हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 61 ☆ प्रतिशोध नहीं परिवर्तन ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख प्रतिशोध नहीं परिवर्तन। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 61 ☆

☆ प्रतिशोध नहीं परिवर्तन ☆

 

‘ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे, जो प्रतिशोध के बजाय परिवर्तन की सोच रखते हैं।’ प्रतिशोध उन्नति के पथ में अवरोधक का कार्य करता है तथा मानसिक उद्वेलन व क्रोध को बढ़ाता है; मन की शांति को मगर की भांति लील जाता है… ऐसे व्यक्ति को कहीं भी कल अथवा चैन नहीं पड़ती। उसका सारा ध्यान विरोधी पक्ष की गतिविधियों पर ही केंद्रित नहीं होता, वह उसे नीचा दिखाने के अवसर की तलाश में रहता है। उसका मन अनावश्यक उधेड़बुन में उलझा रहता है, क्योंकि उसे अपने दोष व अवगुण नज़र नहीं आते और अन्य सब उसे दोषों व बुराइयों की खान नज़र आते हैं। फलत: उसके लिए उन्नति के सभी द्वार बंद हो जाते हैं। उन विषम परिस्थितियों में अनायास सिर उठाए कुकुरमुत्ते हर दिन सिर उठाए उसे प्रतिद्वंद्वी के रूप में नज़र आते हैं और हर इंसान उसे उपहास अथवा व्यंग्य करता-सा दिखाई पड़ता है।

ऊंचा उठने के लिए पंखों की ज़रूरत पक्षियों को पड़ती है। परंतु मानव जितना विनम्रता से झुकता है; उतना ही ऊपर उठता है। सो! विनम्र व्यक्ति सदैव झुकता है; फूल-फल लगे वृक्षों की डालिओं की तरह… और वह सदैव ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर के भाव से मुक्त रहता है। उसे सब मित्र-सम लगते हैं और वह दूसरों में दोष-दर्शन न कर, आत्मावलोकन करता है… अपने दोष व अवगुणों का चिंतन कर, वह खुद को बदलने में प्रयासरत रहता है। प्रतिशोध की बजाय परिवर्तन की सोच रखने वाला व्यक्ति सदैव उन्नति के अंतिम शिखर पर पहुंचता है। परंतु इसके लिए आवश्यकता है– अपनी सोच व रुचि बदलने की; नकारात्मकता से मुक्ति पाने की; स्नेह, प्रेम व सौहार्द के दैवीय गुणों को जीवन में धारण करने की; प्राणी-मात्र के हित की कामना करने की; अहं को कोटि शत्रुओं-सम त्यागने की; विनम्रता को जीवन में धारण करने की; संग्रह की प्रवृत्ति को त्याग परार्थ व परोपकार को अपनाने की; सब के प्रति दया, करुणा और सहानुभूति भाव जाग्रत करने की… यदि मानव उपरोक्त दुष्प्रवृत्तियों को त्याग, सात्विक वृत्तियों को जीवन में धारण कर लेता है, तो संसार की कोई शक्ति उसे पथ-विचलित व परास्त नहीं कर सकती।

इंसान, इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि उम्मीदें धोखा देती हैं; जो वह दूसरों से करता है। इससे  संदेश मिलता है कि हमें दूसरों से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि इंसान ही नहीं, हमारी अपेक्षाएं व उम्मीदें ही हमें धोखा देती हैं, जो इंसान दूसरों से करता है। वैसे यह कहावत भी प्रसिद्ध है कि ‘पैसा उधार दीजिए; आपका पक्का दोस्त भी आपका कट्टर निंदक अर्थात् दुश्मन बन जाएगा।’ सो! पैसा उधार देने के पश्चात् भूल जाइए, क्योंकि वह लौट कर कभी नहीं आएगा। यदि आप वापसी की उम्मीद रखते हैं, तो यह आपकी ग़लती ही नहीं, मूर्खता है। जिस प्रकार दुनिया से जाने वाले लौट कर नहीं आते, वही स्थिति ऋण के रूप में दिये गये धन की है। यदि वह लौट कर आता भी है, तो आपका वह सबसे प्रिय मित्र भी शत्रु के रूप में सीना ताने खड़ा दिखाई पड़ता है। सो! प्रतिशोध की भावना को त्याग, अपनी सोच व विचारों को बदलिए– जैसे एक हाथ से दिए गए दान की खबर, दूसरे हाथ को भी नहीं लगनी चाहिए; उसी प्रकार उधार देने के पश्चात् उसे भुला देने में ही आप सबका मंगल है। सो! जो इंसान अपने हित के बारे में ही नहीं सोचता, वह दूसरों के लिए क्या ख़ाक सोचेगा?

समय परिवर्तनशील है और प्रकृति भी पल-पल रंग बदलती है। मौसम भी यथा-समय बदलते रहते हैं। सो! मानव को श्रेष्ठ संबंधों को कायम रखने के लिए, स्वयं को बदलना होगा। जैसे अगली सांस लेने के लिए, मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है, उसी प्रकार आवश्यकता से अधिक संग्रह करना भी मानव के लिए कष्टकारी होता है। सो! अपनी ‘इच्छाओं पर अंकुश लगाइए और तनाव को दूर भगाइए… दूसरों से उम्मीद मत रखिए, क्योंकि वह तनाव का कारण होती हैं।’ महात्मा बुद्ध की यह उक्ति ‘आवश्यकता से अधिक सोचना, संचय करना व सेवन करना– दु:ख और अप्रसन्नता का कारण है… जो हमें सोचने पर विवश करता है कि मानव को व्यर्थ के चिंतन से दूर रहना चाहिए; परंतु यह तभी संभव है, जब वह आत्मचिंतन करता है; दुनियादारी व दोस्तों की भीड़ से दूरी बनाकर रखता है।

वास्तव में दूसरों से अपेक्षा करना हमें अंधकूप में धकेल देता है, जिससे मानव चाह कर भी बाहर निकल नहीं पाता। वह आजीवन ‘तेरी-मेरी’ में उलझा रहता है तथा ‘लोग क्या कहेंगे’… यह सोचकर अपने हंसते-खेलते जीवन को अग्नि में झोंक देता है। यदि इच्छाएं पूरी नहीं होतीं, तो क्रोध बढ़ता है और पूरी होती हैं तो लोभ। इसलिए उसे हर स्थिति में धैर्य बनाए रखना अपेक्षित है। ‘इच्छाओं को हृदय में मत अंकुरित होने दें, अन्यथा आपके जीवन की खुशियों को ग्रहण लग जाएगा और आप क्रोध व लोभ के भंवर से कभी मुक्त नहीं हो पाएंगे। कठिनाई की  स्थिति में केवल आत्मविश्वास ही आपका साथ देता है, इसलिए सदैव उसका दामन थामे रखिए। ‘तुलना के खेल में स्वयं को मत झोंकिए, क्योंकि जहां इसकी शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद समाप्त हो जाता है… कोसों दूर चला जाता है।’ इसलिए जो मिला है, उससे संतोष कीजिए। स्पर्द्धा भाव रखिए, ईर्ष्या भाव नहीं। खुद को बदलिए, क्योंकि जिसने संसार को बदलने की कोशिश की, वह हार गया और जिसने खुद को बदल लिया, वह जीत गया। दूसरों से उम्मीद रखने के भाव का त्याग करना ही श्रेयस्कर है। सो! उस राह को त्याग दीजिए, जो कांटों से भरी है, क्योंकि दुनिया भर के कांटों को चुनना व दु:खों को मिटाना संभव नहीं। इसलिए उस विचार को समूल नष्ट करने में सबका कल्याण है। इसके साथ ही बीती बातों को भुला देना कारग़र है, क्योंकि गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए वर्तमान में जीना सीखिए। अतीत अनुभव है, उससे शिक्षा लीजिए तथा उन ग़लतियों को वर्तमान में मत दोहराइए, अन्यथा आपके भविष्य का अंधकारमय होना निश्चित है।

वैसे तो आजकल लोग अपने सिवाय किसी के बारे में सोचते ही नहीं, क्योंकि वे अपने अहं में इस क़दर मदमस्त रहते हैं कि उन्हें दूसरों का अस्तित्व नगण्य प्रतीत होती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘यदि आप किसी से सच्चे संबंध बनाए रखना चाहते हैं, तो आप उसके बारे में जो जानते हैं; उस पर विश्वास रखें … न कि जो उसके बारे में सुना है’…  यह कथन कोटिश: सत्य है। आंखों-देखी पर सदैव विश्वास करें, कानों-सुनी पर नहीं, क्योंकि लोगों का काम तो होता है कहना… आलोचना करना; संबंधों में कटुता उत्पन्न करने के लिए इल्ज़ाम लगाना; भला-बुरा कहना; अकारण दोषारोपण करना। इसलिए मानव को व्यर्थ की बातों में समय नष्ट न करने तथा बाह्य आकर्षणों व ऐसे लोगों से सचेत रहने की सीख दी गयी है क्योंकि ‘बाहर रिश्तों का मेला है/ भीतर हर शख्स अकेला है/ यही ज़िंदगी का झमेला है।’ इसलिए ज़रा संभल कर चलें, क्योंकि तारीफ़ के पुल के नीचे सदैव मतलब की नदी बहती है अर्थात् यह दुनिया पल-पल गिरगिट की भांति रंग बदलती है। लोग आपके सामने तो प्रशंसा के पुल बांधते हैं, परंतु पीछे से फब्तियां कसते हैं; भरपूर निंदा करते हैं और पीठ में छुरा घोंपने से तनिक भी गुरेज़ नहीं करते।

‘इसलिए सच्चे दोस्तों को ढूंढना/ बहुत मुश्किल होता है/ छोड़ना और भी मुश्किल/ और भूल जाना नामुमक़िन।’ सो! मित्रों के प्रति शंका भाव कभी मत रखिए, क्योंकि वे सदैव तुम्हारा हित चाहते हैं। आपको गिरता हुआ देख, आगे बढ़ कर थाम लेते हैं। वास्तव में सच्चा दोस्त वही है, जिससे बात करने में खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए…केवल वो ही अपना है, शेष तो बस दुनिया है अर्थात् दोस्तों पर शक़ करने से बेहतर है… ‘वक्त पर छोड़ दीजिए/ कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे।’ समय अपनी गति से चलता है और समय के साथ मुखौटों के पीछे छिपे, लोगों का असली चेहरा उजागर अवश्य हो जाता है। सो! यह कथन कोटिश: सत्य है कि ख़ुदा की अदालत में देर है, अंधेर नहीं। अपने विश्वास को डगमगाने मत दें और निराशा का दामन कभी मत थामें। इसलिए ‘यदि सपने सच न हों/ तो रास्ते बदलो/ मुक़ाम नहीं/ पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं/ जड़ नहीं।’ सो! लोगों की बातों पर विश्वास न करें, क्योंकि आजकल लोग समझते कम और समझाते ज़्यादा हैं। तभी तो मामले सुलझते कम, उलझते ज़यादा हैं। दुनिया में कोई भी दूसरे को उन्नति करते देख प्रसन्न नहीं होता। सो! वे उस सीढ़ी को खींचने में अपनी पूरी ऊर्जा लगा देते हैं तथा उसे सही राह दर्शाने की मंगल कामना नहीं करते।

इसलिए मानव को अहंनिष्ठ व स्वार्थी लोगों से सचेत व सावधान रहने का संदेश देते हुए कहा गया है, कि घमण्ड मत कर/ ऐ!दोस्त/  सुना ही होगा/ अंगारे राख ही बनते हैं’…जीवन को समझने से पहले मन को समझना आवश्यक है, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का साकार रूप है…’जैसी सोच, वैसी क़ायनात और वैसा ही जीवन।’ सो! मानव को प्रतिशोध के भाव को जीवन में दस्तक देने की कभी भी अनुमति नहीं प्रदान करनी चाहिए, क्योंकि आत्म-परिवर्तन को अपनाना श्रेयस्कर है। सो! मानव को अपनी सोच, अपना व्यवहार, अपना दृष्टिकोण, अपना नज़रिया बदलना चाहिए, क्योंकि नज़र का इलाज तो दुनिया में है, नज़रिये का नहीं। ‘नज़र बदलो, नज़ारे बदल जाएंगे। नज़रिया बदलो/ दुनिया के लोग ही नहीं/ वक्त के धारे भी बदल जाएंगे।’

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 14 ☆ जनसंख्या वृद्धि का सबसे अधिक खामियाजा भुगतने वाला देश भारत ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  विश्व जनसंख्या दिवस – “जनसंख्या वृद्धि का सबसे अधिक खामियाजा भुगतने वाला देश भारत”)

☆ किसलय की कलम से # 14 ☆

☆ जनसंख्या वृद्धि का सबसे अधिक खामियाजा भुगतने वाला देश भारत 

 

जनसंख्या शब्द याद आते ही विश्व की बढ़ती आबादी का भयावह स्वरूप हम सबके सामने आ जाता है। खासतौर पर चीन और भारत की जनसंख्या वृद्धिदर जानकर। इसके पश्चात जनसंख्या वृद्धि को प्रभावित करने वाले प्रश्नों की अंतहीन श्रृंखला मानस पटल पर उभरने लगती है। ऐसा नहीं है कि पिछले छह-सात दशकों में शिक्षा का प्रतिशत न बढ़ा हो, जन जागरूकता न बढ़ी हो अथवा राष्ट्रस्तरीय जनसंख्या नियंत्रण हेतु प्रयास न किए गए हों। उक्त तीनों तथ्यों के अतिरिक्त हमारी सीमित सोच भी जनसंख्या नियंत्रण अभियान को प्रभावित करती है। हमने कभी सकारात्मकता पूर्वक सोचने का प्रयास ही नहीं किया कि हम जनसंख्या नियंत्रण में स्वयं कितना योगदान कर सकते हैं। हाँ, हमारा मस्तिष्क यह अवश्य सोच लेता है कि हमारी एक संतान के अधिक होने से क्या फर्क पड़ेगा। तब यह बताना आवश्यक है कि विश्व जनसंख्या के यदि एक अरब लोग भी इस सोच पर आगे बढ़ेंगे, तब वर्ष में एक अरब जनसंख्या तो वैसे ही बढ़ जाएगी। अब आप ही बताएँ कि यह सोच विश्वस्तर पर कितनी भारी पड़ेगी और देखा जाए तो भारी पड़ भी रही है।  वह दिन दूर नहीं है, जब हमारा देश पहले क्रम पर आकर जनसंख्या वृद्धि का सबसे अधिक खामियाजा भुगतने वाला राष्ट्र बन जाएगा।

अकेली शिक्षा अथवा शासन जनसामान्य को कितना या किस हद तक सचेत करेगा। आज पृथ्वी पर संसाधन हैं। प्रकृति भी साथ दे पा रही है, लेकिन प्रकृति कब तक साथ देगी? धीरे-धीरे हवा, पानी और हरित भूमि भी कम होती जाएगी। जनसंख्या के दबाव से माँगें बढ़ती ही जा रही हैं। माँगों की तुलना में अन्य जरूरतें कम पड़ेंगी ही। बड़े-बड़े कार्यक्रम व सरकारों की सक्रियता से भी आशानुरूप परिणाम सामने नहीं आ पा रहे हैं। हम जनसंख्या नियंत्रण से संबंधित हर वर्ष नई-नई थीम पर केंद्रित ‘विश्व जनसंख्या दिवस’ मनाते चले आ रहे हैं और उन सब पर कार्य भी किये जा रहे हैं, लेकिन संतोषजनक परिणाम न आने के कारण चिंतित होना स्वाभाविक है।

अन्य राष्ट्रीय-पर्व व त्यौहारों के समान ही ‘विश्व जनसंख्या दिवस’ मनाने की परिपाटी बन गई है। 11 जुलाई अर्थात विश्व जनसंख्या दिवस के पूर्व कुछ तैयारियाँ प्रारंभ होती हैं। कुछ घोषणाएँ, कुछ भाषण, कुछ संदेश, कुछ बड़े-बड़े आलेखों और उनकी रिपोर्ट का मीडिया में प्रकाशन-प्रसारण हो जाता है। इस दिवस को मनाने का जैसे बस यही उद्देश्य बचा हो। किसी भी स्तर का कार्यक्रम क्यों न हो, उसका प्रमुख विषय यह कभी नहीं देखा गया कि जनसंख्या विषयक पिछले पूरे वर्ष में कितनी प्रगति हुई है। आज विज्ञप्तियों, विशिष्ट लोगों के संदेशों के अतिरिक्त और होता भी क्या है। आज तक कितने बार आपके दरवाजे पर कोई जनप्रतिनिधि, किसी सामाजिक संस्था के सदस्य अथवा किसी सरकारी अमले ने आकर इस समस्या के निराकरण हेतु आपसे कभी पूछा है या कोई समझाइश दी है? क्या आपने…., जी हाँ आपने कभी इस समस्या पर किसी से गंभीरता पूर्वक चर्चा की । आप किसी एक को भी जनसंख्या नियंत्रण हेतु प्रेरित कर पाए हैं।

जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों से आज हम सभी अवगत हैं, मुझे नहीं लगता कि उन बातों का यहाँ उल्लेख अनिवार्य है और न ही यहाँ बहुत बड़ी-बड़ी बातें लिखने का कोई विशेष लाभ है। महत्त्वपूर्ण यह है कि जब तक हम सबसे छोटी इकाई से यह कार्य प्रारंभ नहीं करेंगे। युवा, वयस्क एवं बुजुर्ग सभी इस सर्वहिताय जनसंख्या नियंत्रण अभियान को स्वहिताय नहीं मानेंगे, तब तक जनसंख्या वृद्धि दर के संतोषजनक परिणाम मिलना कठिन ही लगता है।

अंधविश्वास, अशिक्षा, जितने लोग होंगे उतनी अधिक कमाई होगी, जितना बड़ा परिवार उतनी बड़ी दमदारी, हमारे अकेले आगे आने से क्या होगा? ऐसे सभी बार-बार दोहराने वाले जुमलों को परे रखकर हम स्वयं से ही शुरुआत करें और जनसंख्या नियंत्रण में सहभागी बनना सुनिश्चित करें। जमीनी तौर पर यह सभी जानते हैं कि परिवार के सदस्य बढ़ेंगे तो संपत्ति तथा घर के भी अधिक भाग होंगे। चार-छह संतानों के बजाय एक संतान पर अधिक तथा समुचित ध्यान दिया जा सकता है। सीमित संसाधनों के चलते अधिक लोगों को नौकरी नहीं दी जा सकती तब ऐसे में बेरोजगारी तो बढ़ेगी ही। उच्च अर्थव्यवस्था के न होने से सबका खुश रहना और सभी आवश्यकताएँ पूर्ण करना संभव नहीं है। इन सभी बातों का उल्लेख प्राथमिक शालाओं के पाठ्यक्रम से ही प्रारंभ होना चाहिए। मोहल्ला समिति, ग्राम पंचायत, पार्षद, विधायक, सांसद तक प्रत्येक को अपनी दिनचर्या में जनसंख्या नियंत्रण विषय को शामिल करना होगा। अपने कार्यक्रमों, अपने उद्बोधनों एवं शासकीय नीतियों में प्रमुखता से जनसंख्या नियंत्रण की बात कहना होगी। जब तक जनसामान्य एवं सरकार इस विकराल समस्या को प्राथमिकता नहीं देगी, सच मानिए सफलता की आशा करना निरर्थक है।चिंतन-मनन-अध्ययन एवं कार्य भी वृहदरूप में हुए हैं, इसलिए जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों का संपूर्ण ब्यौरा देना यहाँ कदापि उचित नहीं है, उचित है तो बस जनसंख्या नियंत्रण हेतु इस अभियान के सुपरिणाम हेतु स्वस्फूर्त रूप से अग्रसर होना और लोगों को अधिक से अधिक प्रेरित करना, ताकि हम यह कह सकें कि हमारे देश में जनसंख्या नियंत्रण अभियान के सुखद परिणाम सामने आने लगे हैं।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 70 ☆ साहित्य की चोरी और  पुरस्कार की भूख ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय आलेख साहित्य की चोरी और  पुरस्कार की भूख।  आलेख का शीर्षक ही साहित्यिक समाज में एक अक्षम्य अपराध / रोग को उजागर करता है। ऐसे विषय पर बेबाक रे रखने के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 70 ☆

☆ साहित्य की चोरी और  पुरस्कार की भूख ☆

जो सो रहा हो उसे जगाया जा सकता है, पर जो सोने का नाटक कर रहा हो उसे नहीं ।

अनेक लोगो को मैंने देखा सुना है जो बहुचर्चित रचनाओं विशेष रूप से कविता, शेर, गजलों को बेधड़क बिना मूल रचनाकार का उल्लेख किये उद्धृत करते हैं, कई दफा ऐसे जैसे वह उनकी रचना हो।

विलोम में कुछ लोग अपने कथन का प्रभाव जमाने के लिए सुप्रसिद्ध रचनाकार के नाम से उसे पोस्ट करते हैं। व्हाट्सएप, कम्प्यूटर ने यह बीमारी बधाई है, क्योंकि कट, कॉपी, पेस्ट और फारवर्ड की सुविधाएं हैं।

अनेक शातिराना लोगों को जो स्वयं अपने, अपनी पत्नी बच्चों के नाम से धड़ाधड़ लिखते दिखाई देते हैं उनके पास मौलिक चिंतन का वैचारिक अभाव होता है।  वे आगामी जयन्ती, पुण्यतिथि के कैलेंडर के अनुसार 4 दिनों पहले ही चुराये गये उधार के विचारों को,शब्द योजना बदलकर सम्प्रेषित करते हैं।  अखबार को भी सामयिक सामग्री चाहिए ही, सो वे छप भी जाते हैं, मांग कर, जुगाड़ से  पुरस्कार भी पा ही जाते हैं, ऐसे लोगो को  सुधारना मुश्किल है। कई दफा जल्दबाजी में ये सीधी चोरी कर लेते हैं व पकड़े जाते हैं। यह साहित्य के लिए दुखद है।

साफ सुथरा पुरस्कार सम्मान रचनाकार को आंतरिक ऊर्जा देता है। यह उसे साहित्य जगत में स्वीकार्यता देता है।

किंतु आदर्श स्थिति में ध्येय पुरस्कार नही लेखन होना चाहिए, पर आज समाज मे हर तरफ नैतिक पतन है, साहित्य में भी यह स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। ऐसे लोगो को  सुधारना मुश्किल काम है।

यू मैं तो यह मानता हूं कि ऐसी हरकतें सोशल मिडीया के इस समय मे छिपती नही है, और जब सब उजागर होता है तब सम्मानित व्यक्ति के प्रति श्रद्धा की जगह दया हास्य व वितृष्णा का भाव पनपने में देर नही लगती, अतः सही रस्ता ही पकड़ने की जरूरत है, सम्मान पाठकों के दिल मे लेखन की गुणवत्ता से ही बनता है।

सद विचार पंछी हैं उनका जितना विस्तार हो अच्छा है।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण-16- मेरा पुण्य तूने ले लिया……… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – मेरा पुण्य तूने ले लिया……… ”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 16 – मेरा पुण्य तूने ले लिया………

नोआखली में गांधीजी पैदल गांव-गांव घूम रहे थे । वह दुखियों के आंसू पोंछते थे । उनमें जीने की प्रेरणा पैदा करते थे । वह उनके मन से डर को निकाल देना चाहते थे । इसीलिए उस आग में स्वयं भी अकेले ही घूम रहे थे ।

वहाँ की पगडंडियां बड़ी संकरी थी । इतनी कि दो आदमी एक साथ नहीं चल सकते थे । इस पर वे गंदी भी बहुत थी । जगह-जगह थूक और मल पड़ा रहता था ।

यह देखकर गांधीजी बहुत दुखी होते, लेकिन फिर भी चलते रहते । एक दिन चलते-चलते वे रुके । सामने मैला पड़ा था । उन्होंने आसपास से सूखे पत्ते बटोरे और अपने हाथ से वह मैला साफ कर दिया ।

गांव के लोग चकित हो देखते रह गये । मनु कुछ पीछे थी । पास आकर उसने यह दृश्य देखा ।

क्रोध में भरकर बोली “बापूजी, आप मुझे क्यों शर्मिंदा करते हैं? आपने मुझसे क्यों नहीं कहा? अपने आप ही यह क्यों साफ किया?”

गांधीजी हँस कर बोले, “तू नहीं जानती । ऐसे काम करने में मुझे कितनी खुशी होती है । तुझसे कहने के बजाय अपने-आप करने में कम तकलीफ है ।”

मनु ने कहा “मगर गाँव के लोग तो देख रहे हैं ।”

गांधीजी बोले, “आज की इस बात से लोगों को शिक्षा मिलेगी । कल से मुझे इस तरह के गंदे रास्ते साफ न करने पड़ेंगे । यह कोई छोटा काम नहीं है”

मनु ने कहा, “मान लीजिये गांव वाले कल तो रास्ता साफ कर देंगे । फिर न करें तब?”

गांधीजी ने तुरंत उत्तर दिया,”तब मैं तुझको देखने के लिए भेजूंगा । अगर राह इसी तरह गंदी मिली तो फिर मैं साफ करने के लिए आऊंगा ।”

दूसरे दिन उन्होंने सचमुच मनु को देखने के लिए भेजा । रास्ता उसी तरह गंदा था, लेकिन मनु गांधीजी से कहने के लिए नहीं लौटी। स्वयं उसे साफ करने लगी । यह देखकर गांव वाले लज्जित हुए और वे भी उसके साथ सफाई करने लगे । उन्होंने वचन दिया कि आज से वे ये रास्ते अपने-आप साफ कर लेंगे ।

लौटकर मनु ने जब यह कहानी गांधीजी को सुनाई तो वे बोले, “अरे, तो मेरा पुण्य तूने ले लिया! यह रास्ता तो मुझे साफ करना था । खैर, दो काम हो गये. एक तो सफाई रहेगी, दूसरे अगर लोग वचन पालेंगे तो उनको सच्चाई का सबक मिल जायेगा । ”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 69 ☆ डा. ज्ञान चतुर्वेदी… व्यंग्य से मन की सर्जरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ ज्ञान चतुर्वेदी जी के प्रति उनकी मनोभावनाओं को प्रदर्शित करता हुआ एक आलेख  डा. ज्ञान चतुर्वेदी… व्यंग्य से मन की सर्जरी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 69 ☆

☆ डा. ज्ञान चतुर्वेदी… व्यंग्य से मन की सर्जरी ☆

दशमलव ६६ सेकेंड में गूगल ने डा ज्ञान चतुर्वेदी सर्च करने पर दो लाख से ज्यादा परिणाम वेब पेजेज, यू ट्यूब, फेसबुक पर ढूँढ निकाले. वे युग के सतत सक्रिय चुनिंदा व्यग्यकारों में से हैं, जो नई पीढ़ी के व्यंग्यकारो को मार्गदर्शन करते, उनका हाथ पकड़ रास्ता बतलाते दिखते हैं.

रचनाधर्मिता मन की अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर सकने की दक्षता होती है. कविता, लेख, कहानी, उपन्यास या व्यंग्य कोई भी विधा अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकती है. पिछली शताब्दि के उत्तरार्ध तक अधिकांश  साहित्य लेखन शिक्षाविदों, विश्वविद्यालयों, पत्रकारिता, से जुड़े लोगों तक सीमित था. किन्तु, पिछले कुछ दशको में डाक्टर्स, इंजीनियर्स, बैंक कर्मी, पोलिस कर्मी भी सफल उच्च स्तरीय लेखन में सुप्रतिष्ठित हुये हैं.

डा ज्ञान चतुर्वेदी व्यवसायिक योग्यता में एक अत्यंत सफल चिकित्सक हैं. उन्हें उनकी व्यंग्य लेखन की उपलब्धियों के लिये पद्मश्री का सम्मान प्रदान किया गया है. यह हम व्यंग्य कर्मियों के लिये एक लैंडमार्क है. मैंने अपने छात्र जीवन से ही जिन कुछ चुनिंदा व्यंग्यकारो को पढ़ा है उनमें  डा ज्ञान चतुर्वेदी का नाम प्रमुखता से शामिल है, अनेक बार किसी बुक स्टाल पर पत्रिकाओ के पन्ने अलटते पलटते केवल उनका व्यंग्य देखकर ही मैंने पत्रिका खरीदी है.  एक चिकित्सक होते हुये भी उनके व्यंग्य लेखक के रूप में सुप्रतिष्ठित होने से मैं भीतर तक प्रभावित हूँ. यही कारण रहा कि मैंने साग्रह उनसे अपने नये व्यंग्य संग्रह “समस्या का पंजीकरण” की भूमिका लिखवाई है.

वे अपनी कलम से लोगों के मन की सर्जरी में निष्णात हैं. व्यंग्य उपन्यासों के माध्यम से व्यंग्य साहित्य में उन्होंने उनकी विशिष्ट जगह बनाई है.

अपनी अशेष मंगलकामनायें उनके उज्वल भविष्य के लिये अभिव्यक्त करता हूं. डा ज्ञान चतुर्वेदी की हिन्दी व्यंग्य  यात्रा में यह विशेषांक एक छोटा सा पड़ाव ही है, वे उस यात्रा के राही हैं,  जिनसे व्यंग्य जगत के हम सह यात्रियो को अभी बहुत कुछ पाने की आकाँक्षा है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ शिक्षक दिवस विशेष – गांधीजी और शिक्षक तथा  गुरु ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “शिक्षक दिवस विशेष – गांधीजी और शिक्षक तथा  गुरु”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ शिक्षक दिवस विशेष – गांधीजी और शिक्षक तथा  गुरु

शिक्षकों के प्रति गांधीजी के मन में बालकाल से ही बड़ा सम्मान था।  अपने स्कूली जीवन की  तीन घटनाओं का उल्लेख गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में किया हैI वे लिखते हैं कि ‘ मुझे याद है कि एक बार मुझे मार खानी पडी थी।  मार का दुःख नहीं था, पर मैं दंड का पात्र माना गया, इसका मुझे बड़ा दुःख रहाI मैं खूब रोया। ’ पहली या दुसरी कक्षा में घटे इस प्रसंग के अलावा एक अन्य प्रसंग जो सातवीं कक्षा से सम्बंधित है को याद करते हुए गांधीजी ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि ‘उस समय दोराबजी एदलजी गीमी हेड मास्टर थे।  वे विद्यार्थी  प्रेमी थे , क्योंकि वे नियमों का पालन करवाते थे , व्यवस्थित रीति से काम करते और लेते और अच्छी तरह पढ़ाते थे।  उन्होंने उच्च कक्षा के विद्यार्थियों के लिए कसरत-क्रिकेट अनिवार्य कर दिए थे।  मुझे इनसे अरुचि थी।  इनके अनिवार्य बनने से पहले मैं कभी कसरत, क्रिकेट या फुटबाल में गया ही न था।  न जाने मेरा शर्मीला स्वभाव ही एक मात्र कारण था।  अब देखता हूँ कि वह अरुचि मेरी भूल थी। ’ अपनी इस भूल को स्वीकारते हुए गांधीजी ने शिक्षा का अर्थ विद्याभ्यास के साथ व्यायाम भी बताया और माना कि मानसिक व शारीरिक शिक्षण का शिक्षा में बराबरी का स्थान होना चाहिए।  छठवी कक्षा में घटित एक तीसरी घटना के बारे में गांधीजी ने लिखा है कि ‘संस्कृत-शिक्षक बहुत कड़े मिजाज के थे।  विद्यार्थियों को अधिक सिखाने का लोभ रखते थे।  मैं भी फारसी आसान होने की बात सुनकर ललचाया और एक दिन फारसी वर्ग में जाकर बैठ गया।  संस्कृत-शिक्षक को दुःख हुआ।  उन्होंने मुझे बुलाया और कहा : “ यह तो समझ कि तू किनका लड़का है।  क्या तू अपने धर्म की भाषा नहीं सीखेगा? तुझे जो कठनाई हो, सो मुझे बता।  मैं तो सब विद्यार्थियों को बढ़िया संस्कृत सिखाना चाहता हूँ।  आगे चलकर उसमे रस के घूँट पीने को मिलेंगे।  तुझे यों हारना नहीं चाहिए।  तू फिर से मेरे वर्ग में बैठ। ” मैं शिक्षक के प्रेम की अवगणना न कर सका।  आज मेरी आत्मा कृष्ण शंकर मास्टर का उपकार मानती है। ’ गांधीजी ने संस्कृत भाषा के उस स्कूली  ज्ञान के आधार पर ही संस्कृत साहित्य के ग्रंथों का अध्ययन अपनी विभिन्न जेल यात्राओं के दौरान किया।

स्कूल के शिक्षकों के अलावा गांधीजी ने आध्यात्मिक गुरुओं के सम्बन्ध में भी समय-समय पर अपने विचार रखे हैं।  वे अपने जीवनकाल में आदर्श गुरु की तलाश में रहे।  इस सम्बन्ध में वे कहते थे कि ‘ मैं तो ऐसे आदर्श गुरु की तलाश में हूँ जो देहधारी होने पर भी अविकारी है , जो विकारों से निर्लिप्त है ,  स्त्री पुरुष के भाव से मुक्त है और जो सत्य और अहिंसा का पूर्ण अवतार है।  और इसलिए न वह किसी से डरता है और न कोई दूसरा ही उससे डरता हैI

हम सबके जीवन में यही कुछ गुजरा है और स्कूली शिक्षा के अलावा हमारे जीविकोपार्जन के व्यवसायिक पेशे में अनेक शिक्षकों ने हमें ज्ञान दिया है, उचित सलाह व मार्गदर्शन प्रदान कर हमारे जीवन को सफ़ल बनाया है।  शिक्षक दिवस पर उन सबको नमन।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #61 ☆ शिक्षक दिवस विशेष – मनुष्य अशेष विद्यार्थी है ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच –  शिक्षक दिवस विशेष – मनुष्य अशेष विद्यार्थी है ☆

मनुष्य अशेष विद्यार्थी है। प्रति पल कुछ घट रहा है, प्रति पल मनुष्य बढ़ रहा है। घटने का मुग्ध करता विरोधाभास यह कि प्रति पल, पल भी घट रहा है।

हर पल के घटनाक्रम से मनुष्य कुछ ग्रहण कर रहा है। हर पल अनुभव में वृद्धि हो रही है, हर पल वृद्धत्व समृद्ध हो रहा है।

समृद्धि की इस यात्रा में प्रायः हर पथिक सन्मार्ग का संकेत कर सकने वाले मील के पत्थर को तलाशता है। इसे गुरु, शिक्षक, माँ, पिता, मार्गदर्शक, सखा, सखी कोई भी नाम दिया जा सकता है।

विशेष बात यह कि जैसे हर पिता किसी का पुत्र भी होता है, उसी तरह अनुयायी या शिष्य, मार्गदर्शक भी होता है। गुरु वह नहीं जो कहे कि बस मेरे दिखाये मार्ग पर चलो अपितु वह है जो तुम्हारे भीतर अपना मार्ग ढूँढ़ने की प्यास जगा सके। गुरु वह है जो तुम्हें ‘एक्सप्लोर’ कर सके, समृद्ध कर सके। गुरु वह है जो तुम्हारी क्षमताओं को सक्रिय और विकसित कर सके।

गुरु वह है जो तुम्हें एकल नहीं एकाकार की यात्रा कराये। एकाकार ऐसा कि पता ही न चले कि तुम गुरु के साथ यात्रा पर हो या तुम्हारे साथ गुरु यात्रा पर है। दोनों साथ तो चलें पर कोई किसी की उंगली न पकड़े।

यदि ऐसा गुरु तुम्हारे जीवन में है तो तुम धन्य हो। तुम्हारा मार्ग प्रशस्त है।

जिनकी गुरुता ने जीवन का मार्ग सुकर किया, उनको वंदन। जिन्होंने मेरी लघुता में गुरुता देखी, उन्हें नमन।

शुभं भवतु।

शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 60 ☆ महाभारत नहीं रामायण ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख महाभारत नहीं रामायण । इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 60 ☆

☆ महाभारत नहीं रामायण ☆

जब तक सहने की चरम सीमा रही, रामायण लिखी जाएगी। मांगा हक़ जो अपने हित में महाभारत हो जाएगी। जी! हां, यही सत्य है जीवन का, जो सदियों से धरोहर के रूप में सुरक्षित है। इसलिए जीवन में नारी को सहन करने की शिक्षा दी जाती है, क्योंकि मौन सर्वश्रेष्ठ निधि है। वैसे तो यह सबके लिए वरदान है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने मौन रहकर, चित्त को एकाग्र कर अपने अभीष्ट को प्राप्त किया है और जीव-जगत् व आत्मा-परमात्मा के रहस्य को जाना है। जब तक आप में सहन करने व त्याग करने का सामर्थ्य है; परिवार-जन व संसार के लोग आपको सहन करते हैं, अन्यथा जीवन से बे-दखल करने में पल-भर भी नहीं लगाते। विशेष रूप से नारी को तो बचपन से यही शिक्षा दी जाती है, ‘तुम्हें सहना है कहना नहीं’ और  वह धीरे-धीरे उसे जीवन जीने का मूल-मंत्र बना लेती है तथा पिता, पति व पुत्र के आश्रय में सदैव मौन रह कर अपना जीवन बसर करती है।

वास्तव में नारी धरा की भांति सहनशील है; गंगा की भांति निर्मल व निरंतर गतिशील है; पर्वत की भांति अटल है; पापियों के पाप धोती है, परंतु कभी उफ़् नहीं करती। इसी प्रकार नारी भी ता-उम्र सबके व्यंग्य-बाणों के असंख्य भीषण प्रहार व ज़ुल्म हंसते-हंसते सहन करती है… यहां तक कि वह कभी अपना पक्ष रखने का साहस भी नहीं जुटा पाती। वैसे तो पुरुष वर्ग द्वारा यह अधिकार नारी प्रदत्त ही नहीं है। सो! वह दोयम दर्जे की प्राणी समझी जाती है… एक हाड़-मांस की जीवित प्रतिमा, जिसे दु:ख-दर्द होता ही नहीं, क्योंकि उसका मान-सम्मान नहीं होता। इसलिए आजीवन कठपुतली की भांति दूसरों के इशारों पर नाचना उसकी नियति बन जाती है। वह आजीवन समस्त दायित्व-वहन करती है; उसी आबोहवा में स्वयं को ढाल लेती है; दिन-भर घर को सजाती-संवारती व व्यवस्थित करती है और वह उस अहाते में सुरक्षित रहती है। बच्चों को जन्म देकर ब्रह्मा व उनकी परवरिश कर विष्णु का दायित्व निभाती है और उसके एवज़ में उसे वहां रहने का अधिकार प्राप्त होता है। यदि वह संतान को जन्म देने में असमर्थ रहती है, तो बांझ कहलाती है और उससे उस घर में रहने का अधिकार भी छीन लिया जाता है, क्योंकि वह वंश-वृद्धि नहीं कर पाती। परिणाम-स्वरूप पति के पुनः विवाह की तैयारियां प्रारंभ की जाती हैं। इस स्थिति में साक्षर-निरक्षर का भेद नहीं किया जाता है… भले ही वह अपने पति से अधिक धन कमा रही हो; अपने सभी दायित्वों का सहर्ष वहन कर रही हो। मुझे स्मरण हो रही है ऐसी ही एक घटना…जहां एक शिक्षित नौकरीशुदा महिला को केवल बांझ कह कर ही तिरस्कृत नहीं किया गया; उसे पति के विवाह में जाने को भी विवश कर लिया गया, ताकि उसके मांग में सिंदूर व गले में मंगलसूत्र धारण करने का अधिकार कायम रह सके और उसे उस छत के नीचे रहने का अधिकार प्राप्त हो सके। परंतु एक अंतराल के पश्चात् घर में बच्चों की किलकारियां गूंजने के पश्चात् घर-आंगन महक उठा और वह खुशी से अपना पूरा वेतन घर में खर्च करती रही। धीरे-धीरे उसकी उपस्थिति नव-ब्याहता को खलने लगी और वह उस घर को छोड़ने को मजबूर हो गयी। परंतु फिर भी वह मांग में सिंदूर धारण कर पतिव्रता नारी होने का स्वांग रचती रही। है न यह अन्याय….परंतु उस पीड़िता के पक्ष में कोई आवाज़ नहीं उठाता।

सो! जब तक सहनशक्ति है, आपकी प्रशंसा होगी और रामायण लिखी जाएगी। परंतु जब आपने अपने हित में हक़ मांग लिया, तो महाभारत हो जाएगी। वैसे भी अपने अधिकारों की मांग करना संघर्ष को आह्वान करना है और संघर्ष से महाभारत हो जाता है और जीवन का कोई भी पक्ष इससे अछूता नहीं। राजनीति हो या धर्म, घर-परिवार हो या समाज, हर जगह इसका दबदबा कायम है। राजनीति तो सबसे बड़ा अखाड़ा है, परंतु आजकल तो सबसे अधिक झगड़े धर्म के नाम पर होते हैं। घर-परिवार में भी अब इसका हस्तक्षेप है। पिता-पुत्र, भाई-भाई, पति- पत्नी के जीवन से स्नेह-सौहार्द इस प्रकार नदारद है, जैसे चील के घोसले से मांस। जहां तक पति-पत्नी का संबंध है, उनमें समन्वय व सामंजस्य है ही नहीं… वे दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी के रूप में अपना क़िरदार निभाते हैं, जिसका मूल कारण है अहं, जो मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। इसी कारण आजकल वे एक-दूसरे के अस्तित्व को भी नहीं स्वीकारते, जिसका परिणाम अलगाव व तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष है। वैसे भी आजकल संयुक्त परिवार-व्यवस्था का स्थान एकल परिवार व्यवस्था ने ले लिया है, परंतु फिर भी पति-पत्नी आपस में प्रसन्नता से अपना जीवन बसर नहीं करते और एक-दूसरे से निज़ात पाने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करते। वैसे भी आजकल ‘तू नहीं, और सही’ का बोलबाला है। लोग संबंधों को वस्त्रों की भांति बदलने लगे हैं, जिसका मूल कारण लिव-इन व प्रेम-विवाह है। अक्सर बच्चे भावावेश में संबंध तो स्थापित कर लेते हैं और चंद दिन साथ रहने के पश्चात् एक-दूसरे की कमियां उजागर होने लगती हैं, उन्हें वे स्वीकार नहीं पाते और परिणाम होता है तलाक़, जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। वैसे आजकल सिंगल पेरेंट का प्रचलन भी बहुत बढ़ गया है। सो! इन विषम परिस्थितियों में बच्चों का सर्वांगीण विकास कैसे संभव है? एकांत की त्रासदी झेलते बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो जाता है। वे असामान्य हो जाते हैं; सहज नहीं रह पाते और वही सब दोहराते हुए अपना जीवन नरक-तुल्य बना लेते हैं।

ग़लत लोगों से अच्छी बातों की अपेक्षा कर हम आधे ग़मों को प्राप्त करते हैं और आधी मुसीबतें हम अच्छे लोगों में दोष ढूंढ कर प्राप्त करते हैं। ग़लत साथी का चुनाव करके हम अपने जीवन के सुख-चैन को दांव पर लगा देते हैं और दोष-दर्शन हमारा स्वभाव बन जाता है, जिसके परिणाम-स्वरूप हमारा जीवन जहन्नुम बन जाता है। आजकल लोग भाग्य व नियति पर कहां विश्वास करते हैं? वे तो स्वयं को भाग्य- विधाता समझते हैं और यही सोचते हैं कि उनसे अधिक बुद्धिमान संसार में कोई दूसरा है ही नहीं। इस प्रकार वे अहंनिष्ठ प्राणी पूरे परिवार के जीवन भर की खुशियों को लील जाते हैं। संदेह व अविश्वास इसके मूल कारक होते हैं। सो! समाज में शांति कैसे व्याप्त रह सकती है? इसलिए बीते हुए कल को याद करके, उससे प्राप्त सबक को स्मरण रखना श्रेयस्कर है। मानव को अतीत का स्मरण कर अपने वर्तमान को दु:खमय नहीं बनाना चाहिए, बल्कि उससे सीख लेकर अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहिए। जीवन में सफलता पाने का मूल-मंत्र यह है कि ‘उस लम्हे को बुरा मत कहो, जो आपको ठोकर पहुंचाता है; बल्कि उस लम्हे की कद्र करो, क्योंकि वह आपको जीने का अंदाज़ सिखाता है। दूसरे शब्दों में अपनी हर ग़लती से सीख गहण करो, क्योंकि आपदाएं धैर्य की परीक्षा लेती हैं और तुम्हें मज़बूत बनाती हैं। सो! ग़लती को दोहराओ मत। जो मिला है, उन परिस्थितियों को उत्तम बनाने की चेष्टा करो, न कि भाग्य को कोसने की। हर रात के पश्चात् सूर्योदय अवश्य होता है और अमावस के पश्चात् पूनम का आगमन भी निश्चित है। जीवन में आशा का दामन कभी मत छोड़ो। गया वक्त लौटकर कभी नहीं आता। हर पल को सुंदर बनाने का प्रयास करो। जीवन में सहन करना सीखो; त्याग करना सीखो, क्योंकि अगली सांस लेने के लिए मानव को पहली सांस को त्यागना पड़ता है। संचय की प्रवृत्ति का त्याग करो। इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही इस संसार से जाना है। सदाशयता को अपनाओ और दूसरों के प्रति कर्तव्यनिष्ठता का भाव  रखो, क्योंकि कर्त्तव्य व अधिकार अन्योन्याश्रित हैं। अधिकार स्थापत्य अशांति-प्रदाता है; हृदय का सुक़ून छीन लेता है। उसे अपने जीवन से बाहर का रास्ता दिखा दो, ताकि हर घर में रामायण की रचना हो सके। पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष व संघर्ष को जीवन में पदार्पण मत करने दो, क्योंकि ये महाभारत के जनक हैं, प्रणेता हैं। सो! अलौकिक आनंद से अपना जीवन बसर करो।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 13 ☆ पावस में शिव आराधना तथा उत्तम स्वास्थ्य की सहज दिनचर्या ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  पावस में शिव आराधना तथा उत्तम स्वास्थ्य की सहज दिनचर्या)

☆ किसलय की कलम से # 13 ☆

☆ पावस में शिव आराधना तथा उत्तम स्वास्थ्य की सहज दिनचर्या

पावस को भारतीय ऋतु-चक्र में महत्त्वपूर्ण  माना गया है। पावस में ही श्रावण मास भी आता है, जो व्रत, पर्वों, उपवास तथा स्वास्थ्य के लियेअत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। श्रवण नक्षत्र के योग के कारण ही ‘श्रावण मास’ कहलाने वाले  इस मास और प्रकृति का आपस में अत्यंत मधुर संबंध है। पावस ग्रीष्म की तपन से व्याकुल जीवों को वर्षा और फुहारों से शीतलता प्रदान कर आत्मिक सुख देता है। आँखों के सामने सर्वत्र हरियाली व यत्रतत्र भरा हुआ जल दिखाई देता है। विशेषतः कृषकों के चेहरे हरे-भरे खेतों को देखकर खिल उठते हैं। प्रकृति नवयौवना सी सजने लगती है। पपीहे, मोर, चातक, कोयल व विभिन्न पक्षियों की मधुर आवाजें कानों में रस घोलती हैं। थोड़ा सा मौसम खुलते ही भँवरे व तितलियाँ  सबकी आँखों को अनोखा सुख पहुँचाती हैं। हमारे देश में सावन की झड़ी तथा वर्षा की फुहारें जनमानस में विशेष स्थान रखती हैं। जल की उपलब्धता, फसलों की पैदावार व प्राकृतिक हरियाली भी इसी वर्षा पर निर्भर करती है।

पावस  व्रत-पर्वों का समय होता है। हरियाली तीज, रक्षाबंधन, नागपंचमी व शिव को समर्पित श्रावण के सभी सोमवार, हसलषष्ठी, संतान सप्तमी आदि अनेक त्यौहार पावस को हर्षोल्लास से युक्त तथा भक्तिमय बना देते हैं। भगवान विष्णु के देवशयनी एकादशी से योगमुद्रा में जाने के पश्चात भगवान शिव ही सृष्टि के पालनकर्ता बन जाते हैं। यही कारण है कि श्रावण में शिव भगवान की सर्वाधिक भक्ति व आराधना की जाती है। इन्हीं दिनों देवी सती ने अपना शरीर त्यागने से पूर्व हर जन्म में शिव जी को ही पति के रूप में पाने का प्रण लिया था। समुद्र-मंथन से निकले विष को भी श्रावण माह में ही शिव जी ग्रहण कर नीलकंठ के नाम से विख्यात हुए। विष की तपन और व्याकुलता कम करने के लिए उस समय सभी ऋषि-मुनियों व देवताओं ने शिवजी को जल अर्पित किया था।  तब से आज तक श्रावण में शिव जी को जलाभिषेक से शीतलता प्रदान कर प्रसन्न किया जाता है। कन्यायें योग्य वर के लिए व महिलायें अपने पति की मंगल कामना हेतु व्रत, उपवास व शिव आराधना करती हैं। वैसे भी शिव ध्वनि में ऐसी विराट शक्ति है कि जिसके प्रभाव से प्राणियों के दुख-संकट दूर हो जाते हैं। “शिवमस्तु सर्व जगताम्” अर्थात संपूर्ण विश्व का कल्याण हो। आशय यह है कि जब शिव का मूल ही कल्याण हो तब उनकी भक्ति-आराधना से मनुष्यों का कल्याण तो होना ही है। अतः सनातन धर्मावलंबियों के लिए देवों के देव महादेव अर्थात शिव जी विशेष महत्त्व रखते हैं। ऐसे विशिष्ट देव और भगवान राम के आराध्य शिवजी की पूजा तथा आराधना भी विशिष्ट तरह से ही की जाती है।

मंदिरों व देवस्थानों के अतिरिक्त पार्थिव शिवलिंग का भी विशेष महत्त्व हमारे ग्रंथों में वर्णित है। स्नान करने के उपरांत इष्ट का स्मरण करते हुए गंगाजल अथवा पवित्र जल, भस्म, गाय का गोबर, कोई एक अनाज, उपलब्ध फलों का रस, कनेर के पुष्प, मक्खन, गुड़ एवं स्वच्छ मिट्टी अथवा रेत सहित सभी को किसी बड़े पात्र में लेकर गूँथ लें। तत्पश्चात पवित्र किए गए नियत स्थान पर अक्षत रखकर शिवलिंग का निर्माण करें। अभिषेक हेतु ताम्रपत्र के अतिरिक्त अन्य धातु के पात्रों का उपयोग करें, क्योंकि दुग्ध अथवा पंचामृत ताम्रपात्र में मदिरा तुल्य हो जाते हैं और हम अनजाने में शिव जी को विष का अर्पण कर देते हैं। इसी तरह शिव जी द्वारा श्रापित केतकी के फूल, तुलसी पत्र, हल्दी, सिंदूर आदि शिवलिंग पर न चढ़ायें। दुग्ध, शहद, दही, जल से शिवलिंग का अभिषेक करें। बिल्व पत्रों पर चंदन से ‘ॐ नमः शिवाय’ लिखकर शिवलिंग पर चढ़ायें। शिव जी भोले भंडारी हैं। आप के पास पूजन हेतु जो भी सामग्री उपलब्ध उनका ही उपयोग करें, शेष हेतु अपने भाव निवेदित करने से भी वही फल प्राप्त होता है। अतः जो भी उपलब्ध हो- दूर्वा, हरसिंगार, जुही, कनेर, बेला, चमेली, अलसी के फूल, शमी के पत्ते, बेलपत्र, केसर, चंदन, इत्र, मिश्री, ऋतुफल, चंदन, अबीर, भभूती, गुलाल, ऋतुफल, भाँग, धतूरा, अकौआ, श्वेत मिष्ठान, धूप, दीप, हवन, आरती के साथ पूजन संपन्न करें। पूजन के उपरांत चावल, तिल जौ, गेहूँ, चना आदि गरीबों में बाँटना चाहिए। ऐसा भी कहा गया है कि पारद शिवलिंग की पूजा से समृद्धि व धन-धान्य प्राप्त होता है। काँसे के पात्र में भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिये। शरीर पर तेल न लगायें। दिन में शयन न करें। नंदी (बैल) को हरी घास या कुछ न कुछ अवश्य खिलायें। श्रावण में व्रत न रखने वाले प्राणी स्नानपूर्व कुछ ग्रहण न करें और न ही तामसी भोजन करें। आटे की गोलियाँ मछलियों को खिलाना चाहिए। हरे पेडों को न काटें। हमारे शिव जी इतने भोले हैं कि शिवमूर्ति अथवा शिवलिंग के अभाव में भक्तजन अपने अंगूठे को भी शिवलिंग मानकर उनका स्मरण कर सकते हैं, इसीलिये  तो कहा गया है कि ईश्वर भाव के भूखे होते हैं।

भगवान शिव का अभिषेक जल से करने पर ताप-ज्वर, शहद चढ़ाने से क्षय रोग व गौ-दुग्ध से शारीरिक क्षीणता समाप्त होती है। पंचाक्षरी मंत्र ‘ॐ नमः शिवाय’ के जाप से मानसिक शांति प्राप्त होती है।

वैज्ञानिक दृष्टि से श्रावण मास सहित पूरे पावस में उपवास रखने से पाचन संस्थान ठीक से कार्य करता है। स्वच्छता, संतुलित भोजन, सुपाच्य फलाहार, धूप, दीप, हवन, आराधना, ध्यान, जाप आदि निश्चित रूप से शांति व स्वास्थ्यवर्धक होते हैं। व्रत, शिव आराधना, परोपकार व सात्त्विक दिनचर्या जहाँ तनाव एवं रक्तचाप बढ़ने नहीं देती वहीं मानव कठिन परिस्थितियों में विचलित भी नहीं होता। ऐसा करने पर प्राणी स्वयं से मौसमी बीमारियाँ दूर रखते हुए नीरोग रह सकता है, क्योंकि अब यह वैज्ञानिक तौर पर भी सिद्ध हो चुका है कि कुछ मंत्रों के जाप, शंख ध्वनि, तुलसी, पंचामृत, पंचगव्य, हवन, धूप आदि हानिकारक जीवाणुओं और विषाणुओं को नष्टकर हमें अनेक बीमारियों से सुरक्षित रखने में सक्षम हैं।

पावस में प्राकृतिक सौंदर्य बढ़ जाता है। धरा को जलवृष्टि से संतृप्ति मिलती है। पावस प्राणियों में सद्भावना का गुण विकसित करता है। पवित्रता, स्वच्छता तथा संयमित खानपान हमें बीमारियों से बचाते हैं।  प्राणियों द्वारा किये जाने वाले व्रत, उपवास और शिव की पूजा-आराधना का विधान संपूर्ण विश्व के कल्याण हेतु ही बना है। यही पावस के श्रावण मास में शिव आराधना का उद्देश्य तथा उत्तम स्वास्थ्य की सहज दिनचर्या भी है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

दिनांक: 22 जुलाई 2020

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
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ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 61 – जापानी विधा ‘हाइबन’ ☆ एक परिचय ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। 

आज प्रस्तुत है ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के विशेष अनुरोध पर श्री ओमप्रकाश जी का आलेख  जापानी विधा ‘हाइबन’ – एक परिचय । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 61 ☆

☆ जापानी विधा ‘हाइबन’ – एक परिचय ☆

हाइबन एक जापानी विधा है। इसमें हाइकु के साथ साहित्य की अन्य विधा का गठजोड़ होता है। पहले साहित्य की अन्य विधा को लिखा जाता है। इसके अंत में एक हाइकू होता है। इसके संयुक्त रुप को हाइबन कहते हैं। संक्षेप में कहें तो किसी भी विधा में प्रकृति की व्याख्या अथवा रचना के बाद या रोचक विवरण के बाद अंत में एक हाइकू की रचना की जाती है। इस रचना को  हाइबन कहते हैं।

इसके प्रथम भाग में डायरी, संस्मरण,लघुकथा, संक्षिप्त कहानी, यात्रा वृतांत के रोचक प्राकृतिक तथ्य, प्रेरक पूरक, गद्य की रोचक व संपूर्ण रचना अथवा प्रकृति का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जाता है। दूसरे भाग में 17 वर्णोँ  में अपनी बात नियमों के तहत रखनी होती है। इन 17 वर्णों में प्रथम पंक्ति में पांच वर्ण होते हैं । दूसरी पंक्ति में 7 वर्ण और तीसरी में फिर 5 वर्ण होते हैं। इस तरह हाइकु की रचना की जाती है। मसलन –

तोरणद्वार~

सेल्फी लेते फिसली

नवब्याहता।

हाइकु में दो वाक्य होते हैं। इसमें दो बिंब का समावेश होना अनिवार्य शर्त होती हैं। दोनों बिंब दर्शनीय हो । वह आंखों के सामने स्पष्ट नजर आए । अर्थात फोटो खींचने की तरह वह दृश्य आंखों के सामने स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जाए । इसका सीधा मतलब यही है।

हाइकु के दोनों वाक्य स्वतंत्र होते हैं। प्रथम या अंतिम पांच वर्ण में क्रिया नहीं होनी चाहिए। किसी प्राकृतिक चीजों का वर्णन इसकी अनिवार्य शर्त है। जिससे उसका बिंब आंखों के सामने दृष्टिगोचर हो जाए। मुँह से आह और वाह निकल जाएं।

दूसरे भाग में 12 वर्णों में दूसरा बिंब खींचा जाता है। यह प्रथम व द्वितीय अथवा द्वितीय व तृतीय पंक्ति हो सकती हैं। यह पूरा एक वाक्य होता है । इस तरह हाइकू  17 वर्गों में रची गई एक रोचक काव्य रचना होती है। इसमें नियमों के तहत एक सुंदरतायुक्त, संक्षिप्त, बिंबयुक्त काव्य रचना रची जाती है।

एक तरह से यह 17 वर्णों की सबसे छोटी काव्य रचना है। इसमें अपनी बात प्राकृतिक तत्वों के अंतर्गत रखना होती है । इस कारण इसमें कल्पना का कोई स्थान नहीं होता है। आप तुलना नहीं कर सकते हैं । इसमें कोई साधारण वाक्य नहीं होना चाहिए । इस कारण इसमें धार्मिकता का प्रयोग वर्जित होता है।

हाइबन में धार्मिक स्थानों का वर्णन उसके अन्य महत्व के आधार पर किया जा सकता है। इसके अंतर्गत वास्तुकला की बारीकी, उसकी पुरातात्विक महत्व की दृष्टि से दर्शनीय कला, उस की मोहकता  और वस्तुकला संबंधित दर्शनीयता का चित्र खींच सकते हैं । मगर यहां आपको कोई कल्पना नहीं करनी है क्योंकि काव्य की तरह हाइकु में कल्पना करना वर्जित है।

इसमें किसी दृश्य यानी फोटो को शब्दों के माध्यम से पाठकों को सम्मुख 17 वर्णों में व्यक्त कर दिखाना होता है। वह भी सीमित वर्णों में दो चित्र वाले यानी बिंब को साकार करना होता है। इसमें किसी एक 5 वर्ण वाली पंक्ति में क्रिया के उपयोग की मनाई होती है।

हाइकु वर्तमान काल में लिखी जाने वाली काव्य रचना या कृति होती है ।इसके वाक्यों में वर्तमान काल का प्रयोग किया जाता है ।जो सम्मुख हो रहा है या दिख रहा है वही शब्दों में दिखाना पड़ता है । इस कारण इसमें भूतकाल और भविष्य काल की क्रिया की मनाही होती है।

विवरण इस तरह लिखना होता है कि वह दो दृश्य आंखों के सामने उपस्थित हो जाए । इसमें भी दोनों दृश्य में कार्य कारण का संबंध न हो। दोनों दृश्य अलग-अलग हो।मसलन-चूहा भाग रहा है और सांप पीछे आ रहा है। जैसे दो दृश्य आप नहीं दिखा सकते हैं। क्योंकि इसमें कार्य और कारण का संबंध उपस्थित होता है।

एक दृश्य दूसरा दृश्य से पूरी तरह से मुक्त होना चाहिए। दोनों दृश्य एक साथ आंखों के सामने दृष्टिगत हो जाए। इन बातों का विशेष ध्यान रखा जाता है ।उनमें कार्य फल का सिद्धांत लागू नहीं होना चाहिए।

इसके अलावा हाइकू की रचना करने में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना पड़ता है। इसमें प्रकृति का मानवीकरण नहीं किया जा सकता है। दो वाक्य स्वतंत्र होते हैं। इस रचना में शब्दों का दोहराव वर्जित होता है। इस को धर्म विशेष व्यक्ति विशेष के वर्णन से मुक्त रखा गया है। मगर विरोधीभाषी वाक्य लिखे जा सकते हैं। तुकबंदी का प्रयोग पूर्णत वर्जित होता है।

यह विधा पूर्णता प्रकृतिमूलक है। इसी कारण इसमें प्राकृतिक दृश्यों का होना अनिवार्य है ।दूसरे वाक्य में आप अन्य स्पष्ट प्रतिबिंब दर्शा सकते हैं। यही हाइकु की संक्षिप्त विशेषता होती है।

हाइकु लेखन विधा में दो मत प्रचलित है । एक हाइकू को  5,7,5 वर्ण की तुकान्त और सौंदर्ययुक्त भावनात्मक रचना मानते हैं। जिसमें भरपुर कल्पना, मानवीकरण और तुकबंदी के साथसाथ मनोदशा का सुन्दर वर्णन कर सकते हैं। इस काव्य की सब से छोटी रचना में अपनेमन के भावों को उंडैल देते हैं। मसलन- इस रचनाकार की एक रचना देखिए।

शक की सुई~

पंचर कर देती

रिश्तों की गाड़ी।

यह हाइकु के नियमों से मुक्त होकर लिखी गई काव्य रचना है। यानी इस रचना में दूसरे मत वाले हाइकु को प्रतिनिधित्व मिलता है। इस हाइकु में हाइकु  की तरह कोई प्राकृतिक दृश्य नहीं है। केवल 5, 7, 5 के वर्णों में लिखी गई रचना है। मगर भाव का सुंदर समन्वय लिए हुए हैं । यह रचना कई मंचों पर सराही गई है।

मगर हाइकु के उपरोक्त नियम नियमानुसार नहीं है। इसमें निम्नानुसार दो दृश्य नहीं है । केवल भाव का सुंदर समन्वय है। सुनने में भावोक्ति भरी बेहतरीन रचना है।

हाइकु में दो वाक्यों के बीच विभेदक चिह्न का प्रयोग किया जाता है। इसे अंग्रेजी में कटमार्क कहते हैं। इससे दो वाक्यों को अलग-अलग दर्शाया जाता है । इसे हम दो वाक्यों का विभाजक चिह्न कह सकते हैं।

इस तरह हाइबन में जिस बिंब या दृश्य की प्रथम भाग में रचना करते हैं उसे दूसरे भाग में हाइकू के रुप में लिख कर दृश्य रुप में साकार करते हैं। अंत में हाइकू नियमानुसार हाइकू विधा में लिखा जाता है। हाइबन के प्रथम भाग में कोई व्याख्या, रोचक वर्णन, लोककथा, लघुकथा, प्रेरक प्रसंग, दृश्य या कोई विवरण होता है । उसके बाद अंत में हाइकु की रचना की जाती है। इस संपूर्ण रचना को हाइबन कहते हैं। हाइबन लिखने में आपको पद्य और गद्य लिखने में माहिर होना पड़ता है। तभी यह प्रभावी बन पाता है।

इस रचनाकार का एक हाइबन देखकर आप इसे अच्छी तरह समझ सकते हैं । इस हाइबन का शीर्षक है- नभ की छवि । इसके द्वारा आप हाइबन को और स्पष्ट रूप से समझ पाएंगे।

हाइबन—नभ में छवि

आठ वर्षीय समृद्धि बादलों को उमड़तीघुमड़ती आकृति को देखकर बोली, ” दादाजी ! वह देखो । कुहू और पीहू।” और उसने बादलों की ओर इशारा कर दिया।

बादलों में विभिन्न आकृतियां बन बिगड़ रही थी, ” हां बेटा ! बादल है ।” दादाजी ने कहा तो वह बोली, ” नहीं दादू , वह दादी है।” उसने दूसरी आकृति की ओर इशारा किया, ”  वह पानी लाकर यहां पर बरसाएगी।”

” अच्छा !”

” हां दादाजी, ”  कहकर वह बादलों  को निहारने लगी।

नभ में छवि~

दादाजी को दिखाए

दादी का फोटो।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

01-09-2020

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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