हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆”शेरू” ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक आलेख – “शेरू.)

☆ आलेख ☆ “शेरू☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज हमारे एक समूह में शेर पर लंबी चर्चा हुई, तो हमारा शेरू (पालतू कुत्ता) भी कहने लगा कि हम पर भी कभी चर्चा कर लिया करो, हम कोई धोबी के कुत्ते तो है नहीं, जो कि “ना घर के ना घाट के” कहलाये। हमे उसकी बात में दम लगा। शेरू फिर कहने लगा वैसे तो हर कुत्ता अपनी गली का शेर होता है, लेकिन चूंकि वो सोसाइटी के फ्लैट में रहता है इसलिए उसे अपने फ्लोर का शेर कह सकते हैं।

शेरू आजकल बहुत प्रसन्नचित्त रहता है, जबसे चुनाव आयोग ने मतदान की तिथियों की घोषणा की वो खुशी के मारे फूला नहीं समा रहा है।

सूरज के ढलते ही वो टीवी के सामने अपना आसन लगा कर बैठ जाता हैं। जब तक टीवी चालू कर “राजनीतिक बहस” का चैनल नहीं लगता उसको चैन नहीं आती। जैसे जैसे बहस में तेज़ी आती है, वो भी अपनी वाणी से गुर्रा कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देता है। कल हम टीवी चला कर वाट्स एप पर बिखरे हुए ज्ञान को समेटने लगे तो शेरू ने अपने पंजे से हमारा मोबाईल बिस्तर पर गिरा दिया। उसकी सोच भी सही है, जब इतनी बढ़िया बेवकूफी की बहस से मनोरंजन हो रहा है, तो उससे वंचित क्यों रहना चाहिए।

श्रीमती जी भी खुश हैं, टीवी देखते हुए शेरू को खाने में घर का बना हुआ कुछ भी परोस दो, वो बिना नखरे के खा लेता है। वरना शेरू को भी जब तक ऑनलाइन डॉग फूड ना मंगवा कर दो, वो भूखा रह लेता पर घर का बना भोजन नहीं खाता हैं। चलो टीवी की बहस सुनते हुए उसकी आदतों में सुधार आ रहा हैं। वैसे हम भी जब टीवी में मग्न होते हैं तो नापसंद वस्तुएं भी हज़म कर जाते हैं। शायद शेरू भी जाने अनजाने में हमसे ये सब सीख गया हो।                           कोविड की तीसरी लहर से पूर्व शेरू शाम को हमारे साथ बगीचे में सैर पर जाता था। वहाँ उसके समाज के लोग भी बड़ी संख्या में आते थे। वहाँ उनसे वो भी लंबी वार्तालाप कर लेता था।    

अब माहौल को देखते हुए जब सांयकालीन भ्रमण बंद है, तो शेरू को टीवी में बहस करते हुए लोग अपने समाज के ही लगते है। बिना किसी सार्थक विषय के एक दूसरे के कपड़े फाड़ने पर उतारू चंद लोग सड़क पर बिना किसी कारण के भौंकते हुए कुत्तों जैसा व्यवहार ही तो करते हैं।   

अब लेखनी को विराम देता हूँ, शेरू टीवी के सामने आसन लगा कर बैठ गया है। समय का बड़ा पाबंद है, हमारा शेरू।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 29 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 29 ??

एकात्म यात्रा- तीर्थयात्रा :

उत्सव, मनुष्य की रगों में रक्त बनकर दौड़ते हैं। प्रकृति ने भीतर सब कुछ दिया है पर उसे चलायमान करना पड़ता है। कुछ वैसे ही जैसे स्थितिज ऊर्जा को गतिज ऊर्जा में बदलना पड़ता है। यह तो हुआ विज्ञान का पक्ष पर अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो जैसे प्रभु श्रीराम ने निष्प्राण अहिल्या में प्राण फूँके, इसी भांति अंतर्भूत उत्सवधर्मिता को पर्व जागृत करते हैं।

पर्व का केंद्र घर होता है। नाते-रिश्तेदार, पास-पड़ोस, मोहल्ला मिलकर पर्व का आनंद बढ़ा देते हैं। पर्व का विस्तार है मेला। मेल-मिलाप के लिए अनगिनत घर परिवार, बृहत्तर समूह संग आता है। एक से पाँच-छह दिन चलने वाला पर्व, मेला में बदलने पर एक सप्ताह से एकाध महीने की अवधि तक चलता है। पर्व से मेला के विस्तार का अगला संस्करण है तीर्थयात्रा।

पर्व घर पर मनाते जाते हैं। मेला घर से कुछ दूरी पर किसी खुले स्थान पर / कस्बा /शहर/कुछ घंटे की दूरी पर तहसील आदि में आयोजित होते हैं। अलबत्ता तीर्थ के लिए न्यूनाधिक पर अनिवार्य रूप से यात्रा करनी पड़ती है। इस यात्रा के कारण में भारतीय समाज मानता है कि अपने कष्टों को हरने की हरि से गुहार लगाने के लिए देह को कुछ कष्ट तो वहन करना ही चाहिए।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 129 ☆ मिलें होली, खेलें होली ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 129 ☆ मिलें होली, खेलें होली ?

क्यों बाहर रंग तलाशता मनुष्य/

अपने भीतर देखो रंगों का इंद्रधनुष..,

जिसकी अपने भीतर का इंद्रधनुष देखने की दृष्टि विकसित हो ली, बाहर की दुनिया में उसके लिए नित मनती है होली। रासरचैया उन आँखों में  हर क्षण रचाते हैं रास, उन आँखों का स्थायी भाव बन जाता है फाग।

फाग, गले लगने और लगाने का रास्ता दिखाता है पर उस पर चल नहीं पाते। जानते हो क्यों? अहंकार की बढ़ी हुई तोंद अपनत्व को गले नहीं लगने देती। वस्तुत:  दर्प, मद, राग, मत्सर, कटुता का दहन कर उसकी धूलि में नेह का नवांकुरण है होली।

नेह की सरिता जब धाराप्रवाह बहती है तो धारा न रहकर राधा हो जाती है। शाश्वत प्रेम की शाश्वत प्रतीक हैं राधारानी। उनकी आँखों में, हृदय में, रोम-रोम में प्रेम है, श्वास-श्वास में राधारमण हैं।

सुनते हैं कि एक बार राधारमण गंभीर रूप से बीमार पड़े। सारे वैद्य हार गए। तब भगवान ने स्वयं अपना उपचार बताते हुए कहा कि उनकी कोई परमभक्त गोपी अपने चरणों को धो कर यदि वह जल उन्हें पिला दे तो वह ठीक हो सकते हैं। परमभक्त सिद्ध न हो पाने भय, श्रीकृष्ण को चरणामृत देने का संकोच जैसे अनेक कारणों से कोई गोपी सामने नहीं आई। राधारानी को ज्यों ही यह बात पता लगी, बिना एक क्षण विचार किए उन्होंने अपने चरण धो कर प्रयुक्त जल भगवान के प्राशन के लिए भेज दिया।

वस्तुत: प्रेम का अंकुरण भीतर से होना चाहिए। शब्दों को  वर्णों का समुच्चय समझने वाले असंख्य आए, आए सो असंख्य गए। तथापि जिन्होंने शब्दों का मोल, अनमोल समझा, शब्दों को बाँचा भर नहीं बल्कि भरपूर  जिया, प्रेम उन्हीं के भीतर पुष्पित, पल्लवित, गुंफित हुआ। शब्दों का अपना मायाजाल होता है किंतु इस माया में रमनेवाला मालामाल होता है। इस जाल से सच्ची माया करोगे, शब्दों के अर्थ को जियोगे तो सीस देने का भाव उत्पन्न होगा। जिसमें सीस देने का भाव उत्पन्न हुआ, ब्रह्मरस प्रेम का उसे ही आसीस मिला।

प्रेम ना बाड़ी ऊपजै / प्रेम न हाट बिकाय/

राजा, परजा जेहि रुचै / सीस देइ ले जाय…

बंजर देकर उपजाऊ पाने का सबसे बड़ा पर्व है धूलिवंदन। शीश देने की तैयारी हो तो आओ सब चलें, सब लें प्रेम का आशीष..!

इंद्रधनुष का सुलझा गणित / रंगी-बिरंगी छटाएँ अंतर्निहित / अंतस में पहले सद्भाव जगाएँ /नित-प्रति तब  होली मनाएँ।….

मिलें होली, खेलें होली! ..शुभ होली।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #113 ☆ स्पर्श एक क्रिया ही नहीं अनुभूतिकोश भी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 113 ☆

☆ ‌आलेख – ‌स्पर्श एक क्रिया ही नहीं अनुभूतिकोश भी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

यूं तो स्पर्श शब्द का शाब्दिक अर्थ मात्र छूने से ही है, यह पढ़ने सुनने में अति साधारण सा शब्द होते हुए भी अपने आप में असाधारण अनुभव की अनुभूतियां समेटे हुए है. इसमें गजब का सम्मोहन समाया हुआ है. यह हृदय को सकारात्मक अनुभव प्रदान करता है. यह सामने खड़े सचेतन जीव जगत के उपर गहरा प्रभाव छोडता है, तथा अबोध बालक से लेकर अबोध जानवरों को भी सकारात्मक तथा नकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए उकसाता है ,आप ने भी अपने जीवन में कभी कभार स्पर्श की दिव्य अनुभूति की होगी. एक मां की लोरी और थपकी में ऐसी क्या अनुभूति है‌ जो अबोध बालक को गहरी नींद में सुला देती है.

हाथों के अंगुलियों का प्रेयसी के बालों को सहलाना जहां प्रेयसी को आपकी बांहों में आने तथा आलिंगन को बाध्य करता है तो वहीं कोमल स्पर्श जानवरों को भी सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए उत्साहित करता है.

यह स्पर्श ही है जो मात्र अलग-अलग ढंग से छूने मात्र से छूने वाले ब्यक्ति के उद्देश्य तथा हृदय की अभिव्यक्ति को दर्शाता है. यह ब्याकरणीय संरचना के अनुसार एक क्रिया है. जिसमें भावों के आदान-प्रदान का गुण गहराई से रचा बसा है आखिर क्या कारण है

कि हम जब किसी मूर्ति अथवा किसी सकारात्मक ऊर्जा वाले व्यक्ति के पैरों को छूकर आशीर्वाद लेते हैं , तो हृदय भावनाओं से ओत-प्रोत हो जाता है और इसकी अंतिम परिणति श्रद्धा भक्ति के रूप में दृष्टि गोचर होती है.  

इस प्रकार स्पर्श का अर्थ मात्र एक क्रियात्मक शब्द बोध ही नहीं, भावनात्मक बोध भी है.

– सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 123 ☆ बहुत तकलीफ़ होती है ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 123 ☆

☆ बहुत तकलीफ़ होती है

‘लोग कहते हैं जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो तकलीफ़ होती है; परंतु जब कोई अपना पास होकर भी दूरियां बना लेता है, तब बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है।’ प्रश्न उठता है, आखिर संसार में अपना कौन…परिजन, आत्मज या दोस्त? वास्तव में सब संबंध स्वार्थ व अवसरानुकूल उपयोगिता के आधार पर स्थापित किए जाते हैं। कुछ संबंध जन्मजात होते हैं, जो परमात्मा बना कर भेजता है और मानव को उन्हें चाहे-अनचाहे निभाना ही पड़ता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला नहीं रह सकता और वह कुछ संबंध बनाता है; जो बनते-बिगड़ते रहते हैं। परंतु बचपन के साथी लंबे समय तक याद आते रहते हैं, जो अपवाद हैं। कुछ संबंध व्यक्ति स्वार्थवश स्थापित करता है और स्वार्थ साधने के पश्चात् छोड़ देता है। यह संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति अस्थायी होते हैं, जो दृष्टि से ओझल होते ही समाप्त हो जाते हैं और लोगों के तेवर भी अक्सर बदल जाते हैं। परंतु माता-पिता व सच्चे दोस्त नि:स्वार्थ भाव से संबंधों को निभाते हैं। उन्हें किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं होता तथा विषम परिस्थितियों में भी वे आप की ढाल बनकर खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर बने रहते हैं। सो! आप उन पर नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकते हैं। आपने अंग्रेजी की कहावत सुनी होगी ‘आउट आफ साइट, आउट ऑफ मांइड’ अर्थात् दृष्टि से ओझल होते ही उससे नाता टूट जाता है। आधुनिक युग में लोग आपके सम्मुख अपनत्व भाव दर्शाते हैं; परंतु दूर होते ही वे आपकी जड़ें काटने से तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करते। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जो केवल मौसम बदलने पर ही नज़र आते हैं। वे गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर होते हैं। इंसान को जीवन में उनसे सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे अपने बनकर, अपनों को घात लगाते हैं। सो! उनके जाने का इंसान को शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि प्रसन्न होना चाहिए।

वास्तव में इंसान को सबसे अधिक दु:ख तब होता है, जब अपने पास रहते हुए भी दूरियां बना लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं तथा पीठ में छुरा घोंपते हैं। आजकल के संबंध कांच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं, क्योंकि यह संबंध स्थायी नहीं होते। आधुनिक युग में खून के रिश्तों पर भी विश्वास करना मूर्खता है। अपने आत्मज ही आपको घात लगाते हैं। वे आपको तब तक मान-सम्मान देते हैं, जब तक आपके पास धन-संपत्ति होती है। अक्सर लोग अपना सब कुछ उनके हाथों सौंपने के पश्चात् अपाहिज-सा जीवन जीते हैं या उन्हें वृद्धाश्रम में आश्रय लेना पड़ता है। वे दिन-रात प्रभु से यही प्रश्न करते हैं, आखिर उनका कसूर क्या था? वैसे भी आजकल परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं, क्योंकि संबंध-सरोकारों की अहमियत रही नहीं। वे सब एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। प्राय: वे ग़लत संगति में पड़ कर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं।

अक्सर ज़िदंगी के रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोगों की बातों में आकर हम अपनों से उलझ जाते हैं। मुझे स्मरण हो रहे हैं कलाम जी के शब्द ‘आप जितना किसी के बारे में जानते हैं; उस पर विश्वास कीजिए और उससे अधिक किसी से सुनकर उसके प्रति धारणा मत बनाइए। कबीरदास भी आंखिन-देखी पर विश्वास करने का संदेश देते हैं; कानों-सुनी पर नहीं। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ इसलिए उनकी बातों पर विश्वास करके किसी के प्रति ग़लतफ़हमी मत पालें। इससे रिश्तों की नमी समाप्त हो जाती है और वे सूखी रेत के कणों की भांति तत्क्षण मुट्ठी से फिसल जाते हैं। ऐसे लोगों को ज़िंदगी से निकाल फेंकना कारग़र है। ‘जीवन में यदि मतभेद हैं, तो सुलझ सकते हैं, परंतु मनभेद आपको एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देते। वास्तव में जो हम सुनते हैं, हमारा मत होता है; तथ्य नहीं। जो हम देखते हैं, सत्य होता है; कल्पना नहीं। ‘सो! जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकार कीजिए। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ महात्मा बुद्ध की यह सीख अनुकरणीय है।

‘ठहर! ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं/ कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्ती को लहरों के सहारे।’ समय बहुत बलवान है, निरंतर बदलता रहता है। जीवन में आत्म-सम्मान बनाए रखें; उसे गिरवी रखकर समझौता ना करें, क्योंकि समय जब निर्णय करता है, तो ग़वाहों की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए किसी विनम्र व सज्जन व्यक्ति को देखते ही यही कहा जाता है, ‘शायद! उसने ज़िंदगी में बहुत अधिक समझौते किए होंगे, क्योंकि संसार में मान-सम्मान उसी को ही प्राप्त होता है।’ किसी को पाने के लिए सारी खूबियां कम पड़ जाती हैं और खोने के लिए एक  ग़लतफ़हमी ही काफी है।’ सो! जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए; जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए। हर क्षण, हर दिन शांत व प्रसन्न रहिए और जीवन से प्यार कीजिए; आप ख़ुद को मज़बूत पाएंगे, क्योंकि लोहा ठंडा होने पर मज़बूत होता है और उसे किसी भी आकार में ढाला नहीं जा सकता है।

यदि मन शांत होगा, तो हम आत्म-स्वरूप परमात्मा को जान सकेंगे। आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। परंतु बावरा मन भूल गया है कि वह पृथ्वी पर निवासी नहीं, प्रवासी बनकर आया है। सो! ‘शब्द संभाल कर बोलिए/ शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी सदैव मधुर वाणी बोलने का संदेश देते हैं। जब तक इंसान परमात्मा-सत्ता पर विश्वास व नाम-स्मरण करता है; आनंद-मग्न रहता है और एक दिन अपने जीवन के मूल लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। सो! परमात्मा आपके अंतर्मन में निवास करता है, उसे खोजने का प्रयास करो। प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तुम्हारे जीवन को रोशन करने कोई नहीं आएगा। आग जलाने के लिए आपके पास दोस्त के रूप में माचिस की तीलियां हैं। दोस्त, जो हमारे दोषों को अस्त कर दे। दो हस्तियों का मिलन दोस्ती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘जो आपके पास चलकर आए सच्चा दोस्त होता है; जब सारी दुनिया आपको छोड़कर चली जाए।’ इसलिए दुनिया में सबको अपना समझें;  पराया कोई नहीं। न किसी से अपेक्षा ना रखें, न किसी की उपेक्षा करें। परमात्मा सबसे बड़ा हितैषी है, उस पर भरोसा रखें और उसकी शरण में रहें, क्योंकि उसके सिवाय यह संसार मिथ्या है। यदि हम दूसरों पर भरोसा रखते हैं, तो हमें पछताना पड़ता है, क्योंकि जब अपने, अपने बन कर हमें छलते हैं, तो हम ग़मों के सागर में डूब जाते हैं और निराशा रूपी सागर में अवगाहन करते हैं। इस स्थिति में हमें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है। इसलिए भरोसा स्वयं पर रखें; किसी अन्य पर नहीं। आपदा के समय इधर-उधर मत झांकें। प्रभु का ध्यान करें और उसके प्रति समर्पित हो जाएं, क्योंकि वह पलक झपकते आपके सभी संशय दूर कर आपदाओं से मुक्त करने की सामर्थ्य रखता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 27 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 27 ??

घोटुल- हर आदिवासी और वनवासी समाज में मेलों के परंपरा बहुत पुरानी है। आदिवासी संस्कृति, खानपान, पहनावे को लेकर अनेक स्थानों पर छोटे-बड़े आदिवासी मेला लगते हैं। असम और पूर्वोत्तर में आज भी ‘घोटुल’ की परंपरा है जिसके माध्यम से विवाहेच्छुक को अपना जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता है।

पर्यटन मेला- गुजरात का कच्छ उत्सव, राजस्थान का मरुस्थल उत्सव आदि मूलरूप से पर्यटन को बढ़ावा देने की दृष्टि से आयोजित मेला हैं। मरुस्थलीय संगीत, गारी नृत्य, लोक संगीत, लोक गीत, ऊँटों की कलाबाजी, दौड़, साज-सज्जा, पोलो, रस्साकशी अनेक प्रतियोगिताएँ यथा पगड़ी बांधना, मूँछ का प्रदर्शन सभी पर्यटकों की दृष्टि से विशेष रोचक होते हैं।  

अन्य-  भारत में प्राकट्य दिवस हो, संतों की जन्मतिथि हो, पुण्यतिथि अथवा ऋतु परिवर्तन, हर अवसर पर  मेले लगते हैं। हरिद्वार, वाराणसी तथा अन्य स्थानों पर होती गंगा जी की आरती भी एक प्रकार से मेला ही है। हर मंदिर में छोटे-बड़े स्तर पर एक मेला का आयोजन तो होता ही है। हरेक का विवरण व वर्णन संभव ही नहीं है। यह कुल जमा ‘हरि अनंत, हरि कथा अनंता’ जैसी स्थिति है। मेलों की अनंत यात्रा को यहाँ विराम देकर तीर्थों की असीम यात्रा पर निकला जाए।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 99 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 10 – मनुस बली नहीं होत है… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 99 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 10 – मनुस बली नहीं होत है… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

मनुस बली नहीं होत है, समय होत बलवान।

भीलन लूटी गोपिका , बेई अर्जुन बेई वान॥

शाब्दिक अर्थ :- मनुष्य बलवान नहीं होता, समय बलवान होता है। एक समय ऐसा था कि वीर अर्जुन के समक्ष कोई भी बड़ा से बड़ा धनुर्धर नहीं तिक पाता था। अब समय ऐसा आया कि भीलों ने गोपियों को लूट लिया और वही धनुर्धर अर्जुन चुपचाप देखते रहे।

बीरा,जहाँ मैंने यह कहावत पहली बार सुनी, पन्ना जिले की अजयगढ़ तहसील का एक पिछड़ा व दूरस्थ  गाँव है,  जिसके एक ओर केन नदी बहती तो दूसरी ओर ब्रिटिश काल में निर्मित भापतपुर बांध से निकली नालानूमा विशाल नहर। यह उत्तरप्रदेश के बांदा जिले से लगा हुआ, मध्य प्रदेश का सीमांत गाँव है। चित्रकूट, बुंदेलखंड क्षेत्र का एक  प्रसिद्ध तीर्थ स्थल,  जहाँ अयोध्या से निर्वासित भगवान राम ने वनवास के 12 वर्ष बिताए थे, बीरा से ज्यादा दूर नहीं है। बीरा से अजयगढ़ के रास्ते, पिस्टा गाँव के निकट  एक  हरी भरी पहाड़ी है, नाम  है देव पर्वत,  कहते हैं भगवान राम ने विपत्ति भरे अपने वनवास के समय कुछेक रातें इस देव पर्वत पर भी बिताई थी। तुलसी दास भी लिख गए हैं “जा पर विपदा पडत है वह आवत यही देश”(देश मतलब हमारा गर्वीला, पथरीला, दर्पीला बुंदेलखंड)।  राजशाही के जमाने में अनेक ब्राह्मण व उनके चेले चपाटी यादव बांदा और उत्तर  प्रदेश के अन्य भागों से बीरा और उसके आसपास के गांवों में आकर बस गये और राज दरबार में अपने ब्राह्मणत्व का उपयोग कर जमींदारियाँ हासिल कर ली। गुरु ब्राह्मण के पास पोथिओं व पुराणों का ज्ञान था तो चेले यादव के पास शारीरिक बल और हाथ में लट्ठ। गुरु-चेले की इस जुगल जोड़ी ने बीरा जैसे पिछड़े गांवों में अपनी धाक जमा ली और उनका खेती किसानी, दुग्ध उत्पादन के साथ साथ पंडिताई का व्यवसाय फलने फूलने लगा। खेतिहर मजदूर पंडित जी की ज्ञान वाणी सुनते और उनके बहुत से काम बेगारी में ही हँसते मुस्कुराते कर देते। समय बदला देश स्वतंत्र हुआ शिक्षा फैली और समाजवादी नारे मध्यप्रदेश के इस दूर दराज स्थित क्षेत्र में भी सुनाई देने लगे। अब दलित मजदूर पंडित जी के पोथी पत्रा या यादव के बलिष्ठ शरीर  देखकर  प्रभावित न होते और बेगार के लिए तो आसानी से  न मानते। वे ना तो  चेले  के लट्ठ से विचलित होते और न ही बरम बाबा के श्राप से घबराते।

ऐसे ही संक्रमण काल में मेरी पदस्थापना वहाँ हुयी और मैं भारतीय स्टेट बैंक की बीरा शाखा में जनवरी 1990 से मई 1993 तक शाखा प्रबंधक के पद पर कार्यरत रहा। मैं गाँव  में ही रहता और समय बिताने पड़ोसी शुक्लजी (मास साब), उनके पुत्र रमेश व अन्य ग्रामीणों की पौड़ (बारामदा या दहलान) में बैठा करता। ऐसी ही एक सुबह माससाब  ने अपनी पौड़  में बैठे बैठे सामने से पायंलागी कर निकलते हुये एक अधेढ, कलुआ  कोरी,  को आवाज लगाई। कलुआ कोरी आशीर्वाद की लालच में माससाब के सामने आ खड़ा हुआ। माससाब ने उसे ‘खुसी रहा’ का आशीर्वाद दिया और घर के पीछे खलिहान में रखे गेहूँ को बंडा व खौड़ा में संग्रहित करने में मदद करने को कहा। कलुआ ताड़  गया की दो तीन घंटे से भी ज्यादा  का काम है और मजदूरी तो मिलने से रही अत: उसने कोई अन्य काम का बहाना बना इस गमरदंदोर में न फसने की सोची।

उसकी  यह आनाकानी  माससाब को क्रोधित करने के लिए पर्याप्त थी  और कलुआ का बुन्देली गालियों से “पानी उतारबौं” (बेज्जती करना)  चालू हो गया। माससाब ने तो उसे पनमेसुर के पूरे (कपटी व्यक्ति),   ‘मूतत के ना माड़ पसाउत के” (निकम्मा और अकर्मण्य) आदि न जाने क्या क्या कह दिया पर  कलुआ टस से मस न हुआ। वह उनकी बातें सुनता, कुछ प्रतिकार करता, बार बार बक्स देने को कहता  पर बेगारी के लिए तैयार न होता। अंतत: माससाब ने अपना ब्रह्मास्त्र चलाया और यह कहावत कलुआ पर जड़ दी “मनुस बली नहीं होत है, समय होत बलवान।भीलन लूटी गोपिका , बेई अर्जुन बेई वान॥ “ कोरी ने जैसे ही गोपिका और अर्जुन का नाम सुना उसे भगवान कृष्ण की भागवत याद आ गई और वह बोल पड़ा महराज जा  तो भागवत पुराण की बात है हमे भी ईखी की कथा सुना देओ तो जीवन तर जाए। माससाब समझ गए की मछली पटने वाली है और कलुआ अब भौंतेरे में बिदबई वारो है( जाल में फस जाना) लेकिन गला फाड़ चिल्ला चौंट से माससाब थक गए थे अत: उन्होने अपने पुत्र रमेश को कथा सुनाने का दायित्व दे ‘सुट्ट हो जाना’ (शांत रहना)  उपयुक्त समझा। फिर क्या रमेश की पंडिताई चालू हो गई और कथा ऐसे आगे बढ़ी; ‘का भओ कलुआ कै की तैं तो महाभारत की कथा जानत है, पांडवन खों राज दै कै भगवान द्वारका वापस आ गए अब आगे सुन’। एक दिन महर्षि विश्वामित्र, कण्व और नारद जी आदि ऋषि द्वारिका में पधारे। कलुआ ये सब ऋषि मुनि बड़े सिद्ध ब्राह्मण थे। उन्हे देखकर यादवों की अक्कल चरने चली गई और  सारण आदि यादव,  साम्ब को लुगाई (स्त्री) के वेश में सजा सवांर कर ब्राह्मण मुनियों के पास ले गए और बोले कि हे ब्राह्मण देवता यह महा तेजस्वी वभ्रु की पत्नी ‘पेट से हैं’ (गर्भवती है)। बताइए इसके गर्भ से क्या पैदा होगा। ब्राह्मण देवता रूपी मुनि उड़त चिरईया परखबे में माहिर हते,  वे समझ गए कि यादव लोग उनका मजाक उड़ा रहे हैं। वे क्रोध में बोले कि मूर्खो यह कृष्ण का पुत्र साम्ब स्त्री वेश में है, इसके पेट में मूसल छिपा है जिससे तुम सभी यादवों का नाश हो जाएगा। फिर क्या था, ब्राह्मण देवताओं का श्राप सुनकर  सारे यादव घबरा गए और महाराजा उग्रसेन (कृष्ण भगवान के नाना) के पास पहुँचे। उन्होने मूसल का चूरण बनाकर समुद्र में फिकवा दिया, ताकि मूसल से कोई नुकसान न होने पाये। कुछ दिनों बाद  इसी चूरण से जो काँस (एक प्रकार की घाँस) ऊगी उसे उखाड़ उखाड़ कर सारे यादव अहीर आपस में लड़ मरे। भगवान कृष्ण इससे  बड़े दुखी हो गए और उन्होने भी अपनी लीला ख़त्म करने की सोचते हुये अर्जुन को द्वारका  बुलाया और सभी सोलह हज़ार गोपियों को अपने साथ ले जाने को कहा। अर्जुन ने भगवान का कहना मानते हुये सभी को साथ लेकर  अपनी राजधानी इंद्रप्रस्थ की ओर चल पड़ा। रास्ते में जब अर्जुन ने अपना पड़ाव पंचनद क्षेत्र में  डाला तो वहाँ के लूटेरों ने आक्रमण कर सारा माल आसबाब और गोपियों को लूट लिया। अर्जुन जिसके पास गाँडीव जैसा धनुष था और जो उस समय का सबसे बडा वीर पुरुष था कुछ न कर सका, चुपचाप गोपियों को लुटता पिटता देखता रह गया क्योंकि अब भगवान उसके साथ नहीं थे और उसका समय खराब था। कहानी आगे बढ़ती कि कलुआ बीच में बोल पड़ा वाह महराज वाह भगवान को का भओ जा ओर बता देते तो मोरी आत्मा तर जाती। मासाब समझ गए कि लोहा गरम हो चुका है वे बोले ‘कलुआ पूरी भागवत एकई दिना में नई बाँची जात बाकी किस्सा और कोनऊ दिना आके सुन लईओ अबे तो तुम कलेवा कर लेओ और अपनी गैल पकड़ो।‘

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – महिला स्वतंत्रता आंदोलन की प्रणेता – सिमोन द बुआ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं।आज प्रस्तुत है  अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष  “महिला स्वतंत्रता आंदोलन की प्रणेता – सिमोन द बुआ”)

? अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – महिला स्वतंत्रता आंदोलन की प्रणेता – सिमोन द बुआ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

(अग्रज श्री सुरेश पटवा Suresh Patwa की पुस्तक “स्त्री-पुरुष” से )

दुनिया में महिला स्वतंत्रता आंदोलन की प्रणेता एक महिला दार्शनिक सिमोन को माना जाता है। सिमोन द बुआ (फ़्रांसीसी: Simone de Beauvoir) (जन्म: 9 जनवरी 1908 – मृत्यु : 14 अप्रैल 1986) एक फ़्रांसीसी लेखिका और दार्शनिक थीं। स्त्री उपेक्षिता (फ़्रांसीसी:Le Deuxième Sexe, जून 1949) अंग्रेज़ी में “Second Sex” जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक लिखने वाली सिमोन का जन्म पैरिस में हुआ था। लड़कियों के लिए बने कैथलिक विद्यालय में उनकी आरंभिक शिक्षा हुई। उनका कहना था की स्त्री पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है। समाज ने उसे गढ़ने का सामान चर्च, मंदिर और मस्जिद के रीति रिवाज के रूप मे तैयार कर रखा है।

सिमोन का मानना था कि स्त्रियोचित गुण दरअसल समाज व परिवार द्वारा लड़की में भरे जाते हैं, जबकि वह भी वैसे ही जन्म लेती है जैसे कि पुरुष और उसमें भी वे सभी क्षमताएं, इच्छाएं, गुण होते हैं जो कि किसी लड़के में हो सकते हैं। सिमोन का बचपन सुखपूर्वक बीता, लेकिन बाद के वर्षो में उन्होंने अभावग्रस्त जीवन भी जिया। 15 वर्ष की आयु में सिमोन ने निर्णय ले लिया था कि वह एक लेखिका बनेंगी। उनके क्रांतिकारी लेखन ने यूरोप अमेरिका में स्त्री स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा बदल कर रख दी। दुनिया की संसद और सरकारों में महिला की आज़ादी के नए विचार उनकी किताब से छन कर आने और सत्ता के गलियारों में छाने लगे।

दर्शनशास्त्र, राजनीति और सामाजिक मुद्दे उनके पसंदीदा विषय थे। दर्शन की पढ़ाई करने के लिए उन्होंने पैरिस विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, जहां उनकी भेंट बुद्धिजीवी ज्यां पॉल सा‌र्त्र से हुई। बाद में यह बौद्धिक संबंध आजीवन चला। डा. प्रभा खेतान द्वारा उनकी किताब “द सेकंड सेक्स” का हिंदी अनुवाद “स्त्री उपेक्षिता” भी बहुत लोकप्रिय हुआ। 1970 में फ्रांस के स्त्री मुक्ति आंदोलन में सिमोन ने भागीदारी की। स्त्री-अधिकारों सहित तमाम सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर सिमोन की भागीदारी समय-समय पर होती रही। 1973 का समय उनके लिए परेशानियों भरा था। सा‌र्त्र दृष्टिहीन हो गए थे। 1980 में सा‌र्त्र का देहांत हो गया। 1985-86 में सिमोन का स्वास्थ्य भी बहुत गिर गया था। निमोनिया या फिर पल्मोनरी एडोमा में खराबी के चलते उनका देहांत हो गया। सा‌र्त्र की कब्र के बगल में ही उन्हें भी दफनाया गया। दोनों विवाह के बिना साथ रहे वे दुनिया के पहले सहनिवासी (living together) जोड़े थे जिनके उदाहरण हमारे महानगरों मे हम अब देख रहे हैं।

सार्त्र ऐसे महान दार्शनिक थे कि जिन्हें उनके महान दार्शनिक सिद्धांत अस्तित्ववाद के लिए नोबल पुरस्कार दिया गया था जिसे लेने से उन्होंने यह कहकर मना कर दिया था कि वे अपने व्यक्तित्व का संस्थाकरण नहीं करना चाहेंगे। तब नोबल समिति ने कहा था कि लोग यह पुरस्कार लेकर सम्मानित होते हैं परंतु वे यदि पुरस्कार ले लेते तो नोबल पुरस्कार पुरस्कृत होता।

द सेकेंड सेक्स (The Second Sex) सिमोन द बुआ द्वारा फ्रेंच में लिखी गई पुस्तक है जिसने स्त्री संबंधी धारणाओं और विमर्शों को गहरे तौर पर प्रभावित किया है। स्त्री समानता विचारधारा वाली सिमोन की यह पुस्तक नारी अस्तित्ववाद को प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करती है। यह स्थापित करती है कि जो स्त्री जन्म लेती है उसका मौलिक रूप विकसित न होने देकर, उम्र बढ़ने के साथ भोग के लिए बनाई जाती है। उसके दिमाग़ को नैसर्गिक रूप से गढ़ते रहने के बजाय वह कई अवधारणा में बाँध दी जाती है। लड़की एक अनचाहे भ्रूण की तरह गर्भ में पलती है। उनकी यह व्याख्या हीगेल के सोच को ध्यान में रखकर स्वयं (self) से अलग “दूसरा” (the Other) की संकल्पना प्रदान करती है। जो बच्ची पैदा हुई वह “पहला” है उसके बाद उसे संस्कारों के नाम पर ज़ंजीरों में बांधा जाना “दूसरा” है।

उनकी इस संकल्पना के अनुसार, नारी को उसके जीवन में उसकी पसंद-नापसंद के अनुसार रहना और काम करने का हक़ होना चाहिए और वो पुरुष से समाज में आगे बढ़ सकती है। ऐसा करके वो स्थिरता से आगे बढ़कर श्रेष्ठता की ओर अपना जीवन आगे बढ़ा सकतीं हैं। ऐसा करने से नारी को उनके जीवन में कर्त्तव्य के चक्रव्यूह से निकल कर स्वतंत्र जीवन की ओर कदम बढ़ाने का हौसला मिलता हैं। यह एक ऐसी पुस्तक है, जो यूरोप के उन सामाजिक, राजनैतिक, व धार्मिक नियमो को चुनौती देती हैं, जिन्होंने नारी अस्तित्व एवं नारी प्रगति में हमेशा से बाधा डाली है और नारी जाति को पुरुषो से नीचे स्थान दिया हैं। अपनी इस पुस्तक में सिमोन ने पुरुषों के ढकोसलों से नारी जाति को पृथक कर उनके जीवन में नैसर्गिक सोच विकसित न करने की नीति के विषय में अपने विचार प्रदान किये हैं। इसका हिन्दी अनुवाद स्त्री उपेक्षिता नाम से राजपाल एंड संस से प्रकाशित हुआ है।

(पोस्टर प्रस्तुति श्री अनिल करमेले)

© श्री सुरेश पटवा  

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष : एक लड़ाई क्रांतिज्योति सावित्री की ! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष : एक लड़ाई क्रांतिज्योति सावित्री की ! ??

(यह लेख “नवनीत’ के मार्च 2022 के अंक में ‘क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है।)

असे गर्जूनी विद्या शिकण्या जागे होऊन झटा।
परंपरेच्या बेड्या तोडूनि शिकण्यासाठी उठा।

(34/काव्यफुले)

‘गर्जना कर सकने वाली विद्या को सीखने के लिए जागो और जुटो। परंपरा की बेड़ियों को तोड़कर शिक्षा प्राप्ति के लिए उठो।’

जागृति के लिए निरंतर संघर्ष करने वाली क्रांतिज्योति अर्थात सावित्रीबाई जोतिबा फुले। सावित्रीबाई अर्थात महात्मा जोतिबा फुले की सहगामिनी। केवल पत्नी होने के नाते नहीं अपितु जीवन के हर संघर्ष में सावित्रीबाई, ज्योतिबा की सहगामिनी सिद्ध हुईं।

सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को सातारा जिले की खंडाला तहसील के नायगाव में हुआ था। उन दिनों बालविवाह की प्रथा थी। 9 वर्ष की आयु में सावित्री का विवाह 13 वर्षीय जोतिबा से हुआ‌। जोतिबा शिक्षा के प्रति जागरूक थे। रिश्ते में जोतिबा की बुआ लगने वाली सगुणा एक अंग्रेज अधिकारी के यहाँ काम करती थीं। वह अंग्रेजी बोल लेती थीं। उनके प्रभाव से जोतिबा में शिक्षा के प्रति रुचि और गहरी हुई। शिक्षक जोतिबा ने शिक्षा को अपने तक सीमित न रखकर अपनी निरक्षर पत्नी सावित्रीबाई को भी पढ़ाना आरम्भ किया।

परिवार को शिक्षित करने का भाव यहीं तक नहीं ठहरा। पूरे समाज को परिवार मानने वाले फुले दंपति ने लड़कियों के लिए पाठशाला खोलने की ठानी। उन दिनों समाज में लड़कियों के शिक्षा का प्रचलन नहीं था। स्त्रियाँ चूल्हा-चक्की तक सीमित थीं। ऐसे में विद्यार्थी मिलना बड़ी कठिनाई थी। इतनी ही बड़ी कठिनाई शिक्षक ढूँढ़ना भी थी, क्योंकि तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में परम्परा के विरुद्ध जाकर लड़कियों को पढ़ाने के लिए आगे आना इतना सरल भी नहीं था। कठिनाई से उबरने के लिए सावित्रीबाई ने अध्यापन से संबंधित दो कोर्स किए।

1 जनवरी 1848 को अपने पति जोतिबा के साथ मिलकर सावित्रीबाई ने पुणे के भिड़े वाड़ा में लड़कियों के लिए पाठशाला खोलकर इतिहास रच दिया। सावित्रीबाई यहाँ शिक्षिका और मुख्याध्यापिका भी हुईं। उनके कदम और जिजीविषा यहीं तक नहीं ठहरे। देखते-देखते इस दंपति ने केवल 4 वर्ष में 18 विद्यालय खोल दिए‌। समाज में एक तरह की क्रांति ने जन्म लिया। पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग की लड़कियों का पाठशाला जाना रूढ़िवादियों को जरा भी नहीं भाया। पाठशाला में पढ़ाने के लिए जाते समय सावित्री बाई को नाना प्रकार से परेशान किया गया। कभी शाब्दिक अपमान तो कभी मानसिक दबाव। यहाँ तक कि गोबर फेंकने तक की घटना हुईं परंतु सावित्रीबाई अडिग रहीं और विद्यादान का यज्ञ अविराम चलता रहा।

शिक्षा का अर्थ केवल साक्षर होना नहीं होता‌। साक्षरता से दुनिया की दिशा में खिड़कियाँ खुलती हैं। इन खिड़कियों से आती हवा की सहायता से बौद्धिक विकास और एकात्म की यात्रा होती है। एकात्म, समाज की पीड़ा में पीड़ित होने का भाव है। सावित्रीबाई ने समाज की पीड़ा को अनुभव किया। केवल अनुभव ही नहीं किया अपितु इस पीड़ा से मुक्ति दिलाने के लिए संकल्प लिया। संकल्प सिद्धि के लिए अनेक कदम भी उठाए।

बाल विवाह के चलते उन दिनों छोटी आयु में विधवा होने वाली लड़कियों की संख्या बहुत बड़ी थी। विधवा पुनर्विवाह विशेषकर उच्च वर्ग में पूर्णतया वर्जित था। विधवाओं के बाल कटवा देना जैसी कुरीति समाज में प्रचलित थी। सावित्रीबाई ने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई। नाभिक समाज को इस कुरीति के विरुद्ध जागृत किया। उनके प्रयासों के चलते बहुत हद तक इस पर सामाजिक रोक लगी।

युवा विधवाओं के दैहिक शोषण की विकृति समाज में थी‌। अनेक बार संबंधित महिला गर्भ ठहर जाने पर समाज के भय से आत्महत्या कर लेती थी। कई मामलों में भ्रूण हत्या भी होती थी। सावित्रीबाई का मन इस कुप्रथा के कारण विषाद से भर उठा। ऐसे बच्चों की अकाल मृत्यु रोकने के लिए उन्होंने 1853 में बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की। अवैध संबंधों से जन्मे बच्चों का यहाँ लालन-पालन किया गया।

विशेष उल्लेखनीय है कि फुले दंपति ने स्वयं भी एक बच्चा गोद लिया। इसका नाम यशवंत रखा गया। आगे चलकर वह डॉक्टर बना।

विधवा पुनर्विवाह के लिए सावित्रीबाई ने अपने पति के साथ मिलकर संघर्ष किया। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप विधवाओं के प्रति समाज के रुक्ष दृष्टिकोण में अंतर आना शुरू हुआ।

उनकी दृष्टि विशाल थी। इस दृष्टि में दिनभर परिश्रम करनेवाले कृषकों और श्रमिकों के लिए शिक्षा की व्यवस्था करने का स्वप्न भी था। स्वप्न, यथार्थ में ढला और 1855 में कृषकों एवं श्रमिकों के लिए रात्रि पाठशाला आरम्भ की।

अनाथ बच्चों को उज्ज्वल भविष्य देने की सावित्रीबाई की गहरी इच्छा भी रंग लाई। 1864 में निराश्रित बच्चों के लिए आश्रम खोला गया।

1871 अपने साथ अकाल लेकर आया। इसके शिकार गरीबों-वंचितों के लिए स्थान-स्थान पर अन्नदान की व्यवस्था करवाने में उन्होंने महती भूमिका निभाई।

समाजसेवी सावित्रीबाई फुले संवेदनशील कवयित्री थीं। 1854 में उनका पहला कवितासंग्रह ‘काव्य फुले’ प्रकाशित हुआ। 1891 में दूसरा संग्रह ‘बावन्नकशी सुबोध रत्नाकर’ प्रकाशित हुआ। यद्यपि सावित्रीबाई के लेखन, भाषा आदि को लेकर अनुसंधानकर्ता एकमत नहीं है तथापि तार्किक तौर पर देखें समय के साथ क्षेपक आ जाने पर भी मूल का बड़ा हिस्सा बना और बचा रहता है। सावित्रीबाई के प्रथम कवितासंग्रह की रचनाओं के माध्यम से उनकी जिजीविषा और ध्येय के प्रति समर्पण को समझने में सहायता मिलती है। संग्रह में कुल 41 कविताएँ हैं। इन कविताओं में शिक्षा ग्रहण करने का आह्वान मुख्य स्वर के रूप में उभरता है। सामाजिक विसंगतियाँ, पिछड़े और अति पिछड़ों की अवस्था, प्रकृति प्रेम, भगवान शिव के लिए स्त्रोत और प्रार्थना, अभंग, अँग्रेजी शिक्षा, जोतिबा के प्रति आदर और नेह, छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रति कृतज्ञता जैसे विषयों पर उनके भाव प्रकट हुए हैं। अनुसंधानकर्ताओं को मोडी लिपि में सावित्रीबाई की हस्तलिखित कुछ कविताएँ और हस्ताक्षर भी मिले हैं। उनके द्वारा महात्मा फुले को लिखे कुछ पत्र भी उपलब्ध हुए हैं।

‘काव्यफुले’ में विद्या को सर्वश्रेष्ठ धन मानते हुए एक स्थान पर सावित्रीबाई लिखती हैं,

विद्या हे धन आहे रे।श्रेष्ठ सा-या धनाहून।
तिचा साठी जयापाशी। ज्ञानी तो मानवी जन।

(26/काव्यफुले)

अर्थात विद्या हर प्रकार के धन की तुलना में श्रेष्ठ धन है। विद्यासम्पन्न व्यक्ति ही ज्ञानी है।

देदीप्यमान ज्ञानरथ के एक चक्र का समय पूरा हुआ। 1890 में महात्मा ज्योतिबा फुले का निधन हो गया। घोर दुख के क्षणों में भी सामाजिक रुढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष में सावित्रीबाई का अदम्य और अविचल व्यक्तित्व देखने को मिला। महात्मा फुले के शव के आगे दत्तक पुत्र डॉ. यशवंतराव को मटकी लेकर चलना था। परिजन और नाते-रिश्तेदार इसके विरुद्ध थे। विवाद बढ़ते देख एक निर्णय लेकर दृढ़ संकल्पी सावित्रीबाई उठीं और मटकी लेकर स्वयं अंतिम यात्रा के आगे चल पड़ीं। उनकी एक ओर दत्तक पुत्र यशवंत और दूसरी ओर परिजनों द्वारा मान्य गजानन थे। 130 वर्ष पूर्व ऐसे किसी दृश्य की कल्पना ही सिहरन पैदा कर देती है। निजी और सार्वजनिक जीवन में अंधेरे के क्षणों में सावित्रीबाई सदा ज्योति सिद्ध हुईं।

इस ज्योति की अगली लड़ाई प्लेग से हुई। प्लेग की महामारी ने बड़ी संख्या में लोगों को लील लिया। महामारी के शिकार बालगृह के बीमार बच्चों को गोद में लेकर सावित्रीबाई अपने दत्तक पुत्र के दवाखाने पर जातीं। अंतत: प्लेग ने उनको भी अपनी चपेट में ले लिया। इसी रोग के चलते 10 मार्च 1897 को क्रांतीज्योति अनंत ज्योति में विलीन हो गई।

अज्ञान का बोध, ज्ञानमार्ग का पहला सोपान है। जीवन भर ज्ञानदीप बनी रही सावित्रीबाई की अज्ञान को ललकारने वाली यह कविता, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का प्रखर शब्दचित्र है।

एकच शत्रु असे आपला
काढू पिटुन मिळुनि तयाला

त्याच्याशिवाय शत्रूच नाही
शोधूनि काढा मनात पाही

शोधला का?
पाहिला का?

विचार करूनी सांग लेकरा
नाव तयाचे बोल भरभरा

हरलास का?
कबूलच का?

सांगते पहा दृष्ट शत्रुचे
नाव नीट रे ऐक तयाचे

अज्ञान…

धरूनि त्याला पिटायचे
आपल्यामधुनि हुसकायाचे

(40/काव्यफुले)

भावार्थ है कि हम सबका एक ही शत्रु है। हम सबको चाहिए कि उसे निकाल बाहर फेंकें। उसके सिवा अन्य कोई शत्रु नहीं है। मन ही मन विचार करो और उसे ढूँढ़ निकालो। ढूँढ़ा क्या? दिखा क्या? विचारपूर्वक बताओ बच्चो! उसका नाम फटाफट बताओ। …चलो, हार गये न? हार स्वीकार है न? …मैं बताती हूँ नाम शत्रु का, ध्यान से सुनो नाम उसका….अज्ञान ( उसका नाम)… उसे पकड़कर पीटो, अपने बीच से दूर भगाओ।

अज्ञान के शत्रु को भगानेवाली सावित्रीबाई की लड़ाई आज भी दीपस्तम्भ का काम कर रही है।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆☆”नया महीना और कलेंडर” ☆☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक आलेख – नया महीना और कलेंडर.)

☆ आलेख ☆ “नया महीना और कलेंडर” ☆ श्री राकेश कुमार ☆

ये नया महीना, हर महीने आ जाता हैं। नया साल आने में तो कई महीने लग जाते हैं, परंतु नया महीना तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो पलक झपकते ही आ धमकता हैं।

बचपन में पिताजी ने इस दिन घर में प्रदर्शित सभी कैलेंडरों के पन्ने पलटने की जिम्मवारी हमको दे दी थी। सुबह आठ बजने से पूर्व ये कार्यवाही पूरी नहीं होने पर कई बार पांचों उंगलियां गालों पर छपवाने की यादें अभी भी जहन में हैं। एक तो उन दिनों में आठ दस कैलेंडर पूरे घर में होते थे। अधिकतर धार्मिक चित्र होते थे।

समय के साथ कुछ बड़े शहरों विशेषकर मुंबई के मरीन ड्राइव के चित्र भी कैलेंडर में आने लगे थे। दवा कंपनियां उन दिनों में महंगे और प्रकृति से संबंधित कैलेंडर डॉक्टर को भेंट देती थी। जीवन बीमा निगम और बैंक के कैलेंडर भी बारह अलग तरह की फ़ोटो वाले कैलेंडर मुफ्त में वितरित किया करते थे। चुंकि कैलेंडर मुफ्त में मिलता था, तो इसकी मांग भी अधिक रहती थी। इमरजेंसी( 1975) में किसी व्यापारी ने इंदिरा गांधी जी के चित्र का कैलेंडर छाप दिया था। ऐसा कहते हैं की उसकी  काला बाजारी होने लगी थी।                 

बाद में “टेबल कैलेंडर”, “पॉकेट कैलेंडर” इसके नए रूप समय और सुविधा के हिसाब से उपलब्ध होने लगे थे। विगत कुछ वर्षों से कैलेंडर प्राय प्राय गायब ही हो गया हैं।

वर्तमान में तो पंचांग के कैलेंडर की ही मांग रह गई है। धन राशि खर्च करके ही इसकी प्राप्ति हो पाती हैं। जबलपुर शहर के पंचांग, प्रसिद्धि की दृष्टि से सर्वोत्तम माने जाते हैं। जब कैलेंडर की बात हो और शिवकाशी का जिक्र भी जरूरी है, अधिकतर कैलेंडर वही पर ही छपा करते थे। धोबी, दूध और ना जाने कितनों के हिसाब कैलेंडर में दर्ज रहते थे।

सरकारी कार्यालयों, बैंक आदि  में सिर्फ तारीख़ का, पीले रंग का ही कैलेंडर लगाया जाता था, जिसमें प्रतिदिन नई तारीख पलट कर लगानी पड़ती थी।  

आज तो मोबाइल में कैलेंडर बीते हुए वर्षो और आने वाले वर्षों की पूरी जानकारी अपने में समा कर रखता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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