श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक जिंदगी स्मार्ट सी…“।)
अभी अभी # 550 ⇒ एक जिंदगी स्मार्ट सी श्री प्रदीप शर्मा
सादा जीवन उच्च विचार, क्या कहीं सुना सुना सा नहीं लगता ! दिमाग पर बहुत जोर डालना पड़ता है, तब अनायास लालबहादुर शास्त्री का ख्याल आता है। तब हमारे जीवन में भी कहां तड़क भड़क थी। आज की पीढ़ी भले ही कह ले, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी, लेकिन इसमें हमारा भी कोई दोष नहीं। दिलीप कुमार खुद २२ इंच की मोरी की पैंट पहनता था, लड़के लोग देवानंद जैसे फुग्गे वाले बाल रखते थे और लड़कियां साधना कट बाल। तब बस यही फैशन और स्मार्टनेस की परिभाषा थी।
पहले बच्चों के कपड़े घर में मां ही सीती थी। इतने भाई बहन होते थे कि कपड़े, बस्ते और किताबें आपस में शेयर की जाती थी। वही कोर्स की पुरानी किताबें, नया कवर चढ़ाकर छोटे भाई बहन के काम आती थी। नये कपड़े वार त्योहार और शादी ब्याह के मौके पर।।
परिवार का एक ही दर्जी होता था, भीखाभाई टेलर मास्टर। हेयर कटिंग भी अगर करवानी है तो आपले केश कर्तनालय में।
अपनी कोई पसंद ही नहीं होती थी। रेडियो तक को सिर्फ पिताजी हाथ लगाते थे। बाल कभी बढ़ते ही नहीं थे। शरीफ बच्चे जो होते थे हम।
पहला फोटो कृष्णपुरा के गोपाल स्टूडियो में खिंचवाया, क्योंकि कॉलेज में आइडेंटिटी कार्ड बनवाना था। पहली बार खुद की साइकिल हाथ लगी और खुद का अलग कॉलेज। साला मैं तो स्मार्ट बन गया। अब हाफ पैंट पहनने में शर्म आने लगी थी।।
अच्छी तरह याद है, एवर स्मार्ट टेलर ने हमारा पहला पैंट सीया था। अब मुंह से अंग्रेजी निकलने लगी थी। स्टार लिट टॉकीज में अंग्रेजी फिल्में और अंग्रेजी उपन्यास भी पढ़ने शुरू कर दिए थे। कम सेप्टेंबर की धुन और टकीला ने हमें पूरा अंग्रेज बना दिया था।
अंग्रेजी फिल्म समझे ना समझे, डॉक्टर जिवागो, गन्स ऑफ नेवरोन, साइको (psycho) जिसे कुछ लोग पिस्को भी कहते थे, और ड्रेकुला देखना और रात में बिस्तर में डरना किसे याद नहीं।
तब तक इतने स्मार्ट तो हम भी हो गए थे, कि कॉलेज को बंक मार फिल्में देखना शुरू कर दिया था। अगर आए दिन कॉलेज में जी टी (जनरल तड़ी) और स्ट्राइक होगी तो रोज रोज सीधे घर तो नहीं जाया जा सकता ना। यहां हमारा कोई भाई बहन नहीं होता था, जो घर जाकर मां से चुगली कर दे। सभी जानते थे, कॉलेज लाइफ कैसी होती है।।
आज स्मार्ट टीवी के सामने बैठकर, स्मार्ट फोन पर जब पिछली जिंदगी का सिंहावलोकन करने बैठते हैं, तो बड़ी हंसी आती है। उंगलियों और कागजों पर गुणा भाग करना पड़ता था। तब कहां कैलकुलेटर नसीब होता था। एक चल मेरी लूना हमें कहां कहां ले जाती थी। अलका और प्रकाश सिनेमाघर हमेशा हाउसफुल रहते थे। लाइन में लगे, लेकिन कभी ब्लैक में टिकट नहीं लिया। लेकिन बाद में कई चीजों पर ऑन देना पड़ा।
कभी पूरा शहर पैदल और आसपास के पर्यटन स्थल साइकिल से आराम से नाप लिए जाते थे, लेकिन स्मार्ट सिटी बनता जा रहा हमारा शहर, अब हमसे नहीं नापा जाता। फेसबुक की पोस्ट पर रीच की तरह शहर में भी हमारी रीच बहुत कम हो गई है। या तो हम कम रिच (rich) हो गए हैं, या फिर मेरा शहर बहुत अमीर हो गया है।।
जिस शहर में लोग साइकिल छोड़ बाइक और कार में आ जाते हैं, वहां फिर पैदल कोई नहीं चलता। मोहल्ले कॉलोनियों में, और कॉलोनियां बहुमंजिला इमारतों में तब्दील होती चली जाती है। लोग अब शहर छोड़ गांव में नहीं जाते, गांव खुद ही शहर में शामिल होते चले जाते हैं।
मेरे आसपास आजकल सब्जियां और किराना बिग बास्केट से , और खाना जोमैटो से आता है। महीने का किराना आजकल बनिया नहीं लाता, लोग डी मार्ट चले जाते हैं। सभी कुछ ऑनलाइन होने से , भले ही आपकी जेब में फूटी कौड़ी ना हो, आप दुनिया भर की सैर आराम से कर सकते हैं। जब दुनिया भर का समय भी आजकल स्मार्ट वॉच ही बताती है, तो हमारी जिंदगी भी स्मार्ट ही हो गई है। कितना सुख चैन है इस स्मार्ट लाइफ में। आज अगर शैलेंद्र होते तो मजबूरी में वे भी शायद यही कहते ;
जीना यहां मरना यहां
इसके सिवा जाना कहां।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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