हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 65 ☆ जीवन और टी-20 क्रिकेट ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच –  जीवन और टी-20 क्रिकेट ☆

जीवन एक अर्थ में टी-20 क्रिकेट ही है। काल की गेंदबाजी पर कर्म के बल्ले से साँसों द्वारा खेला जा रहा क्रिकेट। अंपायर की भूमिका में समय सन्नद्ध है। दुर्घटना, अवसाद, निराशा, आत्महत्या फील्डिंग कर रहे हैं। मारकेश अपनी वक्र दृष्टि लिए विकेटकीपर की भूमिका में खड़ा है। बोल्ड, कैच, रन-आऊट, स्टम्पिंग, एल.बी.डब्ल्यू….,  ज़रा-सी गलती हुई कि मर्त्यलोक का एक और विकेट गया। अकेला जीव सब तरफ से घिरा हुआ है जीवन के संग्राम में।

महाभारत में उतरना हरेक के बस में नहीं होता। तुम अभिमन्यु हो अपने समय के। जन्म और मरण के चक्रव्यूह को बेध भी सकते हो, छेद भी सकते हो। अपने लक्ष्य को समझो, निर्धारित करो। उसके अनुरूप नीति बनाओ और क्रियान्वित करो। कई बार ‘इतनी जल्दी क्या पड़ी, अभी तो खेलेंगे बरसों’ के फेर में अपेक्षित रन-रेट इतनी अधिक हो जाती है कि अकाल विकेट देने के सिवा कोई चारा नहीं बचता।

परिवार, मित्र, हितैषियों के साथ सच्ची और लक्ष्यबेधी साझेदारी करना सीखो। लक्ष्य तक पहुँचे या नहीं, यह समय तय करेगा। तुम रन बटोरो, खतरे उठाओ-रिस्क लो, रन-रेट नियंत्रण में रखो। आवश्यक नहीं कि मैच जीतो ही पर अंतिम गेंद तक जीत के जज़्बे से खेलते रहने का यत्न तो कर ही सकते हो न!

यह जो कुछ कहा गया, ‘स्ट्रैटिजिक टाइम आऊट’ में किया गया दिशा निर्देश भर है। चाहे तो विचार करो और तदनुरूप व्यवहार करो अन्यथा गेंदबाज, विकेटकीपर और क्षेत्ररक्षक तो तैयार हैं ही।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग-२ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित आलेख  काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग–२”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग–२ 

(दो‌ शब्द‌ लेखक के— काशी को मोक्षदायिनी नगरी कहा जाता है, हर व्यक्ति मोक्ष  की कामना ले अपने जीवनकाल में एक बार काशी अवश्य आना चाहता है।आखिर ऐसा क्या है? कौन सा आकर्षण है जो लोगों को अपनी तरफ चुंबक सा खींचता है? लेखक इस आलेख के द्वारा काशी, काशीनाथ, गंगा, अन्नपूर्णा तथा भैरवनाथ की महिमा से प्रबुद्ध पाठक वर्ग को अवगत कराना चाहता है। आशा है आपका स्नेह प्रतिक्रिया के रूप में हमें पूर्व की भांति मिलता ‌रहेगा ।  – सूबेदार पाण्डेय )

पिछले अंक में इस शोधालेख में आपने काशी तथा गंगा  के पौराणिक कथाओं ‌मान्यताओं के आधार पर उसकी जीवन शैली पौराणिक महत्व तथा विभूतियों के बारे लेखक की राय जानी, अब क्रमशःअगले भाग में काशी के बारे जनश्रुति तथा लोक मानस में व्याप्त ऐतिहासिक महत्त्व का अध्ययन करेंगे, तथा अपनी अनमोल प्रतिक्रिया से अभिसिंचित करेंगे।  जी हां ये वही काशी है, जहां आज भी लोग विश्व के कोने-कोने से शिक्षा संस्कृति तथा अध्यात्म की गहराई को नजदीक से जानने समझने की कामना लेकर आते हैं। तथा अध्यात्मिक सांस्कृतिक जीवन शैली की गहराई में डूबकर यहीं के‌ होकर रह जाते है।

वर्तमान समय में काशी के उत्तरी छोर पर बसा सारनाथ बौद्ध महातीर्थ यात्रा परिपथ है, यहीं से बौद्ध धर्म चक्र प्रवर्तन चला था, उसके उत्तर में जिले के अंतिम सीमा पर बसे कैथी ग्राम में गंगा गोमती के पावन संगम तट पर बसा  महाभारत कालीन मार्कण्डेय महादेव का ऐतिहासिक अतिप्राचीन मंदिर तथा तपस्थली है जिसके बारे में पौराणिक मान्यता है कि अपनी तपस्या के प्रताप से उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न कर अपने आयु बल  की पुनर्समीक्षा कर नवजीवन प्रदान करने के लिए   देवताओं को बाध्य  कर दिया था।

काशी के दक्षिण में महामना की ज्ञान बगिया भारतीय हिंदू युनिवर्सिटी है।

काशी के पूर्वी छोर पर गंगा के उस पार राजा बनारस का रामनगर का किला है, जहां आज भी राजसी आन बान शान के साथ एक माह तक अनवरत चलने वाला रामलीला का सांस्कृतिक मंचन तथा आयोजन होता है जो काशी के इतिहास की सांस्कृतिक धरोहर है। तथा सारे विश्व में राजपरिवार के मुखिया की पहचान भगवान शिव के सांस्कृतिक प्रतिनिधि के रुप में होती है। रामनगर किले के पास से बहने वाली गंगा अर्धचंद्राकार स्वरूप में बहती है जिसके जल में पड़ने वाले  द्वीप समूहों तथा  प्रकाश स्तंभों का झिलमिल प्रकाश  शिव के मस्तक पर चंद्रमा के होने का  मृगमरीचिका का भ्रम पैदा कर  देता है। वहीं पश्चिमी छोर पर पंचकोसी परिक्रमा पथ पर बसा महाभारत कालीन भगवान शिव का रामेश्वर महादेव स्वरूप काशी क्षेत्र को अभिनव गरिमा से भर देता है।

काशी में गंगा घाट पर उगते सूर्य के साथ सुबह बनारस, तथा  लखनवी  शामें अवध अपनी अद्भुत छवि के लिए सारे विश्व में प्रसिद्ध है, सबेरे की‌ गंगा घाट की सुर साधना तथा सायंकालीन गंगा आरती काशी के आध्यात्मिक सौंदर्य को नवीन आभा मंडल प्रदान करती है। यह काशी के आध्यात्मिक वातावरण का प्रभाव ही है, जो लोगों को बार बार काशी भ्रमण के लिए प्रेरित करता है।

राष्ट्रीय स्वतंत्रता के इतिहास में काशी वासियों का अभूतपूर्व योगदान रहा है। यहां के निवासियों का “अतिथि देवो भव” का सेवाभाव भक्ति साधनायुक्त जीवन-शैली से ओत-प्रोत फक्कडपन भरा खांटी देशी अंदाज की जीवन शैली लोगों के जीवन काल का अंग बन गई है। यहां रहनेवाला हर समुदाय तथा संप्रदाय का व्यक्ति उत्सवधर्मी है। यहां साल के तीसों दिन बारहों महीने कोई न कोई उत्सव चलता ही रहता है। जो काशी वासियों के हृदय में उमंग उत्साह का सृजन तो करता ही है, यात्रीसमूहों को आकर्षित भी करता है।तभी तो काशी की महिमा से आश्वस्त कबीर कहते हैं –  जौ काशी तन तजें कबीरा,रामै कौन निहोरा रे।

अर्थात् काशी में महाप्रयाण  करने पर तो मोक्ष अवश्यंभावी है, इसमें राम का कैसा एहसान है, और अंतिम समय में अपने सत्कर्मो के परीक्षण के लिए मगहर चले जाते हैं। अनेक लोक कहावतें भी काशी को महिमा मंडित करती हैं, तथा उसकी महत्ता दर्शाती है, लोक मानस में ये उक्ति प्रचलित है ———–

चना चबेना गंगजल, जौ पुरवै करतार।
काशी न कहूं छोडिये, विश्वनाथ दरबार।।

ये कहावत काशी वासियों के हृदय का उद्गगार है। जिसमें आत्मसंतुष्टि से ओत-प्रोत जीवन की अलग ही छटा दीखती है। जिस काशी की महिमा पुराणों तथा लोक मानस ने गाई है, उस काशी के बारे में यह भी किंवदंती है कि इसी काशी में बाबा विश्वनाथ ने मां अन्नपूर्णा से भिक्षा स्वरूप वरदान मांगा था कि यहां भूखा भले ही कोई उठे, पर सायंकाल कोई भी व्यक्ति भूखा न सोये।  काशी में मां गंगा तथा मां अन्नपूर्णा पेट भरने के लिए भोजन तथा पीने के लिए पवित्र गंगा जल हमेशा उपलब्ध कराती हैं। इस क्षेत्र में मां अन्नपूर्णा की कृपा सदैव बरसती है। यहां रहनेवाला कोई भी जीव चाहे पशु-पक्षी ही क्यों न हो, वह मां अन्नपूर्णा के आंचल की छांव तले सुखी शांत जीवन यापन करता है। यहां का धर्मप्राण चेतना युक्त जनसमूह पशुओं पंछियों बीमारों अपाहिजो सबका ध्यान रखता है। नर सेवा नारायण सेवा के कथन में विश्वास रखता है, बाबा विश्वनाथ को अवढरदानी भी कहते हैं। वह अपना सब कुछ लुटा कर लोगों का दुख हरते हैं।  इसी विश्वास और भरोसे पर तो  रामबनवास के समय अयोध्या में महाराज दशरथ का आकुल व्याकुल आर्तमन पुकार उठता है।

चौपाई  –

सुमिरि महेशहि कहहि निहोरी,आरति हरहुं सदाशिव मोरी।
आशुतोष तुम अवढरदानी, आरति हरहुं दीन जन जानी।।

(रा०च०मा०अयोध्या का०४४)

यही कारण है कि काशी में  विश्वनाथ, मां अन्नपूर्णा,  मां गंगा तथा  काशी कोतवाल भैरवनाथ प्रात: स्मरणीय तथा पूजनीय है। जिनके स्मरण मात्र से जीव स्थूल शरीर त्याग स्वयं शिवस्वरूप हो जाता है। इसी भरोसे तथा विश्वास के पुष्टि में कबीर लिख देते हैं———

हेरत हेरत हे सखी ,रहा कबीर हेराइ।
बूंद समानी समझ में अरु किछु कहा न जाइ।।

संभवतः यही कारण बना होगा इस कहावत  के पीछे कि – काशी तीन लोक से न्यारी।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 17 ☆ हिन्दु धर्म तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित बढ़ती अपसंस्कृति रुकना अनिवार्य ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “हिन्दु धर्म तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित बढ़ती अपसंस्कृति रुकना अनिवार्य)

☆ किसलय की कलम से # 17 ☆

☆ हिन्दु धर्म तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित बढ़ती अपसंस्कृति रुकना अनिवार्य ☆

अमर्यादित चुटकुले, हास्य, व्यंग्य, पैरोडी, लेखों, व हिन्दुधर्म का माखौल उड़ाने वालों पर कानूनी कार्यवाही का विधान बने।  विश्व के समस्त धर्मों में मानवता को सर्वोपरि माना गया है। किसी अन्य धर्म की आलोचना करना अथवा किसी की आस्था को ठेस पहुँचाना किसी भी धर्म में नहीं लिखा। लोग अपने-अपने धर्मानुसार जीवन यापन व धर्मसम्मत पूजा,भक्ति, प्रार्थना और ध्यान कर आनंद की अनुभूति प्राप्त करते हैं। विश्व के अलग-अलग देशों में किसी न किसी धर्म की बहुतायत होती ही है। उस देश के लोग वर्ष भर अपने धर्मानुसार पर्व, उत्सव, जन्मदिवस, मोक्ष दिवस आदि मनाते हुए सामाजिक जीवन खुशी-खुशी जीते हैं। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि उस देश के अन्य धर्मावलंबी अपना जीवन अपने अनुसार नहीं जीते। अन्य धर्मों के कार्यक्रम अथवा पर्वों में जनाधिक्य का अभाव व यदा-कदा असहजता प्रकट होना अलग बात है, लेकिन विश्व के अधिकांश देशों में किसी को भी अपने धर्म सम्मत जीवन यापन करने की कोई रोक-टोक नहीं है। हर देश में वहाँ की परिस्थितियों, मान्यताओं, ग्रंथों एवं संस्कृति का महत्त्व होता है। प्राचीन प्रथाओं एवं रीति-रिवाजों के अनुरूप धर्म का अनुकरण भी उस धर्म के अनुयायी करते हैं। पूरे विश्व में परम्परायें एवं परिस्थितियाँ समय, दूरी व मान्यताओं के चलते भिन्न भिन्न होती हैं।

अलग-अलग धर्मों के मतानुसार एक ही बात, एक ही वस्तु या एक ही कार्य पवित्र-अपवित्र अथवा उचित-अनुचित भी हो सकते हैं। आशय यह है कि हमारे लिए जो बातें सही हैं वे अन्य धर्म के लिए असंगत भी हो सकती हैं। यही बात उनके लिए भी लागू होती है परन्तु ऐसा नहीं है कि सर्वत्र मानवता, हिंसा, बुराई, अच्छाई, अथवा घृणा के भी अलग अलग मायने हैं।

विश्व के किसी भी देश का एक सच्चा इंसान ‘सर्व धर्म समभाव’ में विश्वास रखता है। अधिकांश महापुरुषों, धर्मगुरुओं एवं विशिष्ट लोगों के विचार भी किसी अन्य धर्म की आलोचना को अनुमति नहीं देते। हर देश में 5 से 10% लोग धर्मों के बँटवारे व धर्म की राजनीति करने वाले पाए ही जाते हैं। ये वही विघ्नसंतोषी लोग हैं, जो अपने स्वार्थ अथवा थोड़ी प्रसिद्धि हेतु अपने प्रभाव व समर्थकों के साथ अन्य धर्मों के विरुद्ध विष वमन करते हैं। कुछ दिग्भ्रम व अवसरवादी लोग भी इनसे जुड़कर सद्भाव के वातावरण को दूषित करते हैं। अनेक धर्मावलंबियों से लम्बी वार्ताएँ, अध्ययन एवं विश्लेषण से ज्ञात हुआ है कि 5 से 10 प्रतिशत लोगों को छोड़कर शेष सभी धर्मावलंबी आपसी सद्भाव और शांति के साथ जीवन यापन कर रहे हैं।

समाज में सभी प्रेम-भाईचारे के साथ खुश रहते हैं। इन विघ्न संतोषियों के उन्माद के कारण फिजा में जरूर अल्प समय के लिए जहर घुल जाता है, लेकिन अब तक भुगत चुका आदमी इनके बहकावे में नहीं आता। वैसे भी अपवाद तो हर जगह, हर काल में रहे हैं। कभी कभी जरा सी चूक या नासमझी से ही ऐसी कुछ असहज परिस्थितियाँ कुछ दिनों के लिए निर्मित होती हैं लेकिन पुनः सामान्य स्थिति बहाल हो जाती है। कुल मिलाकर विश्व में चार-छह दशक पूर्व वाली धर्म विरोधी परिस्थितियाँ उत्पन्न होना अब नामुमकिन है।

धर्मों के प्रति घृणा और कम-ज्यादा महत्त्व की बातें अब ज्यादा दिखाई व सुनाई नहीं देती, लेकिन पिछले कुछ दशकों से एक ऐसे वर्ग में निरंतर वृद्धि हो रही है जो हिंदू धर्म का माखौल उड़ाने से पीछे नहीं हटता। लोक-परलोक, पाप-पुण्य और आस्थाभाव से परे ये लोग लगातार अपने कुकृत्यों और कुतर्कों से हिंदू धर्म की मर्यादा को कलंकित करने पर तुले हुए हैं।

माना कि हर आदमी गलत नहीं होता परन्तु हर वर्ग में कुछ ऐसे अप्रिय लोग जरूर पाए जाते हैं। चित्रकारों एवं कार्टूनिस्टों में ऐसे बहुत से लोग पाए जाते हैं जो अपनी तूलिका से हिन्दु देवी-देवताओं के अमर्यादित व अभद्र चित्रों को उकेरकर हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करते रहते हैं। कुछ कलाकारों द्वारा विभिन्न पर्वों पर दुर्गा, गणेश, होलिका की मूर्तियों सहित विभिन्न झाँकियों में भी धार्मिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर धर्मविरुद्ध मूर्तियाँ एवं आकृतियाँ दर्शन हेतु तैयार करते हैं, जबकि धर्म के साथ किसी भी तरह का खिलवाड़ अथवा असंगत दखल कदापि स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। समाज के प्रबुद्ध जनों को ऐसे अनुचित कृत्यों पर हस्तक्षेप हेतु आगे आना चाहिए। माना ऐसे चित्रों से सामान्य लोगों में कौतूहल उत्पन्न तो होता है लेकिन ऐसी कुछ परिपाटियाँ भी जन्म लेती हैं जो धर्मपरायण नहीं हैं।

वर्ष भर हिन्दुओं के धार्मिक पर्वों के चलते प्रमुख रूप से दशहरा एवं गणेश उत्सव के संदर्भ में देखा गया है कि ये दोनों पर्व दस-ग्यारह दिन लगातार चलते हैं। अखबारों में इन्हीं देवी-देवताओं के सुसज्जित चित्रों का प्रकाशन होता है। खास तौर पर अनंत चतुर्दशी, दुर्गाष्टमी नवमी एवं विजयादशमी पर प्रतिदिन खाद्य पदार्थों को पैक करने में, बिछाकर बैठने के अतिरिक्त सामान्य जनता अन्य तरह से उपयोग कर इन्हीं अखबारों के पन्नों को रास्ते में ही फेंक देते हैं और लोग अधिकतर इन्हें पैरों तले कुचलते रहते हैं। इस पर भी सामग्री विक्रेताओं व उपयोगकर्ताओं को ध्यान देना होगा। लोग अखबारों के इन सचित्र परिशिष्टों को अलग कर अपने पास रख सकते हैं अथवा पवित्र जगहों पर विसर्जित भी कर सकते हैं।

इसके बाद देखा गया है कि कुछ कट्टरपंथी अपने प्रवचनों और धार्मिक आयोजनों में अन्य धर्मों की आलोचना कर श्रोताओं को दिग्भ्रमित करते हैं। साहित्य क्षेत्र के कुछ लोग भी विकृत मानसिकता को अपनी लेखनी के माध्यम उजागर करते हैं। उनके गद्य-पद्यों में किसी न किसी रूप से हिन्दु धर्म पर बुरी नीयत से कटाक्ष और व्यंग्य कसे जाते हैं। इसी वर्ग का दूसरा हिस्सा मंचीय कवियों तथा हास्य कलाकारों का होता है। आजकल अधिकांश कवि सम्मेलन स्वस्थ मनोरंजन और प्रेरक काव्य के स्थान पर ओछे व्यंग्यों, चुटकुलों एवं हास्य की बातों के मंच बन गए हैं। इन मंचों से कविता की चार पंक्तियाँ सुनने के लिए कान तरस जाते हैं। चार पंक्तियों के लिए आपको कम से कम बीस-तीस मिनट तक इनके फूहड़ चुटकुले अथवा बकवास झेलना पड़ती है। इन सब में सबसे गंभीर और विकृत परिस्थितियाँ यही तथाकथित हास्य कवि तथा हास्य कलाकार निर्मित करते हैं। इनका प्रमुख उद्देश्य यही रहता है कि फूहड़ और ओछी बातों से जनता का मनोरंजन किया जा सके। ये हमारे ही धर्म के असभ्य लोग हैं जो अपने ही देवी-देवताओं को लेकर ऐसी बातें करते हैं, जिससे हर सच्चे हिन्दु की आत्मा आहत हो जाती है। भला ये कैसे हिन्दु हैं जो चार पैसों और अपनी अल्प प्रसिद्धि के लिए अपने ही धर्म की मान-मर्यादा को भी दाँव पर लगाते हैं। देश के विभिन्न मंचों, टी.वी. सीरियलों एवं अपने यूट्यूब चैनलों, अपनी वेबसाइट्स, अपने एल्बमों द्वारा हिन्दुधर्म और इसमें समाहित आस्था की धज्जियाँ उड़ाते हैं। हिन्दु कलाकारों को जब अपने ही धर्म की खिल्ली उड़ाने में डर नहीं लगता तब देश के दूसरे धर्मावलम्बी कलाकारों को डर क्यों लगने लगा। हिन्दु धर्मावलंबियों के अतिरिक्त ऐसी सहिष्णुता अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं देती। वैसे भी अन्य धर्मों में सख्ती के चलते ये सब सम्भव ही नहीं है। मंच, ऑडियो, वीडियो और उनकी पुस्तकों में लिखित साक्ष्यों एवं हिन्दुधर्म को अपमानित करने पर बहुत कम लोगों ही दण्डित हुए होंगे। हिन्दुधर्म पर अमर्यादित चुटकुले, हास्य, व्यंग्य, पैरोडी, लेखों, व हिन्दुधर्म का माखौल उड़ाने वालों पर कानूनी कार्यवाही का विधान बनना आवश्यक होता जा रहा है। जनहित याचिकाएँ एवं यदा-कदा न्यायालय के संज्ञान में आने पर भी स्वमेव कार्यवाही होते देखी गई हैं। क्या ऐसे ही किसी तरह से इन गतिविधियों पर पाबंदी नहीं लगाई जा सकती। इन कृत्यों पर देश के तथाकथित कर्णधारों, धार्मिक संगठनों और जन सामान्य द्वारा भी गंभीरता से नहीं लिया जाता। आखिर ऐसी जागरूकता एवं समझदारी लोगों में कब आएगी। गहन चिंतन करने पर यह पता चलता है कि अन्य धर्मों की अपेक्षा हिन्दुधर्म के देवी-देवताओं और ग्रंथों में लिखे गए विषयों और प्रसंगों पर कुछ ज्यादा ही कुतर्क किए जाते हैं लेकिन यह बात भी दृढ़ता से कही जा सकता है कि हिन्दुधर्म व हिन्दु धार्मिक ग्रंथों के सतही अध्ययन व अपूर्ण उद्देश्यप्रधान जानकारी के अभाव में ही ये सब अल्पज्ञ लोग घटिया तर्कों का सहारा लेकर हमारे धर्म पर कीचड़ उछलते हैं।

हम सभी जानते हैं कि हर चीज व हर बातें समय, स्थान व परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती हैं। तुलसीदास जी, बाल्मीकि जी, वेदव्यास जी सहित ऐसे अनेक प्रकांड हिन्दु विद्वानों द्वारा ग्रंथों में लिखी गईं एक एक बात तात्कालिक दृष्टि से शत प्रतिशत सही है। आज भी कुछ ऐसे लोग व जातियाँ हैं, जिनके पूर्वज स्वयं उन्हीं नामों से स्वयं का परिचय देते थे परंतु आज उन्हीं शब्दों के संबोधन असंगत या बुरे लगते हैं। तब उन बातों को हम उसी समय के लिए ही छोड़ देना श्रेयस्कर क्यों नहीं मानते। क्या विरोध करने से ग्रंथों के भी शब्द बदल जाएँगे। क्या मुंबई, कोलकाता और चेन्नई के नाम पुरानी पुस्तकों या अभिलेखों से हटा सकते हैं। नहीं न। फिर कुछ ऐसी ही सरल-सहज पढ़ी-लिखी गईं विगत धार्मिक और सामाजिक बातों की आड़ में विषवमन क्यों किया जाता है। इन पर अमर्यादित धार्मिक अभिव्यक्ति कतई न्याय संगत नहीं है। देश में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो हिन्दु होते हुए भी अपने ही धार्मिक ग्रंथों और देवी-देवताओं पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ लेकर कीचड़ उछालते रहते हैं। लोग यह भूल जाते हैं कि एक सीमा के बाद गलत अभिव्यक्ति भी आपराधिक कृत्य माना जा सकता है।

देवी देवताओं के नामों पर असंगत दुकानों, उपयोगी वस्तुओं, सेवाओं के साथ इनका नाम नहीं जोड़ा जाना चाहिए। जूते, चप्पल, मांस-मदिरा के उत्पादों पर धार्मिक चित्रों के उपयोग पर प्रतिबंध होना चाहिए। धर्म, देवी-देवताओं, ग्रंथों आदि पर कटाक्ष तथा माखौल उड़ाने पर ऐसे लोगों की निंदा एवं बहिष्कार जैसे कदम उठाए जाना चाहिए।
हिन्दु धर्म तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित बढ़ती अपसंस्कृति का यह एक बेहद संवेदनशील विषय है। इस पर हिंदुओं सहित हर धर्म के लोगों को भी सोचना होगा कि हम ऐसे कोई कार्य न करें, जिससे किसी भी धर्म की भावनाओं को ठेस पहुँचे। धर्म लोगों के जीवन का अभिन्न अंग होता है। धर्म पथ पर चलने के आचार एवं व्यवहार हमें विरासत में मिलते हैं। आस्था हमारे हृदय में बसी होती है। धर्म व धर्मावलंबी होने के अस्तित्व परस्पर पूरक होते हैं। इसलिए इनकी मान-मर्यादा एवं सम्मान को बनाए रखना हम सबका दायित्व है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।)

आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय आलेख  एवं ई-अभिव्यक्ति  का आह्वान एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें। 

हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह प्रतिदिन इस संदर्भ की एक रचना पाठकों के लिए लाने जा रहे हैं, लेखकों से हमारा आव्हान है कि इस विषय पर कलम चला कर रचनाएँ भेजें, हम इस का प्रारम्भ करेंगे सहयोगी  “साहित्यम समूह” में “एकता शक्ति” आयोजन में प्राप्त चुनी हुई रचनाओं से

☆ एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें  ☆

कोरोना के परिदृश्य में स्पष्ट हो चुका है कि केवल सबके बचाव में ही स्वयं का बचाव संभव है. एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें हैं. जो देश इस कठिनाई के समय में भी विस्तार की नीति अपना रहे हैं, वहां की सरकारें जनता से छल कर रही हैं. दुनियां के लिये यह समय सामंजस्य और एकता के विस्तार का है.

हमारी युवा शक्ति ही देश की सबसे बड़ी ताकत है.बुद्धि और विद्वता के स्तर पर हमारे देश के युवाओ ने सारे विश्व में मुकाम स्थापित किया है. हमारे साफ्टवेयर इंजीनियर्स  के बगैर किसी अमेरिकन कंपनी का काम नही चलता. हमारी स्त्री शक्ति सशक्त हुई है. देश के युवाओ से यही कहना है कि  हम किसी से कम नही है और हमारे देश को विश्व में नम्बर वन बनाने की जबाबदारी हमारी पीढ़ी की ही है.हमें नीति शिक्षा की किताबो से चारित्रिक उत्थान के पाठ पढ़ने ही नही उसे अपने जीवन में उतारने की जरूरत है. मेरा विश्वास है कि भारतीय लोकतंत्र एक परिपक्व शासन प्रणाली प्रमाणित होगी, इस समय जो कमियां भ्रष्टाचार, जातिगत आरक्षण, क्षेत्रीयता, भाषावाद, वोटो की खरीद फरोक्त को लेकर देश में दिख रही हैं उन्हें दूर करके हम विश्व नेतृत्व और वसुधैव कुटुम्बकम् के प्राचीन भारतीय मंत्र को साकार कर दिखायेंगे. आज जब मानवीय मूल्य समाप्त होते जा रहे हैं, संभवतः रोबोट और मशीनी व्यवस्थायें ही देश से भ्रष्टाचार समाप्त कर सकती है, जैसा कंप्यूटरीकरण के विस्तार से रेल्वे या अन्य विभिन्न क्षेत्रो में हो भी रहा है.

सैक्स के बाद यदि दुनिया में कुछ सबसे अधिक लोकप्रिय विषय है तो संभवतः वह राजनीति ही है. लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली मानी जाती है.और सारे विश्व में भारतीय लोकतंत्र न केवल सबसे बड़ा है वरन सबसे  तटस्थ चुनावी प्रणाली के चलते विश्वसनीय भी है. चुनावी उम्मीदवार अपने नामांकन पत्र में अपनी जो आय  घोषित कर चुके हैं  वह हमसे छिपी नही है,  एक सांसद को जो कुछ आर्थिक सुविधायें हमारा संविधान सुलभ करवाता है,वह इन उम्मीदवारो के लिये ऊँट के मुह में जीरा है. प्रश्न है कि  आखिर क्या है जो लोगो को राजनीति की ओर आकर्षित करता है. क्या सचमुच जनसेवा और देशभक्ति ? क्या सत्ता सुख, अधिकार संपन्नता इसका कारण है ? मेरे तो परिवार जन तक मेरे इतने ब्लाइंड फालोअर नही है, कि कड़ी धूप में वे मेरा घंटों इंतजार करते रहें, पर ऐसा क्या चुंबकीय व्यक्तित्व है,  राजनेताओ का कि हमने देखा लोग कड़ी गर्मी के बाद भी लाखो की तादात में हेलीकाप्टर से उतरने वाले नेताओ के इंतजार में घंटो खड़े रहे, देश भर में.  जबकि उन्हें पता था कि नेता जी आकर क्या बोलने वाले हैं. इसका अर्थ  यही है कि अवश्य कुछ ऐसा है राजनीति में कि हारने वाले या जीतने वाले या केवल नाम के लिये चुनाव लड़ने वाले सभी किसी ऐसी ताकत के लिये राजनीति में आते हैं जिसे मेरे जैसे मूढ़ बुद्धि शायद समझ नही पा रहे. तमाम राजनैतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार देश के “रामभरोसे” मतदाता की तारीफ करते नही अघाते, देश ही नही दुनिया भर में हमारे रामभरोसे की प्रशंसा होती है, उसकी शक्ति के सम्मुख लोकतंत्र नतमस्तक है. रामभरोसे वोटरे के फैसले के पूर्वानुमान की रनिंग कमेंट्री कई कई चैनल कई कई तरह से करते रहे हैं. मैं भी अपनी मूढ़ मति से नई सरकार का हृदय से स्वागत करती हूं.पिछले अनुभवों में हर बार बेचारा रामभरोसे वोटर ठगा गया है, कभी गरीबी हटाने के नाम पर तो कभी धार्मिकता के नाम पर, कभी देश की सुरक्षा के नाम पर तो कभी रोजगार के सपनो की खातिर. एक बार और सही. हर बार परिवर्तन को वोट करता है रामभरोसे, कभी यह चुना जाता है कभी वह. पर रामभरोसे का सपना टूट जाता है, वह फिर से राम के भरोसे ही रह जाता है, नेता जी कुछ और मोटे हो जाते हैं. नेता जी के निर्णयो पर प्रश्नचिन्ह लगते हैं,जाँच कमीशन व न्यायालय के फैसलो में वे प्रश्न चिन्ह गुम जाते हैं. रामभरोसे किसी नये को नई उम्मीद से चुन लेता है. चुने जाने वाला रामभरोसे पर राज करता है, वह उसके भाग्य के घोटाले भरे फैसले करता है.मेरी पीढ़ी ने तो कम से कम अब तक यही होते देखा है. प्याज के छिलको की परतो की तरह नेताजी की कई छबिया होती हैं. कभी वे  जनता के लिये श्रमदान करते नजर आते हैं, शासन के प्रकाशन में छपते हैं. कभी पांच सितारा होटल में रात की रंगीनियो में रामभरोसे के भरोसे तोड़ते हुये उन्हें कोई स्पाई कैमरा कैद   कर लेता है. कभी वे संसद में संसदीय मर्यादायें तोड़ डालते हैं, पर उन्हें सारा गुस्सा केवल रामभरोसे के हित चिंतन के कारण ही आता है. कभी कोई तहलका मचा देता है स्कूप स्टोरी करके कि  नेता जी का स्विस एकाउंट भी है. कभी नेता जी विदेश यात्रा पर निकल जाते हैं रामभरोसे के खर्चे पर, वे जन प्रतिनिधि जो ठहरे. संभवतः सर्वहारा को सर्व शक्तिमान बना सकने की ताकत रखने वाले लोकतंत्र की सफलता के लिये उसकी ये कमियां स्वीकार करनी जरूरी हैं.जो भी हो शायद यही लोकतंत्र है, तभी तो सारी दुनिया इसकी इतनी तारीफ करती है.

भारतीय लोकतात्रिक प्रणाली की वैधानिक व्यवस्थायें अमेरिकन व इंगलैण्ड सहित दुनिया के विभिन्न संविधानो के अध्ययन के उपरांत भीमराव अम्बेडकर जैसे विद्वानो ने निर्धारित की थीं. भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार तो विजयी उम्मीदवारों में से सबसे बड़े दल के सांसद,अपना नेता चुनते हैं, जो प्रधानमंत्री पद के लिये राष्ट्रपति के सम्मुख अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करता है, अर्थात जनता अपने वोट से सीधे रूप से प्रधानमंत्री का चुनाव नही करती यद्यपि सत्ता की मूल शक्ति प्रधानमंत्री में ही सन्नहित होती है . जबकि अमेरिकन प्रणाली में राष्ट्रपति सत्ता की शक्ति का केंद्र होता है, और उसका सीधा चुनाव जनता अपने मत से करती है.

अब जन आकांक्षा केवल घोषणायें और शिलान्यास नहीं कुछ सचमुच ठोस चाहती है . सरकार से हमें देश की सीमाओ की सुरक्षा, भय मुक्त नागरिक जीवन, भारतवासी होने का गर्व, और नैसर्गिक न्याय जैसी छोटी छोटी उम्मीदें  हैं . सरकार सबके हितो के लिये काम करे न कि पार्टी विशेष के, पर्दे के सामने या पीछे के नुमाइन्दो से सिफारिश पर, केवल उन लोगो के काम हो जिन के पास वह खास सिफारिश हो. जो उम्मीदें चुनावी भाषणो और रैलियो में जगाई गई हैं, वे बिना भ्रष्टाचार के मूर्त रूप लें .महिलाओ को सुरक्षा मिले, पुरुषो की बराबरी का अधिकार मिले. युवाओ को अच्छी शिक्षा तथा रोजगार मिले. आम आदमी को मंहगाई और भ्रष्टाचार से निजात मिले. अल्पसंख्यको को विश्वास मिले. देश का सर्वांगीण विकास हो सके.राष्ट्र कूटनीतिक रूप से, तकनीकी रूप से,सक्षम हो.  विकास के रथ पर सवार होकर हमारा देश दुनिया के सामने एक विकसित राष्ट्र के रूप में पहचान बनाये यह हर भारतीय की आकांक्षा है, और यही  सरकार की चुनौती है.

कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के चलते विकास के सारे मापदण्ड छिन्न भिन्न हैं  निश्चित ही सारी जबाबदारी केवल सरकार पर नही डाली जा सकती, हर नागरिक को भी इस महायज्ञ में अपनी भूमिका निभानी ही  होगी. सरकार विकास का वातावरण बना सकती है, सुविधायें जुटा सकती है, पर विकास तो तभी होगा जब प्रत्येक इकाई विकसित होगी, हर नागरिक सुशिक्षित बनेगा. जब देशप्रेम की भावना का अभ्युदय  हर बच्चे में होगा तो स्वहित के साथ साथ देशहित भी हर नागरिक के मन मस्तिष्क का मंथन करेगा. भ्रष्टाचार स्वयमेव नियंत्रित होता जायेगा और देश उत्तरोत्तर विकसित हो सकेगा. अतः नागरिको में सुसंस्कार विकसित करना भी नई सरकार के सम्मुख एक चुनौती है.

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 45 – बापू के संस्मरण-19- इसी का नाम है अंधा प्रेम …. ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “इसी का नाम है अंधा प्रेम ….”)

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 19 – इसी का नाम है अंधा प्रेम ….☆ 

उन दिनों गांधीजी बिहार में काम कर रहे थे । अचानक वायसराय ने उन्हें बुला भेजा । अनुरोध किया कि वे हवाई जहाज से आयें । गांधीजी ने कहा, “जिस सवारी में करोड़ों गरीब लोग सफर नहीं कर सकते, उसमें मैं कैसे बैठूं?” उन्होंने रेल के तीसरे दर्जे से ही जाना तय किया । मनु बहन को बुलाकर बोले,” मेरे साथ सिर्फ तुझको चलना है । सामान भी कम-से-कम लेना और तीसरे दर्जे का एक छोटे-से-छोटा डिब्बा देख लेना ।” सामान तो मनु बहन ने कम-से-कम लिया, लेकिन जो डिब्बा चुना, वह दो भागों वाला था.

एक में सामान रखा और दूसरा गांधीजी के सोने-बैठने के लिए रहा । ऐसा करते समय मनु के मन में उनके आराम का विचार था । हर स्टेशन पर भीड़ होगी , फिर हरिजनों के लिए पैसा इकट्ठा करना होता है, रसोई का काम भी उसी में होगा तो वह घड़ी भर आराम नहीं कर सकेंगे । यही बातें उसने सोची पटना से गाड़ी सुबह साढ़े-नौ बजे रवाना हुई ।

गर्मी के दिन थे, उन दिनों गांधीजी दस बजे भोजन करते थे । भोजन की तैयारी करने के बाद मनु उनके पास आई, वे लिख रहे थे । उसे देखकर पूछा,”कहां थी?” मनु बोली,”उधर खाना तैयार कर रही थी ।

“गांधीजी ने कहा, जरा” खिड़की के बाहर तो देख ।” मनु ने बाहर झांका, कई लोग दरवाजा पकड़े लटक रहे हैं, वह सबकुछ समझ गई ।

गांधीजी ने उसे एक मीठी-सी झिड़की दी और पूछा,”इस दूसरे कमरे के लिए तूने कहा था?” मनु बोली,” जी हां, मेरा विचार था कि यदि इसी कमरे में सब काम करूंगी तो आपको कष्ट होगा ।

” गांधीजी ने कहा,”कितनी कमजोर दलील है । इसी का नाम है अंधा-प्रेम । यह तो तूने सिर्फ दूसरा कमरा मांगा, लेकिन अगर सैलून भी मांगती तो वह भी मिल जाता । मगर क्या वह तुझको शोभा देता? यह दूसरा कमरा मांगना भी सैलून मांगने के बराबर है ।” गांधीजी बोल रहे थे और मनु की आंखों से पानी बह रहा था ।

उन्होंने कहा, “अगर तू मेरी बात समझती है तो आंखों में यह पानी नहीं आना चाहिए । जा, सब सामान इस कमरे में ले आ । गाड़ी जब रुके तब स्टेशन मास्टर को बुलाना ।” मनु ने तुरंत वैसा ही किया. उसके मन में धुकड़-धुकड़ मच रही थी । न जाने अब गांधीजी क्या करेंगे! कहीं वे मेरी भूल के लिए उपवास न कर बैठे! यह सोचते-सोचते स्टेशन आ गया, स्टेशनमास्टर भी आये ।

गांधीजी ने उनसे कहा, “यह लड़की मेरी पोती है, शायद अभी मुझे समझी नहीं, इसीलिए दो कमरे छांट लिए । यह दोष इसका नहीं है, मेरा है । मेरी सीख में कुछ कमी है । अब हमने दूसरा कमरा खाली कर दिया है । जो लोग बाहर लटक रहे हैं, उनको उसमें बैठाइये, तभी मेरा दुख कम होगा ।” स्टेशन मास्टर ने बहुत समझाया, मिन्नतें की, पर वे टस-से-मस न हुए । अन्त में स्टेशन मास्टर बोले, मैं उनके लिए दूसरा डिब्बा लगवाये देता हूं ।

” गांधीजी ने कहा, हां, दूसरा डिब्बा तो लगवा ही दीजिये, मगर इसका भी उपयोग कीजिये । जिस चीज की जरूरत न हो उसका उपयोग करना हिंसा है । आप सुविधाओं का दुरुपयोग करवाना चाहते हैं । लड़की को बिगाड़ना चाहते हैं । बेचारा स्टेशनमास्टर! शर्म से उसकी गर्दन गड़ गई । उसे गांधीजी का कहना मानना पड़ा ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग-१ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित आलेख  काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग–१”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग–१

(दो‌ शब्द‌ लेखक के— काशी को मोक्षदायिनी नगरी कहा जाता है, हर व्यक्ति मोक्ष  की कामना ले अपने जीवनकाल में एक बार काशी अवश्य आना चाहता है।आखिर ऐसा क्या है? कौन सा आकर्षण है जो लोगों को अपनी तरफ चुंबक सा खींचता है? लेखक इस आलेख के द्वारा काशी, काशीनाथ, गंगा, अन्नपूर्णा तथा भैरवनाथ की महिमा से प्रबुद्ध पाठक वर्ग को अवगत कराना चाहता है। आशा है आपका स्नेह प्रतिक्रिया के रूप में हमें पूर्व की भांति मिलता ‌रहेगा ।  – सूबेदार पाण्डेय )

श्लोक—

यत्रसाक्षान्महादेवो देहान्तेस्ययीश्वर:।  व्याचष्टे तारकंब्रह्म तत्रैवहविमुक्तके।।१।।

वरूणायास्थ चास्येमध्ये वाराणसीं पुरी। तत्रैवस्थितंतत्वं नित्यमेव विभुक्तमं।।२।।

वाराणस्या:परस्थानं भूतों न भविष्यति। यत्र नारायणो देवों महादेवों दीवीश्वर:।।३।।

महापातकिनों देवी ये तेभ्यपापवृत्तमा:। वाराणसींसमासाद्यं तेयांति परमांम् गति।।४।।

तस्मान्मुमुक्षुर्नियतो बसे द्वै मरणांतकम्। वाराणस्यो महादेवान्ज्ञान लब्ध्वा विमुच्यते।।५।।

(पद्मपुराण स्वर्गखंड ३३–४६—४९–५०–५२—५३)

अर्थात् अविमुक्त क्षेत्र वाराणसी में (वरूणा और असि) के बीच के क्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त होने पर मैं अर्थात महादेव जीवन जगत को तारक मंत्र (रामनाम) का उपदेश दे कर मोक्ष प्रदान करता हूँ। वरूणा और असि का यह क्षेत्र ही वाराणसी पुरी के नाम से विख्यात है। जहां नित्य विमुक्त तत्व विराज मान है। वाराणसी से उत्तम स्थान न तो हुआ है न तो होगा। जहां भगवान श्री नारायण हरि तथा मै महादेव स्वयं काशी के कण कण में विराजमान हूँ। हे देवि जो महापात की पापाचार में लिप्त है, वो वाराणसी में आकर समस्त पापों से मुक्ति पाकर मोक्ष प्राप्त करता है। मुमुक्षु पुरुष तो मृत्यु पर्यंत काशी वास की कामना करते हैं। जहां वह मुझसे आत्मज्ञान पा परमगति मोक्ष पा कर बंधनों से मुक्त हो जाता है।

पौराणिक श्रुति के अनुसार इस काशी का अस्तित्व शिव के त्रिशूल पर टिका है, जहां पिशाच मोचन कुंड पर भगवान विश्वनाथ कपर्दीश्वर महादेव के रूप में पूजित हो जीव को प्रेत योनि से मुक्त करते हैं। और व्यक्ति ब्रह्महत्या के पातक दोष से मुक्त हो जाता है। इस क्रम में पद्मपुराण में वर्णित  शंकुकर्ण ऋषि तथा प्रेतात्मा संवाद कथा पठन योग्य है। जहां धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आज भी व्यक्ति प्रेतात्मा दोष निवारणार्थ तथा पितृ मोक्ष हेतु गया तीर्थ जाने से पूर्व पिशाच मोचन कुंड में स्नान कर  कपर्दीश्वर महादेव का पूजन कर पिंडदान करने का शास्त्रोक्त विधान है।

चौपाई —

विश्वनाथ मम नाथ पुरारी,

त्रिभुवन महिमा विदित तुम्हारी।

(रा०च०मानस० बा०काण्ड१०६)

श्रीरामचरितमानस का पाठ करते समय अचानक इस चौ० के चरणांश पर नजरें सहसा ठिठक जाती है। तब काशी के अधिष्ठाता भगवान विश्वनाथ का स्वरूप काशी की महिमा उसकी अलमस्त शाही फकीराना अंदाज की जीवन शैली तथा काशी का प्राचीन इतिहास हमारी स्मृतियों में सजीव हो झांक उठता है।

ये वही काशी है, जिसकी आत्मा, मिट्टी तथा जीवन शैली में अध्यात्म गहराई से रचा बसा है। यहाँ की गलियों में बसे मंदिरों, मस्जिदों, गुरद्वारों, गिरजाघरों से उठती धूप, दीप, लोहबान, फूलो, अगरबत्तियों आदि की सुगंध तथा पवित्र मन से की गई पूजा आराधना घंटों घड़ियालों की ध्वनि वेद ऋचाओं का पाठ, मस्जिदों के परकोटो से आती अजान की ध्वनि, यहाँ की फक्कड़पन भरी जीवन शैली वाली फिज़ा में अमृत वर्षा करती कानों में मिठास घोल जाती है। गंगा घाटों के उपर मंडराते प्रवासी पक्षियों के झुंड तथा मस्ज़िदों के परकोटे पर दाना चुगते परिंदो की जमातें, जाति धर्म के झगड़ो से परे प्यार की बोली, भाषा समझने वाले जीव उन्मुक्त गगन में पंख  पसारे सिर के उपर गुजरते है तो बहुत कुछ कह जाते है। वे कभी मंदिर मस्जिद में भेद नहीं मानते।

वहीं पर गंगा की धारा पर स्वछंद अठखेलियां करती, विचरती  रंग बिरंगी नावें सहजता से आकाश में उड़ने वाली  पतंगो का भ्रम पैदा कर देती है। ऐसा लगता है कि रंग-बिरंगी पतंगों से आच्छादित आकाशगंगा धरती पर उतर आई हो। वहीं उन नावों में सवार  यात्री समूहों से उठने वाली भक्ति रस से सराबोर लोक धुनों पर आधारित स्वर लहरियां बरबस ही लोगों के ध्यानाकर्षण का केंद्र ‌बिंदु बन जाती है।

वे ध्वनियां जब कर्णपटल से टकराती है, तब मन के तार झंकृत करती हुई दिल में उतर जाती हैं। यहाँ की प्राचीन सभ्यता आज भी अपने आप में ‌इंसानियत का दामन थामे शांति पूर्ण सौहार्द के वातावरण का सृजन करती है।

यही कारण है कि आज भी हिंदू धर्मावलंबी मोक्षकामना लिए तथा अन्य लोग शांति की चाह लेकर काशी की जीवन पद्धति समझने के लिए आते हैं और अपने जीवन के अनमोल क्षण काशी को समर्पित करना चाहते हैं। कुछ तो मोक्ष की चाहत में यहीं के होकर रह जाते हैं।

श्री रामचरितमानस जिसकी रचना संत तुलसीदास जी ने काशी की गोद में बैठ कर की थी, काशी की महिमा लिखते हुए कहते हैं।

सोरठा—

मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खान अघ हानि कर।

जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न॥

जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।

तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस॥

(रा०च०मानस किष्किंधा—२)

अर्थात् जो जन्म के बंधनों से मुक्ति देती है, ज्ञान की खान है पापों का नाश करने वाली है, उस काशी का सेवन क्यों न करें। जब काल कूट बिष के प्रभाव से सृष्टि का जीवन जल रहा था, उस विष को लोक हित में  जिसने पिया हो, ऐ मूढ़ मतिमंद इस शिव के समान दूसरा कौन कृपालु है जिसके लिए तूं अन्यत्र भटक रहा है, वैसे काशी और काशी के नाथ विश्वनाथ का इतिहास युगों-युगों पुराना है, ऐसा विद्वानों तथा पुराणों का मत है। लेकिन मेरा अपना मानना है कि काशी गंगा से भी अतिप्राचीन इतिहास के कालखंड का हिस्सा है। पौराणिक काल की गंगा अवतरण का किस्सा तो राजा भगीरथ के भगीरथ प्रयास का परिणाम है, लेकिन उनके कई पीढ़ी पूर्व उनके पूर्वज काशी आकर सत्यपथ का अनुसरण कर खुद को डोमराजा के हाथ बेच चुके थे। यह तथ्य पौराणिक कथाओं के अध्ययन से  उद्घाटित होता है। इसकी अपनी अलग ही सांस्कृतिक विरासत तथा समृद्धशाली जीवन शैली है। जहां के लोग कुछ पाने नहीं कुछ देने का भाव रखते हैं।

ये वही काशी है जहां की गरिमा तथा मर्यादा की रक्षा में विरक्तिपूर्ण त्यागमयी जीवन शैली अपनाकर नित्य उच्च आदर्शो के नये किर्तिमान गढ़ते संत समाज के दर्शन किए जा सकते हैं। इसी जीवन क्रम में शंकराचार्य, संत रविदास, संत कबीर दास, संत तुलसीदास, पं मदन मोहन मालवीय, मीरा, झांसी की रानी (मनु), भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, चंद्रशेखर आजाद के त्याग तपस्या, भक्ति तथा साहित्य साधना के कर्मों के इतिहास सिमटे भरे पड़े हैं, जो काशी को गरिमामयी गौरव प्रदान करते हैं तथा काशी की गरिमा में चार चांद लगा देते हैं।

शेष क्रमशः अगले अंक में ——-

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 10 ☆ वीर शहीद जसवंत सिंह का जीवंत शौर्य ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  1962 के भारत चीन युद्ध की एक वीरगाथा पर आधारित  कविता  वीर शहीद जसवंत सिंह का जीवंत शौर्य  एवं उनसे सम्बंधित आलेख।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 10☆

☆ वीर शहीद जसवंत सिंह का जीवंत शौर्य ☆

 हैं हिंद की सेना में कई वीर यों महान

सुन जिनका पराक्रम सभी रह जाते हैरान

 

मन में उमड़ता जोश आता खून में उबाल

बांहें फड़कती खींच लेने दुश्मनों की खाल

 

अरुणाचल में जसवंतगढ़ नूरा तांग के पास

ऐसे ही वीर जसवंत का जीवंत है इतिहास

 

उनकी ही याद में वहां उनका मंदिर बना हुआ

जिसमें सुरक्षित आज भी उनका सभी सामान

 

गहरा था उन्हें  देश प्रेम घने आस्था विश्वास

लड़ते रहे वे तीन दिनों तज भूख और प्यास

 

शैला और नूरा बहनों ने दे भोजन किया उपकार

जिससे बढा था हौसला दुश्मन को सके  मार

 

उनने अकेले तीन सौ चीनियों को मारा

पकड़ा उन्हें जब वे  थे थके अकेला बेसहारा

 

यह महावीर योद्धा थे जसवंत सिंह रावत

जो सच में सिंह से निडर थे जैसी है कहावत

 

गढ़वाल देवभूमि के थे वे मूल निवासी

कर्तव्य ऐसा प्यारा कि मरकर भी करें ड्यूटी

वीर वे अब भी हैं वहां अशरीर  निगहवान

भारत महान धन्य जिसे ऐसे वीरों का वरदान

 

देवभूमि उत्तराखंड ना केवल अपने देवी-देवताओं और उनके मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है बल्कि यह अपनी वीरता के लिए भी मशहूर है। देवभूमि का एक ऐसा ही महान वीर था जसवंत सिंह रावत। भारत और चीन के बीच 1962 की लड़ाई में वीर जसवंत सिंह रावत ने चीनी सेना को नाको चने चबवा दिया था। उन्होंने अकेले ही 72 घंटो तक चीनी सेना के 300 जवानों को मौत के घाट उतारा दिया। जानकार कहते हैं कि जसवंत सिंह एक की वीरता का लोहा चीनी सेना ने भी माना था। उनके अदम्य साहस और वीरता के लिए देश और पूरा उत्तराखंड हमेशा उन्हें याद रखेगा। आइए जानते हैं कि कैसे जसवंत सिंह ने तीन दिन तक चीनी सेना की नाक में दम करके रखा।

जसवसंत सिंह रावत हैं कौन

वीर जसवंत सिंह रावत का जन्म 19 अगस्त 1941 को उत्तराखंड के ग्राम-बाड्यूं ,पट्टी-खाटली,ब्लाक-बीरोखाल, जिला-पौड़ी गढ़वाल में हुआ था। आपको बता दें कि जिस समय जसवंत सिंह सेना में भर्ती होने गए थे उस समय उनकी उम्र महज 17 साल थी। जिस कारण उन्हें सेना में भर्ती होने से रोक दिया गया था। इसके बाद फिर उनकी उम्र होने पर ही उन्हें सेना में भर्ती किया गया। वह 1962 की लड़ाई में चीनी सेना के खिलाफ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए थे।

नूरानांग युद्ध

चीन ने 17 नवंबर 1962 को अरुणाचल प्रदेश पर पर कब्जा करने के लिए चौथा व आखिरी हमला किया। जिस समय चीन ने अरुणाचल प्रदेश पर हमला किया उस समय अरुणाचल की सीमा पर भारतीय सेना की तैनाती नहीं थी। जिसका फायदा उठाकर चीन ने भारत पर हमला बोल दिया। चीन ने अरुणाचल पर हमला कर काफी तबाही मचाई और महात्मा बुद्ध की मूर्ति के हाथों को काटकर ले गए। चीनी सेना ने वहां औरतों की इज्जत भी लूटी।

गढ़वाल राइफल की तैनाती

चीनी सेना को रोकने के लिए वहां गढ़वाल रायफल की 4ह्लद्ध बटालियन को वहां भेजा गया। वीर जसवंत सिंह रावत इस बटालियन के एक सिपाही थ, लेकिन सेना के जवानों के पास चीनी सेना का भरपूर जवाब देने के लिए पर्याप्त हथियार और गोला बारूद उपलब्ध नहीं था। जिस कारण चीनी सेना अरुणाचल से सेना के जवानों को वापस बुलाने का फैसला किया गया। सरकार के आदेश के बाद पूरी गढ़वाल बटालियन वापस लौट आई। लेकिन गढ़वाल राइफल के तीन जवान रायफल मैन जसवंत सिंह रावत, लांस नाइक त्रिलोक सिंह नेगी, रायफल मैन गोपाल सिंह गुसाईं वापस नहीं लौटे। वीर जसवंत सिंह ने अपने दोनों साथियों लांस नाइक त्रिलोक सिंह नेगी और रायफल मैन गोपाल सिंह गुसाईं को वापस भेज दिया और खुद नूरानांग की पोस्ट पर तैनात होकर चीनी सेना को आगे बढऩे से रोकने का फैसला किया।

जसवसंत सिंह रावत ने 300 चीनी सैनिकों को उतारा मौत के घाट

वीर जसवंत सिंह ने अकेले ही 72 घंटो तक लड़ते हुए चीनी सेना के 300 जवानों को मौत के घाट उतार दिया और किसी को भी आगे नहीं बढऩे दिया गया। वीर जसवंत सिंह जितने बहादुर थे उतने ही वह चालाक भी थे। उन्होंने अपनी चतुराई और बहादुरी के बल पर चीनी सेना को 3 घंटों तक रोके रखा। इसके लिए उन्होंने पोस्ट की अलग अलग जगहों पर रायफल तैनात कर दी थी और कुछ इस तरह से फायरिंग कर रहे थे जिससे की चीन की सेना को लगा यहां एक अकेला जवान नहीं बल्कि पूरी की पूरी बटालियन मौजूद हैं।

शैला और नूरा ने क्या किया

इस बीच रावत के लिए खाने पीने का सामान और उनकी रसद आपूर्ति वहां की दो बहनों शैला और नूरा ने की जिनकी शहादत को भी कम नहीं आंका जा सकता। 72 घंटे तक चीन की सेना ये नहीं समझ पाई की उनके साथ लडऩे वाला एक अकेला सैनिक है। फिर 3 दिन के बाद जब नूरा को चीनी सैनिको ने पकड़ दिया तो उन्होंने इधर से रसद आपूर्ति करने वाली शैला पर ग्रेनेड से हमला किया और वीरांगना शैला शहीद हो गई। उसके बाद उन्होंने नूरा को भी मार दिया दिया और इनकी इतनी बड़ी शहादत को हमेशा के लिए जिंदा रखने के लिए आज भी नूरनाग में भारत की अंतिम सीमा पर दो पहाडिय़ा है जिनको नूरा और शैला के नाम से जाना जाता है।

चीनी सेना ने जसवंत सिंह की बहादुरी को किया सम्मानित

नूरा और शैला की शहादत के बाद वीर जसवंत सिंह को मिलने वाली रसद आपर्ति कमजोर पडऩे लगी। बावजूद इसके वह दुश्मनों से लड़ते रहे, लेकिन रसद आपूर्ति की कमी के चलते आखिरकार उन्होंने 17 नवम्बर 1962 को खुद को गोली मार ली। चीनी सैनिको को जब पता चला कि वह 3 दिन से एक ही सिपाही के साथ लड़ रहे थे तो वो भी हैरान रह गए। चीनी सेना जसवंत सिंह रावत का सर काटकर अपने देश ले गई। अंत में 20 नवम्बर 1962 को युद्ध विराम की घोषणा कर दी गई। जिसके बाद चीनी कमांडर ने जसवंत सिंह की इस साहसिक बहादुरी को देखते हुए न सिर्फ जसवंत सिंह का शीश वापस लौटाया बल्कि सम्मान स्वरुप एक कांस की बनी हुई उनकी मूर्ति भी भेंट की।

वीर जसवंत के नाम का स्मारक

जसवंत सिंह ने जिस जगह पर चीनी सेना के दांत खट्टे किए थे उस जगह पर उनके नाम का एक मंदिर बनाया गया है। जहां पर चीनी कमांडर द्वारा सौंपी गई जसवंत सिंह की मूर्ति को भी रखा गया है। भारतीय सेना का हर जवान उनको शीश झुकाने के बाद ड्यूटी करता है। वहां तैनात कई जवानों का कहना है कि जब भी कोई जवान ड्यूटी पर सोता है जसवंत सिंह रावत उनको थप्पड़ मारकर जगाते हैं। मानो वह उनके कानों में कहते हो की मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी करो क्योंकि देश की सुरक्षा तुम्हारे हाथो में है।

इनके नाम से नुरानांग में जसवंत गढ़ के नाम से एक जगह भी है। जहां इनका बहुत बड़ा स्मारक है। बता दें कि इस स्मारक में उनकी हर चीज को संभाल कर रखा गया है। आपको जानकर हैरानी होगी कि आज भी यहां इनके कपड़ो पर रोज प्रेस की जाती है। साथ ही रोज इनके बूटो पर पोलिश भी की जाती है। यही नहीं रोज सुबह दिन और रात की भोजन की पहली थाली जसवंत सिंह रावत जी को ही परोसी जाती ह। जसवंत सिंह रावत जी  भारतीय सेना के ऐसे पहले जवान है जिनको मरणोपरांत भी पदोन्नति दी जाती है। रायफल मैन जसवंत सिंह आज कैप्टेन की पोस्ट पर हैं और उनके परिवार वालो को उनकी पूरी सैलरी दी जाती है।

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी जन्मोत्सव विशेष – गांधी विचारधारा और वैश्विक चेतना ☆ डॉ.राशि सिन्हा

डॉ.राशि सिन्हा

(गांधी जन्मोत्सव के अवसर पर प्रस्तुत है डॉ राशि सिन्हा जी का एक विचारणीय आलेख  गांधी विचारधारा और वैश्विक चेतना। )  

☆ गांधी जन्मोत्सव विशेष –गांधी विचारधारा और वैश्विक चेतना ☆ डॉ.राशि सिन्हा ☆ 

चैतन्य आत्मा एवं अक्षुण्ण अमर सत्ता को स्वीकार करने वाले देश में जन्म लेने वाले, नैतिक दर्शन के समर्थक, महात्मा गांधी के ‘व्यवस्थित विचारों’ के आधार में वैश्विक चेतना की नींव बड़ी गहरी दिखाई देती है। ऐसी नींव जो सामाजिक स्तरीकरण संबंधित अवधारणा को आत्मिक समरूपता के माध्यम से विश्वव्यापी चिंतन-दर्शन में व्यावहारिकता के नये आयाम जोड़ सके। इन नये आयामों को, वैश्विक मूल्यों की अवधारणा में शामिल करने के लिए महात्मा गांधी ने यथार्थवादी प्रश्नानुकुल  जिज्ञासा का मंथन करते हुए मानवतावादी चिंतन के विभिन्न आयामों का गहरे से विश्लेषण किया है।

वैश्विक चेतना में नई जान डालने वाले इस संत विचारक ने जिस व्यवस्थित विचार की पुरजोर वकालत की है, उसे सामान्य तौर पर’ गांधीवाद’ या ‘गांधी दर्शन’ के नाम से जाना जाता है, किंतु सत्य तो यह है कि गांधी जी ने किसी ‘वाद’ या ‘दर्शन’ को कभी सैद्धांतिक रुप से परोसने का प्रयास ही नहीं किया बल्कि सत्याभास को व्यावहारिक जीवन में लागू करते रहे और उन्ही सत्यानुभूतियों को मानव समाज और जगत के भौतिक भाष्य के मध्य की बुनियादी कड़ी के रुप में प्रस्तुत कर मानवतावाद तथा मानवधर्म को रुपायित करने की चेष्टा करते रहे। शुद्ध, पुनीत और मानवीय तथ्यों को आधार मानकर संपूर्ण जगत के विकास की बात करने के तहत गांधीजी ने ईश्वर के मूल में निहित ‘ शिवमय’, ‘सत्यमय’ व ‘चिन्मय’की परिकल्पना में समाहित ईश्वर की सृष्टि रचना के प्रयोजन को सशक्त करने का प्रयास किया है।  इस क्रम में उन्होंने ‘ईशावास्यमिदं सर्व: यकिचं जगत्या’ की अवधारणा को वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा से जोड़ते हुएं ईश्वर की प्रयोजनवादी विचारधारा को व्यावहारिक रुप प्रदान करने की कोशिश की है ताकि प्रत्येक जन-मन आत्म परीक्षण, सादगी, सरलता, आत्मिक व सामाजिक समरुपता तथा त्यागमय जीवन शैली को अपनाकर पर पीड़ा को महसूस कर सके। चारित्रिक शुद्धता के द्वारा मानवीय संवेदनाओं को महसूस कर सके।

वैश्विक एकीकरण की भूमिका में सिर्फ एक धर्म विशेष यथा; ‘मानव धर्म’ पर बल देते हुए, गांधीजी ने  ‘सर्वोदय’ जैसे अर्थवान शब्दों को अत्यंत सक्रिय व श्रेष्ठतम बताया है। उदात्त चरित्र व मानवीय विचारों में निहित मानवता के दैवीय अंश के साथ कर्म की  प्रधानता को स्वीकार करता उनका यह ‘व्यावाहरिक रुप सेे व्यवस्थित विचार’ तर्कों की महीन बारीक उलझनों में लिपटा नहीं दिखता, परंतु संपूर्ण परिवार, समाज, राष्ट्र व विश्व के एकीकरण की बात करता दिखायी देता है।

अपनी इस परिकल्पना की पूर्णता के लिए गांधी जी प्रत्येक जन से सत्य, अहिंसा के आदर्शों पर चलते हुए शिक्षा को दैनिक जीवन में उतारने की बात करते हैं। उनका मानना है कि एक ‘शोषण विहीन समाज’ के लिए शिक्षा से बड़ा कोई मंत्र नहीं। ‘सा विद्या या विमुक्तये’ का अनुसरण करते हुए गांधीजी कहते हैं कि यह एक ऐसा आधार है जो मनुष्य को दुराग्रह की सभी व्याधियों से दूर कर व्यापक व उदार बना पाता है। और व्यक्ति स्व से ऊपर उठकर समस्त जीवन को अपनी आत्मा से स्वीकार कर पाता है।

इसके लिए उन्होंने महज साक्षर होने वाली शिक्षा नहीं वरन तात्कालिक और दुरगामी उद्देश्यों पर आधारित ऐसी शिक्षा की बात की है जिसके केंद्र में मानव को आर्थिक स्वावलंबन की शिक्षा के साथ साथ मानसिक, आत्मिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक विचारों को सशक्त करने की भी क्षमता वृद्धि की सीख हो ताकि आत्मविकास के माध्यम से सर्वोच्च अनुभूतियों को प्राप्त कर मानव सर्वोदय विकास की भावना में जी सके और उसी अनुसार समाज में सक्रिय हो व्यवहार कर सके, वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा को साकार करने में अपने दायित्वों को महसूस कर, अपनी भूमिकाओं का निर्वाह कर सके और विश्व के अंतिम अधिकार  की लड़ाई लड़ सके।

इन्ही विचारों को परिपूर्ण रुप प्रदान करने के लिए आगे चलकर गांधी जी ने स्वराज दर्शन या विचारों को स्पष्ट किया है। जिसमें  पुन: वह मानवता और मानव जाति के लिए समान रुप से संवेदनशील होने की बात को स्वीकार करते हुए उपदेशक की जगह ‘सत्यशोधक’ होने पर जोर देते हैं ताकि वैश्विक चेतना को खंडित होने से बचाया जा सके।

हालांकि मानवतावादी चिंतन की भूमि पर गांधीजी ने विश्व को जोड़ कर रखने के लिए मानवतावाद व मानव धर्म जैसे सशक्त विचारों को अत्यंत सुलझे व व्यवस्थित रुप से रखने की कोशिश की है। साथ ही, उनके विचारें की व्यावहारिकता के परिणामों ने भी वैश्विक सांस्कृतिक चेतना को अत्यंत प्रभावित किया है, किंतु बावजूद इसके , उनकी विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में उठे विरोध के स्वर भी काफी ऊँचे उभर आये हैं। वर्तमान युग की चकाचौंध जीवन पद्धति में भौतिकता व स्वार्थों की क्षुद्रता, व्यक्ति गत लाभ की आतुरता ने विरोध के स्वरों को ऊंचे उभरने में मदद की है तो कहीं तथाकथित बुद्धि-प्राब्ल्यता तथा वैचारिक मतभेद ने इन स्वरों की धुन ऊंची कर रखी है, फिर भी  आज के हिंसात्मक व भौतिकवाद के अंधे युग में गांधी जी की विचारधारा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।यह एक शाश्वत सत्य है कि विरोध के विस्फोटक स्वरों के बीच भी गांधी जी की विचारधारा की प्रासंगिकता आज भी बनी है और सदा बनी रहेगी।

डॉ.राशि सिन्हा

नवादा, बिहार

(साभार श्री विजय कुमार, सह संपादक – शुभ तारिका, अम्बाला।)

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

दिनांक 2 अक्टूबर को गाँधी जन्मोत्सव के अवसर पर प्राप्त सभी सर्वोत्कृष्ट रचनाओं को स्थान नहीं दे पाए थे जिसका हमें खेद है। वे रचनाएँ हम प्रतिदिन आगामी अंकों में प्रकाशित कर रहे हैं।

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधीजी के जन्मोत्सव पर विशेष – गांधीजी और एकादश व्रत ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया एवं आग्रह को पूर्ण किया. अपने लेख सहर्ष प्रकाशनार्थ में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है  महात्मा गाँधी जी की जयंती पर प्रस्तुत है आपका एक आलेख  “गांधीजी और  एकादश व्रत”) यह आलेख आपकी शीघ्र प्रकाशनार्थ पुस्तक ” गाँधी के राम ” से उद्धृत है । )

☆ गांधीजी के जन्मोत्सव पर विशेष ☆
☆ गांधीजी और  एकादश व्रत ☆ 

 गांधीजी और  एकादश व्रत

गांधीजी का आध्यात्म एकादश व्रतों पर आधारित है। इन व्रतों में हिन्दू व  जैन धर्म के पांच  सिद्धांत अहिंसा,सत्य,अस्तेय,अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य को शामिल हैं और इसके अलावा गांधीजी ने इसमें शरीरश्रम, अस्वाद, अभय, सब धर्मों के प्रति समानता , स्वदेशी व अस्पृश्यता-निवारण को भी जोड़ दिया। इस प्रकार यह एकादश व्रत कहलाये और गांधीजी की नित्य प्रार्थना के अभिन्न अंग बन गए। संस्कृत में यह मंत्र आचार्य विनोबा भावे ने बनाया –

‘अहिंसा,सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रह।

शरीरश्रम, अस्वाद, सर्वत्र भयवर्जन।।

सर्वधर्म-समानत्व, स्वदेशी, स्पर्शभावना।

विनम्र व्रत निष्ठा से ये एकादश सेव्य हैं।।’

उसका गुजराती अनुवाद जुगत भाई ने किया और हिन्दी रूपांतरण सियारामशरण गुप्त ने निम्नानुसार किया:

‘ अहिंसा,सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शरीरश्रम, अस्वाद, अभय, सब धर्मों के प्रति समानता, स्वदेशी और अस्पृश्यता-निवारण, इन ग्यारह व्रतों का सेवन नम्रता पूर्वक व्रत के निश्चय से करना चाहिए।’

गांधीजी ने सत्याग्रह का प्रयोग अपने जीवन में खूब किया। घर गृहस्थी के मसले हों, बा को व बच्चों को समझाना हो, आश्रम वासियों की आशंकाओं का निराकरण करना हो अथवा आज़ादी की लड़ाई में सविनय अवज्ञा भंग जैसे आन्दोलन हों उन्होंने सत्याग्रह का ही सहारा लिया। एकादश व्रत तो वस्तुतः सत्याग्रह के ही अंग हैं। सविनय अवज्ञा भंग तो सत्य, अहिंसा, अभय व नम्रता के समावेश का अचूक उदाहरण  है। गांधीजी में शुद्ध सत्याग्रह का भाव बचपन से ही रहा। उनके जीवन में ऐसे अनेक अवसर आये जब उन्हें सत्य के आग्रह को करने पर हिंसा का सामना करना पडा लेकिन उन्होंने कभी भी हिंसक साधनों का प्रयोग नहीं किया वरन सत्य को नम्रता के साथ उजागर किया और ऐसा करने में उन्हें कभी किसी भी नुकसान का भय नहीं हुआ। दक्षिण अफ्रीका में डरबन से प्रिटोरिया जाते वक्त प्रथम श्रेणी में यात्रा करने पर अंग्रेजों का दुर्व्यवहार  हो अथवा घोड़ागाड़ी में घटित अपमानजनक घटना या फिर न्यायालय में पगड़ी पहनने से इनकार हो गांधीजी ने अपमान का सदैव प्रतिकार नम्रता से ही किया।

गांधीजी ने 12 मार्च 1930 से प्रारम्भ विश्व विख्यात नमक सत्याग्रह को, जिसे दांडी मार्च भी कहा गया, सफलता पूर्वक संपन्न कराने के बाद 06 अप्रैल 1930 को दांडी पहुँचकर अपने जत्थे के साथ नमक-क़ानून भंग किया। साबरमती आश्रम से 78 स्वयंसेवकों के साथ शुरू हुआ यह कूच देखते ही देखते व्यापक जनांदोलन में बदल गया और इस सविनय अवज्ञा भंग आन्दोलन के व्यापक होने के कारण गांधीजी को  05 मई 1930 को कराडी में गिरफ्तार कर उन्हें यरवदा जेल भेज दिया गया।

यरवदा जेल को गांधीजी ने यरवदा मंदिर का नाम दिया और सदा की भांति अपने इस कैदी जीवन का उपयोग आश्रम के कार्यकर्ताओं को पत्र लिखने में भी किया। गांधीजी ने आश्रम की दैनिक प्रार्थना के समय पढ़े जाने हेतु प्रत्येक मंगलवार को एक पत्र लिखा जिसमें इन ग्यारह एकादश व्रतों के नैतिक महत्व को समझाते हुए उनका सम्बन्ध उस आध्यात्मिक उद्देश्य के साथ जोड़ा जिसकी प्राप्ति के लिए गांधीजी आजीवन प्रयासरत रहे।। गांधीजी ने नारणदास गांधी को 22 जुलाई 1930 में लिखे अपने पत्र में प्रार्थना सभा में पढ़े जाने वाले इन संदेशों की शुरुवात क्यों की गई इस पर लिखा कि ‘ विश्वनाथ के पत्र में सुझाव है कि मुझे हर सप्ताह थोड़ा सा प्रवचन प्रार्थना के समय पढ़ा जाने के लिए भेजना चाहिए। विचार करने पर मुझे उसकी यह मांग उचित लगी है। प्रार्थना के समय थोड़ी और चेतनता डाल देने में मेरा यह योगदान मानना। दूसरे छह दिनों के लिए भी पढने लायक कुछ भेजा जा सकता हो तो भेजने की योजना काका के साथ बना रहा हूँ। यह तो इस सप्ताह के लिए है।’ ऐसे आध्यात्मिक महत्व के सन्देश भेजने का सिलसिला 14 अक्टूबर 1930 तक सतत हर मंगलवार को चलता रहा, जिसे बाद में नवजीवन ट्रस्ट द्वारा संकलित कर ‘मंगल-प्रभात’ पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया गया। इन संदेशों के अलावा गांधीजी ने अपने कुछ अन्य विचार भी व्यक्त किये जैसे कपडे के लिफ़ाफ़े को कैसे बचाया जाय ताकि उसका बारबार उपयोग हो सके, या अच्छी रोटी पकाने के लिए खमीर युक्त आटा कैसे गूंथा जाना चाहिए, रुई की पोनी कैसे बनाई जाय, चप्पल सुधारने हेतु चमड़े के टुकड़े भेजने हेतु भी लिखा है। इस प्रकार जेल में भी गांधीजी पल पल का सदुपयोग करते थे।

–  मेरी शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक “गांधी के राम “का अंश

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य ☆ आलेख ☆ गाँधी जयंती विशेष – गांधी और जीवन मूल्य ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  का महात्मा गाँधी जयंती पर विशेष आलेख  “गांधी और जीवन मूल्य “। डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  के आज के सन्दर्भ में इस सार्थक एवं  विचारणीय विमर्श के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  ) 

 ☆ गाँधी जयंती विशेष – गांधी और जीवन मूल्य  

जीवन मूल्य सामाजिक अभिलाषाओं का वह रूप होते हैं जो एक मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाते हैं और ये ऐसे नैतिक सिद्धांत व विश्वास भी हैं जो व्यक्ति के साथ-साथ समाज को भी उत्प्रेरित करते हैं।  इतना ही नहीं किसी भी संस्कृति के आध्यात्मिक, भौतिक और सौंदर्य परक मूल्यों में ये मानवीय मूल्य भीतरी तह तक समाए हुए होते हैं और मनुष्य को मानवता की ओर ले जाते हैं। उसे सामान्य मानव से ऊपर उठाकर उच्च और उदात्त मनुष्य बनाते हैं।

दुनिया भर के सभी महापुरुषों के जीवन मूल्य कमोबेश एक जैसे होते हैं। प्राय:शाश्वत और समावेशी होते हैं। लेकिन जब हम बापू के संदर्भ में मानवीय मूल्यों की बात करते हैं तो उनमें सबसे पहले मानवीय संवेदना आती है जिसे वह सत्य,अहिंसा,सत्याग्रह,अपरिग्रह, त्याग, निर्लोभ, वात्सल्य, करुणा और निर्लिप्त प्रेम से पोषित करते हैं। बापू के ये मानवीय मूल्य शाश्वतता के साथ ही अपनी समसामयिक आवश्यकता और प्रासंगिकता से लैस हैं। उनके ये मूल्य आज़ादी के पूर्व से आज़ादी के काफ़ी बाद तक जन-जन में फैले हुए देखे जा सकते हैं।

वे मानवीय मूल्यों को समय और समाज के संदर्भ में देखते थे। उनके जीवन दर्शन से पता चलता है कि कभी बहुमूल्य रहे मानवीय मूल्यों को वह कभी सीधे-सीधे अपनाते नहीं हैं।  अपितु यथास्थिति वादियों से लोहा लते हुए समय और समाज के सापेक्ष रखकर तोलते हैं। यदि वे अनुकूल पाए जाते हैं तभी उन्हें अपनाते हैं फिर वे चाहे ब्राह्मण,उपनिषद या पौराणिक काल की मिथकीय धरोहर क्यों हों। ब्राह्मण कालीन कर्मकांड को उन्होंने अपने आचरण का हिस्सा नहीं बनाया। किसी भी धर्मग्रन्थ का जो हिस्सा उपयोगी था उसे लेकर शेष छोड़ दिया। प्राचीन काल से चली आ रही वर्णाश्रम व्यवस्था को भले ही वह नकारते नहीं लेकिन उसमें व्याप्त अस्पृश्यता को वे सिरे से खारिज़ करते हैं और हृदय परिवर्तन के साथ वह उस वर्ग को अपनाते हैं, गले लगाते हैं, जिसे समाज वर्षो से उपेक्षित किए हुए था।  दलित बनाए हुए था ।

उनके मानवीय मूल्य लोकतंत्र के पोषक मूल्य हैं। जनकल्याण के पक्षधर मूल्य हैं। लोक कल्याणकारी सरकार की संस्थापना हेतु उन्होंने तुलसी का रामराज्य लिया और स्वराज की कल्पना को साकार करने में प्राणपण से जुट गए।

उनमें पक्षपात नहीं है। बुद्ध की करुणा की तरह ही इनकी करुणा भी एकरस होकर बहती है ।  वह किसी- किसी के लिए और कभी- कभी नहीं बहती और न ही कभी अवरुद्ध होती है बल्कि सभी के लिए अनवरत और अनवरुद्ध बहती है। उनका प्रेम किसी वर्ग या वर्ण के लिए आरक्षित न होकर पशु पक्षी से लेकर समस्त मानव जगत तक व्याप्त है।

हर जीव के जीवन को बहुमूल्य मानना भी उनका जीवन मूल्य है। लेकिन उनके अनुसार मनुष्य जीवन तो अनमोल है। उनमें संस्कार बहुत ज़रूरी है। वे निश्छल और सरल मन बच्चे को ही नहीं अपितु बड़े से बड़े पापी को भी संस्कारित करने की बात करते हैं । इसलिए वह उनमें भी संस्कार डालकर हृदय परिवर्तन कर मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने में विश्वास करते हैं। वे जीवन को गढ़ना सामाजिक धर्म मानते हैं और मूल्य भी।  बचपन में देखा गया नाटक सत्यवादी हरिश्चंद्र उनके जीवन को परिवर्तित करने वाला नाटक इसलिए भी सिद्ध हो सका क्योंकि उनमें बालपन से ही ऐसे संस्कार थे,जो मानव मूल्यों से आपूरित थे।  सत्य की रक्षा के लिए अपने राजपाट से लेकर अपनी संतान तक का खोना हरिश्चंद्र के लिए ही नहीं बापू के लिए भी आदर्श रहा और उसे उन्होंने जीवन भर भी निभाया। उन्होंने अपने प्राण सत्य, अहिंसा और मानवीय मूल्यों के लिए ही अर्पित कर दिये।

अत्याचार और असत्य का दृढ़ता से प्रतिकार उनका बहुमूल्य और समसामयिक  जीवन मूल्य रहा है। इसीलिए वे सदियों से शोषित समाज के उत्थान के लिए सत्य की प्रयोगशाला में परीक्षित मानववादी जीवन मूल्यों के पुरस्कर्ता बां सके थे । चुनौतियों के सामने पहाड़ की श्वेत धवल,शीतल बरफ़ीली चोटी-से निर्भय खड़े-खड़े सामना करने का साहस   रखने वाले अपराजेय योद्धा के रूप में  उन्हें सामने पाकर आखिरकार ब्रिटिश अत्याचार का ज्वालामुखी भी एक दिन ठण्डा ही पड़ गया।

अंतत:उनके जैसे अहिंसा और  सत्य के नि:शस्त्र आग्रही के आगे असत्य का क्रूर दानव नतमस्तक हो गया। वह इसलिए कि वे वर्तमान के स्रष्टा और भविष्य के द्रष्टा थे।   वे पराई पीर को अन्तर्मन से समझने वाले वैष्णव थे।

असहमति का विवेक उनका ऐसा जीवन मूल्य था जो उनके जीवन में विवादों का कारण रहा। लेकिन वे इससे रंच भी विचलित नहीं हुए।   गांधी जी अपने सत्याग्रह की व्याख्या में यह कहना नहीं भूलते कि उनके सत्याग्रह में केवल उन्हीं का सत्य शामिल नहीं है बल्कि विपक्षी का सत्य भी शामिल है। इसी के साथ वे असहमति के विवेक को भी बराबर महत्त्व देते थे। इसी कारण से वे अपने ‘हरिजन’और आंबेडकर के दलित विमर्श की सहमति -असहमति से ऊपर उठकर ‘पूना पैक्ट’ में सफल हुए थे। आंबेडकर के जाति उच्छेद को वे सही नहीं मानते थे। जाति उन्मूलन की ज़गह वे अस्पृश्यता का उच्छेद सही मानते थे। इस संदर्भ में उनका यह स्पष्ट कहना था कि,’स्पृश्यता के विरुद्ध आन्दोलन हृदय परिवर्तन का आन्दोलन है। ‘जबकि बाबा साहेब आंबेडकर इनके ‘हरिजन’ शब्द से नफ़रत करते थे और मानते थे कि अगर जाति का नाश नहीं होगा तो स्पृश्यता का नाश सपना ही रह जाएगा।  किसी हद तक गाँधी के विचार आज अधिक प्रासंगिक लग रहे हैं कि अस्पृश्यता तो समाप्त हो गई पर जाति व्यवस्था अब भी है। स्वयं दलित ही आज अपनी जाति की पहचान को इसलिए नहीं छोड़ना चाहते क्योंकि इससे उनके आरक्षण के अधिकार को आघात लगने का भय दिखता है।

वे मानव मूल्यों को केवल मानते ही नहीं थे,उनके पोषक भी थे। इन्हीं कारणों से एक आदर्श और नैतिक पिता के रूप में हम बापू को पाते हैं। इसीलिये तो वे सर्व स्वीकार्य राष्ट्रपिता हैं।

माता-पिता के दैहिक रूप पर कोई नहीं   रीझता। इसी से हर बच्चे को उसकी माँ ही सबसे प्यारी होती है उसके बाद पिता।  माँ के पहचनवाने पर कि उसका पिता कौन है बच्चा भी रूप-कुरूप के भेद से परे भाव से उसे अपना लेता है। मेरी माँ ने भी मुझे किसी शिशु के हिसाब से  डरावनी मूंछों वाले मेरे पिता से कब और कैसे परिचय कराया होगा यह तो होश नहीं लेकिन राष्ट्रपिता से परिचय का होश है।  मेरी माँ के ‘बापू’अवतारी थे और अवतारी नहीं थे तो कम से कम सिद्ध पुरुष अवश्य थे जो लखनऊ में ज़मीन में प्रवेश करके सीतापुर में निकलकर उनके बाबा से मिले थे।

विद्यालय में बापू के जिस चित्र को देखते हुए हम बड़े हुए वह पसलियां दर्शाती दुर्बल काया थी। आगे के दांत टूटे।  हाथ में लाठी लिए तेज़-तेज़ चलता अर्धनग्न शरीर वाला फ़कीर।

भौतिक आँखें तो चमक देखती हैं फिर वह चाहे सोने की हों या पीतल की।  ऐसे में वे भला रीझें  भी तो किस पर। बाहरी आंखों को क्या पता  कि वे रूपवान नहीं चरित्रवान थे और चरित्र तो नंगी आंखों देखा नहीं जा सकता उसके लिए तो भीतरी आँखें  चाहिए।

गाँधी अपने वात्सल्य और चरित्र के कारण आज भारत ही नहीं सारी दुनिया में पूजे जा रहे  हैं। सारी दुनिया उन्हें पिता मान रही है। हमारे लिए यह गर्व की बात है कि  अपने मानव मूूल्यों के चलते ही हमारे राष्ट्र पिता आज विश्व पिता हो गए हैं।

इस दुनिया का बच्चा- बच्चा गाँधी से प्रभावित हुआ है तो हम  भला कैसे अछूते रह जाते।  हम भी प्रभावित हुए थे।   लेकिन गांधी के विचारों को मलिन करने वालों के कारण हमारा बालमन उस समय आहत हुआ था जब गाँँधी के कुटीर उद्दयोग  में इकलौते बचे उनके चरखे की अर्थी उठाकर हम भी दस-ग्यारह विद्यार्थी पहली बार गांव से बाहर  पांचवीं की परीक्षा देने गए थे। हाथ में रुई (कपास) लिए-लिए उकता गए थे।  चरखा एक, कातने वाले दस । अपनी बारी आने तक रुई हथेली के पसीने से भीग भी गई थी। इसके बाद उसे काता हमारे गुरु जी ने था। यह गाँधी दर्शन और उनके आर्थिक विचारों का उनकी ही संतानों द्वारा किया जा रहा अन्तिम सम्मान या संस्कार था, जिससे पूर्व किशोरवास्था में ही हमारा परिचय हो गया था। उस इम्तिहान से पहले हमने सिर्फ तकली,रुई और बापू को देखा था लेकिन चरखे को नहीं। यहाँ तक कि चित्र में भी नहीं। शायद इसीलिए बचपन में तो उतना नहीं रीझे जितनी मेरी माँ रीझी थी।   अपनी  माँ की तरह ही थोड़ा बड़े यानी समझने लायक होने पर मैं भी रीझा और पाया कि अपने ही घर में उपेक्षित होने के बावजूद बापू पर मैं ही क्या  सारी दुनिया रीझी हुई है और ऐसी रीझी हुई है कि जैसे चुंबक  पर लोहा रीझता है।  उनकी आत्मा के चुंबक के जो भी  करीब आया उसे  ऐसे चिपकाया जैसे जनम-जनम से वह उनका ही रहा हो या  होकर रह गया हो और अब तो पूरे यकीन से कह सकता हूँ कि  उनपर जो नहीं रीझा या रीझ रहा वह संवेदनशील मनुष्य तो क्या  हाँड़-माँस  का   विवेक शून्य पशु भी नहीं यहाँँ तक कि  जड़  भी  नहीं।

मूल्य भले अमूर्त होते हैं लेकिन आचरण में ढलकर मूर्त हो उठते हैं। गांंधी का चरित्र  बड़ा कीमती चरित्र इसलिए बन सका है कि मूल्य उनके आचरण की टकसाल में ढाले गए हैं।  वे जितना जज के लिए कीमती हैं उतना ही किसी  अपराधी के लिए भी। उनके विचार एक विशुद्ध दार्शनिक के ही विचार नहीं बल्कि सहृदय और विवेकशील पिता के  भी विचार हैं । ‘आँख के बदले आँख’ से तो सारी दुनिया ही अंधी हो जाएगी और ‘पाप से घृणा करो पापी से नहीं’ के माध्यम सेे वे जहाँ जज के लिए मार्गदर्शन करते हैं  वहीं चोर के लिए भी आत्म सुधार का रास्ता खोलते हैं। हृदय परिवर्तन से पापी में भी सच्चाई,ईमानदारी,कर्तव्यनिष्ठा,सहिष्णुता,करुणा,अहिंसा,प्रेम,सौहार्द,विश्वास,आस्था और आदर भाव जैसे मानवीय मूल्य स्थापित किए जा सकने में पूरा विश्वास रखते थे।

वे साध्य की शुद्धता से अधिक साधन की शुद्धता पर जोर देते हैं। क्योंकि उनकी दृष्टि में यही सबसे सुंदर और कारगर औजार था जिससे हम सुंदर समाज की संरचना कर सकते थे। इसीलिए गांधी   क्या उनके हर अनुयायी को  इन  दो बातों से चिढ़ थी। एक ओर  सब  कुुुछ  चुपचाप   सहे  जाना और दूसरी ओर  सारे शोषण को रातोंरात मिटा देने का उन्माद। अत:बापू के  हिसाब से  अत्याचार सहना स्पष्टत: कायरता थी। ऐसे निर्भय और  आत्मनिर्भर  समाज की सरंचना  करनेे वाले को आज दबे-छिपे और कहीं-कहीं तो खुलेआम  भी  गालियाँ  दी जा रही हैं ।  लेकिन वे इसके परिणाम पहले ही जानते थे पर इसकी परवाह उन्होंने कभी नहीं की । इसके लिए राज मोहन गांधी एक सटीक बात कहते हैं कि,” उन्हें विश्वास था कि उनके सत्याग्रह का लोग सम्मान करेंगे लेकिन एक दिन वही उन्हें नीचे धकेल देंगे। —अगर विभिन्न धर्मों  वाले  हमारे देश में आज बहुत से भारतीय खुले आम या गुप्त रूप से गांधी के समान अधिकारों ,परस्पर सम्मान,और आपसी दोस्ती के विचारों को नापसंद करते हैं तो भारत और दुनिया भर में ऐसे लोग भी कम नहीं जो केवल इसी कारण उनसे प्यार करते हैं।   ”

वे सौंदर्य परक मूल्यों को अच्छी तरह समझते थे। लेकिन वे उन्हें रोटी,कपड़ा और मकान के भौतिक मूल्यों से जोड़कर देखने के पक्षधर थे। गाँव -गाँव  और घर-घर स्वच्छता और खुशहाली चाहते थे। समता और बंधुता उनके मूल्य ही नहीं आत्मीय संकल्प थे। इसके वे औरों के सामने जीवंत आदर्श रख रहे थे । वह इसलिए भी कि इससे उनका दिल दुखता था।  अस्पृश्यता का निवारण वे शब्दों से नहीं आचरण से चाहते थे। इसीलिए वे अपने शौचालय स्वयं साफ़ करें। श्रम की कद्र करने के लिये वे अपने जूते-चप्पल स्वयं भी गांठते थे। उनके  अनुसार खादी और ग्रामोद्योग से बिना पूंजी और कौशल के भी  ग्रामीणों को रोजगार मिल सकता है। वे कहते थे,”बुद्धि, श्रम और कौशल   को अलग करने से गांवों की  अनदेखी का अपराध हुआ है और  इसी लिए हमें गांवों में  सौन्दर्य की जगह कूड़े के ढेर  नज़र आते हैं । ”

निर्भयता और अचौर्य भी उनके अपरिहार्य जीवन मूल्य थे। प्राय: हम लोग उनकी अहिंसा को कायरता समझते हैं लेकिन यह हमारी भारी भूल है। वह एक अहिंसक को निडर व्यक्ति बनाते हैं, कायर नहीं । उनका मानना है कि कायर कभी अहिंसक हो ही नहीं सकता। हम दुर्बल हैं।  हिंसक हैं। कायर हैं। इसलिए बापू को नहीं समझ पाते।  हम बापू को इसलिए भी नहीं समझ पाते क्योंकि हम भीतर से चोर और बाहर से कोतवाल हैं। बहुत से लोगों का आरोप है कि गाँधी जी ने शहीद भगत सिंह की पैरवी नहीं की। इसे मैं मारीशस के यशस्वी साहित्यकार अभिमन्यु अनत के ‘गांधी जी बोले थे’ उपन्यास के पात्र  देवराज का सहारा लेते हुए साफ़ करना चाहूँगा कि यही एक पड़ाव है जहाँ वे अपने सिद्धांत के विरुद्ध जाते हुए मिलते हैं, जिसे एक विदेशी साहित्यकार तो स्वीकारता है लेकिन हममें वैसा साहस नहीं।  क्योंकि हमें उनके व्यक्तित्त्व की विराटता सहन नहीं होती। इसलिए हर बड़ी लकीर की तरह इसे भी छोटी करने के उपक्रम करते रहते हैं। हिंसा के बदले हिंसा वाला चरित्र बताता है कि उपन्यासकार के मनो मस्तिष्क में स्वाधीनता के लिये हिंसा के पक्षधर क्रान्तिकारियों का पक्ष भी है और उनके प्रति अहिंसक गाँधी का सॉफ़्ट कार्नर भी। उसे वह गांधीवादी मदन के माध्यम से कहलवाता है कि,”देव !तुम निर्दोषों को फांसी चढ़ने से रोकने के लिए खुद अपनी गर्दन में फंदा डाल बैठे। ”    यह गांंधी का  ईमानदार   चारित्र  ही है जो  उन्हें  देश-काल से  बाहर ले जाता है ।

अचौर्य व अपरिग्रह का पाठ  उन्होंने जन-जन को पढ़ाया  कि किसी के खेत से कुछ मत छूना। जो लेना हो बस अपने खेत से लाओ।  अपने आचरण से हमें अपरिग्रह भी सिखाया और अहिंसा भी।

उनके आचरण की पाठशाला जीवन्त दूर शिक्षण शाला की तरह थी। इसी से बापू से ही सीख कर जो बड़े स्तर पर बापू ने सारी दुनिया के लिए  किया वही  मेेेरी माँ ने मेरे लिए किया।  बचपन मेें मुझे मेरी निरक्षर माँ  पढ़ाती थी और किसी के घर या खेत से कुछ लाने के लिए साफ़ मना करती थी।    वह जहाँ पढ़ी  थी वह पाठशाला बापू की जीवनी थी और  वहाँ उसका शिक्षक कोई और नहीं बस बापू का सुना-सुनाया आचरण था।  इस अर्थ मेें बापू सारी दुनिया  केे लिए   एक आदर्श पिता के साथ-साथ प्राथमिक अध्यापक भी कहे जा सकते हैं।

वे एक जागरूक पिता की तरह सेवा और सदाचार भाव के साथ भारतीय जनमानस को तैयार कर रहे थे,जिसमें धर्म सर्वोपरि था। लेकिन उनका धर्म ऐसा धर्म था जिसमें सच में सारी वसुधा और उसके जन समाए हुए थे फिर वे चाहे किसी भी भूभाग के या किसी भी पंथ को मानने वाले क्यों नहों। उनके इसी विराट वैश्विक व्यक्तित्त्व वाले सजग नेतृत्व में ही भारतीय जनमानस  पला -पुसा। भटके और डरे हुए भारत को वे धर्माध्यात्म,नीति,समाजनीति,संयम,सत्याचरण ,अहिंसा, राजनीति,आत्मबल वाली जीवनोपयोगी शिक्षा और दर्शन सब एक साथ सिखा-समझा रहे थे।  गाँधी  और उनके जीवन-दर्शन के विशेषज्ञ आचार्य नन्द किशोर कहते हैं,”महात्मा गांधी जब सत्य को ही ईश्वर कहते हैं तो स्पष्टत: धर्म से उनका आशय सत्य की साधना के उपाय से हो जाता है।  वे संपूर्ण सृष्टि को सत्य अर्थात् ईश्वर और उसकी सेवा को ही ईश्वर की सेवा मानते हैं। इस तरह  मानवता की सेवा ही गांधी जी के लिए धर्म है,क्योंकि उसके माध्यम से वे सत्य को पा सकते हैं। “गांधी जी ने साफ़  शब्दों में कहा है कि ,”जो लोग यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई वास्ता नहीं है,वे धर्म का अर्थ नहीं जानते। ”

गाँधी सब धर्मों से प्रभावित हैं।  इसलिए उनके राजनीतिक मूल्य मानवीय मूल्यों के पोषक मूल्य हैं। वे उनके दुरुपयोग  से भी भिज्ञ थे। ऋषि  हृदय बापू को पूर्वाभास था कि एक न एक दिन मंदिर-मस्ज़िद,गिरिजाघर और गुरुद्वारे में राजनीति और राजनीतिक  दलों के कार्यालयों और सभा स्थलों पर किसान,मज़दूर और मज़बूर के दर्द के बजाय अपने-अपने स्वार्थ के अनुसार धर्म की तकरीरें होंगी। शायद इसीलिए वे कहते थे,”धर्मों के भीतर जो धर्म है वह हिंदुस्तान से लुप्त हो रहा है। ” इसके दुष्परिणाम बापू  भलीभाँति जानते थे ।

प्रयोगधर्मिता भी उनका मानवीय मूल्य था। इसीलिए दुनियावी दृष्टि में यदि कहीं विफल नज़र आएँ तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। विज्ञान में भी सारे प्रयोग सफल नहीं होते। जो प्रयोग सफल होता है उसी पर सिद्धांत बनते हैं। इसीलिए बापू की किसी विफलता के पहले उनका यह विचार जानना बहुत ज़रूरी है कि उनका आखिरी कथन,विचार या प्रयोग ही अमल में लाया जाए । इस परिप्रेक्ष्य में यह कथन बहुत उपयोगी है कि ‘उनका जीवन ही उनका संदेश है। ‘

जो गांधी की विफलता का ढोल पीटते हैं और उसे  रेखांकित करते हुए यह बार-बार बताते हैं कि उन्होंने देश का सत्यानाश कर दिया, उन्हें  बापू को तोपों वाली सेना के सामने निडर खड़े भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के संदर्भ में समझना होगा।  उनको उनके ही समय और समाज के परिप्रेक्ष्य में देखने पर पता चलेगा कि वे(बापू) कितने कीमती थे,जिनके व्यक्तित्त्व का असर देश की सीमाओं को लाँघ सात समुद्र पार तक पहुँच गया था ।

नैतिकता और पवित्रता भी बापू के जीवन मूल्य थे। इसी से वे पूँजी के प्रवाह में प्रगतिगामी नैतिकता को प्रमुख स्थान देते हैं और ट्रस्टीशिप जैसे मूल्य को जोड़ कर उसके प्रवाह को गंगा की तरह पवित्र बनाना चाहते हैं।  बापू   को  समझने  वाले जानते  हैं  कि  वे निर्धन समाज के लिए उसी तरह बराबर चिंतित रहे जिस तरह से कोई भी पिता अपनी संतानों में सबसे अधिक निकटता अपनी कमजोर  संतान के प्रति   रखता है। वे भी इनके प्रति ऐसे ही चिंतित रहे जैसे बापू की चिंता के केंद्र में दुनिया भर के दुखी -दरिद्र रहे।  मारीशस और दक्षिण अफ्रीका के गिरटिया मज़दूरों और  शोषित लोगों के साथ तो वे प्रत्यक्ष रूप से भी खड़े रहे। उनकेअर्थ दर्शन के पीछे  यथार्थ की आँच में तपे प्रौढ़  और अनुभवी मुखिया का अर्थिक चिंतन था।  बापूअर्थशास्त्र की बुनियादी चिंताओं की  ओर ध्यान देने वाले राजनीतिज्ञ थे। प्लेटो के बाद बापू ही दुनिया के सबसे आध्यात्मिक राजनीतिक विचारक हैं।

मेरी राय में वे किसी देश की अर्थ व्यस्था को भी घर की तरह चलाने में विश्वास करने वाले एक सच्चे राष्ट्र पिता थे।   संसाधनों का आवंटन, आजीविका की रचना, वस्तुओं व सेवाओं का  उत्पादन व वितरण,उत्पादकों के साधनों के स्वामित्व की  प्रकृति और उनके न्यायोचित वितरण के पक्षधर राष्ट्रीय चिंतक थे।  गरीबी, ढांचागत संरचना,हिंसा और अन्याय  को लेकर गहरी चिंता उनके आर्थिक चिंतन का मूल थी।  गांधी के ‘दरिद्र नारायण की छवि हम सबको  इस  विश्वास से भी मुक्त करती है कि भौतिक वस्तु ही इंसानी अहमियत का वास्तविक पैमाना होती है और इसलिए इन्हें हासिल करना ही सबसे उपयोगी पुरुषार्थ है। ‘  गांधी ने ईश्वर को इसी दरिद्र का या दरिद्र को ईश्वर का और आगे चलकर सत्य को ही ईश्वर का स्वरूप देकर दरअसल ईश्वर की अवधारणा को उसकी मूल रूपांतरकारी और मुक्त करने वाली क्षमता लौटा दी।  बापू की दरिद्र नारायण की धारणा बहुत सार्थक है लेकिन वह संपन्न लोगों को नहीं भाई । इसी तरह ट्रस्टीशिप का विचार भी सबके लिए है। यह विचार पूंजी के संचयन व संग्रहण के खिलाफ नहीं बल्कि नैतिक अनिवार्यता के तौर पर पुनर्विचार तथा  न्याय का ख्याल रखना है।

प्रताड़ना का प्रतिकार उनका प्रगतिशील मानव मूल्य है। “गरीब को शरीर की हिंसा से बचाने का एकमात्र तरीका मानक व्यवहार अपनाने का है चाहे वह ईश्वर में व्याप्त हो, दरिद्र नारायण में या ईश्वर के किसी संदर्भ के बिना ट्रस्टीशिप में। ” बापू का यही स्वरूप हमें इस रूप में भी लुभाता है कि  राजनेता या आध्यात्मिक संत के रूप में वे भले अपूर्ण लगते हों पर  पिता के रूप में संपूर्ण थे।    वे ऐसे पिता थे जो अपने बच्चों का भौतिक  विकास तो चाहता है पर पूर्ण   नैतिकता के साथ। वह अपनी संतति को संपन्न तो बनाना चाहते थे लेकिन अपरिग्रह की भावना के साथ।  वह हमारे राष्ट्रपिता ही नहीं जगतपिता थे।  इसलिए उनका नैतिक धर्म था कि वह राष्ट्र और दुनिया को चरित्रवान बनाएँ  । नैतिक और अपरिग्रही बनाएँ ताकि दुनियाभर के सभी भाई-बहन समृद्ध और सुखी जीवन जी सकें। वह अपनी संतानों को अमीर के बजाय सही अर्थों में सुखी बनाना चाहते थे। शारीरिक या मानसिक रोगी बनाने के बजाय संपूर्ण रूप से स्वस्थ बनाना चाहते थे। इसी लिए बापू खानपान पर भी जगह-जगह विचार करते हुए मिलते हैं। उन्होंने स्वयं सालों तक शाकाहारी बनने के लिए संघर्ष किया । गाय तक का दूध  छोड़ा।  वह साबुत और कच्चे अनाज व  मूंगफली के दूध पर विश्वास करते थे। उपवास पर भी उनका अपूर्व विश्वास था। देश और दुनिया की सेवा के लिए उनका स्वस्थ रहना भी ज़रूरी था। इसीलिए अंततः उन्होंने बकरी के दूध को एक उत्तम और अन्यतम विकल्प के रूप में स्वीकार कर ही लिया।

बापू से पहले अध्यात्म प्रेरित राजनीतिक चिंतक विगत पांच हज़ार सालों में भगवान श्री कृष्ण के अलावा दूसरा कोई न हुआ। बहुत संभव है कि  पिछले इन सालों के  शुरुआती हज़ार-दो हज़ार साल इसी ऊहापोह में बीत गए हों कि कहीं महाभारत के सूत्रधार कृष्ण ही तो नहीं हैं।   संभव यह भी है कि गांधारी के द्वारा दिए गए  शाप को समाज इसीलिए स्वीकार करता  हो कि वह भी उन्हें महाभारत के महाविनाश का दोषी मानता रहा हो ।  हो तो यह भी  सकता है कि  गान्धारी कोई और नहीं स्वयं जनमानस हो और जिसने गांधारी की ओट ली हो।  बापू को भी समझने में हज़ार साल  तो लगेगा ही। इस अर्थ में आइंस्टीन का यह कहना भी गलत न होगा  कि,’हज़ार साल  बाद  लोग यह विश्वास  ही नहीं करेंगे कि धरती पर हांड़- मास का ऐसा पुतला जन्मा था। ‘ यह भी  असंभव नहीं कि हज़ार दो हज़ार साल बाद बापू को भी उसी तरह अवतार भी मान लिया जाए जैसे बुद्ध को मान लिया गया और यह अवतार सारी दुनिया का सर्वमान्य अवतार हो।

ब्रह्मचर्य उनका एक ऐसा जीवन मूल्य रहा जो सर्वाधिक विवादास्पद हुआ। कुछ विरोधियों को तो जैसे एक धारदार हथियार बापू ने खुद पकड़ा दिया। लेकिन उसे समझने के उसी कोटि के चरित्र की आवश्यकता है जो आधुनिक काल में बापू और ओशो के सिवा किसी के पास नहीं है। आधुनिक काल के ये दो महान प्रयोग धर्मी महापुरुष (बापू और ओशो)बहुतों से समझे ही नहीं गए। जिन्होंने थोड़ा -बहुत इन्हें समझा भी तो दूसरों को सही से समझा नहीं पाए । बापू ने  राजनीति के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग किए तो  ओशो ने अध्यात्म के क्षेत्र में और  ऐसे- ऐसे प्रयोग किए जो सामान्य जन के लिये अबूझ पहेली और जादू की तरह समझ व पकड़ से परे रहे। हम इन्हें क्यों नहीं समझ पाए इसका उत्तर भी बहुत सीधा-सा है कि चाहे अध्यात्म का क्षेत्र हो या फिर राजनीति का दोनों क्षेत्रों में हम पूर्ण ईमानदार कभी नहीं रहे। हमने सत्य और अहिंसा का पथ इस तरह अपनाया कि बाहर से कोतवाल और भीतर से चोर बने रहे। उनकी देह को तो केवल एक ने ही गोली मारी पर उनके विचारों को अनेक ने मारा ।  मारा ही नहीं बल्कि निशाना  साध-साध कर छलनी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना ही नहीं उनके सत्य,अहिंसा और असहयोग जैसे उपयोगी औजारों को उन्हीं के साथ जला भी दिया गया। उनके चरखे को उनके फूलों वाली हंडिया के साथ पीपल पर लटका दिया गया। यही कारण है कि गांधी जहां दुनिया भर की समझ में आ गए हम उनके बारे में  असमंजस में ही पड़े रहे ।

बापू को ठीक से समझने के लिए पहले हमें भी अपने बारे में गांधी की ही तरह ईमानदार होकर पीपल पर लटकी उनके फूलों(अस्थियों)की हांड़ी को हिम्मत से उतारना होगा।  चरित्र से पवित्र होना होगा अन्यथा उनके पवित्र फूल अपवित्र हो जाएँगे।  हमें भीतर से पूर्ण अहिंसक और सत्य का पक्षधर बनना होगा तब जाकर हम उन्हें समझने लायक बन सकेंगे। इतना सब होने में ही सौ-दो सौ साल लग जाएँगे। जो उन्हें केवल मुसलमानों का पक्षधर  मानते हैं उन्हें बिल्कुल समझ नहीं पाए। हिंदू-मुसलमानों के बीच वैमनस्य के संबंध में उनका विचलित रूप ऐसा लगता है जैसे कि  कोई पिता बँटवारे के बावज़ूद अपनी संतानों में असहमति का विवेक पैदा करके उन्हें प्रेम से रहना सिखाना चाहने के मूड में हो और ऐसा होते न पाकर झुंझला रहा हो।

आज का तथाकथित गांधीवाद की जुगाली करने वाला वर्ग अपने स्वार्थ से गांधी  पर लिख और बोल रहा है। वह वैसे ही भ्रमित है जैसे एक वासनांध युवा प्रेम के मर्म को समझने के लिए  फुटपाथ पर कोक शास्त्र की किताब खोज रहा हो।  हम गाँधी की तस्वीर लगाकर गाँधी छाप बटोर रहे हैं।  पता  नहीं किस भ्रम में जी रहे हैं। हम सामने वाले से उसकी मज़बूरी या छोटे से स्वार्थ के बदले उसका सारा ईमान गिरवीं रख ले रहे हैं। ऊपर से यह मानने-मनवाने का मुगालता भी रखते हैं कि वह हमें अपना ट्रस्टी समझे। बापू की ट्रस्टीशिप वह नहीं है जो हम समझ और कर रहे हैं। उनकी ट्रस्टीशिप का ट्रस्टी एक संपूर्ण पिता है।  उसमें त्याग ही त्याग है लाभ-लोभ का लेश भी नहीं।

बापू का एकांगी आकलन करने वाले  हम अपने आचरण को देखें तो पता चलेगा कि हम भी कुछ  वैसा ही कर  रहे  हैं  जैसे कोई डॉक्टर  शरीर का पोस्टमार्टम करके   उससे हत्यारे की मंशा जांचने की कोशिश कर रहा  हो । लेकिन ऐसा करते समय यह भूल जाते हैं कि शरीर के घाव भला हत्यारे की मंशा को कैसे और कितना बता पाएंगे।

शुद्धाचरण उनका बेशकीमती जीवन मूल्य है। उनको जानने-समझने के लिये हमें भी शुद्धाचरण अपनाना होगा। इसके लिए पहली शर्त ही यह है कि तन के बजाय मन को धोना होगा। लेकिन हम मन के बजाय तन धो रहे हैं। जीवन रस से हीन मुर्दे तनों में  कलम   लगा   रहे हैं।  गाँधी को जीने और उनपर सोचने-विचारने के पहले  हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि मुर्दों  के भीतर नहीं अपितु जीवितों में विचारों को जीवित करना होगा,जैसा बापू ने किया था। उन्होंने ज़िन्दा तनों में कलमें लगाई थीं मुर्दे तानों में नहीं। क्योंकि कलमें भी ज़िन्दा पेड़ में ही लगती हैं।

कहीं  हम ‘बापू – बापू’ का नाटक तो नहीं  खेल रहे हैं।  आखिर उन पर नाटक खेलने के लिए भी तो उनकी लुंगी और लाठी  के बजाय उनके चारित्र को भी जीना होगा। उनके विचारों में उन्हें साक्षात्  जीवित देखते हुए उनकी भावनाओं को समझना होगा।  हमें यह भी समझना होगा कि वह अहिंसा के कितने पक्षधर थे और  हम कितने हैं।    इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि  जहाँ एक ओर बापू को पूजा जा रहा है वहीं दूसरी ओर उनकी अहिंसा को खुलेआम गालियाँ  दी जा रही हैं।  लेकिन वे इस परिणाम को भी पहले से ही जानते थे पर इसकी परवाह उन्होंने कभी नहीं की । इसके लिए राज मोहन गांधी ठीक ही कहते हैं कि,” उन्हें विश्वास था कि उनके सत्याग्रह का लोग सम्मान करेंगे लेकिन एक दिन वही उन्हें नीचे धकेल देंगे। —अगर विभिन्न धर्मों  वाले  हमारे देश में आज बहुत से भारतीय खुले आम या गुप्त रूप से गांधी के समान अधिकारों,परस्पर सम्मान, और आपसी दोस्ती के विचारों को नापसंद करते हैं तो भारत और दुनिया भर में ऐसे लोग भी कम नहीं जो केवल इसी कारण उनसे प्यार भी करते हैं। ”

बापू की अहिंसा के कारण उन्हें असफल और भोला राजनेता कहा गया।  गोली का जवाब गोली से देने वालों के लिए उन्होंने साफ़ संदेश दे ही दिया था कि आँख के बदले आँख से सारी दुनिया अंधी हो जाएगी।  इसके बावजूद लोग उनसे जबरन हिंसक आंदोलन में समर्थन चाहते रहे।  इनकी निश्छलता के कारण कुछ पाश्चात्य चिंतकों ने भी इन्हें भोला अहिंसक कहा है।  मार्टिन बूबर जैसे तत्कालीन चर्चित  विचारक  का  भी मानना था  कि यदि बापू  जर्मनी में होते तो सत्याग्रह के पहले कदम पर ही  नाज़ियों ने  उन्हें मिटा दिया होता। लेकिन मेरा विश्वास है की बूबर का विश्वास गलत है। सही यह है कि जर्मनी का यह दुर्भाग्य है कि बापू जर्मनी में पैदा नहीं हुए। जिस ब्रिटिश सत्ता को बापू ने घुटने टिकवा दिये उसके भय से कायर हिटलर को आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ा। क्रूरता,विवशता और कायरता का पर्याय हिटलर बापू के सामने टिक ही नहीं पाता।

बापू हर देश और काल के लिए प्रासंगिक राजनीतिज्ञ ही नहीं सच्चे मार्गदर्शक महात्मा और पिता हैं।  अपने बापू को अगर सही अर्थों में याद करना है तो    उनके जीवन    मूल्यों को समझना होगा।  उनके  राजनीतिक विचारों के साथ-साथ धर्म संबंधी विचारों को  भी समझना होगा।

सच्ची मानवता के  निश्छल पुजारी और परमहंसी भावधारा वाले संत बापू को कोई सिरफिरा कहे या  सफल पाखंडी या फिर उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोगों को भी उनकी सनक कहे तो  कहता रहे। हम तो उनके  सबकी कुशल-क्षेम के साधक विश्व के सबसे बड़े व बहुजातीय राष्ट्र वाले लोकतंत्र के उस संपूर्ण  और नियामक पिता रूप के पुजारी हैं जो हमारे लिए आधी रोटी खाकर उठ जाता रहा हो।  अधनंगे बदन पर शीत ,ताप और बारिश सहते हुए निष्काम योगी -सा गाँव- गाँव,देश-देश भरमा हो।  अपनी गंभीर रूप से बीमार संतानों के भले के लिए अस्पताल-अस्पताल भटका हो।  कलश,गुंबद या मीनार में भेद किए बिना दर-दर माथा टेका हो ।  अपने बूढ़े शरीर का होश रखे बिना पागल जवानी के खूनी उन्माद का उपचार करने के लिए नंगे पाँवों हाँफते हुए   बिना रुके और थके भूखे-प्यासे बदहवास भागता रहा हो ।

©  डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

इस आलेख में व्यक्त विचार साहित्यकार के व्यक्तिगत विचार हैं।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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