हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पनवाड़ी अंतिम भाग) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “पनवाड़ी” की अंतिम कड़ी।)

☆ आलेख ☆ पनवाड़ी (अंतिम भाग) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

समय के बदलाव के साथ ही साथ पनवाड़ियो ने भी अपने रंग ढंग बदल लिए। पहले इस व्यापार में “चौरसिया” लोग ही कार्यरत थे। पान के शौकीन अधिकतर पूर्वी राज्यों तक ही सीमित थे। धीरे धीरे उत्तर और पश्चिम दिशा में भी इसके सेवन करने वालों की संख्या में वृद्धि होती गई।

हमारा परिवार उत्तर भारत के  होने के कारण पान का सेवन नहीं करता था। सत्तर के दशक में शादी विवाह के समय जरूर इसका एक काउंटर लगता था। कॉलेज समय तक इसका स्वाद हमने नही चखा था। पान खाने वाले को “बिगड़ैल” की श्रेणी में गिना जाता था।                               

आज पनवाड़ी माहौल के अनुसार “बीटल” लिखने लग गए हैं। पान की कीमत भी दस रुपे से हज़ार तक में होती हैं। चांदी के वर्क में लिपटा हुआ “बीड़ा” कहीं कहीं सोने के वर्क में भी उपलब्ध करवाया जाता हैं। “पैसा फैंको और तमाशा देखो” बर्फ, आग के शोलों वाला पान और ना जाने कितने नए तरीकों से पान आपकी जिव्हा के स्वाद के लिए परोसा जाता हैं।               

कुछ पान वाले इसलिए भी मशहूर हो जाते हैं कि उनकी दुकान पर पान खाए हुए बड़े मंत्री पद पर आसीन हो गए हैं। उनकी पान खाते हुए की फोटो लगा कर व्यवसाय वृद्धि करते हैं, और पुरानी उधारी का जिक्र भी कर देते हैं। सही भी है, क्या बिना उधारी चुकाए ही बड़ा आदमी बना जा सकता हैं? 👄

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 134 ☆ असार का सार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 134 ☆ असार का सार ?

मनुष्य के मानस में कभी न कभी यह प्रश्न अवश्य उठता है कि उसका जन्म क्यों हुआ है? क्या केवल जन्म लेने, जन्म को भोगने और जन्म को मरण तक ले जाने का माध्यम भर है मनुष्य?

वस्तुत: जीवन समय का साक्षी बनने के लिए नहीं है अपितु समय के पार जाने की यात्रा है।   अपार सृष्टि के पार जाने का, मानव देह एकमात्र अवसर है, एक मात्र माध्यम है। यह सत्य है कि एक जीवन में कोई बिरला ही पार जा पाता है, तथापि एक जीवन में प्रयास कर अगले तिरासी लाख, निन्यानवे हजार, नौ सौ निन्यानवे जन्मों के फेरे से बचना संभव है। मानव देह में मिले समय का उपयोग न हुआ तो कितना लम्बा फेरा लगाकर लौटना पड़ेगा!

जीवन को क्षणभंगुर कहना सामान्य बात है। क्षणभंगुरता में जीवन निहारना, असामान्य दर्शन है। लघु से विराट की यात्रा, अपनी एक कविता के माध्यम से स्मरण हो आती है-

जीवन क्षणभंगुर है;

सिक्का बताता रहा,

समय का चलन बदल दिया;

उसने सिक्का उलट दिया…,

क्षणभंगुरता में ही जीवन है;

अब सिक्के ने कहा,

शब्द और अर्थ के बीच

अलख दृष्टि होती है,

लघु से विराट की यात्रा

ऐसे ही होती है..।

ज्ञान मार्ग का जीव मनुष्येतर जन्मों को अपवाद कर देता है, एक छलांग में इन्हें पार कर लौट आता है फिर मनुज देह को धारण करने, फिर पार जाने के लिए।

मनुष्य जाति का आध्यात्मिक इतिहास बताता है कि ज्ञानशलाका के स्पर्श से शनै:-शनै: अंतस का ज्ञानचक्षु खुलने लगता हैं। अपने उत्कर्ष पर ज्ञानचक्षु समग्र दृष्टिवान हो जाता है महादेव-सा। यह दर्शन सम्यक होता है। सम्यक दृष्टि से जो दिखता है, अद्वैत होता है विष्णु-सा। अद्वैत में सृजन का एक चक्र अंतर्निहित होता है ब्रह्मा-सा। ज्ञान मनुष्य को ब्रह्मा, विष्णु, महेश-सा कर सकता है। सर्जक, सम्यक, जागृत होना, मनुष्य को त्रिदेव कर सकता है।

जिसकी कल्पना मात्र से शब्द रोमांचित हो जाते हैं, देह के रोम उठ खड़े होते हैं, वह ‘त्रिदेव अवस्था’ कैसी होगी! भीतर बसे त्रिदेव का साक्षात्कार, द्योतक है सृष्टि के पार का।

असार है संसार। असार का सार है मनुष्य होना। सार का स्वयं से साक्षात्कार कहलाता है चमत्कार। यह चमत्कार दही में अंतर्निहित माखन-सा है। माखन पाने के लिए बिलोना तो पड़ेगा। यशोदा ने बिलोया तो साक्षात श्याम को पाया।

संभावनाओं की अवधि, हर साँस के साथ घट रही है। अपनी संभावनाओं पर काम आरंभ करो आज और अभी। असार से केवल ‘अ’ ही तो हटाना है। साधक जानता है कि अ से ‘आरंभ’ होता है। आरंभ करो, सार तुम्हारी प्रतीक्षा में है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी  ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #118 ☆ एक आत्म कथा – समाधि का वटवृक्ष ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 118 ☆

☆ ‌एक आत्म कथा – समाधि का वटवृक्ष  ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

एक बार मैं देशाटन के उद्देश्य से घर से निकला जंगलों के रास्ते गुजर रहा था, कि सहसा उस नीरव वातावरण में एक आवाज तैरती सुनाई दी।अरे ओ यायावर मानव!

कुछ पल मेरे पास रूक और मेरी भी राम कहानी सुनता जा और अपने जीवन के कुछ कीमती पल मुझे देता जा। ताकि जब मैं इस जहां से जाऊं तो मेरी अंतरात्मा का बोझ थोडा़ सा हल्का हो जाय।

जब मैंने कौतूहल बस अगल बगल देखा तो वहीं पास में ही जड़ से कटे पड़े धराशाई वटवृक्ष से ये आवाज़ फिज़ा में तैर रही थी। और दयनीय अवस्था में गिरा पड़ा वह वटवृक्ष मुझसे   आत्मिक संवाद करता अपनी राम कहानी सुनाने लगा था। मैंने जब ध्यानपूर्वक उसकी तरफ देखा तो पाया कि उसके तन पर मानवीय अत्याचारों की अनेक अमानवीय कहानियां अंकित थी।उसका तना जड़ से कटा गिरा पड़ा था और उसके पास ही उसकी अनेकों छोटी-छोटी शाखाएं भी कटी बिछी  पड़ी थी।

वह धरती के सीने पर गिरा पड़ा था, बिल्कुल महाभारत के भीष्म पितामह की तरह, उसके चेहरे पर चिंता और विषाद की असीम रेखाएं खिंची पड़ी थी। वहीं पर उसके हृदय में और अधिक लोकोपकार न कर पाने की गहरी पीड़ा भी थी।

उसका हृदय तथा मन मानवीय अत्याचारों से दुखी एवं बोझिल था। उसने अपने जीवन काल के बीते पलों को अपनी स्मृतियों में सहेजते हुए मुझसे कहा।

प्राकृतिक प्रकीर्णन द्वारा पक्षियों के उदरस्थ भोजन से बीज रूप में मेरा जन्म एक महात्मा की कुटिया के प्रांगण के भीतर धरती की कोख से हुआ था। धरती की कोख में एक नन्हे बीज रूप में मैं पड़ा पड़ा ठंडी गर्मी सहता पड़ा हुआ था कि एक दिन काले काले मेघों से पड़ती ठंडी फुहारों से तृप्त हो उस बीज से नवांकुर फूट पड़े थे।जब मेरी कोमल लाल लाल नवजात पत्तियों पर महात्मा जी की निगाहें पड़ी,तो वे मेरे रूप सौन्दर्य पर रीझ उठे थे। उन्होंने लोक कल्याण की भावना से मुझे उस कुटिया प्रांगण में रोप दिया था। वे रोज सुबह शाम पूजा वंदना के बाद बचे हुए अमृतमयी गंगाजल  से मेरी जड़ों को सींचते तो उसकी शीतलता से मेरी अंतरात्मा निहाल हो जाती, और मैं खिलखिला उठता।।

इसी तरह समय अपनी मंथर गति से चलता रहा और समय के साथ मेरी आकृति तथा छाया का दायरा विस्तार लेता जा रहा था।इसी बीच ना जाने कब और कैसे महात्मा जी को मुझसे पुत्रवत स्नेह हो गया था।

मुझे तो पता ही नहीं चला, वे रोज कभी मेरी जड़ों में खाद पानी डाला करते, और कभी मेरी जड़ों पर मिट्टी डाल चबूतरा बना लीपा पोता करते, और परिश्रम करते करते जब थक कर बैठ जाते तो मेरी शीतल छांव‌ से उनके मन को अपार शांति मिलती। मेरी शीतल घनेरी छांव  उनकी सारी पीड़ा और थकान हर लेती। उनके चेहरे पर उपजे आत्मसंतुष्टि का भाव देख मैं भी अपने सत्कर्मो के आत्मगौरव के दर्प से भर उठता।मेरा चेहरा चमक उठता और मेरी शाखाएं झुक झुक कर अपने धर्म पिता के गले में गल बहियां डालने को व्याकुल हो उठती। गुजरते हुए समय के साथ मेरे विकास का क्षेत्र फल बढ़ता गया। अब मैं जवान हो चला था, और मैंने हरियाली की एक चादर तान दी थी अपने धर्म पिता के कुटिया के उपर तथा सारे प्रांगण को अपनी सघन शीतल छांव से ढंक दिया था। मेरी शीतल छांव‌ का एहसास धूप से जलते पथिक तथा मेरे पके फल खाते पंक्षियो के कलरव से सारा कुटिया प्रांगण गूंज उठता तो उसे सुनकर महात्मा जी का चेहरा अपने सत्कर्मों के आत्मगौरव से खिल उठता और उनके चेहरे का आभामंडल देख मेरा मन मयूर नाच उठता। और उनकी प्रेरणा मेरे सत्कर्मो की प्रेरक बना जाती। और मैं भी लोकोपकार की आत्मानुभूति से संतुष्ट हो जाता। एक संत के सानिध्य का मेरी जीवन वृत्ति पर बड़ा ब्यापक असर पड़ा था। मेरी वृति भी लोकोपकारी हो गई थी। अब औरों के लिए दुख और पीड़ा सहने में ही मुझे आनंद मिलने लगा था। मैं लगातार कभी बर्षा कभी गर्मी की लू कभी पाला और तुषार की प्राकृतिक आपदाओं को झेलते हुए भी निर्विकार भाव से तन कर खड़ा रहा आंधियों तूफानों के झंझावातों को झेल लोककल्याण हेतु तन कर खड़ा  लड़ता रहा। अब औरों के लिए खुद पीड़ा सहने में ही मुझे सुखानुभूति होने लगी थी।और महात्मा जी ने मेरी जड़ों के नीचे बने चबूतरे को ही अपनी साधना स्थली बना लिया था। और लोगों का आना-जाना और सत्संग करना महात्मा जी के दैनिक जीवन का अंग बन गया था। मैंने अपने जीवन काल में महात्मा जी की वाणी और सत्संग के प्रभाव से अनेकों लोगों की जीवन वृत्ति बदलते देखा है। और एक दिन महात्मा जी को जीवन की पूर्णता पर इस नश्वर संसार से विदा होते भी देखा। अब मेरी उस  छाया के नीचे  बने चबूतरे को महात्मा जी का समाधि स्थल बना दिया गया था। तब से अब तक महात्मा जी के सानिध्य में बिताए पलों ‌को अपने स्मृतिकोश में सहेजे, लोककल्याण की आस अपने हृदय में लिए उस समाधि को अपनी घनी शीतल छांव‌ में आच्छादित किए वर्षों से ज्यों का त्यों खड़ा हूं। मैंने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा। मैं कभी पंछियों का आश्रय बना, तो कभी थके-हारे पथिक की शरणस्थली ।

पर हाय ये मेरी किस्मत! ना जाने क्यूं? ये मानव मुझसे रूठ गया। यह मुझे नहीं पता। वो अब तक अपने तेज धार कुल्हाडे से मुझे चोट पहुंचाता रहा, मैं शांत हो उस दर्द और पीड़ा को सहता रहा और वो अपना स्वार्थ सिद्धि करता रहा।

परंतु आज इन बेदर्द इंसानों ने सारी हदें पार कर दी, और मेरी सारी जड़े काट कर मुझे मरने पर विवश कर दिया। क्यों कि उन बेदर्द इंसानों ने वहां भव्य मंदिर को बनाने का निर्णय ले लिया है, इस क्रम में पहली बलि उन्होंने मेरी ही ली है।

और इस प्रकार मैंने सोचा कि जब मैं इस जग से जा ही रहा हूं तो क्यों न अपनी राम कहानी तुम्हें सुनाता जाऊं, ताकि मरते समय मेरे मन की मलाल पीड़ा और घुटन थोड़ी कम हो जाय, और सीने का बोझ थोडा़ हल्का हो जाय। मैं अपने आखिरी समय में अल्पायु मृत्यु को प्राप्त हो, लोगों की और सेवा न कर पाने की टीस मन में लिए जा रहा हूं। मेरा तुमसे यही निवेदन है कि मेरी पीड़ा और दर्द से सारे समाज को अवगत करा देना। ताकि यह मानव समाज अब और हरे वृक्ष न काटे। इस प्रकार पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते देते उस वृक्ष की आंखें छलछला उठी, उसकी जुबां ख़ामोश हो गई। वह वटवृक्ष मर चुका था, उस समाधि के वट वृक्ष की दयनीय स्थिति देखकर मेरा भावुक हृदय चीत्कार कर उठा था मैं इंसानी अत्याचारों का शिकार हुए उस धराशाई वटवृक्ष को निहार रहा था, अपलक किंकर्तव्यविमूढ़ असहज असहाय हो कर।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ कहानी : एक पाठक की नज़र से ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ आलेख ☆ कहानी : एक पाठक की नज़र से ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

कहानी कहना मनुष्य का स्वभाव है। बच्चे से लेकर बूढ़े तक सब कहानी सुनना पसंद करते हैं। कभी सुख तो कभी दुख। कभी धूप, कभी छांव। कहीं शहर, कहीं गांव। सबकी अपनी अपनी कहानी। अपनी अपनी व्यथा। अपने अपने छोटे छोटे सुख दुख। कथाकारों का इंद्रधपुषी संसार। सारी दुनिया के रंग समेटे हुए। कहीं मैदान तो कहीं पहाड़। कहीं कल कल बहती नदियां, कहीं सूखा उजाड़। कुछ कम, कुछ ज्यादा पर बहुत कुछ है कहानी में। हर कहानी कुछ कहती है ।

कथा साहित्य के पहले पहले कथाकार रहे माधव प्रसाद मिश्र जिनका उल्लेख कितने आह्लाद में भर देता है। और फिर चंद्रधर शर्मा गुलेरी और उनकी ‘उसने कहा था’ को कौन भूल सकता है? कोई नहीं। इस जैसी अमर प्रेम कथा की तो बात ही क्या? क्या आज तक हिंदी फिल्मों में ‘उसने कहा था’ जैसे प्रेम त्रिकोण और मूक बलिदान ही लगातार दोहराया नहीं जा रहा है? यह क्या कम उपलब्धि है?

हिंदी कथाकारों में एक और महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं -विष्णु प्रभाकर। उन्होंने हरियाणा के हिसार में अपने जीवन के बीस वर्ष बिताये और यहीं कलम का सफर शुरु किया। ‘धरती अब भी घूम रही है ‘ बहुचर्चित कहानी है विष्णु प्रभाकर की।  ‘पुल टूटने से पहले’ कहानी उनके मुख से ही अहमदाबाद के अहिंदी भाषी लेखक शिविर में सुनने का सुअवसर आज भी याद है।  ऐसे ही एक बार प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी के कहानी पाठ को सुनने का अवसर चंडीगढ़ में हरियाणा साहित्य अकादमी के लेखक कार्यशाला में मिला था और कहानी पाठ करने की कला भी सामने आई थी। भीष्म साहनी ने ‘लीला नंदलाल की ‘ कथा का पाठ किया था ऐसे किया था जैसे सबकुछ सामने नाटक की तरह घटित हो रहा हो। उनकी कहानी ‘ओ हरामजादे’ भी खूब चर्चित रही और ‘चीफ की दावत ‘ तो मन में बस ही गयी। भीष्म साहनी की अनेक कहानियां चर्चित हैं और बार बार पढ़ने को मन करता है। भीष्म साहनी के बड़े भाई और अपने समय के लोकप्रिय अभिनेता बलराज साहनी भी कथाकार व लेखक थे पर पंजाबी में ।

 कथा साहित्य पर बात करनी हो तो निर्मल वर्मा का जिक्र न हो? ऐसा कैसे हो सकता है? निर्मल वर्मा के अनेक कथा संग्रह हैं और उनमें धूप के नन्हे खरगोश, प्रकृति और व्यक्ति का एक साथ मनोभाव, भाषा का बड़े संतुलित व सधे ढंग से उपयोग किया गया है। भाषा का जादू जिसे कह सकते हैं। ‘दूसरी दुनिया’ एक लम्बी कहानी है जिसमें पार्क में खेलती एक नन्ही बच्ची के मोहजाल में फंसा नायक कैसे उसकी दुनिया में धीरे धीरे प्रवेश कर जाता है और उसकी मां का सारा सच जान जाता है। यह निर्मल वर्मा ही कर सकते हैं। ‘लंदन की एक रात’ में देश विदेश के युवा की क्या स्थिति है, इसे सामने लाते हैं। उनके भाई रामकुमार वर्मा ने कलाकृतियां भी बनाईं और कलाकृतियों जैसी प्यारी कहानियां भी लिखीं ।

हिंदी कथा साहित्य को समृद्ध करने वालों में कृष्ण वलदेव वैद व उनके छोटे भाई यशपाल वैद भी इसी तरह एक साथ याद आते हैं। हरियाणा के कथाकारों में स्वदेश दीपक, राकेश वत्स, पृथ्वीराज मोंगा और विकेश निझावन सब एक साथ अम्बाला शहर या छावनी से याद आते हैं। वैसे ज्ञानप्रकाश विवेक भी चर्चित कथाकारों में एक हैं। हरियाणा में एक समय वर्तिका नंदा और प्रतिभा कुमार नवलेखन प्रतियोगिताओं में कहानी पुरस्कार जीत कर चर्चित रही थीं लेकिन अब वर्तिका नंदा ‘तिनका तिनका डासना’ एक एनजीओ चला रही है तो प्रतिभा कुमार बहुत कम कहानिया लिख रही है। स्वदेश दीपक की कहानियों में मनोविज्ञान भी अपनी भूमिका निभाता है। आदमी के अंदर क्या और बाहर क्या और कैसे चल रहा है? कैसे वह चीते की फुर्ती से छलांग लगा देता है अचानक और किस तरह खलनायक बन जाता है। ‘महामारी’ ऐसी ही कहानी है। स्वदेश दीपक का नायक महंगाई, वृद्धावस्था और अकेलेपन से ग्रस्त है। आर्थिक अभाव से जूझते अपने माता पिता की विवशता समझते कैसे अपने ही बेटे पर हाथ उठा देता है, जो बेटा एक सप्ताह रहने आया था, वह तीन दिन में ही महामारी के चलते लौट जाता है। मां बाप का उत्साह भी खत्म हो जाता है। पुलिस में उच्चाधिकारी रहे और लाॅन टेनिस की उभरती खिलाड़ी के चर्चित प्रसंग पर भी कहानी लिखी थी और बाल भगवान् भी खूब विवाद में आई थी। ‘तमाशा’ का नाट्य रूपांतरण भी टीवी पर आया। स्वदेश दीपक बहुत खामोशी से विदा या गायब हो गये। उनके कथा साहित्य में दिये योगदान को भुलाया नहीं जा सकता ।

मोहन राकेश ने ही हिमाचल के धर्मपुर, सोलन और शिमला के वातावरण के साथ साथ विभाजन की व्यथा को बखूबी ‘मलबे का मालिक’ कहानी में दिखाया सफलतापूर्वक। ‘मंदी’ कहानी भी पर्यटन स्थलों के माध्यम से विश्व भर की मंदी तक सब पोल खोल देती है। ‘एक और जिंदगी’  अपने ही जीवन पर लिखी कहानी है। वैवाहिक जीवन की व्यथा और अलगाव चित्रित किया है। भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारी जब पकड़ लिया जाता है और नीलामी होने के बाद जब पत्नी नीचे उतरती है तो उसे लगता है कि वह आखिरी सामान है जिसकी बोली लग रही है। जगदीश चंद्र वैद को कौन भूल सकता है? ग्राम्य जीवन के चितेरे और धरती धन न अपना उपन्यास से बहुचर्चित वैद ने कहानियां भी लिखीं और ‘पहली रपट’  कहानी सदैव याद रहती है। कृष्णा सोबती भी बेशक उपन्यासों ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ और,’मित्रो मरजानी’  के साथ साथ ‘जिंदगीनामा’ के लिए ज्यादा जानी जाती हैं लेकिन कहानियां भी खूब लिखीं। राजी सेठ ने लगातार कहानियां दीं। ‘गलत होता पंचतंत्र’,  ‘क्योंकर’ और ‘तुम भी’ सहित अनेक कहानियां एक साथ याद आ रही हैं। ‘तुम भी’ में तो पति परिवार के लिए बोरियों में से अनाज चुराता है लेकिन बेटी की शादी के अवसर पर जब पत्नी चोरी के लिए कहती है तब वह सवाल उसके मन में उठता है कि क्या तुम भी? कथाकारों में बलवंत सिंह, जसवंत सिंह विरदी और डाॅ महीप सिंह भी उल्लेखनीय और महत्त्वपूर्ण नाम हैं। जसवंत सिंह विरदी हिंदी पंजाबी दोनों में सक्रिय रहे तो डाॅ महीप सिंह ने संचेतना पत्रिका के माध्यम से भी योगदान दिया और वर्ष की श्रेष्ठ कहानियां संपादित करके भी चर्चित रहे ।

राकेश वत्स का नाम भी अग्रणी कथाकारों में है। राकेश वत्स ने निम्न मध्यवर्गीय जीवन के रंगों को चित्रित किया है। एक सड़क दुर्घटना में बुरी तरह घायल होने के बाद वे उभर नहीं पाये और विदा हो गये थे। अम्बाला छावनी से ही उर्मि कृष्ण और विकेश निजावन भी चर्चित कथाकार हैं ।

एक मजेदार बात बताने जा रहा हूं कि एक समय मैंने ऐसी फाइल लगाई जिसमें पंजाब, हिमाचल और हरियाणा के कथाकारों की धर्मयुग, सारिका व कहानी में प्रकाशित कहानियों की कतरन संभाल कर रखता गया। आज वह फाइल तो नहीं है लेकिन कुछ बहुचर्चित नाम उनके आधार पर याद हैं। जैसे रवींद्र कालिया और उनकी पत्नी ममता कालिया का उल्लेख। रवींद्र कालिया की ‘काला रजिस्टर’ व ममता कालिया की ‘उपलब्धि’ कहानियां हमेशा याद रहती हैं। रवींद्र कालिया की ‘नौ साल छोटी पत्नी’ भी खूब रही। ममता कालिया की ‘उपलब्धि’ में एक बच्चे से अचानक मुस्लिम समाज के जलूस पर पानी गिर जाता है जो सारे घर के लिए संकट का कारण बनता है। बस बचता है तो वह बच्चा और यही सबसे बड़ी उपलब्धि है। फूलचंद मानव की धर्मयुग में प्रकाशित ‘अंजीर ‘ कहानी भी चर्चित रही थी। इसी नाम से फूलचंद मानव का कथा संग्रह भी आया। हिमाचल के कथाकार व हिमप्रस्थ के संपादक रहे केशव की कहानी ‘छोटा टेलीफोन, बड़ा टेलीफोन’ आज तक याद रहती है कि कैसे सिफारिश का खेल चलता है और प्रतिभा सिर धुनती है। हिमाचल के कथाकारों में सुशील कुमार फुल्ल, सुंदर लोहिया, सुदर्शन वाशिष्ठ, तुलसी रमण, बद्री सिंह भाटिया, राजकुमार राकेश, एस आर हरनोट, रेखा डडवाल, रत्न चंद रत्नेश, विजय उपाध्याय, पीयूष गुलेरी, प्रत्यूष गुलेरी, अदिति गुलेरी, राधा गुलेरी, रमेश पठानिया, पौमिला ठाकुर, देवकन्या ठाकुर और राजेंद्र राजन भी चर्चित हैं। इन कथाकारों ने राष्ट्रीय स्तर पर पहचान व चर्चा पाई ।

जालंधर (पंजाब) के कथाकार सुरेश सेठ की दो कहानियां मन में जगह बनाये रही हैं -धंधा और भुगतान। धंधा में राजनीति की दयनीय स्थिति का वर्णन करते आखिरकार नायक अपनी पत्नी के खत्म होते आकर्षण के बाद बेटी को साथ ले जाने को विवश हो जाता है। ‘भुगतान’ में मध्यवर्गीय पति अपनी पत्नी को विवाह के बाद किसी पहाड़ी क्षेत्र में चाहकर भी नहीं ले जा पाता लेकिन जब बीमार होकर बड़े अस्पताल के अलग कमरे में होता है तब लगता है कि कितना भुगतान करने के बाद वह ए फाॅर सारो, टू फाॅर जाॅय की मनस्थिति में आ जाता है। विनोद शाही बेशक आज आलोचना में ज्यादा सक्रिय हैं लेकिन एक समय कथाकार के तौर  पर ज्यादा जाने जाते थे। ‘ श्रवण कुमार की खोपड़ी ‘ आई और खूब चर्चित रही। फिलहाल ताजा कहानी ‘बाघा बाॅर्डर’ ने  व ‘रक्तजिह्वा ‘ ने भी पाठकों का ध्यानाकर्षित किया। इसी प्रकार इन दिनों सुरेंद्र मनन की कहानी ‘आप्रेशन ब्लैकवर्ड्स ‘ ने फिर याद दिलाई। पंजाब के जालंधर से कृष्ण भावुक भी एक समय खूब चर्चित रहे। उनकी कहानी ‘फाॅसिल’ ने सबका ध्यान आकर्षित किया था।  सिमर सदोष,तरसेम गुजराल, डाॅ अजय शर्मा, गीता डोगरा भी जालंधर से सक्रिय हैं लगातार  कहानी क्षेत्र में। कभी सुरेंद्र मनन भी जालंधर से था और आजकल दिल्ली में बस गया है ‘ उठो लछमीनारायण’ प्रथम कथा संग्रह ही खूब प्रशंसा व चर्चा बटोर ले गया था। तरसेम गुजराल ने ‘खुला आकाश’ कथा संग्रह संपादित कर एक साथ उस समय के चर्चित युवा कथाकारों को सामने लाने में बड़ी भूमिका निभाई। रमेश बतरा ने न केवल खुद कहानियां लिखी बल्कि पंजाब की हमउम्र पीढ़ी के लेखकों को साथ लिया और साहित्य निर्झर के माध्यम से बड़ी भूमिका निभाई। ‘नंगमनंग’ और ‘कुएं की सफाई ‘कहानियां खूब खूब याद आती हैं। रमेश बतरा की पत्नी जया रावत की कहानी ‘भागवंती कहां जाओगी ‘ बहुत प्रिय है। मैं भी पंजाब से कथाकार हूं और मेरी कहानियां ‘नीले घोड़े वाले सवारों के नाम’ और ‘जादूगरनी ‘ को खूब प्रशंसा मिली। सैली बलजीत, धर्मपाल साहिल, जवाहर धीर और अन्य रचनाकार लगातार सक्रिय हैं पंजाब से। डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता को कैसे भूल सकता हूं? सबसे लम्बे समय से कथा लेखन में सक्रिय। ‘धूप में चटकता कांच’ मेरी प्रिय कहानियों में एक है। इंदु बाली की कहानी ‘दो हाथ ‘ खूब चर्चा बटोर गयी ।

हरियाणा के कथाकारों में ज्ञानप्रकाश विवेक, माधव कौशिक, हरभगवान चावला, सुभाष रस्तोगी, चंद्रकांता, कमला चमोला, मुकेश शर्मा, डाॅ रोहिणी, प्रद्युम्न भल्ला,  डाॅ अमृत लाल मदान, अशोक जैन, महावीर प्रसाद जैन आदि सक्रिय हैं। हालांकि डाॅ मदान ज्यादा नाटक व कविता लेखन के लिए जाने जाते हैं। माधव कौशिक की ‘ठीक उसी वक्त ‘ व ‘रोशनी वाली खिड़की ‘ कहानियां बहुत कुछ कह जाती हैं। भगवान दास मोरवाल ने ज्यादा नाम उपन्यास लेखन में कमाया। चंद्रकांता मूल रूप से कश्मीरी हैं और गुरुग्राम में रहती हैं। उनकी रचनाओं में कश्मीर से विस्थापन का दर्द, साम्प्रदायिकता पर चोट दिखती है। उन्होंने विस्थापन के दंश को झेला है। कमला चमोला की ‘बिच्छूबूट्टी’ कहानी शिक्षक समाज की न भूलने वाली व्यथा है। क्या शिक्षक ने बिच्छूबूट्टी ही तैयार की? यह समाज किसने दिया? तारा पांचाल, पृथ्वीराज अरोड़ा, रूप देवगण, डाॅ शमीम शर्मा और शील कौशिक भी कथा क्षेत्र में सक्रिय रहे। इधर कई पत्रिकाओं में सुषमा गुप्ता खूब कहानियां लिखवाई रही हैं और ‘पीठ पर लिखा नाम’ कथा संग्रह भी आया है। नरेश कौशिक भी अच्छी कहानियां लिखवाई रही हैं। ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी ‘मसखरे कभी नहीं रोते ‘ मन में रहती है। ब्रह्म दत्त शर्मा भी हरियाणा की नयी संभावना हैं और उनका कथा संग्रह आया है -पीठासीन अधिकारी जो चर्चित रहा। अच्छी कहानियां लिख रहे हैं ब्रह्म दत्त शर्मा ।

डाॅ प्रेम जनमेजय बेशक व्यंग्य यात्रा और व्यंग्य के क्षेत्र में सक्रिय हैं लेकिन कहानियां भी लिखी हैं। ‘टूटते पहाड की लालसा’ ऐसे ही हर बार याद आती है।

रचनाकार आते रहेंगे और नयी पीढ़ी पर ही कथा साहित्य का भविष्य टिका है। नयी धारा भी कथा में बहती रहेंगीं। शुभकामनाओं सहित।

©  श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 128 ☆ ग़लत सोच : दु:खों का कारण ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य”  के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़लत सोच : दु:खों का कारण। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 128 ☆

☆ ग़लत सोच : दु:खों का कारण

ग़लत सोच के लोगों से अच्छे व शुभ की अपेक्षा-आशा करना हमारे आधे दु:खों का कारण है, यह सार्वभौमिक सत्य है। ख़ुद को ग़लत स्वीकारना सही आदमी के लक्षण हैं, अन्यथा सृष्टि का हर प्राणी स्वयं को सबसे अधिक बुद्धिमान समझता है। उसकी दृष्टि में सब मूर्ख हैं; विद्वत्ता में निकृष्ट हैं; हीन हैं और सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम हैं। ऐसा व्यक्ति अहंनिष्ठ व निपट स्वार्थी होता है। उसकी सोच नकारात्मक होती है और वह अपने परिवार से इतर कुछ नहीं सोचता, क्योंकि उसकी मनोवृत्ति संकुचित व सोच का दायरा छोटा होता है। उसकी दशा सावन के अंधे की भांति होती है, जिसे हर स्थान पर हरा ही हरा दिखाई देता है।

वास्तव में अपनी ग़लती को स्वीकारना दुनिया सबसे कठिन कार्य है तथा अहंवादी लोगों के लिए असंभव, क्योंकि दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है। वह हर अपराध के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है, क्योंकि वह स्वयं को ख़ुदा से कम नहीं समझता। सो! वह ग़लती कर ही कैसे सकता है? ग़लती तो नासमझ लोग करते हैं। परंतु मेरे विचार से तो यह आत्म-विकास की सीढ़ी है और ऐसा व्यक्ति अपने मनचाहे लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। उसके रास्ते की बाधाएं स्वयं अपनी राह बदल लेती हैं और अवरोधक का कार्य नहीं करती, क्योंकि वह बनी-बनाई लीक पर चलने में विश्वास नहीं करता, बल्कि नवीन राहों का निर्माण करता है। अपनी ग़लती स्वीकारने के कारण सब उसके मुरीद बन जाते हैं और उसका अनुसरण करना प्रारंभ कर देते हैं।

ग़लत सोच के लोग किसी का हित कर सकते हैं तथा किसी के बारे में अच्छा सोच सकते हैं; सर्वथा ग़लत है। सो! ऐसे लोगों से शुभ की आशा करना स्वयं को दु:खों के सागर के अथाह जल में डुबोने के समान है, क्योंकि जब उसकी राह ही ठीक नहीं होगी; वे मंज़िल को कैसे प्राप्त कर सकेंगे? हमें मंज़िल तक पहुंचने के लिए सीधे-सपाट रास्ते को अपनाना होगा; कांटों भरी राह पर चलने से हमें बीच राह से लौटना पड़ेगा। उस स्थिति में हम हैरान-परेशान होकर निराशा का दामन थाम लेंगे और अपने भाग्य को कोसने लगेंगे। यह तो राह के कांटों को हटाने लिए पूरे क्षेत्र में रेड कारपेट बिछाने जैसा विकल्प होगा, जो असंभव है। यदि हम ग़लत लोगों की संगति करते हैं, तो उससे शुभ की प्राप्ति कैसे होगी ? वे तो हमें अपने साथ बुरी संगति में धकेल देंगे और हम लाख चाहने पर भी वहां से लौट नहीं पाएंगे। इंसान अपनी संगति से पहचाना जाता है। सो! हमें अच्छे लोगों के साथ रहना चाहिए, क्योंकि बुरे लोगों के साथ रहने से लोग हमसे भी कन्नी काटने लगते हैं तथा हमारी निंदा करने का एक भी अवसर नहीं चूकते। ग़लती छोटी हो या बड़ी; हमें उपहास का पात्र बनाती है। यदि छोटी-छोटी ग़लतियां बड़ी समस्याओं के रूप में हमारे पथ में अवरोधक बन जाएं, तो उनका समाधान कर लेना चाहिए। जैसे एक कांटा चुभने पर मानव को बहुत कष्ट होता है और एक चींटी विशालकाय हाथी को अनियंत्रित कर देती है, उसी प्रकार हमें छोटी-छोटी ग़लतियों की अवहेलना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इंसान छोटे-छोटे पत्थरों से फिसलता है; पर्वतों से नहीं।

‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ अक्सर यह संदेश हमें वाहनों पर लिखित दिखाई पड़ता है, जो हमें सतर्क व सावधान रहने की सीख देता है, क्योंकि हमारी एक छोटी-सी ग़लती प्राण-घातक सिद्ध हो सकती है। सो! हमें संबंधों की अहमियत समझनी चाहिए चाहिए, क्योंकि रिश्ते अनमोल होते हैं तथा प्राणदायिनी शक्ति से भरपूर  होते हैं। वास्तव में रिश्ते कांच की भांति नाज़ुक होते हैं और भुने हुए पापड़ की भांति पल भर में दरक़ जाते हैं। मानव के लिए अपेक्षा व उपेक्षा दोनों स्थितियां अत्यंत घातक हैं, जो संबंधों को लील जाती हैं। यदि आप किसी उम्मीद रखते हैं और वह आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता, तो संबंधों में दरारें पड़ जाती हैं; हृदय में गांठ पड़ जाती है, जिसे रहीम जी का यह दोहा बख़ूबी प्रकट करता है। ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय/ टूटे से फिर ना जुरै, जुरै तो गांठ परि जाए।’ सो! रिश्तों को सावधानी-पूर्वक संजो कर व सहेज कर रखने में सबका हित है। दूसरी ओर किसी के प्रति उपेक्षा भाव उसके अहं को ललकारता है और वह प्राणी प्रतिशोध लेने व उसे नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास करता है। यहीं से प्रारंभ होता है द्वंद्व युद्ध, जो संघर्ष का जन्मदाता है। अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। इसलिए हमें सबको यथायोग्य सम्मान ध्यान देना चाहिए। यदि हम किसी बच्चे को प्यार से आप कह कर बात करते हैं, तो वह भी उसी भाषा में प्रत्युत्तर देगा, अन्यथा वह अपनी प्रतिक्रिया तुरंत ज़ाहिर कर देगा। यह सब प्राणी-जगत् में भी घटित होता है। वैसे तो संपूर्ण विश्व में प्रेम का पसारा है और आप संसार में जो भी किसी को देते हो; वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिए अच्छा बोलो; अच्छा सुनने को मिलेगा। सो! असामान्य परिस्थितियों में ग़लत बातों को देख कर आंख मूंदना हितकर है, क्योंकि मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त न करने से सभी समस्याओं का समाधान स्वतः निकल आता है।

संसार मिथ्या है और माया के कारण हमें सत्य भासता है। जीवन में सफल होने का यही मापदंड है। यदि आप बापू के तीन बंदरों की भांति व्यवहार करते हैं, तो आप स्टेपनी की भांति हर स्थान व हर परिस्थिति में स्वयं को उचित व ठीक पाते हैं और उस वातावरण में स्वयं को ढाल सकते हैं। इसलिए कहा भी गया है कि ‘अपना व्यवहार पानी जैसा रखो, जो हर जगह, हर स्थिति में अपना स्थान बना लेता है। इसी प्रकार मानव भी अपना आपा खोकर घर -परिवार व समाज में सम्मान-पूर्वक अपना जीवन बसर कर सकता है। इसलिए हमें ग़लत लोगों का साथ कभी नहीं देना चाहिए, क्योंकि ग़लत व्यक्ति न तो अपनी ग़लती से स्वीकारता है; न ही अपनी अंतरात्मा में झांकता है और न ही उसके गुण-दोषों का मूल्यांकन करता है। इसलिए उससे सद्-व्यवहार की अपेक्षा मूर्खता है और समस्त दु:खों कारण है। सो! आत्मावलोकन कर अंतर्मन की वृत्तियों पर ध्यान दीजिए तथा अपने दोषों अथवा पंच-विकारों व नकारात्मक भावों पर अंकुश लगाइए तथा समूल नष्ट करने का प्रयास कीजिए। यही जीवन की सार्थकता व अमूल्य संदेश है, अन्यथा ‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाए’ वाली स्थिति हो जाएगी और हम सोचने पर विवश हो जाएंगे… ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ का सिद्धांत सर्वोपरि है, सर्वोत्तम है। संसार में जो अच्छा है, उसे सहेजने का प्रयास कीजिए और जो ग़लत है, उसे कोटि शत्रुओं-सम त्याग दीजिए…इसी में सबका मंगल है और यही सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 95 ☆ प्रायोजित प्रयोजन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “प्रायोजित प्रयोजन…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 95 ☆

☆ प्रायोजित प्रयोजन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

समय बहुत तेजी से बदलता जा रहा है। आजकल सब कुछ प्रायोजित होने लगा है। पहले तो दूरदर्शन के कार्यक्रम, मैच या कोई बड़ा आयोजन ही इसके घेरे में आते थे किंतु आजकल बड़े सितारों के जन्मदिन, विवाह उत्सव या कोई विशेष कार्य भी प्रायोजित की श्रेणी में आ गए हैं । फेसबुक, यूट्यूब, आदि सोशल मीडिया पर तो बूस्ट पोस्ट होती है। मजे की बात अब त्योहार व उससे जुड़े  विवाद भी प्रायोजित की श्रेणी में आ खड़े

हुए हैं। एक साथ सारे देश में एक ही मुद्दे पर एक ही समय पर एक से विवाद, एक ही शैली में आ धमकते हैं।इसकी गूँज चारों ओर मानवता की पीड़ा के रूप में दृष्टिगोचर होने लगती है।

इसकी जिम्मेदारी किसकी है, कौन इस सूत्र को जोड़- जोड़ कर घसीट रहा है व कौन बेदर्दी से तोड़े जा रहा है। इसका चिंतन कौन करेगा? दोषारोपण करते हुए मूक दर्शक बनकर रहना भी आसान नहीं होता है। लेकिन जिम्मेदार लोग एक दूसरे पर कीचड़ उछालते हुए एकतरफा निर्णय सुनाते जा रहे हैं। वैसे ऐसे विवादों से एक लाभ यह होता है कि देश के मूल मुद्दों से आम जनता का ध्यान भटक जाता है। जिससे राजनीतिक रोटियों को सेंकना और फिर उन्हें परोसना आसान होने लगता है।

कोई भी कार्य दो आधारों पर बाँटे जा सकते हैं – चुनाव से पूर्व के कार्य व चुनाव के बाद के कार्य।

चुनाव के  कुछ दिनों पूर्व सबसे अधिक चिंता हर दल को केवल गरीबों की होती है। ऐसा लगता है कि पाँच वर्ष पूरे होने के दो महीने पहले ही यह वर्ग  सामने आता है, इनका दुःख दर्द सभी को सालने लगता है । 

तरह – तरह के प्रलोभनों द्वारा इन्हें आकर्षित कर अपने दलों का महिमामंडन करते हुए लोग जाग्रत हो जाते हैं।

अरे भई इतने दिनों तक क्या ये इंसान नहीं थे,  क्या इनकी मूलभूत आवश्यकताओं पर तब आपका ध्यान नहीं था, तब क्या ये पंछियो की तरह आकाश में विचरण कर घोसले बना कर रहते थे या धूल के गुबार बन बादलों में छिपे थे।

सच्चाई तो यही है कि कोई भी दल इनकी स्थिति में  सुधार चाहता ही नहीं तभी तो  इस वर्ग के लोगों में भारी इजाफा हो रहा है, इनकी मदद के लिए सभी आगे आते हैं किंतु कैसे गरीबी मिटे इस पर चिंतन बहुत कम लोग करते हैं। 

केवल  आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहने से  ये वर्ग दिनों दिन अमरबेल की तरह बढ़ता जायेगा।  अभी भी समय है बुद्धिजीवी वर्ग को चिंतन- मनन द्वारा कोई नया रास्ता खोजना चाहिए जिससे सबके लिए समान अवसर हो अपनी तरक्की के लिए।

अब चुनावों का दौर पूर्ण हो चुका है सो आगे की तैयारी हेतु  विकास पर विराम  लगाते हुए धार्मिक उन्मादों की ओर सारे राजनीतिक दलों की निगाहें टिकी हुई हैं। दुःख तो ये सब देख कर होता है कि ऐसे कार्यक्रमों को भी प्रायोजित  किया जाता है।  और हम सब मूक दर्शक बनें हुए केवल समाचारों की परिचर्चाओं का अघोषित हिस्सा बनें हुए हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆☆ भारत के राजनीतिक परिदृश्य में डाक्टर भीम राव आंबेडकर ☆☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी का विचारणीय आलेख भारत के राजनीतिक परिदृश्य में डाक्टर भीम राव आंबेडकर.)

(14 एप्रिल 1891 – 6 डिसेंबर 1956)

☆ आलेख – भारत के राजनीतिक परिदृश्य में डाक्टर भीम राव आंबेडकर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

भारत के राजनीतिक पटल में डाक्टर आंबेडकर का आगमन जाति प्रथा के खिलाफ संघर्ष से आरंभ हुआ और गोलमेज कांफ्रेंस से लेकर पूना पेक्ट, महात्मा गांधी से विरोध और संविधान निर्माण तक व्यापक है। सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ अहिंसक आंदोलनों के समय वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम से दूर रहे। कभी वे गांधीजी के प्रसंशक बने और कांग्रेस के निकट आए तो कभी जिन्ना से भी मुलाकात करी। ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व के धनी डाक्टर आंबेडकर के विचार आजादी के आंदोलन को लेकर क्या थे? यह सदैव चर्चा का विषय रहा है।

स्वराज को लेकर उनके विचारों का पता हमें 08 अगस्त 1930 को नागपुर दलित जाति कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में दिए गए भाषण से लगता है। डाक्टर आंबेडकर ने माना कि कांग्रेस के सविनय अवज्ञा आंदोलन से जन चेतना पैदा हुई है लेकिन वे इस आंदोलन के पक्ष में नहीं थे। उन्हें लगता था कि गांधीजी और कांग्रेस के प्रयासों से राजनैतिक सत्ता का हस्तांतरण तो हो जाएगा पर सामाजिक परिवर्तन नहीं आ सकेंगे। उनके अनुसार कांग्रेस ने छुआछूत उन्मूलन को अपना लक्ष्य नहीं बनाया और गांधीजी ने भी छूआछूत मिटाने के लिए कोई सत्याग्रह या उपवास नहीं किया, इसलिए वे चाहते थे कि दलित वर्ग सरकार, कांग्रेस और गांधीजी से स्वतंत्र रहे। काँग्रेस और देश का बहुमत प्रथम गोलमेज कांफ्रेस में भाग लेने के विरुद्ध था। गांधीजी समेत कांग्रेसी नमक सत्याग्रह के चलते जेलों में बंद थे। ऐसे में दलितों के हितों की पैरवी करने, डाक्टर आंबेडकर ने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में सम्मिलित होने ब्रिटिश सरकार के आमंत्रण को स्वीकार किया और इस कारण देश भर में उनकी आलोचना हुई। उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में ब्रिटिश राज में दलितों के हक और उनकी सामाजिक स्थिति में किसी परिवर्तन के न होने पर दुख व्यक्त किया और यहाँ तक कहा कि भारत में अछूत ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हैं और ऐसी सरकार के पक्ष में हैं जो जनता के द्वारा बनाई गई हो। उन्होंने भारत को डोमिनियन राज्य का दर्जा दिए जाने की भी मांग सम्मेलन में रखी। गांधीजी ने भी प्रथम गोलमेज सम्मेलन में डाक्टर आंबेडकर के द्वारा दिए गए भाषण के आधार पर उन्हें महान देश भक्त कहा।

7 सितंबर 1931 से लंदन में प्रारंभ हुई द्वितीय गोलमेज सम्मेलन, में कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में महात्मा गांधी शामिल हुए और उन्होंने अपने शुरुआती भाषण में ही यह स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस सभी भारतीयों यानि हिन्दूओं, अल्पसंख्यक मुसलमानों, सिखों व पारसियों के साथ साथ अछूतों का भी प्रतिनिधित्व करती है। अंग्रेजों ने इस सम्मेलन में राजनीतिक चाल चलते हुए अल्पसंख्यकों और अछूतों को एकजुट कर एक समझौता प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसके अनुसार अल्पसंख्यकों की भांति अछूतों को भी प्रथक निर्वाचन का अधिकार दिया जाना प्रस्तावित था। गांधीजी, अंग्रेजों की इस कुटिल चाल को समझ गए और उन्होंने इसका विरोध किया। जब डाक्टर आंबेडकर ने गांधीजी और कांग्रेस की कटु आलोचना करते हुए अखबारों में लेख लिखे तो इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें भी कांग्रेस समर्थकों की ओर से कठोर निंदा का सामना करना पड़ा। उन्हें सवर्ण हिंदुओं द्वारा घृणित व्यक्ति के रूप में देखा जाने लगा । उन्हें ब्रिटिश राज का पिच्छलग्गू, प्रतिक्रियावादी, देशद्रोही और हिन्दू धर्म विनाशक माना गया।

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन असफलता के साथ समाप्त हुआ लेकिन अंग्रेजों की चालबाजी खत्म नहीं हुई। 20 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने कम्यूनल अवार्ड की घोषणा कर दी और इसके अनुसार दलितों को अल्पसंख्यकों की ही तरह प्रथक निर्वाचन का अधिकार मिला। उन्हें दोहरे मतदान का अधिकार दिया गया और वे अपने प्रतिनिधियों को तो चुन ही सकते थे साथ ही अन्य प्रतिनिधियों के लिए भी मतदान कर सकते थे। गांधीजी ने ब्रिटिश चाल को ध्वस्त करने के लिए आमरण अनशन की घोषणा कर दी और यरवदा जेल में 20 सितंबर से उपवास पर बैठ गए। डाक्टर आंबेडकर और कांग्रेस के नेताओं के बीच बातचीत का दौर शुरू हुआ। अंतत: डाक्टर आंबेडकर ने भी अपनी जिद्द छोड़ी और वे राष्ट्रहित में महात्मा गांधी का जीवन बचाने सहमत हुए। इस प्रकार 26 सितंबर को पूना पेक्ट पर हस्ताक्षर होने व ब्रिटिश राज की मंजूरी मिलने के बाद गांधीजी का अनशन समाप्त हुआ। डाक्टर आंबेडकर के लिए यह दौर बड़े धर्म संकट का था। एक ओर उन्हें दलितों के हितों की रक्षा करने की चिंता थी तो दूसरी ओर भारत की स्वतंत्रता के लिए महात्मा गांधी के प्राण बचाने का दबाव भी उन पर था। उन्होंने जन दवाब और व्यापक राष्ट्रहित के सामने झुकने का निर्णय लिया और पूना पेक्ट पर अपनी सहमति दी। पूना पेक्ट पर निर्मित सहमति और देश हित महात्मा गांधी के प्राणों की रक्षा का सारा श्रेय कांग्रेस के सम्मानित नेता मदन मोहन मालवीय ने डाक्टर आंबेडकर को दिया। इस पेक्ट के फलस्वरूप कांग्रेस ने डाक्टर आंबेडकर को दलित नेता के रूप में मान्य किया। डाक्टर आंबेडकर के समर्थक विद्वान, दलितों के विषय को लेकर गांधीजी की कठोर आलोचना करते हुए भी यह मानते हैं कि पूना पेक्ट के जरिए गांधीजी ने न केवल कांग्रेस को बचाया वरन हिन्दू धर्म और समाज को भी सदैव के लिए विघटित होने से बचा लिया। पूना पेक्ट के कारण गांधीजी को भी सनातनी हिंदुओं के तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा और यह विरोध प्रदर्शन तो उनकी हरिजन यात्रा के समय और भी उग्र हो उठते थे। गांधीजी की अस्पृश्यता निवारण संबंधी सार्वजनिक घोषणाओं की प्रशंसा डाक्टर आंबेडकर ने तृतीय गोलमेज सम्मेलन में नवंबर 1932 में जाते वक्त भी की थी।  

1920-30 के दशक और गोलमेज सम्मेलनों के दौरान डाक्टर आंबेडकर प्रखर राष्ट्रवादी दिखते हैं। उन्होने उस वक्त कभी भी स्वतंत्रता आंदोलन का विरोध नहीं किया। वे गांधीजी और कांग्रेस की आलोचना में भी पर्याप्त सावधानी रखते थे और राष्ट्रीय एकता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराते रहते थे। लेकिन बाद के वर्षों में डाक्टर आंबेडकर छूआछूत मिटाने, दलितों के मंदिर प्रवेश, मनुस्मृति जैसे सामाजिक भेदभाव पैदा करने वाले ग्रंथों को जलाने जैसे आंदोलन में सक्रिय रहे और इस दौरान उनकी महात्मा गांधीं से अनेक बार भेंट तो हुई पर वे मंदिर प्रवेश और जाति व्यवस्था को लेकर गांधीजी के विचारों का प्रबल विरोध करते रहे। गांधीजी चाहते थे कि डाक्टर आंबेडकर बंबई विधान सभा व केन्द्रीय असेंबली में कांग्रेस द्वारा प्रस्तुत दलितों के मंदिर प्रवेश की अनुमति देने संबंधी प्रस्ताव का समर्थन करें। लेकिन डाक्टर आंबेडकर इसके लिए तैयार नहीं थे। वे चाहते थे कि पहले जाति व्यवस्था खत्म हो, अन्तर्जातीय विवाह और भोज को मंजूरी मिले, प्रस्तावित बिल में छुआछूत की निंदा हो उसके बाद ही मंदिर प्रवेश की बात की जाए। डाक्टर आंबेडकर की दृष्टि में महात्मा गांधी अस्पृश्यता निवारण को लेकर धीमी गति से चल रहे थे तो दूसरी ओर गांधीजी का मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति था और इसके लिए वे बहुसंख्यक हिंदुओं, दलितों और अल्पसंख्यकों के बीच संतुलन बनाए रखने के पक्षधर थे। 1933 के बाद तो वे गांधीजी से यह कहने में भी नहीं चूके कि अस्पृष्यों के पास कोई होमलेंड नहीं है। उन्होंने 1939 अपने इस मत को बंबई की विधानसभा में भी दोहराया कि ‘जब भी देश के हितों और अस्पृष्यों के हितों के बीच कोई टकराव होगा, तो मेरी नजर में अस्पृष्यों के हित देश के हितों से निश्चय ही ऊपर होंगे।‘ डाक्टर आंबेडकर का एक ओर कांग्रेस व गांधीजी से मोह भंग हो रहा था तो दूसरी ओर वे अंग्रेजों के काफी निकट आ गए थे। इन सबके बावजूद गांधीजी के मन में डाक्टर आंबेडकर के प्रति कोई कटुता नहीं थी और वे अक्सर उनके त्याग और बलिदान की प्रसंशा करते थे। वस्तुत: अस्पृश्यता निवारण को लेकर डाक्टर आंबेडकर का रुख लचीला नहीं था और इस कारण उनकी राष्ट्रीय राजनीति में दखल रखने वाले नेताओं चाहे वह आर्य समाजी हों, हिन्दू महासभाई हों या मुस्लिम लीगी ज्यादा पटी नहीं। वे अपने सिद्धांतों को लेकर विभिन्न विचारधाराओं के लोगों से मिलते अवश्य पर समझौता होने के पहले ही मनमुटाव हो जाता। 1940 में जब जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग उठाई तो डाक्टर आंबेडकर ने उनके इस विचार का समर्थन किया, जबकि गांधीजी और कांग्रेस भारत विभाजन के सख्त विरोध में थे। डाक्टर आंबेडकर ने तो बाद में यह अव्यवहारिक सुझाव भी दिया कि भारत विभाजन के बाद सारे मुसलमान पाकिस्तान चले जाएँ और वहाँ से हिन्दू भारत आ जाएँ। अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ और कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को हिरासत में लेकर दमन चक्र चलाया गया। इस दमनात्मक कारवाई के विरोध में, आगाखान पेलेस पूना में नजरबंद गांधीजी ने, 21 दिन का उपवास प्रारंभ कर दिया। गांधीजी से सहानुभूति दिखाते हुए अनेक नेताओं ने वाइसराय काउंसिल से त्यागपत्र दे दिया पर डाक्टर आंबेडकर ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि ऐसा करने से कोई लाभ नहीं होगा। वे इस राजनीतिक गतिरोध के लिए सरकार को दोषी ठहराने के पक्ष में भी नहीं थे। डाक्टर आंबेडकर के ऐसे व्यवहार के चलते कांग्रेसी नेताओं के साथ साथ महात्मा गांधी से भी उनकी दूरियाँ बढ़ती गई और गांधीजी ने उन्हें तवज्जो देना कम कर दिया। गांधीजी ने कुछ अन्य दलित नेताओं को डाक्टर आंबेडकर के समकक्ष खड़ा कर दिया उनमे जगजीवन राम का स्थान प्रमुख है।

1946 में जब धारा सभा के चुनाव हुए तो डाक्टर आंबेडकर के दल शैडूल्यड कास्ट फेडरेशन ने चुनाव में हिस्सा लिया। आम सभाओं में डाक्टर आंबेडकर ने कांग्रेस तथा गांधीजी की कटु आलोचना यह कहते हुए की कि वे अछूतों के हितों की सुरक्षा के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं और मुस्लिम मांगों की ओर बड़े उदार हैं। गांधीजी की अति आलोचना के परिणामस्वरूप चुनाव में डाक्टर आंबेडकर और उनके दल की घोर पराजय हुई। जबकि 1936 में बंबई विधानसभा के चुनावों में 17 आरक्षित सीटों में से 15 दलित उम्मीदवार डाक्टर आंबेडकर के समर्थन से चुनाव जीते थे। डाक्टर आंबेडकर का राजनीतिक सफर इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी से शुरू हुआ, फिर उन्होंने शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का गठन 1942 में किया। स्वतंत्र भारत में उन्होंने अपने दल को नया नाम दिया, रिपब्लिक पार्टी आफ इंडिया। इसके बावजूद डाक्टर आंबेडकर अनुसूचित जातियों के मध्य अपनी पैठ बना पाने में खास सफल नहीं हुए। उनके द्वारा स्थापित दल अपना सांगठनिक आधार बनाने में भी विफल रहे। वे दलितों के उत्थान के लिए अपना योग्य उत्तराधिकारी भी नहीं बना पाए। कुल मिलाकर कांग्रेस और गांधीजी का अति विरोध करने के कारण वे नाकामयाबी के गहरे दलदल में लगभग फंस गए थे।

भारत की आजादी के बाद की कहानी में डाक्टर आंबेडकर एक नई भूमिका में आए। वे अपने ज्ञान और विलक्षण प्रतिभा के कारण एक बार पुन: प्रासंगिक बने। गांधीजी की सलाह पर कांग्रेस, जिसके वे आजीवन विरोधी रहे थे, ने उन्हें संविधान सभा में महती जिम्मेदारी सौंपी। पहले बंगाल से और फिर महाराष्ट्र से केन्द्रीय असेंबली में चुनाव जिताकर लाए गए और संविधान सभा के सदस्य बने। संविधान की ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष बनाए गए, भारत सरकार में कानून मंत्री बने और हिन्दू कोड बिल के शिल्पी। लेकिन एक बार फिर वे कांग्रेस से दूर हो गए और उन्होंने मंत्रीमण्डल से त्याग पत्र दे दिया। अपने आखरी दिनों में वे राज्य सभा के सदस्य के रूप में हिन्दू कोड बिल को शांत भाव से पास होता देखते रहे।

(इस आलेख में उल्लेखित विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। )

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पनवाड़ी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “पनवाड़ी” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ पनवाड़ी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन में ये शब्द खूब सुना था।  अब पान की दुकान के नाम से जाना जाता हैं। इनके भी अपने बड़े ठाठ होते थे। कुछ पनवाड़ी अभी भी आपने ठाट को बनाए हुए हैं।

घर से नाश्ता, खाना या चाय पीकर लोग पास की दुकान/ गुमटी/ टपरिया जो अधिकतर नुक्कड़ में हुआ करती थी, पहुंच जाते थे, अपनी पसंद का पान खाने के लिए। चलते हुए कह देना “लिख लेना” या आंखों ही आंखों में उधारी खूब चलती थी।

इनका कारोबार कभी भी मौसम से प्रभावित नहीं होता था। उस जमाने में गूगल भी नहीं था, रास्ता बताना या उस क्षेत्र के निवासियों की पूरी जानकारी प्रदान करने की सुविधा देर रात्रि तक निशुल्क प्रदान की जाती थी।

यदि आपको किसी से कोई काम करवाना हो या खुश करना हो, तो उसकी पसंदीदा पान की दुकान से उसका बीड़ा पार्सल पैक करवा कर ले जावे, फिर देखिए बड़े बड़े काम भी आसानी से हो जाते हैं।

पनवाड़ियों ने भी अपने कारोबार में वृद्धि करने के लिए श्वेत दंतिका का विक्रय भी अपने धंधे से जोड़ लिया था। मुफ्त माचिस और विद्युत से सिगरेट सुलगाने की सुविधा भी मुहैया करवाई जाती हैं।

ट्रिन ट्रिन, घर की घंटी बजी है। शायद खाद्य दूत (स्विगी) पान की डिलीवरी के लिए आया होगा। आगे की चर्चा पान खाने के बाद करेंगे। 👄

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा – अंतिम भाग☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा – अंतिम भाग ??

उपसंहार-

त्योहार हो, मेला या तीर्थयात्रा, वैदिक संस्कृति केवल उपदेश नहीं करती अपितु सार्थक क्रियान्वयन को महत्व देती है। यहाँ आत्मतत्व सर्वोच्च है। हर आत्मा को सम्यक भाव से देखना ही एकात्मता है। एकात्मता के बिना तो तीर्थ के लिए आनेवाले हरेक को तीर्थयात्रा का फल भी प्रदान नहीं होता। स्पष्ट निर्देश है-

अकोपमलोऽमलमति: सत्यवादी दृढ़व्रत:।

आत्मोपमश्च भूतेषु स तीर्थफलमश्रुते।।

जिसमें क्रोध नहीं, जिसकी बुद्धि निर्मल है, जो सत्यवादी है, व्रतपालन में दृढ़ है, सब प्राणियों में अपनी आत्मा के समान अनुभव करता है, वह तीर्थ के फल को प्राप्त करता है।

 ‘आत्मोपमश्च’, सब प्राणियों में अपनी आत्मा के समान अनुभव करना, वैदिक दर्शन का प्राणतत्व है। सबमें अपनी आत्मा अर्थात एकात्म भाव।

इतना ही नहीं, अनेकानेक तीर्थों की यात्रा पर  आंतरिक शुचिता को वरीयता दी गई है।

तीर्थानामपि तत्तीर्थं विशुद्धिर्मनस: परा।

तीर्थों में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है अंत:करण की पूर्ण शुद्धता।

 त्यागकैनके अमृत्वमानशु:।

अर्थात त्याग द्वारा अमृत की प्राप्ति होती है। तीर्थ क्षेत्र पर जाकर उपभोग की एक वस्तु का त्याग करने की परंपरा है। द्वैत त्यागकर अद्वैत प्राप्त करने को वैदिकता, तीर्थ कहती है।

अद्वैत या एकात्मता मन को संकीर्णता से मुक्त कर अजातशत्रु होने का स्वर्णिम पथ है। इमानुएल क्लीवर का उद्धरण है, ‘ व्हेन देयर इज़.नो एनेमी विदिन, द एनेमीज़ आउटसाइड कैन नॉट हर्ट यू’  … एकात्म भाव शत्रुता की सारी आशंकाएँ नष्ट कर देता है।

एकात्म होने के लिए आत्मदर्शन होना अनिवार्य है। आदिशंकराचार्य से जब गुरु ने परिचय पूछा तो उन्होंने छह श्लोक कहे थे। ये श्लोक ‘निर्वाण षटकम्’ के नाम से जाने जाते हैं। संदर्भ के लिए केवल प्रथम एवं अंतिम श्वोक देखते हैं-

मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं

न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |

न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:

चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||1||

मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो

विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |

सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:

चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||6||

मैं समस्त संदेहों से परे, बिना किसी आकार वाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ, मैं सदैव समता में स्थित हूँ, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

इसी आनंद को परमानंद तक ले जाना वैदिक संस्कृति का लक्ष्य है। आत्मा आनंद है, परमात्मा सच्चिदानंद है।

सत्, चित्, आनंद तक ले जानेवाले वैदिक में मूल शब्द ‘वेद’ है। वेद ‘विद्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है ज्ञान। वैदिक संस्कृति  ज्ञान का दर्शन है और ज्ञान निराकार, सर्वव्यापी एवं आनंदरूप होता है।

वेद हों, उपनिषद, वेदांग, या पुराण, स्मृतियाँ हों या ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक हों या प्रस्थानत्रयी, वैदिक संस्कृति में अंतर्भूत इस शाश्वत ज्ञान का अक्षर-अक्षर दर्शन होता है। वैदिकता ‘एकोऽहम् द्वितीय नास्ति’ का मनसा, वाचा, कर्मणा संदेश देती है। यह संदेश आत्मा और परमात्मा दोनों पर लागू होता है।

गायत्री मंत्र, वैदिक संस्कृति का अंत:करण है। यह महामंत्र आत्मा में परमात्मा को धारण करने की प्रार्थना है। परमात्मा सर्वत्र है। परमात्मा हर आत्मा में है। अत: सभी जन एकात्म हुए।

ॐ भूर्भूव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

समाप्त 

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 133 ☆ राम, राम-सा..! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 133 ☆ राम, राम-सा..! ?

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे,

सहस्त्रनामतत्तुल्यं राम नाम वरानने।

राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं, लोकहितकारी हैं। राम एकमेवाद्वितीय हैं। राम राम-सा ही हैं, अन्य कोई उपमा उन्हें परिभाषित नहीं कर सकती।

विशेष बात यह कि अनन्य होकर भी राम सहज हैं, अतुल्य होकर भी राम सरल हैं, अद्वितीय होकर भी राम हरेक को उपलब्ध हैं। डाकू रत्नाकर ने मरा-मरा जपना शुरू किया और राम-राम तक आ पहुँचा। व्यक्ति जब सत्य भाव और करुण स्वर से मरा-मरा जपने लगे तो उसके भीतर करुणासागर राम आलोकित होने लगते हैं।

राम का शाब्दिक अर्थ  हृदय में रमण करने वाला है। रत्नाकर का अपने हृदय के राम से साक्षात्कार हुआ और जगत के पटल पर महर्षि वाल्मीकि का अवतरण हुआ। राम का विस्तार शब्दातीत है। यह विस्तार लोक के कण-कण तक पहुँचता है और राम अलौकिक हो उठते हैं। कहा गया है, ‘रमते कणे कणे, इति राम:’.. जो कण-कण में रमता है, वह राम है।

राम ने मनुष्य की देह धारण की। मनुष्य जीवन के सारे किंतु, परंतु, यद्यपि, तथापि, अरे, पर,  अथवा उन पर भी लागू थे।  फिर भी वे पुराण पुरुष सिद्ध हुए। 

वस्तुतः इस सिद्ध यात्रा को समझने के लिए उस सर्वसमावेशकता को समझना होगा जो राम के व्यक्तित्व में थी। राम अपने पिता के जेष्ठ पुत्र थे।  सिंहासन के लिए अपने भाइयों और पिता की हत्या की घटनाओं से संसार का इतिहास रक्तरंजित है। इस इतिहास में राम ऐसे अमृतपुत्र के रूप में उभरते हैं जो पिता द्वारा दिये वचन का पालन करने के लिए राज्याभिषेक से ठीक पहले राजपाट छोड़कर चौदह वर्ष के लिए वनवास स्वीकार कर लेता है। यह अनन्य है, अतुल्य है, यही राम हैं।

भाई के रूप में भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के लिए राघव अद्वितीय सिद्ध हुए। उनके भ्रातृप्रेम का अनूठा प्रसंग हनुमन्नाष्टक में वर्णित है। मेघनाद की शक्ति से मूर्च्छित हुए लक्ष्मण की चेतना लौटने पर हनुमान जी ने पूछा, ‘हे  लक्ष्मण, शक्ति के प्रहार से बहुत वेदना हुई होगी..!’  लक्ष्मण बोले, “नहीं महावीर,  मुझे तो केवल घाव हुआ,  वेदना तो भाई राम को हुई होगी..!’

यह वह समय था जब समाज में बहु पत्नी का चलन था। विशेषकर राज परिवारों में तो राजाओं की अनेक पत्नियाँ होना सामान्य बात थी। ऐसे समय में अवध का राजकुमार, भावी सम्राट एक पत्नीव्रत का आजीवन पालन करे, यह विलक्ष्ण है।

शूर्पनखा का प्रकरण हो या पार्वती जी द्वारा सीता मैया का वेश धारण कर उनकी परीक्षा लेने का प्रसंग, श्रीराम की महनीय शुद्धता 24 टंच सोने से भी आगे रही। सीता जी के रूप में पार्वती जी को देखते ही श्रीराम ने हाथ जोड़े और पूछा, “माता आप अकेली वन में विचरण क्यों कर रही हैं और भोलेनाथ कहाँ हैं? ”

इसी तरह हनुमान जी के साथ स्वामी भाव न रखते हुए भ्रातृ भाव रखना, राम के चरित्र को उत्तुंग करता है- ‘तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।’

समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना राम के व्यक्तित्व से सीखा जा सकता है। उनकी सेना में वानर, रीछ, सभी सम्मिलित हैं। गिद्धराज जटायु हों, वनवासी माता शबरी हों, नाविक केवट हो, निषादराज गुह अथवा अपने शरीर से रेत झाड़कर सेतु बनाने में सहायता करनेवाली गिलहरी,  सबको सम्यक दृष्टि से देखने वाला यह रामत्व केवल राम के पास ही हो सकता था। संदेश स्पष्ट है, जो तुम्हारे भीतर बसता है, वही सामने वाले के भीतर भी रमता है।…रमते कणे कणे…!  कण कण में राम को राम ने देखा, राम ने जिया।

राजस्थान में अभिवादन के लिए ‘राम राम-सा’ कहा जाता है। लोक के इस संबोधन में एक संदेश छिपा है। राम-सा केवल राम ही हो सकते हैं। सात्विकता से सुवासित जब कोई  ऐसा सर्वगुणसम्पन्न हो कि उसकी तुलना किसी से न की जा सके, अपने जैसा एकमेव आप हो तो राम से श्रीराम होने की यात्रा पूरी हो जाती है। यही राम नाम का महत्व है, राम नाम की गाथा है और रामनाम का अविराम भी है।

राम राम रघुनंदन राम राम,

राम-राम भरताग्रज राम राम।

राम-राम रणकर्कश राम राम,

राम राम शरणम् भव राम राम।।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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