाल में मानव और मानवता को पोषित करने वाली प्रकृति के प्रति मनुष्य का यह मायोपिआ समाप्त होना चाहिए। इससे अनेक प्रश्न भी हल हो सकते हैं। काँक्रीटीकरण, ग्लोबल वॉर्मिंग, कार्बन उत्सर्जन, पिघलते ग्लेशियर सब रुक सकते हैं। बहुत देर होने से पहले आवश्यक है, अपने-अपने मायोपिआ से मुक्त होना..। इति

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #131 ☆ मनन व आनंद ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मनन व आनंद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 131 ☆

☆ मनन व आनंद

‘मन का धर्म है मनन करना; मनन से ही उसे आनंद प्राप्त होता है और मनन में बाधा होने से उसे पीड़ा होती है’ रवीन्द्रनाथ ठाकुर की यह उक्ति विचारणीय है, चिंतनीय है, मननीय है। मन का स्वभाव है– सोच-समझ कर, शांत भाव से कार्य करना व ऊहापोह की स्थिति से ऊपर उठना। दूसरे शब्दों में हम इसे एकाग्रता की संज्ञा दे सकते हैं। चित की एकाग्रता आनंद-प्रदायिका है। उस स्थिति में मन अलौकिक आनंद की दशा में पहुंच जाता है तथा स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है। यदि इस स्थिति में कोई विक्षेप होता है, तो उसे अत्यंत पीड़ा होती है और वह उस लौकिक जगत् में लौट आता है।

ग्लैडस्टन के मतानुसार ‘बहुत ही तथा बड़ी ग़लतियाँ किए बिना मनुष्य बड़ा व महान् नहीं बन सकता’– उक्त तथ्य को उद्घाटित करता है कि इंसान जीवन भर सीखता है तथा जो जितनी अधिक ग़लतियाँ करता है; उतना ही महान् बन जाता है। वास्तव में वही व्यक्ति सीख सकता है, जिसमें अहं भाव न हो; जो ज़मीन से जुड़ा हो; जिसके अंतर्मन में विद्या, विनय, विवेक व विनम्रता भाव संचित हों। वह सकारात्मक सोच का धनी हो और उसके हृदय में दया, माया, ममता, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता आदि दैवीय भावों का आग़ार हो। ऐसा व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकारने में तनिक भी संकोच व लज्जा का अनुभव नहीं करता, बल्कि भविष्य में उसे न दोहराने का संकल्प भी लेता है। सो! ऐसा व्यक्ति महान् बन सकता है।

‘दातापन, मीठी बोली, धैर्य व उचित का ज्ञान– यह चारों स्वाभाविक गुण हैं, जो अभ्यास से नहीं मिलते।’ चाणक्य की यह उक्ति मानव को आभास दिलाती है कि कुछ गुण प्रभु-प्रदत्त होते हैं तथा वे प्रतिभा के अंतर्गत आते हैं। लाख प्रयास करने पर भी व्यक्ति उन्हें अर्जित नहीं कर सकता। वे उसे पूर्वजन्म के कृत-कर्मों के एवज़ में प्राप्त होते हैं। कुछ गुण उसे पूर्वजों द्वारा प्रदत्त होते हैं, जिसके लिए उसे परिश्रम नहीं करना पड़ता तथा वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं। ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ के संदर्भ में कबीरदास जी का यह संदेश अत्यंत सार्थक है कि निरंतर अभ्यास द्वारा मूर्ख भी विद्वान बन सकता है। इसके द्वारा हम ज्ञान तो प्राप्त कर सकते हैं, परंतु उससे स्वभाव में परिवर्तन आना संभव नहीं है।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण मानव को मन-तुरंग को वश में करने की सीख देते हैं, क्योंकि मन बहुत चंचल है। वह पल भर में तीनों लोकों की यात्रा कर लौट आता है। सो! एकाग्रता व ध्यान के लिए मन को नियंत्रण में रखना आवश्यक है। जैसे-जैसे हमारा चित एकाग्र होता जाता है, हमारी भौतिक इच्छाओं, आकांक्षाओं, तमन्नाओं व वासनाओं पर अंकुश लग जाता है और हम अनहद नाद की स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं। हमें शून्य में केवल घंटों की अलौकिक ध्वनि सुनाई पड़ती है। हमारे आसपास क्या घटित हो रहा है; हम उससे बेखबर रहते हैं। वास्तव में यही मानव का अंतिम लक्ष्य है। मानव लख चौरासी के बंधनोंसे मुक्ति पाना चाहता है और कैवल्य- प्राप्ति ही मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है। यह प्रवृत्ति मानव में चिन्तन-मनन से जाग्रत होती है। इस स्थिति में हमारा अंतर्मन अपरिग्रह की प्रवृत्ति में विश्वास करने लगता है और गुरू नानक की भांति तेरा-तेरा में विश्वास करने लगता है। परिणामत: हृदय में करुणा व विनम्रता जैसे दैवीय भाव संचित हो जाते हैं और वाणी-माधुर्य स्वयंमेव प्रकट होने लगता है; औचित्य- अनौचित्य का ज्ञान हो जाता है, जो हमें दूसरों से वैशिष्टय प्रदान करता है। उस स्थिति में हम मित्रता व शत्रुता के भाव से ऊपर उठ जाते हैं और केवल सत्कर्म करने लगते हैं।

भरोसा उस पर करो, जो तुम्हारी तीन बातें समझ सके–मुस्कुराहट के पीछे का दर्द, गुस्से के पीछे का प्यार व चुप रहने के पीछे की वजह। इनके माध्यम से मानव को हर इंसान पर भरोसा न करने की सीख दी जाती है, क्योंकि सच्चा साथी आपके हृदय की पीड़ा, करुणा व वेदना को अनुभव करता है तथा आपकी मुस्कुराहट के पीछे के दर्द को समझ जाता है। यदि आप उस पर क्रोधित भी होते हैं, तो वह उसमें निहित प्रेम की भावना को समझ जाता है, क्योंकि वह उस तथ्य से बखूबी अवगत होता है कि आप जो भी करेंगे; उसके हित में ही करेंगे तथा कभी भी उसका बुरा नहीं चाहेंगे। इतना ही नहीं, यदि आप किसी कारणवश मौन हो जाते हैं, तो वह उसकी वजह जानना चाहता है। ऐसी विषम परिस्थिति में भी वह आपसे कभी दूरी नहीं बनाता, बल्कि चिंतन-मनन करता है तथा सच्चाई को जानने का प्रयास करता है। वास्तव में यही जीवन का सार व जीने का अंदाज़ है। मानव को कभी भी तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए तथा अकारण क्रोधित होना भी कारग़र नहीं है। उसे सदैव शांत भाव से कारण जानने का प्रयास  करना चाहिए, ताकि समस्या का निदान संभव हो सके। सो! मानव को निर्णय लेने से पूर्व समस्या के दोनों पक्षों पर विचार करना आवश्यक है, क्योंकि चिंतन-मनन करने से जीवन में ठहराव आता है और वह उपहास का पात्र नहीं बनता। उसके कदम कभी भी ग़लत दिशा की ओर अग्रसर नहीं होते। दूसरे शब्दों में यह अलौकिक आनंद की स्थिति है, जिसमें मैं और तुम व अपने-पराये का भाव समाप्त हो जाता है तथा ‘सर्वे भवंतु सुखीन:’ की भावना प्रबल हो जाती है और सारा संसार उसे अपना कुटुंब नज़र आने लगता है। इसलिए हृदय में चिंतन-मनन की प्रवृत्ति को संपोषित व संग्रहीत करें, ताकि चहुंओर आनंद की वर्षा हो सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print