हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ राष्ट्रीय प्रेस दिवस विशेष – मीडिया: एक पांव जमीन पर, दूजा हवा में ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

देश में प्रेस और मीडिया की है बहुत बड़ी जिम्मेदारी

☆ आलेख ☆ राष्ट्रीय प्रेस दिवस विशेष – मीडिया: एक पांव जमीन पर, दूजा हवा में ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(16 नवंबर राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर विशेष आलेख)

मैं शहीद भगत सिंह के पैतृक गांव खटकड कलां के गवर्नमेंट आदर्श सीनियर सेकेंडरी स्कूल में प्रिंसिपल होने के साथ साथ पार्टटाइम रिपोर्टर था दैनिक ट्रिब्यून का। विधिवत जनसंचार की कोई क्लास नहीं लगाई लेकिन समाचार संपादक व शायर सत्यानंद शाकिर के शागिर्द की तरह पूरे ग्यारह साल हुक्का जरूर भरा और आज भी सीखने की कोशिश जारी है। जुनून इतना बढा कि प्रिंसिपल का पद छोड कर चंडीगढ उपसंपादक बन कर आ गया और फिर डेस्क से बोर होकर स्टाफ रिपोर्टर बन हिसार पहुंचा।  खैर। स्कूल के साथ ही सटे घर के मालिक  व विदेशों की धूल फांक कर आये एक साधारण किसान जीत सिंह ने जब पत्रकारिता की व्याख्या की तो थोडी हैरानी हुई। उसने कहा कि न्यूज का मतलब? नॉर्थ, ईस्ट वेस्ट, साउथ। यानी चारों दिशाओं में सही नजर रखकर खबर देना। खबरदार करना। अरे… इतनी उम्मीद है पत्रकार से? सब सही, सब सच दिखाना या देना? इसीलिए लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना और कहा जाता है। शब्द में जो ब्रह्म की शक्ति है वह शायद मीडिया के लिए ज्यादा है। रोज हम पत्रकार शब्दबेधी बाण चलाते हैं और पिछले चार दशक से मैं भी कलम के उन वीरों में शामिल हूं। क्या से क्या हो गया मीडिया? कहां से कहां तक का सफर तय किया मीडिया ने? जो चहूंओर के समाचार देता था वह चार अतिरिक्त पन्नों यानी लोकल न्यूज में ही सिमट कर रह गया? कांगडा की खबर हिसार में नहीं मिलती तो हिसार की कांगडा में नहीं मिलती। यानी सिमट गयी पत्रकारिता। फिर काहे की सामाजिक शर्म? प्रभाष जोशी ने यह बात लिखी थी अपनी विदाई पर कि हम पत्रकार और कुछ शायद न बिगाड सकें लेकिन नेताओं में सामाजिक शर्म तो ला ही देते हैं।  

मैंने पत्रकारिता पर सोशल मीडिया में दो वाक्य पढे-पहले छप कर अखबार बिकते थे। अब बिक कर अखबार छपते हैं। ओह। इतना बिकाऊ हो गया क्या मीडिया? वह आजाद कलम पूंजीपतियों के इशारों पर नाचने लगी? आज हर आदमी यह कहता है कि मीडिया बिकाऊ है। यह नौबत कैसे और क्यों आई? हम यहां तक कैसे पहुंचे? क्या हमारे गिरने की कोई सीमा है? हमारी जिम्मेवारी कौन तय करेगा? हम धूल फांक कर, गली,  शहर, कूचे फलांग कर सच्ची रिपोर्ट लिखते हैं। फिर वह रद्दी की टोकरी में कैसे फेंक दी जाती है? पेज थ्री फिल्म एक सच्चाई के करीब फिल्म थी। माफिया के बारे में लिखने वालों की जान ले ली जाती है। सच कहने पर आग मच जाती है। इसीलिए तो सुरजीत पातर ने कहा – ऐना सच न बोल के कल्ला यानी अकेला रह जावें। क्या पत्रकार अकेला चलने या रह जाने से डरता है? शहीद भगत सिंह के पुरखों के गांव पर जब धर्मयुग में मेरा लम्बा आलेख आया तब मेरी नौकरी पर बन आई थी लेकिन मेरी मदद के लिए जंगबहादुर गोयल आगे आए जो नवांशहर में उपमंडल अधिकारी थे। आज भी खटकड कलां का शहीदी स्मारक और घर जैसे संभाला है उसमें मेरी छोटी सी कलम का योगदान है। इस आलेख के बाद ही स्मारक और घर की ओर सरकार का ध्यान गया।

इसी तरह एक टीवी स्टोरी में सच बोलने वाले पत्रकार की छुट्टी और झूठ लिखने वाले को भव्य सम्मेलन में पुरस्कार। इसी बात की ओर संकेत कि हम झूठ का मायावी संसार रच रहे हैं और सच से कोसों दूर जा रहे हैं। ये चुनाव सर्वेक्षण भी किसी के इशारे पर जनता को गुमराह करने वाले साबित हो रहे हैं। आखिर हम अपनी असली सूरत कब पहचानेंगे?

आइना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे।

मेरे अपने मेरे होने की निशानी मांगें।

बहुत कुछ कहने को है। कलम की ताकत बेकार न जाने दें। पहचानिए अपनी शब्दबेधी शक्ति। मारक शक्ति। बदल देने की शक्ति। इधर हरियाणा के चुनाव में जब एक टिक टॉक गर्ल के रूप में चर्चित प्रत्याशी के पक्ष में वरिष्ठ नेता निकले मैदान में तब मैंने सवाल किया कि आखिर ऐसी प्रत्याशी के लिए वोट मांगने निकलोगे तो फिर आपके बारे में जनता क्या सोचेगी? कुछ तो लिहाज कीजिए। और सचमुच मेरे संपादकीय के बाद वे वट्स अप पर सॉरी लिख गये तो मुझे संतोष हुआ कि अभी सच कहने की आग मुझमें बची है और बस यही आग जरूरी है। दुष्यंत कुमार के शब्दों में :

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

हमें नकारात्मक शक्तियों के खिलाफ कलम उठानी है और नये नायक देने हैं जो समाज के लिए काम कर रहे हैं और करते रहेंगे।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मन्नू भंडारी – अंतिम प्रणाम !! श्रद्धांजलि !! ☆ श्री सुधीर सिंह सुधाकर

श्री सुधीर सिंह सुधाकर

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री सुधीर सिंह सुधाकर जी का हार्दिक स्वागत है। आपका परिचय आपके ही शब्दों में –

“45 वर्ष से लेखन के पश्चात लगता है अभी कुछ नहीं जाना, कुछ नहीं सीख पाया; लेकिन विद्यार्थी बनकर सीखने का जो आनंद है वह आनंद शब्द से परे है।

कोलकाता में जन्म कोलकाता से लेकर अलीगढ़ तक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात दिल्ली में नौकरी जीवन बीमा में 30 वर्ष गुजारने के पश्चात सेवानिवृत्ति के उपरांत 16 घंटे साहित्य सेवा यही बस काम शेष है और इसी में विद्यार्थी की तरह लगा रहता हूं।”  – सुधीर सिंह सुधाकर, दिल्ली

? मन्नू भंडारी –  अंतिम प्रणाम ?

?  श्र द्धां ज लि ?

मन्नू भंडारी जी का जन्म मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में 3 अप्रैल 1931 को हुआ था। बचपन में उनको प्यार से सभी मन्नू कहते थे। उनका नाम महेंद्र कुमारी थालेखन के लिए उन्होंने अपने तखल्लुस नाम की जगह मन्नू नाम का चुनाव किया और शादी के बाद भी मन्नू भंडारी के नाम से जानी जाने लगी।

उनके पिता हिंदी के जाने-माने लेखक सुख संपत राय के द्वारा मन्नू का व्यक्तिगत व्यक्तित्व निर्माण होता रहाशिक्षा प्रथम रसोई द्वितीय को वे प्रमुखता देते थेएक आदर्शवादी पिता एक क्रोधी स्वभाव के पिता से उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिलाउनका अपना प्रथम कहानी संग्रह मैं हार गई अपने पिताजी को समर्पित करते उन्होंने लिखा था ,”जिन्होंने मेरी किसी भी इच्छा पर कभी अंकुश नहीं लगाया” पिताजी को मनु की अपने पिता की नितांत श्रद्धा इसे स्पष्ट होती है मनु भंडारी चार भाई बहन थेमनु भंडारी जी का कहना था  कोई व्यक्ति जन्म से बड़ा नहीं होताबड़ा बनने के लिए सबसे बड़ा योगदान संस्कारों का होता है उसके बाद परिवेश का 

अजमेर में रहकर उन्होंने हाई स्कूल तथा इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की कॉलेज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल ने अंग्रेज सरकार के विरोध में जब उन्हें उकसाया तो वह स्वतंत्र स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ी।देश की स्वतंत्रता मिलने के बाद उन्होंने बीए की डिग्री ली कोलकाता के विद्यालय बैलीगंज शिक्षा सदन में उन्होंने 9 साल बच्चों को पढ़ायाकॉलेज में अध्यापन का भी कार्य किया। उनके पांच कहानी संग्रह दो उपन्यास दो नाटक तथा तीन बार रचनाएं प्रमुख है

मन्नू भंडारी कहती थीं लेखन ने मुझे अपने निहायत निजी समस्याओं के प्रति ऑब्जेक्टिव हो ना हो वह वरना सिखाया है उनके पति राजेंद्र यादव उनके संबंध में लिखते हैं व्यस्त के भाव छाछ में नारी के आंचल में दूध और आंखों में पानी दिखा कर उसने (मन्नू भंडारी) पाठकों की दया नहीं वसूली, वह यथार्थ के धरातल पर नारी का नारी की दृष्टि से अंकन करती है।

1957 में उनकी प्रथम कहानी संग्रह मैं हार गई के कहानी मैं हार गई कहानी पत्रिका में प्रकाशित हुई मैं हार गई कहानी संग्रह में उनकी कुल बारह कहानियां संकलित हुई। जबकि 3 निगाहों की एक तस्वीर जो कि 1959 में आई। उसमें 8 कहानियां संग्रह थी तीन निगाहों की एक तस्वीर कहानी संग्रह में नारी की गाथा हैजो दीर्घ अवधि तक बीमार पति की सेवा करती है। नायिका के व्यक्तित्व का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक अंकन उसके अंदर कहीं किया गया है यही सच है 1966 में उनकी तीसरी कहानी संग्रह प्रकाशित हुईइसमें 8 कहानी संग्रहित हैं। चौथा कहानी संग्रह एक प्लेट सैलाब 1968 में उनका प्रकाशित हुआ नारी जीवन की समस्याओं पर आधारित 9 कहानियों का संग्रह भी उनका प्रकाशित हुआपांचवा कहानी संग्रह 1978 में प्रकाशित हुआ। जिसमें 10 कहानियां थी। मन्नू भंडारी की श्रेष्ठ कहानियां 1969 में प्रकाशित हुई। जिसे राजेंद्र यादव जी ने संपादित कियानायक /खलनायक /विदूषक मन्नू भंडारी की 50 कहानियों का संग्रह मनु भंडारी द्वारा लिखित धारावाहिक___ रजनी की पटकथा इसमें संग्रहित हैजो दूरदर्शन पर एक समय धूम मचा कर रखी थी

एक इंच मुस्कान 1969 में प्रकाशित हुई जिसमें राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी दोनों ने एक साथ काम किया दोनों के द्वारा एक साथ लिखी गई एक मात्र रचना  ज्ञानोदय पत्रिका में धारावाहिक में प्रकाशित किया गया। जिसमें अमर (राजेंद्र यादव) महिला पात्र के रूप में रंजना और अमला को  (मनु भंडारी ) ने चित्रित किया है।

आपका बंटी 1971 में उपन्यास आया महाभोज उपन्यास 1979 में आया जो सामाजिक उपन्यास था। स्वामी नाम का एक उपन्यास रूपांतरित उपन्यास की कहानी के आधार पर वह भी प्रकाशित हुआ।  1966 में मनु भंडारी ने बिना दीवारों का घर एकांकी लिखा

उन्होंने अपने लेखन से महिला स्त्री पात्र के जरिए स्त्री को समझने का प्रयास कियास्त्री विमर्श की जगह स्त्री जगत की समस्या  को ही रख कर उन्हें उस पर चर्चा करना अच्छा लगता था।

2008 में उन्हें व्यास सम्मान प्राप्त हुआ।

कल  15/11/2021 को उनका निधन हो गया।

? स्व मन्नू भंडारी जी को  ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि ?

©  श्री सुधीर सिंह सुधाकर  

दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 125 ☆ जल जंगल जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक ऐतिहासिकआलेख  ‘जल जंगल जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा। इस विचारणीय  एवं ऐतिहासिक आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 125☆

?  जल जंगल जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा  ?

आज रांची झारखंड की राजधानी है. बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहातु गांव में हुआ था .  यह तब की बात है जब  ईसाई मिशनरियां अंग्रेजी फौज के पहुंचने से पहले ही ईसाइयत के प्रचार के लिये गहन तम भीतरी क्षेत्रो में पहुंच जाया करती थीं . वे गरीबों, वनवासियों की चिकित्सकीय व शिक्षा में मदद करके उनका भरोसा जीत लेती थीं. और फिर धर्मान्तरण का दौर शुरू करती थीं. बिरसा मुंडा भी शिक्षा में तेज थे. उनके पिता सुगना मुंडा से लोगों ने कहा कि इसको जर्मन मिशनरी के स्कूल में पढ़ाओ, लेकिन मिशनरीज के स्कूल में पढ़ने की शर्त हुआ करती थी, पहले आपको ईसाई धर्म अपनाना पड़ेगा. बिरसा का भी नाम बदलकर बिरसा डेविड कर दिया गया.

1894 में छोटा नागपुर क्षेत्र में जहां बिरसा रहते थे ,अकाल पड़ा , लोग हताश और परेशान थे. बिरसा को अंग्रेजों के धर्म परिवर्तन के अनैतिक स्वार्थी व्यवहार से चिढ़ हो चली थी. अकाल के दौरान बिरसा ने पूरे जी जान से अकाल ग्रस्त लोगों की अपने तौर पर मदद की. जो लोग बीमार थे, उनका अंधविश्वास दूर करते हुये उनका इलाज करवाया. बिरसा का ये स्नेह और समर्पण देखकर लोग उनके अनुयायी बनते गए . सभी वनवासियों के लिए वो धरती आबा हो गए, यानी धरती के पिता.
अंग्रेजों ने 1882 में फॉरेस्ट एक्ट लागू किया था जिस से सारे जंगलवासी परेशान हो गए थे, उनकी सामूहिक खेती की जमीनों को दलालों, जमींदारों को बांट दिया गया था. बिरसा ने इसके खिलाफ ‘उलगूलान’ का नारा दिया . उलगूलान यानी जल, जंगल, जमीन के अपने अधिकारों के लिए लड़ाई. बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ एक और नारा दिया, ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’, यानी अपना देश अपना राज. करीब 4 साल तक बिरसा मुंडा की अगुआई में जंगलवासियों ने कई बार अंग्रेजों को धूल चटाई. अंग्रेजी हुक्मराम परेशान हो गए, उस दुर्गम इलाके में बिरसा के गुरिल्ला युद्ध का वो तोड़ नहीं ढूंढ पा रहे थे. लेकिन भारत जब जब हारा है , भितरघात और अपने ही किसी की लालच से , बिरसा के सर पर अंग्रेजो ने बड़ा इनाम रख दिया . किसी गांव वाले ने बिरसा का सही पता अंग्रेजों तक पहुंचा दिया. जनवरी १८९० में गांव के पास ही डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा को घेर लिया गया, फिर भी 1 महीने तक जंग चलती रही, सैकड़ों लाशें बिरसा के सामने उनको बचाते हुए बिछ गईं, आखिरकार 3 मार्च वो भी गिरफ्तार कर लिए गए. ट्रायल के दौरान ही रांची जेल में उनकी मौत हो गई.

लेकिन बिरसा की मौत ने न जाने कितनों के अंदर क्रांति की ज्वाला जगा दी. और अनेक नये क्रांतिकारी बन गये . राष्ट्र ने उनके योगदान को पहचाना है . आज भी वनांचल में बिरसा मुंडा को लोग भगवान की तरह पूजते हैं. उनके नाम पर न जाने कितने संस्थानों और योजनाओं के नाम हैं, और न जाने कितनी ही भाषाओं में उनके ऊपर फिल्में बन चुकी हैं. पक्ष विपक्ष की कई सरकारों ने जल जंगल और जमीन के उनके मूल विचार पर कितनी ही योजनायें चला रखी हैं .उनकी जयंती पर इस आदिवासी गुदड़ी के लाल को शत शत नमन . 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 113 ☆ आत्मबोध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 113 ☆ आत्मबोध ☆

आत्म, शुचिता का सूचक है। आत्म आलोकित और पवित्र है। गंगोत्री के उद्गम की तरह, जहाँ किसी तरह का कोई मैल नहीं होता। मैल तो उद्गम से आगे की यात्रा में जमना शुरू होता है। ज्यों-ज्यों यात्रा आगे बढ़ती है, यात्रा के छोटे-बड़े पड़ाव मनुष्य में आत्म-मोह उत्पन्न करते हैं। फिर आत्म-मोह, अज्ञान के साथ मिलकर अहंकार का रूप देने लगता है। जैसे पेट बढ़ने पर घुटने नहीं दिखते, वैसे ही आत्म-मोही की भौंहे फैलकर अपनी ही आँखों में प्रवेश कर जाती हैं। इससे दृष्टि धुंधला जाती है। आगे दृष्टि शनै: शनै: क्षीण होने लगती है और अहंकार के चरम पर आँखें दृष्टि से हीन हो जाती हैं।

दृष्टिहीनता का आलम यह कि अहंकारी को अपने आगे दुनिया बौनी लगती है। वह नाममात्र जानता है पर इसी नाममात्र को सर्वश्रेष्ठ मानता है। ज्ञानी की अवस्था पूर्ण भरे घड़े की तरह होती है। वह शांत होता है, किसी तरह का प्रदर्शन नहीं करता। अज्ञानी की स्थिति इसके ठीक विरुद्ध होती है। वह आधी भरी मटकी के जल की तरह उछल-उछल कर अपना अस्तित्व दर्शाने के हास्यास्पद प्रयास निरंतर करता है। इसीलिए तो कहा गया है, ‘अधजल गगरी छलकत जाए।’

लगभग चार दशक पूर्व  एक अंग्रेजी फिल्म देखी थी। नायक दुर्घटनावश एक ऐसे कस्बे में पहुँच जाता है जहाँ जीवन जीने के तौर-तरीके अभी भी अविकसित और बर्बर हैं। नायक को घेर लिया जाता है। कस्बे का एक योद्धा, नायक के सामने तलवार लेकर खड़ा होता है। तय है कि वह तलवार से नायक को समाप्त कर देगा। अपने अहंकार का मारा कथित योद्धा, नायक का सिर, धड़ से अलग करने से पहले तलवार से अनेक करतब दिखाता है। भारी भीड़ जुटी है। एक ओर नायक स्थिर खड़ा है। दूसरी ओर से तलवारबाजी करता कथित योद्धा नायक की ओर बढ़ रहा है। योद्धा के हर बढ़ते कदम के  साथ शोर भी बढ़ता जाता है। अंततः दृश्य की पराकाष्ठा पर योद्धा ज्यों ही तलवार निकालकर नायक की गर्दन पर वार करने जाता है, अब तक चुप खड़ा नायक, जेब से पिस्तौल निकालकर उसे ढेर कर देता है। भीड़ हवा हो जाती है। ज्ञान के आगे अज्ञान की यही परिणति होती है।

अज्ञान से मुक्ति के लिए आत्म-परीक्षण करना चाहिए। आत्म-परीक्षण होगा, तब ही आत्म-परिष्कार होगा। आत्म-परिष्कार होगा तो मनुष्य आत्म-बोध के दिव्य पथ पर अग्रसर होगा।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 107 ☆ उपलब्धि बनाम आलोचना ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख उपलब्धि बनाम आलोचना।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 107 ☆

☆ उपलब्धि बनाम आलोचना ☆

उपलब्धि व आलोचना एक दूसरे के मित्र हैं। उपलब्धियां बढ़ेंगी, तो आलोचनाएं भी बढ़ेंगी। वास्तव मेंं ये दोनों पर्यायवाची हैं और इनका चोली-दामन का साथ है। इन्हें एक-दूसरे से अलग करने की कल्पना भी बेमानी है। उपलब्धियां प्राप्त करने के लिए मानव को अप्रत्याशित आपदाओं व कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। जीवन में कठिनाइयाँ हमें बर्बाद करने के लिए नहीं आतीं, बल्कि ये हमारी छिपी हुई सामर्थ्य व शक्तियों को बाहर निकालने में हमारी मदद करती हैं। सो! कठिनाइयों को जान लेने दो कि आप उससे भी अधिक मज़बूत व बलवान हैं। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों में धैर्य नहीं खोना चाहिए तथा आपदाओं को अवसर में बदलने का प्रयास करना चाहिए। कठिनाइयां हमें संचित आंतरिक शक्तियों व सामर्थ्य का एहसास दिलाती हैं और उनका डट कर सामना करने को प्रेरित करती हैं। इस स्थिति में मानव स्वर्ण की भांति अग्नि में तप कर कुंदन बनकर निकलता है और अपने भाग्य को सराहने लगता है। उसके हृदय में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ का भाव घर कर जाता है, जिसके लिए वह भगवान का शुक्र अदा करता है कि उसने आपदाओं के रूप में उस पर करुणा-कृपा बरसायी है। इसके परिणाम-स्वरूप ही वह जीवन में उस मुक़ाम तक पहुंच सका है। दूसरे शब्दों में वह उपलब्धियां प्राप्त कर सका है, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।

‘उम्र ज़ाया कर दी लोगों ने/ औरों के वजूद में नुक्स निकालते-निकालते/ इतना ख़ुद को तराशा होता/ तो फरिश्ता बन जाते’ गुलज़ार की यह सीख अत्यंत कारग़र है। परंतु मानव तो दूसरों की आलोचना कर सुक़ून पाता है। इसके विपरीत यदि वह दूसरों में कमियां तलाशने की अपेक्षा आत्मावलोकन करना प्रारंभ कर दे, तो जीवन से कटुता का सदा के लिए अंत हो जाए। परंतु आदतें कभी नहीं बदलतीं; जिसे एक बार यह लत पड़ जाती है, उसे निंदा करने में अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। वैसे आलोचना भी उसी व्यक्ति की होती है, जो उच्च शिखर पर पहुंच जाता है। उसकी पद-प्रतिष्ठा को देख लोगों के हृदय में ईर्ष्या भाव जाग्रत होता है और वह सबकी आंखों में खटकने लग जाता है। शायद इसलिए कहा जाता है कि जो सबका प्रिय होता है– आलोचना का केंद्र नहीं बनता, क्योंकि उसने जीवन में सबसे अधिक समझौते किए होते हैं। सो! उपलब्धि व आलोचना एक सिक्के के दो पहलू हैं और इनका चोली-दामन का साथ है।

समस्याएं हमारे जीवन में बेवजह नहीं आतीं।  उनका आना एक इशारा है कि हमें अपने जीवन में कुछ बदलाव लाना है। वास्तव में यह मानव के लिए शुभ संकेत होती हैं कि अब जीवन में बदलाव अपेक्षित है। यदि जीवन सामान्य गति से चलता रहता है, तो निष्क्रियता इस क़दर अपना जाल फैला लेती है कि मानव उसमें फंसकर रह जाता है। ऐसी स्थिति में उसमें अहम् का पदार्पण हो जाता है कि अब उसका जीवन सुचारू रूप से  चल रहा है और उसे डरने की आवश्यकता नहीं है। परंतु कठिनाइयां व समस्याएं मानव को शुभ संकेत देती हैं कि उसे ठहरना नहीं है, क्योंकि संघर्ष व निरंतर कर्मशीलता ही जीवन है। इसलिए उसे चलते जाना है और आपदाओं से नहीं घबराना है, बल्कि उनका सामना करना है। परिवर्तनशीलता ही जीवन है और सृष्टि में भी नियमितता परिलक्षित है। जिस प्रकार प्रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के पश्चात् पूनम व यथासमय ऋतु परिवर्तन होता है तथा प्रकृति के समस्त उपादान निरंतर क्रियाशील हैं। सो! मानव को उनसे सीख लेकर निरंतर कर्मरत रहना है। जीवन में सुख दु:ख तो मेहमान हैं…आते-जाते रहते हैं। परंतु एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा दस्तक देता है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘नर हो ना निराश करो मन को/  कुछ काम करो, कुछ काम करो’, क्योंकि गतिशीलता ही जीवन है और निष्क्रियता मृत्यु है।

सम्मान हमेशा समय व स्थिति का होता है। परंतु इंसान उसे अपना समझ लेता है। खुशियां धन-संपदा पर नहीं, परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं। एक बच्चा गुब्बारा खरीद कर खुश होता है, तो दूसरा बच्चा उसे बेचकर फूला नहीं समाता। व्यक्ति को सम्मान, पद-प्रतिष्ठा अथवा उपलब्धि संघर्ष के बाद प्राप्त होती है, परंतु वह सम्मान उसकी स्थिति का होता है। परंतु बावरा मन उसे अपनी उपलब्धि समझ हर्षित होता है। प्रतिष्ठा व सम्मान तो रिवाल्विंग चेयर की भांति होता है, जब तक आप पद पर हैं और सामने हैं, सब आप को सलाम करते हैं। परंतु आपकी नज़रें घूमते ही लोगों के व्यवहार में अप्रत्याशित परिवर्तन हो जाता है। सो! खुशियां परिस्थितियों पर निर्भर होती हैं, जो आप की अपेक्षा होती हैं, इच्छा होती है। यदि उनकी पूर्ति हो जाए, तो आपके कदम धरती पर नहीं पड़ते। यदि आपको मनचाहा प्राप्त नहीं होता, तो आप हैरान-परेशान हो जाते हैं और कई बार वह निराशा अवसाद का रूप धारण कर लेती है, जिससे मानव आजीवन मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता।

मानव जीवन क्षण-भंगुर है, नश्वर है, क्योंकि इस संसार में स्थायी कुछ भी नहीं। हमें अगली सांस लेने के लिए पहली सांस को छोड़ना पड़ता है। इसलिए जो आज हमें मिला है, सदा कहने वाला नहीं; फिर उससे मोह क्यों? उसके न रहने पर दु:ख क्यों? संसार में सब रिश्ते-नाते, संबंध- सरोकार सदा रहने वाले नहीं हैं। इसलिए उन में लिप्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि जो आज हमारा है, कल मैं छूटने वाला है, फिर चिन्ता व परेशानी क्यों? ‘दुनिया का उसूल है/ जब तक काम है/  तेरा नाम है/ वरना दूर से ही सलाम है।’ हर व्यक्ति किसी को सलाम तभी करता है, जब तक वह उसके स्वार्थ साधने में समर्थ है तथा मतलब निकल जाने के पश्चात् मानव किसी को पहचानता भी नहीं। यह दुनिया का दस्तूर है इसका बुरा नहीं मानना चाहिए।

समस्याएं भय और डर से उत्पन्न होती हैं। यदि भय, डर,आशंका की जगह विश्वास ले ले, तो समस्याएं अवसर बन जाती हैं। नेपोलियन विश्वास के साथ समस्याओं का सामना करते थे और उसे अवसर में बदल डालते थे। यदि कोई समस्या का ज़िक्र करता था, तो वे उसे बधाई देते हुए कहते थे कि ‘यदि आपके पास समस्या है, तो नि:संदेह एक बड़ा अवसर आपके पास आ पहुंचा है। अब उस अवसर को हाथों-हाथ लो और समस्या की कालिमा में सुनहरी लकीर खींच दो।’ नेपोलियन का यह कथन अत्यंत सार्थक है। ‘यदि तुम ख़ुद को कमज़ोर सोचते हो, तो कमज़ोर हो जाओगे। अगर ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, तो ताकतवर’ स्वामी विवेकानंद जी का यह कथन मानव की सोच को सर्वोपरि दर्शाता है कि हम जो सोचते हैं, वैसे बन जाते हैं। इसलिए सदैव अच्छा सोचो; स्वयं को ऊर्जस्वितत अनुभव करो, तुम सब समस्याओं से ऊपर उठ जाओगे और उनसे उबर जाओगे। सो! आपदाओं को अवसर बना लो और उससे मुक्ति पाने का हर संभव प्रयास करो। आलोचनाओं से भयभीत मत हो, क्योंकि आलोचना उनकी होती है, जो काम करते हैं। इसलिए निष्काम भाव से कर्म करो। सत्य शिव व सुंदर है, भले ही वह देर से उजागर होता है। इसलिए घबराओ मत। बच्चन जी की यह पंक्तियां ‘है अंधेरी रात/ पर दीपक जलाना कब मना है’ मानव में आशा का भाव संचरित करती हैं। रात्रि के पश्चात् सूर्योदय होना निश्चित है। इसलिए धैर्य बनाए रखो और सुबह की प्रतीक्षा करो। थक कर बीच राह मत बैठो और लौटो भी मत। निरंतर चलते रहो, क्योंकि चलना ही जीवन है, सार्थक है, मंज़िल पाने का मात्र विकल्प है। आलोचनाओं को सफलता प्राति का सोपान स्वीकार अपने पथ पर निरंतर अग्रसर हो।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 58 ☆ महामारियों से सीख लेना परमावश्यक ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “महामारियों से सीख लेना परमावश्यक।)

☆ किसलय की कलम से # 58 ☆

☆ महामारियों से सीख लेना परमावश्यक ☆

छिति, जल, पावक, गगन, समीरा

पंच रचित् अति अधम सरीरा

प्राणियों और वनस्पतियों का जीवन उक्त पंच महाभूतों, पृथ्वी के विभिन्न तत्त्वों व इनसे निर्मित पदार्थों पर निर्भर है। प्रत्येक प्राणियों एवं वनस्पतियों में विभिन्न कारणों से कोई न कोई बीमारी लगना आम बात है। इन बीमारियाँ के अनेक प्रकार होते हैं। कुछ बीमारियाँ गंभीर प्रकृति की होती हैं, जिनसे जीव व वनस्पतियों का अंत भी होता आया है। बीमारियों का क्षेत्र सीमित अथवा व्यापक हो सकता है। इनकी अवधि कुछ दिनों से लेकर कई कई वर्षों तक हो सकती है।

विश्व में मनुष्यों की बीमारियों को लेकर लगातार अनुसंधान व इनके सटीक उपचार हेतु गहन अध्ययन व परीक्षण किये जा रहे हैं। नई-नई दवाईयों की खोज निरंतर की जा रही है। हम इतिहास देखें तो पाएँगे कि लाल बुखार, प्लेग, मलेरिया, बड़ी चेचक, एड्स, स्वाइन फ्लू एवं इस सदी की कोरोना (कोविड-19) जैसी भयानक महामारी की विभिषिकाओं ने तात्कालिक जनजीवन अस्त-व्यस्त किया है। बावजूद इसके मानव ने इन सब पर विजय भी प्राप्त की है। कोरोना बीमारी के विरुद्ध भारत की त्वरित सुरक्षात्मक प्रशासनिक कार्यवाही व कोरोना रोगप्रतिरोधी टीकाकरण अभियान ने विश्व को दिखा दिया है कि भारत द्वारा कोरोना विरोधी अभियान सबसे कारगर था।

विगत में फैली महामारियों के दुष्परिणामों एवं वर्तमान के कोरोना से अस्त-व्यस्त हुए समाज को पुनः पटरी पर आने में पता नहीं कितना वक्त लगेगा। इस महामारी के दौरान जनहानि के तो ऐसे ऐसे हृदय-विदारक दृश्य उपस्थित हुए हैं कि जिन्हें आजीवन नहीं भुलाया जा सकेगा। लोगों के रोजगार-धंधे चौपट हो गए। अच्छे-भले व्यापारी सड़क पर आ गए। लोगों का जमा जमाया कारोबार ठप्प हो गया। गरीबों की हालत बयां करने हेतु हमारे पास शब्द नहीं हैं। सामयिक सरकारी राहत तथा खाद्य सामग्री के भरोसे जीवन सँवरा नहीं करते। भूख मिटाना आपदा में आई मुसीबत का निराकरण नहीं है। कोरोना के पूर्व लोग जिस तरह अपने पसंद की जिंदगी जी रहे थे, क्या अभी संभव है, ये बात संपन्न-संभ्रांत लोगों की नहीं, सर्वहारा समाज की है। रोज की मजदूरी से जीवन-यापन करने वाले लोगों ने जो पाई-पाई जोड़कर कुछ रकम बचाई थी, वह तो कोरोना अवधि की बेरोजगारी के चलते समाप्त हो गई। अब तो यदि मजदूरी नहीं की तो खाने के भी लाले पड़ जाएँगे, अभी ये बचत की  सोच भी नहीं सकते।

दुर्घटनाएँ, बीमारियाँ अथवा कोई महामारी बताकर नहीं आती। अचानक आई आपदा निश्चित रूप से बहुत हानिकारक व भयावह होती है। विगत से ली गई सीख और इस कोरोना महामारी ने जनसामान्य एवं सरकार को भी सतर्क रहने तथा ऐसी किसी भी विकट परिस्थितियों से निपटने के लिए सदैव तत्पर रहना सिखा दिया है।

एक अहम बात संपूर्ण विश्व की समझ में आ चुकी है कि भविष्य में ऐसी आपदाओं का आना पुनः संभाव्य है, बस हमें समय व स्थान का पता नहीं होगा। हम विगत की महामारियों के दुष्परिणाम पूर्व में ही सुन चुके हैं। अब हमने वर्तमान कोरोना महामारी का प्रलयंकारी रूप भी देख लिया है। इन महामारियों से बचना और बचाना अब हर मानव का सामाजिक दायित्व बन गया है। बूँद-बूँद जल से घड़ा भरता है। एक और एक ग्यारह भी होते हैं। इसलिए ‘पहले आप’ के स्थान पर ‘पहले स्वयं’ ही अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना और सुरक्षित रहना सीख लें। तभी ये बातें सार्थक होंगी।

इतनी विपरीत परिस्थितियों में रहकर भी यदि हम नहीं सुधरे, आशय यह है कि हम अब भी नवीनतम तकनीकि जनित सुख-सुविधाओं व ऐशोआराम के पीछे ही पड़े रहे, तो यह बात भी स्मरण रखिये कि ऐसी परिणति का ‘कोरोना’ सिर्फ एक नमूना है, इससे भी विषम परिस्थितियों का सामना भविष्य में करना पड़ सकता है।

हमें अब अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना बंद करना होगा। आज हम जिस डाल पर बैठे हैं उसी डाल को ही काटने पर तुले हुए हैं, अर्थात हम जिस धरा पर जीवन जी रहे हैं, उसी का बेरहमी से दोहन कर रहे हैं, दुरुपयोग और अत्याचार कर रहे हैं। यदि अब भी मानव ने प्रकृति के साथ छेड़छाड़  बंद नहीं की। प्रकृति के अनुकूल उसके आँचल में जीना प्रारंभ नहीं किया तो  भविष्य बदतर और भयानक होगा ही, मौलिक जरूरतें जैसे हवा, पानी, आवास, प्राकृतिक खाद्य सामग्रियों के भी लाले पड़ने वाले हैं। तब इन सब के अभाव में मृत्यु जैसी घटनाओं को भी सहजता में लिया जाएगा, हम इसे भी न भूलें।

आज इन महामारियों से सीख लेना परमावश्यक हो गया है। हमें प्रगति की अंधी दौड़ से बचना होगा। हमें पर्यावरण बचाना होगा। साथ ही प्रकृति के निकट रहने के आदत डालना होगी। वर्तमान की जीवन शैली का परित्याग कर हमें स्वीकार करना होगा कि भारतीय परंपरानुसार जीवन जीना ही हर आपदा का निदान है।

आईये, अपने वेदोक्त-

          सर्वे भवन्तु सुखिनः,

          सर्वे सन्तु निरामया।

          सर्वे भद्राणि पश्यन्तु

          मा कश्चित् दुख भाग् भवेत्

अर्थात सभी सुखी हों, सभी रोग मुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुख का भागी न बनना पड़े।

उक्त भावों को हृदयंगम करते हुए हम ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के प्रयास प्रारंभ करें। निश्चित रूप से सुख-शांति का सबके जीवन में डेरा होगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 124 ☆ अमेरिका में  छुट्टियाँ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय आलेख  ‘अमेरिका में  छुट्टियाँ। इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 124 ☆

? अमेरिका में  छुट्टियाँ ?

अभी सालभर में मात्र  11 छुट्टियाँ अमेरिका में  है ।

इन छुट्टियों को  इस तरह डिज़ायन किया गया है  की कम छुट्टियों में याद सबको कर लिया जाए.

अमेरिका के सारे राष्ट्रपतियों की याद में प्रेसिडेंट डे मना लिया जाता है.

सिवल वार में शहीद हुये लोगों के लिए मेमोरीयल डे होता है.

सैनिकों को सम्मान देने के लिए वेटरन डे.

श्रम शक्ति के लिए लेबर डे , कोलंबस डे , मूल निवासी रेड इंडियन्स को धन्यवाद देने के लिए  थैंक्स गिविंग डे. क्रिसमस, न्यू year और स्वतंत्रता दिवस है ही.

इन छुट्टियो में भी कई फ़िक्स डेट में नहीं होतीं , बल्कि सोमवार या शुक्रवार को मना ली जाती हैं. जैसे कोलंबस डे 8 ऑक्टोबर से 14 के बीच जो सोमवार हो, उसमें माना जाएगा.  रविवार छुट्टी होती ही है  साथ में सोमवार भी छुट्टी हो गई तो  फ़ायदा यह होता है कि लोगों को लम्बा वीकेंड मिल जाता है,

इससे पर्यटन को भी बढ़ावा मिलता है ।

ईस्टर , गुड फ़्राइडे आदि की छुट्टी वहाँ नहीं होती ।

छुट्टियों के मामले में इतने न्यून दिवस वाले देश अमेरिका में संसद में विधेयक आया है कि दीपावली को राष्ट्रीय छुट्टी घोषित किया जाए.

यद्यपि हिंदू अमेरिका में बमुश्किल 1 % हैं , पर सांसद का तर्क है कि दीवाली विश्व का त्योहार है. बुराई पर अच्छाई की जीत, अंधेरे पर उजाले की जीत.

अतः , हर अमेरिकन को यह रोशनी का पर्व मनाना चाहिए.

 

अमेरिका इसीलिए विश्व मे सर्वोच्च है क्योंकि वे अच्छी बात सीखने और स्वीकार करने में नहीं हिचकते. सारी दुनिया की अच्छाई स्वीकार कर उसे अमेरिकन कर देते हैं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 123 ☆ इंजीनियरिंग का करिश्मा नर्मदा जल से क्षिप्रा में सिहस्थ स्नान ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय  एवं ज्ञानवर्धक आलेख  ‘इंजीनियरिंग का करिश्मा नर्मदा जल से क्षिप्रा में सिहस्थ स्नान। इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 123 ☆

? इंजीनियरिंग का करिश्मा नर्मदा जल से क्षिप्रा में सिहस्थ स्नान ?

२००९ में उज्जैन में अभूतपूर्व सूखा पड़ा और पानी की आपूर्ति के लिये शासन को  ट्रेन की व्यवस्था तक करनी पड़ी, शायद तभी क्षिप्रा में सिंहस्थ के लिये वैकल्पिक जल स्त्रोत की व्यवस्था करने की जरूरत को समझा जाने लगा था. ‘नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना’ की स्वीकृति दी गई. इस परियोजना की कामयाबी से महाकाल की नगरी में पहुंची मां नर्मदा. इससे  क्षिप्रा नदी को नया जीवन मिलने के साथ मालवा अंचल को गंभीर जल संकट से स्थायी निजात हासिल होने की उम्मीद है। नर्मदा के जल को बिजली के ताकतवर पम्पों की मदद से कोई 50 किलोमीटर की दूरी तक बहाकर और 350 मीटर की उंचाई तक लिफ्ट करके क्षिप्रा के प्राचीन उद्गम स्थल तक  इंदौर से करीब 30 किलोमीटर दूर उज्जैनी गांव की पहाड़ियों पर जहां क्षिप्रा  लुप्त प्राय है, लाने की व्यवस्था की गई है. नर्मदा नदी की ओंकारेश्वर सिंचाई परियोजना के खरगोन जिले स्थित सिसलिया तालाब से पानी लाकर इसे क्षिप्रा के उद्गम स्थल पर छोड़ने की परियोजना से नर्मदा का जल क्षिप्रा में प्रवाहित होगा और तकरीबन 115 किलोमीटर की दूरी तय करता हुआ प्रदेश की प्रमुख धार्मिक नगरी उज्जैन तक पहुंचेगा. ‘नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना’ की बुनियाद 29 नवंबर 2012 को रखी गयी थी। इस परियोजना के तहत चार स्थानों पर पम्पिंग स्टेशन बनाये गये हैं। इनमें से एक पम्पिंग स्टेशन 1,000 किलोवॉट क्षमता का है, जबकि तीन अन्य पम्पिंग स्टेशन 9,000 किलोवाट क्षमता के हैं। परियोजना के तीनों चरण पूरे होने के बाद मालवा अंचल के लगभग 3,000 गांवों और 70 कस्बों को प्रचुर मात्रा में पीने का पानी भी मुहैया कराया जा सकेगा। इसके साथ ही, अंचल के लगभग 16 लाख एकड़ क्षेत्र में सिंचाई की अतिरिक्त सुविधा विकसित की जा सकेगी।

नर्मदा तो सतत वाहिनी जीवन दायिनी नदी है, उसने क्षिप्रा सहित साबरमती नदी को भी नवजीवन दिया है.गुजरात में नर्मदा जल को सूखी साबरमती में  डाला जाता है, लेकिन साबरमती में नर्मदा का पानी नहर के माध्यम से मिलाया जाता है  बिजली के पम्प से नीचे से ऊपर नहीं चढ़ाया जाता क्योंकि वहां की भौगोलिक स्थिति तदनुरूप है.

नर्मदा का धार्मिक महत्व अविवादित है, विश्व में केवल यही एक नदी है जिसकी परिक्रमा का धार्मिक महत्व है. नर्मदा के हर कंकर को शंकर की मान्यता प्राप्त है, मान्यता है कि स्वयं गंगा जी वर्ष में एक बार नर्मदा में स्नान हेतु आती हैं, जहां अन्य प्रत्येक नदी या तीर्थ में दुबकी लगाकर स्नान का महत्व है वही नर्मदा के विषय में मान्यता है कि सच्चे मन से पूरी श्रद्धा से नर्मदा के दर्शन मात्र से सारे पाप कट जाते हैं तो इस बार जब सिंहस्थ में क्षिप्रा में डुबकी लगायें तो नर्मदा का ध्यान करके श्रद्धा से दर्शन कर सारे अभिराम दृश्य को मन में अवश्य उतार कर दोहरा पुण्य प्राप्त करने से न चूकें, क्योकि इस बार क्षिप्रा के जिस जल में आप नहा रहे होंगे वह इंजीनियरिंग का करिश्मा नर्मदा जल होगा.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 112 ☆ आत्मदीपो भव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 112 ☆ आत्मदीपो भव ☆

भारतीय दर्शन कहता है, ‘आत्मदीपो भव!’ क्या है अर्थ आत्मदीप होने का? आत्मदीप होना अर्थात अपनी आत्मा की ओर देखना। स्वयंप्रभा आत्मा के आलोक में अपनी यात्रा करना। अपना दीपक आप बनना।

एक सूरदास साधक अपने मित्र से मिलने गया। मित्रों की बातचीत में समय का ध्यान ही नहीं रहा। सूर्यास्त हो चला। मित्र ने कहा, “अंधेरे में घर लौटने में तुम्हें कठिनाई होगी। आज मेरे निवास पर ही रुको।” सूरदास ने कहा, “तुम मुझे एक दीप प्रज्वलित करके दे दो। मैं उसकी सहायता से सरलता से घर पहुँच जाऊँगा‌।” मित्र ने आश्चर्य से पूछा, “दीप का भला तुम्हें क्या लाभ?” सूरदास ने कहा, “दीपक से मुझे तो नहीं दिखाई देगा पर राह में चल रहा दूसरा पथिक मुझे देख पायेगा और इस तरह किसी प्रकार की दुर्घटना से मैं बचा रहूँगा।” मित्र ने मित्र की बात का सम्मान करते हुए दीप प्रज्वलित करके दे दिया। सूरदास अपनी राह पर बढ़ चला। थोड़ा समय निर्विघ्न बीता। फिर एकाएक एक व्यक्ति आकर सूरदास से ज़ोर से टकरा गया। वह क्षमायाचना करने लगा पर सूरदास आक्रोश से भर उठा। कहा, “मुझे तो विधाता ने देखने के लिए आँखें नहीं दीं पर तुम तो आँखें होते हुए भी दीपक का प्रकाश नहीं देख सके।” पथिक ने आश्चर्य से कहा,” कैसा प्रकाश? क्षमा करें दीपक तो आपके हाथ में है पर यह प्रज्ज्वलित नहीं है। संभवत: वायु से बहुत पहले ही बुझ चुका। यदि यह प्रज्ज्वलित होता तो मुझसे यह भूल नहीं होती।” सूरदास के नेत्रों से खारा जल बह निकला। कहा,”भूल तो मुझसे हुई है। आज मैंने पाठ पढ़ा कि उधार के प्रकाश से कोई भी अपनी यात्रा पूरी नहीं कर सकता। दीपक तो व्यक्ति को अपने भीतर ही जलाना होता है, आत्मदीप होना पड़ता है।”

मार्गदर्शक ईमानदार हो, गुरु सच्चा हो तो बाहर से अंदरूनी प्रकाश की ओर जाने का संकेत तो मिल सकता है पर अंततः हरेक को अपनी यात्रा स्वयं ही करनी होती है।

कम कहे को अधिक मानना, अधिक जानना। उस संक्षिप्त पर विराट दर्शन का पुनरुच्चार और क्रियान्वयन करना जिसका कण- कहता है, ‘आत्मदीपो भव!’

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 106 ☆ सुक़ून की तलाश ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख सुक़ून की तलाश।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 106 ☆

☆ सुक़ून की तलाश ☆

‘चौराहे पर खड़ी ज़िंदगी/ नज़रें दौड़ाती है / कोई बोर्ड दिख जाए /जिस पर लिखा हो /सुक़ून… किलोमीटर।’ इंसान आजीवन दौड़ता रहता है ज़िंदगी में… सुक़ून की तलाश में, इधर-उधर भटकता रहता है और एक दिन खाली हाथ इस जहान से रुख़्सत हो जाता है। वास्तव में मानव की सोच ही ग़लत है और सोच ही जीने की दिशा निर्धारित करती है। ग़लत सोच, ग़लत राह, परिणाम- शून्य अर्थात् कभी न खत्म होने वाला सफ़र है, जिसकी मंज़िल नहीं है। वास्तव में मानव की दशा उस हिरण के समान है, जो कस्तूरी की गंध पाने के निमित्त, वन-वन की खाक़ छानता रहता है, जबकि कस्तूरी उसकी नाभि में स्थित होती है। उसी प्रकार बाबरा मनुष्य सृष्टि-नियंता को पाने के लिए पूरे संसार में चक्कर लगाता रहता है, जबकि वह उसके अंतर्मन में बसता है…और माया के कारण वह मन के भीतर नहीं झांकता। सो! वह आजीवन हैरान- परेशान रहता है और लख-चौरासी अर्थात् आवागमन के चक्कर से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। कबीरजी का दोहा ‘कस्तूरी कुंडली बसे/ मृग ढूंढे बन मांहि/ ऐसे घट-घट राम हैं/ दुनिया देखे नांही’  –सांसारिक मानव पर ख़रा उतरता है। अक्सर हम किसी वस्तु को संभाल कर रख देने के पश्चात् भूल जाते हैं कि वह कहां रखी है और उसकी तलाश इधर-उधर करते रहते हैं, जबकि वह हमारे आसपास ही रखी होती है। इसी प्रकार मानव भी सुक़ून की तलाश में भटकता रहता है, जबकि वह तो उसके भीतर निवास करता है। जब हमारा मन व चित्त एकाग्र हो जाता है; उस स्थिति में परमात्मा से हमारा तादात्म्य हो जाता है और हमें असीम शक्ति व शांति का अनुभव होता है। सारे दु:ख, चिंताएं व तनाव मिट जाते हैं और हम अलौकिक आनंद में विचरण करने लगते हैं… जहां ‘मैं और तुम’ का भाव शेष नहीं रहता और सुख-दु:ख समान प्रतीत होने लगते हैं। हम स्व-पर के बंधनों से भी मुक्त हो जाते हैं। यही है आत्मानंद अथवा हृदय का सुक़ून; जहां सभी नकारात्मक भावों का शमन हो जाता है और क्रोध,  ईर्ष्या आदि नकारात्मक भाव जाने कहां लुप्त जाते हैं।

हां ! इसके लिए आवश्यकता है…आत्मकेंद्रितता, आत्मचिंतन व आत्मावलोकन की…अर्थात् सृष्टि में जो कुछ हो रहा है, उसे निरपेक्ष भाव से देखने की। परंतु जब हम अपने अंतर्मन में झांकते हैं, तो हमें अच्छे-बुरे व शुभ-अशुभ का ज्ञान होता है और हम दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति पाने का भरसक प्रयास करते हैं। उस स्थिति में न हम दु:ख से विचलित होते हैं; न ही सुख की स्थिति में फूले समाते हैं; अपितु राग-द्वेष से भी कोसों दूर रहते हैं। यह है अनहद नाद की स्थिति…जब हमारे कानों में केवल ‘ओंम’ अथवा ‘तू ही तू’ का अलौकिक स्वर सुनाई पड़ता है अर्थात् ब्रह्म ही सर्वस्व है… वह सत्य है, शिव है, सुंदर है और सबसे बड़ा हितैषी है। उस स्थिति में हम निष्काम कर्म करते हैं…निरपेक्ष भाव से जीते हैं और दु:ख, चिंता व अवसाद से मुक्त रहते हैं। यही है हृदय की मुक्तावस्था… जब हृदय में उठती भाव-लहरियां शांत हो जाती हैं… मन और चित्त स्थिर हो जाता है …उस स्थिति में हमें सुक़ून की तलाश में बाहर घूमना नहीं पड़ता। उस मनोदशा को प्राप्त करने के लिए हमें किसी भी बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि आप स्वयं ही अपने सबसे बड़े संसाधन हैं। इसके लिए आपको केवल यह जानने की दरक़ार रहती है कि आप एकाग्रता से अपनी ज़िंदगी बसर कर रहे हैं या व्यर्थ की बातों अर्थात् समस्याओं में उलझे रहते हैं। सो! आपको अपनी क्षमता व योग्यताओं को बढ़ाने के निमित्त अधिकाधिक समय स्वाध्याय व चिंतन-मनन में लगाना होगा और अपना चित्त ब्रह्म के ध्यान में  एकाग्र करना होगा। यही है…आत्मोन्नति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग। यदि आप शांत भाव से अपने चित्त को एकाग्र नहीं कर सकते, तो आपको अपनी वृत्तियों को बदलना होगा और यदि आप एकाग्र-चित्त होकर, शांत भाव से परिस्थितियों को बदलने का सामर्थ्य भी नहीं जुटा पाते, तो उस स्थिति में आपके लिए मन:स्थिति को बदलना ही श्रेयस्कर होगा। यदि आप दुनिया के लोगों की सोच नहीं बदल सकते, तो आपके लिए अपनी सोच को बदल लेना ही उचित, सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम होगा। राह में बिखरे कांटों को चुनने की अपेक्षा जूता पहन लेना आसान व सुविधाजनक होता है। जब आप यह समझ लेते हैं, तो विषम परिस्थितियों में भी आपकी सोच सकारात्मक हो जाती है, जो आपको पथ-विचलित नहीं होने देती। सो! जीवन से नकारात्मकता को निकाल बाहर फेंकने के पश्चात् पूरा संसार सत्यम् शिवम्, सुंदरम् से आप्लावित दिखाई पड़ता है।

सो! सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहिए, क्योंकि बुरी संगति के लोगों के साथ रहने से बेहतर है… एकांत में रहना। ज्ञानी, संतजन व सकारात्मक सोच के लोगों के लिए एकांत स्वर्ग तथा मूर्खों के लिए क़ैद-खाना है। अज्ञानी व मूर्ख लोग आत्मकेंद्रित व कूपमंडूक होते हैं तथा अपनी दुनिया में रहना पसंद करते हैं। ऐसे अहंनिष्ठ लोग पद-प्रतिष्ठा देखकर, ‘हैलो-हाय’ करने व संबंध स्थापित करने में विश्वास रखते हैं। इसलिए हमें ऐसे लोगों को कोटिश: शत्रुओं सम त्याग देना चाहिए…तुलसीदास जी की यह सोच अत्यंत सार्थक है।

मानव अपने अंतर्मन में असंख्य अद्भुत, विलक्षण शक्तियां समेटे है। परमात्मा ने हमें देखने, सुनने, सूंघने, हंसने, प्रेम करने व महसूसने आदि की शक्तियां प्रदान की हैं। इसलिए मानव को परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति स्वीकारा गया है। सो! हमें इनका उपभोग नहीं, उपयोग करना चाहिए… सदुपयोग अथवा नि:स्वार्थ भाव से उनका प्रयोग करना चाहिए। यह हमें परिग्रह अर्थात् संग्रह-दोष से मुक्त रखता है, क्योंकि हमारे शब्द व मधुर वाणी, हमें पल भर में सबका प्रिय बना सकती है और शत्रु भी। इसलिए सोच-समझकर मधुर व कर्णप्रिय शब्दों का प्रयोग कीजिए,  क्योंकि शब्द हमारे व्यक्तित्व का आईना होते हैं। सो! हमें दूसरों के दु:ख की अनुभूति कर, उनके प्रति करुणा-भाव प्रदर्शित करना चाहिए। समय सबसे अनमोल धन है; उससे बढ़कर तोहफ़ा दुनिया में हो ही नहीं सकता… जो आप किसी को दे सकते हैं। धन-संपदा देने से अच्छा है कि आप उस के दु:ख को अनुभव कर, उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करें तथा प्राणी-मात्र के प्रति स्नेह-सौहार्द भाव बनाए रखें।

स्वयं को पढ़ना दुनिया का सबसे कठिन कार्य है… प्रयास अवश्य कीजिए। यह शांत मन से ही संभव है। खामोशियां बहुत कुछ कहती हैं। कान लगाकर सुनिए, क्योंकि भाषाओं का अनुवाद तो हो सकता है, भावनाओं का नहीं…हमें इन्हें समझना, सहेजना व संभालना होता है। मौन हमारी सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम भाषा है, जिसका लाभ दोनों पक्षों को होता है। यदि हमें स्वयं को समझना है, तो हमें खामोशियों को पढ़ना व सीखना होगा। शब्द खामोशी की भाषा का अनुवाद तो नहीं कर सकते। सो! आपको खामोशी के कारणों की तह तक जाना होगा। वैसे भी मानव को यही सीख दी जाती है कि ‘जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों, तभी मुंह खोलना चाहिए।’  मानव की खामोशी अथवा एकांत में ही हमारे शास्त्रों की रचना हुई है। इसीलिए कहा जाता है कि अंतर्मुखी व्यक्ति जब बोलता है, तो उसका प्रभाव लंबे समय तक रहता है… क्योंकि उसकी वाणी सार्थक होती है। परंतु जो व्यक्ति अधिक बोलता है, व्यर्थ की हांकता है तथा आत्म-प्रशंसा करता है… उसकी वाणी अथवा वचनों की ओर कोई ध्यान नहीं देता…उसकी न घर में अहमियत होती है, न ही बाहर के लोग उसकी ओर तवज्जो देते हैं। इसलिए अवसरानुकूल, कम से कम शब्दों में अपनी बात कहने की दरक़ार होती है, क्योंकि जब आप सोच-समझ कर बोलेंगे, तो आपके शब्दों का अर्थ व सार्थकता अवश्य होगी। लोग आपकी महत्ता को स्वीकारेंगे, सराहना करेंगे और आपको चौराहे पर खड़े होकर सुक़ून की तलाश …कि• मी• के बोर्ड की तलाश नहीं करनी पड़ेगी, बल्कि आप स्वयं तो सुक़ून से रहेंगे ही; आपके सानिध्य में रहने वालों को भी सुक़ून की प्राप्ति होगी।

वैसे भी क़ुदरत ने तो हमें केवल आनंद ही आनंद दिया है, दु:ख तो हमारे मस्तिष्क की उपज है। हम जीवन-मूल्यों का तिरस्कार कर,  प्रकृति से खिलवाड़ व उसका अतिरिक्त दोहन कर, स्वार्थांध होकर दु:खों को अपना जीवन-साथी बना लेते हैं और अपशब्दों व कटु वाणी द्वारा उन्हें अपना शत्रु बना लेते हैं। हम जिस सुख व शांति की तलाश संसार में करते हैं, वह तो हमारे अंतर्मन में व्याप्त है। हम मरुस्थल में मृग-तृष्णाओं के पीछे दौड़ते-दौड़ते, हिरण की भांति अपने प्राण तक गंवा देते हैं और अंत में हमारी स्थिति ‘माया मिली न राम’ जैसी हो जाती है। हम दूसरों के अस्तित्व को नकारते हुए, संसार में उपहास का पात्र बन जाते हैं;  जिसका दुष्प्रभाव दूसरों पर ही नहीं, हम पर ही पड़ता है। सो! संस्कृति को, संस्कारों की जननी स्वीकार, जीवन-मूल्यों को अनमोल जानकर जीवन में धारण कीजिए, क्योंकि लोग तो दूसरों की उन्नति करते देख, उनकी टांग खींच, नीचा दिखाने में ही विश्वास रखते हैं। उनकी अपनी ज़िंदगी में तो सुक़ून होता ही नहीं और वे दूसरों को भी सुक़ून से नहीं जीने देते हैं। अंत में, मैं महात्मा बुद्ध का उदाहरण देकर अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी। एक बार उनसे किसी ने प्रश्न किया ‘खुशी चाहिए।’ उनका उत्तर था पहले ‘मैं’ का त्याग करो, क्योंकि इसमें ‘अहं’ है। फिर ‘चाहना’ अर्थात् ‘चाहता हूं’ को हटा दो, यह ‘डिज़ायर’ है, इच्छा है। उसके पश्चात् शेष बचती है, ‘खुशी’…वह  तुम्हें मिल जाएगी। अहं का त्याग व इच्छाओं पर अंकुश लगाकर ही मानव खुशी को प्राप्त कर सकता है, जो क्षणिक सुख ही प्रदान नहीं करती, बल्कि शाश्वत सुखों की जननी है।’ हां! एक अन्य तथ्य की ओर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी कि ‘इच्छा से परिवर्तन नहीं होता; निर्णय से कुछ होता है तथा निश्चय से सब कुछ बदल जाता है और मानव अपनी मनचाही मंज़िल अथवा मुक़ाम पर पहुंच जाता है।’ इसलिए दृढ़-निश्चय व आत्मविश्वास को संजोकर रखिए; अहं का त्याग कर मन पर अंकुश लगाइए; सबके प्रति स्नेह व सौहार्द रखिए तथा मौन के महत्व को समझते हुए, समय व स्थान का ध्यान रखते हुए अवसरानुकूल सार्थक वाणी बोलिए अर्थात् आप तभी बोलिए, जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों…क्योंकि यही है–सुक़ून पाने का सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम मार्ग, जिसकी तलाश में मानव युग-युगांतर से भटक रहा है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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