हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ मंदिर का निर्माण ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ मंदिर का निर्माण ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

नगर से कुछ दूर पहाड़ी के पास सडक़ के किनारे बिड़ला जी ने एक मंदिर बनवाने का निर्णय किया। निर्माण की पूर्व तैयारी के रूप में सभी आवश्यक सामग्री, निर्माण स्थल पर जुटाई जा रही थी। दूर-दूर से चट्टानें तोडक़र पत्थर भी मंगवाये गये थे। ईंट पत्थरों के ढेर लगे हुये थे। सामान ट्रकों में भर-भरकर रोज लाया जाता था। बहुत से मजदूर उन्हें भवन निर्माण के लिये सुडौल आकार देने में लगे थे। पत्थरों को छेनी-हथौड़ी से तराशने, निश्चित आकार देने और बनाकर व्यवस्थित रखने के काम में बहुत से संग तराश लगाये गये थे, जो दिन रात मेहनत से कार्यों में जुटे थे।

कार्य स्थल पर लोगों की भीड़ और निर्माण सामग्री के विभिन्न ढेरों को देखकर सडक़ से चलने वाले अक्सर रुककर उत्सुकता से निहारते थे। एक दिन कोई प्रवासी वहां से निकला। पत्थरों पर छेनी हथौड़ों की मार की ध्वनि सुनकर उसका भी ध्यान उस ओर गया। काम करने वाले एक मजदूर से उसने पूछा- ‘क्यों भाई! ये क्या कर रहो हो?’ उत्तर मिला ‘देख नहीं रहे हो? अपना सिर फोड़ रहे हैं। पत्थर तोड़े जा रहे हैं और क्या?’ पूंछने वाले को लगा जैसे उसे थप्पड़ लग गया। कोई साफ उत्तर नहीं मिला, व्यर्थ ही उसने पूछा।

कुछ आगे बढक़र फिर वही प्रश्न उसने दूसरे मजदूर से पूछा। उसने उत्तर दिया- ‘भैया, रोजी-रोटी कमाने को पत्थरों को तराशने का काम जो मिल गया है, वही कर रहे हैं।’

राहगीर वास्तव में जानना चाहता था कि सारा काम किसलिये किया जा रहा है। कुछ दूर आगे बढक़र उसने एक अन्य व्यस्त कारीगर से पूछा ‘क्यों भाई यह क्या काम हो रहा है?’ उसने उत्तर दिया- ‘एक सेठ मंदिर बनवा रहे हैं, उसी के लिये पत्थर तराशे जा रहे हैं। मैं वही काम कर रहा हूं।’

प्रश्नकर्ता की जिज्ञासा कुछ शांत हुई। उसे ज्ञात हुआ कि वहां पर एक मंदिर बनने वाला है। उसी की पूर्व तैयारी में सब जुटे हैं। वह एक पथिक की भांति कुछ सोचता-विचारता आगे बढ़ गया। कुछ आगे चलने पर उसने सुना कि एक सेठ किसी से पूछ रहा था कि एक दिन पहले वह काम पर गैरहाजिर क्यों था? मजदूर ने सेठ को बताया कि चूंकि उसकी मां बीमार थी, इससे उस दिन वह नहीं आ सका था। उसने आगे कहा- ‘दादा! कल का काम भी मैं आज पूरा कर लूंगा। मुझे ख्याल है कि मैं एक मंदिर के निर्माण में अपनी योग्यता के अनुसार पूरी तरह काम कर रहा हूं, जो जब बन जायेगा तब लाखों लोग वहां भगवान के दर्शन को श्रद्धा से आयेंगे और मंदिर को देखकर सुख शांति या एक-एक पत्थर पर उकेरी गई कला को देखकर बनाने वालों की सराहना करेंगे। हम कारीगरों का उस भव्य मंदिर के निर्माण में एक महत्वपूर्ण योगदान है।’

पथिक उन चारों मजदूरों के मन की बात सुनता हुआ अपने गंतव्य की ओर चला जा रहा था। उसे लगा कि उन चारों के उत्तरों और कार्य के प्रति उनके दृष्टिकोणों में जमीन-आसमान का अन्तर था। जबकि सभी अपनी आजीविका कमाने के लिये ही वहां एक कार्य कर रहे थे। पहले के उत्तर में कार्य के प्रति खीझ, बोझ और उपेक्षा का भाव था। दूसरे के उत्तर में अपना पेट भरने के लिये अर्थ लाभ का भाव स्पष्ट था। तीसरे के उत्तर में अपने स्वार्थ हेतु कार्य करने के साथ ही पत्थरों को कलात्मक रूप देने की भावना की झलक थी, किन्तु चौथे के उत्तर में तो कार्य करने की ललक, कार्य के प्रति निष्ठा, अपनी जिम्मेदारी को समझने और मंदिर के निर्माण में महत्वपूर्ण सहयोगी होने की भावना के साथ ही जनता की अपेक्षाओं और कला के मूल्यांकन से उन्हें मिलने वाली आनन्दानुभूति और मंदिर में भावी सुन्दर स्वरूप की कल्पना का चित्र भी उभरता है।

चारों द्वारा मजदूरी लेकर एक सा काम किये जाने पर भी प्रत्येक की अपनी मनोभाव की भारी भिन्नता स्पष्ट समझ में आती है। मन की लगन और भावना ही कार्य को गरिमा प्रदान करती है। दूरदर्शिता और दृष्टिकोण के भेद कार्य की शैली में भिन्नता के रंग भर देते हैं। आजीविका के लिये श्रम तो सभी करते हैं पर जहां श्रम के साथ भावना के मिठास का पुट घुल जाता है वहां कार्य में सौंदर्य और आनन्द बढ़ जाता है। भावनापूर्ण श्रम ने ही संसार को सुन्दर बनाया है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ अपनी योग्यता का लाभ औरों को दें ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ अपनी योग्यता का लाभ औरों को दें ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

बगीचों में जब फूल आते हैं तब बगीचे अपनी खूशबू वातावरण में बांट देते हैं। जब आम वृक्षों में मौसम में फल आते हैं तो वे झुककर विनम्रता से अपने फल जनसाधारण को उपलब्ध कराते हैं। मनुष्य को भी जब सौभाग्य से योग्यता और अधिकार प्राप्त हो तो उसे भी उनका उपयोग समाज में विनम्रतापूर्वक जनहित में करना चाहिये। विभिन्न पदों के साथ अधिकारों की प्रतिष्ठा इसीलिये तो की गई है कि उनके समुचित उपयोग से जनता को लाभ मिल सके, उनका समस्याओं का समय पर निराकरण हो सके। परन्तु ऐसा क्या निर्बाध गति से हो रहा है? देखने में तो अधिकतर यह आ रहा है कि मनुष्य जब अधिकारपूर्ण किसी ऐसे पद को पा जाता है, जिससे वह जनसाधारण का हित कर सकता है, तब प्राय: वह जनहित को विशेष बिसराकर अपने और अपने परिवारजनों के सुखोपभोग में रत हो अहंकार और स्वेच्छाचार युक्त व्यवहार करने लगता है। ऐसा भला क्यों होता है? संबंधित जनों को आत्मचिंतन करना चाहिये। नैतिक दृष्टि से अनुचित व्यवहारों का समर्थन कोई भी नहीं कर सकता। शिक्षा तो व्यक्ति को ज्ञानवान तथा सुसंस्कारवान बनाती है। परन्तु तथाकथित सुशिक्षित और समझदार लोगों को अपने पद का दुरुपयोग करते देखा जाता है। आये दिन अखबारों के पन्ने ऐसे समाचारों से भरे होते हैं। बड़े लोग जिस राह पर चलते हैं, समाज के अन्य लोग भी बिना सोचे समझे उनका अनुकरण करते हुये वही राह पकड़ लेते हैं, क्योंकि ‘महाजनो येन गत: स पन्था:’।

जो जितने ऊँचे पद पर आसीन होता है, उसके अधिकार भी उतने ही बड़े महत्वपूर्ण तथा प्रभावी होते हैं। उतने ही बड़े क्षेत्र की जनता के सुख दुखों का उनसे संबंध होता है। उच्च पदाधिकारियों की जिम्मेदारियां भी उतनी ही अधिक होती है। अत: प्रत्येक को अपने कर्तव्यों का पूरा बोध होना चाहिये और उनके व्यवहार भी संयत तथा स्वानुशासित होने चाहिये। किसी कारणवश छोटा भी अनैतिक आचरण बहुत सी असहाय निरपराध जनता के लिये अहितकारी भर नहीं बल्कि घातक हो सकता है। इस बात का उन्हें निरंतर ध्यान होना चाहिये और उन्हें अपने धर्म का कड़ाई से पालन करने की मानसिकता बना लेनी चाहिये।

प्राचीन काल में सर्वोच्च शासक राजा होता था और उसका कर्तव्य था कि वह अपनी समस्त प्रजा का पुत्रवत्, स्नेह की भावना से पालन पोषण करे। उसके लिये धर्मोपदेश था-

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवश नरक अधिकारी।

वर्तमान युग में राजा का स्थान राजनेताओं ने ले लिया है। अत: उनसे वही अपेक्षायें हैं जो पहले राजा से होती थीं। उन्हें जनसेवी, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, न्याय परायण, दूरदर्शी और उदारमना होना ही काफी नहीं है, अपने दैनिक व्यवहार में खुद को वैसा प्रदर्शन भी करना चाहिये। परन्तु कई बार देखने में कुछ उल्टा ही आता है। अधिकार सम्पन्न उच्च पदस्थ लोग छोटे से लाभ के लिये कानून-कायदों का पालन नहीं करते। उनके परिवारी और मित्रमण्डली के लोग भी ऐसा करना अपना अधिकार मान लेते हैं और निर्धारित नियमों की अव्हेलना करते हैं। उनके मातहत जनसेवक भी उनकी कृपा की आकांक्षा में अपने कर्तव्यों में शिथिलता बरतते हुये उनके विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही करने में असमर्थ होते हैं। यही अनुशासन हीनता को जन्म देता है। लोग गलत रास्तों को अपनाने लगते हैं और परिणाम स्वरूप अपराधों को बढ़ावा मिल जाता है। जनतांत्रिक शासन प्रणाली में जहां सबको समानता, स्वतंत्रता, बन्धुता और न्याय पाने का संवैधानिक हक है, लोग वांछित सुविधाओं से वंचित हो जाते हैं तथा दुखी होते हैं।

सबको विशेषत: जो उच्च पदों पर अधिक अधिकार और सुविधा सम्पन्न समझदार लोग हैं, आत्मचिंतन कर अपने कर्तव्यों, दायित्वों और जनहित को ध्यान में रखकर सदाचार का व्यवहार कर नियमों का दृढ़ता से पालन करना और कराना चाहिये ताकि छोटे से छोटा व्यक्ति भी प्रशासनिक व्यवस्था द्वारा उसके लिये निर्धारित लाभ बिना रुकावट पा सके और प्रसन्न रह सके।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ मनोभाव ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ मनोभाव ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

प्रकृति ने मनुष्य को जो स्वाभाविक वरदान दिये हैं उनमें अत्याधिक महत्वपूर्ण हमारे मनोभाव हैं। मनोभाव ही व्यक्ति को प्रेरणा और गति प्रदान करते हैं। लोगों के द्वारा जो भी व्यवहार किये जाते हैं, उनका उद्गम मनोभावों में ही होता है। प्रेम और हिंसा दो ऐसे प्रमुख मनोभाव हैं, जिनका उपयोग कोई भी अपनी सुरक्षा के साधन के रूप में कर सकता है। व्यवहार में दोनों एक-दूसरे के विपरीत हैं। प्रेम के व्यवहार से हम औरों को अपना मित्र बना सकते हैं और हिंसा से अपना शत्रु। पर दोनों को आत्मरक्षा के लिये प्रयोग किया जा सकता है। प्रेम से प्रेम उत्पन्न होता हे और हिंसा से हिंसा। प्रेम का आत्मरक्षा हेतु प्रयोग करने पर सुरक्षा के साथ शांति और सुख का भी विकास होता है, परन्तु हिंसा के अपनाये जाने पर अनायास विपत्तियां टूट पड़ती हैं। खिन्नता का विस्तार होता है।

यद्यपि हिंसा और शक्ति के उपयोग से तत्कालिक विजय और बर्चस्व पाया जा सकता है। किन्तु सच्ची सुरक्षा और शांति नहीं मिल पाती है। विजय के दंभ से और अधिक प्राप्ति की लालसा जागती है। पराजित पक्ष को आक्रोश और प्रतिहिंसा का जोश जागता है और दोनों पक्षों में विरोध की दाहकता प्रबल हो जाती है। दोनों ओर अशांति बढ़ती है। अत: हिंसा किसी समस्या का स्थायी हल प्रस्तुत नहीं करती बल्कि नई कठिनाइयों को जन्म देती है। इसके विपरीत प्रेम से किसी गुत्थी का हल किये जाने से दोनों पक्षों में सहयोग, संतोष बढ़ता है और परिणाम स्वरूप सुखद वातावरण जीवन में बहुरूपी विकास की राहें सुलभ कराता है तथा सदा सभी सहयोगियों की खुशी बढ़ाता है। सरस, शांत वातावरण दे सबको उन्नति के अवसर प्रदान करता है और हर विषाद को हरता है। इसीलिये संसार के सभी धर्म प्रेम की भावना और सद्भावना की महत्ता प्रतिपादित करते हैं। सबसे मिल के रहने के उपदेश देते हैं और वैर-विरोध या आपसी टकराव से दूर रहने को कहते हैं। हिंसा को बुरा बताते हैं।

विश्व की वर्तमान अशांति का कारण प्रेम की उद्दात भावना को सही ढंग से न समझ पाना है। स्वार्थ सिद्धि के लिये संसार में लोग ओछे व्यवहारों का सहारा ले लेते हैं, जो स्नेह और समन्वय की भावना को नष्ट कर हिंसा को जन्म देते हैं। व्यक्ति यदि सहजता से प्रेम-सद्भाव के महत्व को समझ सके तो संसार के अधिकांश विवाद दूर हो जायें, देशों के बीच विभिन्न कारणों से खुदती हुई खाइयाँ पट जायें और विश्व में सुख-शांति का अवतरण हो। असुरक्षा व भय की भावना समाप्त हो और आतंकवाद का बढ़ता ताण्डव अपने आप खत्म हो जाये। भारतीय मूलमंत्र ‘अहिंसा परमो धर्म:’ का वास्तविक अर्थ संसार को समझने में कोई कठिनाई न हो तथा निष्कलुष पावन भावनाओं का नवोन्मेष हो सके।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 173 ☆ कोई न हारे जिंदगी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – कोई न हारे जिंदगी।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 173 ☆  

? आलेख – कोई न हारे जिंदगी ?

गाहे बगाहे  युवा छात्र छात्राओ की आत्म हत्या के मामले प्रकाश में आते हैं. ये घटनायें प्रत्येक शहरी के लिये चिंता की बात हैं. वे क्या कारण बन जाते हैं जब अपने परिवार से दूर, पढ़ने के उद्देश्य से शहर आये बच्चे अपना मूल उद्देश्य, परिवार और समाज का प्यार भूलकर मृत्यु को चुन लेते हैं? कभी कोई किसान जिंदगी की दौड़ में लड़खड़ा कर लटक जाता है, तो कभी प्यार में ठुकराये पति पत्नी, प्रेमी प्रेमिका किसी झील में छलांग लगा देते हैं. मौत को जिंदगी से बेहतर मान बैठने की गलती दूसरे दिन के अखबार को अवसाद से भर देती है.

समाज और शहर की जिम्मेदारी इतनी तो बनती है कि हम एक ऐसा खुशनुमा माहौल रच सकें जहाँ सभी सकारतमकता से जीने को प्रेरित हों. जीवन के प्रति ऐसे पलायन वादी दृष्टिकोण रखने लगे लोगों के संगी साथियों के रूप में हममें से कोई न कोई कालेज, होस्टल, घर या कार्य स्थल पर अवश्य उनके साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष हमेशा होता है, जो दुर्घटना के उपरांत साक्ष्य बन कर पोलिस को जानकारी देता है. किंतु उसकी उदासीनता आत्ममुग्धता, पड़ोसी का मन नहीं पढ़ पाती. हम यंत्रवत कैमरे भर नहीं हैं. हम सबकी, प्रत्येक शहरी की व्यक्तिगत जबाबदेही है कि अपने परिवेश में  किंचित सूक्ष्म नजर रखें कि किसी को हमसे किसी तरह की मदद, किसी आत्मीय भाव, कुछ समय तो नहीं चाहिये?

प्रगति के लिये, अपने आप में खोये हुये, नम्बरों और घड़ी की सुई के साथ दौड़ लगाते हम कहीं ऐसे प्रगतिशील शहरी तो नहीं बन रहे कि  हमारे आस पास कोई मृत्यु को जिंदगी से बेहतर मान रहा है और हम इससे बेखबर भाग रहे हैं. नये घर, नये वाहन, नई नौकरी के इर्द गिर्द यह यंत्रवत दौड़ ही शहर की अच्छी सिटिजनशिप के लिये पर्याप्त नही है. हमारा शहर वह सामाजिक समूह बने जहाँ सामूहिक जागृत चेतना हो, सामूहिक उत्सवी माहौल हो, सामूहिक प्रगति हो. कोई जिंदगी से हताश न हो. इसके लिये किसी संस्था, किसी सरकारी कार्यक्रम की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी महज हममें से हरेक के थोड़े से चैतन्य व्यवहार की आवश्यकता है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग -3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

पुरानी आदतें जीवन के साथ ही जाती हैं। बचपन में पिताजी रेल यात्रा के प्रस्थान समय से कम से कम दो घंटे पूर्व स्टेशन पर पहुंच जाते थे। हमारा एक समय का भोजन तो प्लेटफार्म पर ही हुआ करता था। अपने जीवन के अंतिम दौर में हमने भी विमानतल पर दो घंटे पूर्व पहुंच कर घर से लाए हुए भोजन का आनंद लिया।

विमान प्रस्थान के चार घंटे पूर्व प्रवेश करने के लिए लंबी लाइन लगी हुई थी। रात्रि के बारह बजे का समय, लाइन में खड़े युवा बहुत परेशान हो रहे थे। हमारे जैसे लोगों को कोई परेशानी नहीं थी, क्योंकि साठ के दशक में राशन की लाइन में घंटो खड़े रहकर पीएल 480 वाला लाल गेहूं घर के लिए लाना पड़ता था।

मन में एक भय अवश्य रहता है, कि कहीं टिकट, पासपोर्ट इत्यादि में कोई कमी ना निकल जाय। ऊपर वाले की कृपा से सब कुछ दो घंटे में हो गया था। विमानतल में भी प्रस्थान के कई प्लेटफार्म होते हैं। उन तक पहुंचने के लिए काफ़ी दूर जाना पड़ता हैं। रास्ते में कस्टम फ्री मदिरा, सिगरेट और अन्य सैंकड़ों दुकानें जिनमें सभी सामान खुला पड़ा हुआ था। कोई शटर, ताले नहीं दिख रहे थे। शायद इसी को रामराज्य कहते हैं। चूँकि दुकानें चौबीसों घंटे खुली रहती हैं, इसलिए चोरी इत्यादि की संभावना कम होती है। वैसे आजकल तो सीसी टीवी कैमरे ही चोरों के लिए सिरदर्द बने हुए हैं। बाजार में इतनी चकाचौंध कि आँखें फट रही थी। अपने प्लेटफार्म पर पहुंच कर इंतजार करने लगे, तभी एक तिपैया वाहन हवाई जहाज के आकार में मदिरा की बिक्री में लगा हुआ था। घूम घूम कर प्लेटफार्म पर बैठे हुए यात्रियों के आकर्षण का केंद्र बन चुका था। हमारा प्लेन भी प्लेटफार्म पर लग गया और हम प्रवेश की लाइन में लग गए। अगले भाग के लिए इंतजार करें। हमने भी तो विगत छः घंटे इंतजार में ही व्यतीत किए हैं।

क्रमशः… 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ जग का पालनकर्ता ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ जग का पालनकर्ता ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

छत्रपति शिवाजी लोकप्रिय प्रजावत्सल योग्य शासक थे। एक बार उनके राज्य में वर्षा न होने के कारण अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गई। जनता को रोजगार उपलब्ध करा भोजन दे सकने की भावना से उन्होंने कुछ निर्माण कार्य शुरु कराये। हजारों गरीब परिवारों का उससे पेट पलने लगा।

एक दिन महाराज स्वत: निरीक्षण करने के लिये निर्माण स्थल गये। यह देखकर वे फूले न समाये कि भारी संख्या में मजदूर कार्य कर रहे थे। उनके मन में भाव आया कि वे इतने अधिक लोगों को आजीविका प्रदान कर बड़ा उपकार कर रहे हैं। यदि वे निर्माण कार्य शुरु न किये गये होते तो कितनों को भूखा मरना पड़ता। तभी अपनी यात्रा पर निकले उनके गुरु समर्थ स्वामी रामदास अचानक वहां से जाते दिखे। शिवाजी महाराज ने उन्हें विनत प्रणाम किया और बताया कि कैसी उदारता से धनराशि व्यय कर उन्होंने गरीबों के लिये नये निर्माण कार्य शुरु कर उनकी उदरपोषण की व्यवस्था प्रदान की है। गुरुदेव को शिवाजी के कथन में गर्वोक्ति की गंध का आभास हुआ। उस दिन यह सुनकर वे कुछ न बोले। मौन सिर हिला, आशीर्वाद दे वे अपनी यात्रा पर आगे बढ़ गये। एक दिन किसी अन्य क्षेत्र में चल रहे निर्माण कार्य का अवलोकन करने को महाराज के विशेष आमंत्रण पर वे वहां गये। तालाब खुदवाया जा रहा था। बड़ी संख्या में मजदूर कार्य पर थे। उन्होंने गुरुवर को बताया कि राज्य में विभिन्न क्षेत्रों में गरीबों को भोजन देने के लिये ऐसे ही कई कार्य शुरु कराये गये हैं। तालाब के लिये खोदे जाने वाली जमीन में आई एक चट्टान को तुड़वाने का गुरुजी ने निर्देश दिया। शिवाजी महाराज ने गुरु आज्ञा का पालन करते हुये एक मजदूर को चट्टान तोडऩे का आदेश दिया। उसके टूटते ही सबने आश्चर्य से देखा कि उसके बीच में से गीली मिट्टी से उछलकर एक मेंढक बाहर कूदा। मेंढक की ओर उंगली उठाते हुये स्वामी रामदास जी ने शिवाजी से प्रश्न किया- क्या इस मेंढक के पालन-पोषण के लिये भी राजकोष से खर्च किया जाता है? शिवाजी महाराज निरुततर थे। इसका भला वे क्या उत्तर देते? उनका गर्व का भाव चट्टान की भांति ही चूर-चूर हो गया। उन्हें अपनी भूमिका का बोध हुआ। वे समझ गये कि राजा के रूप में प्रजानन की रक्षा, सहायता और प्रतिपालन के लिये शायद वे केवल एक माध्यम हैं। सृष्टि के समस्त प्राणियों की रक्षा और प्रतिपालन तो ईश्वर ही करता है। यदि ऐसा न होता तो चट्टान के भीतर मेंढक सुरक्षित और जीवित कैसे रहता। राजा या शासन तो प्रजा के हित साधन का व्यवस्थापक है। सभी को निरभिमान भाव से अपना कर्तव्य करना उचित है। अपने गुरुदेव के दिये गये सूत्रों को समझकर सत्पथ पर चलने की शक्ति पा शिवाजी युग के इतिहास पुरुष बन यशस्वी शासक हो सके।

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ मन का तन पर प्रभाव ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ मन का तन पर प्रभाव ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ – यह पुरानी कहावत है। आशय है कि यदि मन प्रसन्न है तो गंगा का सुख घर में ही है। स्नान और शांति की खोज में गंगा जी तक किसी तीर्थस्थल तक जाने की आवश्यकता नहीं होती। जीवन में सभी का व्यक्तिगत अनुभव है कि मन जब खुश रहता है तो सारा वातावरण सुहाना दिखता है और मन की खिन्नता में कुछ भी अच्छा नहीं लगता। खाना, पीना, गाना, बोलना, बताना सभी के प्रति विरक्ति हो जाती है और एक उदासी घेर लेती है। मानव शरीर तो आत्मा का आवरण या वाहन मात्र है। प्रमुख तो वह चेतन आत्मा है जो व्यक्ति को संचालित करती है। सोचती-विचारती है, संकल्प करती है और फिर शरीर को काम के लिये प्रेरित करती है तथा इच्छानुसार कार्य संपादित कराती व फल प्राप्ति कराती है। मन की खुशी से ही तन की खुशी है, तन मन का अनुगमनकर्ता है। मानसिक भावनाओं का शारीरिक क्रियाकलापों पर गहरा असर होता है। यदि किसी ने वार्तालाप के प्रसंग में अपशब्द कहे तो मन उससे दुखी हो जाता है। परिणाम स्वरूप शरीर शिथिल होता है, किसी कार्य को करने से रुचि हट जाती है। व्यक्ति कहता है कि कुछ करने का मूड नहीं है। जीवन में हर क्षेत्र में हमेशा मन का तन से यही गहरा संबंध है, इसलिये एक की अस्वस्थता दूसरे को प्रभावित करती है। यदि शरीर को आकस्मिक चोट लग जाती है या बुखार हो जाता है तो मन की आकुलता बढ़ जाती है। किसी मानसिक कार्य को संपादित करने में मन नहीं लगता। व्यक्ति के दैनिक व्यवहार भी प्रभावित होते हैं।

मन का तन पर और तन का मन पर भारी प्रभाव पड़ता है। बड़े-बड़े कार्य यह तन, मन की खुशी के लिये प्रसन्नतापूर्वक उत्साह और उमंग से संपन्न कर डालता है और विपरीत परिस्थिति में कुछ भी करने में रुचि नहीं रखता। इसलिये कहा है ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ यदि मन किसी संकल्प को पूरा करने को तैयार हैं तो आत्मविश्वास बढ़ा रहता है और कठिनाइयों पर सरलता से विजय पा ली जाती है, परन्तु यदि मन का संकल्प कमजोर है, विचारों में ढीलापन है तो हर युद्ध में जीत मुश्किल है। हार का कारण मन के संकल्प की कमजोरी ही होती है। यदि मन सबल और स्वस्थ है तो कार्य संपादन में साधनों की कमी खटकती नहीं और यदि मन अस्वस्थ है तो सारे साधनों के रहते भी सफलता हाथ से फिसल जाती है। मनोभावों की छाया तन पर स्पष्ट दिखाई देती है। रंगमंच पर अभिनेता के मन में जो भाव प्रधान रूप से उत्पन्न होते हैं उसके चेहरे और हाव भावों में अभिनय के रूप में स्पष्ट झलकते हैं और दर्शक उनकी प्रशंसा करते हैं। अत: मन का तन पर भारी प्रभाव पड़ता है। अब तो भेषज विज्ञान भी यह मानने लगा है कि शरीर की रुग्णता को दूर करने में मन की आशावादिता और प्रसन्नता का बड़ा हाथ होता है। मन से स्वस्थ मरीज को डॉक्टरों द्वारा दी गई दवायें उसे जल्दी स्वस्थ कर देती हैं जबकि अन्यों को अधिक समय लगता है पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्ति में। मन और तन का पारस्परिक गहरा नाता है।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 149 ☆ अतिलोभात्विनश्यति – 1☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 149 ☆ अतिलोभात्विनश्यति – 1 ?

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।

दैवासुरसम्पद्विभागयोग का वर्णन करते हुए श्रीमद्भगवद्गीता के 16वें अध्याय के 21वें श्लोक में यह योगेश्वर का उवाच है। भावार्थ है कि  काम, क्रोध तथा लोभ आत्मनाश कर नर्क में ढकेलने वाले तीन द्वार हैं। अतः इन तीनों का त्याग कर देना चाहिए।

इनमें से लोभ के विषय में आज विचार करेंगे। विचार करो कि पेट तो भर गया है पर स्वादवश जिह्वा ‘थोड़ा और’, ‘थोड़ा और’ की रट लगाए बैठी है। पेट में जगह ना होने पर भी भोजन ठूँसने का जो परिणाम होता है, उससे लोभ को सरलता से समझा जा सकता है।

लोलुपता, लालच या अधिकाधिक लाभ लेने की वृत्ति धन, प्रसिद्धि, रूप आदि हर क्षेत्र में लागू है। आदमी की आवश्यकताएँ तो मुट्ठी भर हैं पर पर उसकी लोलुपता असीम है।

आवश्यकता और लोलुपता का एक पहलू यह है कि तुम अपने में फ्लैट में आराम से रह रहे हो।  800 स्क्वायर फीट का यह फ्लैट तुम्हारी आवश्यकता के अनुरूप है। इससे अधिक स्पेस नहीं चाहिए तुम्हें पर लोलुपता का आलम यह कि तुम किसी और के लिए कोई स्पेस छोड़ना ही नहीं चाहते। मन के एक कोने में तो बिल्डिंग के सारे फ्लैट अपने नाम कर लेने का लोभ दबा पड़ा है। ध्यान देना कि यह ‘तुम’ केवल तुम नहीं हो, इसमें ‘मैं’, ‘हम’ सभी समाहित हैं।

लोभ ऐसा राक्षस है जिसका पेट कभी नहीं भरता। स्मृति में एक दृष्टांत कौंध रहा है। किसी नगर में एक अत्यंत लोभी व्यक्ति रहा करता था। उसके पास आवश्यकता से अधिक संचय हो चुका था पर तृष्णा थी कि मिटती ही न थी।  नित और अधिक धन कमाने की वासना मन में जन्मती और प्रति क्षण अधिक संचय के नये-नये तरीके खोजा करता। इसी उधेड़-बुन में एक दिन वह घोड़े पर सवार होकर जंगल से गुज़र रहा था। विश्राम के लिए एक घने पेड़ के नीचे रुका। घोड़ा घास चरने में लग गया और लोभी विश्राम के बजाय धन बढ़ाने की सोच में। तभी किसीके स्वर ने उसे बुरी तरह से चौंका दिया। स्वर पूछ रहा था- ‘क्या सोच रहे हो?’ घबराए लोभी ने यहाँ- वहाँ देखा तो कोई नहीं था। फिर समझ में आया कि वह वृक्ष ही उस से संवाद कर रहा था। वृक्ष बोला, ‘यदि रातों-रात बहुत अधिक धन पाना चाहते हो तो सुनो। मेरी याने इस पेड़ की जड़ के पास सात कलश गड़े हुए हैं। इनमें से छह औंधे मुँह गड़े हैं जबकि सातवाँ सीधा गड़ा हुआ है। छह कलशों में ऊपर तक सोना भरा है जबकि सातवाँ अभी आधा ही भरा है। यदि तुम सातवाँ कलश सोने से पूरा भर दो तो सारे कलश तुम्हारे हो जाएँगे। हाँ, ध्यान रहे कि यदि तुम कलश नहीं भर सके तो तुम अपने डाले सोने से हाथ धो बैठोगे क्योंकि इस कलश के पेट में जाने के बाद सोना वापस नहीं आता।’

लोभी खुशी से उछल पड़ा। घोड़ा दौड़ाता घर पहुँचा। पत्नी को सारा किस्सा सुनाया। फिर घर में रखा सारा सोना एक बड़ी पोटली में बांधकर जंगल ले आया। उसके पास बहुत सोना था। लोभी को विश्वास था कि इतने सोने से एक नहीं बल्कि दो कलश भी भर सकते हैं। थोड़ी-सी खुदाई के बाद ही उसे एक चमकदार कलश दिखाई देने लगा। घर से लाया सोना थोड़ा-थोड़ा कर उसमें उँड़ेलने लगा। हर बार सोना डालने के बाद झाँक कर देखने की कोशिश करता कि शायद इस बार भर गया हो। अंतत: कलश ने सारा सोना गड़प लिया पर भरा नहीं। लोभी रोने लगा। पेड़ से पूछा, ‘ इतना अधिक सोना था फिर भी यह कलश भरा क्यों नहीं?’  पेड़ ज़ोर- ज़ोर से हँस पड़ा और कहा,’नादान, यह लोभ का कलश है, जो कभी नहीं भरता।’

सच है, लोभ का कलश कभी नहीं भरता। सुभाषित में उतरा सनातन दर्शन कहता है,

लोभ मूलानि पापानि संकटानि तथैव च।

लोभातप्रवर्तते वैरम् अतिलोभात्विनश्यति।

लोभ विनाश का कारण बनता है। संभव हुआ तो आगे के आलेखों में ‘अतिलोभात्विनश्यति’ की विवेचना जारी रखेंगे।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #134 ☆ शब्दनाद ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 134 ☆

☆ ‌ शब्दनाद ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

नाद शब्द का शाब्दिक अर्थ है, अव्यक्तशब्द, ध्वनि, आवाज, यह व्याकरणीय संरचना एवम् शब्द भेद के अनुसार पुल्लिंग है। इसके दो भेद हैं आहद और अनहद नाद यह ऐसी अव्यक्त ध्वनि है जो निरंतर अविराम अनंत अंतरिक्ष में गूंज रही है, जो अव्यक्त है जिसे गहन एकाग्रता और ध्यान में स्थित होने के बाद ही श्रवण किया जा सकता है। यह गीतों का भाव है। यह संगीतो का प्रभाव है। यह ब्रह्म स्वरूप है। इसमें स्तंभन शक्ति समाहित है। सम्मोहन इसका प्रभाव है।

हमारे भाषा साहित्य तथा संगीत की आत्मा नाद ही है। यही नहीं संस्कृत वांग्मय के उद्भट विद्वान महर्षि पाणिनि के चौदह सूत्रों के मूलाधार शिव के डमरू के नाद से ही तो प्रगट हुए हैं। तो वहीं पर मां सरस्वती की वीणा के तारों की झंकार तथा कृष्ण की मुरली अथवा बांसुरी के तानों के सम्मोहन से क्या पशु, क्या पंछी, क्या सारी सृष्टि का जीव जगत कोई भी बच पाया है क्या? क्या गीत और संगीत के सुमधुर सधे स्वर तथा वाद्ययंत्रों के ताल मेल आधारित कर्णपटल से टकराने वाली स्वर लहरी के संम्मोहन से कोई बच पाया है? आखिर ऋषियों मुनियों की शोध, तथा पशु पक्षियों की बोली का मूलाधार शब्द नाद ही तो है। हम तो कोयल तथा पपीहे की कूक में भी संगीत का लय ताल खोज लेते हैं। यह अव्यक्त ब्रह्म स्वरुप भी है वेदों की ऋचाओं में समाहित लयबद्ध सस्वर पाठ की आत्मा भी शब्द नाद ही तो है।

जब वो यज्ञ मंडपों में गूंजती है और उसकी प्रतिध्वनि कर्णपटल से टकराती है तो इसका अर्थ न समझने वाले के भी तन और मन को पवित्र कर देती है। आखिर सामवेद का गान भी तो नाद की ही कोख से पैदा हुआ है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नाद का संबंध सृष्टि के समस्त जीव जगत से जुड़ा हुआ है। यह हमारी संस्कृति और सभ्यता की आत्मा है यह परमात्मा की देन है आखिर ॐ शब्द की ध्वनि में ऐसा क्या है जो मन को अपने आकर्षण से बांध कर स्तंभित कर देता है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मोक्ष या मुक्ति॥ -॥ मोक्ष या मुक्ति ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ मोक्ष या मुक्ति ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार मानव जीवन के चार पुरुषार्थ निर्धारित किये गये हैं। ये हैं अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष। पुरुषार्थ से आशय है उन लक्ष्यों का जो व्यक्ति को अपने जीवन में परिश्रम करके प्राप्त करने चाहिये। अर्थ का अभिप्राय धन कमाना, धर्म का आशय धार्मिक मान्यताओं का परिपालन, काम का मतलब जीवन में धर्मानुसार इच्छाओं की पूर्ति करना, सांसारिक आवश्यकताओं और सुखद महत्वाकांक्षाओं की प्राप्ति कर परिवार में रह सुखोपभोग करना तथा अन्तिम मोक्ष का आशय है शरीर में स्थित जीवात्मा को जीवन यात्रा की समाप्ति पर जीवनदाता परमात्मा में एकाकार कर देना।

मोक्ष या मुक्ति क्या है और यह कैसे प्राप्त होता है, हर भारतीय के मन में यह प्रश्न सदा बना रहता है। अधिकांश विचारकों की मान्यता है कि धर्मपरायण पुण्य कार्य करने वाले परोपकारी व्यक्तियों की आत्माओं को मृत्यु के उपरांत मोक्ष मिलता है। इसीलिये लोग पूजा पाठ, दानपुण्य, तीर्थाटन और विभिन्न खर्चीले धार्मिक अनुष्ठान करते रहते हैं। परन्तु ऐसा सब करने से वास्तव में मोक्ष मिलता है या नहीं निश्चित रूप से कोई नहीं जानता। हां, ऋषियों की दृष्टि से देखा जाय तो मनीषा कहती है कि- मोह का क्षय ही मोक्ष है। जीवन में त्याग की प्रतिष्ठा करना तथा तृष्णा वासना और अहंकार के बंधनों को काटकर सरल निर्बंध निर्बाध जीवन जीना ही मुक्ति पाना या मोक्ष है। जो इसी जीवनकाल में पुरुषार्थ से साध्य है।

इस मोक्ष देने वाले ज्ञान का स्वरूप भारतीय दर्शन की विभिन्न विधाओं में भिन्न हो सकता है, किन्तु लक्ष्य सभी का एक ही है- जीवन को सांसारिक माया के बंधनों से मुक्त करना। अध्यात्म ज्ञानियों का कथन है कि मानव जीवन मिला ही इसीलिये है कि व्यक्ति ज्ञान और कर्म की साधना से ऐसे कार्य करे जिससे वह मोक्ष बंधन से छूटकर अपने सृष्टिकर्ता परमात्मा को पा सके।

गीता में भगवान कृष्ण ने जीवन जीने की उस उच्चशैली का जो मोक्ष दिलाती है बड़ा सुन्दर और विशद वर्णन कर अर्जुन को समझाया है। उन्होंने कहा है कि संसार में रहते मनुष्य, जो भी कार्य संपन्न करे उसमें वह उसके कर्ता होने का अभिमान न रखे। जो कुछ संसार में व्यक्तियों के द्वारा समय समय पर संपादित होता है उसका कर्ता वह व्यक्ति नहीं कोई और है। व्यक्ति तो कार्य का एक साधन मात्र है। कर्ता कर्म करते हुये स्वत: अपने बंधनों को काटे। लोभ, मोह, अहंकार से खुद को अलग रखे। परमात्मा शक्ति के अनुग्रह से कार्य के सम्पादित होने की अनुभूति कर सफलता का श्रेय परमपिता के चरणें में समर्पित करे। यदि व्यक्ति ऐसा मन बनाकर जीवन जिये तो मोक्ष का तत्वज्ञान समझ कर वह जीवन में सफलतापूर्वक जी सकता है और दुष्प्रवृत्तियों से अलग रह जीवन में ही मुक्ति या मोक्ष पाने का अनुभव कर सकता है।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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