हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 19 ☆ आज की पत्रकारिता ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “आज की पत्रकारिता)

☆ किसलय की कलम से # 19 ☆

☆ आज की पत्रकारिता ☆

निज कबित्त केहि लाग न नीका

सरस होउ अथवा अति फीका

अपना काम, अपना नाम, अपना व्यवसाय किसे अच्छा नहीं लगता। वकील अपने व्यवसाय और अपनी जीत के लिए कितनी झूठी-सच्ची दलीलें देते हैं, हम सभी जानते हैं। डॉक्टर और दूकानदार अपने लाभ के लिए क्या झूठ नहीं बोलते?

तब पत्रकार बंधु कोई अलग दुनिया के तो हैं नहीं। इन्हें भी लाभ की आकांक्षा है, सारी दुनिया में लोग रोजी-रोटी से आगे भी कुछ चाहते हैं।

बस यही वह चाह है जो हमें ईमानदारी के मार्ग पर चलने से रोकती है। आज मैं कुछ ऐसी बातों का उल्लेख करना चाहता हूँ, जो कुछ पत्रकार बंधुओं  को अच्छी नहीं लगेंगी। दूसरी ओर ये वो बातें हैं जो समाज में  पत्रकारों के लिए आये दिन कही भी जाती हैं।

मेरा सभी बंधुओं से निवेदन है कि वे इन बातों एवं तथ्यों को व्यक्तिगत नहीं लेंगे।

आज के बदलते वक्त और परिवेश में पत्रकारिता के उद्देश्य एवं स्वरूप में जमीन-आसमान का अंतर हो गया है। अकल्पनीय परिवर्तन हो गए हैं।आईये, हम कुछ कड़वे सच और उनकी हक़ीक़त पर चिंतन करने की कोशिश करें।

सर्वप्रथम, यदि हम ब्रह्मर्षि नारद जी को पत्रकारिता का जनक कहें तो उनके बारे में कहा जाता है कि वे एक स्थान पर रुकते ही नहीं थे. आशय ये हुआ कि नारद जी भेंटकर्ता एवं घुमंतू प्रवृत्ति के थे.

आज की पत्रकारिता से ये गुण लुप्तप्राय हो गये हैं. इनकी जगह दूरभाष, विज्ञप्तियाँ और एजेंसियाँ ले रहीं हैं. सारी की सारी चीज़ें प्रायोजित और व्यावसायिक धरातल पर अपने पैर जमा चुकी हैं.

आज की पत्रकारिता के गुण-धर्म और उद्देश्य पूर्णतः बदले हुए प्रतीत होने लगे हैं. आजकल पत्रकारिता, प्रचार-प्रसार और अपनी प्रतिष्ठा पर लगातार ध्यान केंद्रित रखती है.

पहले यह कहा जाता था कि सच्चे पत्रकार किसी से प्रभावित नहीं होते, चाहे सामने वाला कितना ही श्रेष्ठ या उच्च पदस्थ क्यों न हो, लेकिन अब केवल इन्हीं के इर्दगिर्द आज की पत्रकारिता फलफूल रही है.

आज हम सारे अख़बार उठाकर देख लें, सारे टी. वी. चेनल्स देख लें. हम पत्र-पत्रिकाएँ या इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री देख लें, आपको हर जगह व्यावसायिकता तथा टी. आर. पी. बढाने के फार्मूले नज़र आएँगे. हर सीधी बात को नमक-मिर्च लगाकर या तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने का चलन बढ़ गया है. बोला कुछ जाता है, समाचार कुछ बनता है. घटना कुछ होती है, उसका रूप कुछ और होता है.

कुछ समाचार एवं चेनल्स तो मन माफिक समाचारों के लिए एजेंसियों की तरह काम करने लगे हैं. इससे भी बढ़कर कुछ धनाढ्य व्यक्तियों अथवा संस्थानों द्वारा बाक़ायदा अपने समाचार पत्र और टी. वी. चेनल्स संचालित किए जा रहे हैं. हमें आज ये भी सुनने को मिल जाता है कि कुछ समाचार पत्र और चेनल्स काला बाज़ारी पर उतर आते हैं.

मैं ऐसा नहीं कहता कि ये कृत्य हर स्तर पर है, लेकिन आज इस सत्यता से मुकरा भी नहीं जा सकता.

आज की पत्रकारिता कैसी हो? तो प्रतिप्रश्न ये उठता है कि पत्रकारिता कैसी होना चाहिए?

पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य सामाजिक घटनाओं और गतिविधियों को समाज के सामने उजागर कर जन-जन को उचित और सार्थक दिशा में अग्रसर करना है.

हमारी ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपराओं के साथ ही उनकी कार्यप्रणाली से भी अवगत कराना पत्रकारिता के कर्तव्य हैं.

हर अहम घटनाओं तथा परिस्थिजन्य आकस्मिक अवसरों पर संपादकीय आलेखों के माध्यम से समाज के प्रति सचेतक की भूमिका का निर्वहन करना भी है.

एक जमाने की पत्रकारिता चिलचिलाती धूप, कड़कड़ाती ठंड एवं वर्षा-आँधी के बीच पहुँचकर जानकारी एकत्र कर ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के साथ हमारे समक्ष प्रस्तुत करने को कहा जाता था,

लेकिन आज की पत्रकारिता वातानुकूलित कक्ष, अंतर-जाल, सूचना-तंत्र, ए. सी. वाहनों और द्रुतगामी वायुयान-हेलिकॉप्टरों से परिपूर्ण व्यवस्थाओं के साथ की जाने लगी है, लेकिन बावज़ूद इसके लगातार पत्रकारिता के मूल्यों का क्षरण चिंता का विषय है.

आज आपके मोहल्ले की मूलभूत समस्याओं को न्यूज चेनल्स या समाचार पत्रों में स्थान नहीं मिलता, लेकिन निरुद्देशीय किसी नेता, अभिनेता या किसी धार्मिक मठाधीश के छोटे से क्रियाकलाप भी  प्रमुखता से छापे या दिखाये जाएँगे. ऐसा क्यों है? इसके पीछे जो कारण हैं वे निश्चित रूप से विचारणीय हैं? यहाँ पर इसका जिम्मेदार आज की  उच्च जीवन शैली, लोकप्रियता एवं महत्त्वाकांक्षा की भावना को भी माना जा सकता है.

हर छोटा आदमी, बड़ा बनाना चाहता है और बड़ा आदमी, उससे भी बड़ा.

आख़िर ये कब तक चलेगा ? क्या शांति और सुख से मिलीं घर की दो रोटियों की तुलना हम फ़ाइव स्टार होटल के खाने से कर सकते हैं?

शायद कभी नहीं.

हर वक्त एक ही चीज़ श्रेष्ठता की मानक नहीं बन सकती. यदि ऐसा होता तो आज तुलसी, कबीर, विनोबा या मदर टेरेसा को इतना महत्त्व प्राप्त नहीं होता.

जब तक हमारे जेहन में स्वांतःसुखाय से सर्वहिताय की भावना प्रस्फुटित नहीं होगी, पत्रकारिता के मूल्यों में निरंतर क्षरण होता ही रहेगा.

आज हमारे पत्रकार बन्धु निष्पाप पत्रकारिता करके देखेंगे तो उन्हें वो पूँजी प्राप्त होगी जो धन-दौलत और उच्च जीवन शैली से कहीं श्रेष्ठ होती है.

आपके अंतःकरण का सुकून, आपकी परोपकारी भावना, आपके द्वारा उठाई गई समाज के आखरी इंसान की समस्या आपको एक आदर्श इंसान के रूप में प्रतिष्ठित करेगी.

आज के पत्रकार कभी आत्मावलोकन करें कि वे पत्रकारिता धर्म का कितना निर्वहन कर रहे हैं.

कुछ प्रतिष्ठित या पहुँच वाले पत्रकार स्वयं को अति विशिष्ट श्रेणी का ही मानते हैं. ऐसे पत्रकार कभी ज़मीन से जुड़े नहीं होते, वे आर्थिक तंत्र और पहुँच तंत्र से अपने मजबूत संबंध बनाए रखते हैं.

लेकिन यह भी वास्तविकता है कि ज़मीन से जुड़ी पत्रकारिता कभी खोखली नहीं होती, वह कालजयी और सम्मान जनक होती है.

हम देखते हैं, आज के अधिकांश पत्रकार कब काल कवलित हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता और न ही कोई उन्हें याद रखने की आवश्यकता महसूस करता।

आज पत्रकारिता की नयी नयी विधियाँ जन्म ले चुकीं हैं. डेस्क पर बैठ कर सारी सामग्री एकत्र की जाती है, जो विभिन्न आधुनिक तकनीकि, विभिन्न एजेंसियों एवं संबंधित संस्थान के नेटवर्क द्वारा संकलित की जाती हैं. इनके द्वारा निश्चित रूप से विस्तृत सामग्री प्राप्त होती है,

लेकिन डेस्क पर बैठा पत्रकार / संपादक प्रत्यक्षदर्शी न होने के कारण समाचारों में वो जीवंतता नहीं ला पाता, समाचारों में वो भावनाएँ नहीं ला पाता, क्योंकि वो दर्द और वो खुशी समाचारों में आ ही नहीं सकती, जो एक प्रत्यक्षदर्शी पत्रकार की हो सकती है.

आज के कुछ प्रेस फोटोग्राफर पीड़ित, शोषित अथवा आत्मदाह कर रहे इंसान की मदद करने के बजाय फोटो या वीडियो बनाने को अपना प्रथम कर्त्तव्य मानते है और दूसरे प्रेस फोटोग्राफर्स को कॉल करके बुलाते हैं। वह दिन कब आएगा जब वे कैमरा फेंककर मदद को दौड़ेंगे? जिस दिन ऐसा हुआ वह दिन पत्रकारिता के स्वर्णिम युग की शुरुआत होगी।

मेरी धारणा है कि यदि आपने पत्रकारिता को चुना है तो समाज के प्रति उत्तरदायी भी होना एक शर्त है अन्यथा आपका जमीर और ये  पीड़ित समाज आपको निश्चिंतता की साँस नहीं लेने देगा।

हम अपने ज्ञान, अनुभव, लगन तथा परिश्रम से भी वांछित गंतव्य पर पहुँच सकते हैं, बस फर्क यही है कि आपको अनैतिकता के शॉर्टकट को छोड़कर नैतिकता का नियत मार्ग चुनना होगा। पत्रकारिता को एक बौद्धिक, मेहनती, तात्कालिक एवं कलमकारी का जवाबदारी भरा कर्त्तव्य कहें तो गलत नहीं होगा।

धन तो और भी तरह से कमाया जा सकता है, लेकिन पत्रकारीय प्रतिष्ठा का अपना अलग महत्त्व होता है। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है और लोकतंत्र के इस स्तम्भ की हिफाजत करना हम सब का दायित्व है।

अंततः निष्कर्ष यह है कि पत्रकारिता यथा संभव यथार्थ के धरातल पर चले, अपनी आँखों से देखे, अपने कानों से सुने और पारदर्शी गुण अपनाते हुए समाज को आदर्शोन्मुखी बनाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करे, आज विकृत हो रहे समाज में ऐसी ही पत्रकारिता की ज़रूरत है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 45 – बापू के संस्मरण-21 – कितने कुर्ते  आपको चाहिए ? ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “कितने कुर्ते  आपको चाहिए ?”)

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 21 – कितने कुर्ते  आपको चाहिए ? ☆ 

एक बार गांधीजी अपनी कलकत्ता  यात्रा  के दौरान  एक बंगाली सज्जन  के घर  उनसे मिलने गए।

उस  समय   वे केवल धोती  के समान  एक छोटा  सा  कपड़ा  पहनते  थे। उन्हे इस तरह देख गृह स्वामी  की छोटी बच्ची  ने कौतूहलवश  उनसे  एक सवाल  पूछ लिया –क्या  आपके  पास  पहनने के कपड़े  नहीं है ?  गांधीजी भी बड़े विनोदी स्वभाव के थे। उन्होने  उत्तर  दिया – “क्या  करूँ, सचमुच  मेरे  पास कपड़े  नहीं है।”

यह  सुनकर  वह बच्ची  बोल उठी – “मैं  अपनी माँ  से कह कर  आपको कुर्ता दिलवा  दूंगी। मेरी माँ के हाथ  का  सिला कुर्ता  आप पहनेंगे न ?”

गांधीजी ने कहा –”जरूर पहनूँगा ,लेकिन  एक कुर्ते  से मेरा  काम नहीं चलेगा।”

“कोई  बात नहीं, मेरी  माँ  आपको  दो कुर्ते  दे देगी” –उस बच्ची  ने कहा।

“नहीं,नही, दो कुर्ते  से मेरा  काम नहीं चलेगा”– गांधी का उत्तर  था।

“तब  कितने कुर्ते  आपको चाहिए ?”- बच्ची  का सवाल  था।

तब  गांधीजी ने बड़ी गंभीरता  से कहा – “बेटी, मुझे  35 करोड़ कुर्ते  चाहिए। जब  तक  देश के हर व्यक्ति के तन  पर कपड़ा नहीं होगा, तब तक  मैं  कैसे और कपड़े  पहन लूँ।”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ☆ सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ क्योंकि मैं राष्ट्र माँ नहीं ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग 

श्रीमती समीक्षा तैलंग 

हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह प्रतिदिन “संदर्भ: एकता शक्ति” के अंतर्गत एक रचना पाठकों से साझा कर रहे हैं। हमारा आग्रह  है कि इस विषय पर अपनी सकारात्मक एवं सार्थक रचनाएँ प्रेषित करें। हमने सहयोगी  “साहित्यम समूह” में “एकता शक्ति आयोजन” में प्राप्त चुनिंदा रचनाओं से इस अभियान को प्रारम्भ कर दिया  हैं। आज प्रस्तुत है श्रीमती समीक्षा तैलंग जी की महात्मा गाँधी जयंती पर रचित एवं नवरात्रि पर्व पर एक विचारणीय लेख  “क्योंकि मैं राष्ट्र माँ नहीं”

☆  सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ क्योंकि मैं राष्ट्र माँ नहीं

मैं जानती हूं बापू के वचन। और निबाह भी करती हूँ तब तक, जब तक कोई सामने से हमला न करे।

बुरा मत देखो-

लेकिन क्या करूँ तब, जब देखने वाले की आंख मुझ पर गलत निगाहें डालती है? देखने दूं उसे…? निहारने दूं अपनी काया को, जब वो उन्हीं गंदी निगाहों से अंदर तक झाँकने की कोशिश करता है? या शोर मचाऊं? कौन आएगा बचाने? निर्भया को कभी कोई बचाने नहीं आता। चीखती है वो। लेकिन सुनने वाले की रूह नहीं काँपती। वो उन आँखों का शिकार होती है हमेशा। बस उसकी एक ही गलती है, कि वो निहत्थी है। तो क्या करूं, बार बार निर्भया बनने तैयार रहूँ? या निर्भीक होकर उसकी आंखें दबोच उसके उन हाथों में धर दूं, जिससे वो अपराध करता है? या फिर अहिंसा की पुजारी होकर उसे बख़्श दूँ?

बुरा मत सोचो-
उन सबकी सोच का क्या करूं जो उन्हें स्त्री की तरफ घूरने पर मजबूर करती है। घृणित मानसिकता से उपजी सोच लडकियों के कपडों से लेकर उसकी चालढाल, उसकी बातों, सब पर वाहियात कमेंट्स करके जता देती है। खुद में सुधार की बजाए, उंगलियां हमेशा स्त्री की तरफ उठती हैं। क्योंकि वे कमजोर हैं। अपनी गलतियों पर परदा डालने के लिए उनकी सोच उन्हें ऐसा करने पर मजबूर करती है। लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचती। मेरी सोच मुझे न घूरने के लिए कहती है और न ही पुरुषों पर टिप्पणी के लिए विवश करती है। क्योंकि मेरी सोच हीन भावना से ग्रसित नहीं। मेरी सोच स्वावलंबी है। फिर क्यों न मैं, ऐसी घटिया सोच रखने वाले को सबके सामने खींचकर एक तेज चपाट दूं? उसे सोचने का अधिकार केवल खुद पर है। मुझ पर कतई नहीं।

बुरा मत कहो-
मैं कहां कहती हूं बुरा…। जब वो नुक्कड़ पर खड़े होकर सीटी बजाते हैं। या फिर सडक रोककर आवारागर्दी करते हैं। ऊलजलूल बकते हैं। फिर भी मैं चुप रहूं? उनकी अश्लील बातों को सुनकर आगे बढ़ जाऊं? उनकी घिनौनी हरकतों को नजरंदाज़ कर दूं? उनके दिमाग में उपज रहे अपराध के प्रति सजग न होकर, वहां से चुपचाप निकलकर, उन्हें शह दे दूं? नहीं, मैं ऐसा आत्मघाती कदम उठाने के लिए कभी तैयार नहीं। मैं उसे उसके किए की सजा जरूर दूंगी। सहकर नहीं, डटकर…।

बापू तुम सच में महात्मा हो। अपनी इंद्रियों पर काबू रख सकते हो। लेकिन ये सब, महात्मा नहीं। इसलिए इनकी इंद्रियां इन्हें भटकाती हैं। लेकिन मुझे इन पर लगाम कसना जरूर आता है। अपनी आत्मरक्षा के लिए। क्योंकि मैं राष्ट्र-मां नहीं। मैं एक साधारण स्त्री हूं।

© श्रीमती समीक्षा तैलंग 

पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 12☆ ‘सांसों के संतूर’ – आचार्य भगवत दुबे – मेरी प्रिय कृति ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  के सहकर्मी प्रतिष्ठित साहित्यकार  आचार्य भगवत दुबे जी द्वारा  लिखित सांसों के संतूर पर उनके विचार ।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  के  काव्य  विमर्श को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 12 ☆

☆ ‘सांसों के संतूर’ – आचार्य भगवत दुबे – मेरी प्रिय कृति ☆

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आचार्य भगवत दुबे

मेरे प्रिय सहकर्मी आचार्य भगवत दुबे जी एक प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं । स्वभाव से सरल स्नेहिल व मृदुभाषी व्यक्ति हैं ।

उनकी 30 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं । वे सभी सुरुचिपूर्ण और आनंद प्रद हैं । दुबे जी समाजसेवी भी हैं अनेकों साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं और निर्धारित तिथियों में कई समारोह भी आयोजित करते रहते हैं ।

Sanso ke Santoor by Acharya Bhagwat Dubey by [Dubey, Acharya Bhagwat]उनका लेखन विभिन्न विषयों पर तथा विभिन्न साहित्यिक विधाओं में हैं। मैंने उनकी कुछ पुस्तकें पढ़ी हैं । सांसों के संतूर दोहा छंद में लिखित उनकी एक सारगर्भित कृति है, जिसमें कवि की दूर दृष्टि तथा सामाजिक दोषों को दूर करने की पावन भावना परिलक्षित होती है । दोहा एक ऐसा छंद है जिसमें थोड़े शब्दों में मन की गहन अभिव्यक्ति व्यक्त करने की क्षमता है ।

पुराने अनेकों कवियों ने इसी में भक्ति और आध्यात्मिक भावनाओं को प्रकट किया है । कवि भगवत दुबे जी ने अपनी इस पुस्तक में सरल सार्थक शब्दों में समाज के विभिन्न क्षेत्रों की बुराइयों को सुधारने की दृष्टि से अपने पवित्र मनोभावना दर्शाई है । यह पुस्तक मुझे बहुत अच्छी लगी । साहित्यिक रचना कैसी हो, उनके मनोभाव सुनें

काव्य वही जिसमें रहे सरस रूप रस गन्ध

अगर नहीं तो व्यर्थ है नीरस काव्य प्रबंध

उन्होंने इसी शर्त का अपनी समस्त रचनाओं में निर्वाह किया है । मेरे कथन की पुष्टि में उनके कुछ भावपूर्ण दोहों का मधुर आनंद लीजिए

जीते जी ना कर सकी जो मां गोरस पान

करते उसकी मृत्यु पर पंचरत्न गोदान

 

माता तेरी गोद में सुख है स्वर्ग समान

फिर से बनना चाहता मैं बच्चा नादान

 

आज की सामाजिक दशा पर वे लिखते हैं

ज्ञान बुद्धि से हो गया बड़ा बाहुबल आज

गुंडों से भयभीत है सारा सभ्य समाज

 

रुग्ण हुई सद्भावना बदल गए आदर्श

बहुत घिनौना हो गया सत्ता का संघर्ष

 

ग्रामीण और शहरी व्यवहार में अंतर पर वे लिखते हैं

भिक्षुक अब भी गांव में पाते आटा दाल
शहरों में तो डांट कर देते उन्हें हकाल

पूरी पुस्तक में ऐसे ही हृदय को छूने वाले दोहे हैं ।

अपनी भावना को भी मैं एक दोहे में प्रकट कर अपने प्रिय कवि का अभिनंदन करता हूँ

भगवत जी की लेखनी तीक्ष्ण कुशल गुणवान

पाठक मन की चाह का रखती पूरा ध्यान

उन से और भी ऐसी रचनाओं की प्राप्ति की कामना सहित

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 66 ☆ शक्तिपर्व नवरात्रि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच –  शक्तिपर्व नवरात्रि ☆

शक्तिपर्व नवरात्रि आज से आरंभ हो रहा है। शास्त्रोक्त एवं परंपरागत पद्धति के साथ-साथ इन नौ संकल्पों के साथ देवी की उपासना करें। निश्चय ही दैवीय आनंद की प्राप्ति होगी।

  1. अपने बेटे में बचपन से ही स्त्री का सम्मान करने का संस्कार डालना देवी की उपासना है।
  2. घर में उपस्थित माँ, बहन, पत्नी, बेटी के प्रति आदरभाव देवी की उपासना है।
  3. दहेज की मांग रखनेवाले घर और वर तथा घरेलू हिंसा के अपराधी का सामाजिक बहिष्कार देवी की उपासना है।
  4. स्त्री-पुरुष, सृष्टि के लिए अनिवार्य पूरक तत्व हैं। पूरक न्यून या अधिक, छोटा या बड़ा नहीं अपितु समान होता है। पूरकता के सनातन तत्व को अंगीकार करना देवी की उपासना है।
  5. स्त्री को केवल देह मानने की मानसिकता वाले मनोरुग्णों की समुचित चिकित्सा करना / कराना भी देवी की उपासना है।
  6. हर बेटी किसीकी बहू और हर बहू किसीकी बेटी है। इस अद्वैत का दर्शन देवी की उपासना है।
  7. किसीके देहांत से कोई जीवित व्यक्ति शुभ या अशुभ नहीं होता। मंगल कामों में विधवा स्त्री को शामिल नहीं करना सबसे बड़ा अमंगल है। इस अमंगल को मंगल करना देवी की उपासना है।
  8. गृहिणी 24×7 अर्थात पूर्णकालिक सेवाकार्य है। इस अखंड सेवा का सम्मान करना तथा घर के कामकाज में स्त्री का बराबरी से या अपेक्षाकृत अधिक हाथ बँटाना, देवी की उपासना है।
  9. स्त्री प्रकृति के विभिन्न रंगों का समुच्चय है। इन रंगों की विविध छटाओं के विकास में स्त्री के सहयोगी की भूमिका का निर्वहन, देवी की उपासना है।

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।

? शारदीय नवरात्रि की हार्दिक मंगलकामनाएँ ?

 

© संजय भारद्वाज

(लेखन-10.10.2018)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 66 ☆ अहं बनाम अहमियत ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख  अहं बनाम अहमियत।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 66 ☆

☆ अहं बनाम अहमियत 

अहं जिनमें कम होता है, अहमियत उनकी ज़्यादा होती है… यह कथन कोटिशः सत्य है। जहां अहं है, वहां स्वीकार्यता नहीं; केवल स्वयं का गुणगान होता है, जिसके वश में होकर इंसान केवल बोलता है, सुनने का प्रयास नहीं करता, क्योंकि उसमें सर्वश्रेष्ठता का भाव हावी होता है। सो! वह अपने सम्मुख किसी के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। इसका मुख्य उदाहरण हैं… भारतीय समाज के पुरुष, जो पति रूप में पत्नी को स्वयं से हेय समझते हैं,  केवल फुंकारना जानते हैं। बात-बात पर टीका-टिप्पणी करना तथा दूसरे को नीचा दिखाने का एक भी अवसर हाथ से न जाने देना… उनके जीवन का मक़सद होता है। चंद रटे-रटाये वाक्य उनकी विद्वता का आधार होते हैं, जिनका वे किसी भी अवसर पर नि:संकोच प्रयोग कर सकते हैं। वैसे अवसरानुकूलता का उनकी दृष्टि में महत्व होता ही नहीं, क्योंकि वे केवल बोलने के लिए बोलते हैं और  निष्प्रयोजन व ऊल-ज़लूल बोलना उनकी फ़ितरत होती है। उनके सम्मुख छोटे-बड़े का कोई पैमाना नहीं होता, क्योंकि वे अपने से बड़ा किसी को समझते ही नहीं।

हां! अपने अहं के कारण वे घर-परिवार व समाज में अपनी अहमियत खो बैठते हैं। वास्तव में वाक्-पटुता जहां कारग़र होती है; व्यक्ति-विशेष का गुण भी होती है, परंतु आवश्यकता से अधिक किसी भी वस्तु का सेवन हानिकारक होता है। अधिक नमक के प्रयोग से उच्च रक्तचाप व  चीनी से मधुमेह का रोग हो जाता है। वैसे दोनों ला-इलाज रोग हैं। एक बार  इनके चंगुल में फंसने के पश्चात् मानव इनसे आजीवन मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। उसे ता-उम्र  दवाओं का सेवन करना पड़ता है और वे अदृश्य शत्रु कभी भी, उस पर किसी भी रूप में घातक प्रहार कर जानलेवा साबित हो सकते हैं। इसलिए मानव को सदैव अपनी जड़ों से जुड़ाव रखना चाहिए और कभी भी बढ़-चढ़ कर नहीं बोलना चाहिए। यदि हममें विनम्रता का भाव होगा, तो हम बे-सिर-पैर की बातों में नहीं उलझेंगे और मौन को अपना साथी बना यथासमय, यथास्थिति कम से कम शब्दों में अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति करेंगे। बाज़ारवाद का भी यही नियम है कि जिस वस्तु का अभाव होता है, उसकी मांग अधिक होती है। लोग उसके पीछे बेतहाशा भागते हैं और उसे प्राप्त करने को मान- सम्मान का प्रतीक स्वीकार लेते हैं। इसलिए उसे प्राप्त करना उनके लिए स्टेट्स सिंबल ही नहीं, उनके जीवन का लक्ष्य बन जाता है।

आइए! मौन का अभ्यास करें, क्योंकि वह नव- निधियों की खान है। सो! मानव को अपना मुंह तभी खोलना चाहिए, जब उसे लगे कि उसके शब्द मौन से बेहतर हैं, सर्व-हितकारी हैं, अन्यथा मौन रहना ही श्रेयस्कर है। मुझे स्मरण हो रहा है, रहीम जी का दोहा ‘ऐसी वाणी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरन को शीतल करे, खुद भी शीतल होय’ में वे शब्दों की महत्ता व सार्थकता पर दृष्टिपात करते हुए, उनके उचित समय पर प्रयोग करने का सुझाव देते हैं। यह कहावत भी प्रसिद्ध है ‘एक चुप, सौ सुख’ अर्थात् जब तक मूर्ख चुप रहता है, उसकी मूर्खता प्रकट नहीं होती और लोग उसे बुद्धिमान समझते हैं। सो! हमारी वाणी व हमारे शब्द हमारे व्यक्तित्व का आईना होते हैं। इसलिए केवल शब्द ही नहीं, उनकी अभिव्यक्ति की शैली भी उतनी ही अहमियत रखती है। हमारे बोलने का अंदाज़ इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। परंतु यदि आप मौन रहते हैं, तो समस्त जंजालों-बंधनों से मुक्त रहते हैं। इसलिए संवाद जहां हमारी जीवन-रेखा है; विवाद संबंधों में विराम। यह शाश्वत संबंधों में सेंध लगाता है तथा विवाद में व्यक्ति को उचित-अनुचित का लेशमात्र भी ध्यान नहीं रहता। अहंनिष्ठ मानव केवल प्रत्युत्तर में विश्वास करता है। इसलिए विवाद उत्पन्न होने की स्थिति में मानव के लिए चुप रहना ही कारग़र होता है। इस विषम परिस्थितियों में जो मौन रह जाता है, उसी की अहमियत बनी रहती है, क्योंकि गुणी व्यक्ति ही मौन रहने में बार-बार गौरवानुभूति अनुभव करता है। अज्ञानी तो वृथा बोलने में अपनी महत्ता स्वीकारता है। परंतु विद्वान व्यक्ति मूर्खों के बीच बोलने का अर्थ समझता है, जो भैंस के सामने बीन बजाने के समान होता है। ऐसे लोगों का अहं उन्हें मौन नहीं रहने देता और वे प्रतिपक्ष को नीचा दिखाने के लिए बढ़-चढ़ कर शेखी बखानते हैं।

सो! जीवन में अहमियत के महत्व को जानना अत्यंत आवश्यक है। अहमियत से तात्पर्य है, दूसरे लोगों द्वारा आपके प्रति स्वीकार्यता भाव अर्थात् जहां आपको अपना परिचय न देना पड़े तथा आप के पहुंचने से पहले लोग आपके व्यक्तित्व व कार्य- व्यवहार से परिचित हो जाएं। कुछ लोग किस्मत में दुआ की तरह होते हैं, जो तक़दीर से मिलते हैं। ऐसे लोगों की संगति से ज़िंदगी बदल जाती है। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो हमें दुआ के रूप में मिलते हैं, और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं, जो किस्मत बदल देते हैं। ऐसे लोगों की संगति मिलने से मानव की तक़दीर बदल जाती है और लोग उनकी संगति पाकर स्वयं को धन्य समझते हैं।

रिश्ते वे होते हैं, जिनमें शब्द कम, समझ ज़्यादा हो/ तक़रार कम, प्यार ज़्यादा हो/आशा कम, विश्वास ज़्यादा हो…यह केवल बुद्धिमान लोगों की संगति से प्राप्त हो सकता है, क्योंकि वहां शब्दों का बाहुल्य नहीं होता है, सार्थकता होती है। तक़रार व उम्मीद नहीं, प्यार व विश्वास होता है। ऐसे लोग जीवन में वरदान की तरह होते हैं, जो सबके लिए शुभ व कल्याणकारी होते हैं। इसी संदर्भ में मैं कहना चाहूंगी कि मित्र, पुस्तक, रास्ता व विचार यदि गलत हों, तो जीवन को गुमराह कर देते हैं और सही हों, तो जीवन बना देते हैं। वैसे सफल जीवन के चार सूत्र हैं… मेहनत करें, तो धन बने/ मीठा बोले, तो पहचान/ इज़्ज़त करें, तो नाम/ सब्र करें, तो काम।’ दूसरे शब्दों में अच्छे मित्र, सत्साहित्य, उचित मार्ग व अच्छी सोच हमें उन्नति के शिखर पर पहुंचा देती है, वहीं इसके विपरीत हमें सदैव पराजय का मुख देखना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है कि परिश्रम, मधुर वाणी, पर-सम्मान, व सब्र अर्थात् धैर्य रखने से व्यक्ति अपनी मंज़िल पर पहुंच जाता है। इसलिए सकारात्मक बने रहिए, अहंनिष्ठता का त्याग कीजिए, मधुर वाणी बोलिए व सबका सम्मान कीजिए। ये वे श्रेष्ठ साधन हैं, जो हमें अपनी मंज़िल तक पहुंचाने में सोपान का कार्य करते हैं। सो! सुख अहं की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की… दोनों स्थितियों में उत्तीर्ण होने वाले का जीवन सफल होता है। इसलिए सुख में अहं को अपने निकट न आने दें और दु:ख में धैर्य बनाए रखें… यही आपके जीवन की पराकाष्ठा है।

परंतु घर-परिवार में यदि पुरूष अर्थात् पति, पिता व पुत्र अहंनिष्ठ हों, अपने-अपने राग अलापते हों और दूसरे के अस्तित्व को नकारना, अपमानित व प्रताड़ित करना, मात्र उनके जीवन का उद्देश्य हो, तो सामंजस्यता स्थापित करना कठिन हो जाता है। जहां पति हर-पल यही राग अलापता रहे कि ‘मैं पति हूं, तुम मेरी इज़्ज़त नहीं करती, अपनी-अपनी हांकती रहती हो। इतना ही नहीं, जहां उसे हर पल उसे नीचा दिखाने का उपक्रम अर्थात् हर संभव प्रयास किया जाए, वहां शांति कैसे निवास कर सकती है? पति-पत्नी का संबंध समानता पर आश्रित है। यदि वे दोनों एक-दूसरे की अहमियत को स्वीकारेंगे, तो ही जीवन रूपी गाड़ी सुचारू रूप से आगे बढ़ सकेगी, अन्यथा तलाक़ व अलगाव की गणना में निरंतर इज़ाफा होता रहेगा। हमें संविधान की मान्यताओं को स्वीकारना होगा, क्योंकि कर्तव्य व अधिकार अन्योन्याश्रित हैं। यदि अहमियत की दरक़ार है, तो अहं का त्याग करना होगा; दूसरे के महत्व को स्वीकारना होगा, अन्यथा प्रतिदिन ज्वालामुखी फूटते रहेंगे और इन असामान्य परिस्थितियों में मानव का सर्वांगीण विकास संभव नहीं होगा। जीवन में जितना आप देते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। सो! देना सीखिए तथा प्रतिदान की अपेक्षा मत रखिए। ‘जो तोको कांटा बुवै, तो बुवै ताहि फूल’ के सिद्धांत को जीवन में धारण करें। यदि आप किसी के लिए फूल बोएंगे, तो तुम्हें फूल मिलेंगे, अन्यथा कांटे ही प्राप्त होंगे। जीवन में यदि ‘अपने लिए जिए, तो क्या जिए/ ऐ दिल तू जी ज़माने में, किसी के लिए’ अर्थात् ‘स्वार्थ को त्याग कर, सबका मंगल हो’ की कामना से जीना प्रारंभ कीजिए। अहं रूपी शत्रु को जीवन में पदार्पण न करने दीजिए, ताकि अहमियत अथवा सर्व-स्वीकार्यता बनी रहे। रिश्ते कभी कमज़ोर नहीं होने चाहिएं। यदि एक खामोश है, तो दूसरे को आवाज़ देनी चाहिए। दूसरे शब्दों में संवाद की स्थिति सदैव बनी रहे, क्योंकि इसके अभाव में रिश्तों की असामयिक मौत हो जाती है। इसलिए हमें अहंनिष्ठ व्यक्ति के साये से भी दूर रहना चाहिए, क्योंकि विनम्रता मानव का सर्वश्रेष्ठ आभूषण है तथा अनमोल पूंजी है। इसे जीवन में धारण कीजिए, ताकि जीवन रूपी गाड़ी निरंतर आगे बढ़ती रहे।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ मोक्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

निठल्ला चिंतन-

☆ संजय दृष्टि  ☆ मोक्ष

यात्रा पर हूँ। बृहद जीवनयात्रा में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की लघुकाय सहज यात्रा पर। जीवनयात्रा को बृहद कहा है क्योंकि जीवनयात्रा एक जन्म तक सीमित नहीं है। वह जन्म-जन्मांतर अबाध है। सृष्टि में आने-जाने, चोला बदल-बदल कर फिर-फिर आने की यात्रा है जीवनयात्रा। अधिकांश समय यात्रा पर ही रहते हैं मेरे जैसे जीव।

अपवादस्वरूप किंचित जन परिक्रमा से मुक्त होकर यात्रा के नियंता वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं। घोष से मुक्त मोक्ष को, परित्राण से परे निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं।

जानता हूँ कि मोक्ष की योग्यता नहीं है मेरी। यदि कल्पना करूँ कि मोक्ष और यात्रा में से किसी एक को चुनने का विकल्प मिले तो मैं यात्रा चुनूँगा।

कितना देती है हर यात्रा! लघुकाय यात्रा भी महाकाय यात्रा के दर्शन के किसी न किसी अंश को आत्मसात करने में सहायक होती है। कागज़ और कलम साथ हों तो हर यात्रा मुझे मोक्ष की प्रतीति कराती है।

आज फिर मोक्ष में हूँ!

©  संजय भारद्वाज 

रात्रि 10 बजे, 8.2.201

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 18 ☆ भारतीय राजनीति में अब होगा चुनावी मुद्दों का टोटा ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “ भारतीय राजनीति में अब होगा चुनावी मुद्दों का टोटा)

☆ किसलय की कलम से # 18 ☆

☆ भारतीय राजनीति में अब होगा चुनावी मुद्दों का टोटा☆

 

मानव जीवन में मुद्दे न हों तो श्रम, बुद्धि और क्रियाशीलता का महत्त्व ही कम हो जाएगा। इंसान इच्छा, उद्देश्य, मतलब या मुद्दे जैसे शब्दों को लेकर जिंदगी भर भागदौड़ करता रहता है, फिर भी उसकी जिजीविषा अधूरी ही रहती है। समाज में मानव अपनी मान-प्रतिष्ठा एवं समृद्धि हेतु अलग-अलग मार्ग चुनता है। नौकरी, उद्योग, धंधे, धर्म, राजनीति, सेवाओं के साथ ही विभिन्न नैतिक अथवा अनैतिक कारोबारों के माध्यम से भी अपनी उद्देश्यों की पूर्ति करता है। वैसे तो मुद्दों का सभी क्षेत्रों में महत्त्व है, लेकिन राजनीति के क्षेत्र में कहा जाता है कि मुद्दों की नींव पर ही राजनीति का अस्तित्व निर्भर करता है। मुद्दों पर ही अक्सर सियासत गर्माती है। मुद्दतों से मुद्दों को लेकर बड़े-बड़े उथल-पुथल होते रहे हैं। धर्म स्थापना के मुद्दे पर ही ऐतिहासिक महाभारत युद्ध हुआ था। बदलते समय व परिवेश में ये मुद्दे भी लगातार बदलते गए। हमारे देखते ही देखते भारतीय राजनीति में अनेकानेक मुद्दे छाए और विलुप्त हुए हैं।

आजादी के पश्चात एक लंबे समय तक आजादी का श्रेय लेने वाली कांग्रेस पार्टी को आजादी के श्रेय का लाभ मिलता रहा। देश के दक्षिण में कुछ समय तक हिंदी थोपने का मुद्दा छाया रहा। नसबंदी, आपातकाल, गरीबी हटाओ, महँगाई जैसे सैकड़ों मुद्दे गिनाए जा सकते हैं, जिनकी आग में राष्ट्रीय, प्रादेशिक अथवा क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपनी रोटियाँ सेंकते आए हैं। बेचारी जनता है कि इनके छलावे, बहकावे और झूठे आश्वासनों के जाल में बार-बार फँसती चली आ रही है। जिस दल पर विश्वास किया जाता है, वही दल सत्ता प्राप्त कर अधिकांशतः अपने वायदे पूर्ण नहीं करता। जनहित के अनेकों कार्य पूरे ही नहीं होते।  हाँ, अब तक इतना जरूर हुआ है कि राजनीति करने वालों की अधिकांश जिजीविषाएँ जरूर पूर्ण होती रही हैं। इसका साक्ष्य यही है कि आज भी देश में अगर सबसे समृद्ध और मान-सम्मान वाला वर्ग बढ़ा है तो वह राजनेताओं का वर्ग है। आजकल तो बाकायदा शिक्षा और व्यावहारिक प्रशिक्षण के उपरांत राजनेता अपनी संतानों को अपने इसी पारंपरिक धंधे अर्थात राजनीति में उतारने लगे हैं। पिछले दो-तीन दशक से विभिन्न राजनीतिक मुद्दे हमारे सामने आए हैं। बेरोजगारी, राष्ट्र विकास, स्वच्छता, कालाबाजारी या नोटबंदी के नाम पर पार्टियाँ हारती और जीतती आ रही हैं, और यह सब इसलिए भी होता आया है कि पार्टियाँ जनता के दिलोदिमाग में स्वयं को सबसे बड़ा जनहितैषी सिद्ध करने में कामयाब हो जाती हैं। नेताओं की लच्छेदार बातों एवं वायदों में यदि 50% भी सत्यता होती तो आज हमारा देश जापान, अमेरिका और चीन के समकक्ष खड़ा होता।

तीन दशक से तो हर चुनावों में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से श्रीराम मंदिर निर्माण का मुद्दा उठते दिखा है। इस मुद्दे के विरोध को भी बहुत हवा दी गई। हर पार्टी के प्रत्याशियों को इसका लाभ भी मिला। मौलिक अधिकारों की स्वतंत्रता की आड़ में देश तक को दाव पर लगाने से कई नेता बाज नहीं आते। आज धारा 370, धारा 35ए, तीन तलाक आदि मुद्दों के चलते भारत कहीं एकजुट तो कहीं बँटा हुआ नजर आया। संसद में स्वीकृति के बाद भले ही कुछ लोगों अथवा कुछ पार्टियों को तिलमिलाहट हुई हो, लेकिन समय की नजाकत को देखते हुए अनेक विरोधी दल अथवा पार्टियाँ इन मुद्दों को फिर से उठाने से बच रही हैं। शायद यही सोच है जो इनको चुनावी अखाड़े में इन मुद्दों को आजमाने की इजाजत नहीं देती। स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा और लंबा चलने वाला मुद्दा अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण का रहा है। यह मुद्दा न ही केवल भारत बल्कि संपूर्ण विश्व में चर्चित हुआ। 6 दिसंबर 1992 से 5 अगस्त 2020  अर्थात श्रीराम मंदिर शिलान्यास तक लगभग 29 वर्ष चले इस मुद्दे ने भारतीय राजनीति में उथल-पुथल मचा दी। कई सरकारें गिरीं या बर्खास्त कर दी गईं। संसद की सत्ता परिवर्तन तक इस मुद्दे का कारण बना। श्रीराम मंदिर मुद्दा से कई लोग शून्य से शिखर पर पहुँच गए, कई सेलिब्रिटी बन गए तो कई खलनायक भी बने। अब जब हिंदुओं के आराध्य श्रीराम मंदिर का निर्माण प्रारंभ हो ही गया है, तब हिंदुओं पर पुनः इस मुद्दे को आजमाने का कोई औचित्य ही नहीं बचा। यदि कृतज्ञता-वोट की भी बात की जाए तो भारतीय जनता पिछले 30 वर्ष से अपने मताधिकार द्वारा कृतज्ञता ज्ञापित कर चुकी है। इसलिए अब इन पार्टियों को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि जनता उन्हें पुनः कृतज्ञता के नाम पर वोट देगी। वैसे भी नोटबंदी के बाद महँगाई व कोविड-19 के चलते जनता पहले से ही परेशान है और सच कहा जाए तो जनता अब प्रायोगिक होती जा रही है। राम मंदिर का चुनावी हिसाब-किताब चुकता होने के बाद अब जनता देश में उद्योग, नौकरियाँ और राष्ट्रीय विकास होते देखना चाहती है, जिन पर स्पष्ट, सुदृढ़ और सकारात्मक क्रियान्वयन की भी आवश्यकता है।

इसीलिए अब इतना तो तय है कि भारतीय राजनीति के लिए आने वाले समय में चुनावी मुद्दों का टोटा होगा। हिन्दु विरोधी दलों की बातें उनके ही मतदाता अब सुनने वाले नहीं हैं और न ही अब कृतज्ञता के नाम पर हिन्दु मतदाता वोट देने वाले हैं। कृतज्ञता या विरोध से क्या भला आम जनता का पेट भरेगा? वर्तमान में अब देश के प्रमुख, छोटे या क्षेत्रीय दल सबको एक पारदर्शी सोच, सद्भावना, जनहित और राष्ट्रीय विकास जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों के साथ ईमानदार, कर्मठ और सक्रिय प्रत्याशियों को लेकर चुनावी अखाड़े में उतरना होगा। पुराने अथवा बूढ़े पहलवानों को जिताने के बजाय ऊर्जावान एवं ईमानदार नव युवकों को अवसर दिया जाना चाहिए।

हमारा देश अब अविकसित अवस्था में नहीं है। शिक्षा, जागरूकता, उद्योग, तकनीकि, सैन्य, अंतरिक्ष जैसे विभिन्न क्षेत्रों में बहुत आगे निकल चुका है। लोगों की सोच भी बदली है। अब लोग चार-पाँच दशक पुरानी मानसिकता वाले नहीं 21वीं सदी के प्रायोगिक बन गए हैं। निश्चित रूप से अब आम मतदाताओं को भी अगले चुनाव में बरगलाना टेढ़ी खीर होगा। आज राष्ट्र की स्थिति और राष्ट्र का माहौल बदलता प्रतीत होने लगा है। इसलिए राजनेताओं की कार्यशैली तथा समर्पण भाव में और सुधार की अपेक्षा जनता कर रही है।

आज की परिस्थितियों और जनता की रुचि का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो विश्लेषक भी पाएँगे कि राजनीतिक दलों हेतु निश्चित रूप से अब चुनावी मुद्दों का टोटा पड़ने वाला है। इन परिस्थितियों में सत्ता की उम्मीद अथवा विश्वास रखने वाले दलों को चाहिए कि वे अब अत्यन्त सावधानी और दूरदर्शिता के साथ ऐसे चुनावी मुद्दों का चयन करें, जो उनकी मान-प्रतिष्ठा तो बढ़ाएँ ही, राष्ट्र तथा जनमानस को भी समृद्धि व विकास के मार्ग पर आगे ले जा सकें।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ☆ सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ सेहत, सुख ,सुकून और खुशहाली का महात्मा गांधी मार्ग ☆ श्री शिखर चन्द जैन

श्री शिखर चन्द जैन

हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह प्रतिदिन “संदर्भ: एकता शक्ति” के अंतर्गत एक रचना पाठकों से साझा कर रहे हैं। हमारा आग्रह  है कि इस विषय पर अपनी सकारात्मक एवं सार्थक रचनाएँ प्रेषित करें। हमने सहयोगी  “साहित्यम समूह” में “एकता शक्ति आयोजन” में प्राप्त चुनिंदा रचनाओं से इस अभियान को प्रारम्भ कर दिया  हैं।  आज प्रस्तुत है श्री शिखर चन्द जैन जी की एक प्रस्तुति  “सेहत, सुख ,सुकून और खुशहाली का महात्मा गांधी मार्ग”

☆  सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ सेहत, सुख ,सुकून और खुशहाली का महात्मा गांधी मार्ग ☆

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बहुआयामी व्यक्तित्व, सादगी पूर्ण रहन-सहन और उच्च व सुलझे हुए विचारों ने ही उन्हें भारतीय जनमानस का सच्चा नायक बना दिया ।उनकी जीवनशैली व विचारों को ऑब्जर्व करके व उन्हें अपनाकर जीवन को सुखमय,सुकूनपरक,स्वस्थ और खुशहाल बनाया जा सकता है ।उनकी जीवनशैली और समय-समय पर कही गई बातों को देखें तो हमें ये सीख मिलती है—-

मिनिमलिस्ट बनें—–आप कभी दिल्ली स्थित राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय में जाएंगे तो महात्मा गांधी की जिंदगी भर की भौतिक संपत्ति के रूप में एक सूटकेस देखेंगे जिसमें उनकी निजी जरूरत की कुछ चीजें मिलेंगी ।ऐसा नहीं है कि वे चाहते तो ज्यादा चीजें हासिल नहीं कर सकते थे या इकट्ठा नहीं कर सकते थे लेकिन वे जरूरत से ज्यादा चीजें इकट्ठा करने या उनका इस्तेमाल करने के सख्त खिलाफ थे ।गांधीजी अपरिग्रह के सिद्धांत पर चलते थे ।आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि आज की तारीख में चिंता ,अवसाद और अशांति की सबसे बड़ी वजह है ज्यादा से ज्यादा भौतिक सुखों को हासिल करने की अंधी दौड़ ।विज्ञापन जगत और कारपोरेट दुनिया ने लोगों पर अपना प्रोडक्ट थोपने के लिए उनकी जरूरतों को बढ़ा दिया है ।अगर हम अपनी वास्तविक आवश्यकताओं को समझ जाएं और अनावश्यक चीजों हासिल करने की जिद छोड़ दें तो हमारी आधी चिंताएं और बेचैनियाँ तो यूं ही दूर हो जाएंगी।

खानपान का संतुलन और वाकिंग जरूरी —- महात्मा गांधी संतुलित और पूरी तरह प्राकृतिक व शाकाहारी भोजन के पैरोकार थे। अपनी 79 साल की उम्र में उन्होंने 29 बार में कुल 154 दिन अनशन किया। 1921 में उन्होंने व्रत लिया की आजादी मिलने तक हर सोमवार उपवास करूंगा। यानी कुल 1341 दिनों तक उन्होंने उपवास किया ।गांधीजी अपनी डाइट को लेकर तरह-तरह के प्रयोग करते थे ।यही उनकी फिटनेस का राज था। यंग इंडिया और हरिजन समाचार पत्र में उन्होंने अपने प्रयोगों के बारे में भी लिखा है। वह हमेशा साधारण भोजन करते थे ।उनका कहना था कि भोजन सिर्फ भूख शांत करने का साधन नहीं बल्कि मानव चेतना को आकार देने वाला आवश्यक घटक है। उन्होंने शाकाहार के नैतिक आधार पर जोर दिया और स्वास्थ्य के लिए फलों व जड़ी बूटियों का सेवन करने की सलाह दी ।ब्राउन राइस, दाल और स्थानीय सब्जियां उनका पसंदीदा आहार थी। वे बकरी के दूध का सेवन करते थे ।रिफाइंड चीनी की बजाय में गुड़ खाना पसंद करते थे ।चोकर सहित अनाज की रोटी, बाजरा आदि उनके फेवरेट थे।से अपने जीवन में 40 साल तक वे रोजाना 22000 कदम पैदल चले ।संभवत यही उनके माइंड और बॉडी की फिटनेस का राज था ।”इंडियन जनरल ऑफ मेडिकल रिसर्च” में प्रकाशित रिपोर्ट में गांधीजी को सेल्फ मोटिवेटेड वैलनेस गुरु बताया गया है ।

जरा आहिस्ते जीना सीखें —- आज जिसे देखिये वही अनावश्यक हड़बड़ी में है ।इसके कारण ही ज्यदातर लोग बेचैन और परेशान हैं। महात्मा गांधी कहते थे कि जीवन में स्पीड के अलावा भी बहुत कुछ महत्वपूर्ण है ।वे कहते थे कि बाहर की ओर दौड़ लगाने से ज्यादा जरूरी है अपने अंदर की यात्रा। जब तक हम अपने अंतर्मन को नहीं समझेंगे तब तक अपनी पूरी क्षमता के साथ कोई काम नहीं कर पाएंगे। उनके इस जीवन मंत्र में सफलता का सबसे बड़ा सूत्र छिपा हुआ है ।क्योंकि किसी भी कार्य में सफलता के लिए उसे पूरे मन से धैर्यपूर्वक एवं पूरी क्षमता से करना जरूरी है। सक्सेस गुरु और मोटिवेशनल स्पीकर भी हड़बड़ी के काम में गड़बड़ी के प्रति सचेत करते रहे हैं।

दुनिया से पहले खुद को बदलें—- आपने गौर किया होगा कि वर्तमान दौर में हमारी बेचैनी और नाराजगी की सबसे बड़ी वजह है दुनिया से शिकायत। हमें इस बात से चिढ हो जाती है कि लोगों का व्यवहार और आचरण हमारे अनुकूल नहीं ।ऐसे में महात्मा गांधी का यह कथन बहुत उपयोगी और सार्थक है कि आप दुनिया में जो बदलाव लाना चाहते हैं वह सबसे पहले खुद में लाएं ।अगर हम बदल जाएंगे तो दुनिया अपने आप बदल जाएगी ।अगर हम इस कथन को आत्मसात कर ले तो लोगों के प्रति हमारी शिकायत खुद-ब-खुद दूर हो जाएगी ।

हिंसा के पथ से दूर रहें — महात्मा गांधी ने कहा था कि “आंख के बदले आंख” के सिद्धांत पर चले तो एक दिन यह दुनिया अंधी हो जाएगी ।उन्हें हिंसा से सख्त से सख्त नफरत थी। अहिंसा और सत्य पर उन्होंने जीवन भर लोगों को सीख दी ।गांधीजी कहते थे कि धार्मिक ,सांस्कृतिक व राजनीतिक विचारों में अंतर हो सकते हैं लेकिन इसे हिंसा का आधार बनाना बिल्कुल गलत है ।हमें वैचारिक भिन्नता का सम्मान करना चाहिए ।आज के युग में जब हर कोई धार्मिक ,सांस्कृतिक या राजनीतिक मतभेद के कारण एक-दूसरे के खून का प्यासा हो रहा है ऐसे में दुनिया को सुकून और चैन के लिए अहिंसा के पथ पर चलना जरूरी है।।।

© श्री शिखर चंद जैन

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 45 – बापू के संस्मरण-20- मैं तुम्हारा चेला बनता हूँ…. ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “मैं तुम्हारा चेला बनता हूँ ….”)

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 20 – मैं तुम्हारा चेला बनता हूँ ….☆ 

आगाखां महल से छूटकर गांधीजी पर्णकुटी मैं आकर ठहरे ।

उनकी चप्पलें कई दिन पहले ही टूट थीं। मनु ने वे टूटी चप्पलें उनसे बिना पूछे मरम्मत करने के लिए मोची को दे दीं । चप्पलें देकर लौटी तो देखा कि गांधीजी अपनी चप्पलें ढूंढ़ रहे हैं । मनु को देखकर उन्होंने पूछा “तूने मेरी चप्पलें कहां रख दी हैं?”

मनु ने कहा, “बापूजी, वे तो मैं मरम्मत के लिए मोची को दे आई हूं ।” मनु ने जवाब दिया, “आठ आने मजदूरी ठहराई है, बापूजी ।”

गांधीजी बोले,” लेकिन तू तो एक कौड़ी भी नहीं कमाती और न मैं कमाता हूं । तब मजदूरी के आठ आने कौन देगा?”

मनु सोच में पड़ गयी । आखिर मोची से चप्पलें वापस लाने का निर्णय उसे करना पड़ा । लेकिन उस बेचारे को तो सवेरे-सवेरे यही मजदूरी मिली थी. इसीलिए वह  बोला, “सवेरे के समय मेरी यह पहली-पहली बोहनी है, चप्पलें तो मैं अब वापस नहीं दूंगा ।”

मनु ने लाचार होकर उससे कहा, “ये चप्पलें महात्मा गांधी की हैं. तुम इन्हें लौटा दो भाई ।”

यह सुनकर मोची गर्व से भर उठा , बोला, “तब तो मैं बड़ा भाग्यवान हूं. ऐसा मौका मुझे बार-बार थोड़े ही मिलने वाला है । मैं बिना मजदूरी लिये ही बना दूंगा, लेकिन चप्पलें लौटाऊंगा नहीं ।”

काफी वाद-विवाद के बाद मनु चप्पलें और मोची दोनों को लेकर गांधीजी के पास पहुंची और उन्हें सारी कहानी सुनाई ।

गांधीजी ने मोची से कहा, ” तुम्हें तुम्हारा भाग ही तो चाहिए न? तुम मेरे गुरु बनो, मैं तुम्हारा चेला बनता हूँ। मुझे सिखाओ कि चप्पलों की मरम्मत कैसे की जाती है?”

और गांधीजी सचमुच उस मैले-कुचैले मोची को गुरु बना कर चप्पल सीने की कला सीखने लगे । वे अपने मिलने वालों से बातें भी करते जाते थे और सीखते भी जाते थे । गुरु-चेले का यह दृश्य देखकर मुलाकाती चकित रह गये । उन्होंने जानना चाहा कि बात क्या है?

गांधीजी बोले,”यह लड़की मुझसे बिना पूछे मेरी चप्पलें मरम्मत करने दे आई थी , इसलिए इसको मुझे सबक सिखाना है और इस मोची को इसका भाग चाहिए, इसलिए मैंने इसे अपना गुरु बना लिया है ।” फिर हंसते हुए उन्होंने कहा, “देखते हैं न आप महात्माओं का मजा!”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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