श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
(यह लेख “नवनीत’ के मार्च 2022 के अंक में ‘क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है।)
असे गर्जूनी विद्या शिकण्या जागे होऊन झटा।
परंपरेच्या बेड्या तोडूनि शिकण्यासाठी उठा।
(34/काव्यफुले)
‘गर्जना कर सकने वाली विद्या को सीखने के लिए जागो और जुटो। परंपरा की बेड़ियों को तोड़कर शिक्षा प्राप्ति के लिए उठो।’
जागृति के लिए निरंतर संघर्ष करने वाली क्रांतिज्योति अर्थात सावित्रीबाई जोतिबा फुले। सावित्रीबाई अर्थात महात्मा जोतिबा फुले की सहगामिनी। केवल पत्नी होने के नाते नहीं अपितु जीवन के हर संघर्ष में सावित्रीबाई, ज्योतिबा की सहगामिनी सिद्ध हुईं।
सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को सातारा जिले की खंडाला तहसील के नायगाव में हुआ था। उन दिनों बालविवाह की प्रथा थी। 9 वर्ष की आयु में सावित्री का विवाह 13 वर्षीय जोतिबा से हुआ। जोतिबा शिक्षा के प्रति जागरूक थे। रिश्ते में जोतिबा की बुआ लगने वाली सगुणा एक अंग्रेज अधिकारी के यहाँ काम करती थीं। वह अंग्रेजी बोल लेती थीं। उनके प्रभाव से जोतिबा में शिक्षा के प्रति रुचि और गहरी हुई। शिक्षक जोतिबा ने शिक्षा को अपने तक सीमित न रखकर अपनी निरक्षर पत्नी सावित्रीबाई को भी पढ़ाना आरम्भ किया।
परिवार को शिक्षित करने का भाव यहीं तक नहीं ठहरा। पूरे समाज को परिवार मानने वाले फुले दंपति ने लड़कियों के लिए पाठशाला खोलने की ठानी। उन दिनों समाज में लड़कियों के शिक्षा का प्रचलन नहीं था। स्त्रियाँ चूल्हा-चक्की तक सीमित थीं। ऐसे में विद्यार्थी मिलना बड़ी कठिनाई थी। इतनी ही बड़ी कठिनाई शिक्षक ढूँढ़ना भी थी, क्योंकि तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में परम्परा के विरुद्ध जाकर लड़कियों को पढ़ाने के लिए आगे आना इतना सरल भी नहीं था। कठिनाई से उबरने के लिए सावित्रीबाई ने अध्यापन से संबंधित दो कोर्स किए।
1 जनवरी 1848 को अपने पति जोतिबा के साथ मिलकर सावित्रीबाई ने पुणे के भिड़े वाड़ा में लड़कियों के लिए पाठशाला खोलकर इतिहास रच दिया। सावित्रीबाई यहाँ शिक्षिका और मुख्याध्यापिका भी हुईं। उनके कदम और जिजीविषा यहीं तक नहीं ठहरे। देखते-देखते इस दंपति ने केवल 4 वर्ष में 18 विद्यालय खोल दिए। समाज में एक तरह की क्रांति ने जन्म लिया। पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग की लड़कियों का पाठशाला जाना रूढ़िवादियों को जरा भी नहीं भाया। पाठशाला में पढ़ाने के लिए जाते समय सावित्री बाई को नाना प्रकार से परेशान किया गया। कभी शाब्दिक अपमान तो कभी मानसिक दबाव। यहाँ तक कि गोबर फेंकने तक की घटना हुईं परंतु सावित्रीबाई अडिग रहीं और विद्यादान का यज्ञ अविराम चलता रहा।
शिक्षा का अर्थ केवल साक्षर होना नहीं होता। साक्षरता से दुनिया की दिशा में खिड़कियाँ खुलती हैं। इन खिड़कियों से आती हवा की सहायता से बौद्धिक विकास और एकात्म की यात्रा होती है। एकात्म, समाज की पीड़ा में पीड़ित होने का भाव है। सावित्रीबाई ने समाज की पीड़ा को अनुभव किया। केवल अनुभव ही नहीं किया अपितु इस पीड़ा से मुक्ति दिलाने के लिए संकल्प लिया। संकल्प सिद्धि के लिए अनेक कदम भी उठाए।
बाल विवाह के चलते उन दिनों छोटी आयु में विधवा होने वाली लड़कियों की संख्या बहुत बड़ी थी। विधवा पुनर्विवाह विशेषकर उच्च वर्ग में पूर्णतया वर्जित था। विधवाओं के बाल कटवा देना जैसी कुरीति समाज में प्रचलित थी। सावित्रीबाई ने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई। नाभिक समाज को इस कुरीति के विरुद्ध जागृत किया। उनके प्रयासों के चलते बहुत हद तक इस पर सामाजिक रोक लगी।
युवा विधवाओं के दैहिक शोषण की विकृति समाज में थी। अनेक बार संबंधित महिला गर्भ ठहर जाने पर समाज के भय से आत्महत्या कर लेती थी। कई मामलों में भ्रूण हत्या भी होती थी। सावित्रीबाई का मन इस कुप्रथा के कारण विषाद से भर उठा। ऐसे बच्चों की अकाल मृत्यु रोकने के लिए उन्होंने 1853 में बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की। अवैध संबंधों से जन्मे बच्चों का यहाँ लालन-पालन किया गया।
विशेष उल्लेखनीय है कि फुले दंपति ने स्वयं भी एक बच्चा गोद लिया। इसका नाम यशवंत रखा गया। आगे चलकर वह डॉक्टर बना।
विधवा पुनर्विवाह के लिए सावित्रीबाई ने अपने पति के साथ मिलकर संघर्ष किया। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप विधवाओं के प्रति समाज के रुक्ष दृष्टिकोण में अंतर आना शुरू हुआ।
उनकी दृष्टि विशाल थी। इस दृष्टि में दिनभर परिश्रम करनेवाले कृषकों और श्रमिकों के लिए शिक्षा की व्यवस्था करने का स्वप्न भी था। स्वप्न, यथार्थ में ढला और 1855 में कृषकों एवं श्रमिकों के लिए रात्रि पाठशाला आरम्भ की।
अनाथ बच्चों को उज्ज्वल भविष्य देने की सावित्रीबाई की गहरी इच्छा भी रंग लाई। 1864 में निराश्रित बच्चों के लिए आश्रम खोला गया।
1871 अपने साथ अकाल लेकर आया। इसके शिकार गरीबों-वंचितों के लिए स्थान-स्थान पर अन्नदान की व्यवस्था करवाने में उन्होंने महती भूमिका निभाई।
समाजसेवी सावित्रीबाई फुले संवेदनशील कवयित्री थीं। 1854 में उनका पहला कवितासंग्रह ‘काव्य फुले’ प्रकाशित हुआ। 1891 में दूसरा संग्रह ‘बावन्नकशी सुबोध रत्नाकर’ प्रकाशित हुआ। यद्यपि सावित्रीबाई के लेखन, भाषा आदि को लेकर अनुसंधानकर्ता एकमत नहीं है तथापि तार्किक तौर पर देखें समय के साथ क्षेपक आ जाने पर भी मूल का बड़ा हिस्सा बना और बचा रहता है। सावित्रीबाई के प्रथम कवितासंग्रह की रचनाओं के माध्यम से उनकी जिजीविषा और ध्येय के प्रति समर्पण को समझने में सहायता मिलती है। संग्रह में कुल 41 कविताएँ हैं। इन कविताओं में शिक्षा ग्रहण करने का आह्वान मुख्य स्वर के रूप में उभरता है। सामाजिक विसंगतियाँ, पिछड़े और अति पिछड़ों की अवस्था, प्रकृति प्रेम, भगवान शिव के लिए स्त्रोत और प्रार्थना, अभंग, अँग्रेजी शिक्षा, जोतिबा के प्रति आदर और नेह, छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रति कृतज्ञता जैसे विषयों पर उनके भाव प्रकट हुए हैं। अनुसंधानकर्ताओं को मोडी लिपि में सावित्रीबाई की हस्तलिखित कुछ कविताएँ और हस्ताक्षर भी मिले हैं। उनके द्वारा महात्मा फुले को लिखे कुछ पत्र भी उपलब्ध हुए हैं।
‘काव्यफुले’ में विद्या को सर्वश्रेष्ठ धन मानते हुए एक स्थान पर सावित्रीबाई लिखती हैं,
विद्या हे धन आहे रे।श्रेष्ठ सा-या धनाहून।
तिचा साठी जयापाशी। ज्ञानी तो मानवी जन।
(26/काव्यफुले)
अर्थात विद्या हर प्रकार के धन की तुलना में श्रेष्ठ धन है। विद्यासम्पन्न व्यक्ति ही ज्ञानी है।
देदीप्यमान ज्ञानरथ के एक चक्र का समय पूरा हुआ। 1890 में महात्मा ज्योतिबा फुले का निधन हो गया। घोर दुख के क्षणों में भी सामाजिक रुढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष में सावित्रीबाई का अदम्य और अविचल व्यक्तित्व देखने को मिला। महात्मा फुले के शव के आगे दत्तक पुत्र डॉ. यशवंतराव को मटकी लेकर चलना था। परिजन और नाते-रिश्तेदार इसके विरुद्ध थे। विवाद बढ़ते देख एक निर्णय लेकर दृढ़ संकल्पी सावित्रीबाई उठीं और मटकी लेकर स्वयं अंतिम यात्रा के आगे चल पड़ीं। उनकी एक ओर दत्तक पुत्र यशवंत और दूसरी ओर परिजनों द्वारा मान्य गजानन थे। 130 वर्ष पूर्व ऐसे किसी दृश्य की कल्पना ही सिहरन पैदा कर देती है। निजी और सार्वजनिक जीवन में अंधेरे के क्षणों में सावित्रीबाई सदा ज्योति सिद्ध हुईं।
इस ज्योति की अगली लड़ाई प्लेग से हुई। प्लेग की महामारी ने बड़ी संख्या में लोगों को लील लिया। महामारी के शिकार बालगृह के बीमार बच्चों को गोद में लेकर सावित्रीबाई अपने दत्तक पुत्र के दवाखाने पर जातीं। अंतत: प्लेग ने उनको भी अपनी चपेट में ले लिया। इसी रोग के चलते 10 मार्च 1897 को क्रांतीज्योति अनंत ज्योति में विलीन हो गई।
अज्ञान का बोध, ज्ञानमार्ग का पहला सोपान है। जीवन भर ज्ञानदीप बनी रही सावित्रीबाई की अज्ञान को ललकारने वाली यह कविता, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का प्रखर शब्दचित्र है।
एकच शत्रु असे आपला
काढू पिटुन मिळुनि तयाला
त्याच्याशिवाय शत्रूच नाही
शोधूनि काढा मनात पाही
शोधला का?
पाहिला का?
विचार करूनी सांग लेकरा
नाव तयाचे बोल भरभरा
हरलास का?
कबूलच का?
सांगते पहा दृष्ट शत्रुचे
नाव नीट रे ऐक तयाचे
अज्ञान…
धरूनि त्याला पिटायचे
आपल्यामधुनि हुसकायाचे
(40/काव्यफुले)
भावार्थ है कि हम सबका एक ही शत्रु है। हम सबको चाहिए कि उसे निकाल बाहर फेंकें। उसके सिवा अन्य कोई शत्रु नहीं है। मन ही मन विचार करो और उसे ढूँढ़ निकालो। ढूँढ़ा क्या? दिखा क्या? विचारपूर्वक बताओ बच्चो! उसका नाम फटाफट बताओ। …चलो, हार गये न? हार स्वीकार है न? …मैं बताती हूँ नाम शत्रु का, ध्यान से सुनो नाम उसका….अज्ञान ( उसका नाम)… उसे पकड़कर पीटो, अपने बीच से दूर भगाओ।
अज्ञान के शत्रु को भगानेवाली सावित्रीबाई की लड़ाई आज भी दीपस्तम्भ का काम कर रही है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
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