हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 38 – ज्योतिष शास्त्र ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं शिखाप्रद आलेख  “ज्योतिष शास्त्र। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 38 ☆

☆ ज्योतिष शास्त्र

क्या आप जानते हैं कि हमारी सौर प्रणाली की पूरी संरचना ऐसी है कि सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर अंडाकार कक्षा में गति कर रहे हैं । सूर्य के पास पहला ग्रह बुध है, फिर अगली कक्षा में शुक्र आता है । इन दो ग्रहों बुध और शुक्र को पृथ्वी काआंतरिक ग्रह कहा जाता है क्योंकि वे सूर्य और पृथ्वी के घूर्णन के बीच में आते हैं । तो शुक्र के बाद, पृथ्वी की कक्षा आती है जिसके चारों ओर हमारा चंद्रमा घूमता है । पृथ्वी के बाद के ग्रहों को बाहरी ग्रह कहा जाता है क्योंकि वे सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के घूर्णन की कक्षा के बाहर अपनी अलग अलग कक्षाओं में घूर्णन करते हैं । तो अनुक्रम में पृथ्वी के बाद आने वाले अन्य ग्रह मंगल, बृहस्पति और शनि हैं । तो ग्रहों का अनुक्रम है सूर्य (सूर्य को ज्योतिष के अनुसार ग्रह के रूप में मानें), बुध, शुक्र, पृथ्वी, पृथ्वी का चंद्रमा, मंगल, बृहस्पति, और फिर शनि । भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं जो पृथ्वी के सापेक्ष एक दुसरे के उल्टी दिशा में (180 डिग्री पर) स्थित रहते हैं । क्योंकि ये ग्रह कोई खगोलीय पिंड नहीं हैं, इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है । सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में अपने-अपने पथ पर चलने के अनुसार ही राहु और केतु की स्थिति भी बदलती रहती है । तभी, पूर्णिमा के समय यदि चाँद राहू (अथवा केतु) बिंदु पर भी रहे तो पृथ्वी की छाया पड़ने से चंद्र ग्रहण लगता है, क्योंकि पूर्णिमा के समय चंद्रमा और सूर्य एक दुसरे के उलटी दिशा में होते हैं । ये तथ्य इस कथा का जन्मदाता बना कि “वक्र चंद्रमा ग्रसे ना राहू”। अंग्रेज़ी या यूरोपीय विज्ञान में राहू एवं केतु को को क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी लूनर नोड कहते हैं ।

अब अगर हम ज्योतिष की संभावनाओं से देखते हैं, तो ग्रहों की ऊर्जा इस प्रकार है सूर्य हमारी आत्मा या जीवन की रोशनी है, बुध स्मृति और संचार को दर्शाता है जो अक्सर बहुत तेजी से बदलते हैं । शुक्र, जो मूल रूप से इच्छाओं की भावनाओं को दिखाता है, भी तेजी से बदलता है, लेकिन बुध की तुलना में कम तेजी से । फिर पृथ्वी आती है, जिस पर हम विभिन्न ग्रहों के प्रभाव देख रहे हैं (जिसे हम मनुष्य का शरीर और मस्तिष्क आदि मान सकते हैं) । फिर चंद्रमा आता है जो हमारे बदलते मस्तिष्क को दर्शाता है जो परिवर्तन में सबसे तेज़ है ।

फिर मंगल ग्रह आता है, जो हमारी शारीरिक शक्ति, हमारी क्षमता, सहनशक्ति, क्रोध इत्यादि दर्शाता है । मंगल ग्रह के बाद बृहस्पति आता है, जो दूसरों को सिखाने के लिए ज्ञान, शिक्षण और गुणवत्ता दिखाता है । अंत में शनि आता है, जो हमारे जीवन की उचित संरचना बनाने के लिए हमारे ऊपर लगाने वाले प्रतिबंधों के लिए ज़िम्मेदार है इसे क्रिया स्वामी भी कहा जाता है क्योंकि शनि हमारी जिंदगी की गति में रुकावटें डाल डाल कर हमें एक या अन्य कार्यों में निपुण बनाता है ।

अब यदि हम राशि चक्र में ग्रहों की स्थितियों और उसके ज्योतिषीय ऊर्जा के गुणों की तुलना करते हैं तो हम पायँगे कि ये एकदम सटीक हैं । चलो सूर्य से शुरू करते हैं, यह हमारे सौर मंडल का केंद्र है। सूर्य के चारों ओर सभी ग्रह घूमते हैं । ज्योतिष में भी सूर्य बुनियादी चेतना और ऊर्जा है जिसके साथ हम पृथ्वी पर आये थे । अगला ग्रह बुध है, जिसका घूर्णन चक्र ग्रहों के बीच सबसे छोटा है । इसके अतरिक्त बुध स्मृति और संचार को दर्शाता है जो अक्सर बदलता रहता है । दूसरे शब्दों में, संचार के माध्यम से किसी के विषयमें किसी को कुछ बताने में बहुत कम समय लगता है, एवं स्मृति में संस्कारों को संग्रहीत करने और वापस निकालने में बहुत कम समय लगता है और प्रत्येक क्षण में हमारी कुल स्मृति बदलती रहती है ।

अगला ग्रह शुक्र है, जिसके घूर्णन का चक्र ज्योतिष में बुध से बड़ा है । शुक्र इच्छाओं से उत्पन्न भावनाओं को दर्शाता है । प्रेम जैसी कुछ भावनाओं के प्रभाव से वापस सामान्य अवस्था में आने के लिए मानव को कई सप्ताह भी लग सकते हैं । बुध और शुक्र सूर्य और पृथ्वी के बीच में अपनी परिक्रमायें करते हैं, और इसी लिए इन्हे आंतरिक ग्रह कहा जाता है ।

इसके अतरिक्त बुध और शुक्र, जो स्मृति, संचार और भावनाओं से जुड़े हुए ग्रह हैं, हर मानव के आंतरिक मुद्दे हैं और कोई भी बाहरी व्यक्ति बाहरी रूप से देखकर उनके विषय में नहीं बता सकता है । ये मनुष्य के अंदर छिपे हुए व्यक्ति के आंतरिक गुण हैं, इसलिए हमारे राशि चक्र में भी बुध और शुक्र आंतरिक ग्रह हैं । पृथ्वी हमारा शरीर है जिसके संदर्भ से हम सभी ग्रहों के गति को देख रहे हैं । चंद्रमा, जो पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, हमारे हमेशा बदलते मस्तिष्क को दिखाता है, विशेष रूप से मस्तिष्क का मन वाला भाग, जो मानव का सबसे तेज़ गति से बदलने वाला आंतरिक अंग है । तो पृथ्वी के चारों ओर चंद्रमा के घूर्णन को अन्य ग्रहो के घूर्णन की तुलना में सबसे कम समय लगता है । चंद्रमा के विषय में यह भी महत्वपूर्ण है कि अन्य ग्रहों की गति सूर्य के चारों ओर है, जो किसी व्यक्ति की आत्मा है, लेकिन चंद्रमा की गति पृथ्वी के चारों ओर या व्यक्ति की भौतिक, दृश्य संरचना के चारो ओर है ।

तो चंद्रमा हमारे शरीर के चारों ओर हमारी सोच दर्शाता है, इसका अर्थ मुख्य रूप से भौतिक वस्तुओ के विषय में है, या अधिक स्पष्ट रूप से चंद्रमा का घूर्णन हमारे अन्नमय कोश और प्राणमय कोश को मनोमय कोश के माध्यम से प्रभावित करता है ।

चंद्रमा के बाद बाहरी ग्रहआते हैं । पहला मंगल है, जो हमारी शारीरिक शक्ति, सहनशक्ति, क्षमता और क्रोध को दर्शाता है । बेशक ये वे गुण हैं जिनका कोई भी मनुष्य किसी की दैनिक गतिविधियों का बाह्य रूप से विश्लेषण करके उनके विषय में बता सकता है । अर्थात मैं बाहर से देखने के बाद बता सकता हूँ कि शारीरिक रूप से आप कितने बलशाली है, बुध, शुक्र और चंद्रमा की तरह इस पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है कि आपके शरीर या मस्तिष्क के अंदर क्या हो रहा है ।

तो बाहरी ग्रह वे गुण दिखाते हैं जो बाहर से दिखाई देते हैं । अगला ग्रह बृहस्पति है, जो आपके ज्ञान और सिखाने की क्षमता दिखाता है जिसे बाहर से तय किया जाता है । अंतिम बाहरी ग्रह शनि है, जो हमारे जीवन में प्रतिबंधों और समस्याओं को दिखाता है जिन्हें बाहर से देखा जा सकता है ।

अब इस बिंदु पर वापस आते हैं कि हमारे ब्रह्मांड का आकार, संरचना और संगठन समय के साथ-साथ बदलते रहते हैं । मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ । आपने क्षुद्रग्रह पट्टी के विषय में सुना है । क्षुद्रग्रह पट्टी सौर मंडल में स्थिति एक चक्राकार क्षेत्र है जो लगभग मंगल और बृहस्पति ग्रहों की कक्षाओं के बीच स्थित है । यह क्षेत्र क्षुद्रग्रहों या छोटे ग्रहों नामक कई अनियमित आकार वाले निकायों द्वारा भरा हुआ है। क्षुद्रग्रह पट्टी का आधा द्रव्यमान चार सबसे बड़े क्षुद्रग्रहों सेरेस, वेस्ता, पल्लस, और हाइजी में निहित है । असल में ये क्षुद्रग्रह एक आद्य ग्रह के अवशेष हैं जो बहुत पहले एक बड़े टकराव में नष्ट हो गया था; प्रचलित विचार यह है कि क्षुद्रग्रह बचे हुए चट्टानी पदार्थ हैं जो किसी ग्रह में सफलतापूर्वक सहवास नहीं करते हैं ।

© आशीष कुमार 

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हिन्दी साहित्य- संस्मरण ☆ संस्मरणात्मक आलेख – पूरा हिन्दुस्तान जगमगाया ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

डॉ कुंवर प्रेमिल

(डॉ कुंवर प्रेमिल जी  जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम नागरिकों ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक कई महामारियों से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है। आज प्रस्तुत है उनका संस्मरणात्मक आलेख  “पूरा हिन्दुस्तान जगमगाया ” जिसमें  उनके व्यक्तिगत विचार उनकी मनोभावनाओं के रूप में प्रदर्शित हो रहे हैं। यह आलेख समस्त देशवासियों की किसी भी आपदा के विरुद्ध  राष्ट्रीय एकता एवं  उनकी मनोभावनाओं को प्रकट करता है जो प्रधानमन्त्री जी के आह्वान पर एकजुट होकर खड़े हो गए थे। )

☆ संस्मरणात्मक आलेख  – पूरा हिन्दुस्तान जगमगाया   ☆  

श्रीराम जी जब लंका दहन कर लौटे तब पूरा अयोध्या जगमग जगमग कर रहा था. दीपोत्सव था वह. अयोध्या के अस्तित्व का सवाल था वह.

अभी अभी पांच अपरैल को पूरा हिन्दुस्तान जगमग जगमग हुआ था. महादीपोत्सव था यह. हमारे देश के अस्तित्व का सवाल था यह भी.

कोरोना अपने दहशत के भयंकर दाईने डैने फैलाकर  हमें डरा रहा था. विदेशों में इटली, जापान, अमेरिका, के इरादों को कुचलता हुआ आगे बढकर वह भारत में  भी  अपने भयंकर डैने फैलाना चाहता था.

कोरोना भूल गया था कि यहाँ सवा करोड़  जनता का राज है. ऐसॆ मौकों पर एकजुट होना इसकी आदत में शुमार है. अजीब दृश्य था. शहर-गावं सब मिलकर  दिये जला रहे थे. इन सांकेतिक दियों के पीछे देशवासी  कितना सुरक्षित महसूस कर रहे थे. यह जानने-समझने कि बात है. जैसे ये दिए, दिए न  होकर रक्षा करने वाले सिपाही हों, उन्हीं सिपाहियों के सम्मान में जो चौबीसों घंटे मानवता के लिए सतत सेवाएँ दे रहे हैं.

देशवासियों ने अपने अति उल्हास में फटाके भी फोड़े. दियों ने जनमानस को विश्ववास दिलाकर कहा – हमारा प्रकाश पुंज है न आप के साथ.

टीवी में से झांककर एक  अनुकरणीय चेहरा बार-बार भरोसा दे रहा था कि हम हैं न  आपके साथ. कही वह चेहरा हमारे दादा परदादा का तो नहीं जो प्रधानमंत्री का चेहरा लेकर आ खड़ा हुआ है. ये चेहरा अपने परिवार के मुखिया का सा क्यों लग रहा है भला?

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 42 ☆ सत्य और कानून ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का सत्य के धरातल पर लिखा गया  महत्वपूर्ण आलेख नारी आंदोलन पर आपके व्यक्तिगत विचारों से परिपूर्ण एक दस्तावेज है। नारी शक्ति विमर्श की प्रणेता डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 42 ☆

☆ सत्य और कानून 

‘फैसला जो भी सुनाया जाएगा / मुझको ही मुजरिम बताया जाएगा/ आजकल सच बोलता फिरता है वह/ देखना सूली पर चढ़ाया जाएगा’ अर्चना ठाकुर जी की यह पंक्तियां हांट करती हैं और वर्तमान परिस्थितियों पर बखूबी प्रहार करती हैं। यह शाश्वत सत्य है कि हर अपराध के लिए दोषी औरत को  ठहराया जाता है; भले वह अपराध उसने किया ही न हो। इतना ही नहीं, उसे तो अपना पक्ष रखने का अधिकार भी प्रदान नहीं किया जाता। सतयुग में अहिल्या त्रेता में सीता, द्वापर में द्रौपदी और कलयुग में निर्भया जैसी हज़ारों महिलाएं आपके समक्ष हैं। निर्भया के दुष्कर्मी, जिनहें सात वर्ष गुज़र जाने और बार-बार फांसी व डैथ-वारंट जारी होने का फरमॉन सुना देने के पश्चात् भी, बचाव के अवसर प्रदान किए जा रहे हैं, मनोमस्तिष्क  को आहत करते हैं और कानून-व्यवस्था की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं और सोचने को विवश करते हैं कि अपराधियों को बार-बार क्यूरेटिव-याचिका या गत वर्षों की मार-पीट के केस दर्ज  करवाने की अनुमति क्यों?

वैसे तो कहा जाता है ‘इग्नोरेंस ऑफ ला इज़ नो ऑफेंस’ अर्थात् कानून की अनभिज्ञता व अज्ञानता बेमानी है, अपराधी के बचने का विकल्प अथवा साधन नहीं है। क्या यह कानून सामान्यजनों के लिए है, दुष्कर्मियों व अपराधियों के लिए कारग़र नहीं;  शायद मानवाधिकार आयोग भी जघन्य अपराधियों की सुरक्षा के लिए बने हैं; उनके हितों की रक्षा करना उनका प्रथम व प्रमुख दायित्व है। जी हां! यही सब तो हो रहा है हमारे देश में। एक प्रश्न मन को बार-बार कचोटता है कि यदि बीजिंग में तीस मिनट में दुष्कर्मी को तलाश कर, जनता के हवाले करने के पश्चात् फांसी पर लटकाया जा सकता है, फिर हमारे देश में यह सब संभव क्यों नहीं है?

वास्तव में हमारा कानून अंधा और बहरा है। यहां निर्दोष व औरत को अपना पक्ष रखने व न्याय पाने का अधिकार कहां है? प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है? आपके समक्ष है… निर्भया व उन्नाव की पीड़िता व दुष्कर्म का शिकार होती महिलाओं के साथ होते संगीन अपराधों के रूप में… दुष्कर्म के पश्चात् उन्हें तेज़ाब डालकर ज़िंदा जला डालने, ईंटों से प्रहार कर सबूत मिटाने व शव को गंदे नाले में फेंक बहा देने के हादसे। सो! मस्तिष्क में यह प्रश्न बार-बार उठता है कि किस कसूर की सज़ा दी जाती है उन मासूम बालिकाओं-युवतियों; उनके माता-पिता व परिवारजनों को… जो वर्षों तक कचहरी में ज़लील होने के पश्चात् मन मसोस कर निराश लौट आते हैं, क्योंकि वहां अपराधियों को नहीं; शिकायत-कर्त्ताओं को कटघरे में खड़ा किया जाता है… हर बार नयी कहानी गढ़ी जाती है तथा अपराधियों को बचाव का हर अवसर प्रदान किया जाता है। क्यों..क्यों..आखिर  क्यों? ऐसे संगीन अपराधियों व दुष्कर्मियों को छोड़ दिया जाता है ज़मानत पर…शायद एक नया ज़ुर्म करने को… एक नया अपराध करने को… उदाहरण आपके समक्ष हैं; उन्नाव की पीड़िता का, जहां ऐसे अपराधी उसके प्रियजनों पर दबाव डालते हैं या उन्हें किसी हादसे में मार गिराते हैं अथवा पुन:उस पीड़िता को सामूहिक दुष्कर्म का शिकार बनाते हैं।

सो! अर्चना जी की यह पंक्तियां सत्य व सार्थक प्रतीत होती हैं। अपराधिनी तो हर स्थिति में महिला को ही ठहराया जाता है, क्योंकि वह हर जुल्म सहती है… ‘सहना और कुछ न कहना’ औरत की नियति है, जिसे वह युग-युगांतर से सहन करती आ रही है। हमारे शास्त्रों में संविधान रचयिता भी तो पुरुष ही थे। सो! सभी कायदे-कानून उनके पक्ष में बनाए गए हैं और औरत को सदा कटघरे में खड़ा कर, दोषारोपण नहीं किया गया, उसे प्रताड़ित व तिरस्कृत किया गया है। मुझे 2007 में स्व-प्रकाशित काव्य-संग्रह अस्मिता की ‘संस्कृति की धरोहर’ की पंक्तियां– ‘अधिकार हैं/ पुरुष के लिए/ नारी के लिए मात्र कर्त्तव्य/ इसमें आश्चर्य क्या है/ यह तो है युगों युगो की परंपरा/ संस्कृति की धरोहर।’ सतयुग में अहिल्या को शाप दिया गया था। अहिल्या कविता में ‘दोष पुरुष का/ सज़ा स्त्री को/ यही नियति है/ तुम्हारी युगों-युगों से।’ गांधारी कविता की– ‘गांधारी है/ आज की हर स्त्री/ खिलौना है पति के हाथों का/ कठपुतली है/ जो नाचती है इशारों पर/ घोंटती है गला/ अपनी इच्छाओं का/उसकी खुशी के लिए/ सामंजस्यता के लिए/ करती है होम/आकांक्षाओं का/ समरसता के लिए/ देती है बलि सपनों की/ करती है नष्ट अपना वजूद/ सब की इच्छाओं के प्रति सदैव समर्पित/—-और यदि ऐसा ना करे/ तो राह देख रहा होता है/ कोई तंदूर/ बिजली का नंगा तार/ मिट्टी के तेल का डिब्बा/ पंखे से झूलती रस्सी/ मन में भावनाओं ने/ अंगड़ाई ली नहीं/ तैयार हैं/ बंदूक की गोलियां/ या तेज़ाब की बोतल/ तेज़ाब… परिणाम उसके सपनों का/ जीवन के रूप में खौफ़नाक/ ऐसे ही भय या विवशता से/ मूंद लेती है/ वह निज आंखें/ और बन जाती है/गांधारी।’

शायद उपरोक्त पंक्तियां समर्थन करती हैं कि मुज़रिम सदैव औरत ही होती है। मुझे याद आ रही हैं, इसी पुस्तक की यशोधरा की ये पंक्तियां–’शायद भगवान भी क्रूर है/ कानून की तरह/ जो अंधा है, बहरा है/ जो जानता है/ केवल कष्ट देना/ ज़ुल्म करना/ उसके शब्दकोश में/ समस्या शब्द तो है/ परंतु निदान नहीं।’ रावण कविता की ये पंक्तियां आज भी समसामयिक हैं, सार्थक हैं। ‘सीता/ सुरक्षित थी/ राक्षसों की नगरी में/ उनके मध्य भी/ नारी सुरक्षित नहीं/ आज परिजनों के मध्य भी/ परिजन/ जिनके हृदय में बैठा है शैतान/ वे हैं नर पिशाच।’ क्या यह सत्य नहीं कि कानून और सृष्टि-नियंता ने भी दुष्टों के सम्मुख घुटने टेक दिए हैं।

औरत को हर पल अग्नि-परीक्षा से गुज़रना पड़ता है और सज़ा सदैव औरत को ही दी जाती है… दोषी भी वही ठहराई जाती है– ‘है यहां अंधा कानून/ चाहता है ग़वाह/ चश्मदीद ग़वाह/ जो बयां कर सके आंखों-देखी/ वह ग़वाह तो/-अस्मत लूटने वाला/

दरिंदा है/ जो कटघरे में खड़ा है/ कह रहा है निर्दोष स्वयं को/ और लगा रहा है तोहमत/ उस मासूम पर/ जिसकी अस्मत का/ सौदा हो रहा है/ कटघरे से बाहर/ कानून की/ बंद आंखों की/ पहुंच से परे/और परिणाम/ सब ग़वाहों और बयानों को/ मद्देनज़र रखते हुए/ अपराधी को बेग़ुनाह/ साबित करते हुए/ बा-इज़्ज़त/ बरी किया जाता है/ हंस रही है/ व्यंग्य से / वह फर्श पर/ टूटी हुई चूड़ियां/ यह अनकही /दास्तान हैं/ दर्द का बयान हैं।’

‘सच बोलता फिरता है वह/ देखना सूली पर चढ़ाया जाएगा’ कोटिश: सत्य कथन है। अनेक प्रश्न उठते हैं मन में– ‘कानून!/ रक्षक समाज का/ मनुष्य-मात्र का/ कर लेता नेत्र बंद/ बलात्कार का इल्ज़ाम/ सिद्ध होने पर/ क्यों नहीं चढ़ा दिया जाता/ उसे फांसी पर/ या बना दिया जाता है/ नपुंसक/ एहसास दिलाने को/ वह घिनौना कृत्य/ जिसे अंजाम दे/ कर दिया नष्ट/ जीवन उस मासूम का/ नोच डाला/ अधखिली कली को/ और  छीन लिया/ उसका बचपन।’

सत्य भले ही लंबे समय के पश्चात् उजागर होता है, परंतु उससे पहले ही आजकल उसे सूली पर चढ़ा दिया जाता है। यही है आज के युग का सत्य… झूठ उजागर होना चाहता है, क्योंकि अपराधियों को किसी का भय नहीं,  जिसका प्रमाण है—देश में बढ़ती दुष्कर्म की घटनाएं, मानव अंगों की तस्करी के लिए अपहरण की घटनाएं, सरे-आम भीड़ में तलवार लहराते और हवा में गोलियां चलाते दहशतगर्दों के  बुलंद हौसले, जिन्हें देखकर हर इंसान भयभीत व  आक्रोशित है, क्योंकि वह स्वयं को असुरक्षित  अनुभव करता है। काश! हमारे संविधान में संशोधन हो पाता; कानून की लचर धाराओं को बदला जाता और अपराधियों के लिए कड़ी से कड़ी सज़ा का प्रावधान होता। ‘जैसा जुर्म, वैसी सज़ा दी जाती, तो दरिंदों के हौसले पस्त रहते और वे उसे अंजाम देने से पहले लाख बार विचार करते। परंतु जब तक हमारा ज़मीर नहीं जागेगा, सब ऐसे ही चलता रहेगा। इसके लिए औरत को इंसान समझने की दरक़ार है। जब तक उसे दलित, दोयम दर्जे की प्राणी व उपभोग की वस्तु-मात्र समझा जाएगा, तब तक यह भीषण हादसे घटित होते रहेंगे…देह-व्यापार पर अंकुश नहीं लग पायेगा…दुष्कर्म होते रहेंगे और हर अपराध के लिए औरत को ही मुज़रिम करार किया जायेगा। लोग मुखौटा धारण कर, औरत की अस्मत से खिलवाड़ करते रहेंगे और वह महफ़िलों की शोभा बन उन्हें रोशन करती रहेगी। आवश्यकता है– सामंजस्य की, जिसका सिंचन संस्कारों द्वारा ही संभव है। हमें जन्म से ही लड़के-लड़की को समान समझ उन्हें संस्कारित करना होगा… मर्यादा व संयम का पाठ पढ़ाना होगा। बेटियों को आत्मरक्षा हित जूडो-कराटे सिखाना होगा; आत्मनिर्भर बनाना होगा, ताकि उसे कभी भी दूसरों के सामने हाथ न पसारने पड़ें। इतना ही नहीं, हमें उन्हें यह एहसास दिलाना होगा कि विवाहोपरांत भी इस घर के द्वार उसके लिए खुले हैं। वह उस घर का हिस्सा थीं और सदैव रहेंगी।

वैसे तो दुष्कर्म के हादसों के संदर्भ में चश्मदीद गवाह की मांग करना हास्यास्पद है। इस स्थिति में साक्ष्यों के आधार पर तुरंत निर्णय लेना ही कारग़र है ताकि अपराधियों को सबूत मिटाने, परिवारजनों को धमकी देने व उस दुष्कर्म-पीड़िता को ज़िंदा जलाने जैसे अपराधों की पुनरावृत्ति न हो। आज कल के युवा बहुत सचेत व इस तथ्य से अवगत हैं कि ‘एक व दस अपराधों की सज़ा समान होती है।’ सो! वे दुष्कर्म के करने के पश्चात् पीड़िता की हत्या कर निश्चिंत हो जाते है, क्योंकि ‘न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी’ अर्थात्  पीड़िता के ज़िंदा न बचने पर, उन्हें साक्ष्य जुटाने में वर्षों गुज़र जायेंगे।

आधुनिक युग में हर इंसान बिकता है। हमारे नुमाइंदे भी सत्ता का दुरुपयोग कर आरोपियों को संरक्षण प्रदान कर, अपनी पीठ थपथपाते हैं और पीड़िता के परिजन दहशत के साये में जीने को विवश होते हैं। अक्सर तो वे मौन धारण कर लेते हैं, क्योंकि उनके कारनामों की रिपोर्ट दर्ज कराना तो उनसे पंगा लेने के समान है–’आ! बैल, मुझे मार’ की स्थिति को आमंत्रण देने, मुसीबतों व दुश्वारियों को आमंत्रण देने जैसा है।

आश्चर्य होता है, अपने देश की कानून-व्यवस्था को देख कर–यदि वे शिकायत दर्ज कराने कि साहस जुटाते हैं, तो कोई साक्ष्यकर्त्ता ग़वाही देने की जुर्रत नहीं करता क्योंकि कोई भी अपनी हंसती-खेलती गृहस्थी की खुशियों में सेंध नहीं लगाना चाहता। ‘भय बिनु होत न प्रीति’ बहुत सार्थक उक्ति है। सो! हमें कानून को सख्त बनाना होगा, ताकि समाज में अव्यवस्था व जंगल-राज न फैले। वास्तव में त्वरित न्याय-व्यवस्था वह रामबाण औषधि है, जो कोढ़ जैसी इस लाइलाज बीमारी पर भी विजय प्राप्त कर सकती है।

आइए! गूंगी-बहरी व्यवस्था को बदल डालें। लोगों में आधी आबादी में विश्वास जाग्रत करें ताकि उनमें सुरक्षा का भाव जाग्रत हो व भ्रूण-हत्या जैसे अपराध समाज में न हों और लिंगानुपात बना रहे। समन्वय, सामंजस्य व समरसता हमारी संस्कृति की अवधारणा है, जो समाज में सत्यम् शिवम् व सुंदरम् की स्थापना करती है। सज़ा अपराधी को ही मिले और सत्यवादी को न्याय प्राप्त हो…उसे सूली पर न चढ़ाया जाए…यही अपेक्षा है कानून-व्यवस्था से। सत्य का पक्षधर को सदैव यथासमय, शीघ्र न्याय प्राप्त होना चाहिए। सो! समाज में राग-द्वेष, स्व-पर आदि का स्थान न हो और संसार का हर बाशिंदा स्नेह, प्रेम, सौहार्द, करुणा, त्याग आदि की भावनाओं से आप्लावित हो, सकारात्मक सोच का धनी हो। ‘जो हुआ,अच्छा हुआ/ जो होगा,अच्छा होगा…यह नियम सच्चा है।’ सो! जो अच्छा व शुभ नहीं, त्याज्य है; उसका विरोध करना अपेक्षित है। द्वंद्व संघर्ष का परिणाम है और संघर्ष ही जीवन है। जब तक मानव में सत्य को स्वीकारने का साहस नहीं होगा, ज़ुल्म होते ही रहेंगे। सो! धैर्य वह संजीवनी है, जो वर्तमान व भविष्य को सुखद बनाने में समर्थ है…आनंद-प्रदाता है। आइए! विश्व-कल्याण हेतु इस यज्ञ में समिधा डालें ताकि वायु प्रदूषण ही नहीं; मानसिक व सांस्कृतिक प्रदूषण का अस्तित्व भी न रहे और प्राणी-मात्र सुक़ून की सांस ले सके।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 42 ☆ मेरी रचना प्रक्रिया☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक आलेख  “ मेरी  रचना प्रक्रिया।  श्री विवेक जी ने  इस आलेख में अपनी रचना प्रक्रिया पर विस्तृत विमर्श किया है। आपकी रचना प्रक्रिया वास्तव में व्यावहारिक एवं अनुकरणीय है जो  एक सफल लेखक के लिए वर्तमान समय के मांग के अनुरूप भी है।  उनका यह लेख शिक्षाप्रद ही नहीं अपितु अनुकरणीय भी है। उन्हें इस  अतिसुन्दर आलेख के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 42 ☆ 

मेरी रचना प्रक्रिया

मूलतः व्यंग्य, लेख, विज्ञान, बाल नाटक,विज्ञान कथा, कविता आदि मेरी अभिव्यक्ति की विधायें हैं.

मेरे प्रिय व्यंग्य, रामभरोसे, कौआ कान ले गया, धन्नो बसंती और बसंत, खटर पटर, मिलीभगत, आदि मेरे लोकप्रिय व्यंग्य संग्रह हैं. जल जंगल और जमीन बाल विज्ञान की पुस्तक है जो प्रदेश स्तर पर प्राथमिक शालाओ में खूब खरीदी व सराही गई, हिंदोस्तां हमारा, जादू शिक्षा का, नाटक की पुस्तकें हैं.आक्रोश १९९२ में विमोचित पहला कविता संग्रह है.

मैं रचना को मन में परिपक्व होने देता हूं, सामान्यतः अकेले घूमते हुये, अधनींद में, सुबह बिस्तर पर, वैचारिक स्तर पर सारी रचना का ताना बाना बन जाता है फिर जब मूड बनता है तो सीधे कम्प्यूटर पर लिख डालता हूं. मेरा मानना है कि किसी भी विधा का अंतिम ध्येय उसकी उपयोगिता होनी चाहिये. समाज की कुरीतियो, विसंगतियो पर प्रहार करने तथा पाठको का ज्ञान वर्धन व उन्हें सोचने के लिये ही वैचारिक सामग्री देना मेरी रचनाओ का लक्ष्य होता है.

मेरी रचना का विस्तार कई बार अमिधा में सीधे सीधे जानकारी देकर होता है, तो कई बार प्रतीक रूप से पात्रो का चयन करता हूं. कुछ बाल नाटको में मैने नदी,पहाड़,वृक्षो को बोलता हुआ भी रचा है. अभिव्यक्ति की विधा तथा विषय के अनुरूप इस तरह का चयन आवश्यक होता है, जब जड़ पात्रो को चेतन स्वरूप में वर्णित करना पड़ता है.  रचना की संप्रेषणीयता संवाद शैली से बेहतर बन जाती है इसलिये यह प्रक्रिया भी अनेक बार अपनानी पड़ती है.

कोई भी रचना जितनी छोटी हो उतनी बेहतर होती है,न्यूनतम शब्दों में अधिकतम वैचारिक विस्तार दे सकना रचना की सफलता माना जा सकता है.  विषय का परिचय, विस्तार और उपसंहार ऐसा किया जाना चाहिये कि प्रवाहमान भाषा में सरल शब्दो में पाठक उसे समझ सकें.नन्हें पायको के लिये लघु रचना, किशोर और युवा पाठको के लिये किंचित विस्तार पूर्वक तथ्यात्मक तर्को के माध्यम से रचना जरूरी होती है. मैं बाल कथा ५०० शब्दों तक समेट लेता हूं, वही आम पाठको के लिये विस्तार से २५०० शब्दों में भी लिखता हूं. अनेक बार संपादक की मांग के अनुरूप भी रचना का विस्तार जरूरी होता है. व्यंग्य की शब्द सीमा १००० से १५००शब्द पर्याप्त लगती है. कई बार तो पाठको की या संपादक की मांग पर वांछित विषय पर लिखना पड़ा है. जब स्वतंत्र रूप से लिखा है तो मैंने पाया है कि अनेक बार अखबार की खबरों को पढ़ते हुये या रेडियो सुनते हुये कथानक का मूल विचार मन में कौंधता है.

मेरी अधिकांश रचनाओ के शीर्षक रचना पूरी हो जाने के बाद ही चुने गये हैं. एक ही रचना के कई शीर्षक अच्छे लगते हैं. कभी  रचना के ही किसी वाक्य के हिस्से को शीर्षक बना देता हूं. शीर्षक ऐसा होना जरूरी लगता है जिसमें रचना की पूरी ध्वनि आती हो.

मैंने  नाटक संवाद शैली में ही लिखे हैं. विज्ञान कथायें वर्णनात्मक शैली की हैं. व्यंग्य की कुछ रचनायें मिश्रित तरीके से अभिव्यक्त हुई हैं. व्यंग्य रचनायें प्रतीको और संकेतो की मांग करती हैं. मैं सरलतम भाषा, छोटे वाक्य विन्यास, का प्रयोग करता हूं. उद्देश्य यह होता है कि बात पाठक तक आसानी से पहुंच सके. जिस विषय पर लिखने का मेरा मन बनता है, उसे मन में वैचारिक स्तर पर खूब गूंथता हूं, यह भी पूर्वानुमान लगाता हूं कि वह रचना कितनी पसंद की जावेगी.

मेरी रचनायें कविता या कहानी भी नितांत कपोल कल्पना नही होती.मेरा मानना है कि कल्पना की कोई प्रासंगिकता वर्तमान के संदर्भ में अवश्य ही होनी चाहिये. मेरी अनेक रचनाओ में धार्मिक पौराणिक प्रसंगो का चित्रण मैंने वर्तमान संदर्भो में किया है.

मेरी पहचान एक व्यंग्यकार के रूप में शायद ज्यादा बन चुकी है. इसका कारण यह भी है कि सामाजिक राजनैतिक विसंगतियो पर प्रतिक्रिया स्वरूप समसामयिक व्यंग्य  लिख कर मुझे अच्छा लगता है, जो फटाफट प्रकाशित भी होते हैं.नियमित पठन पाठन करता हूं, हर सप्ताह किसी पढ़ी गई किताब की परिचयात्मक संक्षिप्त समीक्षा भी करता हूं. नाटक के लिये मुझे साहित्य अकादमी से पुरस्कार मिल चुका है. बाल नाटको की पुस्तके आ गई हैं. इस सबके साथ ही बाल विज्ञान कथायें लिखी हैं . कविता तो एक प्रिय विधा है ही.

पुस्तक मेलो में शायद अधिकाधिक बिकने वाला साहित्य आज बाल साहित्य ही है. बच्चो में अच्छे संस्कार देना हर माता पिता की इच्छा होती है, जो भी माता पिता समर्थ होते हैं, वे सहज ही बाल साहित्य की किताबें बच्चो के लिये खरीद देते हैं. यह और बात है कि बच्चे अपने पाठ्यक्रम की पुस्तको में इतना अधिक व्यस्त हैं कि उन्हें इतर साहित्य के लिये समय ही नही मिल पा रहा.

आज अखबारो के साहित्य परिशिष्ट ही आम पाठक की साहित्य की भूख मिटा रहे हैं.पत्रिकाओ की प्रसार संख्या बहुत कम हुई है. वेब पोर्टल नई पीढ़ी को साहित्य सुलभ कर रहे हैं. किन्तु मोबाईल पर पढ़ना सीमित होता है, हार्ड कापी में किताब पढ़ने का आनन्द ही अलग होता है.  शासन को साहित्य की खरीदी करके पुस्तकालयो को समृद्ध करने की जरूरत है.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 23 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। डॉ भीमराव  आम्बेडकर जी के जन्म दिवस के अवसर पर  हम  आपसे इस माह महात्मा गाँधी जी एवं  डॉ भीमराव आंबेडकर जी पर  आधारित आलेख की श्रंखला प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का  प्रथम आलेख  “महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 23 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर  – 1

परतंत्र भारत में समाज सुधार के लिए स्वयं को समर्पित करने वाले महापुरुषों  में डाक्टर भीमराव आम्बेडकर और मोहनदास करमचंद गांधी का नाम अग्रिम पंक्ति में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। डाक्टर भीम राव आम्बेडकर को स्वतन्त्रता के पूर्व से ही दलित वर्ग के नेतृत्वकर्ता के रूप में पहचान मिली और वे वंचित शोषित समाज के प्रतिनिधि के रूप में पहले साइमन कमीशन के सामने मुंबई में  और फिर तीनों  गोलमेज कांफ्रेंस, लन्दन में न केवल सम्मिलित हुए वरन उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज में दलितों की समस्या पुरजोर ढंग से अंग्रेज सरकार के सामने रखी। इसके पूर्व भी डाक्टर आम्बेडकर विभिन्न मंचों पर दलित समुदाय की समस्याएं उठाते रहे और अस्पृश्यता के खिलाफ आन्दोलन व जनजागरण की मुहीम चलाते रहे। इस दिशा में महाड़ के चवदार तालाब में अपने अनुयायियों के साथ प्रवेश कर अंजुली भर जल पीने और नाशिक के कालाराम मंदिर तथा अन्य हिन्दू धार्मिक स्थलों  में दलितों के प्रवेश को लेकर किये गए आन्दोलनों, अछूतों के उपनयन संस्कार आदि के आयोजनों ने उन्हें पर्याप्त ख्याति दी।  दूसरी ओर गांधीजी ने भी दलित समाज की पीड़ा को समझा और उनको मुख्य धारा में शामिल करने, छुआछूत का भेद मिटाने, मंदिरों में प्रवेश, दलित वर्ग के शैक्षणिक, आर्थिक व सामाजिक विकास  आदि को लेकर सामाजिक आंदोलन किये, उन्हें ‘हरिजन’ नाम दिया और ‘हरिजन’ नाम से एक समाचार पत्र का सम्पादन भी किया। गांधीजी ने कांग्रेस के कार्यों के लिए लगभग एक  करोड़ रूपये का चन्दा सन 1921 में एकत्रित किया था, इसमें से बड़ी रकम उन्होंने अछूतपन मिटाने जैसे  रचनात्मक कार्यों के लिये आवंटित की थी। गांधीजी ने 1933 में भारत का व्यापक दौरा किया जिसे इतिहास में हरिजन दौरे का नाम मिला।  दोनों नेताओं के बीच दलितों के उत्थान को लेकर इस सामाजिक बुराई को लेकर गहरे मतभेद थे। आज भी यदा कदा इन मतभेदों को लेकर चर्चाएँ होती रहती हैं और दोनों को एक दूसरे के कट्टर विरोधी और कटु आलोचक के रूप में दिखाया जाता है। वस्तुतः ऐसा है नहीं। इन दोनों नेताओं के बीच दलित समाज के उत्थान को लेकर चिंता थी, दोनों इस सामाजिक बुराई को दूर करना चाहते थे लेकिन जहाँ एक ओर कानूनविद आम्बेडकर इस बुराई को दूर करने के लिए कठोर कारवाई और  क़ानून का सहारा लेना चाहते थे तो दूसरी ओर गांधीजी इसे सौम्यता के साथ सामाजिक बदलाव व ह्रदय परिवर्तन के माध्यम से दूर करना चाहते थे।

इन्दौर के निकट महू छावनी में  (जिसका नामकरण अब डाक्टर आम्बेडकर नगर हो गया है)  14 अप्रैल 1891 को जन्मे भीमराव आम्बेडकर, सेना में सूबेदार रामजी राव के चौदहवें पुत्र थे और वे महात्मा गांधी से लगभग बाईस वर्ष छोटे थे। उम्र के इतने अंतर के बाद भी गांधीजी डाक्टर आम्बेडकर से अपने मतभेदों के बावजूद  संवाद करते रहते थे। पंडित जवाहर लाल नेहरु ने डाक्टर आम्बेडकर को अपनी मंत्रीपरिषद में क़ानून मंत्री बनाया, संविधान सभा का सदस्य बनाया और उनकी इच्छा के अनुरूप दलितों को आरक्षण का संवैधानिक अधिकार दिलाया यह सब कुछ निश्चय ही महात्मा गांधी की प्रेरणा से ही संभव हुआ।

गांधीजी और डाक्टर आम्बेडकर के मध्य अस्पृश्यता को लेकर बड़े गहरे मतभेद थे। जहाँ गांधीजी वर्ण व्यवस्था को हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग मानते थे और उनके मतानुसार अस्पृश्यता वर्ण व्यवस्था की देन  न होकर ऊँच-नीच की भावना का परिणाम है जो हिन्दुओं में फैल गई है व समाज को खाए जा रही है। डाक्टर आम्बेडकर का मानना था कि  अस्पृश्यता मनुवादी वर्ण व्यवस्था के कारण है और जब तक वर्णाश्रम को ख़त्म नहीं किया जाता तब तक अन्त्ज्य रहेंगे और उनकी मुक्ति संभव नहीं है। जाति प्रथा को भी गांधीजी अनिवार्य मानते थे और इसे वे रोजगार से जोड़कर देखते थे। डाक्टर आम्बेडकर के विचारों में स्वराज से पहले अछूत समस्या का निदान जरूरी था और वे दलित वर्ग के लिए समता के अधिकारों की गारंटी स्वराज हासिल करने के पहले चाहते थे। उनकी मान्यता थी कि अगर अंग्रेजों के रहते अछूतों को उनके अधिकार नहीं मिले तो स्वराज प्राप्ति के बाद भारत की राजनीति में सवर्णों का एकाधिपत्य बना रहेगा और वे दलितों के साथ सदियों पुरानी परम्परा के अनुसार दुर्व्यवहार व भेदभाव करते रहेंगे। गांधीजी सोचते थे कि एक बार स्वराज मिल जाय तो फिर इस समस्या का निदान खोजा जाकर  अंत कर दिया जाएगा। गांधीजी ने दलितों को हिन्दू समाज में सम्मानजनक स्थान देने के लिए ‘हरिजन’ नाम दिया। डाक्टर आम्बेडकर और उनके अनुयायियों ने ‘हरिजन’ शब्द को कानूनी मान्यता देने संबंधी प्रस्ताव का डटकर विरोध किया। उनके मतानुसार यदि दलित ‘हरिजन’ यानी ईश्वर की संतान हैं तो क्या शेष लोग शैतान की संतान हैं?

गांधीजी और आम्बेडकर में मतभेद  अस्पृश्यता की उत्पत्ति को लेकर भी थे। गांधीजी का मानना था कि वेदों में चार वर्ण की तुलना शरीर के चार हिस्सों से की गई है। चूँकि चारों वर्ण शरीर का अंग हैं अत: उनमें ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं हो सकता। वे मानते थे कि पुर्नजन्म के सिद्धांत के अनुसार अच्छे कार्य करने से शूद्र भी अगले जन्म में ब्राह्मण वर्ण में पैदा हो सकता है। वे वर्ण व्यवस्था को सोपान क्रम जैसा नहीं मानते वरन उनके अनुसार अलग-अलग जातियों का होना हिन्दू धर्म में सामाजिक समन्वय व आर्थिक स्थिरता बनाए रखता है। हिन्दू समाज के एक समन्वित इकाई के रूप में कार्य करने का श्रेय वे वर्ण व्यवस्था को देते हैं। वे विभिन्न वर्णों व जातियों के मध्य विवाह व खान पान का निषेध नहीं करते हैं, लेकिन इस हेतु किसी भी जोर जबरदस्ती के वे खिलाफ हैं। गांधीजी के विपरीत आम्बेडकर ने वेदों में वर्णित वर्ण व्यवस्था की अलग ढंग से व्याख्या की। वे मानते हैं कि वर्ण व्यवस्था में विभिन्न वर्गों का शरीर के अंगों के समतुल्य मानना सोची समझी योजना है। मानव शरीर में पैर ही सबसे हेय अंग हैं और इसलिए शूद्र को सामाजिक व्यवस्था में सबसे निचली पायदान प्राप्त है। सामाजिक अपमान की यह धारणा उनके मतानुसार परतबद्ध असमानता के दम पर टिकी है। वे जाति प्रथा का कारण आर्थिक नहीं वरन एक ही जाति के भीतर विवाह की व्यवस्था को मानते हैं। उनके मतानुसार रोटी-बेटी का सम्बन्ध बनाए बिना जाति व्यवस्था ख़त्म नहीं होगी और जब तक जातियाँ अस्तित्व में अस्पृश्यता बनी रहेगी।

……….क्रमशः  – 2

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य- संस्मरण ☆ संस्मरणात्मक आलेख  – भाग रहा कोरोना ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

डॉ कुंवर प्रेमिल

(डॉ कुंवर प्रेमिल जी  जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम नागरिकों ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक कई महामारियों से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है। आज प्रस्तुत है  उनके संस्मरण पर आधारित रचना “भाग रहा कोरोना”. उनके दीर्घ जीवन के एक संस्मरण  की स्मृतियाँ जो हमें याद दिलाती है  कि हम जीवन में कैसे-कैसे अनुभवों से गुजरते हैं।)

☆ संस्मरणात्मक आलेख  – भाग रहा कोरोना ☆  

सत्तर के दशक में ओडीसा राज्य में सरवे हेतु गया था. वहां का घना जंगल देख कर भय लगता था, बड़े बड़े अजगर, शेर, भालू, कदम-कदम पर मिलते थे, जान जोखिम में रहती थी,

हम लोग दिन भर जंगलों में काम करते थे, थक हार कर कैंप में लौटते तो हाथी दल से सामना हो जाता,  गाँव वालों के साथ टीन टप्पर बजाकर हाथियों को भगाया जाता,  भागते हाथियों को देख कर तालियां बजाते,

वैसा का वैसा दृश्य बाइस मार्च को देखने मिला, पूरा शहर घंटा-घडियाल, शंख बजा रहा था ऐसा लगता था जैसे हम लोग कोरोना को भगा रहे थे, और कोरोना सिर पर पैर रख कर भाग रहा था,

भागते हाथियों का संस्मरण भागते कोरोना से जोड़ कर मैं आशान्वित हो रहा था. आप भी हों. आशा से आसमान जो टंगा है.

यह संस्मरण सांकेतिक है किन्तु, इस आशा के पीछे छुपा है स्वास्थ्य कर्मियों, पुलिस एवं प्रशासनिक कार्य में जुटे हुए उन लाखों भारतीय नागरिकों का सतत निःस्वार्थ भाव से किया जा रहा कार्य जो हमें इस अदृश्य शत्रु से लड़ने में सहयोग दे रहे हैं।  घंटे घड़ियाल, शंख, थाली और तालियों से उन सबको नमन।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बचपना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – बचपना  ☆

बच्चों को उठाने के लिए माँ-बाप अलार्म लगाकर सोते हैं। जल्दी उठकर बच्चों को उठाते हैं। किसी को स्कूल जाना है, किसी को कॉलेज, किसी को नौकरी पर। किसी दिन दो-चार मिनट पहले उठा दिया तो बच्चे चिड़चिड़ाते हैं।  माँ-बाप मुस्कराते हैं, बचपना है, धीरे-धीरे समझेंगे।…धीरे-धीरे बच्चे ऊँचे उठते जाते हैं और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।
सोचता हूँ कि माँ-बाप और परमात्मा में कितना साम्य है! जीवन में हर चुनौती से दो-दो हाथ करने के लिए जागृत और प्रवृत्त करता है ईश्वर। माँ-बाप की तरह हर बार जगाता, चाय पिलाता, नाश्ता कराता, टिफिन देता, चुनौती फ़तह कर लौटने की राह देखता है। हम फ़तह करते हैं चुनौतियाँ और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।
कब समझेंगे हम? अनादिकाल से चला आ रहा बचपना आख़िर कब समाप्त होगा?
घर पर रहें, स्वस्थ रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( प्रातः 6:52 बजे,28.8.19)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 37 – मस्तिष्क, शरीर और विज्ञान ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण आलेख  मस्तिष्क, शरीर और विज्ञान। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 37 ☆

☆ मस्तिष्क, शरीर और विज्ञान

 

जैसा कि मैंने आपको बताया था कि हमें वर्तमान और आने वाले जीवन में अपने अच्छे या बुरे कर्मों के फलो का सामना करना पड़ता है, ये कर्म गुप्त रूप से लिंग शरीर में 17 गुणों के रूप में सांकेतिक शब्दों में उपस्थित रहते हैं या आप कह सकते हैं कि यह निर्देशिका (index) के रूप में रहते हैं । लेकिन जैसा ही आत्मा लिंग शरीर के साथ नए शरीर में प्रवेश करती है, जल्द ही यह निर्देशिका संकेत-वर्गीकरण (index coding) से विस्तृत रूप में खुल जाता है और उचित चक्र स्थानों पर प्रक्षेपित हो जाता है और चक्रों के कंपन की आवृत्तियों को प्रभावित करता है, और चक्रों के कंपन की आवृत्तियों का ये अंतर ही हमारे DNA में नाइट्रोजन और प्रोटीन संकेत-वर्गीकरण के रूप में मानचित्रित (map) हो जाता है । हाइड्रोजन बंधन DNA की दोहरी कुंडलिनी (double-helix) संरचना को एक साथ रखते हैं, जो जीवन के निर्माण खंडों के लिए मूल इकाई है । एक हाइड्रोजन परमाणु के साथ बातचीत का प्रत्यक्ष माप DNA और बहुलक जैसे त्रि-आयामी अणुओं की पहचान के लिए मार्ग प्रशस्त करता है । तो अब आप समझ सकते हैं कि कैसे हमारे सकल शरीर के DNA से सूक्ष्म शरीर के प्राणमय कोश के चक्रों के बीच सूचना का आदान प्रदान होता है । इसके अतरिक्त हमारा DNA पूरे ब्रह्मांड की जानकारी को संग्रहित कर सकता है ।

असल में मानव DNA एक जैविक रूप से जटिल अणु है । यह शरीर की सभी प्रमुख अंग प्रणालियों के बीच संचार का समन्वय करता है । एक पूरी तरह से नई दवा बनायीं गयी है जिसमें DNA के एकल जीन काटने और बदलने के बिना शब्दों और आवृत्तियों द्वारा प्रभावित और पुन: क्रमादेश किया जा सकता है । प्रोटीन के निर्माण के लिए हमारे DNA का 10% से कम उपयोग होता है । शेष 90% कबाड़ (Junk) DNA की तरह होता हैं । हमारा DNA न केवल हमारे शरीर के निर्माण के लिए ज़िम्मेदार है बल्कि सूचना संग्रहण (data storage) और संचार केंद्र के रूप में भी कार्य करता है । DNA मानव भाषा के निर्माण के लिए आवश्यक सभी जानकारी को भी संग्रहित करता है ।

जीवित गुणसूत्र (chromosome) एक त्रिविमीय (hologram) संगणक (computer) की तरह कार्य करते हैं । शरीर के साथ संवाद करने के लिए गुणसूत्र अंतर्जात (endogenous) DNA ऊर्जा का एक रूप उपयोग करते हैं ।

DNA क्षारीय जोड़े और भाषा की मूल संरचना का समान स्वरूप होता है, इसमें कोई DNA डिकोडिंग (छिपे को खोलना) आवश्यक नहीं होती है । अर्थ है कि हम शब्दों और ध्वनियों का उपयोग करके मानव शरीर में मौलिक परिवर्तन कर सकते हैं ।

मानव DNA निर्वात (vacuum) में विक्षुब्ध (disturbing) स्वरूप (pattern) का कारण बन सकता है, इस प्रकार चुंबकीय छिद्रों(wormholes) का उत्पादन होता है । ये ब्रह्मांड में पूरी तरह से अलग-अलग क्षेत्रों के बीच सुरंग से जुड़े होते हैं जिसके माध्यम से जानकारी अंतरिक्ष और समय के बाहर प्रसारित की जा सकती है । DNA सूचना के इन टुकड़ों(bits) को आकर्षित करता है और उन्हें हमारी चेतना पर भेजता है । दूर संवेदन संचार (telepathy channeling) की यह प्रक्रिया आराम की स्थिति में सबसे प्रभावी है । इस तरह के दूर संवेदन संचार को प्रेरणा या अंतर्ज्ञान के रूप में अनुभव किया जाता है। क्या आप जानते हैं कि DNA हटा दिए जाने के बाद अंतरिक्ष और समय के बाहर से ऊर्जा सक्रिय छिद्रों(wormholes) के माध्यम से बहती रहती है । ये विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र हैं ।

सभी विभीषण के शिक्षण से प्रसन्न थे ।

शाम को वे सभी मुंबई के पर्यटन स्थलों का दौरा करने गए ।

जून में वे कैलाश मानसरोवर गए । उन्होंने कैलाश मानसरोवर के रास्ते में सभी उप-मार्गों की खोज की थी, लेकिन उन्हें भगवान हनुमान का कोई संकेत नहीं मिला । तो वे बिना उम्मीद के ही मुंबई वापस आ गए ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 41 ☆ सन्दर्भ वर्तिका – साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक आलेख  “सन्दर्भ वर्तिका – साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका”।  श्री विवेक जी ने वर्तिका के सन्दर्भ में साहित्यिक विकास में संस्थाओं की भूमिका पर प्रकाश डाला है। अग्रज साहित्यकार स्व साज जबलपुरी जी से मेरे आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं और उनके साथ जबलपुर की संस्था साहित्य परिषद् में कार्य करने का अवसर भी प्राप्त हुआ।  स्व साज भाई द्वारा रोपित वर्तिका आज वटवृक्ष का रूप धारण कर लेगी इसकी उन्हें भी कल्पना नहीं होगी।  इसका सम्पूर्ण योगदान समर्पित कार्यकर्ता सदस्यों को जाता है। श्री विवेक रंजन जी  का यह प्रेरकआलेख निश्चित ही वर्तिका के सदस्यों के  हृदय में  उत्साह का संचार करेगा ऐसी भावना  है। उन्हें इस  अतिसुन्दर आलेख के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 41 ☆ 

☆ सन्दर्भ वर्तिका – साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका ☆

  वास्तव में साहित्य निरंतर साधना है. नियमित अभ्यास से ही लेखन में परिष्कार परिलक्षित होता है. रचनाकारों के लिये साहित्यिक संस्थायें स्कूल का कार्य करती हैं. अलग अलग परिवेश से आये समान वैचारिक पृष्ठभूमि के लेखक कवि मित्रो से मेल मुलाकात, पठन पाठन की सामग्री के आदान प्रदान, साहित्यिक यात्राओ में साथ की अनुभूतियां वर्तिका जैसी सक्रिय साहित्यिक संस्थाओ की सदस्यता से ही संभव हो पाती हैं.  एक दूसरे के लेखन से रचनाकार परस्पर प्रभावित होते हैं. नई रचनाओ का जन्म होता है. नये संबंध विकसते हैं. तार सप्तक से सामूहिक रचना संग्रह उपजते हैं. वरिष्ठ साहित्यकारो के सानिध्य से सहज ही रचनाओ के परिमार्जन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है. प्रकाशको, देश की अन्य संस्थाओ से परिचय के सूत्र सघन होते हैं. साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका निर्विवाद है.

जबलपुर की गिनी चुनी पंजीकृत साहित्यिक संस्थाओ में वर्तिका एक समर्पित साहित्यिक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था है जो नियमित आयोजनो से अपनी पहचान बनाये हुये है. प्रति माह के अंतिम रविवार को बिना नागा काव्य गोष्ठी का आयोजन वर्तिका करती आ रही है. यह क्रम बरसों से अनवरत जारी है. पाठकीय त्रासदी से निपटने के लिये वर्तिका ने अनोखा तरीका अपनाया है, जब सामान्य पाठक रचना तक सुगमता से नही पहुंच रहे तो वर्तिका ने हर माह कविता के फ्लैक्स तैयार करवाकर, उसे बड़े पोस्टर के रूप में शहर के मध्य शहीद स्मारक के प्रवेश के पास लगवाने का बीड़ा उठा रखा है. स्वाभाविक है सुबह शाम घूमने जाने वाले लोगों के लिये यह कविता का बैनर उन्हें मिनट  दो मिनट रुककर कविता पढ़ने के लिये मजबूर करता है. नीचे लिखे मोबाईल पर मिलते जन सामान्य के  फीड बैक से इस प्रयोग की सार्थकता सिद्ध होती दिखती है. समारोह पूर्वक इस काव्य पटल का विमोचन किया जाता है, जिसकी खबर शहर के अखबारो में सचित्र सिटी पेज का आकर्षण होती है. प्रश्न यह उठा कि इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम के लिये कविता का चयन कैसे किया जावे ? उत्तर भी हम मित्रो ने स्वयं ही ढ़ूंढ़ निकाला, जिस माह जिन कवियों का जन्मदिन होता है, उस माह उन एक या दो  कवि मित्रो  की कविताओ को पोस्टर में स्थान दिया जाता है.

सामान्यतः साहित्यिक आयोजनो के व्यय के लिये रचनाकार राज्याश्रयी रहा है. राज दरबारो के समय से वर्तमान सरकारो तक किंबहुना यही स्थिति दिखती है. किन्तु इस दिशा में लेकको में वैचारिक परिवर्तन करने में भी साहित्यिक संस्थाओ की भूमिका बड़ी सकारात्मक दिखती है. वर्तिका की हीबात करें तो मुझे स्मरण नही कि हम लोगो को कभी कोई सरकारी अनुदान मिला है. हर आयोजन के लिये हम लोकतांत्रिक, स्वैच्छिक तरीके से परस्पर चंदा करते हैं. इसी सामूहिक सहयोग से मासिक काव्य गोष्ठियां, वार्षिक सम्मान समारोह, साहित्यिक कार्यशालायें, वैचारिक गोष्ठियां,मासिक काव्य पटल,  साहित्यिक पिकनिक, सामाजिक दायित्वो के लिये वृद्धाश्रम, अनाथाश्रमो में योगदान, सांस्कृतिक गितिविधियां, सहयोगी प्रकाशन आदि आदि आयोजन वर्तिका के बैनर से होते आ रहे हैं. आयोजन के अनुरूप, पदाधिकारियो के कौशल व संबंधो से किंचित परिवर्तन धन संग्रह हेतु होता रहता है. उदाहरण के लिये सम्मान समारोह के लिये हम अपने संपर्को में परिचितो से आग्रह करते हैं कि वे अपने प्रियजनो की स्मृति में दान स्वरूप संस्था के नियमो के अनुरूप सम्मान प्रदान करें, और हमने देखा है कि बड़ी संख्या में हर वर्ष सम्मान प्रदाता सामने आते रहे हैं. वर्तिका ने कभी भी उस साहित्यकार से कभी कोई आर्थिक सहयोग नही लिया जिसे हम उसकी साहित्यिक उपलब्धियो के लिये सम्मानित करते हैं, यही कारण है कि वर्तिका के अलंकरण राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करते हैं. प्रकाशन हेतु मित्र संस्थानो से विज्ञापन के आधार पर आर्थिक सहयोग मिल जाता है, तो काव्य पटल के लिये जिसका जन्मदिन साहित्यिक स्वरूप से मनाया जाता है, वह प्रसन्नता पूर्वक सहयोग कर देता है, कुल मिलाकर बिना किसी बाहरी मदद के भी संस्था की गतिविधियां सफलता पूर्वक वर्ष भर चलती रहती हैं. और अखबारो में वर्तिका के आयोजन छाये रहते हैं. संरक्षक मनोनीत किये जाते हैं, जो खुशी खुशी संस्था को नियत राशि दान स्वरूप देते हैं, यह राशि संस्था के खाते में  बैंक में जमा रखी जाती है.

कोई भी साहित्यिक संस्था केवल संस्था के विधान से नही चलती. वास्तविक जरूरत होती है कि संस्था ऐसे कार्य करे जिनकी पहचान समाज में बन सके. इसके साथ साथ संस्था से जुड़े वरिष्ठ, व युवा साथियो को प्रत्येक के लिये सम्मानजनक तरीके से प्रस्फुटित होने के मौके संस्था के आयोजनो के माध्यम से मिल सकें. यह सब  तभी संभव है जब संस्था के पदाधिकारी  निर्धारित लक्ष्यो की पूर्ति हेतु, बिना वैमनस्य के, आत्म प्रवंचना को पीछे छोड़कर समवेत भाव से संस्था के लिये हिलमिलकर कार्य करें, प्रतिभावान होने के साथ ही  विनम्रता  और एकजुटता के साथ संस्था के लिये समर्पित होना भी संस्था चलाने के लिये सदस्यो में होना जरूरी होता हैं.

एक बात जो वर्तिका की सफलता में बहुत महत्वपूर्ण है, वह है हमारे पदाधिकारियों का समर्पण भाव. अपने व्यक्तिगत समय व साधन लगाकर अध्यक्ष, संयोजक, संरक्षक ही नही वर्तिका के सभी सामान्य सदस्य तक एक फोन पर जुट जाते हैं, एक दूसरे की व्यक्तिगत, पारिवारिक, साहित्यिक खुशियो में सहज भाव से शरीक होते हैं, सदैव सकारात्मक बने रहना सरल नही होता पर संस्था की यही विशेषता हमें अन्य संस्थाओ से भिन्न बनाती है. मैं जानबूझकर कोई नामोल्लेख नही कर रहा हूं, किन्तु हम सब जानते हैं कि संस्थापक सदस्यो से लेकर नये जुड़ते, जोड़े जा रहे सदस्य, पूर्व रह चुके अध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष व अन्य पदाधिकारी सब एक दूसरे का सम्मान रखते हैं, एक दूसरे को बताकर, पूछकर, सहमति भाव से निर्णय लेकर संस्थागत कार्य करते हैं, पारदर्शिता रखते हैं, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को संस्था से बड़ा नही बनने देते, ऐसी कार्यप्रणाली ही वर्तिका जैसी सक्रिय साहित्यिक संस्था की सफलता का मंत्र है.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 22 – महात्मा गांधी: आज़ादी और  भारत का विभाजन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी : आज़ादी और  भारत का विभाजन। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 22 – महात्मा गांधी : आज़ादी और  भारत का विभाजन

अंग्रेजों ने इस आन्दोलन को कुचलने में कोई कसर न छोड़ी और बड़ी दमनात्मक कार्यवाहियाँ आंदोलनकारियों के विरुद्ध की। गांधीजी ने अंग्रेजों की दमनात्मक कार्यवाहियों के खिलाफ 10 फरवरी 1943 को जेल में ही  21 दिन का  उपवास शुरू कर दिया। सारे विश्व में ब्रिटिश दमनकारी नीतियों की आलोचना होने लगी। अंततः 8 मई 1944 को गांधीजी रिहा हुये और सुप्त पड़ चुके आंदोलन में नई जान आ गई। गांधीजी की माँग पर अंग्रेजों ने कांग्रेस के सभी नेताओं को रिहा कर दिया और बातचीत तथा समझौते की कोशिशों के नए दौर चालू हुये। 25 जून 1945  में अंग्रेज सरकार ने भारत के सभी राजनैतिक दलों को शिमला वार्ता के लिए बुलाया। गांधीजी भी इसमे वाइसराय के विशेष आग्रह पर व्यक्तिगत हैसियत से शामिल हुये।  इसके बाद वार्ताओं के अनेक दौर हुये। वैवल योजना(1945) के तहत प्रस्ताव लाये गए, सत्ता के हस्तांतरण का फार्मूला लेकर केबिनेट मिशन (1946) आया। लेकिन ये सब प्रयास जिन्ना की जिद्द पर बलि चढ़ गए। जिन्ना मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की माँग पर अड़े थे तो गांधीजी और उनके अनेक सहयोगी देश का विभाजन नहीं चाहते थे। जिन्ना के दो राष्ट्र के सिद्धांत से असहमत गांधीजी ने काफी पहले से ही उनसे चर्चा कर समस्या का निदान खोजने के प्रयास किए। गांधीजी ने अनेक अवसरों पर जिन्ना व सरकार को स्पष्ट किया कि कांग्रेस केवल हिंदुओं की पार्टी नही है वह अपने सदस्यों का प्रतिनिधित्व करती है जिसमे मुसलमान भी शामिल है।

लार्ड माउंटबैटन 21 फरवरी 1947 को भारत के वाइसराय बने। उन्होने देश की आज़ादी का खाका तैयार करने के उद्देश्य से 1 अप्रैल 1947 से चार प्रमुख भारतीय नेताओं से अलग अलग मिलना प्रारंभ किया। ये नेता थे गांधीजी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल और मोहम्मद अली जिन्ना। लार्ड माउंटबैटन जानते थे कि गांधीजी बटवारे के सख्त विरोधी हैं तो जिन्ना बटवारे से कम कुछ नही चाहते।  अत: उन्होने अपनी योजना कुछ इस प्रकार बनाई की गांधीजी को बातचीत के माध्यम से बटवारे के लिए तैयार किया जा सके। गांधीजी ने लार्ड माउंटबैटन से होने वाली बैठक के एक दिन पहले ही कहा था कि भारत का बटवारा मेरी लाश पर ही होगा अपने जीते जी मैं कभी भारत के बटवारे के लिए तैयार नहीं हो सकता। लार्ड माउंटबैटन ने जब उनसे विभाजन को टालने के लिए और विकल्प पूंछे तो उनका जबाब था कि एक बच्चे के दो टुकड़े करने के बजाय उसे मुसलमानों को दे दो। वह इसके लिए भी तैयार थे कि जिन्ना जो हिस्सा माँगते थे उसके बदले उन्हे पूरा हिन्दुस्तान ही दे दिया जाय, जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग को सरकार बनाने को कहा जाय। गांधीजी को विश्वास था कि कांग्रेस भी देश का बटवारा नहीं चाहती है और वह उसे रोकने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाएगी। जब लार्ड माउंटबैटन ने गांधीजी से जानना चाहा कि इस बात पर जिन्ना का रवैया क्या होगा तो गांधीजी ने हँसते हुये कहा ‘अगर आप उनसे कहेंगे कि यह सुझाव मेरा है तो उनका जबाब होगा: धूर्त गांधी’।

लेकिन गांधीजी के तमाम प्रयासों से कोई बात नही बनी।  जिन्ना अपने दो राष्ट्र के सिद्धांत से पीछे हटने को तैयार न थे तो दूसरी तरफ कांग्रेस भी दो धड़ों में बटती जा रही थी, एक धडा विभाजन को अपरिहार्य मानने लगा था । ऐसी परिस्थितियों के बीच 3 जून 1947 को लॉर्ड माउंटबैटन ने ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर भारत विभाजन की घोषणा कर दी। इस विभाजन प्रस्ताव पर  चर्चा के लिए 14 व 15 जून को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की एक विशेष बैठक दिल्ली में बुलाई गई। इस बैठक में प्रस्तावित बटवारे के खिलाफ कई आवाजें उठीं। सिंध के लोग भी बटवारे के विरोध में थे। पुरुषोत्तम दास टंडन, जय प्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अब्दुल गफ्फार खान  और गांधीजी आदि ने विभाजन के खिलाफ भाषण दिये। राम मनोहर लोहिया ने तो इस बैठक में विभाजन का सारा ठीकरा पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल व मौलाना आज़ाद पर फोड़ दिया।

यह मानते हुये कि विभाजन तो अब होगा ही कांग्रेस व मुस्लिम लीग ने आगे की तैयारियाँ शुरू कर दी। सत्ता हस्तांतरण की तारीख पहले जून 1947 तय की गई जिसे बदलकर अक्तूबर 1947 किया गया और अंतत: 15 अगस्त 1947 का दिन भारत की आज़ादी के लिए निर्धारित किया गया। इसके एक दिन पहले 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान ने भारत से अलग होकर एक नए राष्ट्र का रूप धारण किया। भारत की आज़ादी का दिन 15 अगस्त 1947  लार्ड माउंटबैटन ने शायद जापान के आत्म समर्पण की दूसरी वर्षगांठ से अपने व्यक्तिगत जुड़ाव के कारण तय किया क्योंकि दो वर्ष पहले ही  इसी  दिन जब वे दो 10 डाउनिंग स्ट्रीट में ब्रिटिश प्रधानमंत्री के साथ बैठे थे तब जापान के आत्म समर्पण की खबर आई थी।

देश की आज़ादी अपने साथ हिंदु मुस्लिम दंगों की एक नई खेप भी साथ लाई। 1947 के प्रारंभ में ही नोआखली में भीषण सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। दंगों की यह आग बंगाल के गांवों और बिहार तक फैल गयी। कहीं हिन्दू  मारे जाते तो बदले में वे मुसलमानों को मारते। दंगो की विभीषिका के बीच गांधीजी ने श्रीरामपुर में डेरा डाल दिया और नोआखली  के गावों में प्रायश्चित यात्रा शुरू करने का निर्णय लिया।  और अगले सात सप्ताहों में वे 116 मील पैदल चलकर 47 गांवों में गए, रात वहीं रुके, जो कुछ ग्रामीणों ने खाने को दिया प्रेम से खाया और सांप्रदायिक सौहाद्र की स्थापना कर हज़ारों हिंदुओं और मुसलमानों को अकाल मृत्यु से बचाया। जब गांधीजी मुस्लिम बहुल गावों में जाते तो कई बार लोग विरोध में नारे लगाते दीवारों पर चेतावनी स्वरूप नारे लिख देते – ‘खबरदार आगे मत बढ़ना! ‘पाकिस्तान की बात माँग लो!’ या ‘अपनी खैर चाहते हो तो लौट जाओ!’ । पर गांधीजी पर इन धमकी भरी बातों का कोई असर न होता और आखिर में उनकी अहिंसा की जीत हुयी नोआखली में शांति स्थापित हुयी।

14 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि जब पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत की संविधान सभा में अपना प्रसिद्ध भाषण “Tryst with Destiny” दे रहे थे तब इस आज़ादी के आंदोलन का मसीहा उसका कर्ता धर्ता कलकत्ता में शांति स्थापित करने के लिए मुस्लिम बहुल मोहल्ले हैदर मैंशन में ठहरा हुआ था। विभाजन की पीड़ा से ग्रस्त गांधीजी,  दंगो के खतरों की आशंका से लोगो को मुक्ति दिलाने में लगे हुये थे। उनके प्रयासों से कलकत्ता और बंगाल के अन्य हिस्सों में शांति बनी रही, दंगे फसाद रुके रहे। लार्ड माउंटबैटन ने उन्हे दिल्ली से पत्र लिखा था: ‘पंजाब में हमारे पास 55,000 सिपाही हैं, फिर भी वहाँ दंगे हो रहे हैं। बंगाल में हमारे सेना दल में सिर्फ एक सिपाही है और वहाँ कोई दंगा नहीं हुआ।‘

(इस आलेख हेतु संदर्भ डोमनिक लापियर व लैरी कालिन्स की पुस्तक फ्रीडम एट मिड नाइट तथा जसवंत सिंह की पुस्तक जिन्ना भारत-विभाजन के आईने में से ली गई है। कुछ जानकारियाँ राकेश कुमार पालीवाल द्वारा रचित गांधी जीवन और विचार से भी ली गई हैं।)

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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