( हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन)हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते हैं। इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। दीपावली पर्व के विशेष अवसर पर उन्होंने एक अनुकरणीय उदहारण ‘आचार्य कुंदनलाल की अनूठी दीवाली’ साझा किया है। सहज ही विश्वास नहीं होता कि अभी भी समाज में ऐसी वंदनीय वरिष्ठतम पीढ़ी है जिनसे हमें सीखने की आवश्यकता है। हम आपसे उनकी अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)
☆ आलेख ☆ दीपावली विशेष – आचार्य कुंदनलाल की अनूठी दीवाली ☆
हिसार शहर की अग्रसेन कॉलोनी में रह रहे हमारे पड़ोसी 83 वर्षीय आचार्य कुंदनलाल का परिवार पिछले करीबन दस दिन से दीवाली उपहार के किट तैयार करने में जुटा है। लक्ष्य 108 उपहार का है जिन्हे वे अपने पैतृक गांव डोभी की गौशाला के मजदूर परिवारों व अन्य गरीब घरों को प्रदान करेंगे। गौशाला 35 एकड़ क्षेत्र में बनी है और वहां लगभग 8500 गाएं रखी गई हैं।
हर उपहार किट में दी जा रही सामग्री भी अनुपम है।
लक्ष्मी गणेश जी की प्रतिमा -1,
बड़ा दीपक -1,
छोटे दीपक -21,
सरसों तेल बोतल -1,
रोली – 1,
मोली – 1,
चावल – 500 ग्राम
मोमबत्ती – 2,
तैरती मोमबत्ती – 2,
धूपबत्ती डब्बी – 1,
अगरबत्ती डब्बी – 1
रुई की बत्ती – 21
माचिस – 1
बिस्कुट पैकेट – 4
टॉफी – 10
फिक्की खील – 100 ग्राम
मिट्ठी खील – 250 ग्राम
इतर शीशी – 1
सूती चद्दर का सेट – 1
(उल्लेखनीय है कि किट में पटाखे, फुलझड़ी या बॉम्ब आदि बिल्कुल नहीं हैं।)
“भगवान रामचन्द्र जब बनवास से लौटे तो अयोध्यावासियों ने दीपमाला कर उनका स्वागत किया था। पटाखों व बंबों से नहीं। इनका चलन एक ग़लत प्रथा है। ये प्रदूषण फैलाते हैं जो इन दिनों एक भारी समस्या बन गई है। दिल्ली में ज्यों ज्यों प्रदूषण बढ़ा है, त्यों त्यों कोरोना महामारी के केस बढ़ते जा रहे हैं।
जो लोग पटाखे आदि चलने को धार्मिक सांस्कृतिक परंपरा मानते हैं, वे ग़लत प्रचार कर रहे हैं। किसी धर्म ग्रंथ में इसका उल्लेख नहीं है”, आचार्य जी स्पष्ट करते हैं।
कुंदनलाल जी के घर पर लगभग एक हज़ार धार्मिक पुस्तकों की लाइब्रेरी है। वे बाज़ार में गीता प्रेस की व अन्य धार्मिक पुस्तकें बेचते हैं। उन्होंने धार्मिक अनुष्ठानों के लिए ज़रूरी सामग्री की एक अलग दुकान भी की है।
असल में कुंदनलाल बहुत पढ़े लिखे नहीं है। वे केवल आठवीं पास हैं पर उनके जानकार उन्हे आचार्य कह कर ही संबोधित करते हैं। वे धार्मिक ग्रंथों के ज्ञाता हैं। वे धार्मिक संस्थानों में प्रवचन करते हैं। उनके जानकार इसीलिए उन्हें आचार्य जी कह कर संबोधित करते हैं।
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “भारतीय शिक्षा और पाश्चात्य गुण-दोष“. )
☆ किसलय की कलम से # 22 ☆
☆ भारतीय शिक्षा और पाश्चात्य गुण-दोष ☆
भारतीय शिक्षा का गरिमामय इतिहास संपूर्ण विश्व के लिए अद्वितीय है। वैदिक युग से वर्तमान तक भारतीय शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन हुए हैं। गुरुकुल परंपरा के अंतर्गत राम और कृष्ण की शिक्षा के प्रमाण मिलते हैं। वर्तमान में नालंदा विश्वविद्यालय, काशी, उज्जयनी, गोलकी मठ जैसे शिक्षा केंद्र अस्तित्व में रहे हैं। बाल्यकाल में ही विद्यार्थियों को भाषा, राजनीति, धर्म, युद्ध, कला, शस्त्र-शास्त्रों सहित समग्र व्यवहारिक ज्ञान में पारंगत कर दिया जाता था। आज जैसे वेतनभोगी गुरुजन उन दिनों नहीं हुआ करते थे। गुरुजनों का सम्मान राजा-महाराजाओं से कहीं अधिक हुआ करता था।
भारत में हमेशा से ही धर्म, नीति और व्यवहारिक शिक्षा पर जोर दिया जाता रहा है। समय के साथ शिक्षा में बदलाव होते गए। मुगलों और अंग्रेजों के आते-आते शिक्षा के मायने ही बदलने लगे। अंग्रेजों ने शिक्षा नीति ही ऐसी बनाई जिसमें केवल ऐसी शिक्षा पर जोर दिया गया जहाँ शिक्षा प्राप्त कर केवल बाबूगिरी, मुंशीगिरी और कानून समझने वाले पैदा किए जा सकें जो अंग्रेजी प्रशासन के कुशल संचालन में मदद कर सकें। स्वतंत्रता प्राप्ति के बहुत बाद तक वही स्थिति रही, लेकिन पिछले चार दशकों में बहु-आयामी शिक्षा का प्रचार प्रसार त्वरित गति से बढ़ा। आज भाषा, राजनीति, तकनीकि, भूगोल, भूगर्भ, अंतरिक्ष, समुद्र सहित चिकित्सा एवं ब्रह्मांड संबंधी शिक्षा तक हमारी पहुँच बन चुकी है। आज हम बहुविषयक शिक्षा की बदौलत विकास के मार्ग पर गतिमान हैं। उपरोक्त ज्ञान एवं उपलब्धियों ने हमें खुशियाँ तो दी हैं परंतु हम स्वदेशी शिक्षा से इतने दूर निकल गए हैं कि अब पीछे मुड़ना संभव नहीं है। आज हम विदेशी भाषाओं विदेशी अविष्कारों एवं विदेशी परिवेश पर आधारित ज्ञान को प्राप्त कर रहे हैं। विश्व के समकक्ष खड़े होना तो ठीक है लेकिन अपनी संस्कृति, सभ्यता, परंपराएँ, परिवेश और वैदिक ज्ञान को भूलना अथवा उन से अनभिज्ञ होते जाना भी उचित नहीं है। भारतीय अद्भुत ज्ञान हमारे पूर्वजों ने यूँ ही नहीं प्राप्त किया। सदियों, सहस्राब्दियों की कठिन तपस्या और साधना के प्रतिफल को आज हम भुलाते जा रहे हैं । क्या यह भी उचित है? लेकिन हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि जो ज्ञान आज की भारी-भरकम एवं जटिल यंत्रों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है, हमारे पूर्वज उसे चुटकियों में ज्ञात कर लेते थे।
भारतीय शिक्षा का वर्तमान में जो पश्चिमीकरण हुआ है उससे मूल भारतीय समाज स्वदेशी से कटकर पश्चिमोन्मुखी होता जा रहा है। हमारे देश की परिस्थितियाँ, सभ्यता और संस्कृति शेष विश्व से अलग है। यहाँ तक कि हमारे द्वारा निर्वहन किए जाने वाले रिश्ते, मान-मर्यादा एवं व्यवहारिकता में भी बहुत अंतर है। हमारे दिलों में संवेदनशीलता पश्चिम से कहीं अधिक पाई जाती है। पश्चिमी शिक्षा का सबसे अधिक प्रभाव भारतीय परिवारों पर पड़ा है। परिवारों का बिखराव, आत्मीयता में कमी होना, मन की जगह बुद्धि का इस्तेमाल होना तथा लोगों का प्रयोगवादी होना, यह सब पश्चिम की ही देन है। पाश्चात्य गुण दोषों से भारतीय शिक्षा भी आज नए स्वरूप में दिखाई देने लगी है।
आज पाश्चात्य जगत में जिस गति से विज्ञान, तकनीकि एवं अंतरजालीय क्षेत्र में प्रगति और प्रयोग हो रहे हैं, उससे मानव पूर्णतः यांत्रिक होता जा रहा है। लिंगपरिवर्तन, वनस्पतियों की संकर फसलें तथा तरह-तरह के कृत्रिम उत्पाद प्रकृति को चुनौती देने लगे हैं। वैज्ञानिक उपकरणों और नवीनतम अविष्कारों ने भारतीय शिक्षा को हाशिए पर खड़ा कर दिया है। आज भारतीयता की पहचान किसी कोने में सिसक रही है। हमारी संतानें उच्च शिक्षा ग्रहण कर पश्चिमी देशों में चली जाती हैं और उनके माँ-बाप संतानों से दूर एकाकी और बिना संतानसुख के जीवन यापन करते हुए भगवान को प्यारे हो जाते हैं। अनेक लोगों को तो बेटों के कंधे भी नसीब नहीं होते। किसी भारतीय माँ-बाप के लिए इससे बड़ी बदनसीबी और क्या हो सकती है कि उनकी अर्थी को उनका बेटा भी कंधा न दे सके। वहीं पश्चिमी रंग-ढंग में रची बसी अधिकांश संताने माँ-बाप को जानबूझकर नजरअंदाज करती हैं अथवा उन्हें अपने पास नौकरों की तरह रखती हैं। यहाँ एक प्रश्न उठता है कि अर्थ के अतिरिक्त पाश्चात्य समाज में ऐसा क्या है जिसे महत्त्व दिया जाता हो। वहीं भारतीयता में पहला स्थान माँ-बाप का है, रिश्तों का है, फिर कहीं जाकर अर्थ की बात आती है। पाश्चात्य शिक्षा हमें उच्च पद तो दिला सकती है लेकिन रिश्ते और स्वास्थ्य नहीं। रिश्तों में आत्मीयता की कमी और समयपूर्व बी पी, मोटापा, चश्मा और हृदय रोग भी अपनी जड़े जमाने लगते हैं। इंसान के स्वास्थ्य के लिए मात्र दवाईयाँ ही पर्याप्त नहीं होती। प्रेम, शांति और नियमितता भी आवश्यक है, जो पाश्चात्य संस्कृति अथवा उच्च शिक्षा से प्राप्त प्रभुता के कारण नहीं मिलती। पश्चिम से प्रभावित फैशन, ड्रग्स, रहन-सहन एवं खान-पान भारतीयता को कभी रास नहीं आया। रिश्तों की अस्थिरता और टूटते परिवार इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। आज हम देखते हैं कि कितने ही ऐसे सनाढ्य हैं जो अपनी शानो शौकत छोड़कर शांति की तलाश में भारत आकर भारतीय जीवन शैली अपना लेते हैं।
मेरा मानना यह कदापि नहीं है कि भारतीय शिक्षा पर पश्चिमी गुण-दोषों का ही बुरा प्रभाव पड़ा है। भारतीय शिक्षा के नवीनीकरण हेतु पाश्चात्य शैक्षणिक गुणों का जितना योगदान है उसे झुठलाया नहीं जा सकता। वैश्वीकरण के दौर में यदि हमने पाश्चात्य शिक्षा को न अपनाया होता तो हम आज विश्व में अलग-थलग खड़े होते। यह बात अलग है कि हमारी मौलिकता बरकरार रहती परंतु मौलिकता के संरक्षण हेतु नवीनता की अनदेखी करना कितना उचित है यह प्रबुद्ध वर्ग के चिंतन का विषय है।
मेरा तो बस इतना कहना चाहता हूँ कि हर भारतीय छात्र को शिक्षा ग्रहण करते समय उन सभी अच्छे पाश्चात्य गुणों को आत्मसात करना चाहिए जो हमारे लिए उचित हो। जो हमारे सफल भविष्य के लिए हो। बस इतनी सतर्कता हमें पश्चिमी दोषों से बचा सकती है, इसलिए यहाँ यह कहना यथोचित होगा कि संपूर्ण विश्व में गुण और दोष एक साथ पाए जाते हैं, लेकिन जिस तरह हंस पानी छोड़ कर केवल दूध पी लेता है, उसी तरह हम और हमारे विद्यार्थी पश्चिमी दोषों को छोड़कर पाश्चात्य शिक्षा के गुणों को ग्रहण करेंगे तो कोई ऐसी ताकत नहीं है, जो आप पर बुरा प्रभाव डाल सके।
आईए, हम अपनी भारतीय शिक्षा को तो समग्र रूप से आत्मसात करें। पश्चिमी शिक्षा की सभी अच्छी बातों को भी ग्रहण करें। विश्व में स्वयं को श्रेष्ठ निरूपित करें तथा भारतीय शिक्षा को विश्वशिखर पर पहुँचाएँ।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक विचारणीय एवं सार्थक आलेख ‘भजनं नाम रसनं’. इस सार्थक व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिकआभार। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 81 ☆
☆ आलेख – भजनं नाम रसनं ☆
प्रमुखतः शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत और लोक संगीत के रूपों में भारतीय संगीत की व्यापक विवेचना की जाती है. सुगम संगीत की एक शैली भजन है जिसका आधार शास्त्रीय संगीत या लोक संगीत ही होता है. उपासना की प्रायः भारतीय पद्धतियों में भजन को साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है. तय है कि भजन के स्वरो के जादू से कई मंदिरो में युगो युगो तक कई साधको को परमात्मा प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता रहेगा.
भजनं नाम रसनं, भजन का अर्थ होता है स्वाद लेना. ‘भजनं नाम आस्वादनम’ मतलब स्मरण करके आनंद लेना, यह भी भजन का ही एक प्रकार है. दरअसल भजन का गूढ़ अर्थ होता है, प्रीति पूर्वक सेवा. प्रीति मन से होती है. यह और बात है कि कौन कहां मन लगा पाता है.
चाहे हाथ से पूजा करें, चाहे पाँव से प्रदक्षिणा करें, चाहे जीभ से स्तुति करें, चाहे साष्टांग दण्डवत करें और चाहे मन में ध्यान करें, भजन दरअसल प्रीति है. प्रीति का व्यापक अर्थ होता है तृप्ति. मंदिर मंदिर, तीरथ तीरथ भ्रमण, भगवान् के नाम, धाम, रूप, भगवान की लीला, भगवान की सेवा, भगवान के दर्शन से जो आत्मिक शांति और तृप्ति मिलती है वही वास्तविक भजन है. नेता जी तीर्थ करवा कर वोट लेने को ही भजन मानते हैं. चमचे नेता जी को दण्डवत कर उन्हें ही अपना इष्ट मानते हैं. सबके अपने अपने देवता होते हैं.
“संभोग से समाधि तक” लिखकर दार्शनिक चिंतक रजनीश ने इसी तृप्ति से भगवान को अनुभव करने की विशद व्याख्या की है. वे सारी दुनियां में चर्चित रहे. रजनीश ने भी कोई नई विवेचना नहीं की थी. खजुराहो के मंदिरों की दार्शनिक विवेचना की जाये तो यही समझ आता है कि परमात्मा तो भीतर है, बाहर महज वासना है. काम, क्रोध, को बाहर छोड़कर मंदिर के छोटे दरवाजो से जब, आत्म सम्मान को त्याग कर, सर झुकाकर हम मंदिर के अंदर प्रवेश कर पाते हैं तभी हमें भीतर भगवान की प्राप्ति हो पाती है. जिसने ऐसा कर लिया वह ज्ञानी, वरना सब अहंकारी तो हैं ही.
गजल भी मूलतः खुदा की इबादत में कही जाती थी, शायर खुदा के प्रेम में ऐसा तल्लीन हो जाता है कि न भिन्नं. माशूका से एकाकार होने जैसा एटर्नल लव गजल को जन्म देता है. कालान्तर में परमात्मा से यह एकात्म किंचित वैभिन्य का स्वरूप लेता गया और अब गजल बिल्कुल नये प्रयोगो से गुजर रही है. रब से शराब की गजल यात्रा अब शबाब के सैलाब से गुजर रही है.
कृष्ण और राधा के एटर्नल लव के कांसेप्ट से हम ही नहीं पाश्चात्य जगत भी असीम सीमा तक प्रभावित है, इस्कान के मंदिरो में भारतीय पोशाक में विदेशियो की भीड़ वही आत्मिक प्रेम ढ़ूंढ़ती नजर आती है. किसी को प्रेम मिलता है किसी को भगवान, किसी को जीवंत तो किसी को आभासी प्रेम मिलता है. कोई राधा के चक्कर में रुक्मणी से ही उलझ जाता है.
यू दीवाने हमेशा से उलटी ही राह चलते हैं. वे सनम के दीदार के लिये आंखो को बंद करते हैं. जरा नजरो को झुकाते हैं और हृदय में देख लेते हैं अपने आशिक को. जिसने राधा भाव से इस आशिकी में कृष्ण के दर्शन कर लिये वह संत हो जाता है, वरना मेरे आप की तरह लौकिक प्रेम के भौतिक प्रेमी हाड़ मांस में ही परम सुख ढ़ूढ़ते जीवन बिता देते हैं. और यही कहते रह जाते हैं कि “मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो.” वास्तव में “मेरे मन में राम मेरे तन में राम, रोम रोम में राम रे” होते तो हैं पर उन्हें ढ़ूढ़कर मन मंदिर में बसा सकना ही भजन का वजन है.
कोई सफेद चोंगे में चर्च में भगवान की जगह नन ढूंढ लेता है कोई भगवा में भक्तिनो को धोखा देता है, कोई बुर्के को तार तार कर रहा है. जन्नत की हूरों की तलाश में जमीन पर आतंक फैला रहा है.
भगवान करे सबको उनके लक्ष्य ही मिले. जैसे बच्चा माँ के बिना, प्यासा पानी के बिना रह नहीं सकता, ऐसे ही जब हम भगवान के बिना रह न सकें तो इस प्रक्रिया का ही नाम भजन होता है. करोड़पति पिता से कुछ हजार रूपये लेकर अलग होकर बेटा, पिता की सारी सत्ता से जैसे वंचित रह जाता है ठीक उसी तरह परम पिता भगवान से कुछ माँगना उनसे अलग होना है, उनसे एकात्म बनाये रहने में ही हम भगवान की सारी सत्ता के हिस्से बने रह सकते हैं. परमात्मा में विलीन होना ही जीवन मरण के बंधन से मुक्ति पाना है. बच्चा माँ पर अधिकार अपनेपन से करता है, तपस्या, सामर्थ्य या योग्यता से नहीं. तपस्या से सिद्धि और शक्ति भले ही प्राप्त हो जावे प्रेम नहीं मिल सकता. निष्काम होने से मनुष्य मुक्त, भक्त सब हो जाता है. भगवान के साथ सम्बन्ध रखें तो सांसारिक कामनायें स्वतः ही शांत हो जाती हैं. यह भजन का वजन है. संसार में आसक्ति का अर्थ है, भगवान में वास्तविक प्रेम की अनुभूति का अभाव. किंतु यह सत्य जानकर भी हममें से ज्यादातर इसे समझ नही पाते.
जो भी हो पर हम आप जो रोटी, कपड़ा और मकान के चक्कर में ही आजीवन उलझे रह जाते हैं, वे बेचारे आम आदमी भगवान को पाने के चक्कर में कईयो को सिद्ध बाबा बना देते है. जनता के लिए “भूखे भजन न होंहि गोपाला ” का सिद्धांत और सवाल ही सबसे बड़ा बना रह जाता है लेकिन जिस दिन लगन लग जायेगी मीरा मगन हो जायेगी यही भजन का वास्तविक वजन है.
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर. यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 69 ☆
☆ आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर ☆
‘यदि दूसरे आपकी सहायता करने को इनकार कर देते हैं, तो मैं उनका आभार व्यक्त करता हूं, क्योंकि उनके न कहने के कारण ही मैं उसे करने में समर्थ हो पाया। इसलिए आत्मविश्वास रखिए; यही आपको उत्साहित करेगा,’ आइंस्टीन के उपरोक्त कथन में विरोधाभास है। यदि कोई आपकी सहायता करने से इंकार कर देता है, तो अक्सर मानव उसे अपना शत्रु समझने लग जाता है। परंतु यदि हम उसके दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें, तो यह इनकार हमें ऊर्जस्वित करता है; हमारे अंतर्मन में आत्मविश्वास जाग्रत कर उत्साहित करता है और हमें अपनी आंतरिक शक्तियों का अहसास दिलाता है, जिसके बल पर हम कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य को भी क्रियान्वित करने अथवा अंजाम देने में सफल हो जाते हैं। सो! हमें उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए, जो हमें बीच मझधार छोड़ कर चल देते हैं। सत्य ही तो है, जब तक इंसान गहरे जल में छलांग नहीं लगाता, वह तैरना कैसे सीख सकता है? उसकी स्थिति तो कबीरदास के नायक की भांति ‘मैं बपुरौ बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ’ जैसी होगी।
सो! यह मत कहो कि ‘मैं नहीं कर सकता’, क्योंकि आप अनंत हैं। आप कुछ भी कर सकते हैं।’ स्वामी विवेकानंद जी की यह उक्ति मानव में अदम्य साहस के भाव संचरित करती है; उत्साहित करती है कि आप में अनंत शक्तियां संचित हैं; आप कुछ भी कर सकते हैं। हमारे गुरुजन, आध्यात्मिक वेद-शास्त्र व उनके ज्ञाता विद्वत्तजन, हमें अंतर्मन में निहित अलौकिक शक्तियों से रू-ब-रू कराते हैं और हम उन कल्पनातीत असंभव कार्यों को भी सहजता- पूर्वक कर गुज़रते हैं। इसके लिए मौन का अभ्यास आवश्यक है, क्योंकि वह साधक को अंतर्मुखी बनाता है; जो उसे ध्यान की गहराइयों में ले जाने में सहायक सिद्ध होता है। महर्षि रमण, महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर वर्द्धमान आदि ने भी मौन साधना द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार किया।
मौन रूपी वृक्ष पर शांति के फल लगते हैं अर्थात् मौन से हमारे अंतर्मन में अलौकिक शक्तियां जाग्रत होती हैं, जिसके परिणाम-स्वरूप जीवन में सकारात्मकता दस्तक देती है। वास्तव में मौन जीवन का सर्वाधिक गहरा संवाद है। सो! मानव को शब्दों का चयन सावधानीपूर्वक करना चाहिए, क्योंकि यह महाभारत जैसे महायुद्ध के जनक भी हो सकते हैं।
स्वामी योगानंद जी के शब्दों में ‘यह हमारा छोटा-सा मुख एक तोप के समान है और शब्द बारूद के समान हैं– जो पल भर में सब कुछ नष्ट कर देते हैं। सो! व्यर्थ व अनावश्यक मत बोलो और तब तक मत बोलो; जब तक तुम्हें यह न लगे कि तुम्हारे शब्द कुछ अच्छा कहने जा रहे हैं।’ इसलिए मौन मानव की वह मन:स्थिति है, जहां पहुंच कर तमाम झंझावात शांत हो जाते हैं और मानव को विभिन्न मनोविकारों चिंता, तनाव, आतुरता व अवसाद से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। इसलिए स्वामी योगानंद जी मानव-समाज को अपनी अमूल्य शक्ति व समय को व्यर्थ के वार्तालाप में बर्बाद न करने का संदेश देते हैं; वहीं वे भोजन व कार्य करते समय भी मौन रहने की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं।
सो! जब आपके हृदय की भाव-लहरियां शांत होती हैं, उस स्थिति में आपको अच्छे विकल्प सूझते हैं; आप में आत्मविश्वास का भाव जाग्रत होता है और आप उन लोगों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं; जिनके कारण आप उस असंभव कार्य को अंजाम देने में समर्थ हो सके। परंतु इस समस्त प्रक्रिया में तथाकथित अनुकूल परिस्थितियों व आपकी सकारात्मक सोच का भी अभूतपूर्व योगदान होता है। इसलिए ‘मैं कर सकता हूं’ को जीवन का मूल-मंत्र बनाइए और आजीवन निराशा को अपने हृदय में प्रवेश न पाने दीजिए। इस स्थिति में दोस्त, किताबें, रास्ता व सोच अहम् भूमिका निभाते हैं। यदि वे ठीक हैं, तो आपके लिए सहायक सिद्ध होते हैं; यदि वे ग़लत हैं, तो गुमराह कर पथ-भ्रष्ट कर देते हैं और उस अंधकूप में धकेल देते हैं; जहां से मानव कभी बाहर आने की कल्पना भी नहीं पाता। इसलिए सदैव अच्छे दोस्त बनाइए; अच्छी किताबें पढ़िए; सकारात्मक सोच रखिए और सही राह का चुनाव कीजिए… राग-द्वेष व स्व-पर का त्याग कर, ‘सर्वेभवंतु सुखीनाम्’ की स्वस्ति कामना कीजिए, क्योंकि जैसा आप दूसरों के लिए करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है। सो! संसार में स्वयं पर विश्वास रखिए और सदैव अच्छे कर्म कीजिए, क्योंकि वे आपकी अनमोल धरोहर होते हैं; जो आपको जीते-जी मुक्ति की राह पर चलने को प्रेरित ही नहीं करते; आवागमन के चक्र से भी मुक्त कर देते हैं।
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “आम हिन्दी पाठकों को हिंग्लिश परोसते कुछ अखबार“. )
☆ किसलय की कलम से # 21 ☆
☆ आम हिन्दी पाठकों को हिंग्लिश परोसते कुछ अखबार ☆
भूमंडलीकरण या सार्वभौमिकता की बात कोई नई नहीं है। हमारे प्राचीन ग्रंथ ‘वसुधैव कुटुंबकम्” की बात लिख कर इसकी आवश्यकता पहले ही प्रतिपादित कर चुके हैं, लेकिन इसका आशय यह कदापि नहीं है कि आवश्यकता न होते हुए भी हम अपनी संस्कृति ,रीति-रिवाज, परंपराओं, धर्म एवं भाषा तक को दरकिनार कर दूसरों की गोद में बैठ जाएँ। बेहतर तो यह है कि हम स्वयं को ही इतना सक्षम बनाने का प्रयास करें कि हमें छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरों का मुँह न ताकना पड़े। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि हम केवल और केवल नकलची बनकर नकल न उतारते फिरें। परिस्थितियों एवं परिवेश की आवश्यकतानुरूप स्वयं को ढालना अच्छी बात है, परंतु बिना सोचे-समझे अंधानुकरण को बेवकूफी भी कहा जाता है। एक छोटा सा उदाहरण है ‘नेक टाई’ का। इसे गले में बाँधने का सिर्फ और सिर्फ यही उद्देश्य है कि ठंडे देशों में गले और गले के आसपास ठंड से बचा जा सके परंतु हमारे यहाँ मई-जून की गर्मी में भी मोटे कोट-पेंट के साथ नेक टाई पहन कर लोग अपनी तथाकथित प्रतिष्ठा बताने से नहीं चूकते। आंग्ल भाषा की उपयोगिता अथवा आवश्यकता हो या न हो कुछ पढ़ेलिखे नासमझ अंग्रेजी झाड़े बिना नहीं रह पाते। हम केवल परस्पर वार्तालाप की बात करें तब क्या दो विभिन्न भाषी एक दूसरे की बात समझ पाएँगे? कदापि नहीं। बस, मैं यही कहना चाहता हूँ कि आजकल हमारे कुछ हिंदी अखबार वालों का मानना है कि वे देवनागरी में इंग्लिश लिखकर अपनी ज्यादा लोकप्रियता अथवा पहुँच बना लेंगे। ऐसा करना क्या, सोचना भी गलत होगा। एक हिंदी के आम पाठक को उसकी अपनी भाषा के अतिरिक्त चीनी, रूसी, जापानी या अंग्रेजी के शब्दों को देवनागरी में लिखकर पढ़ाओगे तो क्या वह आपके द्वारा लिखी बात पूर्णरूपेण समझ सकेगा? नहीं समझेगा न। आप सोचते हैं जो लोग अंग्रेजी समझते हैं उनके लिए आसानी है, तो जिसे अंग्रेजी आती है फिर आपके हिन्दी अखबार क्यों पढ़ेगा। दूसरी बात जिसे हिंदी कम आती है अथवा अहिंदी भाषी है, तब तो ऐसे लोग हिंदी के बजाय अपनी भाषा को ज्यादा पसंद करेंगे, अथवा अंग्रेजी को रोमन में न पढ़कर पूरा अंग्रेजी अखबार ही न खरीदेंगे।
मेरे मत से इन तथाकथित अखबार वालों की भाषा से यदि हिंग्लिश तबका जुड़ता है, जिसे ये हिंग्लिश पाठकों की अतिरिक्त वृद्धि मानते हैं तो उन्हें स्वीकारना पड़ेगा कि उससे कहीं ज्यादा इनके हिन्दी पाठकों में कमी हो रही है। उनके पास अन्य पसंदीदा अखबारों के विकल्प भी होते हैं। आज के अंतरजालीय युग में जब हर सूचना हमारे पास आप से पहले पहुँच रही है, तब इन तथाकथित अखबारों की प्राथमिकताएँ बची कहाँ हैं। आज के तकनीकी युग एवं खोजी पत्रकारिता के चलते छोटे से छोटा अखबार भी पिछड़ा नहीं है। अब तो ग्रामीण अंचल तक अद्यतन रहते हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी की मर्यादा, सम्मान एवं संवर्धन हमारा कर्तव्य है। हिन्दी के पावन आँचल में किसी गैर भाषा के इस तरह थिगड़े लगाने का प्रयास राष्ट्रभाषा का अपमान और मेरे अनुसार राष्ट्रद्रोह जैसा है। विश्व की किसी भी भाषा, संस्कृति अथवा परंपराओं से घृणा अथवा अनादर हमारी संस्कृति में नहीं है। हमारे नीति शास्त्रों में ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ भी लिखा है। आज हिन्दी की विकृति पर तुले हुए लोग हठधर्मिता की पराकाष्ठा पार करते नजर आ रहे हैं। इनकी अपने देश, अपनी संस्कृति एवं अपनी राष्ट्रभाषा संबंधी प्रतिबद्धता भी संशय के कटघरे में खड़ी प्रतीत होने लगी है। आज आप किसी भी पाठक से पूछ लीजिए, वह आज लिखी जा रही विकृत भाषा एवं अव्यवहारिक संस्कृति से स्वयं को क्षुब्ध बतलायेगा। अब तो सुबह-सुबह अखबार पढ़ कर मन में कड़वाहट सी भर जाती है। अप्रिय भाषा एवं अवांछित समाचारों की बाढ़ सी दिखाई देती है, वहीं अखबारों की यह भी मनमानी चलती है कि हम अपने घर, अपने समूह या विज्ञापन का चाहे जितना बड़ा भाग प्रकाशित करें, मेरी मर्जी। पाठक के दर्द की किसी को चिंता नहीं रहती। सरकार भी इनकी नकेल नहीं कस पाती। सरकारी, बड़े व्यवसायियों एवं नेताओं के विज्ञापनों की बड़ी कमाई से अखबार बड़े उद्योगों में तब्दील हो गए हैं। हम चाहे जब अखबार के मुख्य अथवा नगर पृष्ठ तक में एक अदद पूरी खबर के लिए तरस जाते हैं, फिर नगर, देश-प्रदेश एवं समाज की बात तो बहुत दूर है। समाचार पत्रों से स्थानीय साहित्य भी जैसे लुप्त होता जा रहा है। आज दरकार है आदर्श भाषा की, आदर्श सोच की और आदर्श अखबारों की। साथ ही देश तथा समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व की। मैं मानता हूँ कि समाज सुधार का ठेका अखबारों ने नहीं ले रखा है, किंतु यह भी सत्य है कि, ये तथाकथित अखबार क्या मानक गरिमा का ध्यान रख पाते हैं।
अंत में पुनः मेरा मानना है कि आज जब हर छोटे-बड़े शहरों में पहले जैसे एक-दो नहीं पचासों अखबार निकलते हैं, तब ऐसे में अपनी व्यावसायिक तथा निजी सोच पर नियंत्रण कर ये विशिष्ट अखबार हम असंगठित पाठकों को मनमाना परोसने से परहेज करें। राष्ट्रभाषा हिंदी को हिंग्लिश बनने से बचाने के प्रयास करना हम सभी का नैतिक कर्त्तव्य है, इसे अमल में लाने का विनम्र अनुरोध है।
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. लेख में वर्णित विचार श्री अरुण जी के व्यक्तिगत विचार हैं। ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक दृष्टिकोण से लें. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ प्रत्येक बुधवार को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “छात्रों में बड़ी ऊर्जा है ”)
☆ गांधी चर्चा # 43 – बापू के संस्मरण – 23 ☆
☆ छात्रों में बड़ी ऊर्जा है ☆
1927 की बात है। मैसूर मे स्टूडेंट वर्ल्ड फ़ेड़रेशन का अधिवेशन था। उसके अंतेर्राष्ट्रीय अध्यक्ष रेवेरेंट मार्ट गांधी जी से मिलने अहमदाबाद आए।
जब उनकी मुलाक़ात गांधीजी से हुई तब उन्होने गांधीजी से छात्र समस्यायों पर बातें की।गांधीजी ने स्पष्ट कहा कि वे छात्रो को अपने छात्र जीवन मे राजनीति मे प्रवेश के पक्षधर नहीं हैं। उन्हे पहले अपनी पढ़ाई पूरी करनी चाहिए। अगर वे चाहें तो ग्रामो मे जाकर उनके बीच सेवा कार्य कर सकते हैं। छात्रो मे बड़ी ऊर्जा है लेकिन उन्हे अपनी ऊर्जा का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।
मार्ट ने गांधीजी से पूछा कि “आपके जीवन मे आशा निराशा के कई प्रसंग आते होंगे ,उनमे आपको किस चीज़ से ज्यादा आश्वासन मिलता है?”
गांधी जी ने उत्तर दिया कि “हमारे देश की जनता शांतिप्रिय है। उससे लाख छेडछाड़ की जाये, वह अहिंसा का मार्ग नहीं छोड़ेगी।”
उनका दूसरा प्रश्न था कि – “आपको कौन सी चीज़ ज्यादा चिंतित करती है।”
तब गांधी जी ने कहा कि – “शिक्षित लोगो मे दया भाव सूख रहा है और, वह मुझे ज्यादा चिंतित कर रही है।”
(आज प्रस्तुत है वरिष्ठ मराठी साहित्यकार, ई-अभिव्यक्ति ( मराठी ) की सम्पादिका एवं हमारी मार्गदर्शक श्रीमती उज्ज्वला केळकर जी का एक अप्रतिम ललित लेख “स्पर्श”. हम जीवन में ऐसे कई शब्दों से परिचित होते हैं। किन्तु, उन शब्दों की गहराई में जाने की चेष्टा कभी नहीं करते। एक छोटा सा शब्द “स्पर्श” किन्तु, उसका हमारे जीवन में कितना गहरा सम्बन्ध है , यह आप इस आलेख को पढ़ कर ही जान पाएंगे। ऐसे विचारणीय आलेख के लिए श्रीमती उज्ज्वला केळकर जी का ह्रदय से आभार।)
☆ आलेख ☆ स्पर्श (ललित लेख) ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर☆
स्पर्श तरह तरह के… स्पर्श प्यारे… प्यारे… स्पर्श न्यारे…न्यारे … स्पर्श कोमल… वत्सल.. स्पर्श अधीर… उत्सुक… स्पर्श आक्रामक… उत्तेजक. स्पर्श स्निग्ध मलाई जैसे, स्पर्श नाजुक फूल की पंखुडी जैसे … स्पर्श कठोर, कडक ठूठ की खाल जैसे … स्पर्श आकर्षक मयूरपंख के पर जैसे… स्पर्श फिसलते… स्पर्श दबोचते… कंटीले स्पर्श, मुलायम स्पर्श… जानलेवा स्पर्श… संजीवक स्पर्श. कभी स्पर्श न होते हुए भी होने का आभास दिलाते है. कभी स्पर्श होते हुए भी न होने का अहसास दिलाते है.
माँ के गर्भाशय में भ्रूण अपने लिए जगह बनाता है. वहाँ वह पनपता है. विकसित होता है. उसका वहाँ हिलना, डुलना, हाथ-पांव चालाना, माँ के शरीर और अंतस को कितना सुख, कितना आनंद देता है! उसी स्पर्श से वह कितनी रोमांचित होती है! कभी कभी मन ही मन भयभीत भी होती है.
एक दिन वेदना के आग में झुलसते हुए माँ बच्चे को जन्म देती है. दोनों जीवों को बांधनेवाला बंधन टूटता है. एक जीव दूसरे को स्पर्श करते हुए बाहर आता है. अलग हो जाता है. अपने से ही बाहर आयी यह गठरी माँ अपने हृदय से लगाती है. उसे अपने गोद में सुलाती है. बच्चे का वह नरम-गरम स्पर्श माँ की सारी वेदनाओं को मिटा देता है. अपने सुकोमल होठों से स्तनपान करनेवाले बच्चे का स्पर्श माँ को स्वर्गसुख का आनंद दिलाता है.
अपनी माँ के स्निग्ध, स्नेहील स्पर्श का अनुभव करते हुए शिशु बढने लगता है. उस की टट्टी, पेशाब, उसे नहलांना-धुलाना, उस के कपडे बदलना, उसे खिलाना, सुलाना कितने ही काम …किंतु माँ के लिये ये काम, काम थोडे ही है? उस के लिये तो ये काम आनंद ही आनंद है. ममतामयी स्पर्श का माँ और बच्चा दोनों अनुभव करते है.
शिशु करवटे बदलने लगता है. घुटनों के बल पर आगे बढता है. बैठने लगता है. खडा होता है. ठुमक – ठुमक कर चलने लगता है, तो पाँव तले की जमीन उसे सम्हालती है. आत्मविश्वास देती है. अब आगे चलकर जिंदगी भर उस जमीन का साथ रहेगा, मांनो वह उस की दूसरी माँ हो.
जब माँ की उंगली पकड कर बच्चा, घर की देहरी लांघ कर आंगन में आता है, तब उस की आंखों के सामने एक नई दुनिया का नजारा प्रगट होता है. इस नई दुनिया को वह आपनी आंखों के स्पर्श से देखना, जानना, पहचानना चाहता है. माँ से पूछने लगता है, ये क्या है… वो क्या है…. इधर क्या है… उधर क्या है… कितने प्रश्न… अनगिनत प्रश्न…. बच्चा अब और बडा होता है. स्कूल जाने लगता है. शुरू में माँ को छोड कर स्कूल में बैठना उसे असुरक्षित, नामुमकिन–सा लगता है. उसे रोना आता है. बाद में आदत-सी हो जाती है. यहां हमउम्र अन्य बच्चो से दोस्ती होती है. स्कूल में, खेल के मैदान में, समवयस्क दोस्तों के साथ हाथ मिलाना, गले लगाना, धक्कामुक्की, हाथापाई कितने तरह के स्पर्श… तरह – तरह की भावना व्यक्त करनेवाले स्पर्श… प्यार, आत्मीयता, आधार, आश्वासन, नफरत, अवहेलना, शत्रुभाव…
भविष्य में जहां…तहां… ऐसे स्पर्श मिलते ही रहते है॰
बाल्यावस्था, किशोरावस्था की सीढियां चढते चढते अब व्यक्ति जवानी की सीढ़ी पर खड़ी होती है. शिक्षा-दीक्षा पूरी होने के बाद वाह नौकरी-व्यवसाय में जुट जाती है. घर में अब उस के विवाह को लेकर बातों का दौर चलने लगता है.
कुछ भाग्यवान ऐसे होते है, जो विवाह के पूर्वं ही प्यार की डोर में बंध जाते है. बाद में विवाह की रस्म पूरी की जाती है. बहुतेरे लोग विवाह वेदी पर ही ’एक दूजे के’ होने का वादा करते है. पंडित और अन्य लोगों के सामने वचनबद्ध होते है. पति-पत्नी का रिश्ता बाजे-गाजे के साथ जुड जाता है.
लोगों के सामने दोनों में सिर्फ नयनस्पर्श ही होता है. यह स्पर्श दोनों दिलों में मधु मधुर संवेदनाओं को जगाता है. एकांत में हस्तस्पर्श, देहस्पर्श का दौर शुरू होता है. शुरू शुरू में ये स्पर्श लजीले, सुकोमल नाजुक होते है. धीरे धीरे स्पर्श ढीठ हो जाते है. उत्कट, उन्मुक्त होते जाते है. मन कहता है, यह क्षण यहीं रुक जाय लेकिन वास्तविक जीवन में ऐसा कुछ होता नहीं. देखते देखते दोनों नींद की आगोश में समा जाते है.
स्पर्श जीवन का अहं हिस्सा है किंतु एकमात्र नही. जीवन अपनी गति से बहता रहता है. समय आगे आगे निकलता है. बच्चों का जन्म होता है. बच्चे, पत्नी, माँ-बाप सभी के प्रति अपना दायित्व होता है. जिम्मेदारीयाँ निभानी पडती है. रोजमर्रा की जिंदगी में रोजी रोटी के जुगाड में नौकरी, उद्योग, व्यवसाय पर जाना अपरिहार्य होता है. वहां दिन भर निर्जीव वस्तुओं का ही स्पर्श. अलिप्त, भावहीन स्पर्श … जैसे कागज, फाईल्स, संगणक … दिन भर उन का ही साथ…. उनकी ही स्पर्शसंवेदना.
शाम को थके-मांदे घर लौटने के बाद, जब बच्चे दौडते दौडते पास आते है, गले लगते है, झप्पी देते लेते है, कंधे पकड कर उछल कूद करते है, तब इन का मधुर स्पर्श सारी थकान मिटा देता है. उन का यह स्पर्श नई संजीवनी प्रदान करता है. अधेड उम्र और वृद्धावस्था में यही सुख, यही आनंद पोते –पोतियों पर प्यार-दुलार लुटाने से प्राप्त होता है किंतु आज-कल के टूटते परिवार या एकल परिवार संस्कृति के कारण बहू – बेटे साथ रहते ही कहां है कि उन्हें उन के सहवास का सुख मिल जाय. स्पर्श तो दूर की बात! अगर साथ रहते भी हो, तो इस गतिमान युग में न तो बहू-बेटे- बेटियों को पास बैठकर दो बातें करने की फुरसत है न पोते-पोतियों को. सब कुछ होते हुए भी ये लोग अपने आत्मीय जनों के ममता भरे, प्यार भरे स्पर्श के लिए तरसते रहते है… तरसते ही रहते है…
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – समष्टि और व्यष्टि☆
(पुनर्पाठ के अंतर्गत)
“अलग कमरा है, बड़ा बेड है, तैयार भोजन मिल रहा है, टीवी है, अख़बार है, फोन है, सारी सुख सुविधाएँ हैं..,और क्या चाहिए? आराम से पड़े रहो, अपने दिन काटो..!”, वृद्धजन अपनी युवा संतानों या अन्य परिजनों से प्राय: ऐसी बातें सुनते हैं।
कोरोना संक्रमण के कारण देशव्यापी लॉकडाउन में युवा घर बैठे बोर होने लगे थे। ‘टाइमपास नहीं हो रहा…!’ ‘….आपस में कितनी बातें करें?’ ‘… मैं बाहर नहीं निकला तो बीमार पड़ जाऊँगा…!’ बोर होना तीन-चार दिन में ही बौराने में बदलने लगा। युवा, मनोदशा में परिवर्तन के इस रहस्य को समझ नहीं पा रहा था।
आदिशंकराचार्य ने गृहस्थ जीवन के रहस्य को समझने के लिए एक राजा के शरीर में प्रवेश किया था। दूसरे की मनोदशा को समझने के लिए परकाया प्रवेश ही करना होता है।
अच्छा बेड, तैयार भोजन, टीवी, अखबार, सोशल मीडिया, सुख- सुविधाएँ सब तो हैं पर समय नहीं बीत रहा, ज़ंग चढ़ रहा है।
यही ज़ंग हमारे बूढ़े माँ-बाप-परिजनों पर भी चढ़ता है। इस ज़ंग से उन्हें बचाना हमारा दायित्व होता है जिससे प्रायः हम मुँह मोड़ लेते हैं। छोटी-सी कालावधि में हम आपस में बातें करके थक चुके जबकि वे वर्षों हमसे बातें करने के लिए तरसते हैं। अंतत: उन्हें एकांतवास भोगने के लिए विवश होना पड़ता है।
कोरोना वायरस से उपजे कोविड-19 से रक्षा के लिए आज कहा गया कि देहांत से बचना है तो एकांत अपनाओ। यही अखंड एकांत बूढ़ों को इतना सालता है कि वे देहांत मांगने लगते हैं।
समय ने एक अनुभव हम सबकी झोली में डाला है। इस अनुभव को हम न केवल ग्रहण करें अपितु सकारात्मक क्रियान्वयन भी करें। घर के वृद्धजनों को समय दें। उनसे बोले, सकारण नहीं अकारण बतियाएँ। गप लड़ाएँ, उनके साथ हँसे, मज़ाक करें।
वर्तमान संकट से पूर्णत: बाहर निकलने के बाद सपरिवार जब कभी घर से बाहर जाएँ तो उन्हें अपने साथ अवश्य रखें। कभी-कभी बाहर जाना केवल उनके लिए ही प्लान करें। कुछ बातें केवल उनके लिए ही करें ताकि परिवार में वे अपनी भूमिका और सक्रियता का आनंद अनुभव कर सकें। इससे जब तक श्वास रहेगा तब तक वे जीवन जीते रहेंगे।
स्मरण रहे, समष्टि का साथ व्यष्टि को चैतन्य रखता है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख सोच व व्यवहार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 68 ☆
☆ सोच व व्यवहार ☆
सोच व व्यवहार आपके हस्ताक्षर होते हैं। जब तक आप अपनी सोच नहीं बदलते, अनुभवों की गिरफ़्त में रहते हैं। ‘सोच बदलिए, व्यवहार स्वयं बदल जाएगा, क्योंकि व्यवहार आपके जीवन का आईना होता है।’ सब्र व सहनशीलता मानवता के आभूषण है, जो आपको न तो किसी की नज़रों में गिरने देते हैं, न ही अपनी नज़रों में। इसलिए जीवन में सामंजस्य बनाए रखें, क्योंकि दुनिया की सबसे अच्छी किताब आप खुद हैं। खुद को समझ लीजिए, सभी समस्याओं का समाधान स्वत: हो जाएगा। इसलिए सबसे विनम्रतापूर्ण व्यवहार कीजिए। रिश्तों को निभाने के लिए इसकी दरक़ार होती है। नम्रता से हृदय की पावनता, सामीप्य ,समर्पण व छल-कपट से महाभारत रची जा सकती है। इसलिए सदैव सत्य की राह का अनुसरण कीजिए। भले ही इस राह में कांटे, बाधाएं व अवरोधक बहुत हैं और इसे उजागर होने में समय भी बहुत लगता है। परंतु झूठ के पांव नहीं होते। इसलिए वह लंबे समय तक कहीं भी ठहरता नहीं है।
सत्य की ख़्वाहिश होती है कि सब उसे जान लें, जबकि झूठ हमेशा भयभीत रहता है कि कोई उसे पहचान न ले। सत्य सामान्य होता है। जिस क्षण आप उसका बखान करना प्रारंभ करते हैं, वह कठिनाई के रूप में सामने आता है। सो! सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है… उपहास, विरोध और अंतत: स्वीकृति। सत्य का प्रथम स्तर पर उपहास होता है ओर लोग आपकी आलोचना करते हैं और नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास करते हैं। यदि आप उस स्थिति में भी विचलित नहीं होते, तो आपको विरोध को सामना करना पड़ता है। यदि आप फिर भी स्थिर रहते हैं, तो सत्य को अर्थात् जिस राह का आप अनुसरण कर रहे हैं, उसे स्वीकृति मिल जाती है। लोग आपके क़ायल हो जाते हैं और हर जगह आपकी सराहना की जाती है। परंतु आपके लिए हर स्थिति में सम रहना अपेक्षित है। सो! सुख में फूलना नहीं और दु:ख में उछलना अर्थात् घबराना नहीं … सुख-दु:ख को साक्षी भाव से देखने का सही अंदाज़ व सुख, शांति व प्रसन्नता प्राप्त करने का रहस्य है।
सो! यदि आप सुख पर पर ध्यान दोगे, तो सुखी होगे, यदि दु:ख पर ध्यान दोगे, दु:खी हो जाओगे।
दरअसल, आप जिसका ध्यान करते हो, वही वस्तु व भाव सक्रिय हो जाता है। इसलिए ध्यान को सर्वोत्तम बताया गया है, क्योंकि यह अपनी वासनाओं अथवा इंद्रियों पर विजय पाने का माध्यम है। इसलिए ‘दूसरों की अपेक्षा खुद से उम्मीद रखने का संदेश दिया गया है, क्योंकि खुद से उम्मीद रखना हमें प्रेरित करता है; उत्साहित करता है और दूसरों से उम्मीद रखना चोट पहुंचाता है; हमारे हृदय को आहत करता है। इसलिए दूसरों से सहायता की अपेक्षा मत रखें। उम्मीद हमें आत्मनिर्भर नहीं होने देती। इसलिए परिस्थितियों को दोष देने की बजाय अपनी सोच को बदलो, हालात स्वयं बदल जाएंगे।
मुझे स्मरण हो रही हैं, ग़ालिब की यह पंक्तियां ‘उम्र भर ग़ालिब यही भूल करता रहा/ धूल चेहरे पर लगी थी/ आईना साफ करता रहा’…यही है जीवन की त्रासदी। हम अंतर्मन में झांकने की अपेक्षा, दूसरों पर दोषारोपण कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ सुक़ून पाते हैं। चेहरे को लगी धूल, आईना साफ करने से कैसे मिट सकती है? सो! हमारे लिए जीवन के कटु यथार्थ को स्वीकारना अपेक्षित है। आप सत्य व यथार्थ से लंबे समय तक नज़रें नहीं चुरा सकते। अपनी ग़लती को स्वीकारना खुद में सुधार लाना है, जिससे आपका पथ प्रशस्त हो जाता है। आपके विचार पर दूसरे भी विचार करने को बाध्य हो जाते हैं। इसलिए जो भी कार्य करें, यह सोचकर तन्मयता से करें कि आपसे अच्छा अथवा उत्कृष्ट कार्य कोई कर ही नहीं सकता। काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता, इसलिए हृदय में कभी भी हीनता का भाव न पनपने दें।
अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है व विकास में अवरोधक है। इसे कभी जीवन में प्रवेश न पाने दें। यह मानव को पल-भर में अर्श से फ़र्श पर ला पटकने की सामर्थ्य रखता है। अहंनिष्ठ लोग खुशामद की अपेक्षा करते हैं और दूसरों को खुश रखने के लिए उन्हें चिंता, तनाव व अवसाद से गुज़रना पड़ता है। चिंता चिता समान है, जो हमारे मध्य तनाव की स्थिति उत्पन्न करती है और यह तनाव हमें अवसाद की स्थिति तक पहुंचाने में सहायक होता है… जहां से लौटने का हर मार्ग बंद दिखाई पड़ता है और आप लंबे समय तक इस ऊहापोह से स्वयं को मुक्त नहीं करा पाते। यदि किसी के चाहने वाले अधवा प्रशंसकों की संख्या अधिक होती है, तो यही कहा जाता है कि उस व्यक्ति ने जीवन में बहुत समझौते किए होंगे। सो! सम्मान उन शब्दों में नहीं, जो आपके सामने कहे गए हों, बल्कि उन शब्दों में है, जो आपकी अनुपस्थिति में आपके लिए कहे गए हों। यही है खुशामद व सम्मान में अंतर। इसलिए कहा जाता है कि ‘खुश होना है तो तारीफ़ सुनिए, बेहतर होना है तो निंदा, क्योंकि लोग आपसे नहीं, आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं’… यही है आधुनिक जीवन का कटु सत्य। हर इंसान यहां निपट स्वार्थी है, आत्मकेंद्रित है। यह बिना प्रयोजन के किसी से ‘हेलो -हाय’ भी नहीं करता। इसलिए आजकल संबंधों को ‘हाउ स से हू’ तक पहुंचने में देरी कहां लगती है।
वक्त, दोस्ती व रिश्ते बदलते मौसम की तरह रंग बदलते हैं; इन पर विश्वास करना सबसे बड़ी मूर्खता है। वक्त निरंतर अबाध गति से चलता रहता है; सबको एक लाठी हांकता है अर्थात् समान व्यवहार करता है। वह राजा को रंक व रंक को राजा बनाने की क्षमता रखता है। वैसे दोस्ती के मायने भी आजकल बदल गए हैं। सच्चे दोस्त मिलते कहां है, क्योंकि दोस्ती तो आजकल पद-प्रतिष्ठा देखकर की जाती है। वैसे तो कोई हाथ तक भी नहीं मिलाता, हाथ थामने की बात तो बहुत दूर की है। जहां तक रिश्तों का संबंध है, कोई भी संबंध पावन नहीं रहा। रिश्तों को ग्रहण लग गया है और उन्हें उपयोगिता के आधार पर जाना-परखा जाता है। सो! इन तीनों पर विश्वास करना आत्म-प्रवंचना है। इसलिए कहा जाता है कि बाहरी आकर्षण देख कर किसी का मूल्यांकन मत कीजिए, ‘अंदाज़ से न नापिए, किसी इंसान की हस्ती/ बहते हुए दरिया अक्सर गहरे हुआ करते हैं’ अर्थात् चिंतनशील व्यक्ति न आत्म-प्रदर्शन में विश्वास रखता है, न ही आत्म-प्रशंसा सुन बहकता है। बुद्धिमान लोग अक्सर वीर, धीर व गंभीर होते हैं; इधर-उधर की नहीं हांकते और न ही प्रशंसा सुन फूले समाते हैं। इसलिए सही समय पर, सही दिशा निर्धारण कर, सही लोगों की संगति पाना मानव के लिए श्रेयस्कर है। सो! सूर्य के समान ओजस्वी बनें और अंधेरों की जंग में विजय प्राप्त कर अपना अस्तित्व कायम करें।
अंत में मैं कहना चाहूंगी कि जीवन व जगत् बहुत सुंदर है… आवश्यकता है उस दृष्टि की, क्योंकि सौंदर्य वस्तु में नहीं, नज़रिए में होता है। इसलिए सोच अच्छी रखिए और दोष-दर्शन की प्रवृत्ति का त्याग कीजिए। आप स्वयं अपने भाग्य-निर्माता हैं और आपके अंतर्मन में असीमित दैवीय शक्तियां का संचित हैं। सो! संघर्ष कीजिए और उस समय तक एकाग्रता से कार्य करते रहिए, जब तक आप को मंज़िल की प्राप्ति न हो जाए। हां! इसके लिए आवश्यकता है सत्य की राह पर चलने की, क्योंकि सत्य ही शिव है। शिव ही सुंदर है। यह अकाट्य सत्य है कि ‘मुश्किलें चाहे कितनी बड़ी क्यों न हों, हौसलों से छोटी होती हैं। इसलिए खुदा के फैसलों के समक्ष नतमस्तक मत होइए। अपनी शक्तियों पर विश्वास कर, अंतिम सांस तक संघर्ष कीजिए, क्योंकि यह है विधाता की रज़ा को बदलने का सर्वश्रेष्ठ उपाय। मानव के साहस के सम्मुख उसे भी झुकना पड़ता है। इसलिए मुखौटा लगाकर दोहरा जीवन मत जिएं, क्योंकि झूठ का आवरण ओढ़ कर अर्थात् ग़लत राह पर चलने से प्राप्त खुशी सदैव क्षणिक होती है, जिसका अंत सदैव निराशाजनक होता है और यह जग-हंसाई का कारण भी बनती है। सो! जीवन में सकारात्मक सोच रखिए व उसी के अनुरूप कार्य को अंजाम दीजिए।
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “वैश्वीकरण के साथ बढ़ता भाषाई घालमेल“. )
☆ किसलय की कलम से # 20 ☆
☆ वैश्वीकरण के साथ बढ़ता भाषाई घालमेल ☆
भारतीय समाज वैश्वीकरण के बढ़ते प्रभाव के साथ बिलकुल नई दिशा में बढ़ता दिखाई दे रहा है। आधुनिक तकनीकि पारम्परिक संसाधनों को पीछे छोड़ द्रुतगति से विकास में सहयोगी बन रही है। युवाओं की सोच सीमित दायरों से ऊपर उठकर व्यापक होती जा रही है। अब इन्हें अन्तरराष्ट्रीय सीमाएँ दो शहरी सीमाओं से ज्यादा नहीं लगतीं। यह बदलाव स्वयमेव और सहज होता जा रहा है और इसे आत्मसात भी किया जा रहा है, परन्तु यह भी सत्य है कि आधुनिक परिवेश में पली-बढ़ी पीढ़ी का यह बदलाव वयोवृद्ध एवं देसी विचारक सहजता से नहीं स्वीकारेंगे। आज का युवा किसी क्लिष्टता में नहीं, बल्कि सहज, सरल और त्वरित परिणाम में विश्वास रखता है। इन युवाओं के हिसाब से पहनावा, खानपान, मेलजोल या भाषा सभी सरल और सहज होना चाहिए। जाति-सम्प्रदाय की दीवारें ढहाकर, देशीय सीमाएँ लाँघकर भाषाई संकीर्णता से परे आज के महिला-पुरुष लैंगिक भेदभाव भूलते जा रहे हैं। आज जब हम अपने इर्द-गिर्द नजर दौड़ाते हैं तो सबसे ज्यादा बदलाव हमारी बोली और भाषा में परिलक्षित होता है। हमारी अभिव्यक्ति का तरीका अब किसी एक भाषाई सीमा में संकुचित न रहकर व्यापक और स्वच्छन्द हो चला है। क्षेत्रीय बोलियाँ या भाषाएँ हों अथवा हिन्दी या फिर वैश्विक भाषा अंग्रेजी ; आवश्यकतानुसार सभी के बहुसंख्य शब्द परस्पर मिलते जा रहे हैं। आज व्याकरण, भाषाई शुद्धता के बजाय आसानी से ग्राह्य मिश्रित भाषा को सहज स्वीकृति मिल चुकी है। अब हम हिन्दी-अंग्रेजी अथवा प्रादेशिक भाषाओं के प्रचार-प्रसार की बात करें तो यह कहना प्रासंगिक होगा कि जनमानस को हाथ पकड़कर सिखाने के दिन लद चुके हैं। खासतौर पर हमारे युवा जानते हैं कि उन्हें क्या सीखना है और क्या नहीं। जो ज्यादा उपयोगी, ज्यादा सरल और सर्वग्राही हो, वह उतना अधिक प्रचलन में होता है। आज हम अपने आसपास देखें तो विरले ही भाषानिष्ठ शिक्षक, साहित्यकार अथवा सचेतक मिल पाएँगे, जिन्हें ऐसी भाषा से परहेज होगा । सामाजिक समर्थन और प्रोत्साहन के फलितार्थ ऐसे मिश्रित भाषाई दिशा-निर्देश स्वयमेव निर्मित हो गए हैं, जिनका पालन करना मीडिया की बाध्यता कही जा सकती है। कल यदि यही समाज इसका विरोध करेगा, तो निश्चित रूप से मीडिया भी इनके साथ होगा । जनमानस के रुझान को ध्यान में रखकर ही ये संचार माध्यम अपनी जगह बनाने में सक्षम हो पाते हैं। अब ऐसी स्थिति में यहाँ एक ऐसा वर्ग भी है, जो इस भाषाई मिश्रण अथवा तथाकथित अशुद्ध भाषा के लिए मीडिया को दोषी ठहराता है। हमारी समझ से उनकी यह एकांगी सोच केवल मीडिया की उपयोगिता पर सवाल उठाना ही कही जाएगी। जनमानस पर कुछ भी मनमर्जी से नहीं थोपा जा सकता। मीडिया वही उपलब्ध करा रहा है, जो आप, हम और आज का युवा चाहता है। वैश्वीकरण के बढ़ते प्रभाव के बीच हम यह न भूलें कि मूलभूत विकास के मुद्दों को छोड़कर अपनी ढपली-अपना राग अलापना हमारे सर्वांगीण विकास में बाधक बन सकता है।