हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ यथार्थ की कल्पना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

मित्रो,

हमारी सुप्रतिष्ठ संस्था हिंदी आंदोलन परिवार द्वारा कोरोनाकाल में सृजनात्मक सक्रियता बनाये रखने के लिए नियमित रूप से आयोजन किये जाते हैं। इसी कड़ी में मेरा कल्पनालोक  शीर्षक के अंतर्गत लिखा आलेख पाठकों के सम्मुख है। आशा है कि आप सबका समर्थन इसे मिलेगा।

☆ संजय दृष्टि  ☆ यथार्थ की कल्पना☆

कल्पनालोक.., एक शब्द जो प्रेरित करता है अपनी कल्पना का एक जगत तैयार कर उसमें विचरण करने के लिए। यूँ देखें तो कल्पना अभी है, कल्पना अभी नहीं है। इस अर्थ में इहलोक भी कल्पना का ही विस्तार है। कहा गया है, ‘ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या’ किंतु घटता इसके विपरीत है। सामान्यत: जीवात्मा, मोहवश ब्रह्म को विस्मृत कर जगत को अंतिम सत्य मानने लगता है। सिक्के का दूसरा पक्ष है कि वर्तमान के अर्जित ज्ञान को आधार बनाकर मनुष्य भविष्य के सपने गढ़ता है। सपने गढ़ना अर्थात कल्पना करना। कल्पना अपनी प्रकृति में तो क्षणिक है पर उसके गर्भ में कालातीत होने की संभावना छिपी है।

शब्द और उसके अर्थ के अंतर्जगत से निकलकर खुली आँख से दिखते वाह्यजगत में लौटते हैं। ललितसाहित्य अर्थात कविता, कहानी, नाटक आदि के सृजन एवं विकास में कल्पनाशक्ति को विशेष महत्व दिया जाता है। माँ शारदा की अनुकम्पा से इन तीनों विधाओं में लेखनी चली। उपरोक्त संदर्भ में विचार किया तो  विशेषकर नाटकों में अपने पात्र की कल्पना की पृष्ठभूमि में देखा-भोगा, जाना- बूझा यथार्थ ही पाया। अत: कल्पनालोक का शिल्पी होकर भी कभी कल्पना गढ़ नहीं पाया।

कल्पना गढ़ना अब तो और भी कठिन हो चला है। संभवत: 5 वर्ष से लगभग 11-12 वर्ष की आयु कल्पनालोक में विचरण करने का सहज समय है। इतना पीछे तो लौट नहीं सकता सो यहाँ से आगे की कल्पना करने का प्रयास करूँगा।

सनातन संस्कृति जीवात्मा को चौरासी लाख योनियों में परिक्रमा कराती है। लख चौरासी के संदर्भ में पद्मपुराण कहता है,

जलज नव लक्षाणि, स्थावर लक्ष विंशति:, कृमयो रुद्रसंख्यक:। पक्षिणां दश लक्षाणि त्रिंशल लक्षाणि पशव: चतुर्लक्षाणि मानव:।

अर्थात 9 लाख जलचर, 20 लाख स्थावर पेड़-पौधे, 11 लाख सरीसृप, कीड़े-मकोड़े, कृमि आदि, 10 लाख पक्षी/ नभचर, 30 लाख पशु/ थलचर तथा 4 लाख मानव प्रजाति के प्राणी हैं।

सोचता हूँ जब कभी घास-फूस-तिनका बना तब जन्म कहाँ पाया था? किसी घने जंगल में जहाँ खरगोश मुझ पर फुदकते होंगे, हिरण कुलाँचे भरते होंगे, सरीसृप रेंगते होंगे। हो सकता है कि फुटपाथ पर पत्थरों के बीच से अंकुरित होना पड़ा हो जहाँ अनगिनत पैर रोज मुझे रौंदते होंगे। संभव है कि सड़क के डिवाइडर में शोभा की घास के रूप में जगत में था, जहाँ तय सीमा से ज़रा-सा ज़्यादा पनपा नहीं कि सिर धड़ से अलग।

जलचर के रूप में केकड़ा, छोटी मछली से लेकर शार्क, ऑक्टोपस, मगरमच्छ तक क्या-क्या रहा होऊँगा! कितनी बार अपने से निर्बल का शिकार किया होगा, कितनी बार मनुष्य ने मेरा शिकार किया होगा।

पेड़-पौधे के रूप में नदी किनारे उगा जहाँ खूब फला-फूला। हो सकता है कि किसी बड़े शहर की व्यस्त सड़क के किनारे खड़ा था। स्थावर होने के कारण इसे ऐसे भी कह सकता हूँ कि जहाँ मैं खड़ा था, वहाँ से सड़क निकाली गई। कहने का तरीका कोई भी हो, हर परिस्थिति में मेरी टहनियों ने जब झूमकर बढ़ना चाहा होगा, तभी उनकी छंटनी कर दी गई होगी। विकास से अभिशप्त मेरा कभी फलना-फूलना न हो सका होगा। स्वाभाविक मृत्यु भी शायद ही मिली होगी। कुल्हाड़ी से काटा गया होगा या ऑटोमेटिक आरे से चीर कर वध कर दिया होगा।

सर्प का जीवन रहा होगा, चूहे और कनखजूरे का भी। मेंढ़क था और डायनासोर भी। केंचुआ बन पृथ्वी के गर्भ में उतरने का प्रयास किया, तिलचट्टा बन रोशनी से भागता रहा। सुग्गा बन अनंत आकाश में उड़ता घूमा था या किसी पिंजरे में जीवन बिताया होगा जहाँ से अंतत: देह छोड़कर ही उड़ सका।

माना जाता है कि मनुष्य जीवन, आगमन-गमन के फेरे से मुक्ति का अवसर देता है। जानता हूँ कि कर्म ऐसे नहीं कि मुक्ति मिले। सच तो यह है कि मैं मुक्ति चाहता भी नहीं।

चाहता हूँ कि बार-बार लौटूँ इहलोक में। हर बार मनुज की देह पाऊँ। हर जन्म लेखनी हाथ में हो, हर जन्म में लिखूँ, अनवरत लिखूँ, असीम लिखूँ।

इतना लिखूँ कि विधाता मुझे मानवमात्र का लेखा लिखने का काम दे। तब मैं मनुष्य के भीतर दुर्भावना जगाने वाले पन्ने कोरे छोड़ दूँ। दुर्भावनारहित मनुष्य सृष्टि में होगा तो सृष्टि परमात्मा के कल्पनालोक का जीता-जागता यथार्थ होगी।

चाहता हूँ कि इस कल्पना पर स्वयं ईश्वर कहें, ‘तथास्तु।’


©
 संजय भारद्वाज

अपराह्न 4:10 बजे, 6 अगस्त 2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ बिन पानी सब सून – 3 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ बिन पानी सब सून – 3 ☆

पर्यावरणविद  मानते हैं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा।  प्राकृतिक संसाधन निर्माण नहीं किए जा सकते। प्रकृति ने उन्हें रिसाइकिल करने की प्रक्रिया बना रखी है। बहुत आवश्यक है कि हम प्रकृति से जो ले रहे हैं, वह उसे लौटाते भी रहें। पानी की मात्रा की दृष्टि  से भारत का स्थान विश्व में तीसरा है। विडंबना है कि  सबसे अधिक तीव्रता से भूगर्भ जल का क्षरण हमारे यहाँ ही हुआ है। नदी को माँ कहनेवाली संस्कृति ने मैया की गत बुरी कर दी है।  गंगा अभियान के नाम पर व्यवस्था द्वारा चालीस हजार करोड़ डकार जाने के बाद भी गंगा सहित अधिकांश नदियाँ अनेक स्थानों पर नाले का रूप ले चुकी हैं। दुनिया भर में ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते ग्लेशियर पिघल रहे हैं। आनेवाले दो दशकों में पानी की मांग में लगभग 43 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की आशंका है और हम गंभीर जल संकट के मुहाने पर खड़े हैं।

आसन्न खतरे से बचने की दिशा में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कुछ स्थानों पर अच्छा काम हुआ है। कुछ वर्ष पहले चेन्नई में रहनेवाले हर  नागरिक के लिए वर्षा जल संरक्षण को अनिवार्य कर तत्कालीन कलेक्टर ने नया आदर्श सामने रखा। देश भर के अनेक गाँवों में स्थानीय स्तर पर कार्यरत समाजसेवियों और संस्थाओं ने लोकसहभाग से तालाब खोदे  हैं और वर्षा जल संरक्षण से सूखे ग्राम को बारह मास पानी उपलब्ध रहनेवाले ग्राम में बदल दियाहै। ऐसेे प्रयासोेंं को राष्ट्रीय स्तर पर गति से और जनता को साथ लेकर चलाने की आवश्यकता है।

रहीम ने लिखा है-‘ रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गये न ऊबरे, मोती, मानस, चून।’ विभिन्न संदर्भों  में इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न हो सकती है किंतु पानी का यह प्रतीक जगत् में जल की अनिवार्यता को प्रभावी रूप से रेखांकित करता है। पानी के बिना जीवन की कल्पना करते ही मुँह सूखने लगता है। जिसके अभाव की  कल्पना इतनी भयावह है, उसका यथार्थ कैसा होगा !  महादेवीजी के शब्दों में कभी-कभी यथार्थ कल्पना की सीमा को माप लेता है। वस्तुतः पानी में अपनी ओर खींचने का एक तरह का अबूझ आकर्षण है। समुद्र की लहर जब अपनी ओर खींचती है तो पैरों के नीचे की बलुई ज़मीन खिसक जाती है। मनुष्य की उच्छृंखलता यों ही चलती रही तो ज़मीन खिसकने में देर नहीं लगेगी। बेहतर होगा कि हम समय रहते चेत जाएँ।

 

©  संजय भारद्वाज

# आपका दिन सृजनशील हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ बिन पानी सब सून – 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ बिन पानी सब सून – 2 ☆

मनुष्य को ज्ञात चराचर में जल की सर्वव्यापकता तो विज्ञान सिद्ध है। वह ऐसा पदार्थ है जो ठोस, तरल और वाष्प तीनों रूपों में है। वह जल, थल और नभ तीनों में है। वह ब्रह्मांड के तीनों घटकों का समन्वयक है। वह ‘पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते  ’का प्रमाणित संस्करण है। हिम से जल होना, जल से वायु होना और वायु का पुनः जल होकर हिम होना, प्रकृति के चक्र का सबसे सरल और खुली आँखों से दिखने वाला उदाहरण है। आत्मा की नश्वरता का आध्यात्मिक सिद्धांत हो या ऊर्जा के अक्षय रहने का वैज्ञानिक नियम, दोनों को  अंगद के पांव -सा प्रतिपादित करता-बहता रहता है जल।

भारतीय लोक जीवन में तो जल की महत्ता और सत्ता अपरंपार है। वह प्राणदायी नहीं अपितु प्राण है।  वह प्रकृति के कण-कण में है। वह पानी के अभाव से निर्मित मरुस्थल में पैदा होनेवाले तरबूज के भीतर है, वह खारे सागर के किनारे लगे नारियल में मिठास का सोता बना बैठा है। प्रकृति के समान मनुष्य की देह में भी दो-तिहाई जल है। जल जीवनरस है। जल निराकार है। निराकार जल, चेतन तत्व की ऊर्जा  धारण करता है। जल प्रवाह है। प्रवाह चेतना को साकार करता है। जल परिस्थितियों से समरूप होने का अद्भुत उदाहरण है। पात्र मेंं ढलना उसका चरित्र और गुणधर्म है। वह ओस है, वह बूँद है, वह झरने में है, नदी, झील, तालाब, पोखर, ताल, तलैया, बावड़ी, कुएँ, कुईं  में है और वह सागर में भी है। वह धरती के भीतर है और धरती के ऊपर भी है। वह लघु है, वही प्रभु है। कहा गया है-‘आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरं।’ बूँद  वाष्पीकृत होकर समुद्र से बादल में जा छिपती है। सागर बूँद को तरसता है तो बादल बरसता है और लघुता से प्रभुता का चक्र अनवरत चलता है।

लोक का यह अनुशासन ही था जिसके चलते  कम पानी वाले अनेक क्षेत्रों विशेषकर राजस्थान में घर की छत के नीचे पानी के हौद बनाए गए थे। छत के ढलुआ किनारों से वर्षा का पानी इस हौद में एकत्रित होता। जल के प्रति पवित्रता का भाव ऐसा कि जिस छत के नीचे जल संग्रहित होता, उस पर शिशु  और माँ या युगल का सोना वर्जित था। प्रकृति के चक्र के प्रति श्रद्धा तथा ‘जीओ और जीने दो’  की सार्थकता ऐसी कि कुएँ के चारों ओर हौज बाँधा जाता। पानी खींचते समय हरेक से अपेक्षित था कि थोड़ा पानी इसमें भी डाले। ये हौज  पशु-पक्षियों के लिए मनुष्य निर्मित पानी के स्रोत थे। पशु-पक्षी इनसे अपनी  प्यास  बुझाते। पुरुषों का स्नान कुएँ के समीप ही होता। एकाध बाल्टी पानी से नहाना और कपड़े धोना दोनों काम होते। इस प्रक्रिया में प्रयुक्त पानी से आसपास घास उग आती। यह घास पानी पीने आनेवाले मवेशियों के लिए चारे का काम करती।

पनघट तत्कालीन दिनचर्या की धुरि था। नंदलाल और राधारानी के अमूर्त प्रेम का मूर्त प्रतीक पनघट, नायक-नायिका की आँखों मेें होते मूक संवाद का रेकॉर्डकीपर पनघट, पुरुषों के राम-श्याम होने का साझा मंच पनघट और स्त्रियों के सुख-दुख के कैथारसिस के लिए मायका-सा पनघट ! पानी से भरा पनघट आदमी के भीतर के प्रवाह  का विराट दर्शन था।  कालांतर में  सिकुड़ती सोच ने पनघट का दर्शन निरपनिया कर दिया। कुएँ का पानी पहले खींचने को लेकर सामन्यतः किसी तरह के वाद-विवाद का उल्लेख नहीं मिलता। अब सार्वजनिक नल से पानी भरने को लेकर उपजने वाले कलह की परिणति हत्या में होने  की खबरें अखबारों में पढ़ी जा सकती हैं। स्वार्थ की विषबेल और मन के सूखेपन ने मिलकर ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दीं कि गाँव की प्यास बुझानेवाले स्रोत अब सूखे पड़े हैं। भाँय-भाँय करते कुएँ और बावड़ियाँ  एक हरी-भरी सभ्यता के खंडहर होने के साक्षी हैं।

हमने केवल पनघट नहीं उजाड़े, कुओं को सींचनेवाले तालाबों और छोटे-मोटे प्राकृतिक स्रोतों को भी पाट दिया। तालाबों की कोख में रेत-सीमेंट उतारकर गगनचुम्बी इमारतें खड़ी कर दीं।  बाल्टी से पानी खींचने की बजाय मोटर से पानी उलीचने की प्रक्रिया ने मनुष्य की मानसिकता में भयानक अंतर ला दिया है। बूँद-बूँद सहेजनेवाला समाज आज उछाल-उछाल कर पानी का नाश कर रहा है। दस लीटर में होनेवाला स्नान शावर के नीचे सैकड़ों लीटर पानी से खेलने लगा है। पैसे का पीछा करते आदमी की आँख में जाने कहाँ से दूर का न देख पाने की बीमारी-मायोपिआ उतर आई है। इस मायोपिआ ने शासन और अफसरशाही की आँख का पानी ऐसा मारा कि  सूखे से जूझते क्षेत्र में नागरिक को अंजुरि भर पानी उपलब्ध कराने की बजाय क्रिकेट के मैदान को लाखों लीटर से भिगोना ज्यादा महत्वपूर्ण समझा जाने लगा है।

क्रमशः …… 3

©  संजय भारद्वाज

# आपका दिन सृजनशील हो।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ बिन पानी सब सून – 1 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ बिन पानी सब सून – 1 ☆

जल जीवन के केंद्र में है। यह कहा जाए कि जीवन पानी की परिधि तक ही सीमित है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।  नाभिनाल हटाने से लेकर मृतक को स्नान कराने तक सारी प्रक्रियाओं में जल है। अर्घ्य द्वारा  जल के अर्पण से तर्पण तक जल है।  कहा जाता है-‘क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा,पंचतत्व से बना सरीरा।’ इतिहास साक्षी है कि पानी के अतिरिक्त अन्य किसी तत्व की उपलब्धता देखकर मानव ने बस्तियाँ नहीं बसाई। पानी के स्रोत के इर्द-गिर्द नगर और महानगर बसे। प्रायः हर शहर में एकाध नदी, झील या प्राकृतिक जल संग्रह की उपस्थिति इस सत्य को शाश्वत बनाती है। भोजन ग्रहण करने से लेकर विसर्जन तक जल साथ है। यह सर्वव्यापकता उसे सोलह संस्कारों में अनिवार्य रूप से उपस्थित कराती है।

पानी की सर्वव्यापकता भौगोलिक भी है।  पृथ्वी का लगभग दो-तिहाई भाग जलाच्छादित है पर कुल उपलब्ध जल का केवल 2.5 प्रतिशत ही पीने योग्य है। इस पीने योग्य जल का भी बेहद छोटा हिस्सा ही मनुष्य की पहुँच में है। शेष  सारा जल  अन्यान्य कारणों से मनुष्य के लिए उपयोगी नहीं है। कटु यथार्थ ये भी है कि विश्व की कुल जनसंख्या के लगभग 15 प्रतिशत को आज भी स्वच्छ जल पीने के लिए उपलब्ध नहीं है। लगभग एक अरब लोग गंदा पानी पीने के लिए विवश हैं। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार विश्व में लगभग 36 लाख लोग प्रतिवर्ष गंदे पानी से उपजनेवाली बीमारियों से मरते हैं।

जल प्राण का संचारी है। जल होगा तो धरती सिरजेगी। उसकी कोख में पड़ा बीज पल्लवित होगा। जल होगा तो धरती  शस्य-श्यामला होगी। जीवन की उत्पत्ति के विभिन्न धार्मिक सिद्धांत मानते हैं कि धरती की शस्य श्यामलता के समुचित उपभोग के लिए विधाता ने जीव सृष्टि को जना। विज्ञान अपनी सारी शक्ति से अन्य ग्रहों पर जल का अस्तित्व तलाशने में जुटा है। चूँकि किसी अन्य ग्रह पर जल उपलब्ध होने के पुख्ता प्रमाण अब नहीं मिले हैं, अतः वहाँ जीवन की संभावना नहीं है।  सुभाषितकारों ने भी जल को  पृथ्वी के त्रिरत्नों में से एक माना है-‘पृथिव्याम् त्रीनि रत्नानि जलमन्नम् सुभाषितम्।’

क्रमशः …… 2

©  संजय भारद्वाज

# आपका दिन सृजनशील हो।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 57 ☆ लफ़्जों के ज़ायके ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय एवं प्रेरक आलेख लफ़्जों के ज़ायके।  यह बिलकुल सच है कि लफ़्जों के ज़ायके होते हैं । आदरणीय गुलज़ार साहब के मुताबिक़ परोसने के पहले चख लेना चाहिए। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 57 ☆

☆ लफ़्जों के ज़ायके

‘लफ़्जों के भी ज़ायके होते हैं। परोसने से पहले चख लेना चाहिए।’ गुलज़ार जी का यह कथन महात्मा बुद्ध के विचारों को पोषित करता है कि ‘जिस व्यवहार को आप अपने लिए उचित नहीं मानते, वैसा व्यवहार दूसरों से भी कभी मत कीजिए’ अर्थात् ‘पहले तोलिए, फिर बोलिए’ बहुत पुरानी कहावत है। बोलने से पहले सोचिए, क्योंकि शब्दों के घाव बणों से अधिक घातक होते हैं; जो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। सो! शब्दों को परोसने से पहले चख लीजिए कि उनका स्वाद कैसा है? यदि आप उसे अपने लिए शुभ, मंगलकारी व स्वास्थ्य के लिए लाभकारी मानते हैं, तो उसका प्रयोग कीजिए, अन्यथा उसका प्रभाव प्रलयंकारी हो सकता है, जिसके विभिन्न उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘अंधे की औलाद अंधी’ था…महाभारत के युद्ध का मूल कारण…सो! आपके मुख से निकले कटु शब्द आपकी वर्षों की प्रगाढ़ मित्रता में सेंध लगा सकते हैं; भरे-पूरे परिवार की खुशियों को ख़ाक में मिला सकते हैं; आपको या प्रतिपक्ष को आजीवन अवसाद रूपी अंधकार में धकेल सकते हैं। इसलिए सदैव मधुर वाणी बोलिए और तभी बोलिए जब आप समझते हैं कि ‘आपके शब्द मौन से बेहतर हैं।’ समय, स्थान अथवा परिस्थिति को ध्यान में रखकर ही बोलना सार्थक व उपयोगी है, अन्यथा वाणी विश्राम में रहे, तो बेहतर है।

मौन नव-निधि के समान अमूल्य है। जिस समय आप मौन रहते हैं… सांसारिक माया-मोह, राग-द्वेष व स्व-पर की भावनाओं से मुक्त रहते हैं और आप अपनी शक्ति का ह्रास नहीं करते; उस प्रभु के निकट रहते हैं। यह भी ध्यान की स्थिति है; जब आप  निर्लिप्त भाव में रहते हैं और संबंध सरोकारों से ऊपर उठ जाते हैं… यही जीते जी मुक्ति है। यही है स्वयं में स्थित होना; स्वयं पर भरोसा रखना; एकांत में सुख अनुभव करना… यही कैवल्य की स्थिति है; अलौकिक आनंद की स्थिति है; जिससे मानव बाहर नहीं आना चाहता। इस स्थिति में यह संसार उसे मिथ्या भासता है और सब रिश्ते-नाते झूठे; जहां मानव के लिए किसी की लेशमात्र भी अहमियत नहीं होती।

सो! ऐ मानव, स्वयं को अपना साथी समझ। तुमसे बेहतर न कोई तुम्हें जानता है, न ही समझता है। इसलिए अन्तर्मन की शक्ति को पहचान; उसका सदुपयोग कर; सद्ग्रन्थों का निरंतर अध्ययन कर, क्योंकि विद्या व ज्ञान मानव का सबसे अच्छा व अनमोल मित्र है, सहयोगी है; जिसे न कोई चुरा सकता है; न बांट सकता है; न ही छीन सकता है और वह खर्च करने पर निरंतर बढ़ता रहता है। इसका जादुई प्रभाव होता है। यदि आप निर्दिष्ट मार्ग का अनुसरण करते हैं, तो मन कभी भी भटकेगा नहीं और उसकी स्थिति ‘जैसे उड़ि-उड़ि जहाज़ का पंछी, उड़ी-उड़ी जहाज़ पर आवै’ जैसी हो जाएगी। उसी प्रकार हृदय भी परमात्मा के चरणों में पुनः लौट आएगा। माया रूपी महाठगिनी उसे अपने मायाजाल में नहीं बांध पायेगी। वह अहर्निश उसके ध्यान में लीन रहेगा और लख चौरासी से जीते जी मुक्त हो जाएगा, जो मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है…  और उसकी मुख्य शर्त है; ‘जल में कमलवत् रहना अर्थात् संसार में जो हो रहा है, उसे साक्षी भाव से देखना और उसमें लिप्त न होना।’ इस परिस्थिति में सांसारिक माया-मोह के बंधन व स्व-पर के भाव उसके अंतर्मन में झांकने का साहस भी नहीं जुटा पाते। इस स्थिति में वह स्वयं तो आनंद में रहता ही है, दूसरे भी उसके सान्निध्य व संगति में आनंद रूपी सागर में अवगाहन करते हैं, सदा सुखी व संतुष्ट रहते हैं। इसलिए ‘कुछ हंस कर बोल दो,/ कुछ हंस कर टाल दो/ परेशानियां तो बहुत हैं/  कुछ वक्त पर डाल दो’ अर्थात् जीवन को आनंद से जियो, क्योंकि सुख-दु:ख तो मेहमान हैं, आते-जाते रहते हैं। इसलिए दु:ख में घबराना कैसा…खुशी से आपदाओं का सामना करो। यदि कोई अप्रत्याशित स्थिति जीवन में आ जाए, तो उसे वक्त पर टाल दो, क्योंकि समय बड़े से बड़े घाव को भी भर देता है।

मुझे स्मरण हो रही हैं, गुलज़ार जी की यह पंक्तियां ‘चूम लेता हूं/ हर मुश्किल को/ मैं अपना मान कर/ ज़िदगी जैसी भी है/ आखिर है तो मेरी ही’ अर्थात् मानव जीवन अनमोल है, इसकी कद्र करना सीखो। मुश्किलों को अपने जीवन पर हावी मत होने दो। जीवन को कभी भी कोसो मत, क्योंकि ज़िंदगी आपकी है, उससे प्यार करो। उन्हीं का यह शेर भी मुझे बहुत प्रभावित करता है… ‘बैठ जाता हूं/ मिट्टी पर अक्सर/ क्योंकि मुझे अपनी औक़ात अच्छी लगती है।’ जी! हां, यह वह सार्थक संदेश है, जो मानव को अपनी जड़ों से जुड़े रहने को प्रेरित करता है और यह मिट्टी हमें अपनी औक़ात की याद दिलाती है कि मानव का जन्म मिट्टी से हुआ और अंत में उसे इसी मिट्टी में मिल जाना है। सो! मानव को सदैव विनम्र रहना चाहिए, क्योंकि अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। सो! इसे अपने जीवन में कभी भी प्रवेश नहीं करने देना चाहिए, क्योंकि अहं हृदय को पराजित कर मस्तिष्क के आधिपत्य को स्वीकारता है। इसलिए मस्तिष्क को हृदय पर कभी हावी न होने दें, क्योंकि यह मानव से गलत काम करवाता है। स्वयं का दर्द महसूस होना जीवित होने का प्रमाण है और दूसरों के दर्द को महसूस करना इंसान होने का प्रमाण है। सो! मानव को आत्म- केन्द्रित अर्थात् निपट स्वार्थी नहीं बनना चाहिए; परोपकारी बनना चाहिए। ‘अपने लिए जिए, तो क्या जिए/ तू जी ऐ दिल/ ज़माने के लिए।’ औरों के लिए जीना व उनकी खुशी के लिए कुर्बान हो जाना…यही मानव जीवन का उद्देश्य है अर्थात् ‘नेकी कर, कुएं में डाल’ क्योंकि शुभ कर्मों का फल सदैव अच्छा व उत्तम ही होता है।

‘कबिरा चिंता क्या करे/ चिंता से क्या होय/ मेरी चिंता हरि करें/ मोहे चिंता न होए।’ कबीरदास जी का यह दोहा मानव को चिंता त्यागने का संदेश देता है कि चिंता करना निष्प्रयोजन व हानिकारक होता है। इसलिए सारी चिंताएं हरि पर छोड़ दो और आप हर पल उसका स्मरण व चिंतन करो। कष्ट व दु:ख आप से कोसों दूर रहेंगे और आपदाएं आपके निकट आने का साहस नहीं जुटा पाएंगी। ‘सदैव प्रभु पर आस्था व विश्वास रखो, क्योंकि विश्वास ही एक ऐसा संबल है, जो आपको अपनी मंज़िल तक पहुंचाने की सामर्थ्य रखता है’– स्वेट मार्टन की यह उक्ति मानव को ऊर्जस्वित करती है कि सृष्टि-नियंता पर अगाध विश्वास रखो और संशय को कभी हृदय में प्रवेश न पाने दो। इससे आप में आत्मविश्वास जाग्रत होगा। विश्वास सबसे बड़ा संबल है, जो हमें मंज़िल तक पहुंचा देता है। इसलिए सपने में भी संदेह व शक़ को जीवन में दस्तक न देने दो। जीवन में खुली आंखों से सपने देखिए; उन्हें साकार करने के लिए हर दिन उनका स्मरण कीजिए और अपनी पूरी ऊर्जा उन्हें साकार करने में लगा दीजिए। स्वयं को कभी भी किसी से कम मत आंकिए… आपको सफलता अवश्य प्राप्त होगी।

जीवन में हर कदम पर हमारी सोच, हमारे बोल व हमारे कर्म ही हमारा भाग्य लिखते हैं। सो! मानव को जीवन में नकारात्मकता को प्रवेश नहीं करने देना चाहिए, क्योंकि हमारी सोच, हमारी वाणी के रूप में प्रकट होती है और हमारे बोल व हमारे कर्म ही हमारे भाग्य-विधाता होते हैं। इसलिए कहा गया है कि बोलने से पहले चख लेना श्रेयस्कर है। सो! अपनी वाणी पर नियंत्रण रखिए। सदैव सत्कर्म कीजिए। लफ़्ज़ों के भी ज़ायके होते हैं… चख कर उनका सावधानी-पूर्वक प्रयोग करना ही उपयोगी, कारग़र व सर्वहिताय है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 10 ☆ वर्तमान परिदृश्य में आदर्श प्रेम और मानव प्रवृत्ति ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं अनुकरणीय आलेख  वर्तमान परिदृश्य में आदर्श प्रेम और मानव प्रवृत्ति।)

☆ किसलय की कलम से # 10 ☆

☆ वर्तमान परिदृश्य में आदर्श प्रेम और मानव प्रवृत्ति ☆

प्रेम समस्त ब्रह्मांड का एकमात्र बहुआयामी, व्यापक व परम् पावन ऐसा शब्द है, जिसे मानव के साथ समग्र प्राणी जगत भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से अनुभव करता है। प्रेम की बोली, प्रेम प्रदर्शन, प्रेमिल क्रियाकलापों की अनुभूति सबके हृदय व चेतना को सकारात्मकता से ओतप्रोत कर देती है। ऐसा माना जाता है कि प्रेम पूर्व में एक निश्छल तथा सत्यपरक परम् कर्त्तव्य परायणता का आदर्श रूप माना जाता था। सर्वोत्कृष्टता के आधार पर राधा-कृष्ण के प्रेम से सम्पूर्ण जनमानस परिचित है। प्रेमान्त अथवा वियोग की परिणति मृत्यु का भी कारण बन जाती है। मनुष्य व पशु-पक्षियों के ऐसे अनेकानेक उदाहरण हम में से अधिकांशों ने देखे होंगे, जब एक निश्छल प्रेमी अपने प्रिय के वियोग में कुछ पल भी जीवित नहीं रहे। हमारी भारतीय संस्कृति व हमारे भारतीय इतिहास में ऐसे विविध उदाहरण व लेख हैं। ऐसे आदर्श प्रेम के बारे में यह सत्य ही कहा गया है कि प्रेम किया नहीं जाता, हो जाता है। उभय पक्षों का परस्पर प्रेम तभी सफलता की ऊँचाई पर पहुँचता है, जब प्रेम क्रोध, ईर्ष्या, स्वार्थ, अहंकार, लोभ, मोह, आसक्ति, असमानता, भय, संशय, असत्य, घृणा जैसे नकारात्मक भावों की तिलांजलि न दे दी जाए। इनमें से एक भाव भी प्रेम के मध्य विद्यमान होने पर उसकी विराटता कलंकित हो जाती है। प्रेम किसी जाति-पाँति, रंग-रूप, लिंगभेद, उम्र, आदि का भेद नहीं करता। प्रेम देश, धर्म अथवा संस्कृति से भी हो सकता है, प्रेम मीरा, सूर, तुलसी के समान भी किया जा सकता है। प्रेम मानव की विचारधारा बदल देता है। प्रेम में डूबे मानव को आसपास के परिवेश में कुछ भी पराया नहीं लगता। प्रेम तो वह व्यापक और निष्कलंक धर्म के सदृश है जो हर किसी से किया जा सकता है। यह ईश्वर, प्रकृति, जीव-जंतु, पशु-पक्षी, माता-पिता, भाई-बहन, पिता-पुत्र, माँ-बेटी, पति-पत्नी अथवा स्त्री-पुरुष किसी से भी हो सकता है। पूर्वकाल में नैतिक व मानवीय मूल्यों की सर्वोच्च महत्ता थी, तत्पश्चात ही अर्थ-स्वार्थ की बात आती थी, इसी कारण प्रेम को आदर्श स्थान प्राप्त था। प्रेम किसी पूजा-आराधना से कमतर नहीं होता। शनैःशनैः स्वार्थ, ऐशोआराम व धन के मोह ने हमारी प्रगति का मार्ग प्रशस्त तो किया लेकिन अनैतिक कृत्यों व अवांछित स्वार्थगत गतिविधियों के क्रम को अंतहीन बना दिया।

आज इक्कीसवीं सदी के आते-आते वह आदर्श प्रेम गहन अंधकार की गहराई में विलुप्त होने को है। आज मात्र ‘प्रेम’ नामक शब्द ही शेष रह गया है, इसके मायने पूर्णरूपेण बदल चुके हैं। आज ऐसी कोई  मिसाल अथवा उदाहरण नजर नहीं आते, जिसे हम वास्तविक प्रेम कह सकें। ‘मैं उससे प्रेम करता हूँ’। ‘हम प्रेम की बातें करेंगे’। ऐसे वाक्य प्रेम को व्यक्त करने हेतु कदापि सक्षम नहीं हैं। प्रेम प्रदर्शित नहीं किया जाता, वह स्वयमेव अनुभूत होता है। युवक-युवती का किसी उद्यान में अकेले वार्तालाप करना प्रेम हो, यह आवश्यक नहीं है। यह आसक्ति हो सकती है, मोह भी हो सकता है। यह जरूरी नहीं है कि नौकर का मालिक के हितार्थ कार्य अथवा सेवा करना प्रेम की श्रेणी में आए, क्योंकि इसमें स्वार्थ हो सकता है, भय भी हो सकता है। मेरी दृष्टि में यह तथाकथित प्रेम का अनुबंध ही आज की परिपाटी बन गई है। आज तो किसी भी प्रकार से दूसरे पक्ष को खुश रखना, उसके हितार्थ काम करना, उसकी हाँ में हाँ मिलाना, उसकी प्रशंसा करना अथवा अपना स्वार्थ सिद्ध करना भी प्रेम की श्रेणी में गिना जाने लगा है। आज प्रायः एक पुत्र अपने पिता से प्रेम इसलिए करता है कि उसे माँ-बाप के रूप में अवैतनिक नौकर और उनके जीवन भर की कमाई तथा अचल-संपत्ति की चाह होती है। प्रेमी अथवा प्रेमिका के मध्य मोह, स्वार्थ व आसक्ति के भाव ही प्रमुख रूप से रहते हैं। मित्रता में भी परस्पर हित व अवसरवादिता ही दिखाई देती है। लाभपूर्ति के पश्चात अथवा अहम के आड़े आते ही यह मित्रता रूपी प्रेम फुर्र से उड़ जाता है। पड़ोसी या मोहल्ले वाले स्वार्थ, लाभ, लालच जैसे अनेक कारणों से छद्म प्रेम प्रदर्शित करते हैं। यह हमारी विवशता ही कहलाएगी कि हम यदि किसी से आदर्श प्रेम करना भी चाहें तो सामने वाला बदले में हमें वही प्रेम दे, आज की परिस्थितियों में ये संभव ही नहीं है। एक अहम बात यह भी है कि जब हमारे पास खाने को नहीं रहता, तब हम कमाने की होड़ में शामिल हो जाते हैं और जब हमारे पास अकूत धन-संपत्ति और खाने को रहता है, तब हम स्वास्थ्य कारणों से खा नहीं पाते। स्वास्थ्य, शांति, सुख व प्रेम की तलाश करते-करते हम पुनः पूर्ववत जीवन अपनाने हेतु बाध्य हो जाते हैं। निश्चित रूप से ये कमाई की होड़ ही हमें लालची, स्वार्थी, भ्रष्टाचारी व अचारित्रिक बनाती है, इसलिये ही यहाँ प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं बचता। तत्पश्चात बुढ़ापे में जब मानव इस प्रेम की तलाश करता है, तब तक अधिकांश हमसे बहुत दूर जा चुके होते हैं। आशय यह है कि जब एक अवधि के बाद हम अपने ही कमाए धन का उपयोग नहीं कर पाएँगे, तो हम वे सारे अनैतिक कार्य करते ही क्यों हैं? उतना धन एकत्र करते ही क्यों हैं, जिसे दान, धर्मशालाओं, चैरिटेबल आदि को देकर बुढ़ापे में शांति की कामना करना पड़े। प्रारम्भ में ही हमारे मानस में यदि प्रेम और सौहार्दभाव का बीजारोपण कर दिया गया होता तो हमारी स्वार्थलिप्तता हमें इतनी भावहीन न कर पाती। हम निश्छल प्रेम को बखूबी समझ गए होते।

प्रेम के कारक समाज में आपकी राह देख रहे हैं। संतोष, सदाचार व अपरिग्रह के भाव अपने हृदय में अंकुरित होने दें। मानव के प्रति प्रेमभाव जागृत करें। आपका जीवन कुछेक कठिनाईयों को छोड़कर शेष प्रेममय, आनंदमय व शांतिमय बीतने लगेगा। वृद्धावस्था में तनाव के स्थान पर शांति व प्रसन्नता का अनुभव होगा। हमारे धर्म ग्रंथों में लिखा है, कलयुग में अनैतिकता बढ़ेगी, बुराई, ईर्ष्या और द्वेष की वृद्धि होगी, प्रेम का पूर्ण अंत होगा, लेकिन अपने किये गए कर्मों से अपना वर्तमान तो सुधारा ही जा सकता  है। जैसा कि कहा गया है ‘हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा’। हो सकता है आपका प्रयास एक आंदोलन बने, आंदोलन एक अभियान बने और वह अभियान प्रेम को आदर्श दिशा की ओर मोड़ने में सफल हो।

आज ऐसे ही चिंतन की महती आवश्यकता है, जो समाज में आदर्श प्रेम को बढ़ावा दे सके एवं स्वयं को निश्छल, निःस्वार्थ तथा कल्याणकारी प्रेमपथ का अनुगामी बना सके।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 65 ☆ देश की एकता अखण्डता के लिए समर्पित व्यक्तित्व…. श्री अमरेंद्र नारायण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का आलेख देश की एकता अखण्डता के लिए समर्पित व्यक्तित्व…. श्री अमरेंद्र नारायणइस अत्यंत सार्थक  एवं प्रेरक आलेख के लिए श्री विवेक जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 65 ☆

☆ देश की एकता अखण्डता के लिए समर्पित व्यक्तित्व…. श्री अमरेंद्र नारायण  ☆

श्री अमरेंद्र नारायण जी से मेरे  आत्मीयता के कई कई सूत्र हैं. एक इंजीनियर, एक साहित्यकार, एक कवि, एक रचनाकार, एक पाठक, राष्ट्र भाव से ओत प्रोत मन वाले, देश की एकता और अखण्डता के लिये समर्पित आयोजनो के समन्वयक और सबसे ऊपर एक सहृदय सदाशयी इंसान के रूप में वे मुझे मेरे अग्रज से अपने लगते हैं.

श्री अमरेंद्र नारायण जी की पुस्तक को अमेजन में  निम्न लिंक पर उपलब्ध है

एकता और शक्ति 

Unity And  Strength

स्वतंत्र भारत के एक नक्शे के शिल्पकार  लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल के अप्रतिम योगदान पर उन्होंने एकता और शक्ति उपन्यास लिखा है। इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया में अमरेंद्र जी ने  गुजरात में सरदार पटेल से संबंधित अनेकानेक स्थलों का पर्यटन कई कई दिनो तक किया है. स्वयं को तत्कालीन परिवेश में गहराई तक उतारा है और फिर डूबकर लिखा है.इसीलिये उपन्यास सरदार पटेल के जीवन के अनेक  अनजान पहलुओं को उजागर करता है। रास ग्राम के एक सामान्य कृषक परिवार को केन्द्र में रख कर कहानी का ताना बाना बुना गया है।सरदार पटेल के महान  व्यक्तित्व से वे अंतर्मन से प्रभावित हैं. सरदार पटेल के सिद्धांतो को नई पीढ़ी में अधिरोपित करने के लिये मैंने उनके साथ मिलकर अनेक शालाओ, महाविद्यालयों, व कई संस्थाओ में एकता व शक्ति नाम से विभिन्न साहित्यिक सांस्कृतिक आयोजन किये है. देश की आजादी के साथ सरदार पटेल को कांग्रेस जनो का बहुमत से समर्थन होते हुये भी उन्होने महात्मा गांधी के इशारे पर प्रधानमंत्री की कुर्सी सहजता से पंडित नेहरू को दे दी थी. ऐसे त्याग के उदाहरण आज की राजनीति में कपोल कल्पना की तरह लगते हैं.

समय के साथ यदि तथ्यो को नई पीढ़ी के सम्मुख दोहराया न जावे तो विस्मरण स्वाभाविक होता है,  आज की पीढ़ी को सरदार के जीवन के संघर्ष से परिचित करवाना इसलिये भी आवश्यक है, जिससे देश प्रेम व राष्ट्रीय एकता हमारे चरित्र में व्याप्त रह सके इस दृष्टि से  यह उपन्यास अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता दिखता है.

अमरेन्द्र नारायण जी पेशे से टेलीकाम इंजीनियर हैं, उन्होने अपने सेवाकाल का बड़ा समय विदेश में बिताया है, पर वे मन से विशुद्ध भारतीय हैं, वे जहां भी रहे हैं उन्होने हिन्दी की सेवा के लिये सतत काम किया है  तथा देश भक्ति का परिचय दिया है.

अमरेंद्र जी की कवितायें भी उनकी ऐसी ही भावनाओ को प्रतिबिम्बित करती हैं  . उनकी पंक्तियां उधृत करना चाहता हूं

वे वसुधैव कुटुम्बकम के अनुरूप प्रकृति पर सबका समान अधिकार प्रतिपादित करते हुये लिखते है

वसुधा की कोख उदारमयी

वात्सल्य नेह और प्यार मयी

अन्नपूर्णा सारे जग के लिये

हर प्राणी और हर घर के लिये

है सबकी, है सबकी

इसी तरह कोरोना के वर्तमान वैश्विक संकट के समय उनकी कलम लिखती है

जाने कितनी बार विपदा ने चुनौती दी मनुज को

जाने कितनी बार उसकी शक्ति को झकझोर डाला

जाने कितनी बार नर को नाश की धमकी दिखाई

जाने कितनी बार उसको कष्ट में घनघोर डाला

पर मनुज भी तो मनुज है, उठ खरा होता है कहता

है परीक्षा की घड़ी, विश्वास पर अपना अडिग है

बादलों की ओट से सूरज निकल कर आ रहा है

वर्तमान संदर्भ में अमरेंद्र जी की ये पंक्तियां नये उत्साह और स्फूर्ति का संचरण करती हैं. उनके असाधारण प्रेमिल व्यक्तित्व का साथ मुझे बड़ी सहजता से मिलता है यह मेरे लिये गौरव का विषय है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #56 ☆ शून्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – शून्य ☆

शून्य उत्सव है। वस्तुतः महोत्सव है। शून्य में आशंका देखते हो, सो आतंकित होते हो। शून्य में संभावना देखोगे तो  प्रफुल्लित होगे। शून्य एक पड़ाव है आत्मनिरीक्षण के लिए। शून्य अंतिम नहीं है। वैसे प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं होता। जीवन, पृथ्वी सब चक्राकार हैं। प्रकृति भी वृत्ताकार है। हर बिंदु परिधि की इकाई है और हर बिंदु में नई परिधि के प्रसव की क्षमता है। प्रसव की यह क्षमता हर बिंदु के केंद्र बन सकने की संभावना है।

यों गणित में भी शून्य अंतिम नहीं होता। वह संख्याशास्त्र का संतुलन है। शून्य से पहले माइनस है। माइनस में भी उतना ही अनंत विद्यमान है, जितना प्लस में। शून्य पर जल हिम हो जाता है। हिम होने का अर्थ है, अपनी सारी ऊर्जा को संचित कर काल,पात्र,परिस्थिति अनुरूप दिशा की आवश्यकतानुसार प्रवहमान होना। शून्य से दाईं ओर चलने पर हिम का विगलन होकर जल हो जाता है। पारा बढ़ता जाता है। सौ डिग्री पारा होते- होते पानी खौलने लगता है। बाईं ओर की यात्रा में पारा जमने लगता है। एक हद तक के बाद हिमखंड या ग्लेशियर बनने लगते हैं। हमें दोनों चाहिएँ-खौलता पानी और ग्लेशियर भी। इसके लिए शून्य होना अनिवार्य है।

शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य में विलाप सुननेवाले नादान हैं। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी।  शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाएँ।

…मैं अपने अपने शून्य का रसपान कर रहा हूँ। शून्य में शून्य उँड़ेल रहा हूँ , शून्य से शून्य उलीच रहा हूँ। शून्य आदि है, शून्य अंत है।

 

© संजय भारद्वाज

परमसत्य की यात्रा मंगलमय हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 56 ☆ शांति और प्रशंसा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय एवं प्रेरक आलेख शांति और प्रशंसा।  मौन एवं ध्यान का हमारे जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है जिसका  आध्यात्मिक अनुभव हमें उम्र तथा अनुभव के साथ ही मिलता है अथवा किसी अनुभवी व्यक्ति के मार्गदर्शन से मिलता है ।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 56 ☆

☆ शांति और प्रशंसा

मानव जीवन का प्रमुख प्रयोजन है– शांति प्राप्त करना, जिसके लिए वह आजीवन प्रयासरत रहता है। शांति बाह्य परिस्थितियों की गुलाम नहीं है, बल्कि इसका संबंध तो हमारे अंतर्मन व मन:स्थिति से होता है। जब हम स्व में स्थित हो जाते हैं, तो बाह्य परिस्थितियों का हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और हम सत्, चित्, आनंद अर्थात् अलौकिक आनंद को प्राप्त कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में मानव हृदय में दैवीय गुणों-शक्तियों का विकास होता है और वह निंदा, राग-द्वेष, स्व-पर, आत्मश्लाघा आदि दुष्प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लेता है। आत्म- प्रशंसा करना व सुनना संसार में सबसे बड़ा दोष है, जिसका कोई निदान नहीं। यह मायाजाल युग- युगांतर से निरंतर चला आ रहा है और वह ययाति जैसे तपस्वियों को भी अर्श से फर्श पर गिरा देता है।

ययाति घोर तपस्या के पश्चात् स्वर्ग पहुंचे, क्योंकि  उन्हें ब्रह्मलोक में विचरण करने का वरदान प्राप्त था; जो देवताओं की ईर्ष्या का कारण बना। एक दिन इंद्र ने ययाति  की प्रशंसा की तथा उस द्वारा किए गये जप-तप के बारे में जानना चाहा। ययाति आत्म- प्रशंसा सुन फूले नहीं समाए और अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने लगे। इंद्र ने ययाति को आसन से उतर जाने को कहा, क्योंकि उसने ऋषियों, गंधर्वों, देवताओं व मनुष्यों की तपस्या का तिरस्कार किया  और वे स्वर्ग से नीचे गिर गए। परंतु उसके अनुनय- विनय पर इन्द्र ने उसे सत्पुरुषों की संगति में रहने की अनुमति प्रदान कर दी।

सो! आत्म-प्रशंसा से बचने का उपाय है मौन, जो प्रारंभ में तो कष्ट-साध्य प्रतीत होता है। परंतु धीरे- धीरे श्वास व शब्द को साधने से हृदय की चंचलता समाप्त हो जाती है और चित्त शांत हो जाता है। आती-जाती श्वास को देखने पर मन स्थिर होने लगता है और मानव को उसमें आनंद आने लगता है। यह वह दिव्य भाव है, जिससे चंचल मन की समस्त वृत्तियों पर अंकुश लग जाता है। मानव अपना समय निरर्थक संवाद व तेरी-मेरी अर्थात् पर-निंदा में समय नष्ट नहीं करता। मौन की स्थिति में मानव आत्मावलोकन करता है तथा वह संबंध- सरोकारों से ऊपर उठ जाता है। इस स्थिति में अपेक्षा-उपेक्षा के भाव का भी शमन हो जाता है। जब व्यक्ति को किसी से अपेक्षा अथवा उम्मीद ही नहीं रहती, फिर विवाद कैसा? उम्मीद सब दु:खों की जननी है। जब मानव इससे ऊपर उठ जाता है, तो भाव-लहरियां शांत हो जाती हैं; संशय व अनिर्णय की स्थिति पर विराम लग जाता है। परिणामत: मानसिक द्वंद्व को विश्राम प्राप्त होता है और दैवीय गुणों स्नेह, करूणा, सहानुभूति, त्याग आदि के भाव जाग्रत होते हैं। उसे संसार में हम सभी के तथा सब हमारे नज़र आते हैं तथा ‘सर्वेभवन्तु सुखीनाम्’ का भाव जाग्रत होता है।

मानव हरि चरणों में सर्वस्व समर्पित कर मीरा की भांति ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूजो न कोय’ अनुभव कर सुक़ून पाता है। इस स्थिति में सभी भाव- लहरियों को अपनी मंज़िल प्राप्त हो जाती है तथा अहं का विगलन हो जाता हो, जो सभी दोषों की जड़ है। अहं हमारे अंतर्मन में सर्वश्रेष्ठता का भाव उत्पन्न करता है, जो आत्म- प्रशंसा का जनक है। अपने गुणों के बखान करने के असाध्य रोग से वह चाह कर भी मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। वह न तो दूसरे की अहमियत स्वीकारता है; न ही उसके द्वारा प्रेषित सार्थक सुझावों की ओर ध्यान देता है। सो! वह गलत राहों पर चल निकलता है। यदि कोई उसके हित की बात भी करता है, तो वह उसे शत्रु-सम भासता है और वह उसका निरादर कर संतोष पाता है। उसके शत्रुओं की संख्या में निरंतर इज़ाफ़ा होता जाता है। एक लम्बे अंतराल के पश्चात् जब उसका शरीर क्षीण हो जाता है और वह एकांत की त्रासदी झेलता हुआ तंग आ जाता है, तो उसे अपने घर व परिवार-जनों की स्मृति आती है। वह लौटना चाहता है, अपनों के मध्य… परंतु उसके हाथ निराशा ही लगती है और उसे प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य विकल्प नज़र नहीं आता। वह सांसारिक ऊहापोह व मायाजाल से निज़ात पाना चाहता है; चैन की सांस लेना चाहता है, परंतु यह उसके लिए संभव नहीं होता। उसे लगता है, वह व्यर्थ ही धन कमाने हित उचित- अनुचित राहों पर चलता रहा, जिसकी अब किसी को दरक़ार नहीं। वह न पहले शांत था, न ही उसे अब सुक़ून प्राप्त होता है। वह शांति पाने का हर संभव प्रयास करता रहा, परंतु अतीत की स्मृतियां ग़ाहे-बेग़ाहे उसके हृदय को उद्वेलित-विचलित करती रहती हैं। वह चाह कर भी इनके शिकंजे से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। अंत में इस जहान से रुख्स्त होने से पहले वह सबको इस तथ्य से अवगत कराता है कि सुख-शांति अपनों के साथ है। सो! संबंधों की अहमियत स्वीकारो…आत्म-प्रशंसा की भूल-भुलैया में फंस कर अपना अनमोल जीवन नष्ट न करो। सच्चे दोस्त संजीवनी की तरह होते हैं, उनकी तलाश करो। वे हर आकस्मिक आपदा व विषम परिस्थिति में आपकी अनुपस्थिति में भी आपकी ढाल बन कर खड़े रहते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 9 ☆ हमारा दुर्भाग्य है रिश्तों की टूटती कड़ियाँ ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

`डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं अनुकरणीय आलेख  हमारा दुर्भाग्य है रिश्तों की टूटती कड़ियाँ।)

☆ किसलय की कलम से # 9 ☆

☆ हमारा दुर्भाग्य है रिश्तों की टूटती कड़ियाँ ☆

रिश्ता अथवा बंधन शब्द दो या दो से अधिक समान या भिन्न-भिन्न जीवों, वनस्पतियों, पदार्थों आदि की उत्पत्ति का एक ही स्रोत होना, अति निकट आना, परस्पर मिश्रित अथवा समाहित होने का परिणाम है। एक ही प्रजाति के परिवार में परस्पर समानता के गुण पाए जाते हैं। यह समानता मनुष्यों में इसलिए स्पष्ट समझ में आ जाती है क्योंकि मनुष्य एक दूसरे के दैहिक, चारित्रिक, बौद्धिक गुणों के साथ-साथ नृत्य, संगीत, गायन जैसी कलाओं को आसानी से परखने की सामर्थ्य रखता है। वैसे भी एक वंश में उत्पन्न संतति में  प्रायः अनेक समानताएँ हम सब देखते चले आ रहे हैं। ये अनुवांशिक गुण खून के रिश्तों में ही पाए जाते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे परिलक्षित होते रहते हैं। फिर बात आती है दो अलग-अलग परिवारों के रिश्तों की, जो वैवाहिक बंधन से बनते हैं। इसमें एक परिवार की लड़की और दूसरे परिवार का लड़का होता है और वह सदा के लिए पति-पत्नी कहलाते हैं। अगले क्रम के रिश्ते इन्हीं दो अलग-अलग परिवारों के शेष सदस्यों से बन जाते हैं, जिन्हें फूफा, मौसी, मामा, नाना, नानी आदि का नाम दिया जाता है। तत्पश्चात मानव विभिन्न कारणों से भी रिश्तों में बँधता-बिखरता रहता है। मालिक-नौकर, दुकानदार-ग्राहक, समान गुण, कला, संगीत, साहित्य, पड़ोस, व्यवसाय आदि में भी रिश्ते कायम होते हैं। एक और  रिश्ते को पृथक से वर्गीकृत करना आवश्यक है और वह है मित्रता का रिश्ता। प्रमुखतः ये दो तरह के होते हैं।  प्रथम किसी हेतुवश की गई मित्रता और द्वितीय निःस्वार्थ मित्रता। आज निःस्वार्थ मित्रता के रिश्ते बड़े दुर्लभ व कहानियों तक सीमित हो गए हैं। आधुनिक युग में इसे पागलपन कहा जाता है और ये पागलपन भला आज कोई क्यों करेगा?

संबंध या रिश्तों की बात आते ही हम राम-लक्ष्मण, यशोदा-कृष्ण, रावण-विभीषण, देवकी-कंस, अर्जुन-कृष्ण, सीता-राम, पांडव-कौरवों के रिश्तों में स्वयं का किरदार नियत करने की सोचने लगते हैं, लेकिन हम स्वयं की तुलना इनमें से किसी के साथ नहीं कर पाते, क्योंकि आज के युग में हम न लक्ष्मण जैसे भाई बन सकते, न ही यशोदा जैसी माँ और न ही सीता जैसी आदर्श पत्नी, लेकिन हम स्वार्थवश रावण, कंस अथवा कौरवों से भी आगे वाले किरदारों की जरूर सोच लेंगे।

एक समय था जब कबीले का मुखिया सबका ध्यान रखता था, उनके उदर-पोषण का दायित्व सम्हालता था। फिर संयुक्त परिवारों का मुखिया समान रूप से व्यवहार व सुरक्षा करने लगा। एकाध सदी पूर्व का संयुक्त परिवार माँ-बाप, पति-पत्नी और बच्चों तक सिमट गया। पिछले कुछ ही दशकों में हमें अपने माँ-बाप या सास-श्वसुर भी बोझ लगने लगे। वर्तमान में इसका कारण आवश्यकता कम स्वच्छंदता की चाह ज्यादा समझ में आती है। हम अपने ही बूढ़े माँ-बाप या सास-श्वसुर की सेवा नहीं करना चाहते। आखिर हमारी सोच इतनी निम्न क्यों होती जा रही है?

यह बात इतनी सीधी व सरल नहीं है। हम माँ-बाप से अलग रहने पर विवश क्यों हो जाते हैं?

गंभीर चिंतन व मनन से कुछ प्रमुख कारण सामने जरूर आएँगे। सबसे प्रमुख बात है हमारी संस्कृति, संस्कार, परंपराओं और सोच में बदलाव की। अपनी संतानों को हम अपने धार्मिक व पौराणिक ग्रंथों में निहित सीख व उपदेशों के साथ-साथ नाना-नानी की प्रचलित रहीं दिशाबोधी कथा-कहानियों से लगातार दूर रखने लगे। वैसे भी गुरुकुल प्रथा की समाप्ति के पश्चात व्यवसाय केंद्रित शिक्षा ने हमारे सारे आदर्शों को हाशिए पर डाल दिया है। रही शेष बचे प्रेम-भाईचारे, त्याग-समर्पण, सरलता, परोपकार जैसे कर्त्तव्यों की बात, तो इनके दूसरे घृणित पहलुओं पर केंद्रित चलचित्र, टीवी शो, टीवी धारावाहिकों के साथ अब सोशल मीडिया ने भी भारतीय संस्कारों और परंपराओं के विरुद्ध पूरे समाज की सोच और परिवेश तक बदलने की ठान ली है।

आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बात बिना हिंसा, सौदेबाजी, लूटमार, शोषण और वैमनस्यता के पूरी होती ही नहीं है। चूँकि सच्चाई कभी बदली नहीं जा सकती, इसीलिए श्रोताओं व दर्शकों के भय से दस-बीस प्रतिशत सच्चाई को दिखाना इन की विवशता होती है, परंतु हमारी संतानें बार-बार, लगातार यही देखते और सुनते रहने से क्या भ्रमित होने से बच पाएँगी? आज घर के ही सदस्यों के मध्य द्वेष, घृणा, स्वार्थ, अनैतिक संबंधों के दृश्य दिखाने की अनियत सीमा नई पीढ़ी को अमानवीय व तथाकथित आधुनिकता के रंग में रँगना चाहती है। निर्माताओं तथा लेखकों की पैंतरेबाजी, कानून की लचर धाराओं और देश के कर्णधारों का भी इस ओर ध्यान न दिया जाना, वर्तमान के साथ ही भावी पीढी के लिए भी घातक बनता जा रहा है।

संयुक्त परिवार तो अब अंतिम साँसें गिन ही रहे हैं। एकल परिवार का रुझान अब एक आम प्रक्रिया हो चली है। तन-मन-धन खपाने वाले माँ-बाप की त्याग-तपस्या आज मूल्यहीन मानी जाती है। बचपन से जवानी तक किया गया सब कुछ अपनी आँखों से देखने वाली संतान जब स्वयं अपने माँ-बाप को महत्त्व न दे। नवागत वधु अपने सास-श्वसुर की सेवा-सुश्रूषा तथा चिंता की बात तो दूर महत्त्व ही न दें और खुद का बेटा विवश होकर उसका साथ दे, तो क्या होगा उन असहाय बुजुर्ग माँ-बाप का। कोई बाहरी व्यक्ति तो उनकी मदद करने से रहे। बेटे की विवशता और उसकी दुविधा अपने माता-पिता के साथ पत्नी के हितों से भी जुड़ी होती है। स्वभावतः अथवा माता-पिता द्वारा उचित शिक्षा, संस्कार व कर्त्तव्य निर्वहन के गुण सीखकर न आने वाली वधुएँ भी आज केवल पति और अपने बच्चों के साथ एकल परिवारों को बढ़ाने में अहम भूमिका का निर्वहन कर रही हैं। वैसे अविवाहित रहते उनके माँ-बाप द्वारा सिखाने का भी एक समय होता है। आचार-व्यवहार व सलीके स्वयं सीखना भी उनका दायित्व है, लेकिन जब इन बातों की अनदेखी होगी तो परिवार में टूटन के साथ खून के रिश्तो में दरार पड़ने से कोई भी नहीं रोक पायेगा।  अपने माता-पिता की छत्रछाया के अनगिनत लाभों को नजर अंदाज कर कुछेक स्वार्थों की पूर्ति हेतु एकल परिवारों की बाढ़ आना आज के युग की सबसे बड़ी विडंबना कही जाएगी। ये पारिवारिक रिश्तों की टूटती कड़ियाँ हमारा दुर्भाग्य ही हैं।

आजकल महिलाओं की आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता आंदोलनों के अधूरे सच ने भी विकट स्थितियाँ निर्मित की हैं। जिस उद्देश्य को लेकर महिला मोर्चा और नारी आंदोलन शुरू किए गए थे उनका मूल उद्देश्य नारी का सम्मान, समानता का भाव और शोषण से मुक्त होना था, लेकिन आज इनकी आड़ में यदा-कदा बहुत कुछ ऐसा भी होने लगा है, जिससे समाज में किंचित असहजता तथा रिश्तों में गाँठें भी दिखाई देने लगी हैं। नारी हितार्थ बने कानूनों का भी दुरुपयोग होते देखा गया है। आज मित्रता हो, संपत्ति बँटवारा हो, वर्चस्व की बात हो अथवा राजनीतिक बात हो, ये लगभग सभी रिश्ते स्वार्थ के सहारे ही अग्रसर होने लगे हैं। गिरते नैतिक मूल्य, निजी स्वार्थों का टकराव और अपनों के प्रति त्याग-समर्पण तथा आत्मीयता की कमी आज आदर्श रिश्तों के अंत के प्रमुख कारकों में गिने जायेंगे।

उपरोक्त सभी तथ्यों पर आदिकाल से ही पढ़ा, सुना और देखा जा रहा है। आज भी यही सब हो रहा है, लेकिन कोई भी इसे स्वीकारने हेतु तैयार नहीं है। आज अधिकांश लोग खून के रिश्तों तक का निर्वहन करना भूलते जा रहे हैं। हम सभी जानते हैं मानव जीवन क्षणभंगुर है, जग में आपकी उपलब्धियों और आपके आचार-व्यवहार के अतिरिक्त कुछ भी याद नहीं किया जायेगा। यह भी परम सत्य है कि रिश्तों तथा अपनों के प्रति किए गए दुर्व्यवहार व अनैतिक कृत्यों की अंतःपीड़ा से कोई जीवन पर्यंत भी नहीं उबर पाता। अतः मानव की श्रेष्ठ योनि में जन्म लेकर सद्व्यवहार, सत्कर्म, परोपकार तथा रिश्तों के उचित निर्वहन में स्वयं समर्पित होना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है और यही सच्चे अर्थों में रिश्तों की कड़ियों को टूटने से बचाना भी कहलायेगा।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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