हिन्दी साहित्य – आलेख – * मीठे जल का झरना है लघुकथा * – श्री बलराम अग्रवाल जी से डॉ.भावना शुक्ल की वार्ता
मीठे जल का झरना है लघुकथा
(श्री बलराम अग्रवाल जी से डॉ.भावना शुक्ल की वार्ता के अंश)
वरिष्ठ साहित्यकार ,लघु कथा के क्षेत्र में नवीन आयाम स्थापित करने वाले, लघुकथा के अतिरिक्त कहानियां, बाल साहित्य, लेख, आलोचना तथा अनुवाद के क्षेत्र में अपनी कलम चलाने वाले, संपादन के क्षेत्र में सिद्धहस्त, जनगाथा, लघुकथा वार्ता ब्लॉग पत्रिका के माध्यम से संपादन करने वाले, अनेक सम्मानों से सम्मानित, बलराम अग्रवाल जी सौम्य और सहज व्यक्तित्व के धनी हैं. श्री बलराम जी से लघुकथा के सन्दर्भ में जानने की जिज्ञासा रही इसी सन्दर्भ में श्री बलराम अग्रवाल जी से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत के अंश ……
भावना शुक्ल : आपके मन में लघुकथा लिखने के अंकुर कैसे फूटे? क्या घर का वातावरण साहित्यिक था?
बलराम अग्रवाल : नही; घर का वातावरण साहित्यिक नहीं था, धार्मिक था। परिवार के पास सिर्फ मकान अपना था। उसके अलावा न अपनी कोई दुकान थी, न खेत, न चौपाया, न नौकरी। पूँजी भी नहीं थी। रोजाना कमाना और खाना। इस हालत ने गरीबी को जैसे स्थायी-भाव बना दिया था। उसके चलते घर में अखबार मँगाने को जरूरत की चीज नहीं, बड़े लोगों का शौक माना जाता था। नौवीं कक्षा में मेरे आने तक मिट्टी के तेल की डिबिया ही घर में उजाला करती रही। बिजली के बल्ब ने 1967 में हमारा घर देखा। ऐसा नहीं था कि अखबार पढ़ने की फुरसत किसी को न रही हो। सुबह-शाम दो-दो, तीन-तीन घंटे रामचरितमानस और गीता का पाठ करने का समय भी पिताजी निकाला ही करते थे। बाबा को आल्हा, स्वांग आदि की किताबें पढ़ने का शौक था। किस्सा तोता मैना, किस्सा सरवर नीर, किस्सा… किस्सा… लोकगाथाओं की कितनी ही किताबें उनके खजाने में थीं, जो 1965-66 में उनके निधन के बाद चोरी-चोरी मैंने ही पढ़ीं। पिताजी गीताप्रेस गोरखपुर से छ्पी किताबों को ही पढ़ने लायक मानते थे। छोटे चाचा जी पढ़ने के लिए पुरानी पत्रिकाएँ अपने किसी न किसी दोस्त के यहाँ से रद्दी के भाव तुलवा लाते थे। वे उन्हें पढ़ते भी थे और अच्छी रचनाओं/वाक्यों को अपनी डायरी में नोट भी करते थे। उनकी बदौलत ही मुझे साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, सरिता, मुक्ता, नवनीत, राष्ट्रधर्म, पांचजन्य जैसी स्तरीय पत्रिकाओं के बहुत-से अंकों को पढ़ने का सौभाग्य बचपन में मिला।
लघुकथा को अंकुरित करने का श्रेय 1972 के दौर में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिका ‘कात्यायनी’ को जाता है। उसमें छपी लघु आकारीय कथाओं को पढ़कर मैं पहली बार ‘लघुकथा’ शब्द से परिचित हुआ। उन लघु आकारीय कथाओं ने मुझमें रोमांच का संचार किया और यह विश्वास जगाया कि भविष्य में कहानी या कविता की बजाय मैं लघुकथा लेखन पर ही अपना ध्यान केन्द्रित कर सकता हूँ। ‘कात्यायनी’ के ही जून 1972 अंक में मेरी पहली लघुकथा ‘लौकी की बेल’ छपी।
भावना शुक्ल : लघुकथा लिखने का मानदंड क्या है?
बलराम अग्रवाल : अनेक विद्वानों ने लघुकथा लिखने के अनेक मानदंड स्थापित किये हैं। उदाहरण के लिए, कुछेक ने लघुकथा की शब्द-सीमा निर्धारित कर दी है तो कुछेक ने आकार सीमा। हमने मानदंड निर्धारित करने में विश्वास नहीं किया; बल्कि लघुकथा के नाम पर कुछ भी लिख डालने और कुछ भी छाप देने वालों के लिए कुछ अनुशासन सुझाने की जरूरत अवश्य महसूस की। ‘मानदंड’ शब्द से जिद की गंध आती है, तानाशाही रवैये का भास होता है; ‘अनुशासन’ समय के अनुरूप बदले जा सकते हैं। तात्पर्य यह है कि हमने अनुशासित रहते हुए, लघुकथा लेखन को कड़े शास्त्रीय नियमों से मुक्त रखने की पैरवी की है।
भावना शुक्ल : आपकी दृष्टि में लघुकथा की परिभाषा क्या होनी चाहिए ?
बलराम अग्रवाल : लघुकथा मानव-मूल्यों के संरक्षण, संवर्द्धन है, न ही गणित जैसा निर्धारित सूत्रपरक विषय है। इसका सम्बन्ध मनुष्य की सांवेदनिक स्थितियों से है, जो पल-पल बदलती रह सकती हैं, बदलती रहती हैं। किसी लघुकथा के रूप, स्वरूप, आकार, प्रकृति और प्रभाव के बारे में जो जो आकलन, जो निर्धारण होता है, जरूरी नहीं कि वही निर्धारण दूसरी लघुकथा पर भी ज्यों का त्यों खरा उतर जाए। इसलिए इसकी कोई एक सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, हो भी नहीं सकती। अपने समय के सरोकारों से जुड़े विषय और प्रस्तुति वैभिन्न्य ही लघुकथा के सौंदर्य और साहित्य में इसकी उपयोगिता को तय करते हैं। इसलिए जाहिर है कि परिभाषाएँ भी तदनुरूप बदल जाती हैं।
भावना शुक्ल : लघुकथा ‘गागर में सागर’ को चरितार्थ करती है; आपका दृष्टिकोण क्या है ?
बलराम अग्रवाल : भावना जी, ‘गागर में सागर’ जैसी बहुत-सी पूर्व-प्रचलित धारणाएँ और मुहावरे रोमांचित ही अधिक करते हैं; सोचने, तर्क करने का मौका वे नहीं देते। ‘गागर में सागर’ समा जाए यानी बहुत कम जगह में कथाकार बहुत बड़ी बात कह जाए, इस अच्छी कारीगरी के लिए उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए; लेकिन सागर के जल की उपयोगिता कितनी है, कभी सोचा है? लगभग शून्य। गागर में भरे सागर के जल से न किसी की प्यास बुझ सकती है, न घाव ही धुल सकता है और न अन्य कोई कार्य सध सकता है। ‘लघुकथा’ ठहरा हुआ खारा पानी तो कतई नहीं है। वह अक्षय स्रोत से निकला मीठे जल का झरना है; नदी के रूप में जिसका विस्तार सागर पर्यंत है। इसलिए समकालीन लघुकथा के संदर्भ में, ‘गागर में सागर’ के औचित्य पर, हमारे विद्वानों को पुनर्विचार करना चाहिए। छठी, सातवीं, आठवीं कक्षा के निबंधों में रटा दी गयी उपमाओं से मुक्त होकर हमें नयी उपमाएँ तलाश करनी चाहिए।
भावना शुक्ल : आपके दृष्टिकोण से लघुकथा और कहानी में आप किसे श्रेष्ठ मानते हैं; और क्यों?
बलराम अग्रवाल : ‘श्रेष्ठ’ मानने, ‘श्रेष्ठ’ बनाने और तय करने की स्पर्द्धा मनुष्य समाज की सबसे घटिया और घातक वृत्ति है। प्रकृति में अनगिनत किस्म के पेड़ झूमते हैं, अनेक किस्म के फूल खिलते हैं, अनेक किस्म के पंछी उड़ते-चहचहाते हैं। सबका अपना स्वतंत्र सौंदर्य है। वे जैसे भी हैं, स्वतंत्र हैं। सबके अपने-अपने रूप, रस, गंध हैं। सब के सब परस्पर श्रेष्ठ होने की स्पर्द्धा से सर्वथा मुक्त हैं। लघुकथा और कहानी भी कथा-साहित्य की दो स्वतंत्र विधाएँ हैं जिनका अपना-अपना स्वतंत्र सौंदर्य है, अपनी-अपनी स्वतंत्र श्रेष्ठता है। नवांकुरों की जिज्ञासाएँ अल्प शिक्षितों जैसी हो सकती हैं। इन्हें स्पर्द्धा में खड़ा करने की आदत से कम से कम प्रबुद्ध साहित्यिकों को तो अवश्य ही बाज आना चाहिए।
भावना शुक्ल : आप हिंदी में लघुकथा का प्रारंभ कब से मानते हैं और आपकी दृष्टि में पहला लघुकथाकार कौन हैं ?
बलराम अग्रवाल : हिंदी में लघुकथा लेखन कब से शुरू हुआ, यह अभी भी शोध का ही विषय अधिक है। मेरे पिछले लेखों और वक्तव्यों में, सन् 1876 से 1880 के बीच प्रकाशित पुस्तिका ‘परिहासिनी’ के लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम का उल्लेख पहले लघुकथाकार के तौर पर हुआ है। इधर, कुछ और भी रचनाएँ देखने में आयी हैं। मसलन, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में पहले हिंदी समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ से एक ऐसी कथा-रचना उद्धृत की है, जो अपने समय की अभिजात्य क्रूरता को पूरी शिद्दत से पेश करती है। यह रचना लघुकथा के प्रचलित मानदंडों पर लगभग खरी उतरती है। मैं समझता हूँ कि जब तक आगामी शोधों में स्थिति स्पष्ट न हो जाए, तब तक इस रचना को भी हिंदी लघुकथा की शुरुआती लघुकथाओं में गिनने की पैरवी की जा सकती है। ‘उदन्त मार्तण्ड’ की अधिकांश रचनाओं के स्वामी, संपादक और लेखक जुगुल किशोर शुक्ल जी ही थे—अगर यह सिद्ध हो जाता है तो, पहला हिन्दी लघुकथाकार भी उन्हें ही माना जा सकता है।
भावना शुक्ल : आप लघुकथा का क्या भविष्य देखते हैं?
बलराम अग्रवाल : किसी भी रचना-विधा का भविष्य उसके वर्तमान स्वरूप में निहित होता है। लघुकथा के वर्तमान सर्जक अपने समय की अच्छी-बुरी अनुभूतियों को शब्द देने के प्रति जितने सजग, साहसी, निष्कपट, निष्पक्ष, ईमानदार होंगे, उतना ही लघुकथा का भविष्य सुन्दर, सुरक्षित और समाजोपयोगी सिद्ध होगा।
भावना शुक्ल : लघुकथा के प्रारंभिक दौर के 5 और वर्तमान दौर के 5 उन लघुकथाकारों के नाम दीजिए जो आपकी पसंद के हो ?
बलराम अग्रवाल : यह एक मुश्किल सवाल है। सीधे तौर पर नामों को गिनाया जा सकना मुझ जैसे डरपोक के लिए सम्भव नहीं है। हिन्दी में प्रारम्भिक दौर की जो सक्षम लघुकथाएँ हैं, उनमें भारतेंदु की रचनाएँ चुटकुलों आदि के बीच से और प्रेमचंद तथा प्रसाद की रचनाएँ उनकी कहानियों के बीच से छाँट ली गयी हैं। 1916 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की ‘झलमला’ भी अपनी अन्त:प्रकृति में छोटे आकार की कहानी ही है। उसके लघु आकार से असन्तुष्ट होकर बाद में बख्शी जी ने उसे 4-5 पृष्ठों तक फैलाया और ‘झलमला’ नाम से ही कहानी संग्रह का प्रकाशन कराया। उसी दौर के कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर आदि जिन अन्य कथाकारों के लघुकथा संग्रह सामने आते हैं, उनमें स्वाधीनता प्राप्ति के लिए संघर्ष की आग ‘न’ के बराबर है, लगभग नहीं ही है। किसी रचना में कोई सन्दर्भ अगर है भी, तो वह संस्मराणात्मक रेखाचित्र जैसा है, जिसे ‘लघुकथा’ के नाम पर घसीटा भर जा रहा है। कम से कम मेरे लिए यह आश्चर्य का विषय रहा है कि स्वाधीनता संघर्ष के उन सघन दिनों में भी, जब पूरा देश ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ का नारा लगा रहा था, हमारे लघुकथाकारों ने जुझारुता और संघर्ष से भरी लघुकथाएँ क्यों नहीं दीं। वे ‘नैतिकता’, ‘बोध’ और ‘आत्म दर्शन’ ही क्यों बघारते-सिखाते रहे?… और मेरी समझ में इसके दो कारण आते हैं—पहला, सामान्य जीवन में गांधी जी की बुद्ध-आधारित अहिंसा का प्रभाव; और दूसरा, दार्शनिक भावभूमि पर खड़ी खलील जिब्रान की लघुकथाओं का प्रभाव।
लेकिन, ‘नैतिकता’, ‘बोध’ और ‘आत्म दर्शन’ के कथ्यों की अधिकता के बावजूद सामाजिकता के एक सिरे पर विष्णु प्रभाकर अपनी जगह बनाते हैं। वे परम्परागत और प्रगतिशील सोच को साथ लेकर चलते हैं। 1947-48 में लेखन में उतरे हरिशंकर परसाई अपने समकालीनों में सबसे अलग ठहरते हैं। उनमें संघर्ष के बीज भी नजर आते हैं और हथियार भी।
अपने समकालीन लघुकथाकारों के बारे में, मेरा मानना है कि हमारी पीढ़ी के कुछ गम्भीर कथाकारों ने लघुकथा को एक सार्थक साहित्यिक दिशा देने की ईमानदार कोशिश की है। लेकिन, उन्होंने अभी कच्चा फर्श ही तैयार किया है, टाइल्स बिछाकर इसे खूबसूरती और मजबूती देने के लिए आगामी पीढ़ी को सामने आना है। लघुकथा में, हमारी पीढ़ी के अनेक लोग गुणात्मक लेखन की बजाय संख्यात्मक लेखन पर जोर देते रहे हैं। लघुकथा संग्रहों और संपादित संकलनों/पत्रिकाओं का, समझ लीजिए कि भूसे का, ढेर लगाते रहे हैं। वे सोच ही नहीं पाये कि भूसे के ढेर से सुई तलाश करने का शौकीन पाठक गुलशन नन्दा और वेद प्रकाश काम्बोज को पढ़ता है। साहित्य के पाठक को सुई के लिए भूसे का ढेर नहीं, सुई का ही पैकेट चाहिए। भूसे का ढेर पाठक को परोसने की लेखकीय वृत्ति ने लघुकथा की विधापरक स्वीकार्यता को ठेस पहुँचायी है, उसे दशकों पीछे ठेला है। जिस कच्चे फर्श को तैयार करने की बात मैं पहले कह चुका हूँ, उसमें अपेक्षा से अधिक समय लगा है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बाजारवादी सोच में फँसे नयी पीढ़ी के भी अनेक लेखक ‘संख्यात्मक’ वृद्धि के उनके फार्मूले का अनुसरण कर विधा का अहित कर रहे हैं। मेरी दृष्टि में… और शायद अनेक प्रबुद्धों की दृष्टि में भी, वास्तविकता यह है कि लघुकथा का विधिवत् अवतरण इन हवाबाजों की वजह से अभी भी प्रतिक्षित है।
भावना शुक्ल : खलील जिब्रान के व्यक्तित्व से आप काफी प्रभावित हैं, क्यों ?
बलराम अग्रवाल : खलील जिब्रान को जब पहली बार पढ़ा, तो लगा—यह आदमी उपदेश नहीं दे रहा, चिंगारी लगा रहा है, मशाल तैयार कर रहा है। कहानियों के अलावा, उन्होंने अधिकतर कथात्मक गद्य कविताएँ लिखी हैं जो हिन्दी में अनुवाद के बाद गद्यकथा बनकर सामने आई हैं, लेकिन उनमें भाषा प्रवाह और सम्प्रेषण काव्य का ही है। खलील जिब्रान के कथ्य, शिल्प और शैली सब की सब प्रभावित करती हैं। उनके कथ्यों में मौलिकता, प्रगतिशीलता और मुक्ति की आकांक्षा है। वे मनुष्य की उन वृत्तियों पर चोट करते हैं जो उसे ‘दास’ और ‘निरीह’ बनाये रखने के लिए जिम्मेदार हैं। वे सामन्ती और पूँजीवादी मानसिकता को ही बेनकाब नहीं करते, बौद्धिकता और दार्शनिकता के मुखौटों को भी नोंचते हैं। उनकी खूबी यह है कि वे ‘विचार’ को दार्शनिक मुद्रा में शुष्क ढंग से पेश करने की बजाय, संवाद के रूप में कथात्मक सौंदर्य प्रदान करने की पहल करते हैं, शुष्कता को रसदार बनाते हैं। उदाहरण के लिए, उनकी यह रचना देखिए—
वह मुझसे बोले–“किसी गुलाम को सोते देखो, तो जगाओ मत। हो सकता है कि वह आजादी का सपना देख रहा हो।”
“अगर किसी गुलाम को सोते देखो, तो उसे जगाओ और आजादी के बारे में उसे बताओ।” मैंने कहा।
भावना शुक्ल : आपने फिल्म में भी संवाद लिखे हैं। ‘कोख’ फिल्म के बाद किसी और फिल्म में भी संवाद लिखे हैं ?
बलराम अग्रवाल : वह मित्रता का आग्रह था। स्वयं उस ओर जाने की कभी कोशिश नहीं की।
भावना शुक्ल : आज के नवयुवा लघुकथाकारों को कोई सुझाव दीजिये जिससे उनका लेखन और पुष्ट हो सके ?
बलराम अग्रवाल : सबसे पहले तो यह कि वे अपने लेखन की विधा और दिशा निश्चित करें। दूसरे, सम्बन्धित विषय का पहले अध्ययन करें, उस पर मनन करे; जो भी लिखना है, उसके बाद लिखें।
भावना शुक्ला : चलते-चलते, एक लघुकथा की ख्वाहिश पूरी कीजिये जिससे आपकी बेहतरीन लघुकथा से हम सब लाभान्वित हो सकें ………
बलराम अग्रवाल : लघुकथा में अपनी बात को मैं प्रतीक, बिम्ब और कभी-कभी रूपक का प्रयोग करते हुए कहने का पक्षधर हूँ। ऐसी ही लघुकथाओं में से एक… ‘समन्दर:एक प्रेमकथा’ यहाँ पेश है :
समन्दर:एक प्रेमकथा
“उधर से तेरे दादा निकलते थे और इधर से मैं…”
दादी ने सुनाना शुरू किया। किशोर पौत्री आँखें फाड़कर उनकी ओर देखती रही—एकदम निश्चल; गोया कहानी सुनने की बजाय कोई फिल्म देख रही हो।
“लम्बे कदम बढ़ाते, करीब-करीब भागते-से, हम एक-दूसरे की ओर बढ़ते… बड़ा रोमांच होता था।”
यों कहकर एक पल को वह चुप हो गयीं और आँखें बंद करके बैठ गयीं।
बच्ची ने पूछा—“फिर?”
“फिर क्या! बीच में समन्दर होता था—गहरा और काला…!”
“समन्दर!”
“हाँ… दिल ठाठें मारता था न, उसी को कह रही हूँ।”
“दिल था, तो गहरा और काला क्यों?”
“चोर रहता था न दिल में… घरवालों से छिपकर निकलते थे!”
“ओ…ऽ… आप भी?”
“…और तेरे दादा भी।”
“फिर?”
“फिर, इधर से मैं समन्दर को पीना शुरू करती थी, उधर से तेरे दादा…! सारा समन्दर सोख जाते थे हम और एक जगह जा मिलते थे।”
“सारा समन्दर!! कैसे?”
“कैसे क्या…ऽ… जवान थे भई, एक क्या सात समंदर पी सकते थे!”
“मतलब क्या हुआ इसका?”
“हर बात मैं ही बतलाऊँ! तुम भी तो दिमाग के घोड़ों को दौड़ाओ कुछ।” दादी ने हल्की-सी चपत उसके सिर पर लगाई और हँस दी।
© डॉ.भावना शुक्ल
wz 21 हरी सिंह पार्क, मुल्तान नगर, 110056 मो 9278720311, ईमेल [email protected]
सम्पर्क : श्री बलराम अग्रवाल, एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32 / मो 8826499115
हिन्दी साहित्य – आलेख – * परिवर्तनकामी थे: हरिशंकर परसाई * –श्रीमती सुसंस्कृति परिहार
श्रीमती सुसंस्कृति परिहार
हिन्दी आलेख – परिवर्तनकामी थे: हरिशंकर परसाई
हिन्दी साहित्य- आलेख – * डॉ अ. कीर्तिवर्धन का काव्य संसार * – श्री अभिषेक वर्धन
डॉ अ. कीर्तिवर्धन का काव्य संसार – दो काव्य संग्रह लोकार्पित
विद्यालक्ष्मी चैरिटेबल ट्रस्ट तथा एच डी चैरिटेबल सोसायटी के संयुक्त तत्वावधान में एस डी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, मुजफ्फरनगर के सभागार में विगत 22 दिसंबर 2018 को आयोजित अविस्मरणीय समारोह में डॉ अ कीर्तिवर्धन की दो पुस्तकों “मानवता की ओर” तथा “द वर्ल्ड ऑफ पोइट्री” (The World of Poetry) का लोकार्पण किया गया। कार्यक्रम का शुभारंभ डॉ कीर्ति वर्धन जी द्वारा हाइकु शैली में लिखी तथा भारती विश्वनाथन जी द्वारा स्वरबद्ध की गयी सरस्वती वंदना से किया गया।
पुस्तक के विषय में अपनी बात रखते हुये कीर्तिवर्धन जी ने समाज में घटते संस्कारों व सामाजिक मूल्यों के प्रति चिन्ता जाहिर की और बताया कि उनकी कविता भूतकाल से सीखकर वर्तमान के धरातल पर खड़ी होकर भविष्य की चुनौतियों के लिये समाज को तैयार करने का प्रयास है। मानवीय दृष्टिकोण तथा मानवता भारतीय जीवन शैली है, उसके बिना विश्व कल्याण सम्भव नही है। अपनी चार पंक्तियों के माध्यम से उन्होने कहा –
टूटकर भी किसी के काम आ जाऊँगा,
मैं पत्ता हूँ, गल गया तो खाद बन जाऊँगा।
हो सका तो मुझको जलाना ईंधन के वास्ते,
किसी के काम आ सकूँ, खुशी से जल जाऊँगा।
डॉ अ कीर्तिवर्धन की चुनिंदा कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद ‘द वर्ल्ड ऑफ पोइट्री’ के अनुवादक डॉ राम शर्मा (विभागाध्यक्ष अंग्रेजी जे वी कॉलेज बडौत) के अनुसार कीर्ति जी की कविताएँ सरल, सहज व मानवीय संवेदनाओं से पूर्ण हैं। आज कीर्ति जी की अंग्रेजी में अनुदित कविताएँ विश्व पटल पर पढी और सराही जाती हैं। श्री रोहित कौशिक जी के अनुसार डॉ कीर्ति वर्धन जी की कविताओं में समाज बदलने की ताकत है। वह आदमी को इन्सान बनने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने आशा जताई कि कीर्ति जी समाज को कुछ और भी बेहतर देने में सक्षम होंगे। श्री राजेश्वर त्यागी जी, मेरठ के अनुसार ‘मानवता की ओर’ मानवीय संवेदनाओं का जीवन्त दस्तावेज है। पुस्तक की अनेक रचनाओं का उल्लेख करते हुये उन्होने कहा कि अपने 52 वर्ष के लेखनकाल में उन्होने मानवीय संवेदनाओं की ऐसी सृजना नही की।
संस्कृत के प्रख्यात विद्वान डॉ उमाकांत शुक्ल जी ने कीर्तिजी की सहृदयता तथा मानवीय दृष्टिकोण को रेखांकित करते हुये उनकी पूर्व पुस्तकों मुझे इन्सान बना दो, सुबह सवेरे, सच्चाई का परिचय पत्र में भी उनके मानवतावादी दृष्टिकोण की चर्चा की और आशीर्वाद देते हुये कहा कि कीर्तिवर्धन जी अपनी रचनाओं से समाज में मानवता का परचम फहराते रहेंगे और बच्चों में संस्कारों का रोपण करने में संलग्न रहेंगे। प्रसिद्ध शिक्षाविद डॉ एस एन चौहान के अनुसार कीर्तिवर्धन जी अच्छे साहित्यकार के साथ बेहतरीन इंसान भी हैं। उनकी कविताएं इंसानी मूल्यों के प्रति संवेदना, प्रेरणा व स्फूर्ति पैदा करने वाली हैं। उनके अनुसार “मानवता की ओर” एक ऐसी कृति है जो आज के आपाधापी के युग में कल्याण का पथ प्रशस्त कर सकेंगी। कीर्तिजी की बुजुर्गों पर केन्द्रित पुस्तक “जतन से ओढी चदरिया” को सराहते हुए उन्होने कहा कि यदि इसको पढा और समझा जाये तो समाज में वृद्धाश्रम की समस्या समाप्त हो जायेगी। डॉ चौहान ने कीर्तिवर्धन जी की रचनाओं के कन्नड, तमिल, मैथिली, नेपाली, अंगिका, तमिल व उर्दू अनुवादों की भी चर्चा की।
साभार श्री अभिषेक वर्धन, मुजफ्फरनगर
हिन्दी साहित्य- आलेख – * आत्मनिर्भरता के लिए सेल्फी * – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव “विनम्र”
आत्मनिर्भरता के लिए सेल्फी
“स्वाबलंब की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष ” राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त की ये पंक्तियां सेल्फी फोटो कला के लिये प्रेरणा हैं. ये और बात है कि कुछ दिल जले कहते हैं कि सेल्फी आत्म मुग्धता को प्रतिबिंबित करती हैं. ऐसे लोग यह भी कहते हैं कि सेल्फी मनुष्य के वर्तमान व्यस्त एकाकीपन को दर्शाती है. जिन्हें सेल्फी लेनी नही आती ऐसी प्रौढ़ पीढ़ी सेल्फी को आत्म प्रवंचना का प्रतीक बताकर अंगूर खट्टे हैं वाली कहानी को ही चरितार्थ करते दीखते हैं.
अपने एलबम को पलटता हूं तो नंगधुड़ंग नन्हें बचपन की उन श्वेत श्याम फोटो पर दृष्टि पड़ती हैं जिन्हें मेरी माँ या पिताजी ने आगफा कैमरे की सेल्युलर रील घुमा घुमा कर खींचा रहा होगा. अपनी यादो में खिंचवाई गई पहली तस्वीर में मैं गोल मटोल सा हूँ, और शहर के स्टूडियो के मालिक और प्रोफेशनल फोटोग्राफर कम शूट डायरेक्टर लड़के ने घर पर आकर, चादर का बैकग्राउंड बनवाकर सैट तैयार करवाया था, हमारी फेमली फोटोग्राफ के साथ ही मेरी कुछ सोलो फोटो भी खिंची थीं. मुझे हिदायत दी थी कि मैं कैमरे के लैंस में देखूं, वहाँ से चिड़िया निकलने वाली है. घर के कम्पाउंड में वह जगह चुनी गई थी जिससे सूरज की रोशनी मुझ पर पड़े और पिताजी के इकलौते बेटे का बढ़िया सा फोटो बन सके. फोटो अच्छा ही है, क्योकि वह फ्रेम करवाया गया और बड़े सालों तक हमारे ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाता रहा.अब वह फोटो मेरी पत्नी और बच्चो के लिये आर्काईव महत्व का बन चुका है.
यादो के एलबम को और पलटें तो स्कूल , कालेज के वे ग्रुप फोटो मिलते हैं जिन्हें हार्ड दफ्ती पर माउंट करके नीचे नाम लिखे होते थे कि बायें से दायें कौन कहां खड़ा है. मॉनिटर होने के नाते मैं मास्साब के बाजू में सामने की पंक्ति पर ही सेंटर फारवार्ड पोजीशन पर मौजूद जरूर हूं पर यदि नाम न लिखा हो तो शायद खुद को भी आज पहचानना कठिन हो. वैसे सच तो यह है कि मरते दम तक हम खुद को कहाँ पहचान पाते हैं, प्याज के छिलको या कहें गिरगिटान की तरह हर मौके पर अलग रंग रूप के साथ हम खुद को बदलते रहते हैं. आफिस के खुर्राट अधिकारी भी बीबी और बास के सामने दुम दबाते नजर आते हैं. शादी में जयमाला की रस्मो के सूत्रधार फोटोग्राफर ही होते हैं वे चाहें तो गले में पड़ी हुई माला उतरवा कर फिर से डलवा दें. शादी का हार गले में क्या पड़ता है, पत्नी जीवन भर शीशे में उतारकर फोटू खींचती रहती है ये और बात है कि वे फोटू दिखती नही जीवन शैली में ढ़ल जाती हैं.
कालेज के दिन वे दिन होते हैं जब आसमान भी लिमिट नही होता. अपने कालेज के दिनो में हम स्टडी ट्रिप पर दक्षिण भारत गये थे. ऊटी के बाटनिकल गार्डेन के सामने खिंचवाई गई उस फोटो का जिक्र जरूरी लगता है जिसे निगेटिव प्लेट पर काले कपड़े से ढ़ांक कर बड़े से ट्रिपाईड पर लगे कैमरे के सामने लगे ढ़क्ककन को हटाकर खींचा गया था, और फिर केमिकल ट्रे में धोकर कोई घंटे भर में तैयार कर हमें सुलभ करवा दिया गया था. कालेज के दिनो में हम फोटो ग्राफी क्लब के मेंम्बर रहे हैं. डार्क रूम में लाल लाइट के जीरो वाट बल्ब की रोशनी में हमने सिल्वर नाइत्रेट के सोल्यूशन में सधे हाथो से सैल्युलर फिल्में धोई और याशिका कैमरे में डाली हैं. आज भी वे निगेटिव हमारे पास सुरक्षित हैं, पर शायद ही उनसे अब फोटो बनवाने की दूकाने हों.
डिजिटल टेक्नीक की क्रांति नई सदी में आई. पिछली सदी के अंत में तस्करी से आये जापानी आटोमेटिक टाइमर कैमरे को सामने सैट करके रख कर मिनिट भर के निश्चित समय के भीतर कैमरे के सम्मुख पोज बनाकर सेल्फी हमने खींची है, पर तब उस फोटो को सेल्फी कहने का प्रचलन नहीं था. सेल्फी शब्द की उत्पत्ति मोबाइल में कैमरो के कारण हुई. यूं तो मोबाईल बाते करने के लिये होता है पर इंटनेट, रिकार्डिग सुविधा, और बढ़िया कैमरे के चलते अब हर हाथ में मोबाईल, कम्प्यूटर से कहीं बढ़कर बन चुके हैं. जब हाथ में मोबाईल हो, फोटोग्राफिक सिचुएशन हो, सिचुएसन न भी हो तो खुद अपना चेहरा किसे बुरा दिखता है. ग्रुप फोटो में भी लोग अपना ही चेहरा ज्यादा देखते हैं . हर्रा लगे न फिटकरी रंग चोखा आये की शैली में सेल्फी खींचो और डाल दो इंस्टाग्राम या फेसबुक पर लाईक ही लाईक बटोर लो. अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ साधन हैं सेल्फी. मेरे फेसबुक डाटा बताते हैं कि मेरी नजर में मेरे अच्छे से अच्छे व्यंग को भी उतने लाइक नही मिलते जितने मेरी खराब से खराब प्रोफाइल पिक को लोड करते ही मिल जाते हैं. शायद पढ़ने का समय नही लगाना पड़ता, नजर मारो और लाइक करो इसलिये . शायद इस भावना से भी कि सामने वाला भी लाइक रेसीप्रोकेट करेगा. यूं लड़कियो को यह प्रकृति प्रदत्त सुविधा है कि वे किसी को लाइक करें न करें उनकी फोटो हर कोई लाइक करता है.
सेल्फी से ही रायल जमाने के तैल चित्र बनवाने के मजे लेने हो तो अब आपको घंटो एक ही पोज पर चित्रकार के सामने स्थिर मुद्रा में बैठने की कतई जरूरत नहीं है. प्रिज्मा जैसे साफ्टवेयर मोबाईल पर उपलब्ध हैं, सेल्फी लोड करिये और अपना राजसी तैल चित्र बना लीजीये वह भी अलग अलग स्टाइल में मिनटो में.
जब सस्ती सरल सुलभ सेल्फी टेक्नीक हर हाथ में हो तो उसके व्यवसायिक उपयोग केसे न हों. कुछ इनोवेटिव एम बी ए पढ़े प्रोडक्ट मेनेजर्स ने उनके उत्पाद के साथ सेल्फी लोड करने पर पुरस्कार योजनायें भी बना डालीं . कोई कचरे के साथ सेल्फी से हिट है तो कोई देश के विकास में योगदान दे रहा है योगासन की सेल्फी से, तो अपनी ढ़ेर सी शुभकामनायें सभी सेल्फ़ीबाजो को. सैल्फी युग में सब कुछ हो, भगवान से यही दुआ है कि हम सैल्फिश होने से बचें और खतरनाक सेल्फी लेते हुये किसी पहाड़ की चोटी, बहुमंजिला इमारत, चलती ट्रेन, या बाइक पर स्टंट की सेल्फी लेते किसी की जान न जावें.
© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८
हिन्दी साहित्य – आलेख – * पैसा कमाने के चक्कर में निजी अस्पतालों ने दिया सिजेरियन डिलीवरी को बढ़ावा * – सुश्री ऋतु गुप्ता
सुश्री ऋतु गुप्ता
पैसा कमाने के चक्कर में निजी अस्पतालों ने दिया सिजेरियन डिलीवरी को बढ़ावा
(सुश्री ऋतु गुप्ता जी का एक सार्थक, सामयिक एवं सटीक लेख। सुश्री ऋतु जी ने एक अत्यंत ज्वलंत समस्या पर अपने विचार रखे हैं । इस विषय पर हमारे साथ ही चिकित्सा जगत से जुड़े लोगों को मानवीय दृष्टिकोण से विचार करने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त मैं यह भी कहना चाहूँगा कि अभी भी कुछ सम्माननीय चिकित्सक हैं, जो बिना हिम्मत हारे अथक प्रयास करते हैं ताकि सर्जरी की आवश्यकता न पड़े। हम उनका सादर सम्मान करते हैं।)
जब मैनें 20 जनवरी रविवारीय दैनिक ट्रिब्यून में एक न्यूज का हैडलाइन पढ़ा कि मोटी कमाई के लिए सिजेरियन डिलीवरी को बढ़ावा दे रहे हैं निजी अस्पताल, मेरे अपने साथ बीती एक-एक घटना मेरी आँखों के सामने तैर गई।आज क्या आज से दस साल पहले भी तो यही तो होता था। तब भी तो सिजेरियन डिलीवरी के नये -नये बहाने खोज लिए जाते थे और बेचारे घरवाले डॉक्टर्स के सामने कुछ बोल नहीं पाते और मजबूरन हाँ भर देते।
मुझे पूरा टाईम हो चुका था डिलीवरी कभी भी हो सकती थी। एक दिन जब मेरी तबीयत थोड़ा बिगड़ी तो मैं अपने डॉक्टर के पास गई उसने कहा कि तुरंत एडमिट करना पड़ेगा बच्चे ने अंदर ही पॉटी कर ली है।मुझे आर्टिफिशियल दर्द चालू किये गये लेकिन असफल रहे। इंजेक्शन व दवाओं के जरिये कोशिश की जाती रही लेकिन दर्द रूक रहे थे। मैं जब तक होश में थी मुझे याद है कई डाक्टर व स्टाफ के लोग खड़े थे।मेरे कानों में यह शब्द साफ पड़ रहे थे कि बच्चे का सिर नीचे फंस चुका है,ऑपरेशन भी नहीं कर सकते फोरसेप्स डिलीवरी करनी पड़ेगी वो भी जल्दी क्योंकि बच्चे की हार्ट बीट कम होती जा रही हैं।उसके बाद पता नहीं मुझे होश नहीं रहा मालूम नहीं जान बूझ कर बेहोश किया गया था या फिर दवाओं की ओवरडोज से ऐसा हुआ था। मेरे शरीर का ज्यादातर ब्लड बह चुका था शायद गलत कट लग गया था। मुझे 24घंटों के बाद होश आया। बेटे को 5 दिन तक नर्सरी में डाल दिया गया।बहुत कोशिशों के बाद ही मेरी तबीयत में कुछ सुधार आना शुरू हुआ।बाद में उन डॉक्टर्स में से हमारे जान पहचान के एक ने बताया कि केस बिगड़ चुका था. दूसरे अस्पताल में शिफ्ट करने की पूरी योजना बना ली थी अगर कुछ झण और देरी होती तो। बाद में पता चला इतने नामी नर्सिंगहोम में भी ज्यादातर डिलीवरी सिजेरियन के चक्कर में ऐसे ही करते हैं। एक बार तो दिल किया कि केस कर दें डॉक्टर पर लेकिन सबूत क्या था कि मुझे यह समस्या नहीं थी। सिजेरियन डिलवरी तो नहीं हो पाई मेरी पर फोरसेप्स डिलीवरी व नाजुक हालत की वजह से कई दिन वहाँ रख पूरा पैसा वसूल लिया।
पिछले एक दशक में एनएचएफएस के अनुसार सिजेरियन डिलीवरी की प्रतिशत दुगुनी हो गई है जो 2005 में 8.5% थी वह 2016 तक 17.2% पहुंच गई। निजी अस्पतालों में 40% व सरकारी अस्पतालों में 16.44% डिलीवरी सीजेरियन होती हैं। डॉक्टर्स के अनुसार वे बहुत जरूरत पड़ने पर ही ऐसा करते हैं, उनके अनुसार ऐसी कई विभिन्न परिस्थितियों में जैसे यूटरस का मूहँ नहीं खुलना, बी.पी. हाई होना,बच्चे की धड़कन कम होना, गले में गर्भनाल फंसना, बच्चे का, उल्टा या फिर कमजोर होना इत्यादि। लेकिन जो भी है निजी अस्पतालों में नॉर्मल डिलीवरी का इंतजार न कर आननफानन में कुछ ऐसा प्रेशर बना देते हैं कि हार कर घरवाले तैयार हो जाते हैं।
सरकार भी चिंतित है इन सिजेरियन डिलीवरी की वजह से क्योंकि एक तो प्रसूता के शरीर पर इससे गलत असर होता है,दूसरे नॉर्मल डिलीवरी व सिजेरियन डिलीवरी के खर्चे में कई गुणा अंतर है। जहाँ नॉर्मल में दस हजार के आसपास तो सिजेरियन में लगभग पचास हजार के आसपास का खर्चा है।स्वास्थय मंत्रालय ने इन बातों को ध्यान में रखते हुए सीजीएचएस से जूड़े सभी प्राईवेट व सरकारी अस्पतालों के लिए जरुरी कर दिया है कि इस तरह हर दिन हुई डिलीवरी को बोर्ड लगा कर सार्वजनिक करें।
सुप्रीम कोर्ट में भी गुहार लगाई गई है कि कोई ऐसा कानून व नियम निकाले जाये कि बेवजह सिजेरियन डिलीवरी से बचा जा सकें। वैसे भी निजी अस्पतालों पर इल्जाम लगते रहें हैं कि पैसा कमाने के चक्कर में मरीज को जबरदस्ती ज्यादा दिन एडमिट रखते हैं, जबरदस्ती की ज्यादा दवाईयां आदि लिख देते हैं।इन शिकायतों में भी कुछ सुधार हो सकेगा। इसके लिए भी और ज्यादा जागरूक होना पड़ेगा कि प्रेग्नेंसी के दौरान उचित व पौष्टिक डाइट, कैल्शियम, आयरन व अन्य जरूरी विटामिन मिल सके।उचित देखरेख से इन परस्थितियों से बचा जा सकता है। भगवान स्वरूप डॉक्टर्स को भी चाहिए की वे बिना किसी जरूरी वजह ऐसी डिलीवरी करने से बचें। क्योंकि इससे स्वास्थ्य व पैसे दोनों का ही नुकसान हैं। वे अपने इस सम्मानजनक पेशे व ओहदे का ध्यान रखें।
© ऋतु गुप्ता
हिन्दी साहित्य – आलेख – आज की पत्रकारिता – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
![](https://ml6esc8kx61v.i.optimole.com/w:237/h:160/q:eco/f:best/ig:avif/https://www.e-abhivyakti.com/wp-content/uploads/2018/12/IMG-20181224-WA0003.jpg)
हिन्दी साहित्य – आलेख – आम हिन्दी पाठकों को हिंग्लिश परोसते कुछ अखबार – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
![](https://ml6esc8kx61v.i.optimole.com/w:300/h:187/q:eco/f:best/ig:avif/https://www.e-abhivyakti.com/wp-content/uploads/2018/12/bhaskar.jpg)
मेरे मत से इन तथाकथित अखबार वालों की भाषा से यदि हिंग्लिश तबका जुड़ता है, जिसे ये हिंग्लिश पाठकों की अतिरिक्त वृद्धि मानते हैं तो उन्हें स्वीकारना पड़ेगा कि उससे कहीं ज्यादा इनके हिन्दी पाठकों में कमी हो रही है। उनके पास अन्य पसंदीदा अखबारों के विकल्प भी होते हैं। आज के अंतरजालीय युग में जब हर सूचना हमारे पास आप से पहले पहुँच रही है, तब इन तथाकथित अखबारों की प्राथमिकताएँ बची कहाँ हैं। आज के तकनीकी युग एवं खोजी पत्रकारिता के चलते छोटे से छोटा अखबार भी पिछड़ा नहीं है। अब तो ग्रामीण अंचल तक अद्यतन रहते हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी की मर्यादा, सम्मान एवं संवर्धन हमारा कर्तव्य है। हिन्दी के पावन आँचल में किसी गैर भाषा के इस तरह थिगड़े लगाने का प्रयास राष्ट्रभाषा का अपमान और मेरे अनुसार राष्ट्रद्रोह जैसा है। विश्व की किसी भी भाषा, संस्कृति अथवा परंपराओं से घृणा अथवा अनादर हमारी संस्कृति में नहीं है। हमारे नीति शास्त्रों में ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ भी लिखा है। आज हिन्दी की विकृति पर तुले हुए लोग हठधर्मिता की पराकाष्ठा पार करते नजर आ रहे हैं। इनकी अपने देश, अपनी संस्कृति एवं अपनी राष्ट्रभाषा संबंधी प्रतिबद्धता भी संशय के कटघरे में खड़ी प्रतीत होने लगी है। आज आप किसी भी पाठक से पूछ लीजिए, वह आज लिखी जा रही विकृत भाषा एवं अव्यवहारिक संस्कृति से स्वयं को क्षुब्ध बतलायेगा। अब तो सुबह-सुबह अखबार पढ़ कर मन में कड़वाहट सी भर जाती है। अप्रिय भाषा एवं अवांछित समाचारों की बाढ़ सी दिखाई देती है, वहीं अखबारों की यह भी मनमानी चलती है कि हम अपने घर, अपने समूह या विज्ञापन का चाहे जितना बड़ा भाग प्रकाशित करें, मेरी मर्जी। पाठक के दर्द की किसी को चिंता नहीं रहती। सरकार भी इनकी नकेल नहीं कस पाती। सरकारी, बड़े व्यवसायियों एवं नेताओं के विज्ञापनों की बड़ी कमाई से अखबार बड़े उद्योगों में तब्दील हो गए हैं। हम चाहे जब अखबार के मुख्य अथवा नगर पृष्ठ तक में एक अदद पूरी खबर के लिए तरस जाते हैं, फिर नगर, देश-प्रदेश एवं समाज की बात तो बहुत दूर है। समाचार पत्रों से स्थानीय साहित्य भी जैसे लुप्त होता जा रहा है। आज दरकार है आदर्श भाषा की, आदर्श सोच की और आदर्श अखबारों की। साथ ही देश तथा समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व की। मैं मानता हूँ कि समाज सुधार का ठेका अखबारों ने नहीं ले रखा है, किंतु यह भी सत्य है कि, ये तथाकथित अखबार क्या मानक गरिमा का ध्यान रख पाते हैं।
हिन्दी साहित्य – आलेख – आत्मनिर्भरता ही आत्मविश्वास की पहली सीढ़ी – सुश्री ऋतु गुप्ता
सुश्री ऋतु गुप्ता
आत्मनिर्भरता ही आत्मविश्वास की पहली सीढ़ी
(सुश्री ऋतु गुप्ता जी के लेख ,कहानी व कविताएँ विभिन्न समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं।दैनिक ट्रिब्यून में जनसंसद में आपको लेख लिखने के लिए कई बार प्रथम पुरस्कार मिला है। आपका एक काव्य संग्रह ‘आईना’ प्रकाशित हो चुका है। दो किताबें प्रकाशन के लिए तैयार हैं। प्रस्तुत है सुश्री ऋतु जी का यह प्रेरणास्पद लेख।)
मैनें अपनी जिंदगी से चाहे कुछ सीखा हो या न पर एक बात जरूर सीखी है कि- अगर आत्मविश्वास प्रबल है तो जीत निश्चित है।आत्मविश्वास का अर्थ यही है कि अपने ऊपर विश्वास या फिर यह भी कह सकते हैं कि अपने द्वारा किये जाने वाले कार्यों पर पूर्ण विश्वास। इंसान को जब तक यह लगता है कि वह हर कार्य करने में सक्षम व समर्थ है तब उसका अपने ऊपर विश्वास बना रहता है और यह जीवनरूपी गाड़ी सरपट दौड़ती रहती है,जैसे ही अपने ऊपर से भरोसा डगमगाता है तो उसकी स्थिति पंक्चर टायर वाली गाड़ी के समान हो जाती है।और उसके साथ खत्म होने लगता है उत्साह भरे जीवन का नेतृत्व।यह बात सही कही गई है “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”।
आत्मविश्वास खोने के जिम्मेदार बहुत से हालात व परिवेश, जगह और समाज हो सकते हैं।बहुत बार इंसान मानसिक कुंठाओं से व हीन भावनाओं से ग्रस्त हो इसका कारण बन बैठता है। बच्चे बहुत कोमल दिल वाले होते हैं । वे जल्द ही इन कुंठाओं के शिकार हो बैठते हैं। अपने आसपास ही ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाते हैं जैसे- एक घर में दो बहनों और भाइयों की सुंदरता या गुणों में अंतर है तो यह तुलना उनके बीच बचपन से ही चल पड़ती है। तुलना करने वालों का मकसद चाहे कुछ भी हो पर वे मासूम इस बात को दिल पर ले बैठते हैं। यहाँ तक माँ-बाप व सभी यह बात भूल जाते हैं कि अपनी पाँचों उंगलियां भी कभी बराबर नहीं होती।
एक उदाहरण और ले सकते हैं कि कोई बच्चा जो जन्म से ही शारिरिक विकलांगता लिए पैदा हुआ है या फिर किसी दुर्घटना वश विकलांग हो गया है तो उसका दिल बेहद कोमल हो जाता है वह इस बात को स्वीकार करने को तैयार होता भी है तो सामाजिक माहौल ऐसा होता है कि उसको यह बात भूलने ही नहीं दी जाती। हर जगह चाहे नौकरी हो, शादी का सवाल हो या फिर शिक्षा हर जगह यह कमी आड़े आने लगती है।उसका विश्वास टूटने लगता है, ऊपर से सामाजिक ताने और आहत कर जाते हैं।
कोई इंसान किस परिवार या जगह पर जन्म लेता है सफलता सिर्फ उसी पर निर्भर नहीं करती कई बार गरीब परिवार के बच्चों ने वो मुकाम हासिल किये हैं जो अमीर भी नहीं सोच सकते। उदाहरण के लिए हम अब्राहम लिंकन, डॉक्टर ए. पी. जे. अब्दुल कलाम और अल्बर्ट आइंस्टीन आदि अनेक ऐसे उदाहरण है जिन्होंने अपने दृढ़ निश्चय व आत्मविश्वास के साथ हर कामयाबी हासिल की है।थॉमस अल्वा एडीसन ने 1000 बार बल्ब के बनाने के बाद सफलता प्राप्त की थी पर हौंसले बुलंद रहे उनके।
“हौंसले हों गर बुलन्द कामयाबी भी पैर चूम जाती है
इरादे हों दृढ़ तो वक्त की सुई पक्ष में ही घूम जाती है।
चाहे आप छोटी या बड़ी जगह से हो, पर आपकी सफलता आपके आत्मविश्वास और दृढ़ता से निर्धारित होती है।” -मिशेल ओबामा
अच्छा भला इंसान भी कई बार आत्मविश्वास खोने लगता है जैसे – अच्छी शिक्षा के बाद भी मन लायक नौकरी का न मिलना, मन लायक जीवनसाथी का न मिलना और व्यवसाय आदि में घाटा। इन सब घटनाओं से जीवन असंतुलित हो जाता है। जीवन की डोर हाथ से छूटने लगती है। बहुत कोशिश के बाद भी संभलना मुश्किल हो जाता है। जीवन नैया जब तक आत्मविश्वास रहता है बिना किसी भंवर के आगे बढ़ती रहती है, लेकिन जब अविश्वास रूपी भंवर में फंसने लगती है डूबने के पूरे-पूरे आसार नजर आते हैं।
स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार- “पुराने धर्मों में कहा गया है कि नास्तिक वह है,जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता। नया धर्म कहता है कि नास्तिक वह है,जो अपने ऊपर विश्वास नहीं करता।”
किसी का खोया आत्मविश्वास कैसे लौटे इसमे इंसान खुद अपनी सबसे ज्यादा मदद कर सकता है।सबसे पहले तो उसे खुद चाहिए कि कितने ही बुरे हालात क्यूँ न हो अपने ऊपर से भरोसा कतई न खोये। उसके बाद उसे समझना चाहिए कि अगर राह सही है तो भटकने के बाद भी वह अपनी मंजिल तक ही पहुंचेगा। समाज में भी दूसरे लोगों से अपेक्षा की जाती है कि ऐसे व्यक्ति का मनोबल बढ़ायें ना कि हतोत्साहित करें।
कुछ ऐसे उपाय हैं जिनके चिंतन से हर चिंता दूर हो सकती है जैसे- हर कार्य के लिए दृढ़ इच्छा रखें, लगन से ही कार्य सिद्ध हुआ करते हैं, न कि सोच से। एक निश्चित लक्ष्य साध कर चलें, नाकामी से मनोबल न गिरने दें, चिंतन करे चिंता नहीं ,सफल हस्तियों की जीवनी पढ़ें व साकारात्मक सोच रखें। एक बार असफलता से जिंदगी पूरी नहीं हो जाती सफलता के लिए तो अभी पूरा जीवन पड़ा है। अगर बार-बार असफलता मिलती है तो भी घबराने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह अकेला ऐसा इंसान नहीं है। उसके पड़ाव में ऐसे अनगिनत लोग मिल जायेंगे जो उसका हाथ पकड़ चलने को तैयार हैं और जिनको हालातों ने वैसा ही बना दिया है। वे मिलजुल कर अपनी समस्याओं का सामाधान निकाल सकते हैं व एक-दूसरे का सहारा बन सकते हैं।
ऐसे ही बच्चों के मामले में तो बहुत एहतियात बरतने की जरूरत है क्योंकि बच्चे कच्ची मिट्टी से बने बर्तनों के समान है जैसे ढालें ढल जाते हैं। बच्चों के ऊपर कभी अपने सपनों का बोझ नहीं लादना चाहिए। उनकी अपनी अलग सपनों की दुनिया हो सकती है। हमेशा उनका मनोबल उंचा कर उनके काम की तारीफ करनी चाहिए। किसी के साथ तुलना न कर उसकी योग्यता को बढ़ावा देना चाहिए। सबके सामने उसकी काबिलियत की तारीफ करनी चाहिए। ऐसा करने से बच्चों में दृढ़ सकंल्प की भावना पैदा होगी व मनोबल बढ़ेगा।
आवेग में आकर कभी गलत कदम नहीं उठाने चाहिए क्योंकि यह बुजदिलों का काम है। जीवन अनमोल है इसका एक-एक क्षण महत्वपूर्ण है अगर हम अपने को महत्त्व देते हैं और प्यार करते है तो यह समाज व दुनिया भी हमें प्यार करेगें। अपने को किसी से कम आंकना खुद के साथ नाइंसाफी है।
आत्मविश्वास से आत्मसम्मान मिलता है और वह आत्मनिर्भरता की पहली सीढ़ी है। यह सफलता व कामयाब जीवन की कुंजी है। बुरा वक्त कभी कह कर नहीं आता।उससे लड़कर आगे बढ़ना ही बाहदुरी है। अपने ऊपर विश्वास रखने वाले कमजोर से कमजोर इंसान कामयाब हो जाते हैं व आत्मविश्वास खोने वाले कामयाब से कामयाब इंसान नाकाम। आत्मविश्वास ही हर सफलता की सीढ़ी है।
© ऋतु गुप्ता