हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 284 – पुनरपि जननं पुनरपि मरणं… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 284 पुनरपि जननं पुनरपि मरणं… ?

श्मशान में हूँ। देखता हूँ कि हर क्षेत्र की तरह यहाँ भी भारी भीड़ है। लगातार कोई ना कोई निष्प्राण देह लाई जा रही है। देह के पीछे सम्बंधित मृतक के परिजन और रिश्तेदार हैं।

दहन के लिए चितास्थल खाली मिलना भी अब भाग्य कहलाने लगा है। दो देह प्रतीक्षारत हैं। कुछ समय बाद दो खाली चितास्थलों पर  चिता तैयार की जाने लगी हैं। मृतक के परिजन और रिश्तेदार केवल ज़बानी निर्देश तक सीमित हैं। सारा काम तो श्मशान के कर्मचारी कर रहे हैं।

पुरोहित अंतिम संस्कार कराने में जुटे हैं। हर संस्कार की भाँति यहाँ भी उनसे शॉर्टकट की अपेक्षा है। मृतक के पुत्र, पौत्र, निकटवर्ती अपने केश अर्पित कर रहे हैं। उपस्थित लोगों में से अधिकांश के चेहरे पर घर या काम पर जल्दी जाने की बेचैनी है। ज़िंदा रहने के लिए महानगर की शर्तें, संवेदनाओं को मुर्दा कर रही हैं। इन मृत संवेदनाओं की तुलना में मरघट मुझे चैतन्य लगता है। यूँ भी देखें तो महानगरों के मरघट की अखंड चिताग्नि ‘मणिकर्णिका’ का विस्तार ही है।

मानस में जच्चा वॉर्ड के इर्द-गिर्द भीड़ का दृश्य उभरता है। अलबत्ता वहाँ आनंद और उल्लास है, चेहरों पर प्रसन्नता है। प्रसूतिगृह में जीव के आगमन का हर्ष है, श्मशान मेंं जीव के गमन का शोक है।

बार-बार आता है, बार-बार जाता है, फिर-फिर लौट आता है। जीव अन्यान्य देह धारण करता है। चक्र अनवरत है। विशेष बात यह कि जो शोक या आनन्द मना रहे हैं, वे भी उसी परिक्रमा के घटक हैं। आना-जाना उन्हें भी उसी रास्ते है। जीवन का रंगमंच, पात्रोंं से निरंतर भूमिकाएँ बदलवाता रहता है। आज जो कंधा देने आए हैं, कल उन्हें भी कंधों पर ही आना है।

‘भज गोविंदम्’ के 21वें पद में आदिशंकराचार्य जी महाराज कहते हैं-

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।

इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे॥

भावार्थ है कि बार-बार जन्म होता है‌। बार-बार मृत्यु आती है। बार-बार माँ के गर्भ में शयन करना होता है। बार-बार का यह चक्र अनवरत है। यही कारण है कि संसार रूपी महासागर पार करना दुस्तर है। वस्तुत: काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, राग-द्वेष, निंदा सभी तरह के राक्षसी विषयों का यह संसार महासागर है। यह अपरा है, यहाँ किनारा मिलता ही नहीं। ऐसे राक्षसों के अरि अर्थात मुरारि, भवसागर पार करने की शक्ति प्रदान करें।

श्मशान से श्मशान तक की यात्रा से मुक्त होने का पहला चरण है भान होना। भान रहे कि सब श्मशान की दिशा में यात्रा कर रहे हैं। यह पंक्तियाँ  लिखनेवाला और इन्हें पढ़नेवाला भी। श्मशान पहुँँचने के पहले निर्णय करना होगा कि पार होने का प्रयास करना है या फेरा लगाते रहना है।..इति

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 654 ⇒ निःशुल्क ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंचवटी।)

?अभी अभी # 654 ⇒ निःशुल्क ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

निःशुल्क कहें या मुफ़्त ! क्या कोई फर्क पड़ता है। मुफ़्तखोर पहले तो मुफ्त का माल ढूँढते हैं और बाद में निःशुल्क शौचालय तलाश करते हैं। 25 %डिस्काउंट और बिग बाजार के महा सेल में एक के साथ एक फ्री को आप क्या कहेंगे। वहाँ छूट भी है, मुफ्त भी है और शुल्क भी। लेकिन निःशुल्क कुछ भी नहीं है।

हमारे घर अखबार आता है, उस पर शुल्क लिखा होता है। वही अखबार अगर आप पड़ोसी के यहाँ अथवा वाचनालय में पढ़ते हैं, तो निःशुल्क हो जाता है।।

गर्मी में दानदाता और पारमार्थिक संस्थाएँ जगह जगह ठंडे पानी की प्याऊ खोलते थे, वे निःशुल्क होती थी लेकिन उन पर ऐसा लिखा नहीं होता था, क्योंकि तब पीने के पानी के पैसे नहीं लिए जाते थे। जब से पीने का पानी बोतलों में बंद होने लगा है, वह बिकाऊ हो गया है।

घोर गर्मी और पानी के अभाव में नगर पालिका पानी के टैंकरों से निःशुल्क जल-प्रदाय करती थी। लोग पानी के टैंकर के आगे बर्तनों की लाइन लगा दिया करते थे। सार्वजनिक स्थानों के नल और ट्यूब वेल की भी यही स्थिति होती थी। लेकिन पानी बेचा नहीं जाता था।।

समय के साथ पानी के भाव बढ़ने लगे। नई विकसित होती कालोनियों के बोरिंग सूखने लगे। पानी बेचना व्यवसाय हो गया। प्राइवेट पानी के टैंकर सड़कों पर दौड़ने लगे। अब पानी निःशुल्क नहीं मिलता।

शहरों में चिकित्सा बहुत महँगी है ! एलोपैथी के डॉक्टर कंसल्टेशन फीस लेते हैं, वे मुफ्त में इलाज नहीं करते। आयुर्वेदिक चिकित्सा में निःशुल्क परामर्श उपलब्ध होता है। पातंजल औषधालय हो अथवा कोई आयुर्वेदिक दुकान, निःशुल्क चिकित्सा के बोर्ड लगे देखे जा सकते हैं। बस दवाइयों की कीमत मत पूछिए।।

कुछ नागरिक, समाजसेवी संस्थाओं को अपनी स्वैच्छिक सेवाएँ प्रदान करते हैं। मुफ़्त सलाह और निःशुल्क सेवाएं देने वाले को मानद भी कहते हैं। उनकी निःशुल्क सेवाओं को सम्मान प्रदान करने के लिए अंग्रेज़ी में एक शब्द गढ़ा गया है, ऑनरेरी।

समाज की विभिन्न विधाओं में निःस्वार्थ सेवाएं प्रदान करने वाले विशिष्ट व्यक्तियों को ऑनरेरी डॉक्टर ऑफ लॉज़ की डिग्री से विभूषित किया जाता है। इनमें ललित कलाओं में पारंगत विद्वानों और कलाकारों को बिना डिग्री के डॉक्टर बना दिया जाता है। किसी भी सेलिब्रिटी को ऐसा डॉक्टर बनने में ज़्यादा वक्त नहीं लगता।।

क्या मनुष्य जीवन हमें माँगने से मिला है, या फिर हमने इसकी कोई कीमत चुकाई है ? मुफ़्त में कहें, या निःशुल्क मिली यह ज़िन्दगी कितनी अनमोल है। ‌अक्सर लोग बड़े शिकायत भरे लहजे में कहते हैं, हमने पूरी ज़िंदगी निःस्वार्थ सेवा और त्याग में बिता दी और बदले में हमें क्या मिला।

‌वे भूल जाते हैं, इतना बहुमूल्य मानव जीवन उन्हें बिना कौड़ी खर्च किये मिला है। जिसने आपको यह जीवन दिया है, यह उसकी अमानत है। इसमें खयानत न करते हुए, कबीर की तरह इस चदरिया को ज्यों की त्यों रख देंगे तो यही एक बड़ा अहसान होगा। जो ज़िन्दगी आपको मुफ्त में मिली, आप उसकी क़ीमत लगा रहे हैं। मुझको क्या मिला।।

कुछ लोग निःशुल्क खुशियाँ बाँटते हैं। कितनी भी परेशानियां हों, हमेशा मुस्कुराहट उनके चेहरे पर नज़र आती है। दो शब्द मीठा बोलने में पैसे नहीं लगते।

व्यक्तित्व की महक, तड़क-भड़क और महँगे प्रसाधनों से नहीं होती। प्रसन्नता travel करती है। बस में यात्रा करते समय, किसी माँ की गोद में खिलखिलाता बच्चा, बरबस सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। वह जिसकी ओर मुस्कान फेंकता है, वह मुग्ध हो जाता है। यह सब बस किराये में शामिल नहीं होता। निःशुल्क होता है।

गर्मियों में जब सुबह ठंडी हवा चलती है, और आप सैर के लिए निकलते हैं, तो वातावरण में रातरानी की खुशबू शामिल होती है। प्रकृति ने यह सब व्यवस्था आपके लिए निःशुल्क की है। आप इसकी कीमत केवल खुश रहकर, प्रसन्न रहकर, और औरों को प्रसन्न रखकर ही चुका सकते हैं। जो निःशुल्क मिला है, उसे अपने पास नहीं रखें, निःशुल्क ही आपस में बांट लें।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ आज की सुविधा कल की दुविधा… ☆ श्री संजय आरजू “बड़ौतवी” ☆

श्री संजय आरजू “बड़ौतवी” 

अल्प परिचय 

नाम – श्री संजय कुमार (उपनाम संजय आरजू “बड़ौतवी”)

पदनाम: उप महाप्रबंधक (सिविल) भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण, भोपाल

शिक्षा: (1) सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक (2) जर्नलिज्म और मास कम्युनिकेशन में डिप्लोमा (3) M. A. (हिन्दी साहित्य)

अन्य रुचि:  कहानीकार, लघुकथाकार, कवि, स्तम्भकार, समाजसेवक,पर्यावरणविद.

☆ आलेख ☆ आज की सुविधा कल की दुविधा…📱☆ श्री संजय आरजू “बड़ौतवी” ☆

ट्रेन में बैठी “सुनीता” ने अपने काम को निपटाने के लिए है पास ही बैठे तीन साल के अपने छोटे बच्चे “तक्ष” को मोबाइल दे रखा है सुनीता चाहती है कि वह अपने ऑफिस का काम ट्रेन में बैठकर ही निपटाले, इस दौरान उसका बच्चा उसे परेशान ना करें इसके लिए उसने अपना एंड्राइड मोबाइल भी उसके हाथ में पकड़ा दिया है। बेटा तक्ष खुशी से झूमता है और सुनीता के गाल पर पप्पी देते हुए कहता है “मम्मी आई लव यू”।

एक मुस्कुराहट के साथ सुनीता अपने ऑफिस के काम में लग जाती है फिर ट्रेन में स्टेशन के बाद स्टेशन आते जाते हैं तक्ष अपने मोबाइल में अपनी पसंद का गेम खेलने लग जाता है। थोड़ी देर में तक्ष की यस यस की आवाजें आने लगती है बीच-बीच में वह सुनीता को बस इतना ही कहता” मम्मी देखो मैंने छटा लेवल पार कर लिया है अब मेरा लेवल आठ निकल गया है”। और सुनीता मुस्कुराते हुए कहती है ठीक है बेटा खेलो पर मुझे डिस्टर्ब ना करो।

ऐसी ही एक कहानी दुकान पर बैठे “सुमित” की भी है सुमित की तीन बच्चे हैं सबसे छोटी बेटी छः महीने की है उसे संभालने और घर के काम में लगी उसकी पत्नी “सुमित्रा” को ऐसे में अपने ढाई साल की मंझली बेटी”ईशा की देखभाल भी सुमित को ही करनी रहती है इसलिए वह दुकान में बैठे-बैठे कई बार ग्राहकों से बातें करने की जल्दी में बेटी ईशा को मोबाइल पकड़ा देता है।

 ईशा मोबाइल लेते ही एकदम खुशी से झूम उठती है”थैंक यू पापा” और उसके बाद वह अपना मनपसंद कार्टून टीवी देखती रहती है।

सुमित अपनी दुकानदारी में लग जाता है।

 यह छोटी-छोटी घटनाएं बाजार में हमारी आंखों के सामने से अक्सर गुजरती हैं और हम उन बच्चों को हल्का सा मुस्कुरा कर देखते है फिर उनके पेरेंट्स को कहते हैं “आपका बच्चा बहुत स्मार्ट है”।

पैरेंट्स भी मुस्कुरा कर कहते हैं जी शुक्रिया।

इक्कीसवीं सदी की यह नए पढ़े – लिखे मां-बाप की अक्सर इकलौती या दो संतानों में से एक हुआ करती है।

जहां दंपति अक्सर अपनी रोजमर्रा के जीवन की समस्याओं जैसे प्रोन्नत विकास, आर्थिक लाभ, महंगी कार या फिर महंगे सामान से घर भर लेने की तीव्र चाह से जूझते हैं।

कई बार हम खुद भी इन्ही की तरह जाने अंजाने में अपने हिस्से की जिम्मेदारियां कुछ इसी तरह निभा रहे होते है।

हमें लगता है कि बच्चों को मोबाइल पकड़ा देने से समस्याएं तात्कालिक रूप से बेहद कम या खत्म हो जाती हैं, और बहुत आसान हो जाता है बच्चों को संभालना और साथ में अपने रोजमर्रा के काम करना भी।

यह मानवीय प्रवृत्ति है कि अक्सर वह छोटे तात्कालिक लाभ के लिए कई बार और दूरगामी संभावित दुखों को अपनी तरफ आकर्षित कर लेता है।

तात्कालिक आर्थिक लाभ को समाज में लालच कहते हैं, इक्कीसवीं सदी की युवा अभिभावक अक्सर अपनी सुविधाओं के लिए बच्चों को मोबाइल में बिजी कर देना आसान माध्यम समझते हैं।

बाहर खेलने में सुरक्षा का अभाव, साथ ही अपने काम से ध्यान हटाकर बच्चे पर ध्यान लगाए रखने की एक, स्वाभाविक आवश्यकता, शारीरिक उठापटक, बच्चों के झगड़े, और न जाने क्या- क्या संभावनाएं है तो वहीं मोबाइल एक सुविधाजनक, सुरक्षित, एवम सीमित जगह पर बिना अतिरिक्त खर्च के बच्चों पर कम ध्यान देने से भी काम चलने के सुखद भाव से परिपूर्ण एक व्यवस्था है।

सभी अभिभावक जो काम कर रहे हैं, वह या तो आजीविका के लिए कर रहे हैं, या अपनी अगली पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित करने के लिए।

अपनी सुविधा के लिए बच्चों को दिए मोबाइल पर तेजी से चलती उंगलियों और घूमती आंखों से बच्चा एक विशेष खेल के एक विशेष खिलाड़ी को बचाने के लिए तो तेजी से बटन तो दबा कर बचा सकता है, मगर क्या वो बच्चा सड़क पर, सामने से आने वाली साइकिल से अपने आप को बचा पाएगा?क्योंकि साइकिल से बचना एक प्रायोगिक प्रक्रिया है जो प्रयोग से ही सीखी जा सकती है।

जबकि मोबाइल गेम में वह बच्चा अपने मोबाइल के हीरो को सिर्फ बटन दबाने मात्र से बचाता है।

उसका दिमाग और शरीर एक विशेष रूप की प्रक्रिया करने का आदी हो जाता है, जो कि बटन दबाने तक ही सीमित होकर रह जाती है, भौतिक रूप से सभी अंगों को एक साथ लेकर चलने को ही शरीर की प्रतिक्रिया कहा जाता है। अंगूठा या उंगली चलाने को नही और न ही उससे सामने से आ रही साईकल ही रुकेगी।

साईकल से बचने के लिए पूरे शरीर को काम करना होगा क्या हम अभिभावकों को इस बात का अहसास है?

क्या हम जानते हैं इस सदी की नई पीढ़ी को हम मोबाइल के साथ खेलने दिए जाने वाले अवसर के साथ-साथ अपनी सुविधाओं को भविष्य में एक बहुत बड़ी दुविधा के रूप में विकसित कर रहे हैं। यह कोई छोटी – मोटी घटना नहीं है अगली पीढ़ी के सार्वभौमिक विकास की आवश्यकता को देखते हुए, ये चिंता का गंभीर विषय है।

धीरे-धीरे 21 वीं सदी अब 24वें साल में प्रवेश कर चुकी है।

जिसका मतलब है नए – नए बन रहे मात-पिता भी, 20वीं सदी के अंतिम दशक या 21 वीं सदी में ही पले बढ़े हैं 21 वीं सदी विकास की सदी रही है, इस युवा पीढ़ी ने अपने साथ-साथ देश को परिवर्तित, होते हुए देश और समाज को कृषि प्रधान देश से तकनीकी प्रधान देश की तरफ विकसित एवं अग्रसित होते हुए देख रहा है।

 यह वह पीढ़ी है जिसने अपने माता – पिता को खेतों में काम करते हुए भी देखा है पढ़ लिख कर नई सदी के नए भारत को बनाने में अपना योगदान भी दे रहे हैं। इन्होंने संभवतः यह भी सीखा है कि जो संसाधनों की कमी उन्होंने खुद के जीवन में महसूस की है वह अपनी अगली पीढ़ी को न होने देंगे।

लेकिन यहां एक छोटा सा प्रश्न इस नवयुवा पीढ़ी के लिए है कि जिन संसाधनों की कमियों ने उन्हें नए रास्ते सोचने के लिए मजबूर किया था क्या उन संसाधनों की पूर्ति के लिए इन्होंने नए-नए रास्ते निकालने की युक्तियां नहीं लगाई थी? जिसके चलते 21वीं सदी की इस युवा पीढ़ी ने आज अपने आप को शारीरिक रूप से सुदृढ़ एवं मानसिक रूप से बहुत समृद्ध पाया है। आवश्यकता आविष्कार की जननी है यह पुरानी कहावत है जब आवश्यकता आई ही नहीं होगी तो अविष्कारी सोच कहां से आएगी?, बाहर खुले मैदान में खेलना, पेड़ पर चढ़कर एक छोटा सा आम तोड़ना खेत में जाते वक्त गीली मिट्टी में पैर का धंसना, साइकिल की चेन उतरना हैंडल का मुड़ जाना दोस्त की साइकिल पर बैठकर घर तक आना जीवन को तराशने के औजार थे न की सिर्फ संसाधनों की कमी।

यह सच है कि हर व्यक्ति की अपनी अपनी ज़रूरतें और समस्याएं होती है जिनका हल भी उसी व्यक्ति को अपने, संसाधन एवं परिस्थितियों को देखते हुए निकलना होता है।

आज घर-घर में हो रही अनजानी गलतियों की तरफ ध्यान दिलाते हुए यहां पिछले दस वर्षों के आंकड़ों का विवरण करना आवश्यक है 

वर्ष 2011 से 2019 के बीच नेशनल इंस्टीट्यूट आफ हेल्थ (NIH) अमेरिका द्वारा 15 वर्ष से कम आयु के बच्चों पर मोबाइल के प्रयोग से हुए प्रभावों पर कराए गए 25 अध्यनों में से 16(64%) में मोबाइल का बच्चों के मानसिक विकास पर बेहद खतरनाक, 5 (20%)में खतरनाक एवम 4 (16%)में कम खतरनाक बताया गया है .इस तरह कुल 84%बच्चों पर खतरनाक से बेहद खतरनाक स्तर के लक्षण जैसे आंखें खराब होना, शरीर के अंगों का सामंजस्य न होना, अल्प विकसित दिमाग, भूख न लगना, उल्टियां होना, कंपकपी आना, अत्यधिक डरना, झगड़ालू होने से लेकर मानसिक रूप से विक्षिप्त होने जैसे गंभीर प्रभाव पड़ने की संभावना है। ऐसे में आज के समय में बच्चो को मोबाइल से पूरी तरह दूर तो नही रखा जा सकता परन्तु कुछ नियंत्रित नियमों के तहत सीमित जरूर किया जा सकता है अथवा कहें कि किया जाना चाहिए।

थोड़े से साकारात्मक प्रयास ओर सोच से बच्चों की इस आदत का सदुपयोग भी किया जा सकता है जैसे – उन्हे निश्चित अवधि के लिए ही मोबाइल पर खेलने की अनुमति देने के बदले में स्कूल का होम वर्क करवाना, उन्हे नई नई तकनीकियों से परिचित कराना। उन्हे इंटरनेट से जानकारी परक खगोल, विज्ञान, स्पेस जैसे विषयों पर जानकारी परक कंटेंट के लिए प्रोत्साहित करना। उनसे खुदके लिए कुछ उपयोगी सामग्री निकलने के लिए कहना, आदि। साथ ही अभिभावकों को अपनी प्राथमिकता में बच्चों से बात करना, उनसे समसामयिक विषयों पर विचार जानना अपने व्यक्तिगत अनुभवों को बच्चों को बताना आदि भी दिनचर्या का आवश्यक अंग होना चाहिए न कि वैकल्पिक।

अपने घर के दरवाजे पर खड़ी इस भयानक त्रासदी के लिए, अपनी आज की सुविधाओं को देखते हुए बच्चों के हाथ में सिर्फ मोबाइल पकड़ा कर अपनी जिम्मेदारियां से इति श्री करने की सरलता के बजाय युवा अभिभावको को किसी वैकल्पिक व्यवस्था पर ध्यान देना समय की आवश्यकता है, जिनमें विकल्प के रूप में घर के बाहर आँगन में खेलना है, पार्क आदि में खेलते हुए बच्चों को खेलने के लिए प्रेरित करना जिससे शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ इम्यूनिटी भी बढ़ती है। , यदि बाहर खेलना संभव न हो तो बच्चों के साथ ताश खेलने, कॉमिक्स पढ़ाने, अंताक्षरी खेलना, छोटे-छोटे चिड़िया उड़, तोता उड़ जैसे खेल, किसी सुरक्षित पालतू जानवर को रख कर भी मोबाइल जैसी चीजों से बच्चों को दूर रखा जा सकता हैं। साथ ही ऑनलाइन समान मंगाने के बजाए बच्चो को दुकान पर भेज कर समान मंगवाने की आदत डालने से, बच्चे अनजान लोगों से बात करना सीखेंगे, खरीदी हुए चीज की कीमत समझेंगे, मोल भाव करना सीखेँगे और खराब और सही चीज का फर्क करना सीखेंगे, पैदल या साइकिल पर चलेंगे, इसलिए उनसे घर के छोटे छोटे काम करवाकर भी बिजी रखा जा सकता है।

दिन रात मेहनत करने के साथ बच्चों को सिर्फ सुविधा ही नही समय भीं देंने को भी प्राथमिकता रखेंगे ज्यादा अच्छा होगा। प्रतिस्पर्धा का कोई अंत नहीं है न ही संसाधनों को एकत्र करने की ही कोई सीमा है ये सच हमें ध्यान में रखकर अपनी प्रतीकताएं निर्धारित करनी होंगी।

अक्सर अभिभावक एक बात कहते है “हम जो कुछ भी कर रहे है इन बच्चों के लिए ही तो कर रहे है” एक बार सोचना चाहिए क्या सच में हम सिर्फ बच्चों के लिए कर रहे है ? या अपने दिखावटी स्वभिमान और स्टेटस की प्रति पूर्ति के लिए ? कितने बच्चे है जो अपने पिता या मां को ज्यादा कमाकर लाने को कहते है? जिस उम्र में हम इनकी इच्छाएं पूरी कर रहे होते है उन्हे पता भी नही होता वो जिद किस चीज के लिए कर रहे है, ये बात अभिभावकों को खुद समझना होगा की आज अपनी सुविधा के लिए बच्चों को मोबाइल देकर उन्हें मोबाइल की आदत डालना एवम उनके कीमती बचपन को निष्क्रिय करने से उनके और परिवार के लिए भविष्य में मानसिक विकास की कमी, कमजोर सेहत, जैसी समस्याओं का सामना करते हुए उनके आने वाले कल को खराब तो नही कर रहे!

©  श्री संजय आरजू “बड़ौतवी”

ईमेल –  [email protected]

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 653 ⇒ त्याग पत्र उर्फ इस्तीफा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “त्याग पत्र उर्फ इस्तीफा।)

?अभी अभी # 653 ⇒ त्याग पत्र उर्फ इस्तीफा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भोग से विरक्ति को त्याग कहते हैं, और पद से त्याग को त्याग पत्र कहते हैं। जिस तरह निवृत्ति से पहले प्रवृत्ति आवश्यक है, उसी प्रकार त्याग पत्र से पहले किसी पद पर नियुक्ति आवश्यक है। सेवा मुक्त भी वही हो सकता है जो कहीं सेवारत हो। सेवा से रिटायरमेंट और टर्मिनेशन से बीच की स्थिति है यह त्याग पत्र।

सेवा चाहे देश की हो अथवा समाज की, शासकीय हो अथवा गैर सरकारी, जिसे आजकल सुविधा के लिए प्राइवेट जॉब कहते हैं।

जॉब शब्द से काम, धंधा और मजदूरी की गंध आती है, जब कि सेवा शब्द में ही त्याग, सुकून और चारों ओर सुख शांति नजर आती है। शासकीय सेवा, भले ही सरकारी नौकरी कहलाती हो, लेकिन कभी शादी के रिश्ते की शर्तिया गारंटी कहलाती थी। लड़का शासकीय सेवा में है, यह एक तरह का चरित्र प्रमाण पत्र होता था। ।

वैसे तो सेवा अपने आप में एक बहुत बड़ा त्याग है, लेकिन कभी कभी परिस्थितिवश इंसान को इस सेवा से भी त्याग पत्र देना पड़ता है। जहां अच्छे भविष्य की संभावना हो, वहां वर्तमान सेवा से निवृत्त होना ही बेहतर होता है। ऐसी परिस्थिति में औपचारिक रूप से त्याग पत्र दिया जाता है और साधारण परिस्थितियों में वह मंजूर भी हो जाता है। आधी छोड़ पूरी का लालच भी आप चाहें तो कह सकते हैं।

एक त्याग पत्र मजबूरी का भी होता है, जहां आप व्यक्तिगत कारणों के चलते, स्वेच्छा से त्याग पत्र दे देते हैं। लेकिन कुछ देश के जनसेवकों पर लोकसेवा का इतना दायित्व और भार होता है, कि वे कभी पद त्यागना ही नहीं चाहते। अतः उनके पद भार की समय सीमा बांध दी जाती है। उस समय के पश्चात् उन्हें इस्तीफा देना ही पड़ता है।।

जो सच्चे देशसेवक होते हैं, वे कभी देश सेवा से मुक्त होना ही नहीं चाहते। जनता भी उन्हें बार बार चुनकर भेजती है। ऐसे नेता ही देश के कर्णधार होते हैं। इन्हें सेवा में ही त्याग और भोग के सुख की अनुभूति होती है।

लेकिन सबै दिन ना होत एक समाना। पुरुष के भाग्य का क्या भरोसा। कभी बिल्ली के भाग से अगर छींका टूटता है, तो कभी सिर पर पहाड़ भी टूट पड़ता है। अच्छा भला राजयोग चल रहा था, अचानक हायकमान से आदश होता है, अपना इस्तीफा भेज दें। आप हवाले में फंस चुके हैं। ।

एक आम इंसान जब नौकरी से रिटायर होता है तो बहुत खुश होता है, अब बुढ़ापा चैन से कटेगा। लेकिन एक सच्चा राजनेता कभी रिटायर नहीं होता। राजनीति में सिर्फ त्याग पत्र लिए और दिए जाते हैं, राजनीति से कभी सन्यास नहीं लिया जाता।

आज की राजनीति सेवा की और त्याग की राजनीति नहीं है, बस त्याग पत्र और इस्तीफे की राजनीति ही है। जहां सिर्फ सिद्धांतों को त्यागा जाता है और अच्छा मौका देखकर चलती गाड़ी में जगह बनाई जाती है।

अपनों को छोड़ा जाता है, और अच्छा मौका तलाशा जाता है। जहां त्याग पत्र एक हथियार की तरह इस्तेमाल होता है, और इस्तीफा, इस्तीफा नहीं होता, धमाका होता है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #271 ☆ सोSहम् शिवोSहम्… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सोSहम् शिवोSहम्। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 271 ☆

सोSहम् शिवोSहम्… ☆

Sहम् शिवोSहम्…जिस दिन आप यह समझ जाएंगे  कि ‘मैं कौन हूं’  फिर जानने के लिए  कुछ शेष नहीं रहेगा। इस मिथ्या संसार में मृगतृष्णा से ग्रसित मानव दौड़ता चला जाता है और उन इच्छाओं को पूर्ण कर लेना चाहता है, जो उससे बहुत दूर हैं। इसलिए वे मात्र स्वप्न बन कर रह जाती हैं और उसकी दशा तृषा से आकुल-व्याकुल उस मृग के समान हो जाती है, जो रेत पर विकीर्ण सूर्य की किरणों को जल समझ भागता चला जाता है और अंत में अपने प्राण त्याग देता है। यही दशा आधुनिक मानव की है, जो अधिकाधिक सुख-संपदा पाने का हर संभव प्रयासरत रहता है; राह में आने वाली आपदाओं व दुश्वारियों की परवाह तक नहीं करता और संबंधों को नकारता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है। इस स्थिति में उसे दिन-रात में कोई अंतर नहीं भासता। वह अहर्निश कर्मशील रहता है और एक अंतराल के पश्चात् बच्चों के मान-मनुहार, पत्नी व परिजनों के सान्निध्य  से  वंचित रह जाता है। वह उसी भ्रम में रहता है  कि पैसा व सुख-सुविधाएं स्नेह व प्रेम का विकल्प हैं। परंतु बच्चों को आवश्यकता होती है…माता के स्नेह, प्यार-दुलार व सानिध्य-साहचर्य की, पिता के सुरक्षा-दायरे की, जिसमें बच्चे स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं और माता-पिता के संरक्षण में वे ख़ुद को किसी बादशाह से कम नहीं समझते। परंतु आजकल बच्चों व बुज़ुर्गों को एकांत की त्रासदी से जूझना पड़ रहा है, जिसके परिणाम-स्वरूप  बच्चे ग़लत राहों पर अग्रसर हो जाते हैं और टी• वी•, मोबाइल व मीडिया की गिरफ़्त में रहते हुए कब अपराध-जगत् में प्रवेश कर जाते हैं;  जिसका ज्ञान उनके माता-पिता को बहुत देरी से होता है। घर के बड़े-बुज़ुर्ग भी अक्सर स्वयं को असुरक्षित अनुभव करते हैं। वे आंख, कान व मुंह बंद कर के जीने को विवश होते हैं,  क्योंकि कोई भी माता-पिता अपने व अपने बच्चों के बारे में, एक वाक्य भी सुन कर हज़म नहीं कर पाते। इतना ही नहीं, यदि वे बच्चों के हित में भी कोई सुझाव देते हैं, तो उन्हें उसी पल उनकी औक़ात का अहसास दिला दिया जाता है। अपने अंतर्मन में उठते भावोद्वेलन से जूझते हुए, वे मासूम बच्चे अवसाद के शिकार हो जाते हैं और बच्चों के माता-पिता भी आत्मावलोकन करने को  विवश हो जाते हैं; जिसका ठीकरा वे एक-दूसरे पर फेंक कर अर्थात् दोषारोपण कर निज़ात पाना चाहते हैं। परंतु यह सिलसिला थमने का नाम ही नहीं लेता। अक्सर ऐसी स्थिति में वे अलगाव की स्थिति तक पहुंच जाते हैं।

संसार में मानव के दु:खों का सबसे बड़ा कारण है… विश्व के बारे में पोथियों से ज्ञान प्राप्त करना, क्योंकि यह भौतिक ज्ञान हमें मशीन बना कर रख देता है और हम अपनी हर हसरत को पूरा कर लेना चाहते हैं – चाहे हमें उसके लिए बड़ी से बड़ी कीमत ही क्यों न चुकानी पड़े तथा बड़े से बड़ा त्याग ही क्यों न देना पड़े। यह मानव-जीवन की त्रासदी है कि हम अंधाधुंध बेतहाशा दौड़ते चले जाते हैं, जबकि हम अपने जीवन के लक्ष्य से भी अवगत नहीं होते। सो! यह सब तो अंधेरे में तीर चलाने जैसा होता है। हमारा दुर्भाग्य है कि हम यह जानने का प्रयास ही नहीं करते कि ‘मैं कौन हूं, कहां से आया हूं और मेरे जीवन का प्रयोजन क्या है?’

वास्तव में इस आपाधापी के युग में, यह सब सोचने का समय ही कहां मिलता है… जब हम अपने बारे में ही नहीं जानते, तो जीव-जगत् को समझने का प्रश्न ही कहां उठता है? आदि-गुरु शंकराचार्य पांच वर्ष की आयु में घर छोड़ कर चले गए थे… इस तलाश में कि ‘मैं कौन हूं’ और उन्होंने ही सबसे पहले अद्वैत दर्शन अर्थात् परमात्मा की सत्यता से अवगत कराया कि ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ है।  संसार में जो कुछ भी है…माया के कारण सत्य भासता है और ब्रह्म सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। केवल वह ही सत्य है, निराकार है, सर्वव्यापक है, अनादि है, अनश्वर है। परंतु समय अबाध गति से निरंतर चलता रहता है, कभी रुकता नहीं। प्रकृति के विभिन्न उपादान सूर्य, चंद्रमा, तारे व पृथ्वी आदि सभी निरंतर क्रियाशील रहते हैं। इसलिए सब कुछ निश्चित है; समयानुसार निरंतर घटित हो रहा है और वे सब नि:स्वार्थ व निष्काम भाव से दूसरों के हित में कार्यरत हैं। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते; जल व वायु प्राणदायक हैं…अपने तत्वों का उपयोग व उपभोग स्वयं नहीं करते। श्री परमहंस योगानंद जी का यह सारगर्भित वाक्य ‘खुद के लिए जीने वाले की ओर कोई ध्यान नहीं देता; परंतु जब आप दूसरों के लिए जीना सीख लेते हैं, तो वे आपके लिए जीते हैं’ बहुत सार्थक संदेश देता है। ‘आप जैसा करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है।’ नि:स्वार्थ भाव से किया गया कर्म सर्वोत्तम होता है। गीता के  निष्काम कर्म का संदेश मानवतावादी भावनाओं से ओत-प्रोत व आप्लावित है।

स्वामी विवेकानंद जी का यह वाक्य हमें ऊर्जस्वित करता है कि ‘किस्मत के भरोसे न बैठें, बल्कि पुरुषार्थ यानि मेहनत के दम पर ख़ुद की किस्मत बनाइए।’  परमात्मा में श्रद्धा, आस्था व विश्वास रखना तो ठीक है, परंतु हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाने का औचित्य नहीं है। अब्दुल कलाम जी के विचार विवेकानंद जी के उक्त भाव  को पुष्ट करते हैं कि ‘जो लोग परिश्रम नहीं करते और भाग्य के सहारे प्रतीक्षारत रहते हैं, तो उन्हें जीवन में उन बचे हुए फलों की प्राप्ति होती है, क्योंकि पुरुषार्थी व्यक्ति तो अपने अथक परिश्रम से यथासमय उत्तम फल प्राप्त कर ही लेते हैं।’ सो! आलसी लोगों को मन-चाहा फल कभी भी प्राप्त नहीं होता।

‘अपने सपनों को साकार करने का सर्वश्रेष्ठ तरीका यही है कि आप जाग जाएं’— पाल वैलेरी का यह कथन बहुत सार्थक है और अब्दुल कलाम जी भी मानव को यह संदेश देते हैं कि ‘खुली आंखों से सपने देखो, अर्थात् यदि आप सोते रहोगे, तो परिश्रमी, पुरूषार्थी लोग आप से आगे बढ़कर वांछित फल प्राप्त कर लेंगे और आप हाथ मलते रह जायेंगे।’ समय बहुत अनमोल है, लौट कर कभी नहीं आता। सो! हर पल की कीमत समझो। ‘स्वयं को जानो और पहचानो।’ जिस दिन आप समय की महत्ता को अनुभव कर स्वयं को पहचान जाओगे…अपनी बलवती इच्छा से वैसे ही बन जाओगे। सो! आवश्यकता है–अपने अंतर्मन में निहित सुप्त- शक्तियों को जानने की, पहचानने की, क्योंकि पुरुषार्थी लोगों के सम्मुख, तो बाधाएं भी खड़ा रहने का साहस नहीं जुटा पातीं…इसलिए अच्छे लोगों की संगति करने का संदेश दिया गया है, क्योंकि उस स्थिति में बुरा वक्त आएगा ही नहीं। जब आपके विचार अच्छे होंगे, तो आपकी सोच भी  सकारात्मक होगी और आप सत्य के निकट होंगे। सत्य सदैव कल्याणकारी होता है, शुभ होता है, सुंदर होता है और सबका प्रिय होता है। दूसरी ओर सकारात्मक सोच आपको निराशा रूपी गहन अंधकार में भी भटकने नहीं देती। आप सदैव प्रसन्न रहते हैं और खुश-मिज़ाज लोगों की संगति सबको प्रिय होती है। इसलिए ही रॉय गुडमैन के शब्दों में ‘हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि खुशी जीवन की यात्रा का  एक तरीका है, न कि जीवन की मंज़िल’ अर्थात् खुशी जीने की राह है; अंदाज़ है, जिसके आधार पर आप अपनी मंज़िल पर सहजता से पहुंच सकते हैं।

मानव व प्रकृति का निर्माण पंच-तत्वों से हुआ है…  पृथ्वी, जल, आकाश, वायु व अग्नि और अंत में मानव इनमें ही विलीन हो जाता है। परंतु दुर्भाग्यवश, वह आजीवन काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार के  द्वंद्व से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता तथा इसी ऊहापोह में उलझा रहता है। हमारे वेद, उपनिषद्, शास्त्र, तीर्थ-स्थल व अन्य धार्मिक – ग्रंथ समय-समय पर हमारा ध्यान जीवन के अंतिम लक्ष्य की ओर दिलाते हैं… जिसका प्रभाव स्थायी होता है। कुछ समय के लिए तो मानव निर्वेद अथवा निरपेक्ष भाव से इनकी ओर आकर्षित होता है, परंतु फिर माया के वशीभूत होने के पश्चात् सब कुछ भुला बैठता है। जीवन के अंतिम पड़ाव में वह प्रभु से ग़ुहार लगाता है कि वह उसका नाम-सिमरन व ध्यान करना चाहता है, परंतु उस स्थिति में पांचों कर्मेंद्रियां आंख, कान, नाक, मुंह, त्वचा उसके नियंत्रण में नहीं होतीं। उसका शरीर शिथिल हो जाता है, बुद्धि कमज़ोर पड़ जाती है तथा नादान मानव सबसे अलग-थलग पड़ जाता है, क्योंकि वह अहंनिष्ठ  स्वयं को आजीवन सर्वश्रेष्ठ समझता रहा। आत्मचिंतन करने पर  ही उसे अपनी ग़लतियों का ज्ञान होता है और वह उस स्थिति में प्रायश्चित करना चाहता है। परंतु उसके परिवार-जन भी अब उससे कन्नी काटने लग जाते हैं। कुछ समय गुज़र जाने के पश्चात् उन्हें उसकी आवश्यकता अनुभव नहीं होती और वे सब उसे नकार देते हैं। सो! अब उसे अपना जीवन रूपी बोझ स्वयं अकेले ही ढोना पड़ता है।

बेंजामिन फ्रैंकलिन का यह कथन ‘बुद्धिमान लोगों को सलाह की आवश्यकता नहीं होती और मूर्ख लोग इसे स्वीकार नहीं करते’ विचारणीय है। इसके माध्यम से मानव में आत्मविश्वास की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। यदि वह बुद्धिमान है, तो शेष जीवन का एक-एक पल स्वयं को जानने-पहचानने में लगा देता है… और प्रभु का नाम-स्मरण करने में रत रहता है। ‘हरि अनंत, हरि कथा अनंता’ अर्थात् प्रभु की सत्ता व महिमा अपरंपार है। मानव चाह कर भी उसका पार नहीं पा सकता। उस स्थिति में उसे प्रभु-कथा सत्य और शेष सब जग-व्यथा प्रतीत होती है। सो! मानव सदैव मौन रहना अधिक पसंद करता है और वह निंदा-स्तुति, स्व-पर व राग-द्वेष से बहुत ऊपर उठ जाता है। उसे किसी से कोई शिक़वा व शिकायत नहीं रहती, क्योंकि उसकी भौतिक इच्छाओं का तो पहले ही शमन हो चुका होता है। इसलिए वह सदैव संतुष्ट रहता है… स्वयं में स्थित रहता है और प्रभु को प्राप्त कर लेता है। वह कबीर की भांति संसार में उस सृष्टि-नियंता की छवि के अतिरिक्त किसी अन्य को देखना नहीं चाहता…’नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहि लेहुं/ न हौं देखूं और को, न तुझ देखन देहुं’ अर्थात् वह प्रभु को देखने के पश्चात् नेत्र बंद कर लेता है, ताकि वह उसके सानिध्य में रह सके। यह है प्रेम की पराकाष्ठा व तादात्म्य की स्थिति…जहां आत्मा-परमात्मा में भेद समाप्त हो जाता है। सूरदास जी की गोपियों का कृष्ण को दिया गया उपालंभ भी इसी तथ्य को दर्शाता है कि ‘भले ही तुम नेत्रों से तो ओझल हो गए हो और गोकुल से मथुरा में जाकर बस गए हो, परंतु उनके हृदय से दूर जाकर दिखलाओ, तो मानें’ गोपियों के प्रगाढ़ प्रेम व अगाध विश्वास को दर्शाता है। ‘प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय’ अर्थात् प्रेम की तंग गली में उसी प्रकार दो नहीं समा सकते, जैसे एक म्यान में दो तलवार। अत: जब तक आत्मा-परमात्मा का मिलन नहीं हो जाता, तब तक वह कैवल्य की स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि जब तक मानव विषय-वासनाओं…काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार का त्याग कर, ‘मैं और तुम’ की स्थिति से ऊपर  नहीं उठ जाता…वह ‘लख चौरासी अर्थात् जन्म- जन्मांतर तक आवागमन के चक्कर में फंसा रहता है।’

अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि सोSहम् शिवोSहम् अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूं और सम्पूर्ण प्राणी-जगत् सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की भावनाओं से ओत-प्रोत है। सो! उस सृष्टि-नियंता की सत्ता को जानना-पहचानना ही मानव का प्रथम उद्देश्य होना चाहिए। मानव जब स्वयं को जान जाता है…समस्त सांसारिक बंधन व भौतिक सुख- सुविधाएं उसे त्याज्य प्रतीत होती हैं। वह पल भर भी उस प्रभु से अलग रहना नहीं चाहता। उसकी यही कामना, उत्कट इच्छा व प्रबल आकांक्षा होती है कि एक भी सांस बिना प्रभु-सिमरन के व्यर्थ न जाए और स्व-पर व आत्मा-परमात्मा का भेद समाप्त हो जाए। यही है–मानव जीवन का प्रयोजन व अंतिम लक्ष्य… सोSहम् शिवोSहम्– जिसे प्राप्त करने में मानव को जन्म-जन्मांतर तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #207 – हाइकु पर समीक्षात्मक लेख: ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” की हाइकू की रचनाएँ – गीत गरिमा ☆ साभार – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है हाइकु पर समीक्षात्मक लेख: ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” की हाइकू की रचनाएँ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 207 ☆

☆ हाइकु पर समीक्षात्मक लेख: ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” की हाइकू की रचनाएँ – गीत गरिमा ☆ साभार – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

प्रस्तावना

हाइकु एक जापानी काव्य शैली है, जो अपनी संक्षिप्तता और गहनता के लिए जानी जाती है। परंपरागत रूप से यह 5-7-5 अक्षरों की संरचना में लिखा जाता है और प्रकृति, मौसम, और मानवीय भावनाओं को सूक्ष्मता से व्यक्त करता है। हिंदी साहित्य में हाइकु ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है, जिसमें भारतीय संस्कृति और सामाजिक यथार्थ का समावेश होता है। ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” (जन्म: 26 जनवरी 1965, रतनगढ़, नीमच, मध्य प्रदेश) की प्रस्तुत रचनाएँ इसी हीपरंपरा का हिस्सा हैं। उनकी ये कविताएँ हाइकु की भावना को अपनाते हुए ग्रामीण जीवन, सामाजिक कुरीतियों और मानवीय संवेदनाओं को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती हैं। यह लेख इन हाइकुओं की समीक्षा करता है।

हाइकु की संरचना और शैली

प्रकाश जी के हाइकु पारंपरिक 5-7-5 अक्षरों की संरचना से थोड़े स्वतंत्र हैं, किंतु इनमें हाइकु की मूल भावना—संक्षिप्तता, प्रकृति से जुड़ाव और एक क्षण का चित्रण—स्पष्ट रूप से झलकती है। प्रत्येक हाइकु तीन पंक्तियों में लिखा गया है, जो एक दृश्य या भाव को पूर्णता प्रदान करता है। उनकी भाषा सरल, सहज और ग्रामीण परिवेश से प्रेरित है, जो पाठक को तत्काल उस दृश्य से जोड़ देती है। उदाहरण के लिए, “जाड़े की रात~ तस्वीर साथ रखे सोती विधवा” में ठंडी रात का मौसमी संदर्भ और विधवा की भावनात्मक स्थिति का चित्रण हाइकु की परंपरा के अनुरूप है।

प्रमुख बिम्ब और भाव

प्रकृति और मानव का संवाद

हाइकु की मूल विशेषता प्रकृति से जुड़ाव यहाँ स्पष्ट है। “घना कोहरा~ कार में दबी माँ का मुख टटोला” और “शीत लहर~ आलू भुनती दादी चूल्हे के पास” में मौसम (कोहरा और शीत लहर) मानव जीवन के दुख और सुख के साथ जुड़ता है। “इन्द्रधनुष~ ताली बजाता बच्चा गड्ढे में गिरा” में प्रकृति की सुंदरता और जीवन की अनिश्चितता का मिश्रण एक मार्मिक चित्र प्रस्तुत करता है।

ग्रामीण जीवन का यथार्थ

प्रकाश जी के हाइकु ग्रामीण भारत की आत्मा को प्रतिबिंबित करते हैं। “नीम का वृक्ष~ दातुन लेकर माँ बेटे के पीछे” और “मुर्गे की बांग~ चक्की पर चावल पीसती दादी” में दैनिक जीवन की सादगी और पारिवारिक प्रेम झलकता है। वहीं, “पकी फसल~ लट्ठ से नील गाय मारे किसान” किसानों की मजबूरी और प्रकृति से संघर्ष को दर्शाता है।

सामाजिक विडंबनाएँ

“बाल वाटिका~ लड़की को दबोचे गुण्डा समूह” और “निर्जन गली~ माशुका के घर में झांकता पति” जैसे हाइकु सामाजिक कुरीतियों और नैतिक पतन को उजागर करते हैं। ये रचनाएँ नारी असुरक्षा और पुरुष की संदिग्धता पर करारा प्रहार करती हैं। “शव का दाह~ अंतरिक्ष सूट में चार स्वजन” आधुनिकता और परंपरा के टकराव को चित्रित करता है, जो संभवतः महामारी काल की ओर संकेत करता है।

नारी और उसकी पीड़ा

 “शिशु रुदन~ गर्भिणी माँ के सिर गिट्टी तगाड़ी” और “जाड़े की रात~ तस्वीर साथ रखे सोती विधवा” में नारी के संघर्ष और एकाकीपन का मार्मिक चित्रण है। ये हाइकु नारी जीवन की कठिनाइयों को संवेदनशीलता से व्यक्त करते हैं।

हाइकु की विशेषताएँ और प्रभाव

प्रकाश जी के हाइकु संक्षिप्त होने के बावजूद गहरे भाव और चिंतन को जन्म देते हैं। प्रत्येक रचना एक क्षण को कैद करती है, जो पाठक के मन में लंबे समय तक रहता है। “झींगुर स्वर~ जलमग्न कुटी से वृद्धा की खाँसी” में प्रकृति की ध्वनि और मानव की सहायता का संयोजन हाइकु की गहराई को दर्शाता है। हालाँकि, इस हाइकु का दो बार प्रयोग संभवतः त्रुटि है, जो संग्रह की एकरूपता को प्रभावित करता है।

उनके हाइकु में मौसमी संदर्भ (जाड़े की रात, शीत लहर, घना कोहरा) और प्रकृति के तत्व (नीम का वृक्ष, इन्द्रधनुष, काँव का स्वर) पारंपरिक हाइकु से प्रेरणा लेते हैं, किंतु भारतीय परिवेश में ढलकर विशिष्ट बन जाते हैं।

कमियाँ और सुझाव

कुछ हाइकु, जैसे “बीन की धुन~ पत्थर लिए बच्चे क्रीड़ांगन में”, संक्षिप्तता के कारण पूर्ण भाव को व्यक्त करने में असमर्थ प्रतीत होते हैं। यहाँ चित्र स्पष्ट नहीं हो पाता, जिससे पाठक को और विवरण की आवश्यकता महसूस होती है। यदि इनमें और विविधता और स्पष्टता जोड़ी जाए, तो प्रभाव और गहरा हो सकता है।

निष्कर्ष

ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” के हाइकु हिंदी साहित्य में हाइकु परंपरा को भारतीय संदर्भ में समृद्ध करते हैं। इनमें ग्रामीण जीवन की सादगी, सामाजिक यथार्थ की कटुता और मानवीय संवेदनाओं की गहराई एक साथ समाहित है। ये रचनाएँ संक्षिप्त होते हुए भी विचारोत्तेजक और भावनात्मक हैं। हाइकु की आत्मा को जीवित रखते हुए ये कविताएँ पाठक को एक अनूठा अनुभव प्रदान करती हैं। प्रकाश जी का यह प्रयास निश्चित रूप से सराहनीय है और हिंदी हाइकु साहित्य में एक महत्वपूर्ण योगदान है।

 – गीता गरिमा

साभार – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-07-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ घरेलू हिंसा और झूठे मुकदमों से घुटते पुरुष ☆ सुश्री रेखा शाह आरबी ☆

सुश्री रेखा शाह आरबी

(सुश्री रेखा शाह आरबी जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। साहित्य लेखन-पठन आपकी अभिरुचि है। आपकी प्रकाशित पुस्तक का नाम ‘संघर्ष की रेखाएँ’ है। आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आपका एक विचारणीय आलेख ‘घरेलू हिंसा और झूठे मुकदमों से घुटते पुरुष’।)

? आलेख ⇒  घरेलू हिंसा और झूठे मुकदमों से घुटते पुरुष ? सुश्री रेखा शाह आरबी  ?

हमारे देश में महिला सुरक्षा एक ज्वलंत और महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है। आधुनिक समाज और सरकार की यह मंशा रही है कि महिलाएं किसी भी प्रकार के हिंसा उत्पीड़न और दुर्व्यवहार से सुरक्षित रहे। समाज में महिलाओं को सुरक्षित माहौल मिले और काम करने का अधिकार मिले और वह आत्मनिर्भर बनकर समाज को सशक्त बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाए। इसके लिए भरसक प्रयास किया गया है। इसके लिए महिलाओं के हित सुरक्षा के लिए अनेक कानून और नीतियां है। जो उन्हें समाज में समान स्थान दिलाने के लिए जरूरी भी था।

दहेज प्रथा भारतीय समाज और महिलाओं के लिए एक अभिशाप था। और इसके उन्मूलन के लिए कानूनी प्रावधान रुपी सशक्त कानून दहेज प्रतिषेध अधिनियम (1961) बनाया गया जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 498A का उद्देश्य दहेज की प्रताड़ना से प्रताड़ित महिलाओं का उत्पीड़न रोकने के लिए बनाया गया था। जो काफी कारगर भी सिद्ध हुआ है। इस कानून के कारण महिलाओं को घरेलू हिंसा से संरक्षण सुरक्षा बहुत हद तक मिल रहा है। जिससे वह अपना सुरक्षित विकास कर सके।

अपने देश में जब भी सामाजिक न्याय, शोषण, लैंगिक समानता की चर्चा उठती है। तब सिर्फ महिलाओं को ही शोषित और प्रताड़ित माना जाता है जो कि सर्वथा अनुचित है। पुरुष भी प्रताड़ना के शिकार होते हैं घरेलू हिंसा के शिकार होते हैं। उनके साथ भी अनुचित और घोर अमानवीय व्यवहार होता है।

पुरुष को भी घरेलू हिंसा से टॉर्चर किया जाता है और झूठे मुकदमों में फंसा कर उन्हें प्रताड़ित किया जाता है। दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 जैसा एक तरफा कानून होने के वजह से पुरुषों को अपनी सुरक्षा के लिए कानूनी संरक्षण नही प्राप्त हो पाता है।

जिसके कारण वह खुद को लाचार और असहाय महसूस करते हैं। कुछ महिलाएं 498A धारा को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने लगी हैं। और दुर्भावना से प्रेरित होकर निर्दोष पुरुष और उनके परिवारों को इस कानून के दायरे में फंसाने के लिए उपयोग करने लगी हैं।

आप सोच कर देखिए यदि कोई महिला अपनी गलत मंशा की पूर्ति के लिए यदि इस कानून का अपने ससुराल वालों के खिलाफ इस्तेमाल करती है। या पति के खिलाफ इस्तेमाल करती है तो वह कितने असहाय हो जाते हैं।

और इसके अलावा हमारे समाज की मानसिकता ऐसी है कि जब भी स्त्री और पुरुष में कोई विवाद का मामला सामने आता है। तो बिना विचार किये पुरुषों को दोषी और अपराधी बता दिया जाता है। जबकि पुरुष भी दोषी हो सकता है महिला भी दोषी हो सकती है इसका पूरी संभावना रहती है।

अधिकांश पुरुष अपने घर की बातें समाज में ले जाने से भी अक्सर कतराते है। क्योंकि उसे उसी समाज में रहना होता है। और वह अपनी जग हंसाई से डरता है। और जब भी पुरुष दहेज के झूठे मुकदमे में फंसता है या घरेलू हिंसा का शिकार होता है तो वह ज्यादातर घुट घुट कर जीने को मजबूर हो जाता है।

क्योंकि वह जानता है कि ज्यादातर लोगों की सहानुभूति बिना हकीकत को जाने महिला पक्ष की तरफ रहेगी। उसका आत्मविश्वास पहले ही टूट जाता है।

और पुरुष प्रताड़ना का सबसे ज्यादा आधार बनते हैं वह नियम जो स्त्रियों को सुरक्षा देने के लिए बनाए गए। किसी भी वैवाहिक जीवन में विवाद की स्थिति आने पर दहेज प्रतिषेध अधिनियम (1961) के कानून धारा 498A का पत्नि और उनके परिवार वाले नाजायज और अनुचित फायदा उठाते हैं। और उन्हें कानून के आधार पर डरा धमकाकर अपनी अनुचित और नाजायज मांगो की पूर्ति करते हैं। और पुरुष अपने परिवारजन और अपने आप को बचाने के खातिर ब्लैकमेल होता रहता है।

भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A, जो एक विवाहित महिला के प्रति उसके पति या पति के रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता से संबंधित है, अब भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 85 में शामिल की गई है। इस नए प्रावधान में मूल रूप से वही अपराध परिभाषित है, जिसमें किसी महिला के प्रति क्रूरता (शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक) को दंडनीय बनाया गया है, और इसमें कारावास की सजा, जो तीन साल तक हो सकती है, के साथ-साथ जुर्माना भी शामिल है।

कई बार इन कानूनो के वजह से ऐसा हो जाता है कि जहां तक उसके बर्दाश्त की सीमा होती है वहां तक वह यह प्रताड़ना झेलता रहता है। और जब यही प्रताड़ना हद से ज्यादा बढ़ जाती है तो वह सुसाइड की तरफ अपना कदम बढ़ा लेता है।

और इसके एक नहीं अनेक समाज में उदाहरण देखने को मिल रहे हैं। ऐसे प्रताड़ना के शिकार होकर मरने वाले पुरुषों की संख्या दिन-ब-दिन आश्चर्यजनक रूप से बढ़ती ही जा रही है।

कुछ नाम हाल ही में चर्चा में आए। ऐसा कहा जा रहा है कि आगरा निवासी टीवीएस कंपनी के मैनेजर मानव शर्मा, बेंगलुरु के एआई इंजीनियर अतुल सुभाष, दिल्ली के सॉफ्टवेयर इंजीनियर सतीश या इनके जैसे अनेक लोग तथाकथित घरेलू हिंसा और पत्नी प्रताड़ना के शिकार हो गए हैं ।

यह दो-तीन नाम तो मात्र चर्चा में आए और सुर्खियों में आने के कारण लोग जान रहे हैं। लेकिन इनके अलावा भी हजारों ऐसे लोग हैं जो घोर प्रताड़ना के शिकार हैं। और जिनकी खोज खबर लेने वाला भी कहीं कोई नहीं है। वह मर मर कर जीने को मजबूर है।

यह सब कोई अशिक्षित, बेरोजगार युवा नहीं है बल्कि समाज में अच्छे ओहदे पर कार्यरत और पढ़े लिखे युवा थे। सोच कर देखिए इतने अच्छे ओहदो पर अपनी बुद्धि, क्षमता, कार्य कुशलता से पहुंचने वाले युवा आखिर ऐसी कौन सी स्थिति बन रही है कि अपने आप को खत्म कर ले रहे हैं। इस सवाल का जवाब समाज को ढूंढना बहुत जरूरी है।

इस पर समाज को विचार करने की बेहद आवश्यकता है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो पुरुष वर्ग का विवाह नामक संस्था से विश्वास पूर्णतया उठ जाएगा। जो समाज में और भी अराजकता और दुराचार फैलाने का कारण बनेगा।

498A धारा का दुरुपयोग हजारों पुरुषों के जीवन को पूरी तरह तहस-नहस कर देता है। क्योंकि इस कानून के कारण उनको न्याय के लिए बुरी तरह भटकना पड़ता है। किंतु उसे उम्मीद की किरण नहीं दिखाई देती है। और यही निराशा उसकी जान ले लेती है।

एनसीआरबी के आंकड़े के अनुसार 498A के तहत दर्ज मामलों में लगभग 74% कोई ठोस सबूत नहीं मिला। 90% मामलों में पुरुष को अंततः बरी कर दिया गया क्योंकि वह निर्दोष थे। लेकिन इस प्रक्रिया, अवधि में उन्हें सामाजिक, आर्थिक, मानसिक प्रताड़ना का बुरी तरह शिकार होना पड़ा।

जिससे वह टूट जाते हैं और वह इसलिए टूट जाते हैं क्योंकि उनकी बरसों की कमाई, मान, प्रतिष्ठा सब कुछ तहस-नहस कर दिया जाता है। एक पुरुष के लिए उसकी सामाजिक मान, प्रतिष्ठा और उसकी आर्थिक स्थिति काफी महत्वपूर्ण स्थान रखती है। क्योंकि अभी भी अधिकांश घरों में परिवार की पहली जिम्मेदारी पुरुष के ऊपर ही होती है। उसके कंधों पर ही सारा भार होता है और परिवार में सिर्फ पत्नी नहीं होती है। उसके बच्चे होते हैं, माता-पिता होते हैं, छोटे- भाई बहन होते हैं। और यदि वह किसी झूठे केस और दहेज के झूठे मुकदमे में फंस जाता है। तो वह अपनी कोई भी जिम्मेदारी ढंग से पूरी नहीं कर पता है जिसके कारण भी वह बेहद गहरे अवसाद में चला जाता है और शायद ही वह फिर कभी अपनी पहले जैसी आर्थिक स्थिति, सम्मान, प्रतिष्ठा को वापस पाता है।

आखिरकार पुरुषों को भी एक सम्मान पूर्वक जीवन जीने का समान रूप से अधिकार है। इसके लिए सरकार जब तक ऐसे झूठे मुकदमे करने वाले लोगों के खिलाफ सख्त कार्यवाही नहीं करेगी। तब तक इस स्थिति में सुधार नहीं आएगा। पुरुष घरेलू हिंसा के झूठे मुकदमों का शिकार होते रहेंगे और अपनी जान गंवाते रहेंगे।

यह तथ्य भी सही है कि स्त्री प्रताड़ना की बहुत अधिक शिकार होती हैं। लेकिन पुरुषों की प्रताड़ना को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है। जितना नारी सशक्तिकरण आवश्यक है। उतना ही पुरुषों को भी न्याय मिलना आवश्यक है। दोनों के हितों की समान रूप से रक्षा होनी चाहिए।

अन्याय चाहे स्त्री के प्रति हो या पुरुष के प्रति हो अन्याय तो अन्याय ही रहेगा। इसलिए अब ऐसे कानून की बेहद आवश्यकता है। जो ऐसे झूठे मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट के द्वारा जल्द से जल्द फैसला दिया जाए। ताकि निर्दोषो को तुरंत न्याय मिल सके। और वह शांति पूर्वक अपना पारिवारिक जीवन जी सके। एक सभ्य समाज का निर्माण समानता के धरातल पर ही टिक सकता है। स्त्री हो या पुरुष एक वर्ग का असंतोष पूरे समाज को प्रभावित करता है।

परिवार, दोस्तों, पड़ोसियों को भी चाहिए कि यदि ऐसी स्थिति में प्रताड़ित हुआ कोई दोस्त मित्र उनके संज्ञान में आए तो वक्त पर उस व्यक्ति को मानसिक भावनात्मक सहारा अवश्य दें। जिससे कि वह अपने मानसिक तनाव से लड़ सके। ऐसा करना हो सकता है कि किसी की जान बचा ले।

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© सुश्री रेखा शाह आरबी

बलिया( यूपी )

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 651 ⇒ काली मूँछ ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “काली मूँछ।)

?अभी अभी # 651 ⇒ काली मूँछ ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मूँछें मर्द की होती हैं ! वे शुरू में काली होती हैं, लेकिन उम्र के साथ सफेद होती चली जाती है। लेकिन चावल की एक किस्म होती है, जिसे भी काली मूँछ कहा जाता है। यह चावल काला नहीं सफेद होता है, लेकिन इसकी लंबाई के आखिर में हल्का सा कालापन दिखाई देता है, शायद इसीलिए इसे काली मूँछ कहते हों।

कृष्ण और सुदामा की दोस्ती में चावल का जिक्र ज़रूर होता है। मुट्ठी भर चावल की दास्तान ही कृष्ण-सुदामा की दोस्ती की पहचान है। आज भी आप जगन्नाथ पुरी चले जाएं, जगन्नाथ के भात का भोग ही प्रसाद के रूप में भक्तों को प्राप्त होता है। चावल को अक्षत भी कहते हैं, बिना कंकू-चावल के पूजा नहीं होती। किसी खास अवसर पर निमंत्रण हेतु पीले चावल भिजवाए जाते हैं। और तो और बिना चावल के हाथ भी पीले नहीं होते। सावधान के मंत्र के साथ अक्षत वर्षा होती है, और वर-वधू सावधान हो जाते हैं।।

आप देश के किसी भी कोने में चले जाएं, भोजन में चावल का स्थान नमक की तरह निश्चित है। बासमती, जैसे कि इसके नाम से ही जाहिर है, खुशबू वाला चावल है। बिरयानी कहीं भी खाई जाए, बिना चावल के नहीं बनती।

यूँ तो छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा गया है, लेकिन पॉलिश और खुशबू वाले बासमती चावल की तुलना में यहाँ का चावल अधिक स्वास्थ्यवर्धक है। जिस चावल में स्टार्च कम हो, वह अधिक लाभप्रद होता है। मणिपुर में एक काले चावल की प्रजाति पाई जाती है। औषधीय गुण की अधिकता के कारण इसकी कीमत 1800 ₹ किलो है। इसमें एंटीऑक्सीडेंट अधिक मात्रा में पाया जाता है।

पसंद अपनी अपनी, स्वाद अपना अपना। ग्वालियर के आसपास पाया जाने वाला काली मूँछ चावल बासमती चावल की तुलना में आजकल कम प्रचलन में है। मूँछ हो या न हो, कभी काली मूँछ चावल का स्वाद भी चखकर देखें।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ वेदों में अंकगणितीय परम्परा… ☆ श्री राजेन्द्र शर्मा ‘राही’ ☆

श्री राजेन्द्र शर्मा ‘राही’

(श्री राजेंद्र शर्मा ‘राही’ (अभियंता), लेखक ,कवि एवं ज्योतिष विद का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। )

☆ आलेख ✍ वेदों में अंकगणितीय परम्परा… ☆ श्री राजेन्द्र शर्मा ‘राही’ 

गणित की मुख्यतः तीन शाखाएं हैं – अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित। 

अंकगणित को पाटी गणित भी कहा जाता है जब लकड़ी की पट्टी पर लिखकर हिसाब लगाया जाता था तब इसे पाटी गणित के नाम से जाना जाता था उस समय पाटी के उपर बालू या मिट्टी डालकर गड़ना करने की प्रथा भी थी जिसे धूलि कर्म कहा जाता था अंकों के उपयोग के कारण पाटी गणित को व्यक्त एवम अंक के साथ अक्षर के कारण बीजगणित को अव्यक्त गणित कहा जाता है। 

वेद सबसे मुख्य प्राचीन एवम प्रमाणिक ग्रंथ है जिनकी कुल संख्या चार हैं, जिन्हें हम ऋग्वेद,यजुर्वेद,अथर्ववेद, सामवेद के नाम से जानते हैं वेदों की रचना ईसा से काफी वर्ष पहले हुई थी जिसमें हमें अंकगणित के प्रारम्भिक रूप के दर्शन होते हैं ।

इसी प्रकार संस्कृत साहित्य मुख्यतः दो भागों में विभक्त है वैदिक साहित्य एवं लौकिक साहित्य। वैदिक साहित्य के अंतर्गत वेद ब्राह्मण ग्रंथ,आरण्यक,उपनिषद, वेदांग आदि ग्रंथ आते हैं जबकि लौकिक साहित्य के अंतर्गत रामायण, महाभारत,काव्य,नाटक, पुराणादि ग्रंथ आते हैं। अंकगणित के बीज वैदिक साहित्य के साथ साथ लौकिक साहित्य में भी प्राप्त होते हैं। 

आज हम आधुनिक गणित का जो परिष्कृत एवम उन्नत रूप देख रहे हैं इसके मूल में हमारे वेद ही हैं वेदों के अंतर्गत अंकगणित का अनेक जगह उल्लेख मिलता है ऋग्वेद के 10 वे मंडल के अक्ष सूक्त (10.34.02) मंत्र में द्युत विद्या अंतर्गत अक्षों के ऊपर एक दो तीन चार इत्यादि अंकों को लिपिबद्ध करने का वर्णन मिलता है इसी प्रकार इस मंडल के एक अन्य दूसरे मंत्र (10.34.08) में 53 संख्या का उल्लेख भी मिलता है इसी वेद अंतर्गत ऋषि एक अन्य मंत्र में कहते हैं कि एक स्थान पर मुझे ऐसी हजारों गायें देखने को मिली जिनके कान पर 8 का अंक लिखा हुआ था। 

इंद्रेण युजा निः सृजन्त वाघतो व्रजम गोमन्त मशविनम सहस्त्रम मे ददतो अष्टकर्णय: श्रवो देवेश्वक्रतः

ऋग्वेद १०.६२.०७

अन्कानाम वामतो गति: प्राचीन काल से ही संख्या पद्धति के लेखन एवं उच्चारण में शब्दांक और संख्यांक में विपरीत गति है

ऋग्वेद के मंत्र (3.9.9) एवम (10.52.6)मंत्रों में अंकों को शब्दों में लिखने का वर्णन प्राप्त होता है

त्रिणी शतानी त्रिसहस्त्राणी त्रिंशत च नव च

इसी तरह ऋग्वेद के (1.20.7), (10.27.15) (1.32.14) (10.72.8) मंत्रों में अन्य संख्याओं के लेखन का वर्णन भी मिलता है ऋग्वेद के ही एक अन्य मंत्र में अलंकारिक रूप से तीन सौ साठ दिनों को एक चक्र में लगी हुई तीन सौ साठ कीलें बताया गया है। 

वहीं यजुर्वेद में गणितीय तथ्य कर्मकांडों के साथ मिलते हैं मंत्र संख्या (17.2) में 10 की घात शून्य एवम दस की घात 12 तक की संख्याओं का वर्णन प्राप्त होता है जिनको निम्न तरीके से उल्लेखित किया गया है ।

एक, दश,शत(सौ),सहस्त्र (एक हजार), अयुत (दस हजार), नियुत (एक लाख),प्रयुत,(दस लाख),अरबुद,(एक करोड़), न्युरबुद (दसकरोड़), समुद्र(एक अरब),मध्य(दस अरब),अन्त(एक खरब),परार्ध(दस खरब) इस प्रकार परार्ध सबसे बड़ी संख्या के रूप में देखी गई है ।

यजुर्वेदीय याग पद्धति में संख्याओं की लेखन पद्धति को मंत्र संख्या (18.24,18.25) में स्पष्ट किया गया है ।

एका चमे त्रिस्तस्च चमे पञ्च चमे, सप्तस्चमे नवस्चमे एक्दश्चमे, द्वादश्चमे…. यज्ञेन कल्पन्ताम

इसका अर्थ है कि – 1, 3, 5, 7, 9, 11, 13, 15, 17, 19, 21, 23, 25, 27, 29, 31, 33 आदि प्रभृति अयुग्म साम मुझे यज्ञ में सिद्ध होवें।इसी प्रकार इन्हीं मंत्रों में 4, 8, 12, 16, 20, 24, 28, 32, 36, 40, 44, 48 प्रभृति स्वर्ग प्रामक युग्म स्तोम मुझे यज्ञ के द्वारा सिद्ध होवें।  इस प्रकार

सख्याओं का वर्णन मिलता है जिन्हे रुद्राभिषेक के सप्तम अध्याय में भी उल्लेखित किया गया है। 

इसी मंत्रांतर्गत अयुग्म संख्या(विषम संख्या )तथा युग्म संख्या (सम संख्या) का भी वर्णन देखने को मिलता है अयुग्म संख्या (१,३), (३,५), (५,७), (७,९), (९,११), (११,१३), (१३,१५), (१५,१७), (१७,१९), (१९,२१), (२१,२३), (२३,२५), (२५,२७),), (३७,२९), (३९,३१),और युग्म संख्या चार के पहाड़े के रुप में समानांतर श्रेणी एवम गुनोत्तर श्रेणी में वर्णित है। 

(४,८), (८,१२), (१२,१६), (१६,२०), (२०,२४), (२४,२८), (२८,३२), (३२,४०), (४०,४४), (४४,४८),

यजुर्वेद के ही तेत्तरिय संहिता में मंत्र  संख्या (७,२.११-२०) में विषम संख्याओं का विस्तृत विवेचन निम्न रूपों में प्राप्त होता है

१, ३. ५, ७, ९, ११, १३, १५, १७, १९, २९, ३९, ४९, ५९, ६९, ७९, ८९, ९९

इसके अलावा मंत्र संख्या (१४.२३) में जोड़ घटाव गुणन का भी वर्णन दिया हुआ है और मंत्र संख्या (8.30) में एक पदी, द्विपदी, त्रिपदी, चतुष्पदी क्रम आदि की संख्याओं का अभीष्ट गणितीय संयोजन मिलता है। 

 मंत्र संख्या( २३.२४) में सचछंदा, विचछंदा पदों का अर्थ है विभाज्य एवम अविभाज्य संख्याएं सम संख्याएं विभाजित होती है और विषम संख्याएं अविभाजित होती हैं यद्यपि कुछ विषम संख्याएं भी विभाजित होती हैं ।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यजुर्वेद में गणितीय संख्याओं का उल्लेख विभिन्न रूपों में अधिक मिलता है ।

सामवेद के आरण्यक पर्व में भी ऋषि अग्निदेव की आराधना करते हुए विराट पुरुष के स्वरूप का संख्याओ के साथ वर्णन करते हैं विराट पुरुष हजारों सिर वाला, हजार नेत्रों वाला एवम हजार चरणों वाला होता है।

इसी प्रकार अथर्ववेद में भी गणितीय तथ्यों से संबंधित संख्यांक संख्याएं मूलगणितीय संक्रियाएं जोड़ ,घटाव गुणन प्राप्त होती है शून्य के सिद्धांत का उल्लेख सूक्त (५.१५) में किया है ।

इसी में मन्या विनाशन सूक्त के मंत्र (६.२५,१.३)में शुनः शेप ने गले के रोगों के निदान के लिए गणितीय अंकों का प्रयोग किया है गंडमाला रोग की गर्दन में ५५,ग्रीवा में ७७, कंधे में ९९ धमनियां उसी प्रकार नष्ट हो जाती हैं जैसे पतिव्रता स्त्री के सामने दोषपूर्ण वचन अथर्ववेद के श्लोक (८.८.७,१०.८.२९) में भी अंकगणित के दर्शन मिलते हैं मंत्र संख्या (१३.५.१५ ,१५,१८) में एक से दस संख्याओं का वर्णन मिलता है अन्य सूक्त (५.१६) में ११ तक की संख्यायों का वर्णन मिलता है अथर्ववेद के मंत्र (१९.२३ )में बीस तक के अंकों की संख्या हवन विधि अंतर्गत निम्न रूप में दी गई है ।

पंच चरभेभ्य स्वाहा, सष्टाचेभ्य स्वाहा, सप्तचरभेभ्य स्वाहा …… विशति स्वाहा

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि हमारे ऋषि मुनियों को गणित का प्रारम्भिक ज्ञान था जो समय के साथ उन्नत एवम परिष्कृत होकर आज हमारे सामने है इस प्रकार गणित का मुख्यत: श्रेय हमारे ऋषि मुनियों को ही जाता है।जिन्हें वैदिक सभ्यता ही अंकगणित का ज्ञान था

 

© श्री राजेन्द्र शर्मा राही 

भोपाल 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 650 ⇒ नीचे गिरने की कला ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नीचे गिरने की कला ।)

?अभी अभी # 650 ⇒ नीचे गिरने की कला ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आप इसे आकर्षण कहें या गुरुत्वाकर्षण, गिरना पदार्थ का स्वभाव है। जंगलों में बहता पानी पत्थरों और पहाड़ों के बीच रास्ता बनाता हुआ, झरना बन नीचे ही गिरता है, पहाड़ पर नहीं चढ़ता। गंगोत्री हो या अमरकंटक, भागीरथी गंगा हो या माँ नर्मदे, पहाड़ों, पठारों के बीच होती हुई, नीचे की ओर कलकल बहती हुई सागर में ही जाकर मिलती है।

इंसान भी जब गिरता है, तो धुआंधार गिरता है और जब उठता है, तो सनी देओल की भाषा में उठ ही जाता है। वैसे गिरना उठना किस्मत का खेल है ! अब आप सेंसेक्स को ही लीजिए, कितनों को ऊपर उठाया, और कितनों को नीचे गिराया। जो काम पहले सट्टा बाज़ार करता था, वह काम आजकल सत्ता का बाज़ार कर रहा है। किसी को उठा रहा है, किसी को गिरा रहा है। पहलवानों की भाषा में, इसे ही उठापटक कहते हैं।।

साहित्यिक भाषा में इसे उत्थान और पतन कहते हैं। इतिहास भी क्या है। सिकंदर भी आए, कलन्दर भी आये, न कोई रहा है, न कोई रहेगा। प्रसिद्धि के बारे में भी कहा गया है। कितना भी ऊँचा उठ जाओ, उसकी सीमा है। गिरने की कोई सीमा नहीं। वे फिर भी भाग्यशाली होते हैं, जो आसमान से गिरते हैं और खजूर में अटकते हैं। अगर ज़मीन पर गिरते तो क्या हश्र होता।

आप इसे क्या कहेंगे, अतिशयोक्ति अलंकार ही न ! तुम इतना नीचे गिरोगे, मैंने सोचा भी न था। क्या कोई ऊपर भी गिरता है। गिरने का मतलब नीचे गिरना ही होता है। किसी के ऊपर तो कोई कभी नहीं गिरता। वे कितने समझदार हैं, जिनका सरनेम गिरपडे़ है। वे कभी नहीं कहते, नीचे गिर पड़े। बस गिर पड़े, तो गिरपड़े।।

एक नीचे उतरना भी होता है।

यह बड़ा सभ्य और शालीन तरीका होता है। लोग कार से नीचे उतरते हैं, हवाई जहाज से नीचे उतरते हैं, मंत्री हेलीकॉप्टर से नीचे उतरते हैं। लेकिन साउथ अफ्रीका में मोहनदास को काला समझ गोरों ने ट्रेन से क्या उतारा, वो महात्मा बन गया। पहाड़ पर अगर चढ़ा जाता है, तो नीचे भी उतरा जाता है। बस केवल एक ऊँट ही है जो बड़ी मुश्किल से पहाड़ के नीचे आता है।

चरित्र का गिरना बुरा और किसी राजनीतिक पार्टी का गिरना अच्छा माना जाता है, ऐसा क्यों ? एक गिरा हुआ आदमी, कितना गिरा हुआ है, इसकी कोई पहचान नहीं, कोई मापदंड नहीं। कितने गिरे हुओं को समाज और कानून दंड देता है, इसका कोई हिसाब किताब नहीं। झूठ बोलने की कोई सज़ा नहीं, चोरी करके पकड़े जाने की सज़ा है। कितने भी मच्छर मारिए, कोई सज़ा नहीं, किसी पुलिस वाले को हाथ लगाकर तो देख लें।।

जो आदमी जितना नीचे गिरता है, वह उतना ही ऊँचा उठता है, इसे राजनीति कहते हैं। यहाँ विज्ञान का कोई सिद्धांत लागू नहीं होता। क्योंकि यह राजनीति विज्ञान है। समय आने पर लोग भूल जाते हैं, वह कितना गिरा हुआ था, उसे सर आँखों पर बिठाया जाता है। बस वह अपनी सत्ता की कुर्सी सम्भालकर रखे। क्योंकि कुर्सी पर बैठा इंसान कभी गिरा हुआ नहीं कहलाता।

गिरना एक कला है, यह सबके बस की बात नहीं। आप अगर गिरें और ठोकर खाएँ, तो समझदारी इसी में है, उठ खड़े हों और आगे से संभलकर चलें।

जिन्हें वक्त ने लात मारकर नीचे गिराया है, उन्हें भी उठाएं, गले से लगाएँ। गलत तरीकों से ऊपर उठना, नीचे गिरना ही कहलाता है। यह पतन का मार्ग है, आत्मा के उत्थान का नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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