हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 118 ☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख प्रेम, प्रार्थना और क्षमा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 118 ☆

☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा

प्रेम, प्रार्थना और क्षमा अनमोल रतन हैं। शक्ति, साहस, सामर्थ्य व सात्विकता जीवन को सार्थक व उज्ज्वल बनाने के उपादान हैं। मानव परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है और प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव उससे अपेक्षित है…यही समस्त जीव-जगत् की मांग है। प्रेम व करुणा पर्यायवाची हैं…एक के अभाव में दूसरा अस्तित्वहीन है। सो! प्रेम में अहिंसा व्याप्त है;  जो करुणा की जनक है। जब इंसान को किसी से प्रेम होता है, तो वह उसका हित चाहता है; मंगल की कामना करता है। उस स्थिति में सबके प्रति हृदय में करुणा भाव व्याप्त रहता है और उसके पदार्पण करते ही स्नेह, सौहार्द, त्याग, सहनशीलता व सहानुभूति के भाव स्वतः प्रकट हो जाते हैं और अहं भाव विलीन हो जाता है। अहं मानव में निहित दैवीय गुणों का सबसे बड़ा शत्रु है। अहं में सर्वश्रेष्ठता का भाव सर्वोपरि है तथा करुणा में स्नेह, त्याग, समानता, दया व सर्वमांगल्य का भाव व्याप्त रहता है। सो! किसी के प्रति प्रेम भाव होने से हम उसकी अनुपस्थिति में भी उसके पक्षधर व उसकी ढाल बनकर खड़े रहते हैं। प्रेम दूसरों के गुणों को देखकर हृदय में उपजता है। इसलिए स्व-पर व राग-द्वेष आदि उसके सम्मुख टिक नहीं पाते और हृदय से मनोमालिन्य के भाव स्वत: विलीन हो जाते हैं। प्रेम नि:स्वार्थता का प्रतीक है तथा प्रतिदान की अपेक्षा नहीं रखता।

ईश्वर के प्रति श्रद्धा व प्रेम का भाव प्रार्थना कहलाता है, जिसमें अनुनय-विनय का भाव प्रमुख रहता है। श्रद्धा में गुणों के प्रति स्वीकार्यता का भाव विद्यमान रहता है। शुक्ल जी ने ‘श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति की संज्ञा से अभिहित किया है।’ प्रभु की असीम सत्ता के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए मानव को सदैव उसके सम्मुख नत रहना अपेक्षित है; उसकी करुणा- कृपा को अनुभव कर उसका गुणगान करना तथा सहायता के लिए ग़ुहार लगाना, प्रार्थना कहलाता है। दूसरे शब्दों में यही भक्ति है। श्रद्धा किसी व्यक्ति के प्रति भी हो सकती है…यह शाश्वत् सत्य है। जब हम किसी व्यक्ति में दैवीय गुणों का अंबार पाते हैं, तो मस्तक उसके समक्ष अनायास झुक जाता है।

प्रार्थना हृदय के वे उद्गार हैं, जो उस मन:स्थिति में प्रकट होते हैं; जब मानव हैरान-परेशान, थका-मांदा, दुनिया वालों के व्यवहार से आहत, आपदाओं से अस्त-व्यस्त व त्रस्त होकर प्रभु से मुक्ति पाने की ग़ुहार लगाता है। प्रार्थना के क्षणों में वह अपने अहं को मिटाकर उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला देता है। उन क्षणों में अहं अर्थात् मैं और तुम का भाव विलीन हो जाता है और रह जाता है केवल सृष्टि-नियंता, जो सृष्टि अथवा प्रकृति के कण-कण में व्याप्त होता है। उस स्थिति में आत्मा व परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उन अलौकिक क्षणों में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव नदारद हो जाते हैं… सर्व- मांगल्य व सर्व-हिताय की भावना बलवती व प्रबल हो जाती है।

जहां प्रेम होता है, वहां क्षमा तो बिन बुलाए मेहमान की भांति स्वयं ही दस्तक दे देती है और अहं का प्रवेश वर्जित हो जाता है। सो! स्व-पर व अपने-पराये का प्रश्न ही कहाँ उठता है? किसी के हृदय को दु:ख पहुंचाने, बुरा सोचने व नीचा दिखाने की कल्पना बेमानी है। प्रेम के वश में मानव क्रोध व दखलांदाज़ी करने की सामर्थ्य ही कहां जुटा पाता है? वैसे संसार में सभी ग़लत कार्य क्रोध में होते हैं और क्रोध तो दूध के उबाल की भांति सहसा दबे-पांव दस्तक देता है तथा पल-भर में सब नष्ट-भ्रष्ट कर रफूचक्कर हो जाता है। वर्षों पहले के गहन संबंध उसी क्षण कपूर की मानिंद विलुप्त हो जाते हैं और अविश्वास की भावना हृदय में स्थायी रूप से घर कर लेती है। क्रोध अव्यवस्था फैलाता है तथा शांति भंग करना उसके बायें हाथ का खेल होता है। क्रोध की स्थिति में जन्म-जन्मांतर के संबंध टूट जाते हैं और इंसान एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करता। सो! उससे निज़ात पाने का उपाय है…क्षमा अर्थात् दूसरों को मुआफ़ कर उदार हृदय से उन्हें स्वीकार लेना। इससे हृदय की दुष्प्रवृत्तियों व निम्न भावनाओं का शमन हो जाता है। इसलिए जैन संप्रदाय में ‘क्षमापर्व’ मनाया जाता है। यदि हमारे हृदय में किसी के प्रति दुष्भावना व शत्रुता है, तो उससे क्षमा याचना कर दोस्ताना स्थापित कर लिया जाना अत्यंत आवश्यक है, जो श्लाघनीय है और  मानव स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है, हितकारी है।

वैसे भी यह ज़िंदगी चार दिन की मेहमान है। इंसान इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ लौट कर जाना है…फिर किसी से ईर्ष्या व शत्रुता भाव क्यों? जो भी हमारे पास है… हमने यहीं से लिया है और उसे यहीं छोड़ उस अनंत-असीम सत्ता में समा जाना है… फिर अभिमान कैसा? परमात्मा ने तो सबको समान बनाया है…यह जात-पात, ऊंच-नीच व अमीर-गरीब का भेदभाव तो मानव-मस्तिष्क की उपज है। सब उस प्रभु के बंदे हैं और सारे संसार में उसका नूर समाया है। कोई छोटा-बड़ा नहीं है, इसलिए सबसे प्रेम करें; दया भाव प्रदर्शित करें; संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग कर किसी को पीड़ा मत पहुंचाएं तथा जो मिला है, उसमें संतोष करें। सो! दूसरों के अधिकारों का हनन मत करें–यही जीवन की उपादेयता है, सार्थकता है।

शक्ति, सामर्थ्य, साहस व सात्विकता वे गुण हैं, जो मानव जीवन को श्रद्धेय बनाते हैं। सो! इनके सदुपयोग की आवश्यकता है। इसलिए यदि आप में शक्ति है, तो आप तन, मन, धन से निर्बल की रक्षा करें तथा अपने कार्य स्वयं करें, क्योंकि शक्ति सामर्थ्य का प्रतीक है और जीवन का सार व प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव दर्शाने का उपादान है। सो! यदि आप में शक्ति व सामर्थ्य है, तो साहसपूर्वक निरंतर कर्मशील रह कर सबका मंगल करें तथा विपरीत व विषम परिस्थितियों में आत्म-विश्वास से आगामी आपदाओं-बाधाओं का सामना करें। साहसी व्यक्ति को धैर्य रूपी धरोहर सदैव संजोकर रखनी चाहिए और निर्बल, दीनहीन व अक्षम पर कभी भी प्रहार नहीं करना चाहिए। हां! इसके लिए दरक़ार है…भावों की सात्विकता, पावनता व पवित्रता की; जिसका पदार्पण जीवन में सकारात्मक सोच, आस्था व विश्वास पर आधारित होता है। यदि मानव में स्नेह, प्रेम, करुणा व श्रद्धा के साथ क्षमा-भाव भी व्याप्त है, तो सोने पर सुहागा क्योंकि इससे सभी ग़लतफ़हमियां, वाद-विवाद व झगड़े तत्क्षण समाप्त हो जाते हैं। इसका दूसरा रूप है प्रायश्चित… जिसके हृदय में प्रवेश करते ही मानव को अपनी ग़लती का आभास हो जाता है कि वह दोषी ही नहीं; अपराधी है। सो! वह उसे न दोहराने का निश्चय करता है तथा उससे क्षमा मांग कर अपने हृदय को शांत करता है। उस स्थिति में दूसरे भी सुक़ून पाकर धन्य हो जाते हैं। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ अर्थात् क्षमा भाव ही सबसे श्रेष्ठ गुण है। क्षमा याचना करना अथवा दूसरों को क्षमा करना… इन दोनों स्थितियों में मानव हृदय की कलुषता व मनोमालिन्य समाप्त हो जाता है अर्थात् जब छोटे ग़लतियां करते हैं, तो बड़ों का दायित्व है… वे उन्हें क्षमा कर उदारता व उदात्तता का परिचय दें। इसलिए यदि आप क्रोध अथवा अज्ञानवश किसी जीव के प्रति हिंसक व निर्दयता का भाव रखते हैं और उसे शारीरिक व मानसिक कष्ट पहुंचाते हैं; तो आपको उससे क्षमा याचना कर अपना बड़प्पन दिखाना चाहिए। परंतु अहंनिष्ठ व्यक्ति से ऐसी अपेक्षा रखने की कल्पना करना भी बेमानी है।

‘सो! रिश्ते जब मज़बूत होते हैं, बिन बोले महसूस होते हैं तथा ऐसे संबंध अटूट होते हैं; ऐसी सोच के लोग महान् कहलाते हैं।’ उनका सानिध्य पाकर सब गौरवान्वित अनुभव करते हैं। वास्तव में ऐसी सोच के धनी…’व्यक्ति नहीं;  व्यक्तित्व होते हैं।’ परंतु वे अत्यंत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए उन्हें भी अमूल्य धन-सम्पदा व धरोहर की भांति सहेज-संभाल कर रखना चाहिए तथा उनके गुणों का अनुसरण करना चाहिए ताकि वे उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर कर सकें। वास्तव में वे आपको कभी भी चिंता के सागर में अवगाहन नहीं करने देते।

प्रेम, प्रार्थना व क्षमा अनमोल रत्न हैं। उन्हें शक्ति, सामर्थ्य, साहस, धैर्य व सात्विक भाव से तराशना अपेक्षित है, क्योंकि हीरे का मूल्य जौहरी ही जानता है और वही उसे तराश कर अनमोल बना सकता है। इसके लिए आवश्यकता है कि हम उन परिस्थितियों को बदलने की अपेक्षा स्वयं को बदलने का प्रयास करें …उस स्थिति में जीवन के शब्दकोश से कठिन व असंभव शब्द नदारद हो जायेंगे। इसलिए आत्मसंतोष व सब्र को जीवन में धारण करें, क्योंकि ये दोनो अनमोल रत्न हैं; जो आपको न तो किसी की नज़रों में झुकने देते हैं और न ही किसी के कदमों में। इसका मुख्य उपादान है– आपका मधुर व्यवहार, जीवन में समझौतावादी दृष्टिकोण व सुख दु:ख में सम रहने का भाव, जो समरसता का द्योतक है। सो! आप दैवीय गुणों व सकारात्मक दृष्टिकोण द्वारा सबके जीवन को उमंग, उल्लास व असीम प्रसन्नता से आप्लावित कर; उनकी खुशी के लिए स्वार्थों को तिलांजलि दे ‘सुक़ून से जीएँ व जीने दें’ तथा ‘सबका मंगल होय’ की राह का अनुसरण कर जीवन को सुंदर, सार्थक व अनुकरणीय बनाएं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 69 ☆ भारतीय संविधान के निहितार्थों का दुरुपयोग ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख भारतीय संविधान के निहितार्थों का दुरुपयोग।)

☆ किसलय की कलम से # 69 ☆

☆ भारतीय संविधान के निहितार्थों का दुरुपयोग ☆ 

देशभक्तों और आजादी हेतु प्राणोत्सर्ग करने वाले रणबांकुरों के स्वतंत्रता आंदोलन के परिणाम स्वरूप भारतीय संविधान को भारतीयों द्वारा ही बनाए जाने की मांग अंतत: अंग्रेजों को मानना ही पड़ी थी। राष्ट्र समर्पितों के राष्ट्रप्रेम, देश के सर्वांगीण विकास की भावना एवं राष्ट्रीय एकता का प्रतिमान रूपी हमारा संविधान हम सबके सामने है। यह हमारी सोच, संस्कृति एवं हमारे गणतंत्र राष्ट्र की ढाल है, जिसके मजबूत सहारे से आज हम 21 वीं सदी की शिखरीय यात्रा पर अग्रसर हैं। आधे करोड़ से भी अधिक रुपयों के खर्च पर हमारे संविधान का निर्माण 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में हुआ । 395 अनुच्छेद एवं 8 अनुसूचियों वाले इस संविधान को पूर्ण रूपेण 26 जनवरी सन 1950 को लागू किया गया। विश्व के वृहद्तम संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत इसमें संशोधनों की भी व्यवस्था की गई है, जो कि हमारे संविधान के लचीलेपन का द्योतक है । सन 1950 से हम प्रतिवर्ष संविधान स्थापना स्मृति को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हुए 72 वर्ष का सफर तय कर चुके हैं परंतु क्या आज भी हम, अपने संविधान में निहित भावनाओं को समझ सके हैं? क्या हमारा संविधान जन-जन तक पहुँच सका है? आज भी हमारे देश में अधिकांश ऐसे लोग हैं जिन्होंने संविधान की प्रति भी नहीं देखी। आज उच्च पदों पर स्वार्थ, ईर्ष्या, दुर्भाव एवं व्यक्तिवाद की छाप स्पष्ट नजर आती है। संविधान की सीमाएँ अब उच्च पदस्थ हस्तियों के इशारों पर बदल जाती हैं। संविधान एवं न्याय ज्ञाता स्वार्थों के अनुरूप उनके मायने ही बदलने की कोशिशों में लगे रहते हैं। कुछेक तथाकथित कानूनविदों ने इसी संविधान का माखौल उड़ाते हुए इसकी जनसेवी भावना को हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया है। क्या आज हम गणतंत्र दिवस इतनी सहजता से मना पाते हैं, जितना एक स्वतंत्र, समृद्ध एवं खुशहाल राष्ट्र के लोगों को मनाना चाहिए । हमारे देश के नेता और नागरिक दोनों ही इस महापर्व को मनाते वक्त आनंदित होने के स्थान पर आशंका-कुशंकाओं से भयभीत नजर आते हैं। देश की सीमा, आंतरिक व्यवस्था अथवा राजनीतिक क्षेत्र कहीं भी अमन-चैन नहीं है। आज भी देश के सुदूर ग्रामीण और वनांचलों में ऊँच-नीच, जाति-पाँति एवं अमीरी-गरीबी की दीवारें विद्यमान हैं। गणतंत्र का दंभ भरने वालों की नजरें इन तक पहुँचने में शायद सदी भी कम पड़े। कागजी योजनाओं एवं स्वार्थपरक नीतियों के क्रियान्वयन में ही इनका कार्यकाल समाप्त हो जाता है। उन्हें अपनी सर आँखों पर बैठाने वाला मतदाता स्वयं मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहता है। मौलिक संविधान की जानकारी के अभाव में आम नागरिक अपनी आवश्यकताओं हेतु आवाज उठाने से डरता है, जिसका लाभ चालाक तंत्र बखूबी उठाता रहता है। तात्पर्य यह है कि परोक्ष रूप से अपने ही देश में अपने ही लोगों द्वारा हमारा शोषण होता रहता है। हम संविधान को पढ़कर संविधान में दिए हकों का उपयोग नहीं कर पाते। बदलते समय और परिवेश में हमारा विशाल संविधान भी अपना बखूबी दायित्व निर्वहन करने में असमर्थ सा प्रतीत होता है। तभी तो आज संविधान की उपादेयता एवं उसमें समयोचित संशोधनों की सुगबुगाहट होने लगी है।

आज संविधान की आड़ में अनेक प्रभावी एवं राष्ट्रीय एकता को एक सूत्र में पिरोने वाली नीति लागू नहीं कर सकते। आज उचित एवं अनिवार्य होते हुए भी देश के कर्णधार नीतिगत निर्णय नहीं ले पाते। राजनीतिक विपक्ष नीतिगत निर्णयों की अनदेखी कर “विरोध हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है” का नारा चरितार्थ करने में लगा रहता है। आज हमारे संविधान में ऐसे संशोधनों की महती आवश्यकता है, जिससे सुदूर भारतवासी भी गणतंत्र का शत प्रतिशत लाभ प्राप्त कर सके। वह अपने ही देश में शोषण का शिकार न हो । संविधान में ऐसी व्यवस्था होना चाहिए जिससे हम राष्ट्रीय एकता को और मजबूत बनाते हुए राष्ट्र के विकास को नए आयाम दे सकें। हम उन समस्त देशभक्तों, स्वतंत्रता के पुजारियों एवं ज्ञात-अज्ञात शहीदों की आकांक्षाओं को पूरा कर सकें। हमारे इतिहास पुरुषों ने अपने बुद्धि-विवेक से हमारे लिए ऐसे संविधान का निर्माण किया है जिसकी बरगदी छाँव में हमारा गणतंत्र गुणोत्तर पुष्पित-पल्लवित हो रहा है। हमें गर्व होता है कि हम विश्व के महानतम् एवं विशाल गणतंत्र देश के नागरिक हैं। समय और प्रगति का पहिया निरंतर गतिशील है। हम भारतीयों में वर्तमान ऊँचाई से भी आगे दृष्टि दौड़ाने का हौसला है। हम शिखर पर पहुँचने का जज़्बा रखते हैं परंतु 72 वर्ष पूर्व के संविधान से यह अब संभव नहीं है। हमारी धारणा, बदलते जा रहे परिवेश में संविधान के नीतिगत पहलू के बदलाव से है।

प्रत्येक जागरूक भारतवासी अपने संविधान के विशाल वृक्ष में और भी नए एवं मीठे फलों की इच्छा रखता है तथा यह निश्चित ही है कि जब तक हम इन मीठे फलों अर्थात संविधान के अनिवार्य से लगने वाले संशोधनों को मूर्तरूप देने हेतु निजी स्वार्थ एवं पक्ष-विपक्ष की भावना से ऊपर नहीं उठेंगे तब तक हमारा विकास और राष्ट्र की खुशहाली का सपना अधूरा ही रहेगा। आज के गिरते राजनीतिक स्तर को देखकर प्रत्येक भारतीय चिंतित दिखाई देने लगा है। इस चिंता का विषय निश्चित रूप से यही है कि आज की दलगत राजनीति में क्या सकारात्मक परिवर्तन हो पाएगा ? क्या हमारे संविधान में ऐसा परिवर्तन संभव है कि हमारे देश के कर्णधार संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठकर तथा मिल-जुलकर राष्ट्रीय विकास की धारा में शामिल हो पाएँ। शायद हाँ शायद न। यही प्रश्न हमारे भविष्यपथ का दिशा सूचक है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 123 ☆ अहम् और अहंकार..(3) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 123 ☆ अहम् और अहंकार..(3) ?

हमारी संस्कृति का घोष है-‘अहं ब्रह्मास्मि।’ मोटे तौर पर इसका अर्थ ‘मैं स्वयम् ब्रह्म हूँ’, माना जाता है। ब्रह्म याने अपना भाग्य खुद लिखने में समर्थ।  ध्यान देनेवाली बात है कि अहं को ब्रह्म कहा गया, न कि अहंकार  को। अहम् की विशेषता है कि वह अकेला होता है। कठिन स्थितियों से घिरा व्यक्ति हर तरफ से हारकर अंत में धीरोचित्त होकर अपने आप से संवाद करता है। कोई दूसरा व्यक्ति कोई बात समझाये तो अनेक बार हम उत्तर भी नहीं देते, डायलॉग (जिसमें दो लोगों में बातचीत हो), मोनोलॉग (स्वगत) हो जाता है। अपने आप से संवाद करने का आनंद ये है कि प्रश्नकर्ता और उत्तर देनेवाला एक ही है। जो चेला, वही गुरु। अद्वैत का चरमोत्कर्ष है स्व-संवाद। स्व-संवाद का फलित है- अपने अहम् के प्रति विश्वास का पुनर्जागरण। यह पुनर्जागरण व्यक्ति के भीतर साहस भरता है। बिना किसी को साथ लिए वह एकाकी से समूह हो जाता है। समूह होने का अर्थ है, अपने विराट रूप का दर्शन खुद करना। वैसा ही विराट रूप, जैसा श्रीकृष्ण ने महाभारत में पार्थ को दिखाया था। सहस्त्रों हाथ, सहस्त्रों पैर, सहस्त्रों मुख! अदम्य जिजीविषा से संचारित होकर लघु से प्रभु होकर हुंकार भरकर वह संकट के सामने सीना तानकर खड़ा हो जाता है। संकट तो मूलरूप से भीरू प्रवृत्ति के ही होते ही  हैैं। वे तब तक ही व्यक्ति के आगे खड़े होते हैं, जब तक व्यक्ति सामना करने के लिए उनके आगे खड़ा नहीं होता। मुकाबले के लिए व्यक्ति के सामने खड़े होते ही संकट पलायन कर जाते हैं। ये है अहम् की शक्ति अर्थात् ‘अहं ब्रह्मास्मि।’

अहंकार की स्थिति इसके विरुद्ध है। अहंकार के लिए व्यक्ति, दूसरों से अपनी तुलना करता है। तुलना के लिए दूसरे याने समूह की आवश्यकता है। ‘मैं बाकियों से बेहतर हूँ , बाकियों से आगे हूँ, बाकियों से अधिक ज्ञानी हूँ ’ का भाव दंभ का कारक बनता है। ये ‘बाकी’ कौन हैं? कितने बाकियों को जानता है वह? जितनी दूर तक देख पाता है, उतने ही बाकियों से तुलना करता है। निरंतर ‘नारायण-नारायण’ का जाप करनेवाले नारदमुनि ने बाकियों से अपनी तुलना की। ‘नारायण का जितना जाप मैं करता हूँ, उतना  ब्रह्मांड में कोई नहीं करता। मैं भगवान का सबसे बड़ा भक्त हूँ।’ अहंकार पनपा। नारायण से पूछा-‘आपका सबसे बड़ा भक्त कौन है?’ नारायण मंद-मंद हँसे और पृथ्वी  के एक कृषक का नाम लिया। अपमानित और झल्लाये नारद ने किसान के यहाँ आकर देखा तो उनका माथा चकरा गया। किसान सुबह खेत पर जाते समय दो बार नारायण का नाम लेता और  संध्या समय लौटकर दो बार जपता। ज़रूर प्रभु को गलतफहमी हुई है। नारायणधाम पहुँचे तो प्रभु ने कुछ कहने-सुनने का अवसर दिये बिना ही ऊपर तक दूध से लबालब भरा हुआ एक कटोरा थमा दिया और कहा, ‘नारद इसे शीघ्रतिशीघ्र कैलाश पर महादेव को दे आओ, ध्यान रहे दूध की एक बूँद भी न छलके अन्यथा महादेव के कोप का भाजन होना पड़ेगा।’ पूरे रास्ते नारद संभलकर चले। दूध पर ध्यान इतना कि जन्मांतरों से चला आ रहा नारायण का जाप भी छूट गया।

अहंकार समाप्त हुआ,‘..मैं दूध पर ध्यान रखने भर के लिए नारायण को  भूल गया, पर वह किसान तो गर्मी-सर्दी-बारिश, सुख, दुख हर स्थिति में सुबह-शाम प्रभु का स्मरण नहीं भूलता, वह श्रेष्ठ है।’ इसलिए कहा कि जितना दिखता है, वह अंतिम नहीं है।

चौरासी लाख योनियों के असंख्य प्राणी, उनके अनगिनत गुण, हरेक का अपना ज्ञान, उनकी तुलना में हम कहाँ हैं? देखने को दृष्टि में बदलेेंगे तो अहंकार, आकार को फेंक कर निष्पाप, अबोध बालक -सा गोद में खेलने लगेगा। व्यक्ति यदि अपने अहम् में समाज को अंतर्निहित कर ले तो वह  महानायक बन जाता है। वह अपना उद्धार तो करता ही है, समाज के उद्धार का भी माध्यम बन जाता है। ध्यान देनेवाली बात है कि अंतर्निहित करना और आकार देना अलग-अलग है। जैसे गर्भिणी शिशु को अंतर्निहित रखती है, वैसी भावना यदि समष्टि को लेकर विकसित हो जाए तो समष्टि भी अपने जैसी ही दिखने लगती है। जैसी दृष्टि- वैसी सृष्टि। प्रकृति का कोई भी कार्यकलाप एकांगी नहीं होता, हर क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है। आप जिस भाव से सृष्टि को देखेंगे, वही भाव सृष्टि आपको लौटायेगी। अर्थात् सृष्टि आँख की पुतलियों में समाई हुई है। अहंकार का ऐनक हटाकर, अहम् का अंजान डालकर सृष्टि देखें। ‘ लाली मेरे लाल की जित देखूँ, तित लाल, लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।’  भान रहे कि अहम् और अहंकार के बीच अदृश्य-सी पतली रेखा है। अहम् जीवन धन्यता का चालक है जबकि अहंकार विनाश का वाहक है। इति।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साहित्यिक पत्रकारिता : कल, आज और कल ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

 (जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)। 

☆  साहित्यिक पत्रकारिता :  कल, आज और कल ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

मेरे बड़े भाई फूलचंद मानव उम्र के इस पड़ाव पर भी किसी युवा की तरह सक्रिय हैं । यह देख कर खुशी भी होती है और प्रेरणा भी मिलती है । मैं लगभग चार दशक से ऊपर इनकी स्नेह छाया में हूं । मेरी साहित्यिक यात्रा के हर पड़ाव पर मेरा इनका साथ है । यहाँ तक कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों सम्मान के भी हम एक दूसरे के साक्षी रहे । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष के तीन साल की अवधि में कितनी ही शामें इनके घर ठहाकों के साथ बिताईं और कुछ गोष्ठियां भी कीं ।

साहित्यिक पत्रकारिता से मेरा लगाव और जुड़ाव शुरू से ही है । हालांकि मूलतः मैं कथा विधा से जुड़ा हूं -कथा और लघुकथा । इसके बावजूद मुझे निर्मल वर्मा और मणि मधुकर के साहित्यिक सफ़रनामे बहुत लुभाते रहे । निर्मल वर्मा से तो मेरी चिट्ठी पत्री और फोन पर बातचीत भी होती रही । उनकी ‘चीड़ों पर चांदनी’ इस विधा की बहुत लुभावनी पुस्तक है । अज्ञेय की ‘अरे यायावर रहेगा याद’ और मोहन राकेश की ‘आखिरी चट्टान तक’ पुस्तकें चाहकर भी मेरे हाथ नहीं लगीं । हालांकि मैं यात्रा करते करते कन्याकुमारी की आखिरी चट्टान तक पहुंचा जरूर । प्रकाशक श्रीपत राय जी तक पहुंचा लेकिन पुस्तकें आउट ऑफ स्टाक मिलीं । आज तक इन्हें न पढ़ पाने का खेद है । मणि मधुकर के यात्रा संस्मरण की एक प्रारम्भिक पंक्ति दिल को छू गयी -अभी अभी लौटा हूं और मैंने जूते उतारे हैं और वहीं की मिट्टी और यादें मेरे साथ चली आई हैं । क्या बात और क्या शुरुआत । इसी तरह निर्मल  वर्मा ने जो हरिद्वार के कुंभ मेले का ‘दिनमान’ के लिए वर्णन किया और नर्मदा नदी के किनारे किनारे जाकर जो लिखा वह भी सदैव आदर्श बना रहा । क्या ऐसे संस्मरण या साहित्यिक पत्रकारिता भी की जा सकती है ? सच । आज तक विश्वास नहीं होता । विद्यानिवास मिश्र और कुबेर दत्त के आलेखों को भी इतने ही प्यार से पढ़ता रहा । विद्यानिवास मिश्र ने तो नवभारत टाइम्स से विदाई पर लिखा कि जैसे गली में ठेले पर विविध चीज़ें लाद कर बेचने वाला आता है , ऐसे ही हम संपादक भी अखबार में विविध काॅलम लेकर आते  हैं । आज मैं इन सबको समेट कर जा रहा हूं । क्या कहा और कितनी सरलता से कह दिया ।

मैं दैनिक ट्रिब्यून में उप संपादक बन कर चंडीगढ़ आया । मेरी खुशकिस्मती कि मुझे पहले सहायक संपादक और बाद में संपादक विजय सहगल का स्नेह और आत्मीयता मिली । सबसे पहले मुझे सेक्टर 47 के एक तंदूर वाले पर लिखने का आदेश मिला । मैं वहाँ गया और बातचीत की और आधी रात तक अपनी पहली असाइनमेंट को बेहतर तरीके से पूरा करने पर विचार करता रहा । आखिर भवानी प्रसाद मिश्र की कविता का शीर्षक ही काम आया – जी हां हुजूर, मैं गीत बेचता हूं और इसी तर्ज पर शीर्षक दिया-जी हां हुजूर, मैं तंदूर बेचता हूं और उस विकलांग की सारी पारिवारिक व सामाजिक परेशानियों को लिख डाला। वह पहला ही आलेख बहुत पसंद किया गया । इसके बाद मुझे दिल्ली भेजा गया अक्तूबर में गांधी जयंती पर राजघाट के एक दृश्य के लिए । मैं वहां गया। सब देखा। गांधी की समाधि से लेकर प्रतिष्ठान तक । वापस आकर सोचा । क्या और कैसे नया लिखा जाए ? फिर बाहर फूल बेचने वाली वृद्धा ध्यान में आई । वहीं से शुरू किया और किसी गीत की तरह वहीं खत्म किया कि कैसे हम श्रद्धा और विश्वास से समाधि स्थल तक जाते हैं लेकिन गांधी के विचार तक नहीं छूते हमें । क्यों ? मुन्ना भाई जैसी फिल्म भी इसी ओर संकेत करती है । फूल, विश्वास और श्रद्धा सब कुछ होते हुए भी हम गांधी की राह से दूर होते जा रहे हैं । जरा जरा सी बात पर रक्तरंजित आंदोलन क्यों ? इसी तरह जगरांव के पास ढुढिके भेजा लाला लाजपत राय के जन्म स्थान पर बने स्मारक पर संस्मरण लिखने के लिए । विजय सहगल मेरे अंदर खटकड़ कलां के शहीद भगत सिंह के पुरखों के गांव को पहचानते थे । वह आलेख ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुआ था । इसी को देखते जगरांव के निकट ढुढिके  भेजा । मुझे याद है जब इसे देखने के बाद लौटा तो आधी रात हो गयी थी और मैं बारिश  में बुरी तरह भीग कर घर आया तो पत्नी ने कहा कि ऐसे तो बीमार हो जाओगे और मुगालते में न रहो कि बहुत बड़े पत्रकार बन जाओगे । पर मुझे सुकून था कि मैं एक ऐसी बारिश में भीगा हूं जिसमें मोहन राकेश का कालिदास भीगा होगा ।

आज देखता हूं कि साहित्यिक पत्रकारिता की भूमि बंजर होती जा रही है । पत्र पत्रिकाओं में इसके लिए कोई जगह नहीं बची । या रखी नहीं गयी । मैंने एक जुनून में साहित्यिक लोगों के इंटरव्यूज किए और ‘यादों की धरोहर’ के रूप में इस पुस्तक के दो संस्करण जैसे हाथों हाथ गये और ‘हिमाचल दस्तक’ ने इसका धारावाहिक प्रकाशन शुरू किया उससे लगा कि शायद अनजाने में मुझसे कुछ अच्छा काम हो गया है । नया ज्ञानोदय में काशीनाथ सिंह का इंटरव्यू ध्यान में आता है और व्यंग्य यात्रा के त्रिकोणीय इंटरव्यूज भी एक नयी सूझ है । इस तरह के प्रयोग होते रहने चाहिएं ।

जहां भी हम ऐसे संस्मरण या प्रसंग लिखें वहां कहीं न कहीं विचार की चिंगारी जरूर छोड़ें । नया प्रतीक में प्रफुल्ल चंद्र ओझा का मुंशी प्रेमचंद पर लिखा संस्मरण बहुत ही प्रेणाप्रद रहा और अनेक मंचों पर मैंने इसे सुनाया । आखिर में इतना ही कहना चाहूँगा ;

इस सदन में मैं अकेला ही दीया नहीं हूं लेकिन इसके लिए स्पेस बची रहनी चाहिए पत्र पत्रिकाओं में ,,,

 

© श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 117 ☆ ग़लत सोच : दु:खों का कारण ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़लत सोच : दु:खों का कारण। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 117 ☆

☆ ग़लत सोच : दु:खों का कारण

ग़लत सोच के लोगों से अच्छे व शुभ की अपेक्षा-आशा करना हमारे आधे दु:खों का कारण है, यह सार्वभौमिक सत्य है। ख़ुद को ग़लत स्वीकारना सही आदमी के लक्षण हैं, अन्यथा सृष्टि का हर प्राणी स्वयं को सबसे अधिक बुद्धिमान समझता है। उसकी दृष्टि में सब मूर्ख हैं; विद्वत्ता में निकृष्ट हैं; हीन हैं और सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम हैं। ऐसा व्यक्ति अहंनिष्ठ व निपट स्वार्थी होता है। उसकी सोच नकारात्मक होती है और वह अपने परिवार से इतर कुछ नहीं सोचता, क्योंकि उसकी मनोवृत्ति संकुचित व सोच का दायरा छोटा होता है। उसकी दशा सावन के अंधे की भांति होती है, जिसे हर स्थान पर हरा ही हरा दिखाई देता है।

वास्तव में अपनी ग़लती को स्वीकारना दुनिया सबसे कठिन कार्य है तथा अहंवादी लोगों के लिए असंभव, क्योंकि दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है। वह हर अपराध के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है, क्योंकि वह स्वयं को ख़ुदा से कम नहीं समझता। सो! वह ग़लती कर ही कैसे सकता है? ग़लती तो नासमझ लोग करते हैं। परंतु मेरे विचार से तो यह आत्म-विकास की सीढ़ी है और ऐसा व्यक्ति अपने मनचाहे लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। उसके रास्ते की बाधाएं स्वयं अपनी राह बदल लेती हैं और अवरोधक का कार्य नहीं करती, क्योंकि वह बनी-बनाई लीक पर चलने में विश्वास नहीं करता, बल्कि नवीन राहों का निर्माण करता है। अपनी ग़लती स्वीकारने के कारण सब उसके मुरीद बन जाते हैं और उसका अनुसरण करना प्रारंभ कर देते हैं।

ग़लत सोच के लोग किसी का हित कर सकते हैं तथा किसी के बारे में अच्छा सोच सकते हैं; सर्वथा ग़लत है। सो! ऐसे लोगों से शुभ की आशा करना स्वयं को दु:खों के सागर के अथाह जल में डुबोने के समान है, क्योंकि जब उसकी राह ही ठीक नहीं होगी; वे मंज़िल को कैसे प्राप्त कर सकेंगे? हमें मंज़िल तक पहुंचने के लिए सीधे-सपाट रास्ते को अपनाना होगा; कांटों भरी राह पर चलने से हमें बीच राह से लौटना पड़ेगा। उस स्थिति में हम हैरान-परेशान होकर निराशा का दामन थाम लेंगे और अपने भाग्य को कोसने लगेंगे। यह तो राह के कांटों को हटाने लिए पूरे क्षेत्र में रेड कारपेट बिछाने जैसा विकल्प होगा, जो असंभव है। यदि हम ग़लत लोगों की संगति करते हैं, तो उससे शुभ की प्राप्ति कैसे होगी ? वे तो हमें अपने साथ बुरी संगति में धकेल देंगे और हम लाख चाहने पर भी वहां से लौट नहीं पाएंगे। इंसान अपनी संगति से पहचाना जाता है। सो! हमें अच्छे लोगों के साथ रहना चाहिए, क्योंकि बुरे लोगों के साथ रहने से लोग हमसे भी कन्नी काटने लगते हैं तथा हमारी निंदा करने का एक भी अवसर नहीं चूकते। ग़लती छोटी हो या बड़ी; हमें उपहास का पात्र बनाती है। यदि छोटी-छोटी ग़लतियां बड़ी समस्याओं के रूप में हमारे पथ में अवरोधक बन जाएं, तो उनका समाधान कर लेना चाहिए। जैसे एक कांटा चुभने पर मानव को बहुत कष्ट होता है और एक चींटी विशालकाय हाथी को अनियंत्रित कर देती है, उसी प्रकार हमें छोटी-छोटी ग़लतियों की अवहेलना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इंसान छोटे-छोटे पत्थरों से फिसलता है; पर्वतों से नहीं।

‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ अक्सर यह संदेश हमें वाहनों पर लिखित दिखाई पड़ता है, जो हमें सतर्क व सावधान रहने की सीख देता है, क्योंकि हमारी एक छोटी-सी ग़लती प्राण-घातक सिद्ध हो सकती है। सो! हमें संबंधों की अहमियत समझनी चाहिए चाहिए, क्योंकि रिश्ते अनमोल होते हैं तथा प्राणदायिनी शक्ति से भरपूर  होते हैं। वास्तव में रिश्ते कांच की भांति नाज़ुक होते हैं और भुने हुए पापड़ की भांति पल भर में दरक़ जाते हैं। मानव के लिए अपेक्षा व उपेक्षा दोनों स्थितियां अत्यंत घातक हैं, जो संबंधों को लील जाती हैं। यदि आप किसी उम्मीद रखते हैं और वह आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता, तो संबंधों में दरारें पड़ जाती हैं; हृदय में गांठ पड़ जाती है, जिसे रहीम जी का यह दोहा बख़ूबी प्रकट करता है। ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय/ टूटे से फिर ना जुरै, जुरै तो गांठ परि जाए।’ सो! रिश्तों को सावधानी-पूर्वक संजो कर व सहेज कर रखने में सबका हित है। दूसरी ओर किसी के प्रति उपेक्षा भाव उसके अहं को ललकारता है और वह प्राणी प्रतिशोध लेने व उसे नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास करता है। यहीं से प्रारंभ होता है द्वंद्व युद्ध, जो संघर्ष का जन्मदाता है। अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। इसलिए हमें सबको यथायोग्य सम्मान ध्यान देना चाहिए। यदि हम किसी बच्चे को प्यार से आप कह कर बात करते हैं, तो वह भी उसी भाषा में प्रत्युत्तर देगा, अन्यथा वह अपनी प्रतिक्रिया तुरंत ज़ाहिर कर देगा। यह सब प्राणी-जगत् में भी घटित होता है। वैसे तो संपूर्ण विश्व में प्रेम का पसारा है और आप संसार में जो भी किसी को देते हो; वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिए अच्छा बोलो; अच्छा सुनने को मिलेगा। सो! असामान्य परिस्थितियों में ग़लत बातों को देख कर आंख मूंदना हितकर है, क्योंकि मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त न करने से सभी समस्याओं का समाधान स्वतः निकल आता है।

संसार मिथ्या है और माया के कारण हमें सत्य भासता है। जीवन में सफल होने का यही मापदंड है। यदि आप बापू के तीन बंदरों की भांति व्यवहार करते हैं, तो आप स्टेपनी की भांति हर स्थान व हर परिस्थिति में स्वयं को उचित व ठीक पाते हैं और उस वातावरण में स्वयं को ढाल सकते हैं। इसलिए कहा भी गया है कि ‘अपना व्यवहार पानी जैसा रखो, जो हर जगह, हर स्थिति में अपना स्थान बना लेता है। इसी प्रकार मानव भी अपना आपा खोकर घर -परिवार व समाज में सम्मान-पूर्वक अपना जीवन बसर कर सकता है। इसलिए हमें ग़लत लोगों का साथ कभी नहीं देना चाहिए, क्योंकि ग़लत व्यक्ति न तो अपनी ग़लती से स्वीकारता है; न ही अपनी अंतरात्मा में झांकता है और न ही उसके गुण-दोषों का मूल्यांकन करता है। इसलिए उससे सद्-व्यवहार की अपेक्षा मूर्खता है और समस्त दु:खों कारण है। सो! आत्मावलोकन कर अंतर्मन की वृत्तियों पर ध्यान दीजिए तथा अपने दोषों अथवा पंच-विकारों व नकारात्मक भावों पर अंकुश लगाइए तथा समूल नष्ट करने का प्रयास कीजिए। यही जीवन की सार्थकता व अमूल्य संदेश है, अन्यथा ‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाए’ वाली स्थिति हो जाएगी और हम सोचने पर विवश हो जाएंगे… ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ का सिद्धांत सर्वोपरि है, सर्वोत्तम है। संसार में जो अच्छा है, उसे सहेजने का प्रयास कीजिए और जो ग़लत है, उसे कोटि शत्रुओं-सम त्याग दीजिए…इसी में सबका मंगल है और यही सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – निठल्ला चिंतन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – निठल्ला चिंतन ??

कभी विचार किया कि तुम्हारे न होने से कितने लोगों को पर असर पड़ेगा? पत्नी-बच्चों पर, बहन पर, भाई पर, माता-पिता हैं तो उन अभागों पर, एकाध संगी-साथी पर, और…..?

नाम सूझ नहीं रहे न! …सच कहूँ, तुम्हारे होने का भी सिर्फ़ इन्हीं लोगों पर असर पड़ता है।

बाकी ये जो सोच रहे हो कि तुम हो तो दुनिया चल रही है, यह अपने समय और हर समय का सबसे बड़ा मज़ाक है।

…मानना न मानना, तुम्हारी मर्ज़ी..!

©  संजय भारद्वाज

4:53 बजे, 20.01.2022

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 68 ☆ स्वाद नहीं स्वास्थ्य है सर्वोपरि ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “स्वाद नहीं स्वास्थ्य है सर्वोपरि।)

☆ किसलय की कलम से # 68 ☆

☆ स्वाद नहीं स्वास्थ्य है सर्वोपरि ☆ 

“बाहर का खाना कितना स्वास्थ्यप्रद? कुछ ऐसे तथ्य जो आपको सचेत करेंगे”

अक्सर सभी के मन में यह विचार तो आता ही है कि होटल अथवा बाहर के लंच-डिनर का खाना हमेशा अच्छा क्यों लगता है? और हम गाहे-बगाहे खाना खाने बाहर जाने क्यों उतावले रहते हैं। किसी के भी आमंत्रण पर प्रीतिभोज में चटखारे भरते हुए छककर खाने की लालसा क्यों रखते हैं? बाहर के भोजन में ऐसी क्या विशेषताएँ होती हैं अथवा यह कहें कि घर के बनाए भोजन में ऐसी क्या कमियाँ होती हैं कि हम घर के बने भोजन के साथ घर पर निर्मित खाद्य पदार्थों का कमतर आकलन करते हैं। आईये, हम चिंतन करें कि आखिर हमारी मानसिकता ऐसी क्यों बनी है कि हमें बाहर का भोजन और पेय ज्यादा पसंद आते हैं।

यहाँ बताना आवश्यक है कि हमारे घर के पारंपरिक भोजन में ऐसी सभी चीजों को शामिल किया जाता है जो हमारे अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। दैनिक खानपान के अतिरिक्त पापड़, बड़ी, अचार, सुखाई गई सब्जी-भाजी, अदरक, धनिया, मिर्च-मसाले आदि भी घर पर पूरे वर्ष के लिए छान, पीस और सुखाकर सुरक्षित रख लिए जाते हैं। ऋतुओं के अनुरूप घर में खाना बनता है। दही कब खाना है, बड़ियाँ कब बनाना है, भाजियाँ या करेला कब नहीं खाना है, ये सभी बातें गृहणियाँ भलीभाँति जानती और समझती हैं। सबसे अधिक और सबसे कम हानिकारक कौन-कौन से खाद्य पदार्थ हैं, उनका कम और ज्यादा उपयोग करना भी पता रहता है। घरेलू खाने एवं पेय पदार्थों में स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाले रसायन, रंग, मसाले यहाँ तक कि भोज्य वनस्पतियों के भी वे हिस्से जो हमें हानि पहुँचा सकते हैं उनके उपयोग से बचा जाता है।

हमारे आयुर्वेद में विस्तार से उन सभी बातों का वर्णन मिलता है जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक और हानिकारक हैं। घरों में प्रयास रहता है कि घर के सभी सदस्य दिन के दोनों वक्त ताजा भोजन ही करें। खाने और पीने की हर सामग्री को अच्छे से साफ किया जाता है। उनकी ताजगी और पौष्टिकता का ध्यान रखा जाता है। पेय पदार्थों की शुद्धता और ताजगी के साथ-साथ स्वाद तथा बासेपन का भी ध्यान रखा जाता है। रसोईघर की पूर्ण स्वच्छता का ध्यान रखना दिनचर्या में शामिल होता ही है। पेयजल एवं अन्य कार्यों के उपयोग हेतु जल की शुद्धता व उसके प्रदूषण का ध्यान रखा जाता है। प्रतिदिन रसोई घर में काम करने के पूर्व स्नान और ईश्वर की पूजा-पाठ तक को महत्त्व दिया जाता है। खाना खाने के समय भी डाइनिंग रूम में बाहरी लोगों का दखल कम ही होता है। एक तरह से हम देखते हैं कि घर पर स्वास्थ्यकारी (हाइजेनिक) भारतीय परंपरा का निर्वहन किया जाता है। यही कारण था कि पहले हमारे देश में नाममात्र के डॉक्टर व चिकित्सालय होने के बावजूद आरोग्यता का ग्राफ काफी ऊँचा था। इन्हीं बातों का आज भी यदा-कदा उल्लेख होता ही रहता है।

आज उपरोक्त तथ्यों के बारीकी से अध्ययन की आवश्यता है कि हम उपरोक्त परंपराओं, प्रथाओं अथवा रीतियों का कितना अनुसरण कर पाते हैं? महीने भर घर का भोजन खाने के बाद यदि एक दिन भी बाहर किया गया अस्वास्थ्यप्रद भोजन निश्चित रूप से आपके स्वास्थ्य के लिए भारी पड़ सकता है, क्योंकि प्रदूषण, छुआछूत, विषाक्तता, असंगत मिलावट तो एक बार में ही अपना प्रभाव दिखा देती है। घर के दो-चार-दस सदस्यों के खाने की और सामूहिक भोज अथवा होटलों के खाने की शुद्धता की तुलना किसी भी स्तर, श्रेणी और विषय में श्रेष्ठ हो ही नहीं सकती। इसके लिए केवल यही उदाहरण पर्याप्त है कि घरेलू उपयोग हेतु दस किलो गेहूँ अथवा चावल के कंकड़, घुन आदि निकाल कर धोने सुखाने की प्रक्रिया में निश्चित रूप से ज्यादा शुद्धता होती है न कि एक साथ दो-चार सौ किलो इसी सामग्री को मशीनी प्रक्रिया से शुद्धता प्राप्त होगी। यह बात तार्किक तो नहीं लेकिन प्रायोगिक रूप से शत-प्रतिशत सिद्ध है। हम खाद्य सामग्री अथवा पकवानों में कृत्रिम रंग व रसायन मिलाकर आकर्षक व स्वादिष्ट तो बना सकते हैं, लेकिन स्वास्थ्यप्रद कभी नहीं बना सकते, क्योंकि बाहरी खाने में स्वाद, रंग और आकर्षण लाने के लिए उपयोग में लाई जाने वाली चीजें लगभग 95 प्रतिशत हानिकारक ही होती हैं। कुछ स्वास्थ्यकारक चीजों की अधिकता भी हमें हानि पहुँचाती हैं। घी, तेल, मेवा, शक्कर आदि की ज्यादा मात्रा भी हानिकारक होती है। बहुसंख्य हाथों द्वारा निर्मित, सामूहिक भोज हेतु रखे गए भोजन को हजारों हाथों द्वारा, वही चम्मच, वही खाद्य पकवान पकड़ने, छूने और बिना दूरी का ध्यान रखे एक साथ खाना कितना सुरक्षित और हितकर होगा। बस, इन्हीं तथ्यों को अपने घर की डाइनिंग टेबल पर रखे भोजन और अपने ही दो-चार पारिवारिक लोगों के बीच बैठकर खाने को स्मरण करने की आज सभी को आवश्यकता है।

बाहरी भोजन में तेल, घी, खटाई, मसालों की अधिकता तो होती ही है, इनको अजीनोमोटो, सॉस, विनेगर, डिब्बाबंद सामग्रियों, और तो और कभी-कभी बतौर घी के विकल्प के रूप में जानवरों की चरबी के उपयोग से बेहद हानिकारक बना दिया जाता है। पाया गया है कि होटलों अथवा सामूहिक भोज में खाना बनाने वाले लोग बासे, खराब होने की स्थिति में आई सामग्री, कीड़े, मक्खियाँ आदि तक को ईमानदारी से अलग नहीं करते। छिलके व अनुपयोगी हिस्सों को भी मिलाकर आपको खिला दिया जाता है। शायद इसीलिए यह जुमला प्रसिद्ध है कि यदि आप एक बार बाहर का खाना बनते देख लोगे तो फिर बाहर का खाना कभी नहीं खाओगे। गंदे हाथ, खाद्य पदार्थों में पसीना टपकाते, खाना बनाते समय साफ-सफाई पर ध्यान न रखने जैसी कई बातें हैं, जिनका कड़ाई से पालन किया ही नहीं जाता। खाना बनाने, परोसने तथा खाने के बर्तनों की स्वच्छता का कोई पैमाना निर्धारित नहीं होता। आप कितना ही ध्यान दो, लेकिन कहीं न कहीं चूक होती ही है, जो हमारे स्वास्थ्य को बिगाड़ सकती है। खाने में कभी स्वाद बढ़ाने के लिए, तो कभी सस्ते होने के कारण मांस, रक्त व जैविक अंशों से निर्मित वस्तुएँ भी मिलाकर खिला दी जाती हैं। केक में अंडे, चीजकेक और च्युंगम आदि में जिलेटिन, नूडल्स में सोडियम इनोसिनेट, ऑरेंज जूस में इन्कोवी (नमकीन स्वाद की छोटी मछली) और सार्डिन, चिप्स में पोर्क एंजाइम का उपयोग किया जाता है। कई बार पनीर में रेनेट नामक घटक मिला दिया जाता है। चीनी की ब्लीचिंग में भी जानवरों की हड्डियों का उपयोग किया जाता है। ये सारे पदार्थ मांसाहारी होने के बावजूद उत्पादों में स्पष्टतः नहीं लिखे जाते। इन मांसाहारी पदार्थों का मिलाना निश्चित रूप से शाकाहारियों को अंधेरे में रखने जैसा तो है ही, ये भोजन को हानिकारक भी बनाते हैं।

वर्तमान समय में प्राकृतिक व जैविक खाद से पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के उपयोग पर इसीलिए जोर दिया जाने लगा है, क्योंकि इनसे स्वास्थ्य को खतरा नहीं होता। पिज्जा, बर्गर, नूडल्स, केक, मोमोज आदि ऐसे ही खाद्य पदार्थ है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं कहे जा सकते। वैसे आजकल हमारे समाज में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता देखने तो मिलने लगी है, लेकिन ये जागरूकता अभी भी अपेक्षाकृत कम है। आज जरूरत इस बात की है कि हम अपरिहार्य परिस्थितियों को छोड़कर स्वस्फूर्तभाव से बाहरी भोजन व भोज्य पदार्थों के उपयोग का पूर्णतः परहेज करें।

हम सब ये बातें अच्छी तरह से जानते हैं कि इन धंधों में हमारे समाज के ही एक बड़े हिस्से की भागीदारी होती है। पूरा होटल बिजनेस, पूरे खाद्य पदार्थ उत्पादक व विक्रेताओं सहित कहीं न कहीं चिकित्सा जगत, दवा बाजार तक संलग्न है। कोल्ड ड्रिंक्स, फास्ट फुड और स्नैक्स विक्रेता सहित हम किस किसको रोक पाएँगे? अतः हमें खुद ही सतर्कता जागरूकता एवं परहेज रखने की आवश्यकता है। साथ ही खाद्य पदार्थ विक्रेताओं और पका-पकाया खाना बनाने के व्यवसाय से जुड़े लोगों को भी चाहिए कि वे भले ही अपने वास्तविक हानि-लाभ का ध्यान रखकर मूल्य निर्धारित करें, लेकिन सस्ते और मुनाफाखोरी के स्वार्थवश मिलावट से बाज आएँ।

यहाँ यह बात कहना भी जरूरी है कि शराब, गुटखा, तंबाकू, सिगरेट आदि के पैकेट पर वैधानिक चेतावनी के बावजूद जब एक बहुत बड़े नशे का व्यवसाय पहले से ही फल-फूल रहा है और उसे मानने के लिए आज तक अधिकांश लोग तैयार नहीं है। अब दिनोंदिन हमारे स्वास्थ्य को बुरी तरह से हानि पहुँचाने वाले इस बढ़ रहे व्यवसाय को भी रोक पाना बड़ा मुश्किल लगता है। हम वर्तमान में स्वाद के लिए अपनी जीभ के सामने नतमस्तक रहते हैं, जबकि हमें मानना ही होगा कि स्वाद नहीं स्वास्थ्य है सर्वोपरि। अब देखना रह गया है कि बाहर का बना खाना व बाहर के डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ हमारे स्वास्थ्य को कब तक बीमार बनाते रहेंगे और हम अपने आपको इन सब से कितना और कब तक दूर रख पाते हैं।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गुड़ – भाग-2 ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(ई- अभिव्यक्ति में श्री राकेश कुमार जी का स्वागत है। भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से अतीत और वर्तमान को जोड़ता हुए रोचक आलेख “गुड़” की श्रृंखला  का दूसरा भाग।)   

☆ आलेख ☆ गुड़ – भाग -2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे कवियों की कल्पना की उड़ान भी बड़ी ऊंची होती हैं। एक गीतकार ने तो यहां तक कह दिया “गुड़ नाल (से) इश्क मीठा” होता हैं।         

गुड़ खाने की आदत भी किसी नशे से कम नहीं होती हैं। पुराने जमाने में एक बहुत ही पहुंचे हुए साधु थे, सभी की समस्या चुटकी में सुलझा देते थे। एक दिन स्त्री अपने पुत्र को ले कर आई और कहा मेरा पुत्र गुड़ बहुत अधिक मात्रा में सेवन करता है, इसकी ये आदत छुड़वा दीजिए। साधु ने उनको तीन दिन बाद आने के लिए कहा, उसके बाद उस बालक का गुड़ खाना बंद हुआ। साधु के शिष्यों ने पूछा आप ने इतनी आसान सी समस्या को सुलझाने में तीन दिन का समय क्यों लिया। साधु बोले मैं स्वयं बहुत गुड़ खाता था, और चाह कर भी नहीं छोड़ पा रहा था, तो किस हक़ से इस बालक से छोड़ने के लिए कह सकता था।    

कुल मिलाकर गुड़ चीज़ ही ऐसी है। यदि आप किसी के चेहरे से मन की खुशी समझ सकते हैं, तो किसी गूंगे को गुड़ खाने के बाद उसके चेहरे को देखें। 

लोक भाषा में तो “गुड़ गोबर” का प्रयोग भी दैनिक भाषा में बहुधा हो ही जाता हैं।               

पंजाब प्रांत में तो स्त्री की सुंदरता का बखान “मर जवां गुड़ खाके” शब्द बोलकर किया जाता है। जयपुर शाखा में हमारे एक वरिष्ठ अधिकारी जो विदेश पदस्थापना में लंबा समय बीता कर स्वदेश लौटे थे। उन्होंने  कहा सर्दी सीजन में  लंच करने के बाद गुड़ खाया करे, बाज़ार से ले आना। दूसरे दिन उन्होंने पूछा की अच्छे गुड़ की पहचान क्या होती है। हमने कहा गुड़ तो सभी अच्छे होते हैं, तो वो बोले जिस गुड़ की ढेरी पर सब से अधिक चिंटे चिपके हो, वो ही गुड़ सब से बढ़िया और मीठा होता हैं। तो जब भी गुड़ खरीदने जाए तो इस बात का ध्यान अवश्य रखें।

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 122 ☆ अहम् और अहंकार – 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 122 ☆ अहम् और अहंकार..(2) ?

अहम् और अहंकार की अपनी विवेचना को आज आगे जारी रखेंगे। संसार नश्वर है। यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं। अपने समय पर विभिन्न कारणों से अहंकार करनेवाले भी काल के गाल में समा गये।

एक गृहस्थ ने कहा- ‘घर में मैं अकेला कर्ता हूँ, मैं हूँ तो घरवाले पेट भर रहे हैं। मुझे कुछ हो गया तो जाने क्या होगा?’ पीछे एक दुर्घटना में वह चल बसा। सूतक के दौरान रिश्तेदार और पास-पड़ोसी भोजन भेजते रहे, फिर बच्चों ने छोटी-मोटी नौकरी पकड़ ली। कथित कर्ता के न रहने पर भी उसके परिवार का पेट भरता रहा। कथित कर्ता को जिस श्मशान में फूँका गया, उसी की दीवार पर लिखा था-

मुरदे को प्रभु देत हैं कपड़ा, लकड़ा, आग

ज़िंदा नर चिंता करै, ताँ के बड़े अभाग। 

दुनिया में अकूत धन के लिए किसीको नहीं याद किया जाता, अनेक युगों में अनेक रूपवान स्त्रियाँ आईं-गईं, रूप भी आया-गया। प्रसिद्धि के अति भूखे अपने समय में जोड़तोड़ कर अखबारों में, मीडिया में आकर  दुनिया की आँखों में बने रहे, बाद में उन्हीं अखबारी कतरनों को निहारते उनका जीवन बीता। अपने अंतिम समय में दुनिया की आँखों के इन कथित तारों को न दीन मिला, न दुनिया। जिन्होंने अपने समय में पैंतरेबाजियों से दूसरोंं को विस्थापन का दंश दिया, बदला समय अपने साथ उनके लिए निर्वासन का शाप लाया।

अनेकदा ऐसा भास होता है कि ज्ञान भी समय की चक्की में पिसकर समाप्त होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिसे हम ज्ञान मान रहे हैं,वह मोटे तौर पर जानकारी का संग्रह मात्र है। वस्तुत: ज्ञान शाश्वत होता है। हर स्थिति में अचल और अडिग रहता है। ज्ञान अक्षय है। अतः सच्चा ज्ञानी अहम् अर्थात अस्तित्व बोध संपन्न तो होता है पर अहंकारी नहीं होता। पृथ्वी के सारे धनों में ज्ञान धन ही ऐसा है जो बाँटने से बढ़ता है। अन्य धन प्राप्त होने से आसक्ति  बढ़ती जाती है, ज्ञान विरक्ति के साधन से मन का सारा मैल धो डालता है। हरि को पाकर हरि से भी विरक्ति, ऐसी विरक्ति कि हरि आसक्त हो जाए। उत्कर्ष ऐसा कि जिसे साध्य मानकर यात्रा आरंभ की थी, उसे पाकर उससे भी आगे चल पड़े। साधन, साध्य हो गया और साध्य, साधन रह गया।

कबीरा मन ऐसा निर्मल भया जैसा गंगानीर

पाछै-पाछै हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर।

हरि से प्राप्त सामर्थ्य को प्राणपण से निष्काम भाव सहित हरि को अर्पित करनेवाला निरंहकारी,  हरि को अपना भक्त कर सकने की असाधारण संभावना का धनी होता है।

.. इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #105 ☆ मौन का संगीत – एकअनहद नाद ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 105 ☆

☆ मौन का संगीत – एकअनहद नाद ☆

अनहद नाद क्या है? यह क्यों है? आखिर इसकी जरूरत क्या है? यह विषय चिंतन का है। इस विषय पर साधना पथ पर चलने वाले अनेक योगी यति लोगों ने बहुत कुछ लिखा है। आज मैं अपने पाठक वर्ग से इस बिंदु पर अपने विचार साझा करना चाहता हूँ। यह मेरे अपने निजी विचार तथा अनुभव है। इस आलेख को आप पाठकों के समक्ष रख रहा हूँ  इस उम्मीद से कि साधना पथ पर चलने वाला कोई नवपथिक इस आलेख के आलोक में कुछ अनुभूति कर सकें,और अपने शाब्दिक प्रतिक्रिया से अभिसिंचित कर सकें।

अनहद नाद, मौन का गीत एवं संगीत है, जिसे मौन में रह कर ही सुना समझा जा सकता है, जो इस अदृश्य अंतरिक्ष में अनंत काल से गूंज रहा है गूंजता रहेगा। और अविराम बजता रहेगा। उसे सुनने के लिए कोलाहल युक्त वातावरण नहीं, बाह्यकर्णपटल की नहीं, उस शांत एकांत वातावरण तथा मौन की आवश्यकता है, जो ध्वनि प्रदूषण वायुप्रदूषण मुक्त हो। जहाँ आप शांत चित्त बैठकर मौन हों अपने अंतर्मन में उतर कर उस अनहद नाद की शांत स्वर लहरी में खोकर पूर्ण विश्राम पा सकें। जहां कोलाहल के गर्भ से उपजी अनिंद्रा तनाव व थकान न हो। बस चारों तरफ प्राकृतिक सौंदर्य बोध हो, शांति ही शांति हो, जहां न कुछ पाना बाकी हो न कुछ खोना शेष हो। जहां आत्मसत्ता का साम्राज्य हो और वहीं आपकी मंजिल भी। आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार, शिव से जीव के मिलन, नदी से सागर के मिलन की आत्मतृप्ति की प्रक्रिया मात्र दृष्टि गोचर हो। आत्मचेतना परमात्मसत्ता में समाहित हो और सूक्ष्म विराट में समाहित हो, अपना अस्तित्व मिटा दे। फिर उन्हीं परिस्थितियों में मुखर हो अनहद नाद प्रतिध्वनित हो उठे। मौन का वह संगीत अंतरात्मा के आत्मसाक्षात्कार सुख के साथ उर अंतर में उतर जाय।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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