हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 60 ☆ समाज में साहित्यिक शक्ति का होता बिखराव ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख समाज में साहित्यिक शक्ति का होता बिखराव ।)

☆ किसलय की कलम से # 60 ☆

☆ समाज में साहित्यिक शक्ति का होता बिखराव

जो साहित्यकार हमारे समाज में पथ प्रदर्शक की भूमिका निर्वहन करता चला आ रहा था। आज वही अन्य क्षेत्रों की तरह अनगिनत खेमों में बँटता जा रहा है। राजनीतिक पार्टियों के शीर्षस्थ नेताओं की तर्ज पर साहित्य के मठाधीश भी अपने-अपने खेमों का वर्चस्व बनाने में अपनी सारी बौद्धिक क्षमता झोंक देते हैं। काश! ये अपना बौद्धिक कौशल सार्थक सृजन में लगाते तो हमारे समाज की तस्वीर कुछ और होती। पद्मश्री और भारत रत्न जैसे अवॉर्डों तक के लिए ये मठाधीश अपनी संकलित शक्ति का उपयोग कर अपना उल्लू सीधा करने में पीछे नहीं हटते। शासकीय सम्मान चयन प्रक्रिया में कितनी भी पारदर्शिता की बात की जाए परंतु पूरे देश में फैले ये स्वार्थी लोग स्वयं अथवा अपने लोगों को सम्मान दिलाने में सफल हो ही जाते हैं। इनका रुतबा इतना होता है कि शीर्ष पर बैठे राजनेता तक इनके फरमानों को टाल नहीं पाते। अपने वक्तव्य अपनी पत्रिकाओं व अपने शागिर्दों की दम पर अपने ही समाज के लोगों की टाँग खींचना भर नहीं, उन्हें नीचा दिखाने से भी ये लोग नहीं चूकते। अपना पूरा नेटवर्क अपने प्रतिस्पर्धी के पीछे लगा देते हैं। वैसे तो आज का अधिकांश सृजन भी कई हिस्सों में ठीक वैसा ही बँट गया है, जिस तरह आज का चिकित्सक वर्ग आँख, दाँत, हड्डी, त्वचा, हृदय, मस्तिष्क आदि में बँटकर वहीं तक सीमित रहता है।

साहित्य लेखन काव्य, कहानी, गीत, ग़ज़ल, नाटक, प्रगतिवाद, छायावाद जैसी सैकड़ों शाखाओं में विभक्त हो गया है। हम अपनी किसी एक विधा में सृजन कर भला समाज के सर्वांगीण विकास की बात कैसे कह पाएँगे। वैसे भी अधिकांश साहित्यकार एक दूसरे की पीठ ठोकने और तालियाँ बजाने के अतिरिक्त और करते ही क्या हैं। आज सृजन के विषय भी समाजिक उत्थान के न चुनकर ऐसे विषयों का चयन किया जाता है जिससे सामाजिक हित के बजाय समाज में फूट की ही ज्यादा संभावना रहती है।

आलेख हों, कविताएँ हों अथवा कहानियाँ। इन विधाओं में भी लोग आज कट्टरवाद, धार्मिक उन्माद, जातिवाद जैसे वैमनस्यता के बीज बोने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इनका उद्देश्य बस सुर्खियों में रहना होता है। इनके लेखन से समाज को क्या मिलेगा, इससे इनको कोई फर्क नहीं पड़ता। तुलसी, कबीर जैसे मनीषी अब जाने कहाँ खो गए हैं। अर्थ और स्वार्थ के मोहपाश ने इन साहित्यकारों को ऐसा जकड़ लिया है कि ये अपने नैतिक दायित्व भी भूल बैठे हैं।

इन सब प्रपंचों से हटकर अब भी निश्छल साहित्य मनीषी कहीं-कहीं तारागणों के सदृश झिलमिलाते दिख जाते हैं लेकिन इनके प्रकाश पर अज्ञान का तिमिर भारी पड़ता है। वर्तमान में सार्थक और दिशाबोधी साहित्य पढ़ने में लोगों की रुचि ही नहीं रह गई है। अपनी व्यस्तताओं से जूझकर घर लौटे लोग हल्का-फुल्का अथवा कोई तनावहीन मनोरंजक साहित्य ही पढ़ना पसंद करते हैं। आज लोगों को स्वयं के अतिरिक्त समाज और देश की चिंता हो, ऐसा दिखाई नहीं देता। साहित्यकार वर्ग लगातार हिंदी लेखन के चलते भी आज तक कोई विशेष या नियमित पाठक वर्ग बनाने में असफल ही रहा है। ज्यादा से ज्यादा लोग दैनिक अखबार ही पढ़कर स्वयं को नियमित पाठक कहलाना पसंद करते हैं।

हम सभी देखा है कि आज अधिकांश प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो गया है और जो बची हैं वे भी बंद होने की कगार पर हैं। इसका भी वही कारण है कि हम अमुक विधा के साहित्य को देखना भी पसंद नहीं करेंगे। आज सबसे ज्यादा लिखे जाने वाले पद्य साहित्य को प्रकाशक भी छापने से कतराते लगे हैं। इनका अभिमत है कि पद्य के पाठकों की संख्या दिन प्रतिदिन घटती जा रही है, लेकिन मेरा ये अलग नजरिया है कि सौ में से सत्तर साहित्यकार पद्य लिखते हैं, अपनी पुस्तक छपवाते हैं और विजिटिंग कार्ड की तरह बाँटते रहते हैं। अब आप ही सोचिए कि ऐसे में कोई काव्य पुस्तकें दुकानों से भला क्यों खरीदेगा।

इस तरह इन सब बँटे साहित्यकारों को एक साथ एक मंच पर आना होगा। जब गद्य वाले कविता-गीत और गजल से प्यार करेंगे तब ही कवि-शायर गद्योन्मुख होंगे। मेरी मंशा यही है कि अब साहित्यिक गोष्ठियाँ भी मिली-जुली अर्थात गद्य और पद्य की एक साथ होना चाहिए और सभी विधाओं के साहित्यकारों की कम से कम एक जिलास्तरीय ‘एकीकृत संस्था’ भी होना आज की जरूरत है।

आज के क्षरित होते साहित्यिक स्तर से  वरिष्ठ और प्रबुद्ध साहित्यकार चिंतित होने लगे हैं। इन्होंने अपने प्रारंभिक काल में जो साहित्य पढ़ा था और आज जो पढ़ रहे हैं, इनके स्तर में बहुत फर्क आ गया है। उद्देश्य और मानवीय मूल्य बदल गए हैं। यहाँ तक कि लेखकीय दायित्व का भी निर्वहन नहीं किया जाता। यही वे सारी बातें हैं जिनके कारण पाठकों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। वहीं आज की बदलती जीवनशैली तथा अन्तरजालीय सुविधाओं के चलते आज सहज उपलब्ध साहित्य को पढ़कर वर्तमान पीढ़ी न अपनी संस्कृति जान पा रही है और न ही संस्कारों को अपना रही है। साठ-सत्तर के दशक तक पाठ्यक्रमों में ऐसे विषय निश्चित रूप से समाहित किये जाते थे, जिन्हें पढ़कर विद्यार्थी जीवनोपयोगी बातें सीखते थे और अंगीकृत भी करते थे। उन्हें समाज में रहने का तरीका, आदर, सम्मान और व्यवहारिक बातों की भी जानकारी हो जाती थी। असंख्य ऐसी पत्रिकाओं का प्रकाशन होता था, जो नई पीढ़ी और पाठकों को दिशाबोध कराने के साथ ही सार्थक मनोरंजन सामग्री का भी प्रकाशन होता था। ये सब बातें लुप्तप्राय होती जा रही हैं। बुद्धू-बक्से भी कम होते जा रहे हैं। आज तो एंड्रॉयड और आई-फोन का जमाना है, जो आज के हर इंसान की जेब में मिलेगा, जिससे आभास होता है कि सारी दुनिया उनकी जेब में सिमट आई है।

आज के बदलते समय और परिवेश में भी लिखे साहित्य के महत्त्व और औचित्य को नकारा नहीं जा सकता, इसलिए अभी भी वक्त है कि हम लेखन का तरीका बदलें। आगे आने वाली पीढ़ी को आदर्शोन्मुखी, व्यवहारिक, परोपकारी तथा पर्यावरण प्रेमी बनाएँ।

आज सारे साहित्यकारों पर बहुत बड़ी जवाबदारी आ पड़ी है कि वे समाज में गिरते हुए मानवीय मूल्यों को पुनर्स्थापित करने हेतु आगे आएँ। पश्चिमीकरण, स्वार्थ, असंवेदनशीलता को त्यागकर  सम्मान, मर्यादा और परोपकार जैसे भावों को समाज में पुनः जगाएँ और इसी दिशा में अपने सृजन की धारा बहाएँ। हो सकता है पाठकों को ये बातें हास्यास्पद लगें। वैसे भी सार्थक बातें प्रारंभ में कठिन और अटपटी जरूर लगती हैं लेकिन जब ये आदत और आचरण में आ जाएँ तो फिर आम हो जाती हैं।

अभी भी समय है इस साहित्य समाज के पास कि वह अपने सृजन को सार्थक और व्यापक बनाने हेतु एक साथ आगे आए और सब मिलकर समाज को मानवता के शिखर पर पहुँचाने में सहायक बने। साथ ही सिद्ध कर दे कि साहित्यकारों की कलम और उनके एकीकृत रूप में अतुल्य शक्ति होती है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #85 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में – 1 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में  के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #85 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में – 1 ☆ 

महात्मा गांधी विगत शताब्दी की ऐसी विलक्षण विभूति हुए जो आज भी कालजयी हैं। उनके विचारों को जितना पढ़ा गया, उस पर लिखा गया और विश्व जनमत में स्वीकार्य किया गया उतना गौरव शायद ही किसी विभूति को मिला होगा। गांधीजी की प्रासंगिकता क्यों बनी हुई है? यह उनके विचारों व कृतित्व का पारायण और उनकी यात्राओं से  संबंधित विवरणों को जानकर ही समझा जा सकता है।  गांधीजी ने कहा था कि उनका जीवन ही संदेश है और उनके जीवन के दर्शन हमें होते हैं, उनके यात्रा वृतांतों को पढ़कर। गांधीजी ने जीवन भर भारत की विशाल भूमि को कई बार नापा। उनकी कोई भी यात्रा कभी भी निरुद्देश्य नहीं रही। वे जहां  कहीं गए, समय के एक एक पल का सदुपयोग, उन्होनें  भारत के जनजागरण में किया। मध्य प्रदेश की उनकी यात्राएं इस तथ्य की पुष्टि करती हैं। वे मध्य प्रदेश सर्वप्रथम 1918 में आए, उद्देश्य था हिन्दी सम्मेलन की अध्यक्षता करना। यहाँ उन्होनें हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की अगर पैरवी की तो दूसरी ओर वे उपाय भी सुझाए जिससे हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया जा सकता है। गांधीजी ने जब असहयोग आंदोलन शुरू किया तो उसके बाद उनकी एक सभा मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जैसे छोटे से कस्बे में हुई। यहां उनके द्वारा दिया गया भाषण वस्तुत: स्वराज प्राप्ति के लिए जनता के आह्वान की ऐसी उद्घोषणा थी जिसने देश को झकझोरने में अहम भूमिका निभाई। गांधीजी जहां कहीं गए उन्होनें अपना एजेन्डा जनता के सामने स्पष्ट शब्दों में रखा। और उनका एजेन्डा था मद्दनिषेध, सर्वधर्म समभाव, हिन्दू-मुस्लिम एकता, अस्पृश्यता निवारण, स्वराज  के लिए स्वदेशी अपनाने का आह्वान और स्वदेशी के लिए चरखा चलाने की वकालत, स्वराज के लिए धन संग्रह । गांधीजी ने अपने आंदोलन को जन जन का आंदोलन बनाने के लिए सबका विश्वास जीता और विश्वास जीतने के लिए अगर मंडला में उन्होंने कहा कि यदि आप मुझसे सहमत न हों तो मेरा विरोध करें तो जबलपुर के ईसाइयों को संबोधित करते हुए उन्होनें कहा कि अस्पृश्यता निवारण में हमारी मदद सच्चे मन से करें। गांधीजी जहां कहीं गए जनता ने उनका स्वागत अपने मुक्तिदाता के रूप में किया और गांधीजी ने भी उनका ध्यान एक पालक के रूप में रखा। वे सबसे मिले बिना किसी भेदभाव के मिले, अगर बुजुर्गों से मिले तो अनंतपुरा  नवयुवक जेठालाल से भी न केवल मिलने गए वरन एक रात उसकी कुटिया  में बिताई भी। सभी से उन्होंने दान की अपील की और आज से सौ वर्ष पूर्व महिलाओं ने अपने गहने उन्हें अर्पित किए तो मनकीबाई सरीखी गरीबणी ने एक-एक पैसा एकत्रित कर कुछ रुपये गांधीजी के भिक्षा पात्र में डाले। हरिजनों के मंदिर प्रवेश को गांधीजी ने सुनिश्चित किया और उनके इन्हीं प्रयासों का प्रतिफल आज भारत के लोग भोग रहे हैं।

महात्मा गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से 1915 में भारत वापस आए, तो उनके राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें सलाह दी कि वे भारत आकर शीघ्रता से कोई कार्य न करें और किसी भी  सार्वजनिक प्रश्न पर कुछ कहने से पहले, एक साल तक चुपचाप देश की परिस्थितियों का अध्ययन करें।  गांधीजी ने इस सलाह की गांठ बांध ली और आजीवन वे भारत की यात्रा करते रहे, यहां के निवासियों से मिलते रहे, उनके दुख दर्द जानने और उन्हें दूर करने का प्रयास करते रहे। इन यात्राओं से गांधीजी को देश की  समसामयिक परिस्थतियों की जानकारी मिली। लोगों से उनकी ही भाषा में संवाद करने के बाद ही गांधीजी के मन में स्वदेशी और अस्पृश्यता निवारण जैसे विषयों पर ध्यान केंद्रित करने की भावना जागृत हुई। गांधीजी को आम लोगों के मध्य व्याप्त हीन भावना व शासकों के प्रति भय का पता चला. इसी क्रम में वे नौ बार तत्कालीन मध्य प्रांत और वर्तमान मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़ शामिल नहीं है) की धरती पर पधारे। प्रदेश की यह यात्राएं व्यापक प्रयोजन के साथ की गई और गांधीजी ने रेल गाड़ी के तृतीय श्रेणी के डिब्बे से लेकर, मोटर कार, बैलगाड़ी, नाव और पैदल घूमकर  मध्य प्रदेश की भूमि को, इंदौर से लेकर जबलपुर, मंडला  तक कृतार्थ किया। उनके चरण जहां पड़े वे आज गांधीधाम बन गए, लोगों ने दिल खोलकर अपने प्रिय बापू, महात्मा, राष्ट्रपिता और स्वाधीनता आंदोलन के नेतृत्वकर्ता का स्वागत पलक-पावड़े बिछाकर  किया। मध्यप्रदेश में गांधीजी की यात्राओं का विवरण इस प्रकार है –   

इंदौर :- महात्मा गांधी का इंदौर आगमन दो बार हुआ, जब वे 1918 और फिर 1935 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करने पधारे थे। वस्तुत: 1918 में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता का दायित्व महामना मदनमोहन मालवीय को निभाना था, किन्तु कतिपय कारणों से उनका आना स्थगित हो गया और आयोजकों ने गांधीजी से इस हेतु विशेष आग्रह किया। देशव्यापी यात्रा से गांधीजी को हिन्दी की स्वीकार्यता का पता चल ही चुका था और इसीलिए उन्होंने आयोजकों के आग्रह को सहर्ष स्वीकार कर लिया।  28 मार्च 1918 को जब गांधीजी रेलगाड़ी से तृतीय श्रेणी के डिब्बे में बैठकर आए, तो उन्हे दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आए तीन वर्ष का समय ही हुआ था पर रेलगाड़ी से उतरते ही उनका भव्य स्वागत हुआ। गांधीजी को बग्घी में बिठाया गया और इंदौर के विद्यार्थी उस बग्घी को स्वयं खीचने आगे बढ़े। गांधीजी इसके लिए तैयार नहीं हुए किन्तु लोगों के आग्रह को अस्वीकार कर पाना संभव नहीं था अत: उन्होंने विद्यार्थियों से बग्घी को प्रतीकात्मक तौर पर सौ कदम तक खीचने की अनुमति दी और फिर बग्घी में घोड़े जोते गए। अगले दिन हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता गांधीजी ने की और अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने अंग्रेजी की जगह मातृभाषा के अधिकाधिक प्रयोग पर बल दिया। गांधीजी ने अदालतों में वकीलों की बहस व न्यायाधीशों द्वारा फैसले लिखने में अंग्रेजी के प्रयोग को देशी रियासतों में समाप्त करने पर जोर दिया। गांधीजी ने कहा कि यदि हिन्दी भाषा राष्ट्रीय भाषा होगी तो उसके  साहित्य का विस्तार भी राष्ट्रीय होगा। हिन्दी भाषा की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि हिन्दी वह भाषा है जिसको उत्तर में हिन्दू और मुसलमान बोलते हैं और जो नागरी अथवा फारसी लिपि में लिखी जाती है।  हिंदुओं की बोली से फारसी शब्दों का सर्वथा त्याग और मुसलमानों की बोली से संस्कृत का सर्वथा त्याग अनावश्यक है। उन्होंने हिन्दी उर्दू के झगड़े में नहीं पड़ने की सलाह दी। गांधीजी ने कहा कि अंग्रेजी भाषा  के माध्यम से हमें विज्ञान आदि का लाभ लेना चाहिए पर शिक्षा का माध्यम मातृ भाषा ही होनी चाहिए। दक्षिण में हिन्दी प्रचार प्रसार के लिए प्रयत्न करने की वकालत करते हुए गांधीजी ने वहां हिन्दी सिखाने वाले शिक्षकों को तैयार करने की अपील की और अपने पुत्र देवदास गांधी को इस हेतु वहां भेजने की घोषणा की। 20 अप्रैल 1935 को एक बार पुन: गांधीजी ने इंदौर में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की और दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत में हिन्दी प्रचार पर बल दिया। गांधीजी ने एक बार फिर हिन्दी –उर्दू के विवाद के मुद्दे पर अपनी राय देते हुए हिन्दी- हिन्दुस्तानी शब्द का प्रयोग किया और कहा कि हिन्दुस्तानी और उर्दू में कोई फरक नहीं है.       

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 127 ☆ इच्छा मृत्यु ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीयआलेख  ‘इच्छा मृत्यु । इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 127☆

?  इच्छा मृत्यु  ?

राजा शांतनु सत्यवती से विवाह करना चाहते थे.  किंतु सत्यवती के पिता ने शर्त रख दी कि राज्य का उत्तराधिकारी सत्यवती का पुत्र ही हो.  अपने पिता की सत्यवती से विवाह की प्रबल इच्छा को पूरा करने के लिए गंगा पुत्र भीष्म ने अखंड ब्रह्मचार्य की प्रतिज्ञा ले ली.  पिता के प्रति प्रेम के इस अद्भुत   त्याग से प्रसन्न हो, उन्होने भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया था.  

किंतु पितामह भीष्म को बाणों की शैया पर मृत्यु की प्रतीक्षा करनी पड़ी.  भीष्म शर शैया पर दुखी थे और उनकी इस अवस्था पर भगवान कृष्ण मुस्करा रहे थे.  

दूसरी ओर यह समझते हुये भी कि सीता हरण कर भागते रावण को रोक पाना उसके वश में नहीं है, जटायु ने रावण से भरसक युद्ध किया.  घायल जटायु को लेने यमदूत आ पहुंचे, किंतु जटायु ने मृत्यु को ललकार कर कहा, जब तक मैं इस घटना की सूचना, प्रभु श्रीराम को नहीं दे देता मृत्यु तुम मुझे छू भी नहीं सकती.  जटायु ने स्वयं ही जैसे इच्छा मृत्यु का चयन कर लिया.  

श्रीराम सीता को ढ़ूंढ़ते हुये आये, जटायु से उन्हें सीताहरण की जानकारी मिली.  जटायु ने  अपनी अंतिम सांसे भगवान श्रीराम की गोद में लीं.  भगवान दुखी थे और जटायु स्वयं की ऐसी इच्छा मृत्यु पर प्रसन्न थे.  

भीष्म पितामह और जटायु दोनो ने ही इच्छा मृत्यु का वरण किया.  किन्तु अंतिम पलों में दोनो की मृत्यु में विरोधाभास. .. कदाचित इसलिये क्योंकि भीष्म ने स्वयं की लाज बचाने के लिये बिलखती द्रौपदी की चीत्कार अनसुनी कर दी थी, तो दूसरी ओर  सीता जी की रक्षा का सामर्थ्य न होते हुये भी जटायु ने स्वयं को दांव पर लगा दिया था.  

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 114 ☆ किमाश्चर्यमतः परम् ! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 114 ☆ किमाश्चर्यमतः परम् !

देख रहा हूँ कि एक चिड़िया दाना चुग रही है। एक दाना चोंच में लेने से पहले चारों तरफ चौकन्ना होकर देखती है, कहीं किसी शिकारी के वेश में काल तो घात लगाये नहीं बैठा। हर दाना चुगने से पहले, हर बार न्यूनाधिक यही प्रक्रिया अपनाती है।

माना जाता है कि पशु-पक्षी बुद्धि तत्व में विपन्न हैं पर जीवन के सत्य को सरलता से स्वीकार करने की दृष्टि से वे सम्पन्न हैं। मनुष्य में बुद्धितत्व विपुल है पर  सरल को  जटिल करना, भ्रम में रहना, मनुष्य के स्वभाव में प्रचुर है।

मनुष्य की इसी असंगति को लेकर यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया था,

दिने दिने हि भूतनि प्रविशन्ति यमालयम्।शेषास्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।।

अर्थात प्रतिदिन ही प्राणी यम के घर में प्रवेश करते हैं, तब भी शेष प्राणी अनन्त काल तक यहाँ बने रहने की इच्छा करते हैं। क्या इससे बड़ा कोई आश्चर्य है?

युधिष्ठिर ने प्रश्न में ही उत्तर ढूँढ़कर कहा था,

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥

अर्थात प्रतिदिन ही प्राणी यम के घर में प्रवेश करते हैं, तब भी शेष प्राणी अनन्त काल तक यहीं बने रहने की इच्छा करते हैं। क्या इससे बड़ा कोई आश्चर्य हो सकता है?

सचमुच इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है कि लोग रोज़ मरते हैं पर ऐसे जीते हैं जैसे कभी मरेंगे ही नहीं। हास्यास्पद है कि पर मनुष्य चोर-डाकू से डरता है, खिड़की-दरवाज़े मज़बूत रखता है पर किसी अवरोध के बिना कहीं से किसी भी समय आ सकनेवाली मृत्यु को भूला रहता है।

संभवत: इसका कारण ज़ंग लगना है। जैसे लम्बे समय एक स्थान पर पड़े लोहे में वातावरण की नमी से ज़ंग लग जाती है, वैसे ही जगत में रहते हुए मनुष्य की बुद्धि पर अहंकार की परत चढ़ जाती है। सामान्य मनुष्य की तो छोड़िए, अपने उत्तर से यक्ष को निरुत्तर करनेवाले धर्मराज युधिष्ठिर भी इसी ज़ंग का शिकार बने।

हुआ यूँ कि महाराज युधिष्ठिर राज्य के विषयों पर मंत्री से गहन विचार- विमर्श कर रहे थे। तभी अपनी शिकायत लेकर एक निर्धन ब्राह्मण वहाँ पहुँचा। कुछ असामाजिक तत्वों ने उसकी गाय छीन ली थी। यह गाय उसके परिवार की उदरपूर्ति का मुख्य स्रोत थी।

महाराज ने उससे प्रतीक्षा करने के लिए कहा। अभी मंत्री से चर्चा पूरी हुई भी नहीं थी कि किसी देश का दूत आ पहुँचा। फिर नागरी समस्याओं को लेकर एक प्रतिनिधिमंडल आ गया। तत्पश्चात सेना से सम्बंधित किसी नीतिविषयक निर्णय के लिए राज्य के सेनापति, महाराज से मिलने आ गए। दरबार के काम पूरे कर महाराज विश्राम के लिए निकले तो निर्धन  को प्रतीक्षारत पाया।

उसे देखकर धर्मराज बोले, ” आपको न्याय मिलेगा पर आज मैं थक चुका हूँ। आप कल सुबह आइएगा।”

निराश ब्राह्मण लौट पड़ा। अभी वापसी के लिए चरण उठाये ही थे कि सामने से भीम आते दिखाई दिए। सारा प्रसंग जानने के बाद भीम ने ब्राह्मण से प्रतीक्षा करने के लिए कहा। तदुपरांत भीम ने सैनिकों से युद्ध में विजयी होने पर बजाये जानेवाले नगाड़े बजाने के लिए कहा।

उस समय राज्य की सेना कहीं किसी तरह का कोई युद्ध नहीं लड़ रही थी। अत: नगाड़ों की आवाज़ से आश्चर्यचकित महाराज युधिष्ठिर ने भीम से इसका कारण जानना चाहा। भीम ने उत्तर दिया, ” महाराज युधिष्ठिर ने एक नागरिक को उसकी समस्या के समाधान के लिए कल आने के लिए कहा है। इससे सिद्ध होता है कि महाराज ने जीवन की क्षणभंगुरता को परास्त कर दिया है तथा काल पर विजय प्राप्त कर ली है।”

महाराज युधिष्ठिर को अपनी भूल का ज्ञान हुआ। ब्राह्मण को तुरंत न्याय मिला।

हर क्षण मृत्यु का भान रखने का अर्थ जीवन से विमुखता नहीं अपितु हर क्षण में जीवन जीने की समग्रता है। अपनी कविता ‘चौकन्ना’ स्मरण हो आती है-

सीने की / ठक-ठक / के बीच

कभी-कभार / सुनता हूँ

मृत्यु की भी / खट-खट,

ठक-ठक.. / खट-खट..,

कान अब / चौकन्ना हुए हैं

अन्यथा / ठक-ठक और /

खट-खट तो / जन्म से ही /

चल रही हैं साथ / और अनवरत..,

आदमी यदि / निरंतर /सुनता रहे /

ठक-ठक / खट-खट / साथ-साथ,

बहुत संभव है / उसकी सोच / निखर जाए,

खट-खट तक / पहुँचने से पहले

ठक-ठक / सँवर जाए..!

मनुष्य यदि ठक-ठक और खट-खट में समुचित संतुलन बैठा ले तो संभव है कि भविष्य के किसी यक्ष को भविष्य के किसी युधिष्ठिर से यह पूछना ही न पड़े कि किमाश्चर्यमतः परम् !

© संजय भारद्वाज

रात्रि 1:10 बजे, 18 नवम्बर 2021

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 108 ☆ सपने वे होते हैं ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख सपने वे होते हैंयह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 108 ☆

☆ सपने वे होते हैं ☆

सपने वे नहीं होते, जो आपको रात में सोते  समय नींद में आते हैं। सपने तो वे होते हैं, जो आपको सोने नहीं देते– अब्दुल कलाम जी की यह सोच अत्यंत सार्थक है कि जीवन में उन सपनों का कोई महत्व नहीं होता, जो हम नींद में देखते हैं। वे तो माया का रूप होते हैं और वे आंख खुलते गायब हो जाते हैं; उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है, क्योंकि सपनों को साकार करने के लिए मानव को कठिन परिश्रम करना पड़ता है; अपनी सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देनी पड़ती है। उस परिस्थिति में मानव की रातों की नींद और दिन का सुक़ून समाप्त हो जाता है। मानव को केवल अर्जुन की भांति अपना लक्ष्य दिखाई पड़ता है, जो उन सपनों की मानिंद होता है, जो आपको सोने नहीं देते। सो! खुली आंखों से सपने देखना कारग़र होता है। इसलिए हमारा लक्ष्य सार्थक होना चाहिए और हमें उसकी पूर्ति हेतु स्वयं को झोंक देना चाहिए। वैसे काम तो दीमक भी दिन-रात करती है, परंतु वह निर्माण नहीं; विनाश करती है। इसलिए अपनी सोच को सकारात्मक रखिए, दृढ़-प्रतिज्ञ रहिए व कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य बनाए रखिए… यही सफलता का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।

सो! हमें खास समय की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि अपने हर समय को खास बनाना चाहिए, क्योंकि आपको भी दिन में उतना ही समय मिलता है; जितना महान् लोगों को मिलता है। इसलिए समय की कद्र कीजिए। समय अनमोल है, परिवर्तनशील है, कभी किसी के लिए ठहरता नहीं है। यह आप पर निर्भर करता है कि आप समय को कितना महत्व देते हैं। इसके साथ ही मानव को यह बात अपने ज़हन में रखनी चाहिए कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। हमें पूर्ण निष्ठा व तल्लीनता से उस कर्म को उस रूप में अंजाम देना चाहिए कि आप से अच्छा कार्य कोई कर ही ना पाए। सो! दक्षता अभ्यास से आती है। कबीर जी का यह दोहा ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ इसी भाव को परिलक्षित करता है। यदि आप में जज़्बा है, तो आप हर स्थिति में स्वयं को सबसे सर्वश्रेष्ठ साबित कर सकते हैं। गुज़रा हुआ समय कभी लौट कर नहीं आता। इसलिए हर पल को अंतिम पल मान कर हमें निरंतर कर्मरत रहना चाहिए।

‘दुनिया का उसूल है/ जब तक काम है/ तेरा नाम है/ वरना दूर से ही सलाम है’–जी हां! यही दस्तूर-ए-दुनिया है। मोमबत्ती को भी इंसान अंधेरे में याद करता है। इसलिए इसका बुरा नहीं मानना चाहिए। इंसान भी अपने स्वार्थ हेतू दूसरे को स्मरण करता है; उसके पास जाता है और यदि उसकी समस्या का हल नहीं निकलता, तो  वह उससे किनारा कर लेता है। इसलिए किसी से अपेक्षा मत करें, क्योंकि उम्मीद स्वयं से करने में मानव का हित है और यह जीवन जीने की सर्वोत्तम कला है। इस तथ्य से तो आप परिचित ही होंगे– इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती है जो वह दूसरों से करता है।

यदि सपने सच न हों, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं। पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। हर समस्या के केवल दो समाधान ही नहीं होते, इसलिए मानव को तीसरा विकल्प अपनाने की सलाह दी गई है, क्योंकि मंज़िल तक पहुंचने के लिए तीसरे मार्ग को अपनाना श्रेयस्कर है। ‘आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं; तभी तो मामले सुलझते कम, उलझते ज़्यादा हैं।’ आजकल हर व्यक्ति स्वयं सर्वाधिक बुद्धिमान समझता है। वह संवाद में नहीं, विवाद में अधिक विश्वास रखता है। इसलिए वह आजीवन स्व-पर व राग-द्वेष के भंवर से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। सो! जिसने संसार को बदलने की कोशिश की, वह हार गया और जिसने ख़ुद को बदल लिया; वह जीत गया, क्योंकि आप स्वयं को तो बदल सकते हैं, दूसरों को नहीं। इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो मानव दूसरों से करता है।

‘जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है– जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए।’ स्वामी विवेकानंद जी की यह सीख अत्यंत सार्थक है। दूसरों को प्रसन्न रखने के लिए मूल्यों से समझौता मत करिए, आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है। जी हां! यही है सफलता पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग। ‘एकला चलो रे’ के द्वारा मानव हर आपदा का सामना कर सकता है। यदि मानव दृढ़-निश्चय कर लेता है कि मुझे स्वयं पर विजय प्राप्त करनी है, तो वह नये मील के पत्थर स्थापित कर, जग में नये कीर्तिमान स्थापित कर सकता है। ‘सो! कोशिश करो और नाकाम हो जाओ, तो भी नाकामी से घबराओ नहीं। कोशिश करो, क्योंकि नाकामी सबके हिस्से में नहीं आती’– सेम्युअल बेकेट की इस सोच अनुकरणीय है, जो मानव को किसी भी परिस्थिति में पराजय स्वीकारने का संदेश देती, क्योंकि अच्छी नाकामी चंद लोगों के हिस्से में आती है। इस तथ्य को स्वीकारते हुए स्वाममी रामानुजम संदेश देते हैं कि ‘अपने गुणों की मदद से अपना हुनर निखारते चलो। एक दिन हर कोई तुम्हारे गुणों व काबिलियत पर बात करेगा।’ दूसरे शब्दों में वे अपने भीतर दक्षता को बढ़ाने पर बल देते हैं। दुनिया में सफल होने का सबसे अच्छा तरीका है–उस सलाह पर काम करना, जो आप दूसरों को देते हैं। महात्मा बुद्ध भी यही कहते हैं कि इस संसार में जो आप करते हैं, वह सब लौट कर आपके पास आता है। इसलिए दूसरों से ऐसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं। इसके साथ ही यह भी कहा जाता है कि ‘उतना विनम्र बनो, जितना ज़रूरी हो। बेवजह की विनम्रता दूसरों के अहम् को बढ़ावा देती है, क्योंकि आदमी साधन से नहीं, साधना से श्रेष्ठ बनता है। आदमी उच्चारण से नहीं, उच्च आचरण से श्रेष्ठ बनता है। सो! तप कीजिए, साधना कीजिए, क्योंकि मानव के अच्छे आचरण की हर जगह सराहना होती है। व्यक्ति का सौंदर्य महत्व नहीं रखता, उसके गुणों की समाज में सराहना होती है और वह अनुकरणीय बन जाता है। शायद इसलिए मानव को ऐसी सीख दी गई है कि सलाह हारे हुए की, तुज़ुर्बा जीते हुए का और दिमाग़ ख़ुद का– इंसान को ज़िंदगी में कभी हारने नहीं देता। मानव को अपने मस्तिष्क से काम लेना चाहिए, व्यर्थ दूसरों के पीछे नहीं भागना चाहिए। वैसे दूसरों के  अनुभव से लाभ उठाने वाले बुद्धिमान कहलाते तथा सफलता प्राप्त करते हैं।

‘पांव हौले से रख/ कश्ती में उतरने वाले/ ज़मीं अक्सर किनारों से/  खिसका करती है’ के माध्यम से मानव को जीवन में समन्वय व सामंजस्य रखने का संदेश दिया गया है। यदि मानव शांत भाव से अपना कार्य करता है, धैर्य बनाए रखता है, तो उसे असफलता का मुख कभी नहीं देखना पड़ता। यदि वह तल्लीनता से कार्य नहीं करता और तुरंत प्रतिक्रिया देता है, तो वह परेशानियों से घिर जाता है। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों में भी अपना आपा नहीं खोना चाहिए। इसके साथ ही आप जो भी स्वप्न देखें, उसकी पूर्ति में स्वयं को झोंक दें; अनवरत कर्मरत रहें और तब तक चैन से न बैठें, जब तक आप अपनी मंज़िल तक न पहुंच जाएं। वास्तव मेंं मानव को ऐसे सपने देखने चाहिएं, जो हमें सही दिशा-निर्देश दें, हमारा पथ-प्रशस्त करें और हमारे अंतर्मन में उन्हें साकार करने का जुनून पैदा कर दें। आप शांत होकर तभी बैठें, जब हम अपनी मंज़िल को प्राप्त करे लें। ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ इस तथ्य से तो आप सब अवगत होंगे कि असावधानी ही दुर्घटना का कारण होती है। इसलिए हमें सदैव सचेत, सजग व सावधान रहना चाहिए, क्योंकि लोग हमारे पथ में असंख्य बाधाएं उत्पन्न करेंगे, विभिन्न प्रलोभन देंगे, अनेक मायावी स्वप्न दिखाएंगे, ताकि हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति न कर सकें। परंतु हमें सपनों को साकार करने को दृढ़ निश्चय रखना है और दिन-रात स्वयं को परिश्रम रूपी भट्टी में झोंक देना है। सो! स्वप्न देखना मानव के लिए उपयोगी है, कारग़र है, सार्थक है और साधना का सोपान है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आलेख – साँस मत लेना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

सामयिकी के अंतर्गत –

? संजय दृष्टि – आलेख – साँस मत लेना ??

दिल्ली में प्रदूषण के स्तर पर हाहाकार मचा हुआ है। पिछले कुछ वर्षों से सामान्यत: अक्टूबर-नवम्बर माह में दिल्ली में प्रदूषण के स्तर पर बवाल उठना, न्यायालय द्वारा कड़े निर्देश देना और राजनीति व नौकरशाही द्वारा लीपापोती कर विषय को अगले साल के लिए ढकेल देना एक प्रथा बनता जा रहा है।

यह खतरनाक प्रथा, विषय के प्रति हमारी अनास्था और लापरवाही का द्योतक है। वर्ष 2018 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ) द्वारा दुनिया के 100 देशों के 4000 शहरों का वायु प्रदूषण की दृष्टि से अध्ययन किया गया था। इसके आधार पर दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित 15 शहरों की सूची जारी की गई। यह सूची हम भारतीयों को लज्जित करती है। इसमें एक से चौदह तक भारतीय शहर हैं। कानपुर विश्व का सर्वाधिक प्रदूषित शहर है। तत्पश्चात क्रमश: फरीदाबाद, वाराणसी, गया, पटना, दिल्ली, लखनऊ, आगरा, मुजफ्फरनगर, श्रीनगर, गुड़गाँव, जयपुर, पटियाला और जोधपुर का नाम है। अंतिम क्रमांक पर कुवैत का अल-सलेम शहर है।

देश के इन शहरों में (और लगभग इसी मुहाने पर बैठे अन्य शहरों में भी) साँस लेना भी साँसत में डाल रहा है। यह रपट आसन्न खतरे के प्रति सबसे बड़ी चेतावनी है। साथ ही यह भारतीय शासन व्यवस्था, राजनीति, नौकरशाही, पत्रकारिता और नागरिक की स्वार्थपरकता को भी रेखांकित करती है। स्वार्थपरकता भी ऐसी आत्मघाती कि अपनी ही साँसें उखड़ने लग जाएँ।

वस्तुत: श्वास लेना मनुष्य के दैहिक रूप से जीवित होने का मूलभूत लक्षण है। जन्म लेते ही जीव श्वास लेना आरंभ करता है। अंतिम श्वास के बाद उसे मृत या ‘साँसें पूरी हुई’ घोषित किया जाता है। श्वास का महत्व ऐसा कि आदमी ने येन केन प्रकारेण साँसे बनाये, टिकाये रखने के तमाम कृत्रिम वैज्ञानिक साधन बनाये, जुटाये। गंभीर रूप से बीमार को वेंटिलेटर पर लेना आजकल सामान्य प्रक्रिया है। विडंबना है कि वामन कृत्रिम साधन जुटानेवाला मनुष्य अनन्य विराट प्राकृतिक साधनों की शुचिता बनाये रखना भूल गया।

शुद्ध वायु में नाइट्रोजन 78% और ऑक्सीजन 21% होती है। शेष 1% में अन्य घटक गैसों का समावेश होता है। वायु के घटकों का नैसर्गिक संतुलन बिगड़ना (‘बिगाड़ना’ अधिक तार्किक होगा) ही वायु प्रदूषण है। कार्बन डाई-ऑक्साइड, कार्बन मोनो-ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन, धूल के कण प्रदूषण बढ़ाने के मुख्य कारक हैं।

वायु प्रदूषण की भयावहता का अनुमान से बात से लगाया जा सकता है कि अकेले दिल्ली में पीएम 10 का औसत 292 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर है जो राष्ट्रीय मानक से साढ़े चार गुना अधिक है। इसी तरह पीएम 2.5 का वार्षिक औसत 143 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर भी राष्ट्रीय मानक से तिगुना है।

बिरला ही होगा जो इस आपदा का कारण और निमित्त मनुष्य को न माने। अधिक और अधिक पैदावार की चाहत ने खेतों में रसायन छिड़कवाए। खाद में केमिकल्स के रूप में एक तरह का स्टेरॉइडल ज़हर घोलकर धरती की कोख में उतारा गया। समष्टि की कीमत पर अपने लाभ की संकीर्णता ने उद्योगों का अपशिष्ट सीधे नदी में बहाया। प्रोसेसिंग से निकलनेवाले धुएँ को कम ऊँचाई की चिमनियों से सीधे शहर की नाक में छोड़ दिया।
ओजोन परत को तार-तार कर मानो प्रकृति के संरक्षक आँचल को फाड़ा गया। सेंट्रल एसी में बैठकर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर चर्चा की गई। माटी की परत-दर-परत उघाड़कर खनन किया गया।

पिछले दो दशकों में देश में दुपहिया और चौपहिया वाहनों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इस वृद्धि और वायु प्रदूषण में प्रत्यक्ष अनुपात का संबंध है। जितनी वाहनों की संख्या अधिक, उतनी प्रदूषण की मात्रा अधिक। ग्लोबलाइजेशन के अंधे मोह ने देश को विकसित देशों के ऑब्सेलेट याने अप्रचलित हो चुके उत्पादों और तकनीक की हाट बना दिया। सारा कुछ ग्लोबल न हो सकता था, न हुआ उल्टे लोकल भी निगला जाने लगा। कुल जमा परिस्थिति घातक हो चली। नागासाकी और हिरोशिमा का परिणाम पीढ़ी-दर-पीढ़ी देखने और भोपाल का यूनियन कारबाइड भोगने के बाद भी सुरक्षा की तुलना में व्यापार और विस्तार के लिए दुनिया को परमाणु बम और सक्रिय रेडियोेधर्मिता की पूतना-सी गोद में बिठा दिया गया।

कहा जाता है कि प्रकृति में जो नि:शुल्क है, वही अमूल्य है। वायु की इसी सहज उपलब्धता ने मनुष्य को बौरा दिया। प्रकृति की व्यवस्था में कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर उसके बदले ऑक्सीजन देने का संजीवनी साधन हैं वृक्ष। यह एक तरह से मृत्यु के अभिशाप को हर कर जीवन का वरदान देने का मृत्युंजयी रूप हैं वृक्ष। ऑक्सीजन को यूँ ही प्राणवायु नहीं कहा गया है। पंचवट का महत्व भी यूँ ही प्रतिपादित नहीं किया गया। बरगद से वट-सावित्री की पूजा को जोड़ना, पीपल को देववृक्ष मानना विचारपूर्वक लिये गये निर्णय थे। वृक्ष को मन्नत के धागे बाँधने का मखौल उड़ानेवाले उन धागों के बल पर वृक्ष के अक्षय रहनेे की मन्नत पूरी होती देख नहीं पाये।

फलत: जंगल को काँक्रीट के जंगल में बदलने की प्रक्रिया में वृक्षों पर ऑटोमेटेड हथियारों से हमला कर दिया गया। औद्योगीकरण हो, सौंदर्यीकरण या सड़क का चौड़ीकरण, वृक्षों की बलि को सर्वमान्य विधान बना दिया गया। वृक्ष इको-सिस्टिम का एक स्तंभ होता है। अनगिनत कीट उसकी शाखाओं पर, कुछ कीड़े-मकोड़े-सरीसृप-पाखी कोटर में और कुछ जीव जड़ों में निवास करते हैं। सह-अस्तित्व का पर्यायवाची हैं छाया, आश्रय, फल देनेवाले वृक्ष। इन वृक्षों के विनाश ने प्रकृतिचक्र को तो बाधित किया ही, दिन में बीस हजार श्वास लेनेवाला मनुष्य भी श्वास के लिए संघर्ष करने लगा।

बचपन में हम सबने शेखचिल्ली की कहानी सुनी थी। वह उसी डाल को काट रहा था, जिस पर बैठा था। अब तो आलम यह है कि पूरी आबादी के हाथ में कुल्हाड़ी है। मरना कोई नहीं चाहता पर जीवन के स्रोतों पर हर कोई कुल्हाड़ी चला रहा है। डालें कट रही हैं, डालें कट चुकी। मनुष्य औंधे मुँह गिर रहे हैं, मनुष्य गिर चुका।

इस कुल्हाड़ी के फलस्वरूप विशेषकर शहरों में सीपीओडी या श्वसन विकार बड़ी समस्या बन गया है। सिरदर्द एक बड़ा कारण प्रदूषण भी है। इसके चलते शहर की आबादी का एक हिस्सा आँखों में जलन की शिकायत करने लगा है। स्वस्थ व्यक्ति भी अनेक बार दम घुटता-सा अनुभव करता है।

यह कहना झूठ होगा कि देर नहीं हुई है। देर हो चुकी है। मशीनों से विनाश का चक्र तो गति से घुमाया जा सकता है पर सृजन के समय में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। बीस मिनट में पेड़ को धराशायी करनेवाला आधुनिक तंत्रज्ञान, एक स्वस्थ विशाल पेड़ के धरा पर खड़े होने की बीस वर्ष की कालावधि में कोई परिवर्तन नहीं कर पाता। यह अंतर एक पीढ़ी के बराबर हो चुका है। इसे पाटने के त्वरित उपायों से हानि की मात्रा बढ़ने से रोकी जा सकती है।

हर नागरिक को तुरंत सार्थक वृक्षारोपण आज और अभी करना होगा। यही नहीं उसका संवर्धन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। सार्थक इसलिए कि भारतीय धरती के अनुकूल, दीर्घजीवी, विशाल वृक्षों के पौधे लगाने होंगे। इससे ऑक्सीजन की मात्रा तो बढ़ेगी ही, पर्यावरण चक्र को संतुलित रखने में भी सहायता मिलेगी।

सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को तत्काल प्रभाव से दुरुस्त करना होगा। सरकारी महकमे की बसों के एकाधिकार वाले क्षेत्रों में निजी कंपनियों को प्रवेश देना होगा। सरकारी बसों में सुधार की आशा अधिकांश शहरों में ‘न नौ मन तेल होगा, ना राधा नाचेगी’ सिद्ध हो चुकी है।

उद्योगों को अनिवार्य रूप से आवासीय क्षेत्रों से बाहर ले जाना होगा। वहाँ भी चिमनियों को 250 फीट से ऊपर रखना होगा। इसके लिए निश्चित नीति बना कर ही कुछ किया जा सकता है। सबसे पहले तो लाभ की राजनीति का ऐसे मसलों पर प्रवेश निषिद्ध रखना होगा। उत्खनन भी पर्यावरण-स्नेही नीति की प्रतीक्षा में है।

हर बार, हर विषय पर सरकार को कोसने से कुछ नहीं होगा। लोकतंत्र में नागरिक शासन की इकाई है। नागरिकता का अर्थ केवल अधिकारों का उपभोग नहीं हो सकता। अधिकार के सिक्के का दूसरा पहलू है कर्तव्य। साधनों के प्रदूषण में जनसंख्या विस्फोट की बड़ी भूमिका है। जनसंख्या नियंत्रण तोे नागरिक को ही करना होगा।

आजकल घर-घर में आर.ओ. से शुद्ध जल पीया जा रहा है। घर से बाहर खेलने जाते बच्चे से माँ कहती है, ‘बाहर का पानी बहुत गंदा है, मत पीना।’ समय आ सकता है कि घर-घर में ऑक्सीजन किट लगा हो और और अपने बच्चे को शुद्ध ऑक्सीजन की खुराक देकर खेलने बाहर भेजती माँ आगाह करे, ‘साँस मत लेना।’

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 59 ☆ मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग।)

☆ किसलय की कलम से # 59 ☆

☆ मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग ☆

एक समय था जब गाँव या मोहल्ले के एक छोर की गतिविधियाँ अथवा सुख-दुख की बातें दो चार-पलों में ही सबको पता चल जाती थीं। लोग बिना किसी आग्रह के मानवीय दायित्वों का निर्वहन किया करते थे। तीज-त्यौहारों, भले-बुरे समय, पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक आयोजनों में एक परिवार की तरह एक साथ खड़े हो जाते थे।

आज हम पड़ोसियों के नाम व जाति-पाँति तक जानने का प्रयास नहीं करते। मुस्कुराहट के साथ अभिवादन करना तथा हाल-चाल पूछने के बजाय हम नज़रें फेरकर या सिर झुकाये निकल जाते हैं, फिर मोहल्ले वालों की बात तो बहुत दूर की है। उपयोगी व आवश्यक कार्यवश ही लोगों से बातें होती हैं। हम पैसे कमाते हैं और उन्हें पति-पत्नी व बच्चों पर खर्च करते हैं, अर्थात पैसे कमाना और अपने एकल परिवार पर खर्च करना आज की नियति बन गई है। रास्ते में किसका एक्सीडेंट हो गया है। पड़ोसी खुशियाँ मना रहा है अथवा उसके घर पर दुख का माहौल है, आज लोग उनके पास जाने की छोड़िए संबंधित जानकारी लेने तक की आवश्यकता नहीं समझते। आज मात्र यह मानसिकता सबके जेहन में बैठ गई है कि जब पैसे से सब कुछ संभव है तो किसी के सहयोग की उम्मीद से संबंध क्यों बनाये जाएँ। पैसों से हर तरह के कार्यक्रमों की समग्र व्यवस्थाएँ हो जाती हैं। बस आप कार्यक्रम स्थल पर पहुँच जाईये और कार्यक्रम संपन्न कर वापस घर आ जाईये। जिसने हमें बुलाया था, जिनसे हमें काम लेना है, बस उन्हें प्राथमिकता देना है। इन सब में परिवार, पड़ोस और मोहल्ले सबसे पिछले क्रम में होते हैं। जितना हो सके, इन सब से दूरी बनाये रखने का सिद्धांत अपनाया जाता है।

आज हम सभी देखते हैं कि जब कार्ड हमारे घर पर पहुँचते हैं, तब जाकर पता चलता है कि उनके घर पर कोई कार्यक्रम है। यहाँ तक कि जब भीड़ एकत्र होना शुरू होती है तब पता चलता है कि आस-पड़ोस के अमुक घर में किसी सदस्य का देहावसान हो गया है। आज लोग शादी में दूल्हे-दुल्हन को, बर्थडे में बर्थडे-बेबी को महत्त्व न देकर डिनर को ही प्राथमिकता देते हैं।  मृत्यु वाले घर से मुक्तिधाम तक शवयात्रा में शामिल लोग व्यक्तिगत, राजनीतिक वार्तालाप, यहाँ तक कि हँसी-मजाक में भी मशगूल देखे जा सकते हैं, उन्हें ऐसे दुखभरे माहौल से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। आजकल अधिकांशतः लोग त्योहारों में घरों से बाहर निकलना पसंद नहीं करते। होली, दीपावली जैसे खुशी-भाईचारा बढ़ाने वाले पर्वों तक से लोग दूरियाँ बनाने लगे हैं।

आज बुजुर्ग पीढ़ी यह सब देखकर हैरान और परेशान हो जाती है। उन्हें अपने पुराने दिन सहज ही याद आ जाते हैं। उन दिनों लोग कितनी आत्मीयता, त्याग और समर्पण के भाव रखते थे। बड़ों के प्रति श्रद्धा और छोटों के प्रति स्नेह देखते ही बनता था। बच्चों को तो अपनों और परायों के बीच बड़े होने पर ही अंतर समझ में आता था। पड़ोसी और मोहल्ले वाले हर सुख-दुख में सहभागी बनते थे। यह बात एकदम प्रत्यक्ष दिखाई देती थी पड़ोसी कि पहले पहुँचते थे और रिश्तेदार बाद में। कहने का तात्पर्य यह है कि आपका पड़ोसी आपके हर सुख-दुख में सबसे पहले आपके पास मदद हेतु खड़ा होता था।

वाकई ये बहुत गंभीर मसले हैं। ये सब अचानक ही नहीं हुआ। इस वातावरण तक पहुँचने का भी एक लंबा इतिहास है। बदलते समय और बदलती जीवन शैली के साथ शनैः शनैः  हम अपने बच्चों और पति-पत्नी के हितार्थ ही सब करने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। संयुक्त परिवार और खून के रिश्तों की अहमियत धीरे-धीरे कम होती जा रही है। लोग संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल परिवार में अपने हिसाब से रहना चाहते हैं। ज्यादा कमाने वाला सदस्य अपनी पूरी कमाई संयुक्त परिवार में न लगाकर अपने एकल परिवार की प्रगति व सुख सुविधाओं में लगाता है। अपनी संतान का सर्वश्रेष्ठ भविष्य बनाना चाहता है। संयुक्त परिवार के सुख-दुख में भी हिसाब लगाकर बराबर हिस्सा ही खर्च करता है। इन सब के पीछे हमारे भोग-विलास और उत्कृष्ट जीवनशैली की बलवती अभिलाषा ही होती है। हम इसे ही अपना उद्देश्य मान बैठे हैं, जबकि मानव जीवन और दुनिया में इससे भी बड़ी चीज है दूसरों के लिए जीना। दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूँढ़ना।

यह भी अहम बात है कि हमने जब किसी की सहायता नहीं की, हमने जब अपने खाने में से किसी भूखे को खाना नहीं खिलाया। हमने जब किसी गरीब की मदद ही नहीं की। और तो और जब इन कार्यो से प्राप्त खुशी को अनुभूत ही नहीं किया तब हम कैसे जानेंगे कि परोपकार से हमें कैसी खुशी और कैसी संतुष्टि प्राप्त होती है। यह भी सच है कि आज जब हम अपने परिजनों के लिए कुछ नहीं करते तब परोपकार से प्राप्त खुशी कैसे जानेंगे। एक बार यह बात बिना मन में लाए कि अगला आदमी सुपात्र है अथवा नहीं, आप  नेक इंसान की तरह अपना कर्त्तव्य निभाते हुए किसी भूखे को खाना खिलाएँ। किसी गरीब की लड़की के विवाह में सहभागी बनें। किसी पैदल चलने वाले को अपने वाहन पर बैठाकर उसके गंतव्य तक छोड़ें। किसी विपत्ति में फँसे व्यक्ति को उसकी परेशानी से उबारिये। बिना आग्रह के किसी जरूरतमंद की सहायता करके देखिए। किसी बीमार को अस्पताल पहुँचाईये। सच में आपको जो खुशी, संतोष और शांति मिलेगी वह आपको पैसे खर्च करने से भी प्राप्त नहीं होगी।

आज विश्व में भौतिकवाद की जड़ें इतनी मजबूत होती जा रही हैं कि हमें उनके पीछे बेतहाशा भागने की लत लग गई है। हम अपने शरीर को थोड़ा भी कष्ट नहीं देना चाहते और यह भूल जाते हैं कि हमारा यही ऐशो-आराम बीमारियों का सबसे बड़ा कारक है। ये बीमारियाँ जब इंसान को घेर लेती हैं तब आपका पैसा पानी की तरह बहता रहता है और बहकर बेकार ही चला जाता है। आप पुनः नीरोग जिंदगी नहीं जी पाते। आप स्वयं ही देखें कि समाज में दो-चार प्रतिशत लोग ही ऐसे होंगे जो पैसों के बल पर नीरोग और चिंता मुक्त होंगे।

हमारी वृद्धावस्था का यही वह समय होता है जब हमारे ही बच्चे, हमारा ही परिवार हमारी उपेक्षा करता है। हमने जिनके लिए अपना सर्वस्व अर्थात ईमान, धर्म और श्रम खपाया वही हमसे दूरी बनाने लगते हैं। यहाँ तक कि हमें जब इनकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है वे हमें वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं।

अब आप ही चिंतन-मनन करें कि यदि आपने अपने विगत जीवन में अपनों से नेह किया होता। पड़ोसियों से मित्रता की होती। कुछ परोपकार किया होता तो इन्हीं में से अधिकांश लोग आपके दुख-दर्द में निश्चित रूप से सहभागी बनते। आपकी कुशल-क्षेम पूछने आते। आपकी परेशानियों में आपका संबल बढ़ाते रहते, जिससे आपका ये शेष जीवन संतुष्टि और शांति के साथ गुजरता।

समय बदलता है। जरूरतें बदलती हैं। बदलाव प्रकृति का नियम है।आपकी नेकी, आपकी भलाई, आपकी निश्छलता की सुखद अनुभूति लोग नहीं भूलते। लोग यथायोग्य आपकी कृतज्ञता ज्ञापित अवश्य करते। आपके पास आकर आपका हौसला और संबल जरूर बढ़ाते।

हम मानते हैं कि आज का युग भागमभाग, अर्थ और स्वार्थ के वशीभूत है। ऐसे में किसी से सकारात्मक रवैया की अपेक्षा करना व्यर्थ ही है। इसलिए क्यों न हम ही आगे बढ़कर भाईचारे और सहृदयता की पहल करें। फिर आप ही देखेंगे कि उनमें  भी कुछ हद तक बदलाव अवश्य आएगा और यदि इस पहल की निरन्तरता बनी रही तो निश्चित रूप से मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग दिखाई नही देंगे साथ ही हम पड़ोसियों और मोहल्ले वालों से जुड़कर प्रेम और सद्भावना का वातावरण निर्मित करने में निश्चित रूप से सफल होंगे।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 126 ☆ समझ लेते हैं गुफ्तगू,रिंग टोन से ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीयआलेख  ‘समझ लेते हैं गुफ्तगू, रिंग टोन से। इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 126☆

?  समझ लेते हैं गुफ्तगू, रिंग टोन से ?

व्हाट इज योर मोबाईल नम्बर?  जमाना मोबाईल का है.   खत का मजमूं जान लेते हैं लिफाफा देखकर वाले शेर का नया अपडेटेड वर्शन कुछ इस तरह हो सकता है कि ” समझ लेते हैं गुफ्तगू,  रिंग टोन से “. 

लैंड लाइन टेलीफोन, मोबाईल के ग्रांड पा टाइप के रिलेशन में “था ” हो गया है.  

वो टेलीफोन के जमाने की बात थी  जब हमारे जैसे अधिकारियो को भी, लोगो को छोटी मोटी नौकरी पर रख लेने के अधिकार थे. आज तो नौकरियां विज्ञापन, लिखित परीक्षा, साक्षात्कार, परिणाम, फिर फ़ाइनली कोर्ट केस के रास्ते मिला करती हैं, पर उन दिनो नौकरी के इंटरव्यू से पहले अकसर सिफारिशी टेलीफोन  कामन था. सेलेक्शन का एक क्राइटेरिया यह भी होता था कि सिफारिश किसकी है. मंत्री जी की सिफारिश और बड़े साहब की सिफारिश के साथ ही रिश्तेदारो की सिफारिश के बीच संतुलन बनाना पड़ता था.  ससुराल पक्ष की एक सिफारिश बड़ी दमदार मानी जाती थी । फोन की एक घंटी केंडीडेट का भाग्य बदलने की ताकत रखती थी.  

नेता जी से संबंध टेलीफोन की सिफारिशी घंटी बजवाने के काम आते थे. सिफारिशी खत से लिखित साक्ष्य के खतरे को देखते हुये सिफारिश करने वाला अक्सर फोन का ही सहारा लेता था. तब काल रिकार्डिंग जैसे खतरे कम थे.हमारे जैसे ईमानदार बनने वाले लोग रिंग टोन से अंदाज लगा लेते कि गुफ्तगू का प्रयोजन क्या होगा और “साहब नहा रहे हैं ” टाइप के बहाने बनाने के लिये पत्नी को फोन टिका दिया करते थे. तब नौकरियां आज की तरह कौशल पर नही डिग्रियों से मिल जाया करती थीं.   घर दफ्तर में फोन होना तब स्टेटस सिंबल था. आज भी विजिटिंग कार्ड का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा मोबाईल और टेलीफोन नम्बर बने हुये हैं.  दफ्तर की टेबिल का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण  टेलीफोन होता है. और टेलीफोन का एक सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है सिफारिश.न सही नौकरी पर किसी न किसी काम के लिये देख लेने, या फिर सीधे धमकी के रूप में देख लेने के काम टेलीफोन से बखूबी लिये जाते हैं.  टेलीफोन की घंटी से, टेबल के सामने साथ बैठा व्यक्ति गौण हो जाता है,और दूर टेलीफोन के दूसरे छोर का आदमी महत्वपूर्ण हो जाता है.

जिस तरह पानी ऊंचाई से नीचे की ओर प्रवाहित होता है उसी तरह टेलीफोन या मोबाईल में हुई वार्तालाप का सरल रैखिक सिद्धांत है कि इसमें हमेशा ज्यादा महत्वपूर्ण आदमी, कम महत्वपूर्ण आदमी को आदेशित करता है. उदाहरण के तौर पर मेरी पत्नी मुझे घर से आफिस के टेलीफोन पर इंस्ट्रक्शन्स देती है. मंत्री जी, बड़े साहब को और बड़े साहब अपने मातहतो को महत्वपूर्ण या गैर महत्वपूर्ण कार्यो हेतु भी महत्वपूर्ण तरीके से मोबाईल पर ही आदेशित करते हैं. टेलीफोन के संदर्भ में एक व्यवस्था यह भी है कि  बड़े लोग अपना टेलीफोन स्वयं नहीं उठाते. इसके लिये उनके पास पी ए टाइप की कोई सुंदरी होती है जो बाजू के कमरे में बैठ कर उनके लिये यह महत्वपूर्ण कार्य करती है और महत्वपूर्ण काल ही उन तक फारवर्ड करती है. नेता जी के मोबाईल उनके विश्वस्त के हाथों में होते हैं, जो बड़े विशेष अंदाज में जरूरी काल्स पर ही नेता जी को मोबाईल देते हैं, वरना संदेशन खेती करनी पड़ती है. और राजगीर के लड्डुओ के संदेश जितने टोकनों से गुजरते हैं, हर टोकने में इतना तो झर ही जाते हैं कि एक नया लड्डू बन जाता है, इस तरह सभी को बिना गिनती कम हुये लड्डुओ का भोग चढ़ जाता है, लोगों के काम हो जाते हैं.

टेलीफोन एटीकेट्स के अनुसार मातहत को अफसर की बात सुनाई दे या न दे, समझ आये या न आये, किन्तु सर ! सर ! कहते हुये आदेश स्वीकार्यता का संदेश अपने बड़े साहब को देना होता है. जो बहुत ओबीडियेंट टाइप के कुछ पिलपिले से अफसर होते हैं वे बड़े साहब का टेलीफोन आने पर अपनी सीट पर खड़े होकर बात करते हैं. ऐसे लोगो को नये इलेक्ट्रानिक टेलीफोन में कालर आई डी लग जाने से लाभ हुआ है और अब उन्हें एक्सटेंपोर अफसरी फोन काल से मुक्ति मिल गई है, वे साहब की काल पहचान कर पहले ही अपनी मानसिक तैयारी कर सकते हैं.  यदि संभावित  गुफ्तगू के मकसद का अंदाज इनकमिंग काल के नम्बर से लगा लिया जाता  है,  तो यह पहचान बड़े काम की होती है. सावधानी में सुरक्षा निहित होती ही है. बड़े साहब का मोबाईल आने पर ऐसे लोग तुरंत सीट से उठकर चलायमान हो जाते हैं. यह बाडी लेंगुएज,उनकी मानसिक स्थिति की परिचायक होती है. एसएमएस से तो बचा जा सकता है कि मैसेज पढ़ा ही नही, पर मुये व्हाट्सअप ने कबाड़ा कर रखा है, इधर दो टिक नीले क्या हुये सामने वाला कम्पलाइंस की अपेक्षा करने लगता है. इससे बचाव के लिये अब व्हाट्सअप सैटिंग्स में परिवर्तन किया जाना  पसंद किया जाने लगा है.

हमारी पीढ़ी ने चाबी भरकर इंस्ट्रूमेंट चार्ज करके बात करने वाले  टेलीफोन के समय से आज के टच स्क्रीन मोबाईल तक का सफर अब तक तय कर लिया है. इस बीच डायलिंग करने वाले मेकेनिकल फोन आये जिनकी एक ही रिटी पिटी ट्रिन ट्रिन वाली घंटी होती थी. इन दिनो आधे कटे एप्पल वाले मंहगे  मोबाईल हों या एनड्राइड डिवाईस कालर ट्यून से लेकर मैसेज या व्हाट्सअप काल, यहां तक की व्यक्ति विशेष के लिये भी अलग,भांति भांति के सुरों की घंटी तय करने की सुविधा हमारे अपने हाथ होती है. समय के साथ की पैड वाले इलेक्ट्रानिक फोन  और अब हर हाथ में मोबाईल का नारा सच हो रहा है, लगभग हर व्यक्ति के पास दो मोबाइल या कमोबेश डबल सिम मोबाईल में दो सिम तो हैं ही. आगे आगे देखिये होता है क्या? क्योकि टेक्नालाजी गतिशील है. क्या पता कल को बच्चे को वैक्सिनेशन की तरह ही सिम प्रतिरोपण की प्रक्रिया से गुजरना पड़े. फिर न मोबाईल गुमने का झंझट होगा, न बंद होने का. आंखो के इशारे से गदेली में अधिरोपित इनबिल्ट मोबाईल से ही हमारा स्वास्थ्य, हमारा बैंक, हमारी लोकेशन, सब कुछ नियंत्रित किया जा सकेगा. पता नही इस तरह की प्रगतिशीलता से हम मोबाईल को नियंत्रित करेंगे या मोबाईल हमें नियंत्रित करेगा.

एक समय था जब टेलीफोन आपरेटर की शहर में बड़ी पहचान और इज्जत होती थी, क्योकि वह ट्रंक काल पर मिनटो में किसी से भी बात करवा सकता था. शहर के सारे सटोरिये रात ठीक आठ बजे क्लोज और ओपन के नम्बर जानने, मटका किंग से हुये इशारो के लिये इन्हीं आपरेटरो पर निर्भर होते थे.समय बदल गया है  आज तो पत्नी भी पसंद नही करती कि पति के लिये कोई काल उसके मोबाईल पर आ जाये. अब जिससे बात करनी हो सीधे उसके मोबाईल पर काल करने के एटीकेट्स हैं.पर मुझे स्मरण है उन टेलीफोन के पुराने दिनो में हमारे घर पर पड़ोसियो के फोन साधिकार आ जाते थे.बुलाकर उन्हें बात करवाना पड़ोसी धर्म होता था. तब निजता की आज जैसी स्थितियां नहीं थी, आज तो बच्चो और पत्नी का मोबाईल खंगालना भी आउट आफ एटीकेट्स माना जाता है. उन दिनो लाइटनिंग काल के चार्ज आठ गुने लगते थे अतः लाइटनिंग काल आते ही लोग किसी अज्ञात आशंका से सशंकित हो जाते थे. विद्युत विभाग में बिजली की हाई टेंशन लाइन पर पावर लाइन कम्युनिकेशन कैरियर की अतिरिक्त सुविधा होती है, जिस पर हाट लाइन की तरह बातें की जा सकती है,  ठीक इसी तरह रेलवे की भी फोन की अपनी समानांतर व्यवस्था है. पुराने दिनो में कभी जभी अच्छे बुरे महत्वपूर्ण समाचारो के लिये  लोग अनधिकृत रूप से  इन सरकारी महकमो की व्यवस्था का लाभ मित्र मण्डली के जरिये उठा लिया करते थे.

मोबाईल सिखाता है कि बातो के भी पैसे लगते हैं और बातो से भी पैसे बनाये जा सकते हैं. यह बात मेरी पत्नी सहित महिलाओ की समझ आ जाये तो दोपहर में क्या बना है से लेकर पति और बच्चो की लम्बी लम्बी बातें करने वाली हमारे देश की महिलायें बैठे बिठाये ही अमीर हो सकती हैं.अब मोबाईल में रिश्ते सिमट आये  हैं. मंहगे मोबाईल्स, उसके फीचर्स, मोबाईल  कैमरे के पिक्सेल वगैरह अब महिलाओ के स्टेटस वार्तालाप के हिस्से हैं.अंबानीज ने बातो से रुपये बनाने का यह गुर सीख लिया है, और अब सब कुछ जियो हो रहा है. मोबाईल को इंटरनेट की शक्ति क्या मिली है, दुनियां सब की जेब में है.अब  कोई ज्ञान को दिमाग में नही बिठाना चाहता इसलिये ज्ञान गूगल जनित जानकारी मात्र बनकर जेब में रखा रह गया है. मोबाईल काल रिकॉर्ड हो कर वायरल हो जाये तो लेने के देने पड़ सकते हैं. काल टेपिंग से सरकारें हिल जाती हैं. मोबाईल पर बातें ही नही,फोटो, जूम मीट,  मेल,ट्वीट्स, फेसबुक, इंस्टा, खेल, न्यूज, न्यूड सब कुछ तो हो रहा है, ऐसे में मोबाइल विकी लीक्स, स्पाइंग का साधन बन रहा है तो आश्चर्य नही होना चाहिये. मोबाईल लोकेशन से नामी गिरामी अपराधी भी धर लिये जाते हैं.  बाजार में सुलभ कीमत के अनुरूप गुणवत्ता का मोबाईल चुनना और मोबाईल प्लान के ढ़ेरो आफर्स में से अपनी जरूरत के अनुरूप सही विकल्प चुनना आसान नही है. कही कुछ है तो कहीं कुछ और, आज मोबाइल का माडल अभिजात्य वर्ग में स्टेटस सिंबल है.   इतनी अधिक विविधताओं के बीच चयन करके हर हाथ मोबाईल के शस्त्र से सुसज्जित है यह सबके लिये गर्व का विषय है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ राष्ट्रीय प्रेस दिवस विशेष – मीडिया: एक पांव जमीन पर, दूजा हवा में ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

देश में प्रेस और मीडिया की है बहुत बड़ी जिम्मेदारी

☆ आलेख ☆ राष्ट्रीय प्रेस दिवस विशेष – मीडिया: एक पांव जमीन पर, दूजा हवा में ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(16 नवंबर राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर विशेष आलेख)

मैं शहीद भगत सिंह के पैतृक गांव खटकड कलां के गवर्नमेंट आदर्श सीनियर सेकेंडरी स्कूल में प्रिंसिपल होने के साथ साथ पार्टटाइम रिपोर्टर था दैनिक ट्रिब्यून का। विधिवत जनसंचार की कोई क्लास नहीं लगाई लेकिन समाचार संपादक व शायर सत्यानंद शाकिर के शागिर्द की तरह पूरे ग्यारह साल हुक्का जरूर भरा और आज भी सीखने की कोशिश जारी है। जुनून इतना बढा कि प्रिंसिपल का पद छोड कर चंडीगढ उपसंपादक बन कर आ गया और फिर डेस्क से बोर होकर स्टाफ रिपोर्टर बन हिसार पहुंचा।  खैर। स्कूल के साथ ही सटे घर के मालिक  व विदेशों की धूल फांक कर आये एक साधारण किसान जीत सिंह ने जब पत्रकारिता की व्याख्या की तो थोडी हैरानी हुई। उसने कहा कि न्यूज का मतलब? नॉर्थ, ईस्ट वेस्ट, साउथ। यानी चारों दिशाओं में सही नजर रखकर खबर देना। खबरदार करना। अरे… इतनी उम्मीद है पत्रकार से? सब सही, सब सच दिखाना या देना? इसीलिए लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना और कहा जाता है। शब्द में जो ब्रह्म की शक्ति है वह शायद मीडिया के लिए ज्यादा है। रोज हम पत्रकार शब्दबेधी बाण चलाते हैं और पिछले चार दशक से मैं भी कलम के उन वीरों में शामिल हूं। क्या से क्या हो गया मीडिया? कहां से कहां तक का सफर तय किया मीडिया ने? जो चहूंओर के समाचार देता था वह चार अतिरिक्त पन्नों यानी लोकल न्यूज में ही सिमट कर रह गया? कांगडा की खबर हिसार में नहीं मिलती तो हिसार की कांगडा में नहीं मिलती। यानी सिमट गयी पत्रकारिता। फिर काहे की सामाजिक शर्म? प्रभाष जोशी ने यह बात लिखी थी अपनी विदाई पर कि हम पत्रकार और कुछ शायद न बिगाड सकें लेकिन नेताओं में सामाजिक शर्म तो ला ही देते हैं।  

मैंने पत्रकारिता पर सोशल मीडिया में दो वाक्य पढे-पहले छप कर अखबार बिकते थे। अब बिक कर अखबार छपते हैं। ओह। इतना बिकाऊ हो गया क्या मीडिया? वह आजाद कलम पूंजीपतियों के इशारों पर नाचने लगी? आज हर आदमी यह कहता है कि मीडिया बिकाऊ है। यह नौबत कैसे और क्यों आई? हम यहां तक कैसे पहुंचे? क्या हमारे गिरने की कोई सीमा है? हमारी जिम्मेवारी कौन तय करेगा? हम धूल फांक कर, गली,  शहर, कूचे फलांग कर सच्ची रिपोर्ट लिखते हैं। फिर वह रद्दी की टोकरी में कैसे फेंक दी जाती है? पेज थ्री फिल्म एक सच्चाई के करीब फिल्म थी। माफिया के बारे में लिखने वालों की जान ले ली जाती है। सच कहने पर आग मच जाती है। इसीलिए तो सुरजीत पातर ने कहा – ऐना सच न बोल के कल्ला यानी अकेला रह जावें। क्या पत्रकार अकेला चलने या रह जाने से डरता है? शहीद भगत सिंह के पुरखों के गांव पर जब धर्मयुग में मेरा लम्बा आलेख आया तब मेरी नौकरी पर बन आई थी लेकिन मेरी मदद के लिए जंगबहादुर गोयल आगे आए जो नवांशहर में उपमंडल अधिकारी थे। आज भी खटकड कलां का शहीदी स्मारक और घर जैसे संभाला है उसमें मेरी छोटी सी कलम का योगदान है। इस आलेख के बाद ही स्मारक और घर की ओर सरकार का ध्यान गया।

इसी तरह एक टीवी स्टोरी में सच बोलने वाले पत्रकार की छुट्टी और झूठ लिखने वाले को भव्य सम्मेलन में पुरस्कार। इसी बात की ओर संकेत कि हम झूठ का मायावी संसार रच रहे हैं और सच से कोसों दूर जा रहे हैं। ये चुनाव सर्वेक्षण भी किसी के इशारे पर जनता को गुमराह करने वाले साबित हो रहे हैं। आखिर हम अपनी असली सूरत कब पहचानेंगे?

आइना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे।

मेरे अपने मेरे होने की निशानी मांगें।

बहुत कुछ कहने को है। कलम की ताकत बेकार न जाने दें। पहचानिए अपनी शब्दबेधी शक्ति। मारक शक्ति। बदल देने की शक्ति। इधर हरियाणा के चुनाव में जब एक टिक टॉक गर्ल के रूप में चर्चित प्रत्याशी के पक्ष में वरिष्ठ नेता निकले मैदान में तब मैंने सवाल किया कि आखिर ऐसी प्रत्याशी के लिए वोट मांगने निकलोगे तो फिर आपके बारे में जनता क्या सोचेगी? कुछ तो लिहाज कीजिए। और सचमुच मेरे संपादकीय के बाद वे वट्स अप पर सॉरी लिख गये तो मुझे संतोष हुआ कि अभी सच कहने की आग मुझमें बची है और बस यही आग जरूरी है। दुष्यंत कुमार के शब्दों में :

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

हमें नकारात्मक शक्तियों के खिलाफ कलम उठानी है और नये नायक देने हैं जो समाज के लिए काम कर रहे हैं और करते रहेंगे।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मन्नू भंडारी – अंतिम प्रणाम !! श्रद्धांजलि !! ☆ श्री सुधीर सिंह सुधाकर

श्री सुधीर सिंह सुधाकर

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री सुधीर सिंह सुधाकर जी का हार्दिक स्वागत है। आपका परिचय आपके ही शब्दों में –

“45 वर्ष से लेखन के पश्चात लगता है अभी कुछ नहीं जाना, कुछ नहीं सीख पाया; लेकिन विद्यार्थी बनकर सीखने का जो आनंद है वह आनंद शब्द से परे है।

कोलकाता में जन्म कोलकाता से लेकर अलीगढ़ तक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात दिल्ली में नौकरी जीवन बीमा में 30 वर्ष गुजारने के पश्चात सेवानिवृत्ति के उपरांत 16 घंटे साहित्य सेवा यही बस काम शेष है और इसी में विद्यार्थी की तरह लगा रहता हूं।”  – सुधीर सिंह सुधाकर, दिल्ली

? मन्नू भंडारी –  अंतिम प्रणाम ?

?  श्र द्धां ज लि ?

मन्नू भंडारी जी का जन्म मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में 3 अप्रैल 1931 को हुआ था। बचपन में उनको प्यार से सभी मन्नू कहते थे। उनका नाम महेंद्र कुमारी थालेखन के लिए उन्होंने अपने तखल्लुस नाम की जगह मन्नू नाम का चुनाव किया और शादी के बाद भी मन्नू भंडारी के नाम से जानी जाने लगी।

उनके पिता हिंदी के जाने-माने लेखक सुख संपत राय के द्वारा मन्नू का व्यक्तिगत व्यक्तित्व निर्माण होता रहाशिक्षा प्रथम रसोई द्वितीय को वे प्रमुखता देते थेएक आदर्शवादी पिता एक क्रोधी स्वभाव के पिता से उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिलाउनका अपना प्रथम कहानी संग्रह मैं हार गई अपने पिताजी को समर्पित करते उन्होंने लिखा था ,”जिन्होंने मेरी किसी भी इच्छा पर कभी अंकुश नहीं लगाया” पिताजी को मनु की अपने पिता की नितांत श्रद्धा इसे स्पष्ट होती है मनु भंडारी चार भाई बहन थेमनु भंडारी जी का कहना था  कोई व्यक्ति जन्म से बड़ा नहीं होताबड़ा बनने के लिए सबसे बड़ा योगदान संस्कारों का होता है उसके बाद परिवेश का 

अजमेर में रहकर उन्होंने हाई स्कूल तथा इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की कॉलेज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल ने अंग्रेज सरकार के विरोध में जब उन्हें उकसाया तो वह स्वतंत्र स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ी।देश की स्वतंत्रता मिलने के बाद उन्होंने बीए की डिग्री ली कोलकाता के विद्यालय बैलीगंज शिक्षा सदन में उन्होंने 9 साल बच्चों को पढ़ायाकॉलेज में अध्यापन का भी कार्य किया। उनके पांच कहानी संग्रह दो उपन्यास दो नाटक तथा तीन बार रचनाएं प्रमुख है

मन्नू भंडारी कहती थीं लेखन ने मुझे अपने निहायत निजी समस्याओं के प्रति ऑब्जेक्टिव हो ना हो वह वरना सिखाया है उनके पति राजेंद्र यादव उनके संबंध में लिखते हैं व्यस्त के भाव छाछ में नारी के आंचल में दूध और आंखों में पानी दिखा कर उसने (मन्नू भंडारी) पाठकों की दया नहीं वसूली, वह यथार्थ के धरातल पर नारी का नारी की दृष्टि से अंकन करती है।

1957 में उनकी प्रथम कहानी संग्रह मैं हार गई के कहानी मैं हार गई कहानी पत्रिका में प्रकाशित हुई मैं हार गई कहानी संग्रह में उनकी कुल बारह कहानियां संकलित हुई। जबकि 3 निगाहों की एक तस्वीर जो कि 1959 में आई। उसमें 8 कहानियां संग्रह थी तीन निगाहों की एक तस्वीर कहानी संग्रह में नारी की गाथा हैजो दीर्घ अवधि तक बीमार पति की सेवा करती है। नायिका के व्यक्तित्व का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक अंकन उसके अंदर कहीं किया गया है यही सच है 1966 में उनकी तीसरी कहानी संग्रह प्रकाशित हुईइसमें 8 कहानी संग्रहित हैं। चौथा कहानी संग्रह एक प्लेट सैलाब 1968 में उनका प्रकाशित हुआ नारी जीवन की समस्याओं पर आधारित 9 कहानियों का संग्रह भी उनका प्रकाशित हुआपांचवा कहानी संग्रह 1978 में प्रकाशित हुआ। जिसमें 10 कहानियां थी। मन्नू भंडारी की श्रेष्ठ कहानियां 1969 में प्रकाशित हुई। जिसे राजेंद्र यादव जी ने संपादित कियानायक /खलनायक /विदूषक मन्नू भंडारी की 50 कहानियों का संग्रह मनु भंडारी द्वारा लिखित धारावाहिक___ रजनी की पटकथा इसमें संग्रहित हैजो दूरदर्शन पर एक समय धूम मचा कर रखी थी

एक इंच मुस्कान 1969 में प्रकाशित हुई जिसमें राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी दोनों ने एक साथ काम किया दोनों के द्वारा एक साथ लिखी गई एक मात्र रचना  ज्ञानोदय पत्रिका में धारावाहिक में प्रकाशित किया गया। जिसमें अमर (राजेंद्र यादव) महिला पात्र के रूप में रंजना और अमला को  (मनु भंडारी ) ने चित्रित किया है।

आपका बंटी 1971 में उपन्यास आया महाभोज उपन्यास 1979 में आया जो सामाजिक उपन्यास था। स्वामी नाम का एक उपन्यास रूपांतरित उपन्यास की कहानी के आधार पर वह भी प्रकाशित हुआ।  1966 में मनु भंडारी ने बिना दीवारों का घर एकांकी लिखा

उन्होंने अपने लेखन से महिला स्त्री पात्र के जरिए स्त्री को समझने का प्रयास कियास्त्री विमर्श की जगह स्त्री जगत की समस्या  को ही रख कर उन्हें उस पर चर्चा करना अच्छा लगता था।

2008 में उन्हें व्यास सम्मान प्राप्त हुआ।

कल  15/11/2021 को उनका निधन हो गया।

? स्व मन्नू भंडारी जी को  ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि ?

©  श्री सुधीर सिंह सुधाकर  

दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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