हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 31 ☆ खामोशी और आबरू ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “खामोशी और आबरू”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख  हमें  साधारण मानवीय  व्यवहार से रूबरू कराता है।  इस आलेख का कथन “परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए खामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं” ही इस आलेख का सार है। डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 31☆

☆ खामोशी और आबरू

‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते, कभी समझा नहीं पाते।’ शब्द ब्रह्म है, शब्द सर्व-व्यापक है, सृष्टि का मूलाधार व नियंता है और समस्त संसार का दारोमदार उस पर है। सृष्टि में ओंम शब्द सर्वव्याप्त है, जो अजर, अमर व अविनाशी है तथा कष्ट में व्यक्ति के मुख में दो ही शब्द निकलते हैं… ओंम तथा मां।

परमात्मा ने शिशु की उत्पत्ति व संरक्षण का दायित्व मां को सौंपा है। वह नौ माह तक भ्रूण रूप में गर्भ में पल रहे शिशु का अपने लहू से उसका सिंचन व भरण-पोषण करती है और यह करिश्मा प्रभु का है। जन्म के पश्चात् उसके हृदय से पहला शब्द ओंम व मां ही प्रस्फुटित होता है। मां के संरक्षण में वह पलता- बढ़ता है और युवा होने पर वह उसके लिए पुत्रवधू ले आती है, ताकि वे भी सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान दे सकें। घर में गूंजती बच्चों की किलकारियां सुनने को आतुर मां… उसका बचपन देखने की बलवती लालसा.. उसे हर हाल में, अपने आत्मजों के साथ रहने को विवश करती है और वह खामोश रहकर सब कुछ सहन करती रहती है ताकि हृदय में खटास उत्पन्न न हो…दिलों में कटुता के कारण दूरियां न बढ़ जाएं। वह माला के सभी मनकों को डोरी में पिरो कर रखना चाहती है, ताकि घर में सामंजस्य बना रहे। परंतु कई बार उसकी खामोशी उसके अंतर्मन को सालने लगती है।

वैसे यह समय की ज़बरदस्त मांग है। रिश्ते खामोशी का आभूषण धारण कर न केवल जीवित रहते हैं, बल्कि पनपते भी हैं। वे केवल उसकी शोभा ही नहीं बढ़ाते…उसके जीवनाधार हैं। लड़की जन्मोपरांत पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे में, विवाह के पश्चात् पति के घर की चारदीवारी में और पति के देहांत के बाद पुत्र के आशियाने में सुरक्षित समझी जाती है। परंतु आजकल ज़माने की हवा बदल गई है और वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सो! समय की नज़ाकत को देखते हुए बचपन से ही उसे खामोश रहने का पाठ पढ़ाया जाता है और हर बात पर टोका जाता है और प्रतिबंध लगाए जाते हैं…हिदायतें दी जाती हैं। अक्सर भाई के साथ प्रिय व्यवहार देख उसका हृदय क्रंदन कर उठता है और वह समानाधिकारों की मांग करती है… तो उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि वह कुल दीपक है और वह हमें मोक्ष द्वार पर ले जाएगा। तुझे तो यह घर छोड़ कर जाना है… सलीके से मर्यादा में रहना सीख। खामोशी तेरा श्रृंगार है और तुझे ससुराल में जाकर सबकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए खामोश रहना है… नज़रें झुका कर आज्ञा व आदेशों को वेद-वाक्य समझ उनकी अनुपालना करनी है।

इतनी हिदायतों के नीचे दबी वह नव-यौवना, पति के घर की चौखट लांघ, उस घर को अपना समझ, सजाने-संवारने में लग जाती है और सब की खुशियों के लिए, अपनी ख्वाहिशों को दफ़न कर, अपने मन को मार, पल-पल जीती, पल-पल मरती है, परंतु उफ़् नहीं करती है। परंतु जब परिवारजनों की नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरों की भांति उसकी पल-पल की गतिविधि को कैद करती हैं और उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है। परंतु फिर भी वह खामोश अर्थात् मौन रहती है, प्रतिकार नहीं करती तथा उचित-अनुचित व्यवहार, अवमानना व प्रताड़ना को सहन करती है। परंतु एक दिन उसके धैर्य का बांध टूट जाता है और उसका  मन विद्रोह कर उठता है… उसे अपने अस्तित्व का भान होता है। वह अपने अधिकारों की मांग करती है, परंतु कहां मिलते हैं उसे समानाधिकार …और वह असहाय दशा में तिलमिला कर रह जाती है। वह स्वयं को भंवर में फंसा हुआ पाती है, क्योंकि जिस घर को वह अपना समझती है, वह उसका होता ही नहीं। उसे किसी भी पल उस घर को त्यागने का फरमॉन सुनाया जा सकता है। अक्सर महिलाएं परिवार की आबरू बचाने के लिए खामोशी का बुरका अर्थात् आवरण ओढ़े रहती है, घुटती रहती हैं, क्योंकि विवाहोपरांत माता-पिता के घर के द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं। पति के घर में भी वह सदा पराई अथवा अजनबी समझी जाती है। अपने अस्तित्व को तलाशती, ओंठ बंद कर अमानवीय व्यवहार सहन करती, इस संसार को अलविदा कह चल देती है।

परंतु इक्कीसवीं सदी में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। वे बचपन से लड़कों की तरह मौज- मस्ती करना, वैसी वेशभूषा धारण कर क्लबों व पार्टियों से देर रात लौटना व अपने हर शौक़ को पूरा करना… उनके जीवन का मक़सद बन गया है और वे अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने लगी हैं। प्रतिबंधों में जीना उन्हें स्वीकार नहीं, क्योंकि वे पुरुष की भांति  हर क्षेत्र में दखलांदाज़ी कर सफलता प्रात कर रही हैं। अब वे सीता की भांति पति की अनुगामिनी बनकर जीना नहीं चाहतीं, न ही अग्नि-परीक्षा देना उन्हें मंज़ूर है। वे पति की जीवन-संगिनी बनने की हामी भरती हैं, क्योंकि कठपुतली की भांति नाचना उन्हें अभीष्ठ नहीं। वे अपने ढंग से जीना चाहती हैं।   मर्यादा के सीमाओं व दायरे में बंधना उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके भयावह परिणाम हमारे समक्ष हैं। वे रिश्तों की अहमियत वे नहीं स्वीकारतीं, न ही घर- परिवार के कायदे-कानून उनके पांवों में बेड़ियां डाल कर रख सकते हैं। वे तो सभी बंधनों को तोड़ अपने ढंग से स्वतंत्रता-पूर्वक जीना चाहती हैं। सो! बात- बात पर पति व परिवारजनों से उलझना, उन्हें व्यर्थ भला-बुरा कहना, प्रताड़ित व तिरस्कृत करना… उनके स्वभाव में शामिल हो जाता है, जिसके भयावह-भीषण परिणाम हम तलाक़ के रूप में देख रहे हैं।

संयुक्त परिवारों का प्रचलन तो गुज़रे ज़माने की बात हो गयी है। एकल परिवार व्यवस्था के चलते पति-पत्नी भी एक छत के नीचे भी अजनबी-सम रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व संबंधों-सरोकारों से बेखबर… अपने-अपने द्वीप में कैद। वैसे हम दो, हमारे हम दो का प्रचलन ‘हमारा एक’ तक आकर सिमट गया। परंतु अब तो बच्चों को जन्म देकर युवा पीढ़ी अपने दायित्वों का वहन करना नहीं चाहती, क्योंकि आजकल सब ‘तू नहीं, और सही’ में विश्वास करने लगे हैं और लिव-इन व मी-टू ने तो संस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ा कर रख दी हैं। इसलिए हर तीसरे घर की लड़की तलाक़शुदा दिखलाई पड़ती है। लड़के भी अब इसी सोच में विश्वास रखने लगे हैं और यही चाहते हैं। परंतु उन्हें न चाहते हुए भी घर की सुख-शांति व संतुलन बनाए रखने के लिए उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। अक्सर अंत में वे उसी कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जिसका हर रास्ता विनाश की ओर जाता है। सो! वे उस जीवन-संगिनी से निज़ात पाना बेहतर समझते हैं। अक्सर लड़के तो आजकल विवाह करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को सीखचों के पीछे देखने की कल्पना-मात्र से कांप उठते हैं। शायद! यह विद्रोह है, प्रतिक्रिया है उन ज़ुल्मों के विरुद्ध, जो महिलाएं वर्षों से सहन करती आ रही हैं।

शब्द व सोच दूरियां बढ़ा देते हैं। कई बार दूसरा व्यक्ति उसके मन के भावों को समझना ही नहीं चाहता और कई बार वह उसे समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है…दोनों स्थितियां भयावह हैं। इसलिए वह अपनी सोच, अपेक्षाओं व भावों को भी दरशा नहीं पाता। मन की दरारें इस क़दर बढ़ती चली जाती हैं और खाई के रूप में समक्ष आन खड़ी होती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा’ अर्थात् अजनबी बनकर जीने से बेहतर है, संबंध-विच्छेद कर, स्वतंत्रता व सुक़ून से अपनी ज़़िंदगी जीना। जब खामोशियां डसने लगें और हर पल प्रहार करने लगें, तो अवसाद की स्थिति में जीने से बेहतर है… उससे मुक्ति पा लेना।

जीवन की केवल समस्याएं नहीं, संभावनाओं को तलाशिये, क्योंकि हर समस्या का समाधान उपलब्ध होता है…उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते हैं। आवश्यकता है, शांत मन से उसे खोजने की… उन्हें अपनाने की और विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की। इसलिए ‘व्यक्ति जितना डरेगा, लोग उतना डरायेंगे’…सो! हिम्मत करो, सब सिर झुकायेंगे। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस धारणा-भावना को हृदय से निकाल बाहर फेंक देना चाहिए, क्योंकि आपाधापी के युग में किसी के पास किसी के लिए समय है ही कहां… सब अपने-अपने द्वीप में कैद हैं। सो! व्यर्थ की बातों में मत उलझें, क्योंकि दु:ख में व्यक्ति अकेला होता है और सुख में तो सब साथ खड़े दिखाई देते हैं। इसलिए दु:ख आपका सच्चा मित्र है, सदा साथ रहता है… सबक सिखलाता है और जब छोड़कर जाता है, तो सुख देकर जाता है। वास्तव में दोनों का एक स्थान पर इकट्ठे रहना असंभव है। इसलिए संसार में रहते हुए स्वयं को आत्म-सीमित अर्थात् आत्म-केंद्रित मत कीजिए, क्योंकि यहां अनंत संभावनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह मत सोचिए कि ‘मैं नहीं कर सकता।’ इसलिए उसे छोड़िये मत, पूर्ण प्रयास कीजिए और सभी विकल्प आज़माइए। परंतु यदि फिर भी सफलता न प्राप्त हो, तो उस असामान्य परिस्थिति मेंअपना रास्ता बदल लेना श्रयेस्कर है… ताकि आबरू सुरक्षित रह सके।

खामोशी मौन का दूसरा रूप है। मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया न देने से समस्याएं, बाधाओं के रूप में आपका रास्ता नहीं रोक सकतीं…स्वत: समाधान निकल आता है। सो! समस्या के उपस्थित होने पर, क्रोधित होकर त्वरित निर्णय मत लीजिए… चिंतन- मनन कीजिए… सभी पहलुओं पर सोच-विचार कीजिए, समाधान आपके सम्मुख होगा। यही है सर्वश्रेष्ठ जीने की कला।

परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए खामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं। खामोशी अथवा मौन रहना उर्वरक है, जो परिवार में प्रेम व रिश्तों को गहनता प्रदान करता है। दोनों स्थितियों में प्रतिदान का भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि यह तो हमें स्वार्थी बनाता है। सो! किसी से आशा व अपेक्षा मत रखिए क्योंकि अपेक्षा ही दु:खों का कारण है और मांगना मरने के समान है। देने में सुख व संतोष का भाव निहित है। इसलिए सहन- शक्ति बढ़ाइए। यह सर्वश्रेष्ठ दवा है और खामोशी की पक्षधर है, जिसके संरक्षण में संबंध फलते-फूलते व पूर्ण रूप से विकसित होते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मनुष्य देह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – मनुष्य देह  

(श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा नव वर्ष पर निमंत्रण (प्रबोधन और सत्संग) से साभार।)

(संजय उवाच की प्रस्तुति – तुम्हारे भीतर एक संत बसा है की निम्न पंक्तियाँ अपने आप में ही अद्भुत एवं सशक्त रचना है। )

 

तुम्हारे भीतर बसा है एक सज्जन और एक दुर्जन।

 84 लाख योनियों के बाद मिली मनुष्य देह में दुर्जन को मनमानी करते रहने दोगे या सज्जन को सक्रिय करोगे?

स्मरण रहे, दुर्जन की सक्रियता नहीं अपितु सज्जन की निष्क्रियता घातक होती है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

17 जनवरी 2020, दोपहर 3:52 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 12 – हिन्द स्वराज से  (गांधी जी और शिक्षा) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से  (गांधी जी और शिक्षा)”.)

☆ गांधी चर्चा # 12 – हिन्द स्वराज से  (गांधी जी और शिक्षा) ☆

शिक्षा – तालीम का अर्थ क्या है? अगर उसका अर्थ सिर्फ अक्षर-ज्ञान ही हो, तो वह एक साधन जैसी ही हुई। उसका अच्छा उपयोग भी हो सकता है और बुरा उपयोग भी हो सकता है। एक शस्त्र से चीर-फाड़ करके बीमार को अच्छा किया जा सकता है और वही शस्त्र किसी की जान लेने के के लिए भी काम में लाया जा सकता है। अक्षर-ज्ञान का भी ऐसा ही है। बहुत से लोग बुरा उपयोग करते हैं, यह तो हम देखते ही हैं । उसका अच्छा उपयोग प्रमाण में कम ही लोग करते हैं। यह बात अगर ठीक है तो इससे साबित होता है कि अक्षर-ज्ञान से दुनिया को फायदे के बदले नुकसान ही हुआ है।

शिक्षा का साधारण अर्थ अक्षर-ज्ञान ही होता है । लोगों को लिखना,पढ़ना और हिसाब करना सिखाना बुनियादी या प्राथमिक – प्रायमरी – शिक्षा कहलाती है । एक किसान ईमानदारी से खुद खेती करके रोटी कमाता है। उसे मामूली तौर पर दुनियावी ज्ञान है। अपने माँ-बाप के साथ कैसे बरतना, अपनी स्त्री के साथ कैसे बरतना, बच्चों से कैसे पेश आना, जिस देहात में वह बसा हुआ है वहां उसकी चाल ढाल कैसी होनी चाहिए, इस सबका उसे काफी ज्ञान है। वह नीति के नियम समझता है और उनका पालन करता है। लेकिन वह अपने दस्तखत करना नहीं जानता। इस आदमी को आप अक्षर-ज्ञान देकर क्या करना चाहते हैं? उसके सुख में आप कौन सी बढ़ती करेंगे? क्या उसकी झोपडी या उसकी हालत के बारे में आप उसके मन में असंतोष पैदा करना चाहते हैं? ऐसा करना हो तो भी उसे अक्षर-ज्ञान देने की जरूरत नहीं है। पश्चिम के असर के नीचे आकर हमने यह बात चलायी है कि लोगों को शिक्षा देनी चाहिए। लेकिन उसके बारे में हम आगे पीछे की बात सोचते ही नहीं। अब ऊँची शिक्षा को लें।  मैं भूगोल-विद्या सीखा,खगोल-विद्या सीखा (आकाश के तारों की विद्या), बीज गणित(एलजब्रा)  भी मुझे आ गया, रेखागणित (ज्यामेट्री)  का ज्ञान भी मैंने हासिल किया, भूगर्भ-विद्या को मैं पी गया। लेकिन उससे क्या? उससे मैंने अपना कौन सा भला किया? अपने आसपास के लोगों का क्या भला किया? किस मकसद से वह भला किया? किस मकसद से वह ज्ञान हासिल किया? उससे मुझे क्या फ़ायदा हुआ? एक अंग्रेज विद्वान (हक्सली) ने शिक्षा के बारे में यों कहा: “उस आदमी ने सच्ची शिक्षा पायी है, जिसके शरीर को ऐसी आदत डाली गयी है कि वह उसके बस में रहता है, जिसका शरीर चैन से और आसानी से सौंपा हुआ काम करता है। उस आदमी ने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसकी बुद्धि शुद्ध, शांत और न्यायदर्शी है। उसने सच्ची शिक्षा पायी है, जिसका मन कुदरती कानूनों से भरा है और जिसकी इन्द्रियाँ उसके बस में हैं, जिसके मन की भावनायें बिलकुल शुद्ध हैं, जिसे नीच कामों से नफरत है और जो दूसरों को अपने जैसा मानता है। ऐसा आदमी ही सच्चा शिक्षित (तालीमशुदा) माना जाएगा, क्योंकि वह कुदरत के क़ानून के मुताबिक़ चलता है। कुदरत उसका अच्छा उपयोग करेगी और वह कुदरत का अच्छा उपयोग करेगा। अगर यही सच्ची शिक्षा हो तो मैं कसम खाकर कहूंगा कि ऊपर जो शास्त्र मैंने गिनाये हैं उनका उपयोग मेरे शरीर या मेरी इन्द्रियों को बस में करने के लिए मुझे नहीं करना पड़ा। इसलिए प्रायमरी – प्राथमिक शिक्षा को लीजिये या ऊँचीं शिक्षा को लीजिये, उसका उपयोग मुख्य बातों में नहीं होता। उससे हम मनुष्य नहीं बनते- उससे हम अपना कर्तव्य नहीं जान सकते।

प्रश्न : अगर ऐसा ही है तो मैं आपसे एक सवाल करूंगा। आप ये जो सारी बातें कह रहे हैं, वह किसकी बदौलत कह रहे हैं? अगर आपने अक्षर-ज्ञान और ऊँची शिक्षा नहीं पायी होती, तो ये सब बातें आप मुझे कैसे समझा पाते?

उत्तर: आपने अच्छी सुनायी। लेकिन आपके सवाल का मेरा जबाब भी सीधा ही है। अगर मैंने ऊँची या नीची शिक्षा नहीं पायी होती, तो मैं नहीं मानता कि मैं निक्कमा हो जाता। अब ये बातें कहकर मैं उपयोगी बनने की इच्छा रखता हूँ। ऐसा करते हुए जो कुछ मैंने पढ़ा उसे मैं काम में लाता हूँ; और उसका उपयोग, अगर वह उपयोग हो तो, मैं अपने करोड़ो भाइयों के लिए नहीं कर सकता हूँ। इससे भी मेरी ही बात का समर्थन होता है।मैं और आप दोनों गलत शिक्षा के पंजे में फँस गए थे। उसमे से मैं अपने आप को मुक्त हुआ मानता हूँ। अब वह अनुभव मैं आपको देता हूँ और उसे देते समय ली हुई शिक्षा का उपयोग करके उसमे रही सडन मैं आपको दिखाता हूँ।

इसके सिवा, आपने जो बातें मुझे सुनायी उसमे आप गलती खा गए, क्योंकि मैंने अक्षर-ज्ञान को (हर हालत में) बुरा नहीं कहा है। मैंने तो इतना कहा है कि उस ज्ञान की हमें मूर्ति की तरह पूजा नहीं करनी चाहिए। वह हमारी कामधेनु नहीं है। वह अपनी जगह पर शोभा दे सकता है। और वह जगह यह है : जब मैंने और आपने अपनी इन्द्रियों को बस में कर लिया हो, जब हमने नीति की नीव मजबूत बना ली हो, तब अगर हमें अक्षर-ज्ञान पाने की इच्छा हो, तो उसे पाकर हम अच्छा उपयोग कर सकते हैं। वह शिक्षा आभूषण के रूप में अच्छी लग सकती है। लेकिन अगर अक्षर-ज्ञान का आभूषण के तौर पर ही उपयोग हो तो ऐसी शिक्षा लाजिमी करने की हमें जरूरत नहीं। हमारे पुराने स्कूल ही काफी हैं। वहाँ नीति की शिक्षा को पहला स्थान दिया जाता है। वह सच्ची प्राथमिक शिक्षा है। उस पर हम जो इमारत खडी करेंगे वह टिक सकेगी।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #33 – सड़क और यातायात ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “सड़क और यातायात ”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 33 ☆

☆ सड़क और यातायात

रोटी, कपड़ा, मकान की ही तरह सार्वजनिक विकास के लिये बिजली पानी और कम्युनिकेशन आज अनिवार्य बन चुके हैं. सड़के वे शिरायें है जो देश को, एक सूत्र में जोड़ती हैं. सड़कें संस्कृति की संवाहक हैं. स्वर्णिम चतुर्भुज योजना, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना जैसी अनेक महत्वपूर्ण परियोजनायें इसी उद्देश्य से चलायी जा रही हैं. सड़कें केन्द्र व राज्य दोनो सरकारो का संयुक्त विषय है. सरकारें अरबों रुपयों का वार्षिक बजट सड़को पर व्यय कर रही हैं. विश्व बैंक, एडीबी आदि संस्थाओ से ॠण लेकर देश के विकास हेतु परिवहन क्षेत्र में सतत व्यय किया जा रहा है. समय की आवश्यकता है कि अब सड़को की सुरक्षा, तथा यातायात के नियमन हेतु नवाचार अपनाया जावे.

सड़को पर जहां तहां टैन्ट लगाकर घरेलू या सार्वजनिक कार्यक्रमो के आयोजन करना गैर कानूनी घोषित किया जावे, जिससे सड़को पर यातायात सुविधापूर्वक हो सके, ट्रैफिक जाम जैसी समस्याओ से बचा जा सके.सड़को पर टैंट आदि लगाये जाने से सड़कें खराब भी होती हैं, यातायात बाधित भी होता है.वर्तमान भागदौड़ की दुनियां में सड़क यातायात को लेकर चर्चा और कानूनो का नवीकरण अनिवार्य हो चला है.

बिल्ड आपरेट एण्ड टैक्स “(B.O.T.) पद्धति पर रोड रेल क्रासिंगों पर ओवर ब्रिज बनाये जावें

आज देश भर में ढ़ेरो लेवल क्रासिंग है, जहां रेलवे फाटक बंद होने से सड़क यातायात घंटो प्रभावित होता है. यदि इन लेवल क्रासिंगों पर “बिल्ड आपरेट एण्ड टैक्स “(B.O.T.) पद्धति से निजि निवेश से ओवर ब्रिज बनाये जावें तो सरकार का कोई व्यय नहीं होगा, सुरक्षा निधि जमा करवाने से आय ही होगी. निजि निवेशक टर्न की आधार पर ओवर ब्रिजों का निर्माण करेंगे व टोल टैक्स के रूप में स्वयं की पूंजी व मुनाफा उन वाहनों से वसूल कर सकेंगे जो इन ओवर ब्रिज का उपयोग अपनी सुविधा हेतु करेगे. इस तरह ढ़ेर से रोजगार उत्पन्न किये जा सकते हैं, व इस तरह देश का इंफ्रास्ट्रक्चरल विकास हो सकेगा साथ ही लोगो को सुरक्षित व त्वरित यातायात सुलभ हो सकेगा.

वाहनो में.ओवरटेकिंग और टर्निंग इंडीकेटर्स अलग अलग रंग की लाइटो के हों

सड़क पर, लेफ्ट या राइट टर्न के लिये, या लेन परिवर्तन के लिये चार पहिये वाले वाहन में बैठा ड्राइवर जिस दिशा में उसे मुड़ना होता है, उस दिशा का पीला इंडीकेटर जला कर पीछे से आने वाले वाहन को अपने अगले कदम का सिग्नल देता है. स्टीयरिंग के साथ जुड़े हुये लीवर के उस दिशा में टर्न करने से वाहन की बाडी में लगे अगले व पिछले उस दिशा के पीले इंडीकेटर ब्लिंकिंग करने लगते हैं, वाहन के वापस सीधे होते ही स्वयं ही स्टीयरिंग के नीचे लगा लीवर अपने स्थान पर वापस आ जाता है, व इंडीकेटर लाइट बंद हो जाती है. जब आगे चल रही गाड़ी का ड्राइवर दाहिने ओर से पीछे से आते हुये वाहन को ओवर टेक करने की अनुमति देता है तब भी वह इन्ही इंडीकेटर के जरिये पीछे वाली गाड़ी को संकेत देता है. इसी तरह डिवाइडर वाली सड़को पर, बाई ओर से पीछे से आ रहे वाहन को भी ओवरटेक करने की अनुमति इसी तरह वाहन के बाई ओर लगे इंडीकेटर जलाकर दी जाती है.इस तरह पीछे से आ रहे वाहन के चालक को स्व विवेक से समझना पड़ता है कि इंडीकेटर ओवरटेक की अनुमति है या आगे चल रहे वाहन के मुड़ने का संकेत है, जिसे समझने में हुई छोटी सी गलती भी एक्सीडेंट का कारण बन जाती है. यदि वाहन निर्माता ओवर टेकिंग हेतु हरे रंग की लाइट, साइड बाडी पर और लगाने लगें तो यह दुविधा की स्थिति समाप्त हो सके व पीछे चल रहा चालक स्पष्ट रूप से आगे के वाहन के संकेत को समझ सकेगा.क्या मेरे इस सुझाव पर आर टी ओ व वाहन निर्माता ध्यान देंगे ?

अपराधों के नियंत्रण हेतु गाड़ियों की नम्बर प्लेट अलग न होने वाली हों..

अपराध नियंत्रण में वाहनो के रजिस्ट्रेशन नम्बर की भूमिका स्वस्पष्ट है. ज्यादातर आतंकवादी गतिविधियाँ, हिट एण्ड रन एक्सीडेंटंल अपराध, वाहनों की चोरी, डकैती, कार में बलात्कार आदि आपराधों के अनुसंधान में प्रयुक्त वाहनों के रजिस्ट्रेशन नम्बर से पोलिस को बड़ी मदद मिलती है. वर्तमान में यह रजिस्ट्रेशन नम्बर एक, दो या तीन स्क्रू से कसी हुई नम्बर प्लेट पर लिखा होता है. जिसे अपराधी बड़ी सरलता से निकाल फेंकता है या नम्बर प्लेट बदलकर चोरी की गाड़ी से अपराध को अंजाम देता है. मेरा सुझाव है कि इस पर नियंत्रण हेतु वाहन की चेसिस व बाडी पर ही निर्माता कम्पनी द्वारा फैक्टरी में ही रजिस्ट्रेशन नम्बर एम्बोसिंग द्वारा अंकित करने की व्यवस्था का कानून बनाया जाये. उस नम्बर का वाहन किस व्यक्ति द्वारा खरीदा गया यह विक्रय के बाद रजिस्ट्रेशन अथारिटी अपने कम्प्यूटर पर, रजिस्ट्रेशन शुल्क आदि लेकर दर्ज कर ले. इससे अपराधी सुगमता से वाहन का नम्बर नहीं बदल पायेंगे.सरकार को गाड़ी निर्माताओं को उनके उत्पादन के अनुरूप रजिस्ट्रेशन नम्बर पहले ही अलाट करने होंगे. इससे नये खरीदे गये अनरजिस्टर्ड वाहनों से घटित अपराधों पर भी नियंत्रण हो सकेगें.सरकारो के द्वारा वर्षो पुराने वाहन रजिस्ट्रेशन कानून में सामयिक बदलाव की इस पहल से गाड़ियों की चोरी में कमी आयेगी, अपराधों मे वाहनो के उपयोग में कमी होगी. अपराढ़ों तथा आतंकी गतिविधियों में कमी होगी, आम नागरिक, पोलिस व अन्य अपराध नियंत्रण संस्थायें राहत अनुभव करेंगी.

बैलगाड़ियों के चके ट्रकों के टायर के हों

वर्तमान में हमारे देश में बैलगाड़ियों के चके पारंपरिक तरीके के लोहे व लकड़ी के ही बन रहे हैं.इस से न केवल बैलों को अधिक श्रम करना होता है वरन जो सड़कें हम गाँव गाँव में बना रहे हैं वे भी जल्दी खराब हो जाती हैं. पंजाब आदि प्रदेशों में बैलगाड़ियों के चके के रूप में ट्रकों के पुराने टायर का उपयोग होता है. मेरा सुझाव है कि चूंकि किसान स्वेच्छा से यह परिवर्तन जल्दी नही करेंगे अतः उन्हें कुछ सब्सिडी आदि देकर अपनी बैलगाड़ियो में पारंपरिक चकों की जगह टायर का उपयोग करने के लिये प्रोत्साहित करने की योजना बनाई जावे. इससे बैलगाड़ी अधिक वजन ढ़ो सकेगी वह भी बिना सड़को को खराब किये.जरूरी हो तो इसके लिये कानून बनाया जाना चाहिये.

कार पंचर हो तो ड्राइवर को इंडीकेशन मिले

कार में बजता होता है तेज संगीत, चलता होता है ए.सी., बंद होती है कांच.. आप मस्त और व्यस्त होते हैं साथ बैठे लोगो से बातों में…. तभी किसी टायर में होने लगती है हवा कम… घुस गई होती है कोई कील.. टायर पंचर हो जाता है.. पर इसका पता आपको तब लगता है जब कार लहराने को ही होती है.. ट्यूब और रिम ड्रम लड़ भिड़ चुके होते हैं, ट्यूब खराब हो जाता है… ऐसा हुआ ही होगा आपके भी साथ कभी न कभी. ऐसी स्थिति में जरा सी चूक से.दुर्घटना होने की संभावना बनी रहती है.यूं तो आजकल ट्यूबलैस टायर लग रहे हैं…पर फिर भी लोअर सैगमेंट वाली कारो, व अन्य व्यवसायिक गाड़ियो में तो पुराने तरह के ही टायर हैं.मेरा आइडिया है कि टायर में सेंसर लगाये जायें जिससे हवा का प्रेशर कम होते ही ड्राइवर को सिगनल मिल जाये कि अब हवा भरवाई जानी चाहिये.इस तरह बहुत कम अतिरिक्त व्यय से वाहन के डैश बोर्ड पर ही पहियो की हवा संबंधी सूचना मिल सकेगी.

जिन लोगो के पास स्वयम् की पार्किग हेतु स्थान नही है, उन पर नगर निकाय  पार्किग टैक्स लगाये

अनेक लोग घर के सामने सड़को पर अपने वाहन कार इत्यादि नियमित रूप से पार्क करते हैं, ऐसे लोगो पर नगर निकायो को पार्किंग टैक्स लगाकर अतिरिक्त आय अर्जित करनी चाहिये, अनेक फ्लैट वाले भवनो में सोसायटी इस तरह के टैक्स लेती ही हैं. इससे लोग स्वयं की पार्किंग बनाने हेतु प्रोत्साहित होंगे तथा सड़को पर कंजेशन नियंत्रित हो सकेगा.

नवाचार का स्वागत….क्यों न हो हमारी कार युनिक ?

हम सब अपनी कार को करते हैं प्यार..कही लग जाये थोड़ी सी खरोंच तो हो जाते हैं उदास.मित्रो से, पड़ोसियों से, परिवार जनो से करते हैं कार को लेकर ढ़ेर सी बात…केवल लक्जरी नही है, अब कार.

जरूरत बन चुकी है. घर की दीवारो पर हम मनपसंद रंग करवाते हैं, अब तो वालपेपर या प्रिंटेड दीवारो का फैशन है. पर आज भी कार पर वही एक रंग का, रटा पिटा कंपनी के द्वारा किया गया कलर ही होता है,कार पार्किंग में खड़ी कई सफेद कारो में अपनी कार पहचानना वैसा ही जैसे स्कूल यूनीफार्म में बराबरी के ढ़ेर से बच्चो में दूर से अपने बच्चे को पहचानना. कार की बाहरी और भीतरी सतह पर हो रंग, प्रिंट, डिजाइन जिसे देखते ही झलके हमारी अपनी अभिव्यक्ति, विशिष्ट पहचान हो हमारी अपनी कार की…कार के भीतर भी,हम मनमाफिक इंटीरियर करवा सकें. कार में हम जाने कितना समय बिताते हैं.रोज फार्म हाउस से शहर की ओर आना जाना, या घंटो सड़को के जाम में फंसे रहना..कार में बिताया हुआ समय प्रायः हमारा होता है सिर्फ हमारा तब उठते हैं मन में विचार, पनपती है कविता.तो हम क्यों न रखे कार का इंटीरियर मन मुताबिक,क्यों न उपयोग हो एक एक क्युबिक सेंटीमीटर भीतरी जगह का हमारी मनमर्जी से..क्यो कंपनी की एक ही स्टाइल की बेंच नुमा सीटें फिट हो हमारी कार में.. जो प्रायः खाली पड़ी रहे, और हम अकेले बोर होते हुये सिकुड़े से बैठे रहें ड्राइवर के डाइगोनल.. क्या अच्छा हो कि हमारी कार के भीतर हमारी इच्छा के अनुरूप सोफा हो, राइटिंग टेबल हो, संगीत हो, टीवी हो, कम्प्यूटर हो,कमर सीधी करने लायक व्यवस्था हो, चाय शाय हो, शेविंग का सामान हो, एक छोटी सी अलमारी हो, वार्डरोब हो कम से कम दो एक टाई, एक दो शर्ट हों..ड्राइवर और हमारे बीच एक पर्दा हो.. बहुत कुछ हो सकता है….बस जरूरत है एक कंपनी की जो कार बनाने वाली कंपनियो से कार का चैसिस खरीदे और फिर ले आपसे आर्डर, और आपकी पसंद के अनुसार कार को खास आपके लिये तैयार किया जावे, तो ऐसे परिवर्तनो का स्वागत करने के लिये जरूरी है कि हम कार, सड़क आदि पर खुला चिंतन करे और समय के अनुसार पुरानी व्यवस्थाओ में परिवर्तन करे.

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #31 ☆ आस्था ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 31 ☆

☆ आस्था ☆

हमारे कार्यालय में काम करनेवाली मेहरी अनेक बार कोनों में झाड़ू का तिनका डालकर कचरा निकालती है। यदि कभी जल्दी निपटाने के लिए कहा जाए तो उत्तर होता है, ‘‘मैं अपना काम खराब नहीं कर सकती, अपना नाम खराब नहीं कर सकती।”

सृष्टि का मूलाधार है आस्था।

हर युग का मनुष्य मानता है कि बीते समय की तुलना में वह आधुनिक समय में जी रहा है। आधुनिक होने की एक आधारहीन परिभाषा अनेक जन को नास्तिक होना लगती है। वस्तुतः जग में नास्तिक न कोई हुआ, न हो सकेगा।

नास्तिक भी आस्तिक शब्द में ‘न’ उपसर्ग लगाकर तैयार हुआ है। आस्तिक में मूल शब्द है- आस्था। जिस शब्द के मूल में आस्था हो, वह नकारार्थी कैसे हो सकता है?

कोई एक व्यक्ति बताइए जिसे किसी किसी भी कर्म, प्रक्रिया, सिद्धांत या व्यक्ति के प्रति आस्था न हो। परले दर्जे की कल्पना भी कर लें तो जिसमें किसीके प्रति नहीं होती, उसे भी अपने नास्तिक होने के प्रति तो आस्था होती है न!  अपने आप पर आस्था तो हर किसी को है। फिर भला वह नास्तिक कैसे हुआ?

श्रीलंकाई  प्रोफेसर कोवूर स्वयं के नास्तिक होने का ढिंढोरा पीटता था। उसका बेटा हर रविवार चर्च जाने लगा। कोवूर चिंतित हुआ। बेटे से पूछा तो उसने बताया कि चर्च में सुंदर लड़कियाँ आती हैं। कोवूर आश्वस्त हुआ। बेटे का अगला वाक्य चौंकानेवाला था। बोला,‘’सुंदर लड़कियाँ देखने से मेरा पूरा सप्ताह अच्छा बीतता है।”

विश्वास या अंधविश्वास की अंतररेखा आज चर्चा का विषय नहीं है पर सप्ताह अच्छा बीतने का यह भरोसा, आस्था का ही स्वरूप है।

मनुष्य प्रायः अगली सुबह के कामों की अग्रिम योजना बनाकर सोने जाता है। याने सुबह उठने के प्रति आस्था है। यह आस्था आस्तिकों और घोर नास्तिकों (!) दोनों में विद्यमान होती है।

सृष्टि का मूलाधार है आस्था।

भाँति-भाँति की थिएरी ऑफ ओरिजिन में अभिप्रेत स्रष्टा के अस्तित्व से सहमत होने या न होने पर तर्क हो सकता है पर खुली आँखों से दिखती सृष्टि के प्रति अनास्था संभव नहीं।

अतः कहता हूँ-‘सृष्टि में नास्तिक न कोई हुआ, न हो सकेगा।’

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 26 – ज्ञान और दुविधा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “ज्ञान और दुविधा।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 26 ☆

☆ ज्ञान और दुविधा

कर्मिक कारण क्या था कि भीष्म को तीरों के बिस्तर पर पीड़ित होना पड़ा? इस प्रश्न के लिए कि उन्हें इस सजा से क्यों पीड़ित होना पड़ रहा है, भले ही उन्होंने पिछले 72 जन्मों के जीवन में कोई पाप नहीं किया था, भगवान कृष्ण ने उन्हें उत्तर दिया कि उन्होंने अपने पिछले 73 वें जन्म में एक मूर्खता की थी, जब उन्होंने एक कीड़े द्वारा काटे जाने के बाद उस कीड़े के शरीर में सुईया चुभा चुभा कर उसे तड़पा तड़पा कर मारा था। वो कांटे या सुईया अब आपके लिए तीरों के बिस्तर के रूप में वापस आये हैं। 72जन्मों तक आपके पापी कर्म निष्क्रिय रहे क्योंकि इन 72जीवनों में आप एक पवित्र व्यक्ति थे, लेकिन चूंकि अब आप दुर्योधन की ओर से अर्थात अधर्म की ओर से युद्ध का भाग बन गए हैं, तो आपके संचीत कर्म (जो तीन प्रकार के कर्मों में से एक है। यह किसी के पिछले सब जन्मों के कर्मों का जमा खाता होता है जिसमे से कुछ भाग उसे उसके वर्तमान जीवन में उसे भोगना पड़ता है जिन्हें प्रारब्ध कर्म कहते हैं), इस प्रकार 73 वें जीवन में पक गए और उनमे से उस 73 जन्म पहले किये गएपाप को भोगने के लिए जरूरी वातावरण उन्हें मिल गया।

क्या आपको पता है की भीष्म का जन्म भी एक अभिशाप के कारण ही था।

एक बार ‘द्यौ’ नामक वसु ने अन्य साथ सात वसुओं के साथ वशिष्ठ ऋषि की कामधेनु (अर्थ :सर्वश्रेष्ठ खुशी) का हरण कर लिया। इससे वशिष्ठ ऋषि ने द्यौ से कहा कि ऐसा कार्य तो मनुष्य करते हैं इसलिए तुम आठों वसु मनुष्य हो जाओ। यह सुनकर वसुओं ने घबराकर वशिष्ठजी की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि अन्य वसु तो वर्ष का अंत होने पर मेरे शाप से छुटकारा पा जाएंगे, लेकिन इस ‘द्यौ’ को अपनी करनी का फल भोगने के लिए एक जन्म तक मनुष्य बनकर पीड़ा भोगना होगी।

यह सुनकर वसुओं ने गंगाजी के पास जाकर उन्हें वशिष्ठजी के शाप को विस्तार से बताया और यह प्रार्थना की कि ‘आप मृत्युलोक में अवतार लेकर हमें गर्भ में धारण करें और ज्यों ही हम जन्म लें, हमें पानी में डुबो दें। इस तरह हम सभी जल्दी से मुक्त हो जाएंगे’ गंगा माता ने स्वीकार कर लिया और वे युक्तिपूर्वक शाँतनु राजा की पत्नी बन गईं और शाँतनु से वचन भी ले लिया। शाँतनु से गंगा के गर्भ में पहले जो 7 पुत्र पैदा हुए थे उन्हें उत्पन्न होते ही गंगाजी ने पानी में डुबो दिया जिससे 7 वसु तो मुक्त हो गए लेकिन 8वें में शाँतनु ने गंगा को रोककर इसका कारण जानना चाहा।गंगाजी ने राजा की बात मानकर वसुओं को वशिष्ठ के शाप का सब हाल कह सुनाया। राजा ने उस 8वें पुत्र को डुबोने नहीं दिया और इस वचनभंगता के कारण गंगा 8वें पुत्र को शाँतनु कोसौंपकर अंतर्ध्यान हो गईं। यही बालक ‘द्यौ’ नामक वसु था।

आप लोग जानते हैं कि शरशय्या पर लेटने के बाद भी भीष्म प्राण क्यों नहीं त्यागते हैं, जबकि उनका पूरा शरीर तीर से छलनी हो जाता है फिर भी वे इच्छामृत्यु के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं होते हैं। भीष्म यह भलीभांति जानते थे कि सूर्य के उत्तरायण होने पर प्राण त्यागने पर आत्मा को सद्गति मिलती है और वे पुन: अपने लोक जाकर मुक्त हो जाएंगे इसीलिए वे सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार करते हैं । भीष्म ने बताया कि वे सूर्य के उत्तरायण होने पर ही शरीर छोड़ेंगे, क्योंकि उन्हें अपने पिता शाँतनु से इच्छा मृत्यु का वर प्राप्त था और वे तब तक शरीर नहीं छोड़ सकते जब तक कि वे चाहें, लेकिन 10वें दिन का सूर्य डूब चुका था। बाद में सूर्य के उत्तरायण होने पर युधिष्ठिर आदि सगे-संबंधी, पुरोहित और अन्यान्य लोग भीष्म के पास पहुँते हैं। उन सबसे पितामह ने कहा कि इस शरशय्या पर मुझे 58 दिन हो गए हैं। मेरे भाग्य से माघ महीने का शुक्ल पक्ष आ गया। अब मैं शरीर त्यागना चाहता हूँ । इसके पश्चात उन्होंने सब लोगों से प्रेमपूर्वक विदा माँगकर शरीर त्याग दिया।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 30 ☆ रिश्ते बनाम गलतफ़हमी ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “हाउ से हू तक”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख  हमें  साधारण मानवीय  व्यवहार से रूबरू कराता है।  यह सच है कि धन दौलत और पद प्रतिष्ठा का चोली दामन का साथ है, किन्तु मानवीय व्यवहार तो आपके  नियंत्रण में है न ।डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 30☆

☆ रिश्ते बनाम गलतफ़हमी

शीशा और रिश्ता दोनों ही बड़े नाज़ुक होते हैं। दोनों में सिर्फ़ एक ही फर्क़ है…शीशा ग़लती से और रिश्ते गलतफ़हमी से टूट जाते हैं। उपरोक्त वाक्य में छिपा है… जीवन का सार्थक संदेश। दोनों की सुरक्षा अर्थात् हिफाज़त करना अत्यंत आवश्यक है। ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’… दोनों स्थितियों में लागू है यह सिद्धांत… दोनों ही नाज़ुक हैं और छोटी-सी ग़लती या गलतफ़हमी से टूट जाते हैं और टूटने पर भले ही जुड़ जायें, परंतु पूर्व-स्थिति में नहीं आ पाते। स्मरण होंगी—आपको रहीम जी की यह पंक्तियां ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय। टूटे पे फिर ना जुरै, जुरै गांठ परि जाय’ प्रेम रूपी  धागा चटकने के पश्चात् टूट जाता है और एक बार टूटने पर पुन: जुड़ नहीं पाता, उस में गांठ अवश्य पड़ जाती है अर्थात् दिलों में दरार पड़़ जाने के पश्चात् मानव कभी भी सामान्य नहीं हो सकता। सो! संबंधों को संभाल कर रखिये। कांच के टूटने पर उसके असंख्य टुकड़े हो जाते हैं और आपका पूरा अक्स उसमें नज़र नहीं आता। रिश्ते गलतफ़हमी से टूटते हैं… इसलिए कभी भी कानों सुनी बात पर विश्वास न करें। अक्सर लोग तो दूसरों के घर में आग लगा कर तमाशा देखते हैं।

दूसरी ओर ‘घर का भेदी लंका ढाए’ अर्थात् मन- मुटाव होने पर जब दूसरे पक्ष या आपके घर का कोई सदस्य भावावेश में आकर बाग़ी हो जाता है… किसी दूसरे की शरण में चला जाता है, तो सोने की लंका तक भी जल जाती है, सर्वस्व नष्ट हो जाता है। इसलिए कभी भी दूसरों की तो छोड़िए, अपनों से भी दुश्मनी मत कीजिए। यह कहावत तो आपने सुनी होगी कि ‘आप को आपका सबसे क़रीबी व्यक्ति ही सर्वाधिक हानि पहुंचाता है, क्योंकि वह आपकी सोच व कार्य-व्यवहार से बखूबी परिचित होता है। इसलिए कभी भूल कर भी, किसी पर विश्वास मत कीजिए और अपने मन की बात सांझा मत कीजिये, क्योंकि राज़दार ही दुश्मनी निभाते हैं…आपके पतन व विनाश का कारण बनते हैं।

हां! कई बार पारस्परिक वैमनस्य की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। सो! सुनी-सुनाई बात पर विश्वास करके अपना आपा मत खोइए…उससे संवाद कीजिए तथा अपना पक्ष रखिए, क्योंकि यह स्थिति दिलों के फ़ासलों को इस क़दर बढ़ा देती है कि इंसान एक-दूसरे का चेहरा देखना भी पसंद नहीं करता। यदि किसी बात पर ग़लतफ़हमी हो जाती है,तो आपस में विचार-विनिमय कीजिए, ताकि मनोमालिन्य समाप्त हो जाए और स्थिति शीघ्रातिशीघ्र सामान्य हो जाए अन्यथा इसका अंजाम कुछ भी हो सकता है…अक्सर ऐसी दुश्मनी पीढ़ी- दर-पीढ़ी चलती रहती है। संवाद व इपसी विचार-विमर्श इस अप्रत्याशित स्थिति से मुक्ति पाने का सर्वोत्तम साधन है। जब भी आप इस तथ्य से अवगत हों… बातचीत का सिलसिला तुरंत आगे बढ़ायें। मन में व्यर्थ की शंकाओं को पनपने न दें, क्योंकि राई का पहाड़ बनने में समय नहीं लगता… अफ़वाहें तो वायु से भी तीव्र वेग से फैलती हैं।

रिश्तों में सदैव गर्माहट का अहसास होना चाहिए। एक-दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव सदैव आमादा रहे, तभी ज़िंदगी की गाड़ी फर्राटे से आगे बढ़ सकती है। रिश्तों की दास्तान बड़ी अजब है। रिश्ते खुशी व ग़म के अहसास हैं, जज़्बात हैं, भाव हैं, संवेदनाएं हैं और रिश्ते आगे बढ़ते हैं…स्नेह-सौहार्द व समर्पण- त्याग से। जब तक आप इनका प्रेम से सिंचन करते रहेंगे, ज़िंदगी में कोई आपदा दस्तक नहीं देगी…वह तीव्र गति से सीधी-सपाट दौड़ती रहेगी। छोटे-छोटे ज्वालामुखी तो अक्सर संबंधों में फूटते रहते हैं, परंतु उनका अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। सो! हमें दूसरों की विषाक्त बातों से अपने मन को मलिन नहीं होने देना चाहिए, बल्कि वमन कर बाहर निकाल फेंकना अपेक्षित है। इसके द्वारा ही हमारी ज़िंदगी सुचारू ढंग से आगे बढ़ सकती है।

प्रशंसा को आप विनम्रता से स्वीकार करें और आलोचना पर गंभीरता से विचार करें। यदि आप दोनों स्थितियों में सम रहते हैं, तो आपके पथ में कोई अवरोधक उपस्थित नहीं हो सकता। यदि प्रशंसा में आप फूले नहीं समाते और अपने हृदय में अहंकार का प्रवेश वर्जित रखते हैं…आलोचना पर आप गहराई से चिंतन-मनन करते हैं , तो आप सम्पूर्ण सृष्टि पर साम्राज्य स्थापित कर सकते हैं। परंतु अहंनिष्ठ मानव जीती हुई बाज़ी भी हार जाता है और अर्श से सीधा फर्श पर आन पड़ता है। अहं क्रोध का जनक है। इसलिए अहं व क्रोध में कभी भी कोई निर्णय न लें। यह दोनों विवेक के शत्रु हैं…एक स्थान पर नहीं रह सकते।

जहां विवेक नहीं, वहां सत्य नहीं, सही सोच नहीं। इसके लिये आवश्यकता है… अच्छे-बुरे व गुण-दोषों के चिंतन-मनन करने की, क्योंकि सकारात्मक सोच ही हमें तनावमुक्त जीवन जीने की राह दिखलाती है। दूसरी ओर नकारात्मक सोच हमारी जीवन-नौका को अवसाद के भंवर में हिचकोले खाने को छोड़ देती है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म कीजिए, क्योंकि जो आप करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है। गीता के निष्काम कर्म का संदेश ध्यातव्य है, अनुकरणीय है। मानव को अपने कर्मों का फल अवश्य भुगतना पड़ता है।कबीर जी का यह दोहा विचारणीय है…’बोया पेड़ बबूल का, आम कहां ते खाय’ अर्थात् बुरे कर्म करके सुफल की अपेक्षा करना व्यर्थ है, निष्फल है…सबसे बड़ी मूर्खता है।

अच्छे कर्म व मधुर वाणी दो अनमोल रतन हैं। यदि आप सुकर्म करते हैं और आपका व्यवहार कटु है, तो आप सदैव निंदा के पात्र बने रहेंगे… लोग आपसे बात तक करना भी पसंद नहीं करेंगे। इसलिए मधुर वचन बोल कर, सबसे विनम्र व्यवहार करें, क्योंकि विनम्रता की जन्मदात्री है विद्या…इसलिए अध्ययन व चिंतन-मनन कीजिए और जब आवश्यकता हो तभी बोलिए…दूसरे शब्दों में जब आपके शब्द मौन से बेहतर व अधिक सार्थक हों, तभी बोलना उचित है। मौन में सभी समस्याओं का समाधान निहित है। इसलिए इसे नव-निधियों की खान कहा गया है। मौन से आपकी भीतरी शक्तियां जाग्रत होती हैं, जो आपको विश्व में श्रेष्ठ स्थान पर प्रतिस्थापित करा सकती हैं। गलत संगति में रहने से अकेला रहना श्रेष्ठ है। उसी प्रकार बोलने से बेहतर है, चुप रहना। इसलिए कहा गया है पहले तोलिए, फिर बोलिए। यदि हम अनर्गल प्रलाप से बचेंगे, तो व्यर्थ की ग़लतफ़हमियां नहीं होंगी, स्नेह व सौहार्द के संबंध बने रहेंगे…जीवन में सामंजस्यता का भाव बना रहेगा और समरसता की स्थापना होगी… अलौकिक आनंद होगा। सो! न गलती की संभावना होगी, न ग़लतफ़हमी से रिश्ते टूटेंगे और न एकांत की त्रासदी को झेलना पड़ेगा। सो! रिश्तों को कांच व भुने हुए पापड़ की भांति स्वीकारिये, क्योकि वे पल भर में  टूट जाते हैं। मुझे याद आ रही हैं, नयी कविता की दो पंक्तियां,’मेरे सपने ऐसे टूटे, जैसे भुने हुए पापड़’ सपने भी बहुत नाज़ुक होते हैं, ज़रा सी चोट लगने पर दरक़ जाते हैं, जैसे रिश्ते तनिक-सी गलतफ़हमी व उपेक्षा से उस कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जहां मनुष्य स्वयं को ठगा-सा महसूसता व किंकर्तव्यविमूढ़-सा पाता है। शायद! इसलिए शक़ को दोस्ती का दुश्मन कहा गया है।  इसके जीवन में दस्तक देते ही जीवन की तमाम खुशियां जाने कहां विलीन व नदारद हो जाती हैं और ज़िंदगी उस दोराहे पर आकर खड़ी हो जाती है, जहां से उसे कोई रास्ता नहीं सूझता। सो! रिश्तों की मासूम बच्चे की भांति परवरिश करना अपेक्षित है।

वास्तव में रिश्ते जब मज़बूत होते हैं, तभी महसूस  होते हैं तथा अंतर्मन में घर जाते हैं और शक़ की गुंजाइश नहीं रहती… जीवन द्रुत गति से दौड़ता हुआ कैसे गुज़र जाता है। आइए! एक-दूसरे के प्रति गहन विश्वास रखें, सच्चे मित्र की भांति, उसकी अनुपस्थिति में भी, उसके पक्ष में एक मज़बूत ढाल व सुख-दु:ख के सच्चे साथी बन कर खड़े रहें… कभी उसकी निंदा सुनकर बरगलाएं नहीं… तुरंत प्रतिक्रिया न दें…सोच-विचार कर प्रत्युत्तर दें। यह बात सदैव मन में रखनी अपेक्षित है कि लोगों का काम तो नदी व सरोवर के शांत जल में पत्थर फेंक कर, उसे उद्वेलित करना होता है… उसी प्रकार लोग निंदा रूपी पत्थर फेंक कर उसके जीवन में खलल उत्पन्न कर उल्लसित होते हैं, जिसका भयावह पक्ष सम्मुख आने पर आपके हाथ खाली होते हैं अर्थात् कई बार तो जन्मजात संबंध भी हाशिये पर चले जाते हैं और हम हाथ मलते रह जाते हैं।

सो! मन से नकारात्मकता के भाव निकाल कर सकारात्मक ऊर्जा से आप्लावित करें… यही जिंदगी की चाहना है, अपेक्षा है, रिश्तों की ऊर्जा है…इन्हें महसूसें तथा बचाने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर रहें। वैसे समय को सबसे बड़ा हीलर कहा गया है, जो सब प्रकार के घावों को भर देता है। परंतु वाणी के घाव कभी नहीं भरते…इसलिए सदैव मधुर वाणी बोलनी अपेक्षित है। अटूट विश्वास व समर्पण भाव ही इन्हें बचाने की सर्वश्रेष्ठ साधना है। अंत में, मैं यह कहना चाहूंगी कि सभी सुंदर वस्तुएं दिल से आती हैं और बुरी वस्तुएं मस्तिष्क से। इसलिए संबंध व दोस्ती के लिए हृदय रूपी उर्वरा अपेक्षित है। मन में कभी मलाल न आने दें। सो! चिर वसंत रहेगा और रिश्तों में प्रगाढ़ता आएगी, जिसे मिटाने का साहस ज़माने भर के लोगों में नहीं होगा। इसलिए मस्तिष्क को कभी हृदय पर हावी न होने दें, क्योंकि मस्तिष्क चिंतन-मनन करता है, जबकि हृदय में स्वीकार्यता भाव प्रमुख होता है। स्वार्थ पर आधारित रिश्ते कभी स्थाई नहीं होते, ज़रा-सी गलतफ़हमी रूपी खरोंच लगते ही टूट  जाते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सूर्यदेव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

(We present an English Version of this Hindi Poetry “सूर्यदेव”  as  ☆ Suryadev☆  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

☆ संजय दृष्टि  – सूर्यदेव

सूर्यदेव अर्थात सृष्टि में अद्भुत, अनन्य का आँखों से दिखता प्रमाणित सत्य। सूर्यदेव का मकर राशि में प्रवेश अथवा मकर संक्रमण खगोलशास्त्र, भूगोल, अध्यात्म, दर्शन  सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।

इस दिव्य प्रकाश पुंज का उत्तरी गोलार्ध के निकट आना उत्तरायण है। उत्तरायण अंधकार के आकुंचन और प्रकाश के प्रसरण का कालखंड है। स्वाभाविक है कि इस कालखंड में दिन बड़े और रातें छोटी होंगी।

दिन बड़े होने का अर्थ है प्रकाश के अधिक अवसर, अधिक चैतन्य, अधिक कर्मशीलता।

अधिक कर्मशीलता के संकल्प का प्रतिनिधि है तिल और गुड़ से बने पदार्थों का सेवन।

निहितार्थ है कि तिल की ऊर्जा और गुड़ की मिठास हमारे मनन, वचन और आचरण तीनों में देदीप्यमान रहे।

*तमसो मा ज्योतिर्गमय!*

*मकर संक्रांति/ उत्तरायण/ भोगाली बिहू / माघी/ पोंगल/ खिचड़ी की अनंत शुभकामनाएँ।*

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मकर संक्रांति विशेष ☆ मकर संक्रांति (मेरी पुस्तक पूर्ण विनाशक से) ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। हम  प्रत्येक शनिवार आपकी रचनाएँ उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”  के अंतर्गत  प्रकाशित करते हैं । आज प्रस्तुत है मकर संक्रांति पर विशेष उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय का अंश  “मकर  संक्रांति ।)

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☆ मकर संक्रांति विशेष  ☆ आशीष साहित्य – # 25 ☆

☆ जीव विज्ञान 

मकर संक्रांति पर विशेष (मेरी पुस्तक पूर्ण विनाशक से):

अगले दिन, आकाश में सूर्य फिर उगा। दोनों सेनाएँ मैदान में फिर से युद्ध के लिए तैयार थी। उस दिन रावण की सेना की कमान ‘मकराक्ष’ के हाथों में थी, जिसका अर्थ है मकर राशि की धुरी, अंतरिक्ष का वह भाग जहाँ राशि चक्र की मकर राशि स्थित है ।मकराक्ष का एक अन्य अर्थ पहाड़ी बकरी की रीढ़ की हड्डी भी है । कुछ लोगों का कहना है कि उसका नाम ‘मग्रक्ष’ था, मगर का अर्थ मगरमच्छ और अक्ष का अर्थ धूरी है इसलिए मग्रक्ष का अर्थ मगरमच्छ के रीढ़ की हड्डी।मकराक्ष ‘खर’ का पुत्र था, जिसे पंचवटी में भगवान राम ने मारा था। वह महान योद्धा था। मकराक्ष ने शपथ ली थी कि वह अपने पिता के हत्यारे को मार डालेगा, और उसके बाद ही वह अपने पिता की मृत्यु की अंतिम क्रियाएँ करेगा। उसने सीधे भगवान राम को लड़ाई के लिए चुनौती दी।

भगवान राम तैयार थे। भगवान राम और मकराक्ष के बीच खतरनाक लड़ाई आरम्भ हो गयी। मकराक्ष – मकर राशि की धुरी, यह भूल गया था कि वह भगवान के साथ लड़ रहा था जिनसे पूरा राशि चक्र प्रकट हुआ था, न की केवल मकर राशि का अक्ष बल्कि ब्रह्मांड के सभी अक्ष। भगवान राम ने चेहरे पर मुस्कान के साथ एक तीर मकराक्ष की ओर चलाया। उस तीर में 13 शाखाएं थीं जो अंतरिक्ष में तेजी से मकराक्ष से की ओर बढ़ी, और मकराक्ष की रीढ़ की हड्डी को 13 टुकड़ों में काट दिया, और तुरंत ही वह मर गया।

भगवान राम, जो की सभी प्राणियों के प्रकाश, सूर्य और आत्मा है, और भगवान राम सूर्यवंशी कुल के वंशज थे। मकराक्ष ने अपनी पहचान खो दी और वो भगवान राम की कृपा या आध्यात्मिकता के अनंत प्रकाश में विलय हो गया। ऐसा कहा जाता है कि मकराक्ष के शरीर को पूर्णतय नष्ट होने में करीब तीन माह लग गए, और वह दिन मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाने लगा।

मकर संक्रांति हिन्दुओं का प्रमुख पर्व है। मकर संक्रान्ति पूरे भारत और नेपाल में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है तभी इस पर्व को मनाया जाता है। वर्तमान शताब्दी में यह त्योहार जनवरी माह के चौदहवें या पन्द्रहवें दिन ही पड़ता है, इस दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। एक दिन का अंतर लौंद वर्ष के 366 दिन का होने ही वजह से होता है ।मकर संक्रान्ति उत्तरायण से भिन्न है। मकर संक्रान्ति पर्व को कहीं-कहीं उत्तरायणी भी कहते हैं, यह भ्रान्ति गलत है कि उत्तरायण भी इसी दिन होता है। उत्तरायण का प्रारंभ 21 या 22 दिसम्बर को होता है ।लगभग 1800 वर्ष पूर्व यह स्थिति उत्तरायण की स्थिति के साथ ही होती थी, संभव है की इसी वजह से इसको व उत्तरायण को कुछ स्थानों पर एक ही समझा जाता है। तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाते हैं जबकि कर्नाटक, केरल तथा आंध्र प्रदेश में इसे केवल संक्रांति ही कहते हैं। सम्पूर्ण भारत में मकर संक्रान्ति विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। विभिन्न प्रान्तों में इस त्योहार को मनाने के जितने अधिक रूप प्रचलित हैं उतने किसी अन्य पर्व में नहीं । हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में एक दिन पूर्व 13 जनवरी को ही मनाया जाता है। इस दिन अँधेरा होते ही अग्नि जलाकर अग्निदेव की पूजा करते हुए तिल, गुड़, चावल और भुने हुए मक्के की आहुति दी जाती है। इस सामग्री को तिलचौली कहा जाता है। इस अवसर पर लोग मूंगफली, तिल की बनी हुई गजक और रेवड़ियाँ आपस में बाँटकर खुशियाँ मनाते हैं। बहुएँ घर-घर जाकर लोकगीत गाकर लोहड़ी माँगती हैं। नई बहू और नवजात बच्चे के लिये लोहड़ी का विशेष महत्व होता है। इसके साथ पारम्परिक मक्के की रोटी और सरसों के साग का आनन्द भी उठाया जाता है ।

उत्तर प्रदेश में यह मुख्य रूप से ‘दान का पर्व’ है। इलाहाबाद में गंगा, यमुना व सरस्वती के संगम पर प्रत्येक वर्ष एक माह तक मेला लगता है जिसे माघ मेले के नाम से जाना जाता है। 14 जनवरी से ही इलाहाबाद में हर साल माघ मेले की शुरुआत होती है। 14 दिसम्बर से 14 जनवरी तक का समय खर मास के नाम से जाना जाता है। एक समय था जब उत्तर भारत में 14 दिसम्बर से 14 जनवरी तक पूरे एक महीने किसी भी अच्छे कार्य को अंजाम भी नहीं दिया जाता था। अर्थात शादी-ब्याह नहीं किये जाते थे परन्तु अब समय के साथ लोग बदल गये हैं। परन्तु फिर भी ऐसा विश्वास है कि 14 जनवरी यानी मकर संक्रान्ति से पृथ्वी पर अच्छे दिनों की शुरुआत होती है। माघ मेले का पहला स्नान मकर संक्रान्ति से शुरू होकर शिवरात्रि के आख़िरी स्नान तक चलता है। संक्रान्ति के दिन स्नान के बाद दान देने की भी परम्परा है।इस दिन बागेश्वर में भी बड़ा मेला होता है। वैसे गंगा-स्नान रामेश्वर, चित्रशिला व अन्य स्थानों में भी मेले होते हैं। इस दिन गंगा स्नान करके तिल के मिष्ठान आदि को ब्राह्मणों व पूज्य व्यक्तियों को दान दिया जाता है। इस पर्व पर क्षेत्र में गंगा एवं रामगंगा घाटों पर बड़े-बड़े मेले लगते हैं। समूचे उत्तर प्रदेश में इस व्रत को खिचड़ी के नाम से जाना जाता है तथा इस दिन खिचड़ी खाने एवं खिचड़ी दान देने का अत्यधिक महत्व होता है।

बिहार में भी मकर संक्रान्ति को खिचड़ी नाम से जाता हैं। इस दिन उड़द, चावल, तिल, चिवड़ा, गौ, स्वर्ण, ऊनी वस्त्र, कम्बल आदि दान करने का अपना महत्त्व है।

महाराष्ट्र में इस दिन सभी विवाहित स्त्रियाँ अपनी पहली संक्रान्ति पर कपास, तेल व नमक आदि चीजें अन्य सुहागिन स्त्रियों को दान करती हैं। तिल-गूल नामक हलवे के बाँटने की प्रथा भी है। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं –“लिळ गूळ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला” अर्थात “तिल गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो”। इस दिन स्त्रियाँ आपस में तिल, गुड़, रोली और हल्दी बाँटती हैं।

बंगाल में इस पर्व पर स्नान के पश्चात तिल दान करने की प्रथा है। यहाँ गंगासागर में प्रति वर्ष विशाल मेला लगता है। मकर संक्रान्ति के दिन ही गंगा जी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं। मान्यता यह भी है कि इस दिन यशोदा ने श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिये व्रत किया था। इस दिन गंगासागर में स्नान-दान के लिये लाखों लोगों की भीड़ होती है। लोग कष्ट उठाकर गंगा सागर की यात्रा करते हैं। वर्ष में केवल एक दिन मकर संक्रान्ति को यहाँ लोगों की अपार भीड़ होती है। इसीलिए कहा जाता है- “सारे तीरथ बार बार, गंगा सागर एक बार”

तमिलनाडु में इस त्योहार को पोंगल के रूप में चार दिन तक मनाते हैं। प्रथम दिन भोगी-पोंगल, द्वितीय दिन सूर्य-पोंगल, तृतीय दिन मट्टू-पोंगल अथवा केनू-पोंगल और चौथे व अन्तिम दिन कन्या-पोंगल। इस प्रकार पहले दिन कूड़ा करकट इकठ्ठा कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशु धन की पूजा की जाती है। पोंगल मनाने के लिये स्नान करके खुले आँगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनायी जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है। उसके बाद खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं। इस दिन बेटी और जमाई राजा का विशेष रूप से स्वागत किया जाता है।

असम में मकर संक्रान्ति को माघ-बिहू अथवा भोगाली-बिहू के नाम से मनाते हैं।राजस्थान में इस पर्व पर सुहागन स्त्रियाँ अपनी सास को वायना देकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। साथ ही स्त्रियाँ किसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन एवं संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं। इस प्रकार मकर संक्रान्ति के माध्यम से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की झलक विविध रूपों में दिखती है।

शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायण को देवताओं की रात्रि अर्थात् नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात् सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसीलिए इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। ऐसी धारणा है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है। इस दिन शुद्ध घी एवं कम्बल का दान मोक्ष की प्राप्ति करवाता है। जैसा कि निम्न श्लोक से स्पष्ठ होता है-

माघे मासे महादेव: यो दास्यति घृतकम्बलम।

स भुक्त्वा सकलान भोगान अन्ते मोक्षं प्राप्यति॥

मकर संक्रान्ति के अवसर पर गंगास्नान एवं गंगातट पर दान को अत्यन्त शुभ माना गया है। इस पर्व पर तीर्थराज प्रयाग एवं गंगासागर में स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गयी है। सामान्यत: सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करते हैं, किन्तु कर्क व मकर राशियों में सूर्य का प्रवेश धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त फलदायक है। यह प्रवेश अथवा संक्रमण क्रिया छ:-छ: माह के अन्तराल पर होती है। भारत देश उत्तरी गोलार्ध में स्थित है। मकर संक्रान्ति से पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में होता है अर्थात् भारत से अपेक्षाकृत अधिक दूर होता है। इसी कारण यहाँ पर रातें बड़ी एवं दिन छोटे होते हैं तथा सर्दी का मौसम होता है। किन्तु मकर संक्रान्ति से सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर आना शुरू हो जाता है। अतएव इस दिन से रातें छोटी एवं दिन बड़े होने लगते हैं तथा गरमी का मौसम शुरू हो जाता है। दिन बड़ा होने से प्रकाश अधिक होगा तथा रात्रि छोटी होने से अन्धकार कम होगा। अत: मकर संक्रान्ति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना माना जाता है। प्रकाश अधिक होने से प्राणियों की चेतनता एवं कार्य शक्ति में वृद्धि होगी। ऐसा जानकर सम्पूर्ण भारतवर्ष में लोगों द्वारा विविध रूपों में सूर्यदेव की उपासना, आराधना एवं पूजन कर, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की जाती है। सामान्यत: भारतीय पंचांग पद्धति की समस्त तिथियाँ चन्द्रमा की गति को आधार मानकर निर्धारित की जाती हैं, किन्तु मकर संक्रान्ति को सूर्य की गति से निर्धारित किया जाता है। इसी कारण यह पर्व प्रतिवर्ष 14 जनवरी को ही पड़ता है।ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान भास्कर अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाते हैं। चूँकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, अत: इस दिन को मकर संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिये मकर संक्रान्ति का ही चयन किया था। मकर संक्रान्ति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर में जाकर मिली थीं।

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #32 – घर बनायें स्वर्ग ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “घर बनायें स्वर्ग”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 32 ☆

☆ घर बनायें स्वर्ग 

हम सब के अवचेतन मन में, स्वर्ग की  कल्पना, एक सुखद, परम आनन्ददायी, कष्ट रहित, अलौकिक अनुभूति के रूप में रेखांकित है. अर्थात स्वर्ग वही है, जहाँ आपके परिवेश में आपकी आज्ञा का अक्षरशः परिपालन हो, आपको मन वाँछित महत्व मिले, आपकी आवश्यकतायें सहजता से पूरी हों, सकारात्मक वातावरण हो. कटुता, विषमता, वैमनस्य जैसी कुत्सित प्रवृत्तियों का परिवेश न हो. ऐसे ही लोक की चाहत में हम  स्वर्ग की कामना करते हैं. तपस्या, पूजा पाठ, धार्मिक अनुष्ठान करते हैं. इस सबके बाद, मृत्यु के उपरांत  भी ऐसा काल्पनिक स्वर्ग मिलता है या नहीं प्रमाणिक रूप से निश्चित नहीं  है. किन्तु  अपने कर्मों से, अपनी जीवन शैली में थोड़ा सा बदलाव करके, हम इसी जीवन में, यहीं धरती पर, स्वयं अपने घर पर ही स्वर्ग के समस्त गुणों से परिपूरित परिवेश बना सकते हैं.

यदि पति पत्नी परस्पर संपूर्ण सर्मपण के साथ,  मित्र भाव से,  निष्ठा पूर्वक, दाम्पत्य का निर्वाह कर रहे हैं, अर्थात पति एक पत्नीव्रती है, व पत्नी पतिव्रता है तो हम समझ सकते हैं कि यह सुख स्वर्ग की किसी भी अप्सरा के साथ के सुख से बेहतर, चिर स्थाई एवं ऐसा है जिसकी अपेक्षा देवता भी करते हैं.

यदि आपकी संतान आपकी आज्ञाकारणी है, तो हर पल के ऐसे अनुचर तो स्वर्ग में भी नहीं मिलते. कहा जाता है ” पूत सपूत तो क्या धन संचय ? “. यदि आपकी संतान को आपने सुसंस्कारी, सुसंतान बनाया है तो आपको संपत्ती के व्यर्थ संग्रहण की भी कोई आवश्यकता नहीँ है. “साँई इतना दीजीये जामें कुटुंब समाये, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाये  ” गोस्वामी तुलसीदास ने भी  कहा है ” जहाँ सुमति तँह संपति नाना “. अतः अच्छा हो कि हम अपने परिवेश में सुमति का वातावरण बनाने के प्रयत्न करें. भौतिक संसाधनों के संग्रहण की अंत हीन स्पर्धा में पड़कर मन की शांति, दिन का चैन, रात का आराम खो देने में बुद्धिमानी नहीं है,जिन  भौतिक संसाधनो को पाने के लिये हम अपना स्वास्थ्य तक खो देते हैं वे तो स्वर्ग में  होते ही नहीं.

घर के प्रत्येक सदस्य के कार्यों का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव  घर वालों पर पड़ता है, कोई एक परिवार जन बीमार पड़ जाये तो सब चिंतित हो जाते हैं ! घर परिवार के सदस्य अपने आचरण, व्यवहार से घर में ही स्वर्ग सावातावरण बना सकते हैं, या फिर किसी एक के भी दुराचरण से परेशान होकर घर वाले स्वर्ग वासी बनने पर मजबूर होकर आत्महत्या तक कर लेते हैं. चुनना हमें ही है !

© अनुभा श्रीवास्तव्

 

घर बनायें स्वर्ग

 

 

हम सब के अवचेतन मन में, स्वर्ग की  कल्पना, एक सुखद, परम आनन्ददायी, कष्ट रहित, अलौकिक अनुभूति के रूप में रेखांकित है. अर्थात स्वर्ग वही है, जहाँ आपके परिवेश में आपकी आज्ञा का अक्षरशः परिपालन हो, आपको मन वाँछित महत्व मिले, आपकी आवश्यकतायें सहजता से पूरी हों, सकारात्मक वातावरण हो. कटुता, विषमता, वैमनस्य जैसी कुत्सित प्रवृत्तियों का परिवेश न हो. ऐसे ही लोक की चाहत में हम  स्वर्ग की कामना करते हैं. तपस्या, पूजा पाठ, धार्मिक अनुष्ठान करते हैं. इस सबके बाद, मृत्यु के उपरांत  भी ऐसा काल्पनिक स्वर्ग मिलता है या नहीं प्रमाणिक रूप से निश्चित नहीं  है. किन्तु  अपने कर्मों से, अपनी जीवन शैली में थोड़ा सा बदलाव करके, हम इसी जीवन में, यहीं धरती पर, स्वयं अपने घर पर ही स्वर्ग के समस्त गुणों से परिपूरित परिवेश बना सकते हैं.

यदि पति पत्नी परस्पर संपूर्ण सर्मपण के साथ,  मित्र भाव से,  निष्ठा पूर्वक, दाम्पत्य का निर्वाह कर रहे हैं, अर्थात पति एक पत्नीव्रती है, व पत्नी पतिव्रता है तो हम समझ सकते हैं कि यह सुख स्वर्ग की किसी भी

अप्सरा के साथ के सुख से बेहतर, चिर स्थाई एवं ऐसा है जिसकी अपेक्षा देवता भी करते हैं.

यदि आपकी संतान आपकी आज्ञाकारणी है, तो हर पल के ऐसे अनुचर तो स्वर्ग में भी नहीं मिलते. कहा जाता है ” पूत सपूत तो क्या धन संचय ? “. यदि आपकी संतान को आपने सुसंस्कारी, सुसंतान बनाया है तो आपको संपत्ती के व्यर्थ संग्रहण की भी कोई आवश्यकता नहीँ है. “साँई इतना दीजीये जामें कुटुंब समाये, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाये  ” गोस्वामी तुलसीदास ने भी  कहा है ” जहाँ सुमति तँह संपति नाना “. अतः अच्छा हो कि हम अपने परिवेश में सुमति का वातावरण बनाने के प्रयत्न करें. भौतिक संसाधनों के संग्रहण की अंत हीन स्पर्धा में पड़कर मन की शांति, दिन का चैन, रात का आराम खो देने में बुद्धिमानी नहीं है,जिन  भौतिक संसाधनो

को पाने के लिये हम अपना स्वास्थ्य तक खो देते हैं वे तो स्वर्ग में  होते ही नहीं.

घर के प्रत्येक सदस्य के कार्यों का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव  घर वालों पर पड़ता है, कोई एक परिवार जन बीमार पड़ जाये तो सब चिंतित हो जाते हैं ! घर परिवार के सदस्य अपने आचरण, व्यवहार से घर में ही स्वर्ग सावातावरण बना सकते हैं, या फिर किसी एक के भी दुराचरण से परेशान होकर घर वाले स्वर्ग वासी बनने पर मजबूर होकर आत्महत्या तक कर लेते हैं. चुनना हमें ही है !

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