हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 15 ☆ मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट)

☆ किसलय की कलम से # 15 ☆

☆ मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट 

दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति संपन्न नहीं हो सकता। समय एवं परिस्थितियाँ नौकर-मालिक या राजा-रंक की दशा बदल देती हैं। भले हम कहें कि श्रम व समर्पण सुपरिणाम देते हैं लेकिन कभी-कभी विपरीत परिस्थितियाँ सब उलट-पुलट कर देती हैं। इसीलिए युगों-युगों से मजदूरों का अस्तित्व रहा है और आगे भी निरंतर रहेगा। प्रत्येक मालिक व उद्योगपतियों का उद्देश्य बड़े से और बड़ा होना होता है। मजदूरों का शोषण जानबूझकर तो किया ही जाता है, अनजाने में भी होता है। दुनिया में शोषित व शोषक वर्ग सदैव से रहे हैं। समय साक्षी है कि श्रम का मूल्यांकन तथा आदर हमेशा कम ही हुआ है। हम सभी जानते हैं कि एक मजदूर का हमारा समाज कितना आदर करता है। अपनी गृहस्थी व अपने परिवार हेतु एक मजदूर अपना घर, अपने परिवार के सभी सदस्यों को छोड़कर रोजी-रोटी के लिए दर-ब-दर भटकता है। ये हजारों-हजार किलोमीटर की दूरी केवल इसलिए नाप लेते हैं ताकि उनके परिवार को दो जून की रोटी नसीब हो सके। उनके बच्चे पढ़-लिख सकें, लेकिन ऐसा होता नहीं है। मजदूर जीवन भर अपना शरीर खपाता रहता है और अंत तक मजदूर का मजदूर ही रहता है। उनकी कमजोर आर्थिक परिस्थितियाँ न ही उन्हें संपन्न बना पातीं और न ही उनकी संतानें उच्च शिक्षा ग्रहण कर पातीं।

बदलती तकनीकि व इक्कीसवीं सदी के अंधाधुंध व्यवसायीकरण की प्रक्रिया ने आज जीवन के एक-एक क्षण की आरामदेही हेतु नवीनतम यांत्रिक सुविधायें उपलब्ध करा दी हैं। श्रम, दूरी, यातायात, मनोरंजन, दूरसंचार के साधनों सहित स्वच्छता, जल, हवा, ऊर्जा, ईंधन आदि हरेक जरूरतों की पूर्ति आज चुटकी बजाते ही पूर्ण हो जाती है। पहले सिर पर मटकी से पानी लाना, पैदल या बैलगाड़ी से आवागमन, चूल्हे जलाना, संदेश वाहको से संदेश भेजना, हल और हाथों से कृषि करना आदि सभी में मानवशक्ति का ही अधिक उपयोग होता था। इस तरह सभी के पास रोजगार, उद्योग-धंधे व मजदूरी हुआ करती थी, लेकिन धीरे-धीरे हर कार्य मशीनों द्वारा अच्छा व जल्दी होने लगा। उत्पादों, साधनों एवं सेवाओं में लागत भी कम पड़ने लगी। एक तरह से धीरे-धीरे मजदूरों का कार्य मशीनें करने लगीं। यहाँ तक भी ठीक था लेकिन जब मानवशक्ति का उपयोग आधे से भी कम हुआ, तब इस मजदूर वर्ग की मुसीबतें और बढ़ना शुरू हो गईं। अब मजदूर अपने परम्परागत हुनर को विवशता में त्यागकर अन्य कार्य करने हेतु बाध्य होने लगा। घर से हजारों किलोमीटर दूर जाने हेतु भी तैयार हो गया। कुछ बचे हुए लोगों ने अपने परम्परागत रोजगार-धंधे जैसे हैंडलूम, मिट्टी एवं धातुओं के बर्तन व विभिन्न सामग्री, हस्त निर्मित फर्नीचर आदि बनाकर आगे बढ़ना चाहा लेकिन इन सब में समय व परिश्रम अधिक लगने और लागत बढ़ने के कारण लोगों की अभिरुचि मशीन निर्मित वस्तुओं की ओर ज्यादा बढ़ती गई। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि कभी किसी ने यह नहीं सोचा कि इन कारोबारियों, हस्तशिल्पियों व कुशल कारीगरों की अनदेखी एक दिन इन लोगों का अस्तित्व ही समाप्त कर सकती है। सर्वविदित है कि मानवशक्ति का अधिक से अधिक उपयोग हो, इसीलिए हमारे राष्ट्रपिता गांधी जी ने हथकरघा निर्मित खादी के वस्त्रों पर जोर दिया था।

आज हमें बस थोड़ी सी उदारता व संतोष रखकर सहृदयतापूर्वक कुछ ही अधिक मूल्य देकर इनसे सामग्री खरीदना होगी। आपके द्वारा किये गए प्रयास न जाने कितने लोगों को मजदूरी का अवसर दे सकते हैं और इस बहाने हम मजदूरों और कारीगरों की कला का सम्मान भी कर पाएँगे। यही इन लोगों के श्रम का मूल्यांकन भी होगा। आज हम देख रहे हैं कि बड़ी-पापड़ और दोना-पत्तल से लेकर कपड़ों की धुलाई, सिलाई, अनाजों की पिसाई सब कुछ मशीनों से होने लगा है। अब तक इन धंधों में लगे मजदूरों को आखिर अन्य काम तो करने ही होंगे। काम न मिलने पर ये पलायन भी करेंगे। आज ऐसी ही परिस्थितियों के चलते हर शहरों में कुछ स्थान नियत हो गए हैं जहाँ सुबह-सुबह मजदूरों का हुजूम दिखाई देता है। एक अदद मजदूर की तलाश में आए व्यक्ति के चारों ओर काम मिलने की आस में मजदूर झुण्ड के रूप में उस व्यक्ति को घेर लेते हैं। आशय यह है कि अब यह भी निश्चित नहीं है कि यहाँ एकत्र सभी मजदूरों को उस दिन काम मिल ही जाए। सीधी और स्पष्ट बात यह है कि अब मजदूरी के लिए भी पापड़ बेलने पड़ते हैं। बावजूद इसके कभी-कभी बिना मजदूरी और पैसों के खाली हाथ घर वापस भी आना पड़ता है। घर में या तो फाके की स्थिति होती है अथवा बची खुची सामग्री से घरवाली पेट भरने लायक कुछ बना देती है और यदि ऐसा ही कुछ दिन और चला तो भूखे मरने की नौबत भी आ जाती है। आज भी यह सब होता है। हो रहा है। सरकारें चाहे जितने वायदे करें, प्रमाण दें, लेकिन सच्चाई तो यही है कि कल का मजदूर आज भी उतना ही मजबूर और भूखा है।

क्या कभी ऐसे आंकड़े जुटाए गए हैं कि सरकारी सहायता प्राप्त मजदूर की पाँच-दस साल बाद क्या स्थिति है। निःशुल्क आंगनवाड़ी एवं निःशुल्क शिक्षा के बावजूद मजदूरों के कितने प्रतिशत बच्चे स्नातक अथवा उच्च शिक्षित हो पाए हैं। आखिर हमारी योजनाएँ ऐसी अधूरी क्यों है? आखिर इतना सब करने के पश्चात भी हम गरीब या मजदूरों को वे सारी सुख-सुविधाएँ व शिक्षा देने में असफल क्यों हैं। सत्यता व कागजी बातों के अंतर को पाटने हेतु ठोस कदम क्यों नहीं उठाए गए? वैसे भी हमारे देश में इस मजदूर वर्ग की हालत एक बड़ी समस्या से कम नहीं है। अधिकांश मजदूर व उनके परिवार आज भी नारकीय जीवन जीने हेतु बाध्य हैं। अभावग्रस्त मजदूर बस्तियों में आज भी बिजली-सड़क-पानी की संतोषजनक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। बस्तियाँ बजबजाती नालियों से भरी पड़ी रहती हैं। सारे वायदे व घोषणाएँ केवल चुनावी दौर में सुनाई देते हैं। फिर अगले पाँच साल तक सब कुछ वैसे का वैसा ही रहता है।

कुछ समय पूर्व तक ठीक नहीं पर काम चलाऊ तो था परंतु कोविड-19 के बढ़ते कहर ने सारे विश्व को स्तब्ध कर दिया है। किसी को भी कुछ समझ में नहीं आ रहा। यह ऐसी विभीषिका है जो इसके पूर्व कभी देखी नहीं गई। विश्व के द्वितीय सबसे अधिक जनसंख्या वाले हमारे देश में अभी भी कोविड-19 महामारी लगातार बढ़ती ही जा रही है। खौफ इतना बढ़ा कि प्रायः सभी मजदूर अपने परिवार और अपने घर में ही पहुँच कर एक साथ जीना-मरना चाहते हैं। मजदूरों की घर वापसी न मालिक रोक पाए न सरकार। बिना पैसे के, बिना रुके, भूखे-प्यासे मजदूर सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूरी तय कर एनकेन प्रकारेण अपने घरों तक पहुँच गए। घर की जमापूँजी घर चलाने में खर्च होने लगी। अब मजदूरी न के बराबर ही है। वापस आए मजदूर आखिर अपने गाँव अथवा समीप के शहरों में क्या और कितना करेंगे। लोगों के काम-धन्धों पर मंदी की मार पड़ रही है। निर्माण और अन्य ऐसे अन्य काम जिनमें मजदूरों की आवश्यकता होती है, लॉकडाउन के पश्चात रफ्तार नहीं पकड़ पा रहे हैं। हम उपभोग की वस्तुओं की बात करें तो जब माँग ही नहीं होगी तो उत्पादन क्यों किया जाएगा? उत्पादन अथवा काम न होने का तात्पर्य यह है कि मजदूरों के काम की छुट्टी। बिना काम किए जब मजदूरी ही नहीं मिलेगी तो क्या होगा इन बेचारों का। उद्योग, कारखाने एवं धंधे-व्यवसाय वालों ने मंदी के चलते अपने मजदूरों की छटनी शुरू कर दी है।

हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या पहले से ही है और अब कोरोना के कहर से बेरोजगारी का संकट और गहराने लगा है। यदि यही हाल रहा तो आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि बिना जमापूँजी वाले मजदूरों और उनके परिवार की क्या दशा होगी? आज मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट इसी कोविड-19 जैसे हालात निर्मित न कर दे, इस पर दीर्घकालीन शासकीय योजनाएँ व नीतियों की अविलम्ब आवश्यकता है। आज मजदूर वर्ग में आक्रोश दिखाई नहीं दे रहा, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इनमें असंतोष व्याप्त नहीं है। आप मानें या न मानें कल की चिंता हर मजदूर व गरीब तबके को सता रही है। इन्हें शीघ्र अतिशीघ्र रोजगार, व्यवसाय अथवा धंधों में लगाने की महती आवश्यकता है, ताकि ये भविष्य की रोजी-रोटी के प्रति निश्चिंत हो सकें। वर्तमान में यह मजदूर वर्ग इतना टूट चुका है कि वह अपने व अपने परिवार के उदर-पोषण हेतु कुछ भी करने को आमादा हो सकता है। अनैतिक कार्यों व धंधों में संलिप्त हो सकता है। लूटमार, चोरी-डकैती जैसी वारदातें भी बढ़ सकती हैं। ऐसी कठिन व अराजक परिस्थितियाँ आने के पूर्व भविष्य की नजाकत को देखते हुए शासन का आगे आना बहुत जरूरी हो गया है, वहीं समाज के सभी सक्षम व्यक्तियों, धनाढ्य, उद्योगपतियों से भी अपेक्षा है कि वे अपने कर्मचारियों को इस विपदा की घड़ी में जितना बन पड़े अपनापन और आर्थिक सहयोग देने से पीछे न हटें। मजदूर व गरीबों के लिए जन सामान्य, संस्थाएँ व प्रशासन यथोचित मदद हेतु आगे आएँ, ताकि मानवता कलंकित होने से बच सके।

इस कठिन समय में स्वार्थ, कालाबाजारी, जमाखोरी, धर्म एवं संप्रदाय से ऊपर उठकर इन मजदूरों को रोजगार देने का प्रयास करें। इनकी यथायोग्य सहायता करें। इनके रोजगार, व्यवसाय आदि में मदद करें। आपका एक छोटा सा प्रयास, आपकी सलाह, आपका परोपकार एक मजदूर ही नहीं उसके पूरे परिवार की खुशहाली के द्वार खोल सकता है। इस तरह हम सब आज मजदूरों पर बढ़ती बेरोजगारी के संकट का समाधान कुछ हद तक तो कर ही सकते हैं।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विशेष – पुरुषोत्तम मास (अधिक मास) – वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक महत्व ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।  आज दिनांक 18 सितम्बर 2020 से पुरुषोत्तम मास (अधिक मास ) प्रारम्भ हो रहा है।  इस सम्बन्ध में प्रस्तुत है इस सन्दर्भ में श्री आशीष कुमार जी द्वारा लिखित विशेष आलेख  “पुरुषोत्तम मास (अधिक मास) – वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक महत्व । )

 ☆ विशेष आलेख ☆ पुरुषोत्तम मास (अधिक मास) – वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक महत्व ☆

इस वर्ष पुरुषोत्तम मास आ रहा है, हरिद्वार समय के अनुसार 18 सितम्बर 2020 को प्रातः 01: 29 से अधिकःमास प्रारंभ हो जायेगा जो कि 16 अक्टूबर कि रात्रि 11: 15 तक रहेग।  पुरुषोत्तम मास के आध्यात्मिक और वैज्ञानिक  महत्व को समझने का प्रयास करते है।

कहते हैं कि दैत्याराज हिरण्यकश्यप ने अमर होने के लिए तप किया ब्रह्माजी प्रकट होकर वरदान मांगने का कहते हैं तो वह कहता है कि आपके बनाए किसी भी प्राणी से मेरी मृत्यु ना हो, न मनुष्य से और न पशु से। न दैत्य से और न देवताओं से। न भीतर मरूं, न बाहर मरूं। न दिन में न रात में। न आपके बनाए 12 माह में। न अस्त्र से मरूं और न शस्त्र से। न पृथ्‍वी पर न आकाश में। युद्ध में कोई भी मेरा सामना न करे सके। आपके बनाए हुए समस्त प्राणियों का मैं एकक्षत्र सम्राट हूं। तब ब्रह्माजी ने कहा- तथास्थु। फिर जब हिरण्यकश्यप के अत्याचार बढ़ गए और उसने कहा कि विष्णु का कोई भक्त धरती पर नहीं रहना चाहिए तब श्री‍हरि की माया से उसका पुत्र प्रहलाद ही भक्त हुआ और उसकी जान बचाने के लिए प्रभु ने सबसे पहले 12 माह को 13 माह में बदलकर अधिक मास बनाया। इसके बाद उन्होंने नृसिंह अवतार लेकर शाम के समय देहरी पर अपने नाखुनों से उसका वध कर दिया। इसके बाद चूंकि हर चंद्रमास के हर मास के लिए एक देवता निर्धारित हैं परंतु इस अतिरिक्त मास का अधिपति बनने के लिए कोई भी देवता तैयार ना हुआ। ऐसे में ऋषि-मुनियों ने भगवान विष्णु से आग्रह किया कि वे ही इस मास का भार अपने उपर लें और इसे भी पवित्र बनाएं तब भगवान विष्णु ने इस आग्रह को स्वीकार कर लिया और इस तरह यह मलमास के साथ पुरुषोत्तम मास भी बन गया। ऐसी भी मान्यता है कि स्वामीविहीन होने के कारण अधिकमास को ‘मलमास’ कहने से उसकी बड़ी निंदा होने लगी। इस बात से दु:खी होकर मलमास श्रीहरि विष्णु के पास गया और उनको अपनी व्यथा-कथा सुनाई। तब श्रीहरि विष्णु उसे लेकर गोलोक पहुचें। गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण ने मलमास की व्यथा जानकर उसे वरदान दिया- अब से मैं तुम्हारा स्वामी हूं। इससे मेरे सभी दिव्य गुण तुम में समाविष्ट हो जाएंगे। मैं पुरुषोत्तम के नाम से विख्यात हूं और मैं तुम्हें अपना यही नाम दे रहा हूं। आज से तुम मलमास के बजाय पुरुषोत्तम मास के नाम से जाने जाओगे। इसीलिए प्रति तीसरे वर्ष में तुम्हारे आगमन पर जो व्यक्ति श्रद्धा-भक्ति के साथ कुछ अच्छे कार्य करेगा, उसे कई गुना पुण्य मिलेगा। इस प्रकार भगवान ने अनुपयोगी हो चुके अधिकमास को धर्म और कर्म के लिए उपयोगी बना दिया। अत: इस दुर्लभ पुरुषोत्तम मास में स्नान, पूजन, अनुष्ठान एवं दान करने वाले को कई पुण्य फल की प्राति होगी।

पुरुषोत्तम मास जिस चंद्र मास में सूर्य संक्राति नहीं होती, वह अधिक मास कहलाता है और जिस चंद्र मास में दो संक्रांतियों का संक्रमण हो रहा हो उसे क्षय मास कहते हैं। इन दोनों ही मासों में माँगलिक कार्य नहीं होते हैं। हालांकि इस दौरान धर्म-कर्म के पुण्य फलदायी होते हैं। इसके लिए मास की गणना शुक्ल प्रतिपदा से अमावस्या तक की जाती है। सामान्यत: एक अधिक मास से दूसरे अधिक मास की अवधि 28 से 36 माह तक की हो सकती है। कुछ ग्रंथों में यह अवधि 32 माह और 14 दिवस 4 घटी बताई गई है। इस प्रकार यह कह सकते है कि हर तीसरे वर्ष में एक अधिक मास आता ही है। यदि इस अधिक मास की परिकल्पना नहीं की गई तो चांद्र मास की गणित गड़बड़ा सकती हैं। विशेष बात यह है कि अधिक मास चैत्र से अश्विन मास तक ही होते हैं। कार्तिक, मार्गशीर्ष पौष मास में क्षय मास होते हैं तथा माघ फाल्गुन में अधिक या क्षय मास कभी नहीं होते। सौर वर्ष 365.2422 दिन का होता है जबकि चंद्र वर्ष 354.327 दिन का रहता है। दोनों के कैलेंडर वर्ष में 10.87 दिन का अंतर रहता है और तीन वर्ष में यह अंतर 1 माह का हो जाता है। इस असमानता को दूर करने के लिए अधिक मास एवं क्षय मास का नियम बनाया गया है। सूर्य-चन्द्र के भ्रमण से 3 वर्ष के अंतर पर अधिक मास की स्थिति बनती है। जिस किसी मास में सूर्य की संक्रांति नहीं आती है वह अधिक मास पुरुषोत्तम मास के नाम से जाना जाता है। यह एक खगोलशास्त्रीय तथ्य है कि सूर्य 30.44 दिन में एक राशि को पार कर लेता है और यही सूर्य का सौर महीना है। ऐसे बारह महीनों का समय जो 365.25 दिन का है, एक सौर वर्ष कहलाता है। चंद्रमा का महीना 29.53 दिनों का होता है जिससे चंद्र वर्ष में 354.36 दिन ही होते हैं। यह अंतर 32.5 माह के बाद एक चंद्र माह के बराबर हो जाता है। इस समय को समायोजित करने के लिए हर तीसरे वर्ष एक अधिक मास होता है। एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या के बीच कम से कम एक बार सूर्य की संक्रांति होती है। यह प्राकृतिक नियम है। जब दो अमावस्या के बीच कोई संक्रांति नहीं होती तो वह माह बढ़ा हुआ या अधिक मास होता है। संक्रांति वाला माह शुद्ध माह, संक्रांति रहित माह अधिक माह और दो अमावस्या के बीच दो संक्रांति हो जायें तो क्षय माह होता है। क्षय मास कभी कभी होता है। मलमास में कुछ नित्य कर्म, कुछ नैमित्तिक कर्म और कुछ काम्य कर्मों को निषेध माना गया है। जैसे इस मास में प्रतिष्ठा, विवाह, मुंडन, नव वधु प्रवेश, यज्ञोपवित संस्कार, नए वस्त्रों को धारण करना, नवीन वाहन खरीद, बच्चे का नामकरण संस्कार आदि कार्य नहीं किए जा सकते। इस मास में अष्टका श्राद्ध का संपादन भी वर्जित है। जिस दिन मल मास शुरू हो रहा हो उस दिन प्रात:काल स्नानादि से निवृत्त होकर भगवान सूर्य नारायण को पुष्प, चंदन अक्षत मिश्रित जल अर्पणकर पूजन करना चाहिए। अधिक मास में शुद्ध घी के मालपुए बनाकर प्रतिदिन काँसे के बर्तन में रखकर फल, वस्त्र, दक्षिणा एवं अपने सामर्थ्य के अनुसार दान करें। जो कार्य पूर्व में ही प्रारंभ किए जा चुके हैं, उन्हें इस मास में किया जा सकता है। इस मास में मृत व्यक्ति का प्रथम श्राद्ध किया जा सकता है। रोग आदि की निवृत्ति के लिए महामृत्युंजय, रूद्र जपादि अनुष्ठान भी किए जा सकते हैं। इस मास में दुर्लभ योगों का प्रयोग, संतान जन्म के कृत्य, पितृ श्राद्ध, गर्भाधान, पुंसवन सीमंत संस्कार किए जा सकते हैं। इस मास में पराया अन्न तथा तामसिक भोजन का त्याग करना चाहिए।

पुरुषोत्तम मास की एकादशी का बहुत ज्यादा महत्व है जो कि पुरुषोत्तमपद्मिनी(शुक्लपक्ष)एवं परमा(कृष्णपक्ष) है।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 43 – राजभाषा विशेष – महात्मा गांधी और राष्ट्र भाषा ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “महात्मा गांधी और राष्ट्र भाषा”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 42 – राजभाषा विशेष – महात्मा गांधी और राष्ट्र भाषा

 

गांधीजी बहुभाषी थे। गुजराती उनकी मातृ भाषा थी, अंग्रेजी और संस्कृत उन्होंने स्कूली शिक्षा के दौरान सीखी, लैटिन जब  इंग्लैंड में बैरिस्टर बन रहे तब सीखी और तमिल व उर्दू दक्षिण अफ्रीका में सीखनी पडी क्योंकि उनके मुवक्किल उर्दू भाषी मुसलमान थे या दक्षिण भारतीय तमिल भाषी। बाद में जब वे 1922 में यरवदा जेल में कैद थे तब इन भाषाओं में प्रवीणता हांसिल कर उन्होने काफी पुस्तकें पढी। गांधीजी हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने के पक्षधर थे और इस हेतु वे पांच तर्क देते थे :

  1. हिन्दी ऐसी भाषा जिसे समझना और उपयोग में लाना सरकारी कर्मचारियों के लिए अन्य भाषाओं की तुलना में आसान है। अंग्रेजों के लम्बे शासन के बाद भी बहुत कम भारतीय कर्मचारी अंग्रेजी में पारंगत हुए और इसी प्रकार मुग़ल बादशाह भी फारसी-अरबी को राष्ट्रभाषा नहीं बना सके उन्होंने भी हिन्दी की व्याकरण के आधार पर नई भाषा उर्दू से काम चलाया।
  2. हिन्दी ऐसी भाषा है जिसके उपयोग से भारतीयों का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक कामकाज आसानी से हो सकता है। हिन्दुओं के कर्मकांड संस्कृत में होते हैं लेकिन आमजन उसे हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा में सुनना पसंद करते हैं। इसी प्रकार मुस्लिम व ईसाई धर्मावलम्बी भी अपनी प्रार्थना में हिन्दी का प्रयोग बहुतायत में करते हैं।
  3. हिन्दी ऐसी भाषा है जिसे अधिकाँश भारतीय बोल सकते हैं और उसमे आसानी से पारंगत भी हो सकते हैं।
  1. हिन्दी भाषा राष्ट्र के लिए आसान है। लोग इसे सीख सकते हैं और अनेक प्रांतीय भाषाएं संस्कृत परिवार से निकली हैं अत: उनमे काफी हद तक समानता भी है।
  2. अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषाएँ क्षणिक समय के लिए तो राज-काज की भाषा हो सकती है लेकिन आगे चलकर उसकी आवश्यकता अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक कामकाज के अलावा नहीं रहेगी।

लेकिन राष्ट्रभाषा को लेकर गांधीजी का सपना आज भी अधूरा ही है वह अनेक प्रयासों के बाद भी  पूरा नहीं हुआ है। मातृ भाषा में शिक्षा को लेकर जो भी प्रयास हुए वे सफल नहीं हो सके और इसने लोगों के मध्य आर्थिक व वैचारिक खाई को और चौड़ा किया है। अंग्रेजी आभिजात्य समुदाय की भाषा थी और अंग्रेजी में विशेष कौशल के दम पर यह समुदाय भारत की नौकरशाही की रीढ़ बना रहा। मध्यमवर्गीय परिवारों ने साठ-सत्तर के दशक में अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाया लेकिन कालांतर में जब उन्हें अपने सपने पूरे करने में अंग्रेजी की कमी अखरी तो उन्होंने अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देना शुरू किया। शहर के मध्यमवर्गीय परिवारों से शुरू हुई यह बीमारी आज गावों और निम्न आय वर्ग को लोगों में भी फैल गई है। इसने ग्रामीण इलाकों में अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देने का दावा करने वाले निजी स्कूलों की बाढ़ सी ला दी है और यह शिक्षण अभी केवल लड़कों को उपलब्ध है और इस प्रकार अंग्रेजी आज लैंगिक भेदभाव का भी पोषक बन गई है।

हिन्दी को लेकर दक्षिण भारत में अस्वीकार्यता तो शुरू से ही रही है और 1960-70 के दौरान तो वहाँ उग्र हिन्दी विरोधी आन्दोलन हुए। लेकिन सरकारी नौकरियों और सार्वजनिक क्षेत्रों, बैंको आदि  में रोजगार के अवसर तलाशने उत्तर भारत आए दक्षिण भारतीयों ने हिन्दी को प्रेम से अपनाया। आज इन लोगों के बच्चे हिन्दी लिखने, पढने व बोलने में पारंगत हैं लेकिन वे अपनी मातृ भाषा केवल बोल सकते हैं लिख-पढ़ नहीं सकते। अब सरकारों  व बैंकों में  नौकरियों में भर्ती  कम होने से दक्षिण भारतीयों का उत्तर भारत आना कम हुआ है और इससे उनका हिन्दी सीखना भी प्रभावित हुआ है। दूसरी ओर दक्षिण भारत में रोजगार के नए अवसर सृजित हुए हैं और उत्तर भारत से इंजीनियर से लेकर मजदूर तक दक्षिण भारत की ओर रुख कर रहे हैं और वहाँ जाकर दोनों पक्ष एक दूसरे की भाषा सीख रहे हैं। इससे आशा की जा सकती है कि हिन्दी के साथ साथ क्षेत्रीय भाषाओं को सीखने का अवसर बढेगा।

नई शिक्षा नीति में सरकार ने यह प्रस्ताव किया था कि प्राथमिक स्कूल स्तर बच्चे मातृ भाषा के अलावा एक भारतीय क्षेत्रीय भाषा और मिडिल स्कूल में  अंग्रेजी भाषा सीखे लेकिन क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक विरोध के कारण यह प्रस्ताव वापस ले लिया गया है। आज़ाद भारत में यह पहला अवसर नहीं है जब भाषा को लेकर राजनीतिक टकराव न हुआ हो। पुराने अनुभव यही बताते हैं कि एक राष्ट्र एक भाषा का नारा राजनीतिक दलों के हीन दृष्टिकोण  की बलि   चढ़ता रहेगा। एक देश की एक भाषा का सपना केवल जनता की इच्छा शक्ति ही पूरा कर सकती है।

सभी को हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ राजभाषा विशेष – हिन्दी का वर्तमान ☆ श्री विजय नेमा ‘अनुज’ 

श्री विजय नेमा ‘अनुज’ 

(आदरणीय  श्री विजय नेमा ‘अनुज’ जी का ई- अभिव्यक्ति में स्वागत है। श्री विजय नेमा जी संस्कारधानी जबलपुर की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सामाजिक संस्था ‘वर्तिका’ के संयोजक हैं। आज प्रस्तुत है हिंदी दिवस के अवसर पर आपका आलेख हिन्दी का वर्तमान

☆ राजभाषा विशेष – हिन्दी का वर्तमान ☆

हिन्दी हमारे देश  के व्यापक समाज की मातृभाषा है, देश की राजभाषा है और हमारी संस्कृति के गौरव की भाषा है।   हिंदी  अब पूरी दुनिया में प्रचलित होकर विश्वभाषा बनने की ओर उन्मुख है। अनेक देश के लोग हिन्दी लिखते और बोलते हैं।

हमारे देश मैं सर्वाधिक बोली जाने वाली हिंदी ही है, यही नहीं हमारे देश की जनसंख्या के साथ से भी हिन्दी सर्वोपरि एवं शीर्ष पर है, और सदा आगे भी रहेगी।

आजतक हिंदी के नाम पर जो सियासत होती रही हैं, वो अब नहीं होनी चाहिए और उसके विकास पर बहुत  तेजी से कार्य होने चाहिए।

हिंदी इस देश की माटी से अंकुरित हुई भाषा है, इसमें हमारे देश के कोटि कोटि के साहित्यकारों, विद्वानों, लेखकों,चिंतकों, कहानीकार, कथाकार, व्यंगकारों, गज़लकारों, दोहाकारों आदि आदि ने रातदिन मेहनत कर,अपनी लेखनी, अपनी वाणी से इस धरा को समवेत आवाज, एवं अपनी अपनी, सहभागिता से अभिसिंचित किया है,समर्पित किया है, जो आज हम सब पढ़ लिखकर, बोलकर उन सबका मार्गदर्शन, अनुशरण लेकर आगे बढ़े हैं, और सदा बढ़ते रहेंगे। जैसे:-

” पतवार तुम्हें दे जाऊँगा  ” को चरितार्थ करते हुए, जो हमने विद्वान साहित्यकारों से सीखा वही आने वाली पीढ़ी को  देकर जाने का है।

हिंदी की अपनी एक प्यारी ,लेखनी, बोली मृदुभाषी, सरल और मीठी भाषा है जो हमारे विद्वान साहित्यकारों, लेखकों,चिंतकों को आज इस पवित्र दिन पर याद कर शत शत नमन करते हैं, जो अपनी विधा से हम सभी को परिचित कराते हैं।

तुलसीदास, कबीरदास, रहीम,अमीर खुसरो, जनकवि जगनिक, चन्द्रवरदाई, रैदास, मीराबाई,सूर जायसी,रसखान, विहारी, गालिब, मीर,गोरखनाथ।

फिर आगे:-

मुंशी प्रेमचंद, भारतेन्दु हरिश्चंद्र,, जयशंकर प्रसाद, रामधारी सिंह दिनकर, महावीर प्रसाद, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, धर्मभारतीय, मैथलीशरण गुप्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला,राहुल सांकृत्यायन,महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, हरिऔध, माखनलाल चतुर्वेदी, नागार्जुन, दुष्यंत कुमार, अज्ञेय,अदम गोंडवी

मुक्तिबोध, फणीश्वरनाथ रेणु, सुमित्रा नन्दन पन्त, हरिवंशराय बच्चन, हरिशंकर परसाई, शमशेर, त्रिलोचन, केदारनाथ, भवानी प्रसाद मिश्र, रामविलास शर्मा, नामवरसिंह, रघुवीर सहाय, धूमिल, कमलेश्वर,मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, शरद जोशी, रवीन्द्र कालिया, कृष्ण सोवन्ति, श्री लाल शुक्ल, जिनेन्द्र कुमार, देवकीनंदन खत्री, गोपालदास नीरज,  भवानी प्रसाद तिवारी,रामेश्वर गुरु,श्रीबालपांडेय, हरिकृष्ण त्रिपाठी, जवाहरलाल चौरसिया, गारगीशरण मिश्र मराल, प्रो.राजेन्द्र तिवारी ऋषि आदि।

और आज की दौर में जिन साहित्यकारों का मार्गदर्शन हो रहा है वो

आचार्य डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी, डॉ. राजकुमार सुमित्र, आचार्य भगवत दुबे, डॉ. ज्ञानरंजन, डॉ. मलय, हरेराम समीप, आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ आदि आदि, जो वर्तमान में हिन्दी पर बहुत अधिक कार्य कर रहे हैं।

आज के दिन हम सब को संकल्प लेना चाहिए कि हम हिंदी लिखेंगे, हिंदी ही बोलेंगे।

हिंदी दिवस पर ढेर सारी शुभकामनाएं बधाई। 

 

©  विजय नेमा अनुज

24बी,” शंकर ” कुटी विवेकानंद वार्ड, जानकीनगर, जबलपुर (  म.प्र.), मोबाइल  9826506025

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ राजभाषा दिवस विशेष – राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ राजभाषा दिवस विशेष – राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य 

(विकिबुक्स ने हिंदी भाषा सम्बंधी लेखों के संकलन में इस लेख को प्रथम क्रमांक पर रखा है। लेख का शीर्षक ही संकलन को भी दिया है।)

भाषा का प्रश्न समग्र है। भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भाँति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अंग्रेज आया। उसने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं की धज्जियाँ उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण वह असहाय था।

यहाँ तक तो ठीक था। शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता उसकी कूटनीति और स्वार्थ के अनुरूप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हें वे अपना मानते थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था किंतुु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए फिरंगी अब भी खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने का ‘लॉलीपॉप’ जरुर दिया गया। धीरे-धीरे ‘लॉलीपॉप’ भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता गया।

राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहाँ की जा रही है।

राष्ट्रभाषा शब्द के तकनीकी उलझाव और आठवीं अनुसूची से लेकर अपभ्रंश बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की चौखट में शामिल करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहाँ अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा से स्पष्ट तात्पर्य देश के सबसे बड़े भूभाग पर बोली-लिखी और समझी जाने वाली भाषा से है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस़्कृति के तत्वों को अंतर्निहित करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते। हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत गाने लगें तो क्या कोई अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर दिये जायेंगे? क्या तब भी यह कहा जायेगा कि अपेक्षित राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति की प्रतीक्षा में हैं? भीरु व दिशाहीन मानसिकता दुःशासन का कारक बनती है जबकि सुशासन स्पष्ट नीति और पुरुषार्थ के कंधों पर टिका होता है।

सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है। राजधानी के एक अंग्रेजी विद्यालय ने पढ़ाया गया- ‘सीता वॉज़ स्वीटहार्ट ऑफ रामा।’ ठीक इसके विपरीत श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मण जी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मण जी का कहना कि मैने सदैव भाभी माँ के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?- यह भाव संस्कृति की आत्मा है। कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में ‘चार भिंतीत नाचली’ ( शादीशुदा बेटी का मायके आने पर आनंद विभोर होना) का भाव तलाशने के लिए सारा यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिये। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।

कटु सत्य यह है कि भाषाई प्रतिबद्धता और सांस्कृतिक चेतना के धरातल पर वर्तमान में भयावह उदासीनता दिखाई देती है। समृद्ध परंपराओं के स्वर्णमहल खंडहर हो रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है, भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम से बेदखल किया जाना। चूँकि भाषा संस्कृति की संवाहक है, अंग्रेजी माध्यम का अध्ययन यूरोपीय संस्कृति का आयात कर रहा है। एक भव्य धरोहर डकारी जा रही है और हम दर्शक-से खड़े हैं। शिक्षा के माध्यम को लेकर बनी शिक्षाशास्त्रियों की अधिकांश समितियों ने सदा प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सिफारिश की। यह सिफारिशें वर्षों कूड़े-दानों में पड़ी रहीं। नई शिक्षा नीति में भारत सरकार ने पहली बार प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने को प्रधानता दी है। यह सराहनीय है।

यूरोपीय भाषा समूह की अंग्रेजी के प्रयोग से ‘कॉन्वेंट एजुकेटेड’ पीढ़ी, भारतीय भाषा समूह के अनेक अक्षरों का उच्चारण नहीं कर पाती। ‘ड़’,‘ण’  अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। ‘पूर्ण’, पूर्न हो चला है, ‘ शर्म ’ और ‘श्रम’ में एकाकार हो चला है। हृस्व और दीर्घ मात्राओं के अंतर का निरंतर होता क्षय अर्थ का अनर्थ कर रहा है।‘लुटना’ और ‘लूटना’ एक ही हो गये हैं। विदेशियों द्वारा की गई ‘लूट’ को ‘लुटना’ मानकर हम अपनी लुटिया डुबोने में अभिभूत हो रहे हैं।

लिपि नये संकट से गुजर रही है। इंटरनेट पर खास तौर पर फेसबुक, गूगल प्लस, ट्विटर जैसी साइट्स पर देवनागरी को रोमन में लिखा जा रहा है। ‘बड़बड़’ के लिए barbar/ badbad  (बर्बर या बारबर या बार-बार) लिखा जा रहा है। ‘करता’, ‘कराता’, ‘कर्ता’ में फर्क कर पाना भी संभव नहीं रहा है। जैसे-जैसे पीढ़ी पेपरलेस हो रही है, स्क्रिप्टलेस भी होती जा रही है। मृत्यु की अपरिहार्यता को लिपि पर लागू करनेवाले भूल जाते हैं कि मृत्यु प्राकृतिक हो तब भी प्राण बचाने की चेष्टा की जाती है। ऐसे लोगों को याद दिलाया जाना चाहिये कि यहाँ तो लिपि की सुनियोजित हत्या हो रही है और हत्या के लिए भारतीय दंडसंहिता की धारा 302 के अंतर्गत मृत्युदंड का प्रावधान है।

सारी विसंगतियों के बीच अपना प्रभामंडल बढ़ाती भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदी के विरुद्ध ‘फूट डालो और राज करो’ की कूटनीति निरंतर प्रयोग में लाई जा रही है। इन दिनों  हिंदी की बोलियों को स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दिलाने की गलाकाट प्रतियोगिता शुरु हो चुकी है। खास तौर पर गत जनगणना के समय इंटरनेट के जरिये इस बात का जोरदार प्रचार किया गया कि हम हिंदी की बजाय उसकी बोलियों को अपनी मातृभाषा के रूप में पंजीकृत करायें। संबंधित बोली को आठवीं अनुसूची में दर्ज कराने के सब्जबाग दिखाकर, हिंदी की व्यापकता को कागज़ों पर कम दिखाकर आंकड़ो के युद्ध में उसे परास्त करने के वीभत्स षड्यंत्र से क्या हम लोग अनजान हैं? राजनीतिक इच्छाओं की नाव पर सवार बोलियों को भाषा में बदलने के आंदोलनों के प्रणेताओं (!) को समझना होगा कि यह नाव उन्हें घातक भाषाई षड्यंत्र की सुनामी के केंद्र की ओर ले जा रही है। अपनी राजनीति चमकाने और अपनी रोटी सेंकनेवालों के हाथ फंसा नागरिक संभवतः समझ नहीं पा रहा है कि यह भाषाई बंदरबाँट है। रोटी किसीके हिस्से आने की बजाय बंदर के पेट में जायेगी। बेहतर होता कि मूलभाषा-हिंदी और उपभाषा के रूप में बोली की बात की जाती।

संसर्गजन्य संवेदनहीनता, थोथे दंभवाला कृत्रिम मनुष्य तैयार कर रही है। कृत्रिमता की ये पराकाष्ठा है कि मातृभाषा या हिंदी न बोल पाने पर व्यक्ति लज्जा अनुभव नहीं करता पर अंग्रेजी न जानने पर उसकी आँखें स्वयंमेव नीची हो जाती हैं। शर्म से गड़ी इन आँखों को देखकर मैकाले और उसके भारतीय वंशजों की आँखों में विजय के अभिमान का जो भाव उठता होगा, ग्यारह अक्षौहिणी सेना को परास्त कर वैसा भाव पांडवों की आँखों में भी न उठा होगा।

संस्कृत को पाठ्यक्रम से हटाना एक अक्षम्य भूल रही। त्रिभाषा सूत्र में हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है। जनता से हिंदी में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने के बाद अधिकार भाव से अंग्रेजी में शपथ उठाते हैं।

साहित्यकारों के साथ भी समस्या है। दुर्भाग्य से भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के बड़े वर्ग में  भाषाई प्रतिबद्धता दिखाई नहीं देती। इनमें से अधिकांश ने भाषा को साधन बनाया, साध्य नहीं। यही स्थिति हिंदी की रोटी खानेवाले प्राध्यापकों, अधिकारियों और हिंदी फिल्म के कलाकारों की भी है। सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य अंग्रेजी में करते हैं। ऐसे सारे वर्गों के लिए वर्तमान दुर्दशा पर अनिवार्य आत्मपरीक्षण का समय आ चुका है।

भाषा के साथ-साथ भारतीयता के विनाश का जो षडयंत्र रचा गया, वह अब आकार ले चुका है। भारत में दी जा रही तथाकथित आधुनिक शिक्षा में रोल मॉडेल भी यूरोपीय चेहरे ही हैं। नया भारतीय अन्वेषण अपवादस्वरूप ही दिखता है। डूबते सूरज के भूखंड से आती हवाएँ, उगते सूरज की भूमि को उष्माहीन कर रही हैं।

छोटी-छोटी बात पर और प्रायः बेबात  संविधान को इत्थमभूत धर्मग्रंथ-सा मानकर अशोभनीय व्यवहार करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा को मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई तो बरगलाया गया कि भाषा संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में ‘हर-हर महादेव’ और ‘पीरबाबा सलामत रहें’ जैसे भावुक (!!!) नारे ही प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र में बंधता हो, व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो, शासकों की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासित समाज जन्म लेता हो तो भावुकता देश की अनिवार्य आवश्यकता हो जाती है।

हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्म्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य  की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। वे सूचना के अधिकार के तहत राष्ट्रभाषा को राष्ट्र भर में मुद्दा बनाएँ।

भारतीय भाषाओं के आंदोलन को आगे ले जाने के लिए छात्रों से अपेक्षित है कि वे अपनी भाषा में उच्च शिक्षा पाने के अधिकार को यथार्थ में बदलने के लिए पहल करें। स्वाधीनता के सत्तर वर्ष बाद भी न्यायव्यवस्था के निर्णय विदेशी भाषा में आते हों तो संविधान की पंक्ति-‘भारत एक सार्वभौम गणतंत्र है’ अपना अर्थ खोने लगती है।

भारतीय युवाओं से वांछित है कि दुनिया की हर तकनीक को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करा दें। आधुनिक तकनीक और संचार के अधुनातन साधनों से अपनी बात दुनिया तक पहुँचाना तुलनात्मक रूप से बेहद आसान हो गया है। भारतीय भाषाओं में अंतरजाल पर इतनी सामग्री अपलोड कर दें कि ज्ञान के इस महासागर में डुबकी लगाने के लिए अन्य भाषा भाषी भी हमारी  भाषाएँ सीखने को  विवश  हो जाएँ।

सरकार से अपेक्षित है कि हिंदी प्रचार संस्थाओं के सहयोग से विदेशियों को हिंदी सिखाने के लिए क्रैश कोर्सेस शुरू करे। भारत आनेवाले  सैलानियों के लिए ये कोर्सेस अनिवार्य हों। वीसा के लिए आवश्यक नियमावली में इसे समाविष्ट किया जा सकता है।

बढ़ते विदेशी पूँजीनिवेश के साथ भारतीय भाषाओं और भारतीयता का संघर्ष ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’की स्थिति में आ खड़ा हुआ है। समय की मांग है कि हिंदी और सभी भारतीय भाषाएँ एकसाथ आएँ। प्रादेशिक स्तर पर प्रादेशिक भाषा और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के नारे को बुलंद करना होगा। ‘अंधाधुंध अंग्रेजी’के विरुद्ध ये एकता अनिवार्य है।

बीते सात दशकों में पहली बार भाषा नीति को लेकर  वर्तमान केंद्र सरकार संवेदनशील और सक्रिय दिखाई दे रही है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता के पक्ष में स्वयं प्रधानमंत्री ने पहल की है। मंत्री तो मंत्री रक्षा और विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता भी हिंदी में अपनी बात रख रहे हैं। नई शिक्षानीति भारतीय भाषाओं की उन्नति की दृष्टि से दूरगामी सिद्ध होगी। प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो,च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम हो या उच्चस्तर पर आधुनिक भारतीय भाषाओं का अध्ययन, अरुणोदय की संभावनाएँ तो बन रही हैं। आशा है कि इन किरणों के आलोक में ‘इंडिया’की केंचुली उतारकर ‘भारत’ शीघ्रतिशीघ्र बाहर आएगा।

 

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ राजभाषा दिवस विशेष – हिन्दी भाषा और संबद्ध बोलियों की विकास यात्रा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज राजभाषा दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय आलेख हिन्दी भाषा और संबद्ध बोलियों की विकास यात्रा।  राजभाषा दिवस पर  प्रस्तुत इस अलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ राजभाषा दिवस विशेष – हिन्दी भाषा और संबद्ध बोलियों की विकास यात्रा ☆

  एक छोटा बच्चा भी जो कोई भाषा नही जानता चेहरे के हाव भाव व स्पर्श की मृदुलता से हमारी भावनायें समझ लेता है. विलोम में अपनी मुस्कान. रुदन या उं आां से ही अपनी सारी बातें मां पिता को समझा लेता है. विश्व की हर भाषा में हंसी व रुदन के स्वर समान ही होते हैं. पालतू पशु पक्षी तक अपने स्वामी से सहज संवाद अपनी विशिष्ट शैली में कर लेते हैं. अर्थात भाषा भावनाओ के परस्पर संप्रेषण का माध्यम है.

हिंदी एक पूर्ण समृद्ध भाषा है. इसके वर्तमान स्‍वरूप के विकास से पहले खड़ी बोली के कई साहित्यिक रूप विकसित थे, जैसे दकनी, उर्दू, हिंदुस्‍तानी आदि.  यह जानना भी रोचक है कि हिंदी के विकास में अंग्रेजों और उनकी संस्‍थाओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण  रही है.  उन्‍नीसवीं सदी हिंदी के विकास की दृष्टि से निर्णायक सदी थी.  आधुनिकता की अवधारणा और राजभाषा के सवाल से हिंदी के स्‍वरूप निर्धारण और विकास का गहरा संबंध है. उन्‍नीसवीं सदी के नवजागरण के पुरोधाओं, जैसे राजा शिवप्रसाद, भारतेंदु, बालकृष्‍ण भट्ट, अयोध्‍याप्रसाद खत्री, महावीर प्रसाद द्विवेदी, देवकीनंद खत्री आदि का हिंदी के विकास में उल्‍लेखनीय योगदान रहा है.

महात्मा गांधी ने हिंदी को  स्‍वाधीनता आंदोलन की भाषा के रूप में अंगीकार कर  देश को एक सूत्र में जोड़ने का काम किया था.  नेहरू जी, लोहिया जी व प्रायः राष्ट्रीय नेताओ के समर्थन से हिंदी भारत की राजभाषा बनी.   आज के दौर की सूचना-तकनीक की हिंदी , हमें हिंदी के भविष्‍य के बारे में संकेत करती है.

एक छोटे क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा बोली कहलाती है. बोली में साहित्य रचना का अभाव दिखता है. जब किसी बोली में साहित्य रचना होने लगती है और क्षेत्र का विकास हो जाता है तो वह बोली न रहकर उपभाषा के रूप में स्थापित हो जाती है.  साहित्यकार जब किसी भाषा को  साहित्य रचना द्वारा  सर्वमान्य स्वरूप प्रदान कर लेते हैं तथा उसका  क्षेत्र व्यापक हो जाता है तो वह भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो जाती  है. भारत के बाहर हिन्दी बोलने वाले देशो में  अमेरिका, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, यमन, युगांडा, सिंगापुर, नेपाल, न्यूजीलैंड, जर्मनी, पाकिस्तान, बांगलादेश आदि राष्ट्रों सहित दुनिया भर में  हिन्दी का प्रयोग हो रहा है.

पहले भाषा का जन्म हुआ और उसकी सार्वभौमिकता और एकात्मकता के लिए लिपि का आविष्कार हुआ. भाषा की सही-सही अभिव्यक्ति की कसौटी ही लिपि की सार्थकता है. प्रतिलेखन और लिप्यांतरण के दृष्टिकोण से देवनागरी लिपि अन्य उपलब्ध लिपियों से बहुत ऊपर है.इसमें मात्र 52 अक्षर (14 स्वर और 38 व्यंजन) हैं. किंतु प्रत्येक फोनेटिक शब्द के लिप्यांतरण में हिन्दी पूर्नतः सक्षम है. हिन्दी की विकास यात्रा की विवेचना करें तो हम पाते हैं कि हिन्दी  संस्कृत, प्राकृत, फारसी और कुछ अन्य भाषाओं के विभिन्न संयोजनों से निर्मित भाषाओं से जनित है.  यह द्रविड़ियन, तुर्की, फारसी, अरबी, पुर्तगाली और अंग्रेजी द्वारा प्रभावित और समृद्ध हुई भाषा है. यह एक बहुत ही अभिव्यंजक भाषा है, जो कविता और गीतों में बहुत ही लयात्मक और सरल और सौम्य शब्दों का उपयोग कर भावनाओं को व्यक्त कर सकने में सक्षम है. हिन्दी की क्षेत्रारानुसार अनेक बोलियाँ हैं, जिनमें अवधी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, हड़ौती,भोजपुरी, हरयाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया, कुमाउँनी, मगही आदि प्रमुख हैं.  इनमें से कुछ में अत्यंत उच्च श्रेणी के साहित्य की रचना हुई है.  ब्रजभाषा और अवधी में हिन्दी का साहित्य प्रचुरता से लिखा गया है. स्वतंत्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के विरुद्ध भी लोकभाषा में बहुत लिखा जा रहा है. भोजपुरी सिनेमा ने नये समय में उसका साहित्य समृद्ध किया है. इधर बुंदेली. बघेली बोलियो में भी व्यापक साहियत्यिक लेखन हो रहा है.

प्रकाशन तकनीक का विकास. कम्प्यूटर में हिन्दी व अन्य भारतीय लिपियों की सुविधाओ का विस्तार. यू ट्यूब व अन्य संसाधनो से हिन्दी व संबंधित बोलियां लगातार समृद्ध हो रही हैं. हिन्दी भाषा और संबद्ध बोलियों के विकास का मूल मंत्र यही है कि हम मूल रचना कर्म तथा अन्य भाषाओ से निरंतर अनुवाद के द्वारा अपनी भाषा की समृद्धि को बढ़ाने का कार्य करते रहें. अंग्रेजी की दासता से मुक्त होना जरूरी है.  नई पीढ़ी को निज भाषा के गौरव से अवगत कराने के निरंतर यत्न करते रहने होंगे.जब हिन्दी के उपयोगकर्ता बढ़ेंगे तो स्वतः ही तकनीक का वैश्विक बाजार हिन्दी के समर्थन में खड़ा मिलेगा. हिन्दी का शब्दागार व साहित्य निरंतर समृद्ध करते रहने की आवश्यकता है.नई पीढ़ी की जबाबदारी है कि नये इलेक्ट्रानिक माध्यमो के जरिये हिन्दी व बोलियो के साहित्य की प्रस्तुति यदि बढ़ाई जावे . ई बुक्स व आडियो वीडियो संसाधनो को युवा पसंद कर रहा है हिन्दी के प्राचीन साहित्य व नई रचनाओ को इन माध्यमो में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है. जिससे हिन्दी भाषा और संबद्ध बोलियों की विकास यात्रा अनवरत जारी रहे.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ राजभाषा दिवस विशेष – यांत्रिक युग में भौतिक कलेवर में फंसी हिंदी ☆ डॉ.राशि सिन्हा

डॉ.राशि सिन्हा

(राजभाषा दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है डॉ राशि सिन्हा जी का एक विचारणीय आलेख यांत्रिक युग में भौतिक कलेवर में फंसी हिंदी।)  

☆ राजभाषा दिवस विशेष – यांत्रिक युग में भौतिक कलेवर में फंसी हिंदी ☆ डॉ.राशि सिन्हा ☆ 

अभिव्यक्ति के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं व सृजनात्मक संभावनाओं का सरलीकरण कर किसी राष्ट्र की विद्यमान जीवन-स्थिति को व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान कर देश की सामाजिक, सांस्कृतिक व समस्त विविधताओं को आत्मिक स्वरुप प्रदान कर देश को एकसूत्र में बाँधने में किसी देश की भाषा का योगदान सबसे बड़ा होता है।  संदर्भगत हॉवेल की उक्ति सार्थक प्रतीत होती है, किसी भी देश और समाज के चरित्र को समझने की कसौटी केवल एक है और वह यह है कि उस देश और समाज का भाषा से सरोकार क्या है”। इन्हीं कारणों से अभ्यंतर अभिव्यक्ति को सर्वाधिक सशक्त  अभिव्यक्ति मानते हुए 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को संविधान  के अधिकारिक राजभाषा के रुप में स्वीकृत किया गया, ताकि वसुधैव कुटुंबकम की भावना पर आधारित देश की ‘राज्य-राष्ट्र’ की कल्पना को अखंडित-अक्षुण्ण रख  विकास के पथ पर निरंतर अग्रसर हो सके हमारा राष्ट्र, किंतु ‘यांत्रिक युग’ के रुप में परिभाषित होते वर्तमान में ‘भाषायी वैश्विकरण’, उदारवाद व उपभोक्ता-संस्कृति के केंद्र में बैठे बाजारवाद की चुनौतियों के आगे हमारी मातृभाषा ‘हिंदी’ अपने ही घर में ‘दोयम दर्जे’ की मार झेलने को विवश होती दिखाई देती है।  साथ ही,  संस्कृति निष्ठ हिंदी के समर्थकों के एक विशेष वर्ग के कारण भी आज इसकी अभिव्यंजना शक्ति को नजरअंदाज किया जा रहा है।  फलत: यह आम लोगों की पकड़ से दूर होती जा रही है। आज समाज में एक ऐसा भी वर्ग है जो स्वभाषा के प्रति आत्महीनता के भाव से ग्रसित, निज भौतिक स्वार्थ में लिप्त, अँग्रेजी के ऐतिहासिक आतंक से, ऊपर उठने के बजाय इस वर्ग ने हिंदी व अँग्रेजी में प्रतिस्पर्धा की स्थति उत्पन्न कर रखा है।  फलत: भाषायी वैश्वीकरण के नाम पर गुगल में सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने के बावजूद आज अपने ही घर में हिंदी तिरस्कृत है।  बोलचाल की भाषा के रुप में प्रचलित ‘हिंग्लिश -संस्कृति’ युवाओं की मानसिकता के साथ साथ समाज के प्रत्येक वर्ग-व्यवसाय को मनोवैज्ञानिक रुप से ऐसा जकड़ रखा है कि हिंदी की जड़ें अपनी  ही संस्कृति के आँगन में हिलती नजर आती है।  भाषा का समाज -शिक्षा-संस्कृति के साथ नाभि-नाल संबंध होता है, किंतु आज हमारे देश में यह भाषायी विडंबना है कि सिविल सर्विसेज जैसी उच्च कोटि में अँग्रेजी भाषा-तंत्र का बोलबाला है हिंदी माध्यम के परिणाम दिनोंदिन कम से कमतर होते जा रहें हैं। परिणामत:महत्वकांक्षी युवावर्ग अँग्रेजी को अपनाने के लिए विवश हो रहा है।  कहने का तात्पर्य यह है कि सरकारी तंत्र से लेकर समाज का हर व्यक्ति दिनोंदिन अपनी मातृभाषा को हेय समझ उसे दोयम दर्जा देने को आतुर दिख रहा है।  इन्हीं भौतिक कलेवर में फँसीबिचारी हिंदी आज अपने ही घर में दोयम-दर्जे के अस्तित्व को जीने के लिए विवश होती दिखाई देती है।

ऐसे में भरतेंदु हरिश्चन्द्र की पंक्तियाँ याद आती हैं,

“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति का मूल/बिनु निज भाषा ग्यान के, मिटै न हिय के शूल।  ”

इन सारी बातों से इतना तो तय है कि राष्ट्र के वैश्विक पहचान व निरंतर विकास हेतु निज भाषा को अपनाना, सम्मान देना अति आवश्यक है।  इसके लिए सरकारी तंत्र पर निर्भर रहने के बजाय व्यापक जनआंदोलन में व्यक्तिगत रुप से अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।  वैसी जिम्मेदारी जिसमें मनोवैज्ञानिक रुप से भाषायी आत्मियता को महसूस कर उसे अंगीकार करना होगा।  तभी हिंदी अपने घर में गूंगी होने से बच सकेगी और हम अपनी भाषायी विरासत को एकदिवसीय महत्ता से निकालकर इसके अस्तित्व को पूर्ण अस्तित्व प्रदान कर सकेंगे।

डॉ.राशि सिन्हा

नवादा, बिहार

( साभार श्री विजय कुमार, सह संपादक – शुभ तारिका, अम्बाला)

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सामाजिक चेतना – #65 ☆ राजभाषा दिवस विशेष – असमिया भाषा का इतिहास ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

(सुदूर उत्तर -पूर्व  भारत की प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में  राजभाषा दिवस पर प्रस्तुत है हमारे उत्तर पूर्व  में स्थित असम की आधिकारिक भाषा का  ज्ञानवर्धक इतिहास असमिया भाषा का इतिहास।आप प्रत्येक सोमवार सुश्री  निशा नंदिनी  जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना  #65 ☆

☆ राजभाषा दिवस विशेष – असमिया भाषा का इतिहास ☆

आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की श्रृंखला में पूर्वी सीमा पर अवस्थित असम की भाषा को  असमी,असमिया अथवा आसामीकहा जाता है।असमिया भारत के असम प्रांत की आधिकारिक भाषा तथा असम में बोली जाने वाली प्रमुख भाषा है। इसको बोलने वालों की संख्या डेढ़ करोड़ से अधिक है।

भाषाई परिवार की दृष्टि से इसका संबंध आर्य भाषा परिवार से है। बांग्ला, मैथिली, उड़िया और नेपाली से इसका निकट का संबंध है। गियर्सन के वर्गीकरण की दृष्टि से यह बाहरी उपशाखा के पूर्वी समुदाय की भाषा है। सुनीतिकुमार चटर्जी के वर्गीकरण में प्राच्य समुदाय में इसका स्थान है। उड़िया तथा बंगला की भांति असमी की भी उत्पत्ति प्राकृत तथा अपभ्रंश से ही हुई है।

यद्यपि असमिया भाषा की उत्पत्ति सत्रहवीं शताब्दी से मानी जाती है। किंतु साहित्यिक अभिरुचियों का प्रदर्शन तेरहवीं शताब्दी में रुद्र कंदलि के द्रोण पर्व (महाभारत) तथा माधव कंदलि के रामायण से प्रारंभ हुआ। वैष्णवी आंदोलन ने प्रांतीय साहित्य को बल दिया।शंकर देव (1449-1567) ने अपनी लंबी जीवन-यात्रा में इस आंदोलन को स्वरचित काव्य, नाट्य व गीतों से जीवित रखा।

सीमा की दृष्टि से असमिया क्षेत्र के पश्चिम में बंगला है। अन्य दिशाओं में कई विभिन्न परिवारों की भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें से तिब्बती, बर्मी तथा खासी प्रमुख हैं। इन सीमावर्ती भाषाओं का गहरा प्रभाव असमिया की मूल प्रकृति में देखा जा सकता है।असमिया एकमात्र बोली नहीं हैं। यह प्रमुखतः मैदानों की भाषा है।

बहुत दिनों तक असमिया को बंगला की एक उपबोली सिद्ध करने का उपक्रम होता रहा है। असमिया की तुलना में बंगला भाषा और साहित्य के बहुमुखी प्रसार को देखकर ही लोग इस प्रकार की धारण बनाते रहे हैं। परंतु भाषा वैज्ञानिकों की दृष्टि से बंगला और असमिया का समानांतर विकास आसानी से देखा जा सकता है। मागधी अपभ्रंश के एक ही स्रोत से निःसृत होने के कारण दोनों में समानताएँ हो सकती हैं। पर उनके आधार पर एक दूसरे की बोली सिद्ध नहीं किया जा सकता।

क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से असमिया के कई उपरूप मिलते हैं। इनमें से दो मुख्य हैं- पूर्वी रूप और पश्चिमी रूप। साहित्यिक प्रयोग की दृष्टि से पूर्वी रूप को ही मानक माना जाता है। पूर्वी की अपेक्षा पश्चिमी रूप में बोलीगत विभिन्नताएँ अधिक हैं। असमिया के इन दो मुख्य रूपों में ध्वनि, व्याकरण तथा शब्दसमूह, इन तीनों ही दृष्टियों से अंतर मिलते हैं। असमिया के शब्दसमूह में संस्कृत तत्सम, तद्भव तथा देशज के अतिरिक्त विदेशी भाषाओं के शब्द भी मिलते हैं। अनार्य भाषा परिवारों से गृहीत शब्दों की संख्या भी कम नहीं है। भाषा में सामान्यत: तद्भव शब्दों की प्रधानता है। हिंदी उर्दू के माध्यम से फारसी, अरबी तथा पुर्तगाली और कुछ अन्य यूरोपीय भाषाओं के भी शब्द आ गए हैं।

भारतीय आर्यभाषाओं की श्रृंखला में पूर्वी सीमा पर स्थित होने के कारण असमिया कई अनार्य भाषा परिवारों से घिरी हुई है। इस स्तर पर सीमावर्ती भाषा होने के कारण उसके शब्द समूह में अनार्य भाषाओं के कई स्रोतों के लिए हुए शब्द मिलते हैं। इन स्रोतों में से तीन अपेक्षाकृत अधिक मुख्य हैं-

(१) ऑस्ट्रो-एशियाटिक – खासी, कोलारी, मलायन

(२) तिब्बती-बर्मी-बोडो

(३) थाई-अहोम

शब्द समूह की इस मिश्रित स्थिति के प्रसंग में यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि खासी, बोडो तथा थाई तत्व तो असमिया में उधार लिए गए हैं। पर मलायन और कोलारी तत्वों का मिश्रण इन भाषाओं के मूलाधार के पास्परिक मिश्रण के फलस्वरूप है। अनार्य भाषाओं के प्रभाव को असम के अनेक स्थान नामों में भी देखा जा सकता है। ऑस्ट्रिक, बोडो तथा अहोम के बहुत से स्थान नाम ग्रामों, नगरों तथा नदियों के नामकरण की पृष्ठभूमि में मिलते हैं। अहोम के स्थान नाम प्रमुखत: नदियों को दिए गए नामों में हैं।

असमिया लिपि मूलत: ब्राह्मी का ही एक विकसित रूप है। बंगला से उसकी निकट समानता है। लिपि का प्राचीनतम उपलब्ध रूप भास्कर वर्मन का 610 ई. का ताम्रपत्र है। परंतु उसके बाद से आधुनिक रूप तक लिपि में “नागरी” के माध्यम से कई प्रकार के परिवर्तन हुए हैं।

असमिया भाषा का व्यवस्थित रूप 13वीं तथा 14वीं शताब्दी से मिलने पर भी उसका पूर्वरूप बौद्ध सिद्धों के “चर्यापद” में देखा जा सकता है। “चर्यापद” का समय विद्वानों ने ईसवी सन् 600 से 1000 के बीच स्थिर किया है। दोहों के लेखक सिद्धों में से कुछ का तो कामरूप प्रदेश से घनिष्ट संबंध था। “चर्यापद” के समय से 12वीं शताब्दी तक असमी भाषा में कई प्रकार के मौखिक साहित्य का सृजन हुआ था। मणिकोंवर-फुलकोंवर-गीत, डाकवचन, तंत्र मंत्र आदि इस मौखिक साहिय के कुछ रूप हैं।

असमिया भाषा का पूर्ववर्ती रूप अपभ्रंश मिश्रित बोली से भिन्न रूप प्राय: 18वीं शताब्दी से स्पष्ट होता है। भाषागत विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए असमिया के विकास के तीन काल माने जा सकते हैं।

14वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी के अंत तक। इस काल को फिर दो युगों में विभक्त किया जा सकता है। पहला वैष्णव-पूर्व युग दूसरा वैष्णव युग। इस युग के सभी लेखकों में भाषा का अपना स्वाभाविक रूप निखर आया है। यद्यपि कुछ प्राचीन प्रभावों से वह सर्वथा मुक्त नहीं हो सकी है। व्याकरण की दृष्टि से भाषा में पर्याप्त एकरूपता नहीं मिलती। परंतु असमिया के प्रथम महत्वूपर्ण लेखक शंकरदेव (जन्म-1449) की भाषा में ये त्रुटियाँ नहीं मिलती हैं। वैष्णव-पूर्व-युग की भाषा की अव्यवस्था यहाँ समाप्त हो जाती है। शंकरदेव की रचनाओं में ब्रजबुलि प्रयोगों का बाहुल्य है।

17वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक। इस युग में अहोम राजाओं के दरबार की गद्यभाषा का रूप प्रधान है। इन गद्य कर्ताओं को बुरंजी कहा गया है। बुरंजी साहित्य में इतिहास लेखन की प्रारंभिक स्थिति के दर्शन होते हैं। प्रवृत्ति की दृष्टि से यह पूर्ववर्ती धार्मिक साहित्य से भिन्न है। बुरंजियों की भाषा आधुनिक रूप के अधिक निकट है।

19वीं शताब्दी के प्रारंभ से। 1819 ई. में अमरीकी बप्तिस्त पादरियों द्वारा प्रकाशित असमीया गद्य में बाइबिल के अनुवाद से आधुनिक असमीया का काल प्रारंभ होता है। मिशन का केंद्र पूर्वी आसाम में होने के कारण उसकी भाषा में पूर्वी आसाम की बोली को ही आधार माना गया। 1846 ई. में मिशन द्वारा एक मासिक पत्र “अरुणोदय” प्रकाशित किया गया। 1848 में असमीया का प्रथम व्याकरण छपा और 1867 में प्रथम असमीया अंग्रेजी शब्दकोश तैयार हुआ। श्रीमन्त शंकरदेव असमिया भाषा के अत्यंत प्रसिद्ध कवि, नाटककार तथा हिन्दू समाज सुधारक थे।

असमीया की पारंपरिक कविता उच्चवर्ग तक ही सीमित थी। भट्टदेव (1558-1638) ने असमिया गद्य साहित्य को सुगठित रूप प्रदान किया। दामोदरदेव ने प्रमुख जीवनियाँ लिखीं। पुरुषोत्तम ठाकुर ने व्याकरण पर काम किया। अठारहवी शती के तीन दशक तक साहित्य में विशेष परिवर्तन दिखाई नहीं दिए। उसके बाद चालीस वर्षों तक असमिया साहित्य पर बांग्ला का वर्चस्व बना रहा। असमिया को जीवन प्रदान करने में चन्द्र कुमार अग्रवाल (1858-1938), लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा (1867-1838) व हेमचन्द्र गोस्वामी (1872-1928) का योगदान रहा। असमीया में छायावादी आंदोलन छेड़ने वाली मासिक पत्रिका जोनाकी का प्रारंभ इन्हीं लोगों ने किया था। उन्नीसवीं शताब्दी के उपन्यासकार पद्मनाभ गोहाञिबरुवा और रजनीकान्त बरदलै ने ऐतिहासिक उपन्यास लिखे। सामाजिक उपन्यास के क्षेत्र में देवाचन्द्र तालुकदार व बीना बरुवा का नाम प्रमुखता से आता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य को मृत्यंजय उपन्यास के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस भाषा में क्षेत्रीय व जीवनी रूप में भी बहुत से उपन्यास लिखे गए हैं। 40वें व 50वें दशक की कविताएँ व गद्य मार्क्सवादी विचारधारा से भी प्रभावित दिखाई देती है।

अहोम वंश की मुद्रा जिस पर असमिया लिपि में लिखा गया है। असमिया लिपि ‘पूर्वी नागरी’ का एक रूप है जो असमिया के साथ-साथ बांग्ला और विष्णुपुरिया मणिपुरी को लिखने के लिये प्रयोग की जाती है। केवल तीन वर्णों को छोड़कर शेष सभी वर्ण बांग्ला में भी ज्यों-के-त्यों प्रयुक्त होते हैं। ये तीन वर्ण हैं- ৰ (र), ৱ (व) और ক্ষ (क्ष)।

इस तरह असमिया भाषा का इतिहास बहुत प्राचीन और विस्तृत है।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम

9435533394

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #62 ☆ साक्षर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच –  साक्षर ☆

बालकनी से देख रहा हूँ कि सड़क पार खड़े,  हरी पत्तियों से लकदक  पेड़ पर कुछ पीली पत्तियाँ भी हैं। इस पीलेपन से हरे की आभा में उठाव आ गया है,  पेड़ की छवि में समग्रता का भाव आ गया है।

रंगसिद्धांत के अनुसार नीला और पीला मिलकर बनता है हरा..। वनस्पतिशास्त्र बताता है कि हरा रंग अमूनन युवा और युवतर पत्तियों का होता है। पकी हुई पत्तियों का रंग सामान्यत: पीला होता है। नवजात पत्तियों के हरेपन में पीले की मात्रा अधिक होती है।

पीले और हरे से बना दृश्य मोहक है। परिवार में युवा और बुजुर्ग की रंगछटा भी इसी भूमिका की वाहक होती है। एक के बिना दूसरे की आभा फीकी पड़ने लगती है। अतीत के बिना वर्तमान शोभता नहीं और भविष्य तो होता ही नहीं। नवजात हरे में अधिक पीलापन बचपन और बुढ़ापा के बीच अनन्य सूत्र दर्शाता है।

प्रकृति पग-पग पर जीवन के सूत्र पढ़ाती है। हम  देखते तो हैं पर बाँचते नहीं। जो प्रकृति के सूत्र  बाँच सका, विश्वास करना वही अपने समय का सबसे बड़ा साक्षर और साधक भी हुआ।

 

© संजय भारद्वाज

अपराह्न 3:26, 12.9.20

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार : जीवन विद्या का आलोक केन्द्र ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास। हम  श्री सदानंद आंबेकर  जी  के हृदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारे पाठकों के लिए एक ऐसे अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की जानकारी दी है जिसके बारे में संभवतः बहुत कम  अथवा सीमित जानकारी है। श्री सदानंद जी इस विश्वविद्यालय में के नियमों के अनुरूप  शिक्षण कार्य भी करते हैं। बंधुवर  श्री सदानंद जी  का यह ज्ञानवर्धक आलेख निश्चित ही हमारे पाठकों को शिक्षा के क्षेत्र के इस ज्ञानमंदिर की अनुपम जानकारी उपलब्ध कराएगा।  इस अतिसुन्दर आलेख के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन ।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार : जीवन विद्या का आलोक केन्द्र 

विश्व की प्राचीन एवं आध्यात्मिक नगरी हरिद्वार में ऋषिकेश मार्ग पर अवस्थित देव संस्कृति विश्वविद्यालय एक विशिष्ट शैक्षणिक संस्थान एवं ज्ञान का आलोक केन्द्र है जिसका प्रमुख लक्ष्य है मानव में देवत्व का उदय एवं धरती पर स्वर्ग का अवतरण।

उत्तराखण्ड सरकार की विशेष अधिसूचना के अनुसार वर्ष 2002 में इसे विश्वविद्यालय का स्वरूप प्रदान किया गया। गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में विशाल हरित एवं शिवालिक श्रेणियों के निकट परिक्षेत्र में इस विश्वविद्यालय का निर्माण गायत्री परिवार के संस्थापक, संत-दार्शनिक, वेदमूर्ति पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी की परिकल्पना के अनुसार हुआ है। उन्होंने कहा था – ऐसा एक विश्वविद्यालय देश में होना ही चाहिये जो सच्चे मनुष्य, बडे मनुष्य, महान मनुष्य, सर्वांगपूर्ण मनुष्य बनाने की आवश्यकता को पूर्ण कर सके।

गुरुकुल के रूप में विकसित इस विश्वविद्यालय में धर्म, दर्शन, संस्कृति, आदि पर आधारित पाठ्यक्रमों का शिक्षण एवं इनके समसामयिक बिन्दुओं पर शोध का कार्य होता है।

योग एवं मानव स्वास्थ्य, शिक्षा, कंप्यूटर साइंस, संचार, पत्रकारिता-जनसंचार, भारतीय संस्कृति एवं पर्यटन भाषा विज्ञान, ग्राम प्रबंधन प्राच्य अध्ययन  एवं पर्यावरण विषयों में सर्टिफिकेट से लेकर स्नातकोत्तर एवं चयनित विषयों में शोध की व्यवस्था यहाँ है।

न्यूनतम सहयोग लेते हुये समयदान आधार पर शिक्षक एवं कर्मचारीगण यहाँ अपना कार्य करते हैं। विद्यार्थियों को अनवरत ज्ञान धारा प्रदान करने हेतु लगभग सैंतीस हजार पुस्तकों का कंप्यूटरीकृत वाचनालय यहाँ पर है। विविध प्रयोगशालाओं में विद्यार्थी अपने ज्ञान का प्रायोगिक करके सूत्रों की सत्यता सिद्ध कर सकते हैं।

न्यूनतम शुल्क पर चलने वाले इस विश्वविद्यालय में गुरुदक्षिणा के रूप में हर विद्यार्थी को सामाजिक दायित्व का निर्वहन करने निर्धारित अवधि हेतु सामाजिक इंटर्नशिप हेतु क्षेत्रों में जाकर समयदान करना आवश्यक होता है।

योग एवं मानव चेतना के अनिवार्य विषयों के साथ हर सत्र का शुभारंभ ज्ञान दीक्षा जैसे प्रेरक संस्कार से होता है जिसमें विद्यार्थी को विद्यार्जन संबंधी अनुशासनों का संकल्प लेना होता है।

बाहरी तौर पर देखने पर किसी संस्था विशेष के दिखने वाले इस विश्वविद्यालय का आंतरिक स्वरूप एकदम भिन्न है। अनेक देशों यथा – रूस, जर्मनी, इटली, चीन, सं. रा. अमेरिक अर्जेंटीना एवं इंडोनेशिया आदि के नामांकित संस्थानों के साथ शिक्षण के अनुबंध हुये हैं जिनके यहां हमारे एवं उनके यहां से अनेक विद्यार्थी यहां पढने आते हैं।

अनेक अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों, गोष्ठियों, विचार मंचों का आयोजन एवं दीक्षांत समारोहों का आयोजन यहां हुआ है जिसमें महामहिम पूर्व राष्ट्रपति स्व कलाम साहब, महामहिम  पूर्व राष्ट्रपति स्व प्रणब मुखर्जी एवं श्री कैलाश सत्यार्थी जैसी विभूतियों का आगमन हुआ है जिससे विश्वविद्यालय के गौरव में बढोत्तरी हुई है।

विद्यार्थियों के समग्र व्यक्तित्व के विकास हेतु संगीत, चित्रकारी, योग प्रतियोगितायें, खेलकूद, जूड़ो आदि का शिक्षण भी दिया जाता है जिसमें यहां के छात्र अक्सर पदक प्राप्त करते हैं।

श्रेष्ठ मानव निर्माण करने वाली इस टकसाल – देव संस्कृति विश्वविद्यालय में प्रवेश प्रक्रिया ऑनलाईन आवेदन के बाद लिखित परीक्षा एवं व्यक्तिगत साक्षात्कार के साथ पूर्ण होती है जिसके माध्यम से अनगढ़ माटी को सुगढ़ आकार देकर श्रेष्ठ व्यक्तित्व निकाल कर राष्ट्र को समर्पित किये जाते हैं।

web ::  www.dsvv.ac.in

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार (उत्तराखंड)

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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