हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 19 – महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस”। )

☆ गांधी चर्चा # 19 – महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस

 

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस 1938 में हरिपुरा में हुये काँग्रेस अधिवेशन में निर्विरोध अध्यक्ष चुने गये। वे   भी गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांत से पूर्णत: सहमत न थे। त्रिपुरी (जबलपुर)  में अगले वर्ष 1939 में हुये काँग्रेस अधिवेशन में वे गांधीजी के प्रत्याक्षी पट्टाभी सीतारम्मइया को हरा कर पुनः अध्यक्ष चुने गये,  जिसे गांधीजी ने अपनी व्यक्तिगत हार माना। स्वतंत्रता का आंदोलन कमज़ोर न पड़ जाय इस भावना से वशीभूत हो कर सुभाष चन्द्र बोस ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और काँग्रेस के अंदर ही फारवर्ड ब्लाक की स्थापना कर डाली। श्री राकेश कुमार पालीवाल, भारतीय राजस्व सेवा से चयनित आयकर विभाग के उच्च अधिकारी हैं व गांधीजी के विचारों के अध्येता हैं, ने अपनी पुस्तक “गांधी जीवन और विचार” में आजाद हिन्द फौज और गांधी सुभाष संबंध पर प्रकाश डाला है वे लिखते हैं- “ गांधी और सुभाष चन्द्र बोस के संबंधो को कुछ लोग अतिरेक के साथ प्रस्तुत कर एक दूसरे के धुर विरोधी की तरह चित्रित कर भ्रम फैलाते रहे हैं। यह सच है कि  गांधी और सुभाष के बीच कुछ वैचारिक मतभेद थे लेकिन यह मतभेद आज़ादी के आंदोलन को किस प्रकार आगे बढ़ाया जाये उसके तौर तरीकों को लेकर था जिसमे एक दूसरे के प्रति लेशमात्र भी द्वेष नही था अपितु दोनों के मध्य पिता पुत्र जैसी आत्मीयता थी। गांधी विचार की अध्येता सुजाता चौधरी ने ‘गांधी और सुभाष’ कृति में कई ऐतिहासिक तथ्यों एवं दस्तावेजों के आधार पर यह प्रमाणित किया है कि सुभाष चन्द्र बोस गांधी की बहुत इज्जत करते थे और गांधी सुभाष चन्द्र बोस के प्रति स्नेह भाव रखते थे।“

श्री राकेश कुमार पालीवाल  आगे लिखते हैं “जहाँ तक गांधी और सुभाष के मध्य मतभेद का प्रश्न है उसका प्रमुख कारण था कि गांधी आज़ादी के आंदोलन में न हिंसक युद्ध (आज़ाद हिन्द फौज) के समर्थक थे और न जर्मनी और जापान जैसी फासिस्ट ताकतों का सहयोग चाहते थे जबकि सुभाष चन्द्र बोस अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अंग्रेजों के दुश्मनों का समर्थन लेने और आज़ाद हिन्द फौज के द्वारा सशस्त्र संघर्ष के प्रबल पक्षधर थे। गांधी के प्रति सुभाष चन्द्र बोस का आदर इस तथ्य से भी प्रमाणित होता है कि उन्होने आज़ाद हिन्द फौज की पहली टुकड़ी का नाम गांधी ब्रिगेड रखा था और अपने सिपाहियों को कहा था कि देश की आज़ादी के बाद हम सब गांधी के नेतृत्व में समाज की सेवाकरेंगे।“

आज़ाद हिन्द फौज की हार के बाद जब उसके सैन्य अधिकारियों कर्नल प्रेम सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह तथा मेजर जनरल शाहनवाज खान पर लालकिले में मुक़दमा चला तो तेज बहादुर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, कैलाश नाथ काटजू जैसे काँग्रेस के नेताओं ने काला चोगा पहन अपने इन देश भक्त साथियों जिनसे उनके तीक्ष्ण वैचारिक मतभेद थे कि सफल पैरवी करी। यह सब गांधीजी की अनुमति से ही हुआ होगा और गांधीजी का यह निर्णय उस जनमत का सम्मान था जिसे देश की आज़ादी के इन दीवानों से अगाध प्रेम था।

रूद्रांक्षु मुखर्जी ने  पंडित जवाहरलाल नेहरु और नेताजी सुभाष के आपसी संबंधों को लेकर एक पुस्तक लिखी है नेहरु बनाम सुभाष। इसमें भी अक्सर उन बातों की चर्चा है जिसमे नेताजी और महात्माजी के बीच मतभेदों पर प्रकाश पड़ता है। नेताजी शुरू से फ़ौजी अनुशासन के प्रेमी थे 1928 में कोलकाता के कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष की अगवानी में फौजी वेशभूषा में की थी जिसे गांधीजी ने नापसंद किया था।

‘अंतिम झांकी’ में उस डायरी की बातें दर्ज हैं जिसे महात्मागांधी के चचेरे भाई की पौत्री मनु बेन ने जनवरी 1948 के दौरान लिखा और इस डायरी में दर्ज तथ्यों को गांधी जी नियमित रूप से जांचते व सही करते थे। इस प्रकार यह डायरी महात्मागांधी जो  तब बिरला भवन नई दिल्ली में ठहरे थे कि दैनिक कार्यक्रम का सच्चा विवरण देती है। गांधी जी रोजाना शाम को सर्व धर्म प्रार्थना सभा में लोगों से चर्चा करते थे‌ ।नेताजी सुभाषचंद्र बोस के जन्मदिवस की याद दिलाने पर गांधीजी ने 23 जनवरी 1948 को निम्न विचार व्यक्त किए।

“शैलन भाई ने खबर दी कि आज नेताजी (सुभाष बाबू ) का जन्म दिवस है, इसलिए बापू प्रार्थना में उनके बारे में कुछ कहें।”

बापू ने कहा: “आज सुभाष बोस का जन्म दिवस है। यद्यपि मैं किसी का जन्म दिवस कदाचित ही याद रखता हूं, फिर भी आज मुझे इसकी याद करायी गई, इसलिए खुश हूं।”

“सुभाष बाबू हिंसा के पुजारी रहे और मैं अहिंसा का! लेकिन उससे क्या? तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है:

‘संत हंस गुण गहहिं पय, परिहरि वारि विकारी’

हंस जैसे पानी छोड़ दूध पी जाता है, वैसे ही मानव में गुण दोष होते ही हैं; पर हमें तो गुणों का पुजारी बनना चाहिए। सुभाष बाबू कितने देशभक्त थे, इसका वर्णन करना असामयिक होगा। उन्होंने देश के लिए जिंदगी का जुआं खेलकर दिखा दिया। कितनी बड़ी सेना खड़ी की और वह भी किसी तरह के जात-पात के भेदभाव के बगैर! उनकी सेना में प्रांतीय भेदभाव भी नहीं थि और न रंगभेद ही था। स्वयं सेनापति होने के बावजूद यह बात न थी कि स्वयं विशेष सुख सुविधा होगें और दूसरे कम। सुभाष बाबू सर्व धर्म समभाव रखते थे, इसी कारण उन्होंने सारे देश के भाई बहनों के हृदय जीत लिए थे। स्वयं निर्धारित काम पूरा किया। उनके इन गुणों को याद रखकर हम उन्हें अपने जीवन में उतारें, यही उनकी स्थायी स्मृति होगी।”

अंत में मैं यही निवेदन करूँगा कि हम अक्सर ऐसे विवादों को जन्म देते हैं जिनकी तथ्य परक  जानकारी हमे होती ही नहीं है। प्राय: हम सुनी सुनाई बातों पर कोई भी धारणा बना लेते है व वाद विवाद में उलझ जाते हैं। ऐसे वाद विवादों की शुरुआत व  अंत कटुता से भरा होता है जिसके हिमायती ना तो गरम दल या  नरम दल के कांग्रेसी नेता थे और नाही भगत सिंह जैसे अनेक क्रांतिकारी, गांधीजी तो कटुता को भी एक प्रकार हिंसा मानते थे और ऐसे वाद विवादों के बिल्कुल भी पक्षधर न थे।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – समझदार स्त्री ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध।  आज प्रस्तुत है अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर उनकी विशेष रचना ” समझदार स्त्री “. इस रचना के सन्दर्भ में  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा  ‘गुणशेखर ‘ जी के ही शब्दों में  – “महिला दिवस पर अपनी एक कविता स्त्री समाज को अर्पित करते हुए खुशी हो रही है। लेकिन यह खुशी तभी सार्थक होगी जब उन्हें भी पसंद आए जिनके लिए यह रची गई है।”) 

 ☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – समझदार स्त्री ☆

जन्मी तो अलग तरह से

सूचना दी गई

ताकि सब जान सकें

कि

घर में

आ गई है कुलच्छिनी

मातम मना घर भर में

पूरे पाँच साल

दोयम दर्जे के स्कूल जाती रही

बड़ी होकर समझदार हुई

तो इसी में खुश थी कि

उसे समय पर स्कूल भेजा गया

गाँव की कई और लड़कियों की तरह

उसने नहीं चराईं बकरियाँ

ज़्यादा पढ़ाई नहीं गई

तो क्या हुआ

उसके माँ -बाप ने

एक अच्छा घर- द्वार तो

ढूँढ़ा उसके लिए

औरों की तरह

सुयोग्य लड़के के न मिलने के डर से

ब्याह दी गई वह भी

इंटर करने के बाद

वह फिर भी खुश थी

समझदारी से ससुराल को सहा

सारे रिश्ते निभाए

जब तक देहरी के भीतर रही

पल्लू नहीं सरका कभी

घूँघट नहीं हटा एक पल को भी

चार-पाँच साल

सास,ससुर सबसे निभी

बस लड़कियां

क्या हो गईं दो-दो

सारी दुनिया ही

हो गई

जानी दुश्मन

नासमझ कही जाने लगी

लड़का न जन सकने से

अभागी मानकर

कर दी गई

उसी देहरी से बाहर

जिससे अक्षत भरे थाल को लुढ़काकर

आई थी भीतर

ढोल ताशे के साथ

देहरी बाहर हुई तो

वही जमाना जो उसे गाजे-बाजे

लाया था

बाहर भेजकर मगन था

उसे आशंका है कि

उसके मुहल्ले की हर चौखट और दरवाजे ने

रची थी साजिश उसके खिलाफ़

इसी लिए वह उन सबको घूरते

और बारी-बारी से उनपर थूकते

निकली तो पल्लू भी सरका और घूँघट भी

थाने भी गई और अदालत भी

सबने डराया

ताऊ -ताई ने

चाचा-चाची

मौसा -मौसी ने

यहाँ तक कि

जमाने की मारी

मायके की घायल सड़क ने भी

उसे लगता है कि

सब एक जुट हैं

उस समझदार स्त्री के विरुद्ध

जो उठ खड़ी होती है

किसी भी अन्याय के प्रतिकार में

जो निर्भय है

बच्चों को समय पर

स्कूल भेजकर

ऑफिस जाती है

स्कूल में पढ़ाती है

ऊँची-ऊँची इमारतों पर

ईंट-गारा चढ़ाती है

खेतों पर काम करती है

मछली पकड़ती है

बेचती है

दूसरोंके बर्तन माँजती है

बच्चे खिलाती है

या

बकरियाँ चराती है

और मानती है कि

समझदार स्त्री वह नहीं होती

जो जठराग्नि शमन के लिए

दो रोटी और कामी पति के साथ की

चार घंटे की नींद की खातिर

बेंच देती है स्त्रीत्व

पिसती है

शोषण सहती है

दिन-रात

बल्कि वह है जो

पुत्र -प्राप्ति के लिए

समूची स्त्री जाति के विरुद्ध किए जा रहे षड्यंत्रों

के विरुद्ध झंडा उठाती है

और,

सतीत्व नहीं स्त्रीत्त्व की रक्षा के लिए

कमर कसकर

जुट जाती है ।

@गुणशेखर

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – महिला स्वतंत्रता आंदोलन  की प्रणेता – सिमोन द बुआ ☆ श्री सुरेश पटवा

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  विगत  29 जनवरी  2020 को  नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक  “स्त्री -पुरुष “ प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी दो पुस्तकों गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में  पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  नवीन पुस्तक “स्त्री-पुरुष “रिश्तों की दैहिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं की विश्लेषणात्मक व्याख्या आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत करती है।  प्रस्तुत है  उनकी इस पुस्तक  से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष आलेख महिला स्वतंत्रता आंदोलन  की प्रणेता – सिमोन द बुआ )

☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष  – महिला स्वतंत्रता आंदोलन  की प्रणेता – सिमोन द बुआ  

दुनिया में महिला स्वतंत्रता आंदोलन की प्रणेता एक महिला दार्शनिक सिमोन को माना जाता है। सिमोन द बुआ (फ़्रांसीसी: Simone de Beauvoir) (जन्म: 9 जनवरी 1908 – मृत्यु : 14 अप्रैल 1986) एक फ़्रांसीसी लेखिका और दार्शनिक थीं। स्त्री उपेक्षिता (फ़्रांसीसी:Le Deuxième Sexe, जून 1949) अंग्रेज़ी में “Second Sex” जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक लिखने वाली सिमोन का जन्म पैरिस में हुआ था। लड़कियों के लिए बने कैथलिक विद्यालय में उनकी आरंभिक शिक्षा हुई। उनका कहना था की स्त्री पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है। समाज ने उसे गढ़ने का सामान चर्च, मंदिर और मस्जिद के रीति रिवाज के रूप मे तैयार कर रखा है।

श्री सुरेश पटवा जी की पुस्तकों के ऑनलाइन लिंक्स 

Notion Press Link  >>  1. स्त्री – पुरुष  2. गुलामी की कहानी 

Amazon  Link  >>    1. स्त्री – पुरुष   2. गुलामी की कहानी   3. पंचमढ़ी की कहानी 

सिमोन का मानना था कि स्त्रियोचित गुण दरअसल समाज व परिवार द्वारा लड़की में भरे जाते हैं, जबकि वह भी वैसे ही जन्म लेती है जैसे कि पुरुष और उसमें भी वे सभी क्षमताएं, इच्छाएं, गुण होते हैं जो कि किसी लड़के में हो सकते हैं। सिमोन का बचपन सुखपूर्वक बीता, लेकिन बाद के वर्षो में उन्होंने अभावग्रस्त जीवन भी जिया। 15 वर्ष की आयु में सिमोन ने निर्णय ले लिया था कि वह एक लेखिका बनेंगी। उनके क्रांतिकारी लेखन ने यूरोप अमेरिका में स्त्री स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा बदल कर रख दी। दुनिया की संसद और सरकारों में महिला की आज़ादी के नए विचार उनकी किताब से छन कर आने और सत्ता के गलियारों में छाने लगे।

दर्शनशास्त्र, राजनीति और सामाजिक मुद्दे उनके पसंदीदा विषय थे। दर्शन की पढ़ाई करने के लिए उन्होंने पैरिस विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, जहां उनकी भेंट बुद्धिजीवी ज्यां पॉल सा‌र्त्र से हुई। बाद में यह बौद्धिक संबंध आजीवन चला। डा. प्रभा खेतान द्वारा उनकी किताब “द सेकंड सेक्स” का हिंदी अनुवाद “स्त्री उपेक्षिता” भी बहुत लोकप्रिय हुआ। 1970 में फ्रांस के स्त्री मुक्ति आंदोलन में सिमोन ने भागीदारी की। स्त्री-अधिकारों सहित तमाम सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर सिमोन की भागीदारी समय-समय पर होती रही। 1973 का समय उनके लिए परेशानियों भरा था। सा‌र्त्र दृष्टिहीन हो गए थे। 1980 में सा‌र्त्र का देहांत हो गया। 1985-86 में सिमोन का स्वास्थ्य भी बहुत गिर गया था। निमोनिया या फिर पल्मोनरी एडोमा में खराबी के चलते उनका देहांत हो गया। सा‌र्त्र की कब्र के बगल में ही उन्हें भी दफनाया गया। दोनों विवाह के बिना साथ रहे वे दुनिया के पहले सहनिवासी (living together) जोड़े थे जिनके उदाहरण हमारे महानगरों मे हम अब देख रहे हैं।

सार्त्र ऐसे महान दार्शनिक थे कि जिन्हें उनके महान दार्शनिक सिद्धांत अस्तित्ववाद के लिए नोबल पुरस्कार दिया गया था जिसे लेने से उन्होंने यह कहकर मना कर दिया था कि वे अपने व्यक्तित्व का संस्थाकरण नहीं करना चाहेंगे। तब नोबल समिति ने कहा था कि लोग यह पुरस्कार लेकर सम्मानित होते हैं परंतु वे यदि पुरस्कार ले लेते तो नोबल पुरस्कार पुरस्कृत होता।

द सेकेंड सेक्स (The Second Sex) सिमोन द बुआ  द्वारा फ्रेंच में लिखी गई पुस्तक है जिसने स्त्री संबंधी धारणाओं और विमर्शों को गहरे तौर पर प्रभावित किया है। स्त्री समानता विचारधारा वाली सिमोन की यह पुस्तक नारी अस्तित्ववाद को प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करती है। यह स्थापित करती है कि जो स्त्री जन्म लेती है उसका मौलिक रूप विकसित न होने देकर, उम्र बढ़ने के साथ भोग के लिए बनाई जाती है। उसके दिमाग़ को नैसर्गिक रूप से गढ़ते रहने के बजाय वह कई अवधारणा में बाँध दी जाती है। लड़की एक अनचाहे भ्रूण की तरह गर्भ में पलती है। उनकी यह व्याख्या हीगेल के सोच को ध्यान में रखकर स्वयं (self) से अलग “दूसरा” (the Other) की संकल्पना प्रदान करती है। जो बच्ची पैदा हुई वह “पहला” है उसके बाद उसे संस्कारों के नाम पर ज़ंजीरों में बांधा जाना “दूसरा” है।

उनकी इस संकल्पना के अनुसार, नारी को उसके जीवन में उसकी पसंद-नापसंद के अनुसार रहना और काम करने का हक़ होना चाहिए और वो पुरुष से समाज में आगे बढ़ सकती है। ऐसा करके वो स्थिरता से आगे बढ़कर श्रेष्ठता की ओर अपना जीवन आगे बढ़ा सकतीं हैं। ऐसा करने से नारी को उनके जीवन में कर्त्तव्य के चक्रव्यूह से निकल कर स्वतंत्र जीवन की ओर कदम बढ़ाने का हौसला मिलता हैं। यह  एक ऐसी पुस्तक है, जो यूरोप के उन सामाजिक, राजनैतिक, व धार्मिक नियमो को चुनौती देती हैं, जिन्होंने नारी अस्तित्व एवं नारी प्रगति में हमेशा से बाधा डाली है और नारी जाति को पुरुषो से नीचे स्थान दिया हैं। अपनी इस पुस्तक में सिमोन ने  पुरुषों के ढकोसलों से नारी जाति को पृथक कर उनके जीवन में नैसर्गिक सोच विकसित न करने की नीति के विषय में अपने विचार प्रदान किये हैं। इसका हिन्दी अनुवाद स्त्री उपेक्षिता नाम से राजपाल एंड संस से प्रकाशित हुआ है।

श्री सुरेश पटवा की पुस्तक “स्त्री-पुरुष” से साभार 

© श्री सुरेश पटवा, भोपाल

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #39 ☆ दृश्य और अदृश्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष 

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 39 –  दृश्य और अदृश्य  ☆

आज हम वैश्विक महिला दिवस पर ‘संजय उवाच’ के एक अंश का पुनर्पाठ प्रस्तुत कर रहे हैं ।

दृश्य और अदृश्य की बात अध्यात्म और मनोविज्ञान, दोनों करते हैं। यों देखा जाये तो मनोविज्ञान, अध्यात्म को समझने की भावभूमि तैयार करता है जबकि अध्यात्म, उदात्त मनोविज्ञान का विस्तार है। अदृश्य को देखने के लिए दर्शन, अध्यात्म और मनोविज्ञान को छोड़कर सीधे-सीधे आँखों से दिखते विज्ञान पर आते हैं।

जब कभी घर पर होते हैं या कहीं से थक कर घर पहुँचते हैं तो घर की स्त्री प्रायः सब्जी छील रही होती है। पति से बातें करते हुए कपड़ों की कॉलर या कफ पर जमे मैल को हटाने के लिए उस पर क्लिनर लगा रही होती है। टीवी देखते हुए वह खाना बनाती है। पति काम पर जा रहा हो या शहर से बाहर, उसके लिए टिफिन, पानी की बोतल, दवा, कपड़े सजा रही होती है। उसकी फुरसत का अर्थ हरी सब्जियाँ ठीक करना या कपड़े तह करना होता है।

पुरुष की थकावट का दृश्य, स्त्री के निरंतर श्रम को अदृश्य कर देता है। अदृश्य को देखने के लिए मनोभाव की पृष्ठभूमि तैयार करनी चाहिए। मनोभाव की भूमि के लिए अध्यात्म का आह्वान करना होगा। परम आत्मा के अंश आत्मा की प्रचिति जब अपनी देह के साथ हर देह में होगी तो ‘माताभूमि पुत्रोऽहम् पृथ्विया’  की अनुभूति होगी।

जगत में जो अदृश्य है, उसे देखने की प्रक्रिया शुरू हो गई तो भूत और भविष्य के रहस्य भी खुलने लगेंगे। मृत्यु और उसके दूत भी बालसखा-से प्रिय लगेंगे। आँख से  विभाजन की रेखा मिट जायेगी और समानता तथा ‘लव बियाँड बॉर्डर्स’ का आनंद हिलोरे लेने लगेगा।

जिनके जीवन में यह आनंद है, वे ही सच्चे भाग्यवान हैं। जो इससे वंचित हैं, वे आज जब घर पहुँचें तो इस अदृश्य को देखने से आरंभ करें। यकीन मानिये, जीवन का दैदीप्यमान नया पर्व आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने #41 – मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता”।  यह इस लेखमाला की  अंतिम कड़ी है । इस साप्ताहिक स्तम्भ श्रृंखला के लिए हम सुश्री अनुभा जी के हार्दिक आभारी हैं। )  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 41 ☆

☆ मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता

खदान से प्राप्त होने वाला हीरा तभी उपयोगी और मूल्यवान बनता है जब कुशल कारीगर उसे उचित आकार में तराश कर आकर्षक बना देते हैं। तभी ऐसा हीरा राजमुकुट, राजसिंहासन या अलंकार की शोभा बढ़ाने के लिये स्वीकार किया जाता है। यही नियम हर क्षेत्र में लागू होता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी शिक्षा के द्वारा निखारा जाता है और उसे समाज के लिये उपयोगी गुण प्रदान किये जाते है। शिक्षा का यही महत्व है। इसी लिये हर देश में शासन ने शिक्षा व्यवस्था की है।क्रमशः प्राथमिक, माध्यमिक एवं महाविद्यालयीन संस्थाये नागरिको को देश की आवश्यकतानुसार विभिन्न प्रकार की विद्यायें सिखाने का कार्य कर रही हैं। हमारे देश में भी इसी दृष्टि से ‘‘सर्व शिक्षा अभियान” चलाया गया है जिसमें 6 से 14 वर्ष तक की आयु के प्रत्येक बच्चे को सुशिक्षित करने की व्यवस्था की गई है। शिक्षा का अर्थ सिखाने से है और विद्या का अर्थ विषय या तकनीक का ज्ञान देने से है।  इस तरह शिक्षा के दो प्रकार कहे जा सकते है। एक प्रारंभिक शिक्षा जिसमें अक्षर ज्ञान- पढना लिखना तथा प्रारंभिक गणित का ज्ञान होना होता है  और दूसरा किसी विशेष विषय की शिक्षा जिसके द्वारा उच्च तकनीकी ज्ञान की किसी एक शाखा मे विशेषज्ञ तैयार किये जाते हैं। ज्ञान की अनेको शाखाये है, सभी के जानकार व्यक्तियो की समाज को आवश्यकता होती है जिससे देश की आवश्यकताओ को पूरी करने वाले नागरिक तैयार हो सकें और उनकी सहायता व सेवाओ से देश प्रगति कर सके। ये सुशिक्षित लोग अपनी गुणवत्ता के साथ ही ऐसे भी होने चाहिये, जिनका आचरण अच्छा हो जिनमें अनुशासनप्रियता हो,  कर्मठता हो, समाज सेवा की भावना हो, नियमितता हो ,सहयोग की भावना हो, सहिष्णुता हो तथा सब के प्रति आदर का भाव हो। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसीलिये हमने देश के राजचिन्ह मे ‘‘सत्यमेव जयते” का आदर्श वाक्य अपनाया है। 1789 में अठारहवी सदी की फ्रांस की राज्य तथा वैचारिक क्रांति ने विश्व को एक नयी शासन व्यवस्था दी जिसे अंग्रेजी में डेमोक्रेसी अर्थात प्रजातंत्र के नाम से जाना जाता है। हमने भी देश की आजादी के बाद इसी जनतंत्र को अपने भारत के समुचित और सही विकास के लिये अपनाया है। जनसंख्या की दृष्टि से हम विश्व के सबसे बडे लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं। हमारी आबादी लगभग 125 करोड है और हमारे जनतांत्रिक आदर्शो को विश्व के विभिन्न देश आदर्श के रूप में देखते हैं।

जनतंत्र के प्रमुख सिद्धांत हैं  (1) स्वतंत्रता (2) समानता (3) बंधुता तथा (4) न्याय। इन्हीं चार स्तंभो पर जनंतत्र की इमारत खडी है। प्रत्येक सिद्धांत के बडे गहरे अर्थ हैं और उसके बडे दूरगामी प्रभाव होते हैं। हमारे राष्ट्रीय संविधान में इनकी विस्तार से चर्चा और निर्देश हैं। आजादी से अब तक देश में निरंतर इसी शासन व्यवस्था को , जिसमें प्रत्येक वयस्क नागरिक को मतदान के द्वारा अपना जनप्रतिनिधि चुनकर शासन में भेजने का महत्वपूर्ण मूल्यवान अधिकार है , का पालन किया जाता है। विश्व के अन्य देश बडे आश्चर्य  व उत्सुकता से हमारे देश में इस व्यवस्था का पालन किया जाना देख रहे हैं। इस जनतांत्रिक व्यवस्था में हमारी सफलता के उपरांत भी हम देखते हैं कि कुछ कमियां है। इन कमियों के कारण देशवासियों के पारस्परिक व्यवहार तथा बर्ताव में शुचिता की कमी देखी व सुनी जाती है जो सरकार के सामने कई कठिनाईयां खडी करती है।

जनतंत्र में प्रमुख पहला सिद्धांत स्वतंत्रता का है। प्रत्येक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है , व्यवहार की स्वतंत्रता है परंतु यह स्वतंत्रता स्वच्छंदता नहीं हो सकती जिससे अन्य नागरिको को जरा भी हानि हो।प्रत्येक नागरिक को वही समान अधिकार प्राप्त हैं  अतः टकराव नहीं होना चाहिये इसका पूरा ख्याल हर नागरिक के मन में निरंतर बना रहना चाहिये। यही बात समानता , बंधुता और न्याय के सिंद्धांतो के लिये भी समझदारी , ईमानदारी और पूरी निष्ठा से व्यवहार के हर क्षेत्र में आवश्यक है। परंतु क्या ऐसा हो रहा है?  सिद्धांत तो बडे अच्छे हैं परंतु उन्हें व्यवहार में अपनाये जाने में कमी दिखती है। नारा तो है “सत्यमेव जयते” परंतु व्यवहार में देखा जाता है और कहा जाता है “चाहे जो मजबूरी हो मांग हमारी पूरी हो”। ऐसे में देश का विकास और प्रगति कैसे संभव है? हर क्षेत्र में रूकावटें हैं। आये दिन स्वार्थ पूर्ति के लिये नये नये संगठन बनकर सामने आते है। प्रदर्शन,  बंद, धरने और शक्ति प्रदर्शन के लिये जुलूस निकाले जाते हैं। क्रोध और विरोध दिखाकर  देश की लाखो की संपत्ति जो वास्तव में जनता के धन से ही उपलब्ध कराई गई होती है, नष्ट कर दी जाती है।आंदोलन व प्रजातांत्रिक अधिकार के नाम पर सार्वजनिक संपत्ति में आग लगा दी जाती है। अनेकों के सिर फूटते हैं और अनेको वर्षो में धन और श्रम से किये गये निर्माणो को देखते देखते नष्ट कर बहुतों को शारीरिक और मानसिक संकट में डाल दिया जाता है। कुछ ऐसी  ही अराजकता चुनावो के समय अनेक मतदान केन्द्रो में भी देखी जाती है। कभी तो निर्दोष व्यक्तियों की जान तक ले ली जाती है। यदि यह सब जनतंत्र में हो रहा है तो यह विचार करना जरूरी है कि क्यों ? सिद्धांतो को कितना अपनाया गया है और यह राजनीति कैसी है।

हमारा देश तो प्राचीन धर्मप्राण देश है। अनेको धर्मो का उद्गम स्थान है। विश्वगुरू कहा जाने वाला देश है फिर हमारा आचरण इतना धर्मविरूद्ध क्यों हो गया ? जब इस तथ्य पर चिंतन करते है तो नीचे लिखे कुछ विचार समने आते है:-

  1. विगत दो शताब्दियों में विज्ञान  ने (भौतिक विज्ञान ने) बहुत उन्नति की है। नये नये अविष्कार किये गये। जन साधारण को जीवन की नई नई सुविधायें प्राप्त हुई। इससे लोगो मे तार्किक प्रवृत्ति का विकास हुआ। कल कारखानो , आवागमन के संसाधनों , संचार की सुविधाओं से दूर देशों का संपर्क सघन हुआ है। इससे परस्पर संपर्क भी बढे , निर्भरता व व्यापार बढा। आर्थिक निर्भरता विश्वव्यापी हुई । लोगों ने अपने विचारो में परिर्वतन देखा पर चारित्रिक गिरावट आई।
  2. भारत में धार्मिक बंधनो में ढील आई। आत्मविश्वास के साथ अंह के भाव भी बढे। धार्मिक रीति रिवाजो पारिवारिक परंपराओ, मान्यताओ में शिथिलता ने चारित्रिक मूल्यो का हृास किया।
  3. राजनैतिक पैंतरेबाजी, स्वार्थ और धनलोलुपता ने घपलों घोटालों को जन्म दिया। आचार विचारों में भारी परिवर्तन हुये।
  4. निर्भीकता और उद्दंडता से अनुशासन नष्ट हुआ। अपने सिवाय औरो के लिये सम्मान और आदरपूर्ण व्यवहार में कमी आई।
  5. निरर्थक दिखावे, झूठे प्रदर्शन और आडम्बरों को बढावा मिला धन का अनुचित उपयोग बढा, औरों की उपेक्षा हुई। दिखावे के चलन ने सारे पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन को प्रदूषित किया। धार्मिक भावना का हृास होने से चारित्रिक शुचिता नहीं रही। व्यवहार में ईमानदारी कम हुई। गबन घोटाले बढे। सादा जीवन उच्च विचार की परंपरा नष्ट हो गई।

यह स्थिति केवल हमारे देश  में ही नहीं समूचे विश्व में ही  हुई है। आंतकवाद सब जगह फैल गया है। मानवता त्रस्त है। इन सबका कारण नासमझी है।  धर्म की गलत व्याख्या है।   स्वार्थ, लालच, क्रोध, असहिष्णुता ने अदूरदर्शिता का प्रसार किया है तथा अनाचार व आतंक को जन्म दिया है। आचार विचार और सुसंस्कारो को समाप्त किया है। सारे परिवेश को दूषित किया है। जनता में  पढाई लिखाई का तो प्रसार हुआ है परंतु लोगों के मन का वास्तविक संस्कार नहीं हो पाया है। मन ही मनुष्य के सारे क्रियाकलापो का संचालक है। जैसा मन होता है वैसे ही कर्म होते है अतः सही वातावरण के निर्माण हेतु मन का सुसंस्कार कर शुभ विचार की उत्पत्ति किया जाना आवश्यक है। शिक्षा से व्यक्ति को सुखी समृद्ध और समाज के लिये मूल्यवान बनाया जा सकता है। अतः प्रारंभ सद्शिक्षा से ही करना होगा। शिक्षा से मनुष्य का शारीरिक ,  मानसिक ,  बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास करने के लिये समुचित पाठ्यक्रम अपनाया जाना चाहिये। मन के सुधार के लिये नीति प्रीति की रीति सीखने समझने के अवसर प्रदान किये जाने चाहिये। बचपन के संस्कार जो बच्चा घर ,परिवार ,परिवेश,  धार्मिक संस्थानो में देख सुन व व्यवहार का अनुकरण कर सीखता है , जीवन भर साथ रहते हैं। माता, पिता, शिक्षकों तथा समाज में बडों के आचरण का अनुकरण कर छात्र जल्दी सीखते है। अतः  शालाओ और सामाजिक परिवेश में नैतिक मूल्यों का वातावरण विकसित किया जाना  चाहिये। अर्थकेन्द्रित आज के संसार में सदाचार केन्द्रित शिक्षा के द्वारा ही परिवर्तन की  आशा की जा सकती है .  भविष्य को बेहतर बनाने के लिये मूल्यपरक शिक्षा के द्वारा समाज को सदाचार की ओर उन्मुख किया जाये। संपूर्ण शिक्षा पाठयक्रम और संस्थानो के कार्यक्रमो में नैतिक शिक्षा की गहन आवश्यकता है। क्योंकि शिक्षा का रंग ही व्यक्ति के जीवन को सच्चे गहरे रंग से रंग देता है। पहले संयुक्त परिवारो में दादी नानी व बड़े बूढ़े  कहानियों व चर्चाओ से बालमन को जो नैतिक संस्कार देते थे आज के युग में एकल परिवारो के चलते केवल शिक्षण संस्थाओ को ही यह जिम्मेदारी पूरी करनी है।

अतः वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में मूल्यपरक शिक्षा अतिआवश्यक है, जिससे हर शिक्षा पाने वाले विद्यार्थी  को विभिन्न विषयों के ज्ञान के साथ साथ अपनी सामाजिक जिम्मेदारियो का सही सही बोध हो सके।   एक नागरिक के रूप में उसके अधिकार ही नहीं कर्तव्यों का भी दायित्व वह समझ सके ।  बुद्धि के साथ साथ छात्र का हृदय भी विकसित हो,  उसे खुद के साथ अपने पडोसियों के प्रति भी संवेदना हो। समाज में सद्भाव,सहयोग, समन्वय और सहिष्णुता विकसित हो सके।

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 33 – योग ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण आलेख  “योग। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 33☆

☆ योग

आध्यात्मिक शब्दों में योग अनंत भगवान के साथ हमारी आत्मा का मिलाप है । अनंत में या भगवान के साथ विलय करने के लिए हमारे जीवन का मूल्यांकन करने के कई मार्ग हैं । ये सारे मार्ग ही बहुत सारे अलग अलग योग हैं । कुछ एक के लिए उपयुक्त और दूसरों के लिए अनुपयुक्त अन्य किसी और के लिए उपयुक्त और दूसरों के लिए अनुपयुक्त होते हैं । यह व्यक्तिगत मस्तिष्क, शरीर संरचना, दिलचस्पी, आयु, पृष्ठभूमि, देश इत्यादि पर निर्भर करता है । दार्शनिक शब्दों में कहें तो योग वह विज्ञान है जो हमें चित्त (मूल शब्द ‘चित’ से लिया गया जिसका अर्थ है ‘जागरूक होना’) की गति को रोकना सिखाता है । यह मस्तिष्क  का एक भाग होता है । यह स्मृतियों का संग्रह गृह होता है । संस्कार या हमारे द्वारा किये जाने वाले कर्मों की छाप यहाँ चित्त पर ही अंकित होती हैं । तो योग का अर्थ हुआ चित्तवृत्ति का निरोध । चित्तभूमि या मानसिक अवस्था के पाँच रूप हैं (1) क्षिप्त (2) मूढ़ (3) विक्षिप्त (4) एकाग्र और (5) निरुद्ध । प्रत्येक अवस्था में कुछ न कुछ मानसिक वृत्तियों का निरोध होता है । क्षिप्त अवस्था में चित्त एक विषय से दूसरे विषय पर दौड़ता रहता है । मूढ़ अवस्था में निद्रा, आलस्य आदि का प्रादुर्भाव होता है । विक्षिप्तावस्था में मन थोड़ी देर के लिए एक विषय में लगता है पर तुरन्त ही अन्य विषय की ओर चला जाता है । यह चित्त की आंशिक स्थिरता की अवस्था है जिसे योग नहीं कह सकते । एकाग्र अवस्था में चित्त देर तक एक विषय पर लगा रहता है । यह किसी वस्तु पर मानसिक केन्द्रीकरण की अवस्था है । यह योग की पहली सीढ़ी है । निरुद्ध अवस्था में चित्त की सभी वृत्तियों का (ध्येय विषय तक का भी) लोप हो जाता है और चित्त अपनी स्वाभाविक स्थिर, शान्त अवस्था में आ जाता है । इसी निरुद्व अवस्था को ‘असंप्रज्ञात समाधि’ या ‘असंप्रज्ञात योग’ कहते हैं । यही समाधि की अवस्था है ।

अनगिनत योग हैं लेकिन कुछ महत्वपूर्ण हैं जैसे कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग, लययोग, मुद्रायोग, शक्तियोग, हठयोग, अष्टांग योग, मन्त्र योग, कुंडलनी योग, इत्यादि । सभी को विस्तार से समझना बहुत कठिन है, लेकिन मैं आपको कुछ योगों के विषय में संक्षेप में बताने की कोशिश करूँगा ।

मैंने आपको कर्म योग के विषय में बहुत विस्तार से बताया है । बस ध्यान रखें कि कर्म योग कार्य और उसकी प्रतिक्रिया का नियम हैं । जिन्हे हमें अपनी उम्र, जाति, स्थिति, पृष्ठभूमि, संस्कृति, देश इत्यादि के अनुसार करने होते हैं । एक साधारण उदाहरण यह है कि शराब का उपयोग भारत में हिंदुओं के अधिकांश घरों में वर्जित है । तो जो हिंदू है और शराब नहीं पीता है इसका अर्थ है कि वह अभ्यास में अपने इस कर्म (धर्म का प्रायौगिक उपयोग) का ठीक से पालन कर रहा है । लेकिन रूस जैसे ठंडे देशों में जहाँ लोग शराब के बिना जीवित नहीं रह सकते हैं, वे शराब पीते हैं तो उनके कर्मों के कानून का उल्लंघन नहीं होता है ।

आशीष ने कहा, “महोदय, लेकिन यदि कोई भी अपने वंश या कुल से कुछ अलग कार्य नहीं करेगा, तो लोगों के जीवन को आसान बनाने के लिए समाज में कुछ भी नयी खोज और प्रगति कैसे होगी?”

उत्तर  दिया, “मैंने आपको तीन प्रकार के कर्म, द्रिधा, द्रिधा-आद्रिधा और आद्रिधा के विषय में पहले ही बहुत विस्तार से बताया था, ये वो कर्म होते हैं जो लोगों की इच्छाशक्ति की जाँच करते हैं कि कब उन्हें धैर्य रखना पड़ेगा और कब वो ताजा कर्म बनाने के लिए स्वतंत्र इच्छा का भी उपयोग कर सकते हैं आदि आदि । तो बहुत सारे लोग अपने कर्मों में उनके वंश में निर्धारित धर्म से पृथक नए सकारात्मक और नकारात्मक परिवर्तन करते हैं, जिसके लिए उन्हें पुरस्कार या दंड स्वीकार करना होता है । लेकिन वे भविष्य की पीढ़ियों के लिए नियम बदल देते हैं । यदि ये लोग ब्रह्मांड और प्रकृति में परिवर्तन के अनुसार ही अपने कर्मों में बदलाव करते हैं, तो उन्हें अपने कर्मों के लिए भुगतान नहीं करना पड़ता है । दूसरी ओर, यदि वे प्रकृति के परिवर्तन के खिलाफ जाते हैं, तो उन्हें अपने और अपनी भविष्य की पीढ़ियों के लिए अपने किये गए कार्यों के लिए भुगतान करना होगा । कुछ बदलाव सकल या उनके प्रभाव प्रत्यक्ष दिखाई देतेहैं जबकि अन्य सूक्ष्म होते हैं और उनका प्रभाव समय के साथ साथ दिखना शुरू होता है । तो इसलिए ऐसे लोग आने वाली पीढ़ियों के लिए नए नियम बनाते हैं ।

जीवित रहने के लिए ये परिवर्तन भी जरूरी है क्योंकि प्रकृति भी समय के साथ साथ बदल रही है जैसा कि मैं कई बार बता चूका हूँ प्रकृति में बदलाव तीन क्षेत्रों से संभव हैं

  1. एक हमारे सौरमंडल में ग्रहों और नक्षत्रों की ऊर्जा का अलग अलग समय पर हमारी पृथ्वी पर अलग अलग तरह का प्रभाव डालना ।
  2. हमारे वायुमंडल में विभिन प्रकार के प्रदूषणों से आ रहा परिवर्तन और
  3. हमारी दृष्टिगत प्रकृति के अवयवों में हो रहा परिवर्तन जैसे कि वृक्षों का काटना, भूमि की खुदाई, नदी आदि का स्थान परिवर्तन इत्यादि ।

अर्थात हर युग यहाँ तक कि हर दशक का भी अपना एक अलग रत (प्रकर्ति का चक्र) होता है । और अगर हम अपने शारीरिक और मानसिक भावों का प्रकृति के चक्र के बदलाव के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं करेंगे तो समाज ख़त्म हो जाएगा । लेकिन ध्यान दें, इस समय मानव पीढ़ी के जीवन शैली और प्रकृति के परिवर्तन की गति बहुत अलग अलग है । यही कारण है कि इन दिनों प्रगति में जो परिवर्तन उन्नति की तरह देखा जा रहा हैं वह वास्तव में बहुत खतरनाक हैं । क्या आप मुझे पृथ्वी पर एक भी ऐसी जगह बता सकते हैं जहाँ पर लोगों का निवास हैं और फिर भी वहाँ आपको शुद्ध हवा, पानी, अग्नि, वायुमंडल इत्यादि मिल जाये? हमारी जीवनशैली और प्रकृति के बीच परिवर्तन का यह असंतुलन हमारे पर्यावरण को नर्क बना रहा है और हमारे विचार भी बहुत बुरी तरह से प्रदूषित हो चुके हैं । यदि आप कर्म के नियमों के विस्तार और गहराई में जाते हैं, तो आप पाएंगे कि कर्म कुछ भी नहीं बल्कि प्रकृति के साथ मानव दिनचर्या का सामंजस्य हैं जिससे कि समाज लंबे समय तक जीवित रहे सके । अगर हम वन या जंगल में जाते हैं तो वहाँ पर कोई समाज नहीं है और ना ही कोई कर्मों का कानून है ।

आप जानते हैं कि सब कुछ चक्रीय है, जिसका अर्थ यह है कि प्रकृति ब्रह्मांड और मानव सद्भाव के लिए खुद को दोहराती है । लेकिन वास्तविकता में अगर हम बारीकी से देखते हैं, तो हम पाएंगे कि प्रकृति की यह दिनचर्या चक्रीय नहीं, बल्कि कुंडलित या घुमावदार (spiral) है । और प्रकृति का विकास या विनाश वे बिंदु हैं जहाँ पर समय का प्रवाह कुंडली के एक चक्र में नियमित चलते हुए दूसरे चक्र, जो कि पिछले चक्र की तुलना में बड़ा (विकास की स्थित में) या छोटा (विनाश की स्थित में) हो सकता हैं, में परिवर्तित होता है । तो आप कह सकते हैं कि महान मस्तिष्क, अवधारणाएं, परिदृश्य इत्यादि जिन्होंने दुनिया को बड़े पैमाने पर बदल दिया है, वे ब्रह्मांडीय प्राण प्रवाह की कुंडली के चक्रों के ऐसे ही बिंदु हैं । पर ये कुंडलित परिवर्तन भी उस अनंत शक्ति का एक माया जाल ही है । अब स्पष्ट हुआ?”

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 37 ☆ साधन नहीं साधना ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक  अतिसुंदर विचारणीय आलेख   “साधन नहीं साधना”.  डॉ मुक्ता जी का यह आलेख हमें कर्म के प्रति सचेत एवं प्रेरित करता है।  इस  प्रेरणादायक आलेख के लिए डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 37☆

☆ साधन नहीं साधना 

आदमी साधन नहीं, साधना से श्रेष्ठ बनता है। आदमी उच्चारण से नहीं, उच्च आचररण से अपनी पहचान बनाता है… जिस से तात्पर्य है, मानव धन-दौलत व पद-प्रतिष्ठा से श्रेष्ठ नहीं बनता, क्योंकि साधन तो सुख-सुविधाएं प्रदान कर सकते हैं, श्रेष्ठता नहीं। सुख, शांति व संतोष तो मानव को साधना से प्राप्त होती है और तपस्या व आत्म-नियंत्रण इसके प्रमुख साधन हैं। संसार में वही व्यक्ति श्रेष्ठ कहलाता है, अथवा अमर हो जाता है, जिसने अपने मन की इच्छाओं पर अंकुश लगा लिया है। वास्तव में इच्छाएं ही हमारे दु:खों का कारण हैं। इसके साथ ही हमारी वाणी भी हमें सबकी नज़रों में गिरा कर तमाशा देखती है। इसलिए केवल बोल नहीं, उनके कहने का अंदाज़ भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। वास्तव में उच्चारण अर्थात् हमारे कहने का ढंग ही, हमारे व्यक्तित्व का आईना होता है, जो हमारे आचरण को पल भर में सबके सम्मुख उजागर कर देता है। सो! व्यक्ति अपने आचरण व व्यवहार से पहचाना जाता है। इसलिए मानव को विनम्र बनने की सलाह दी गई है, क्योंकि फूलों-फलों से लदा वृक्ष सदैव झुक कर रहता है। वह सबके आकर्षण का केंद्र बनता है और लोग उसका हृदय से सम्मान करते हैं।

इसलिए सिर्फ़ उतना विनम्र बनो, जितना ज़रूरी हो, क्योंकि बेवजह की विनम्रता दूसरों के अहं को बढ़ावा देती है। दूसरे शब्दों में लोग आपको अयोग्य व कायर समझ आपका उपयोग करना प्रारंभ कर देते हैं। आपको हीन दर्शाना व निंदा करना उनकी दिनचर्या अथवा आदत में शुमार हो जाता है। यह तो सर्वविदित है कि आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का सेवन मानव को सदैव हानि पहुंचाता है, इसलिए उतना झुको, जितना आवश्यक हो ताकि आपका अस्तित्व कायम रह सके। हां! सलाह हारे हुए की, तज़ुर्बा जीते हुए का और दिमाग खुद का… इंसान को ज़िंदगी में कभी हारने नहीं देता। सो! दूसरों की सलाह तो मानिए, परंतु अपने मनो-मस्तिष्क का प्रयोग अवश्य कीजिए और परिस्थितियों का बखूबी अवलोकन कीजिए तथा ‘सुनिए सबकी, कीजिए मन की’ अर्थात् समय व अवसरानुकूलता का ध्यान रखते हुए निर्णय लीजिए। गलत समय पर लिया गया निर्णय आपको कटघरे में खड़ा कर सकता है… अर्श से फर्श पर लाकर पटक सकता है। वास्तव में सुलझा हुआ व्यक्ति अपने निर्णय खुद लेता है तथा उसके परिणाम के लिए दूसरों को कभी दोषी नहीं ठहराता। इसलिए जो भी करें, आत्मविश्वास से करें…पूरे जोशो-ख़रोश से करें। बीच राह से लौटें नहीं और अपनी मंज़िल पर पहुंचने के पश्चात् ही पीछे मुड़कर देखें, अन्यथा आप अपने लक्ष्य की प्राप्ति कभी नहीं कर पाएंगे।

‘इंतज़ार करने वालों को बस उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं।’ अब्दुल कलाम जी का यह संदेश मानव को निरंतर कर्मशील बने रहने का संदेश देता है। परंतु जो मनुष्य हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता है, परिश्रम करना छोड़ देता है और प्रतीक्षा करने लग जाता है कि जो भाग्य में लिखा है अवश्य मिल कर रहेगा। सो! उन लोगों के हिस्से में वही आता है, जो कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं। दूसरे शब्दों में आप इसे जूठन की संज्ञा भी दे सकते हैं।

इसलिए जहां भी रहो, लोगों की ज़रूरत बन कर रहो, बोझ बन कर नहीं और ज़रूरत वही बन सकता है, जो सत्यवादी हो, शक्तिशाली हो, परोपकारी हो, क्योंकि स्वार्थी इंसान तो मात्र बोझ है, जो केवल अपने बारे में सोचता है। वह उचित-अनुचित को नकार, दूसरों की भावनाओं को रौंद, उनके प्राण तक लेने में भी संकोच नहीं करता और सबसे अलग- थलग रहना पसंद करता है।

शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते और कभी हम समझा नहीं पाते। इसलिए सदैव उस सलाह पर काम कीजिए, जो आप दूसरों को देते हैं अर्थात् दूसरों से ऐसा व्यवहार कीजिए, जिसकी आप दूसरों से अपेक्षा करते हैं। इसलिए अपनी सोच सकारात्मक रखिए, क्योंकि जैसी आपकी सोच होगी, वैसा ही आपका व्यवहार होगा। अनुभूति और अभिव्यक्ति एक सिक्के के दो पहलू हैं। सो! जैसा आप चिंतन-मनन करेंग, वैसी आपकी अभिव्यक्ति होगी, क्योंकि शब्द व सोच मन में संदेह व शंका जन्म देकर दूरियां बढ़ा देते हैं। ग़लतफ़हमी मानव मन में एक-दूसरे के प्रति कटुता को बढ़ाती है और संदेह व भ्रम हमेशा रिश्तों को बिखेरते हैं। प्रेम से तो अजनबी भी अपने बन जाते हैं। इसलिए तुलना के खेल में न उलझने की सीख दी गई है, क्योंकि यह कदापि उपयोगी व लाभकारीनहीं होता। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहीं आनंद व अपनत्व अपना प्रभाव खो देते हैं। इसलिए स्पर्द्धा भाव रखने की सीख  दी गयी है क्योंकि छोटी लाइन को मिटाने से बेहतर है, लंबी लाइन को खींच देना…  यह तनाव को मन में नहीं उपजने देता, न ही यह फासलों को  बढ़ाता है।

परमात्मा ने सब को पूर्ण बनाया है तथा उसकी हर कृति अर्थात् जीव दूसरे से अलग है। सो! समानता व तुलना का प्रश्न ही कहां उठता है? तुलना भाव प्राणी-मात्र में ईर्ष्या को जाग्रत कर, द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न करता है, जो स्नेह, सौहार्द व अपनत्व को लील जाता है। प्रेम से तो अजनबी भी पारस्परिक बंधन में बंध जाते हैं। सो! जहां त्याग, समर्पण व एक-दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव होता है, वहां आनंद का साम्राज्य होता है।

संदेह व भ्रम अलगाव की स्थिति का जनक है। इसलिए शक़ को दोस्ती का दुश्मन स्वीकारा गया है। भ्रम की स्थिति में रिश्तों में बिखराव आ जाता है और उसकी असामयिक मृत्यु हो जाती है। इसलिए समय रहते चेत जाना चाहिए, क्योंकि अवसर व सूर्य में एक ही समानता है। देर करने वाले इन्हें हमेशा के लिए खो देते हैं। इसलिए गलतफ़हमियां को शीघ्रता से संवाद द्वारा मिटा देना चाहिए ताकि ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ वाली भयावह स्थिति उत्पन्न न हो जाए।

‘ज़िंदगी में कुछ लोग दुआओं के रूप में आते हैं और कुछ आपको सीख देकर अथवा पाठ पढ़ा कर चले जाते हैं।’ मदर टेरेसा की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है। इसलिए अच्छे लोगों की संगति प्राप्त कर स्वयं को सौभाग्यशाली समझो व उन्हें जीवन में दुआ के रूप में स्वीकार करो। दुष्ट लोगों से घृणा मत करो, क्योंकि वे अपना अमूल्य समय नष्ट कर, आपको सचेत कर  अपने दायित्व का वहन करते हैं, ताकि आपका जीवन सुचारु रुप से चल सके। यदि कोई आप से उम्मीद करता है, तो यह उसकी मजबूरी नहीं… आपके साथ लगाव व विश्वास है। अच्छे लोग स्नेहवश आप से संबंध बनाने में विश्वास रखते हैं … इसमें उनका स्वार्थ व विवशता नहीं होती। इसलिए अहं के चश्मे को उतारकर जहान को देखिए…सब अच्छा ही अच्छा नज़र आएगा, जो आपके लिए हितकारी व मंगलमय होगा, क्योंकि दुआओं में दवाओं से अधिक प्रभाव-क्षमता होती है। सो! किसी पर विश्वास इतना करो, कि वह तुमसे छल करते हुए भी खुद को दोषी समझे और प्रेम इतना करो कि उसके मन में तुम्हें खोने का डर हमेशा बना रहे। यह है, प्रेम की पराकाष्ठा व समर्पण का सर्वोत्तम रूप, जिसमें विश्वास की महत्ता को दर्शाते हुए, उसे मुख्य उपादान स्वीकारा गया है।

अच्छे लोगों की पहचान बुरे वक्त में होती है, क्योंकि वक्त हमें आईना दिखलाता है, हक़ीक़त बयान करता हैं। हम सदैव अपनों पर विश्वास करते हैं तथा उनके साथ रहना पसंद करते हैं। परंतु जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो बड़ी तकलीफ होती है। परंतु उससे भी अधिक पीड़ा तब होती है, जब कोई अपना पास रहकर भी दूरियां बना लेता है… यही है आधुनिक मानव की त्रासदी। इस स्थिति में इंसान भीड़ में भी स्वयं को अकेला अनुभव करता है और एक छत के नीचे रहते हुए भी उसे अजनबीपन का अहसास होता है। पति-पत्नी और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं और नितांत अकेलापन अनुभव करते-करते टूट जाते हैं। परंतु आजकल हर इंसान इस असामान्य स्थिति में रहने को विवश है, जिसका परिणाम हम वृद्धाश्रमों के रूप में स्पष्ट देख रहे हैं। पति-पत्नी में अलगाव की परिणति तलाक के रूप में पनप रही है, जो बच्चों के जीवन को नरक बना देती है। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में कैद है। परंतु फिर भी वह धन-संपदा व पद- प्रतिष्ठा के उन्माद में पागल अथवा अत्यंत प्रसन्न है, क्योंकि वह उसके अहं की पुष्टि करता है।

अति-व्यस्तता के कारण वह सोच भी नहीं पाता कि उसके कदम गलत दिशा की ओर अग्रसर हैं। उसे भौतिक सुख- सुविधाओं से असीम आनंद की प्राप्ति होती है। इन परिस्थितियों ने उसे जीवन क्षणभंगुर नहीं लगता, बल्कि माया के कारण सत्य भासता है और वह मृग-तृष्णा में उलझा रहता है। और… और…और अधिक पाने के लोभ में वह अपना हीरे-सा अनमोल जीवन नष्ट कर देता है, परंतु वह सृष्टि-नियंता को आजीवन स्मरण नहीं करता, जिसने उसे जन्म दिया है। वह जप-तप व साधना में विश्वास नहीं करता… दूसरे शब्दों में वह ईश्वर की सत्ता को नकार, स्वयं को भाग्य-विधाता समझने लग जाता है।

वास्तव में जो मस्त है, उसके पास सर्वस्व है अर्थात् जो व्यक्ति अपने अहं अथवा मैं को मार लेता है और स्वयं को परम-सत्ता के सम्मुख समर्पित कर देता है…वह जीते-जी मुक्ति प्राप्त कर लेता है। दूसरे शब्दों में ‘सबके प्रति समभाव रखना व सर्वस्व समर्पण कर देना साधना है, सच्ची तपस्या है…यही मानव जीवन का लक्ष्य है।’ इस स्थिति में उसे केवल तू ही तू नज़र आता है और मैं का अस्तित्व शेष नहीं रहता। यही है तादात्मय व निरहंकार की मन:स्थिति …जिसमें स्व-पर व राग-द्वेष की भावना का लोप हो ता है। इसके साथ ही धन को हाथ का मैल कहा गया है, जिसका त्याग कर देना ही श्रेयस्कर है।

जहां साधन के प्रति आकर्षण रहता है, वहां साधना काबिज़ हो जाती है। धन-संपदा हमें गलत दिशा की ओर ले जाती है…जो सभी बुराइयों की जड़ है और साधना हमें कैवल्य की स्थिति तक पहुंचाती है, जहां मैं और तुम का भाव शेष नहीं रहता। अलौकिक आनंद की मनोदशा में, कानों में अनहद नाद का स्वर सुनाई पड़ता है, जिसमें मानव अपनी सुध-बुध खोकर इस क़दर लीन हो जाता है कि उसे सृष्टि के कण-कण में परमात्मा की सूरत नज़र आती है। ऐसी स्थिति में लोग आपको अहंनिष्ठ समझ, आपसे खफ़ा रहने लगते हैं और व्यर्थ के इल्ज़ाम लगाने लगते हैं।

परंतु इससे आपको हताश-निराश नहीं, बल्कि आश्वस्त होना चाहिए कि आप ठीक दिशा की ओर अग्रसर हैं। सही कार्यों को अंजाम दे रहे हैं। इसलिए साधना को जीवन में उत्कृष्ट स्थान दीजिए क्योंकि यही वह सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम मार्ग है, जो आपको मोक्ष के द्वार तक ले जाता है।

सो! साधनों का त्याग कर साधना को अपनाइए। जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है …’जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए और दूसरों को संतुष्ट करने के लिए जीवन में समझौता मत कीजिए, आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चलते रहिए’ विवेकानंद जी की यह उक्ति बहुत कारग़र है। समय, सत्ता, धन व शरीर  जीवन में हर समय काम नहीं आते, सहयोग नहीं देते… परंतु अच्छा स्वभाव, समझ, अध्यात्म व सच्ची भावना जीवन में सदा सहयोग देते हैं। सो! जीवन में तीन सूत्रों को जीवन में धारण कीजिए… शुक्राना, मुस्कुराना, किसी का दिल न दु:खाना। हर वक्त ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं। ‘कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्तियों को लहरों के सहारे/ अर्थात् सहज भाव से जीवन जीएं क्योंकि इज़्ज़त व तारीफ़  खरीदी नहीं जाती, कमाई जाती है। इसलिए प्रशंसा व निंदा में सम रहिए। प्रशंसा में गर्व मत करो व आलोचना में तनाव-ग्रस्त मत रहो…सदैव अच्छा करते रहो। समय जब निर्णय करता है, ग़वाहों की दरक़ार नहीं होती। तुम्हारे कर्म ही तुम्हारा आईना होते हैं, व्यक्तित्व होते हैं। इसलिए कभी गलत सोच मत रखें, फल भी सदैव अच्छा ही प्राप्त होगा।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 18– महात्मा गांधी की अहिंसा तथा क्रांतिकारी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी की अहिंसा तथा क्रांतिकारी”

☆ गांधी चर्चा # 18 – महात्मा गांधी की अहिंसा तथा क्रांतिकारी

अक्सर यह प्रश्न उठता रहता है कि क्या महात्मा गांधी ने भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों को बचाने का प्रयास किया था? गांधी जी ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की तुलना में पंडित नेहरू को क्यों अधिक पसंद किया? अनेक बार तो यह वाद विवाद  शालीनता की समस्त मर्यादाओं को पीछे छोड़ अत्याधिक कटु हो जाता है। पंडित नेहरू  ने अपनी आत्मकथा में इन विवादों पर कोई खास टिप्पणियाँ नहीं की हैं। गांधीजी के अन्य  प्रशंसकों, जिनकी लिखी पुस्तके पढ़ने का अवसर मुझे मिला उसमे भी इन विवादों पर कोई टीका टिप्पणी करने से परहेज किया गया है। कहते हैं कि गांधी वाङ्मय में भगत सिंह की फाँसी रोकने हेतु  महात्मा गांधी द्वारा वाइसराय  को  23 मार्च 1931 को  लिखा गया पत्र व वाइसराय  द्वारा  दिया गया उत्तर आदि संकलित हैं पर मैंने   गांधी वाङ्मय नही पढ़ा है।

यह सत्य है की गांधीजी व क्रांतिकारियों के मध्य स्वतंत्रता प्राप्ति के साधनों को लेकर गहरे मतभेद थे। काँग्रेस भी गांधीजी के भारत  आगमन से पहले ही गरम दल व नरम दल में बटी हुई थी। गरम दल का नेतृत्व लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक व विपिन चन्द्र पाल करते थे।  इनकी जोड़ी लाल बाल पाल के नाम से विख्यात है। गांधीजी के राजनैतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले नरम दल के थे व अंग्रेजों के प्रति  उग्रता के हिमायती नही थे। गांधीजी का काँग्रेस के अंदर गरम दल वालों से भी वैचारिक मतभेद था। जब कभी काँग्रेस के अधिवेशनों में हिंसा को लेकर चर्चा हुई या प्रस्ताव लाये गए गांधीजी और उनके समर्थकों ने सदैव उनका विरोध किया। प्राय: गरम दल के नेताओं द्वारा इस संबंध में लाये गए प्रस्ताव बहुत कम  मतों से गिर गए। इन सब वैचारिक मतभेदों के बाद भी दोनों पक्षों के नेताओं में एक दूसरे के प्रति प्रेम, आदर व सम्मान का भाव सदैव बना रहा।

23 दिसंबर 1929 को क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के स्तंभ वाइसराय की गाड़ी को बम से उड़ाने का असफल प्रयास किया। गांधी जी ने इस कृत्य की कठोर निंदा की व यंग इंडिया में एक लेख ” बम की पूजा” प्रकाशित किया। इसका जबाब ‘ हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र समाजवादी सभा’ की ओर से  26 जनवरी 1930 को एक पर्चे के माध्यम से  दिया गया जिसे भगवती चरण वोहरा ने लिखा  भगत सिंह ने जेल में इसे अंतिम रूप दिया था। इस लेख में  कथन है कि ” सत्याग्रह का अर्थ है, सत्य के लिए आग्रह । उसकी स्वीकृति के लिए केवल आत्मिक शक्ति के प्रयोग का ही आग्रह क्यों ? क्रांतिकारी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपनी शारीरिक व नैतिक शक्ति दोनों के प्रयोग में विश्वास रखता है। देश को केवल क्रांति से ही स्वतंत्रता मिल सकती है। तरुण पीढ़ी मानसिक गुलामी व धार्मिक रुढिवादी बंधनों से मुक्ती चाहती है, तरुणों की इस बैचेनी में क्रांतिकारी प्रगतिशीलता के अंकुर देख रहा है। गांधीजी सोचते हैं कि अधिकतर भारतीय जनता को हिंसा की भावना छू तक नही गई है और अहिंसा उनका राजनैतिक शस्त्र बन गया है। गांधीजी घोषणा करते हैं की अहिंसा के सामर्थ्य से वे एक दिन विदेशी शासकों का हृदय परिवर्तन कर देंगे। देश में ऐसे लोग भी होंगे जिन्हे काँग्रेस के प्रति श्रद्धा नहीं , इससे वे कुछ आशा भी नही करते । यदि गांधी जी  क्रांतिकारियों  को उस श्रेणी में गिनते है तो वे उसके साथ अन्याय करते हैं।” इस प्रकार क्रांतिकारी   गांधीजी के साधन का विरोध करते थे, उनके विचारों में गांधीजी के अपमान की बात कतई नहीं दीखती।

सरदार भगत सिंह ने अपनी फाँसी के कुछ दिन पहले ही अपने नवयुवक राजनैतिक कार्यकर्ताओं को  02 फरवरी 1931 को एक पत्र लिखा था। अपने साथियों से वे कहते हैं कि ” इस समय हमारा आंदोलन अत्यंत महत्वपूर्ण परिस्थितियों में से गुजर रहा है। गोलमेज़ कान्फ्रेन्स के बाद काँग्रेस के नेता आंदोलन कि स्थगित कर समझौता करने को तैयार दिखाई देते है। वस्तुतः समझौता कोई हेय और निंदा योग्य वस्तु नहीं है, बल्कि वह राजनैतिक संग्रामों का एक अत्यावश्यक अंग है। भारत की वर्तमान लड़ाई ज्यादातर मध्य वर्ग के लोगों के बलबूते लड़ी जा रही है , जिसका लक्ष्य बहुत सीमित है। देश के करोड़ों मजदूर और किसान जनता का उद्धार इतने से नही हो सकता  है। काँग्रेस के लोग क्रांति नही चाहते वे सरकार पर आर्थिक दबाब डालकर कुछ सुधार और लेना चाहते हैं। हमारे दल का अंतिम लक्ष्य सोशलिस्ट समाज की स्थापना करना है। जब लाहौर काँग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता  का प्रस्ताव पास किया तो हम लोग इसे पूरे दिल से चाहते थे। परंतु काँग्रेस के उसी अधिवेशन में महात्मा जी ने कहा कि समझौते का दरवाजा अभी खुला है। इसका अर्थ है कि  उनकी लड़ाई का अंत इसी प्रकार किसी समझौते से होगा और वे पूरे दिल से स्वाधीनता की घोषणा नही  कर रहे थे। हम लोग इस बेदिली से घृणा करते है। मैं आतंकवादी नही हूँ। मैं एक क्रांतिकारी हूँ।  फाँसी की काल कोठरी में पड़े रहने पर भी मेरे विचारों में कोई परिवर्तन नही आया है पर मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि हम बम  से कोई लाभ प्राप्त नही कर सकते हैं। केवल बम फेकना ना सिर्फ व्यर्थ है अपितु बहुत बार हानिकारक भी है।”  इस प्रकार सरदार भगत सिंह ने भी गांधीजी के प्रति अपने सम्मान को कभी कम न होने दिया। गांधीजी ने भी जनमत का मान रखते हुये अपने सिद्धांतों के विपरीत वाइसराय को पत्र लिखकर भगत सिंह की फाँसी रोकने का अनुरोध किया। हाँ यह अनुरोध पत्र बहुत जोरदार भाषा में न था केवल विनय से युक्त था। आज जब 29 सितंबर 2017 को यह सब मैं लिख रहा हूँ तो उसके एक दिन पहले ही 28 सितंबर 1907 को जन्मे अमर शहीद भगत सिंह का 111वाँ जन्म दिन था। मेरा उन्हे शत शत नमन। उन अमर क्रांतिकारी शहीदों को भी नमन जिन्होने देश के लिए बलिदान दिया और हँसते हँसते फाँसी के फंदे पर झूल गये। गांधीजी पर अक्सर आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने सरदार भगत सिंह की फांसी रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। मैं पाठकों से अनुरोध करता हूँ कि इस सम्बन्ध में वे श्रीमती सुजाता चौधरी की पुस्तक “ राष्ट्रपिता और भगत सिंह “ अवश्य पढ़े। इसमें सुजाताजी ने विस्तार से यह सिद्ध किया है कि भगत सिंह की फांसी अंग्रेज टालना नहीं चाहते थे और भगत सिंह के प्रति जनता की भावना को ध्यान में रखते हुए अंग्रेजों ने यह चाल चली कि अगर महात्मा गांधी कहेंगे तो भगत सिंह की फांसी रोक दी जायेगी।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने #40 – जीवन और मूल्य ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “जीवन और मूल्य ”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 40 ☆

☆ जीवन और मूल्य

वसुधैव कुटुम्बकम् की वैचारिक उद्घोषणा वैदिक भारतीय संस्कृति की ही देन है. वैज्ञानिक अनुसंधानो, विशेष रूप से संचार क्रांति जनसंचार (मीडिया एवं पत्रकारिता) एवं सूचना प्राद्योगिकी (इलेक्ट्रानिक एवं सोशल मीडिया) तथा आवागमन के संसाधनो के विकास ने तथा विभिन्न देशो की अर्थव्यवस्था की परस्पर प्रत्यक्ष व परोक्ष निर्भरता ने इस सूत्र वाक्य को आज मूर्त स्वरूप दे दिया है. हम भूमण्डलीकरण के युग में जी रहे हैं. सारा विश्व कम्प्यूटर चिप और बिट में सिमट गया है. लेखन, प्रकाशन, पठन पाठन में नई प्रौद्योगिकी की दस्तक से आमूल परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हैं. नई पीढ़ी अब बिना कलम कागज के  कम्प्यूटर पर ही  लिख रही है, प्रकाशित हो रही है, और पढ़ी जा रही है. ब्लाग तथा सोशल मीडीया वैश्विक पहुंच के साथ वैचारिक अभिव्यक्ति के सहज, सस्ते, सर्वसुलभ, त्वरित साधन बन चुके हैं. ये संसाधन स्वसंपादित हैं, अतः इस माध्यम से प्रस्तुति में मूल्यनिष्ठा अति आवश्यक है, सामाजिक व्यवस्था के लिये यह वैज्ञानिक उपलब्धि एक चुनौती बन चुकी है.  सामाजिक बदलाव में सर्वाधिक महत्व विचारों का ही होता है.लोकतंत्र में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के तीन संवैधानिक स्तंभो के बाद पत्रकारिता को  चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता दी गई क्योकि पत्रकारिता वैचारिक अभिव्यक्ति का माध्यम होता है, आम आदमी की नई प्रौद्योगिकी तक  पहुंच और इसकी  त्वरित स्वसंपादित प्रसारण क्षमता के चलते ब्लाग जगत व सोशल मीडिया को लोकतंत्र के पांचवे स्तंभ के रूप में देखा जा रहा है.

वैश्विक स्तर पर पिछले कुछ समय में कई सफल जन आंदोलन सोशल मीडिया के माध्यम से ही खड़े हुये हैं. कई फिल्मो में भी सोशल मीडिया के द्वारा जन आंदोलन खड़े करते दिखाये गये हैं. हमारे देश में भी बाबा रामदेव, अन्ना हजारे के द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध तथा दिल्ली के नृशंस सामूहिक बलात्कार के विरुद्ध बिना बंद, तोड़फोड़ या आगजनी के चलाया गया जन आंदोलन, और उसे मिले जन समर्थन के कारण सरकार को विवश होकर उसके सम्मुख किसी हद तक झुकना पड़ा. इन  आंदोलनो में विशेष रुप से नई पीढ़ी ने इंटरनेट, मोबाइल एस एम एस और मिस्डकाल के द्वारा अपना समर्थन व्यक्त किया. मूल्यनिष्ठा के अभाव में ये त्वरित प्रसारण के नये संसाधन अराजकता भी फैला सकते हैं, हमने देखा है कि किस तरह कुछ समय पहले फेसबुक के जरिये पूर्वोत्तर के लोगो पर अत्याचार की झूठी खबर से दक्षिण भारत से उनका सामूहिक पलायन होने लगा था. स्वसंपादन की सोशल मीडिया की शक्ति उपयोगकर्ताओ से मूल्यनिष्ठा व परिपक्वता की अपेक्षा रखती है. समय आ गया है कि फेक आई डी के जरिये सनसनी फैलाने के इलेक्ट्रानिक उपद्रव से बचने के लिये इंटरनेट आई डी का पंजियन वास्तविक पहचान के जरिये करने के लिये कदम उठाये जावें.

आज जनसंचार माध्यमो से सूचना के साथ ही साहित्य की अभिव्यक्ति भी हो रही है.  साहित्य समय सापेक्ष होता है. साहित्य की इसी सामयिक अभिव्यक्ति को आचार्य हजारी प्रसाद व्दिवेदी जी ने कहा था कि साहित्य समाज का दर्पण होता है. आधुनिक तकनीक की भाषा में कहें तो जिस तरह डैस्कटाप, लैपटाप, आईपैड, स्मार्ट फोन विभिन्न हार्डवेयर हैं जो मूल रूप से इंटरनेट  के संवाहक हैं एवं साफ्टवेयर से संचालित हैं. जनसामान्य की विभिन्न आवश्यकताओ की सुविधा हेतु इन माध्यमो का उपयोग हो रहा है.  कुछ इसी तरह साहित्य की विभिन्न विधायें कविता, कहानी, नाटक, वैचारिक लेख, व्यंग, गल्प आदि शिल्प के विभिन्न हार्डवेयर हैं, मूल साफ्टवेयर संवेदना है, जो  इन साहित्यिक विधाओ में रचनाकार की लेखकीय विवशता के चलते अभिव्यक्त होती है.  परिवेश व समाज का रचनाकार के मन पर पड़ने  प्रभाव ही है, जो रचना के रूप में जन्म लेता है. लेखन की  सारी विधायें इंटरनेट की तरह भावनाओ तथा संवेदना की संवाहक हैं.  साहित्यकार जन सामान्य की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है. बहुत से ऐसे दृश्य जिन्हें देखकर भी लोग अनदेखा कर देते हैं, रचनाकार के मन के कैमरे में कैद हो जाते है. फिर वैचारिक मंथन की प्रसव पीड़ा के बाद कविता के भाव, कहानी की काल्पनिकता, नाटक की निपुणता, लेख की ताकत और व्यंग में तीक्ष्णता के साथ एक क्षमतावान  रचना लिखी जाती है. जब यह रचना पाठक पढ़ता है तो प्रत्येक पाठक के हृदय पटल पर उसके स्वयं के  अनुभवो एवं संवेदनात्मक पृष्ठभूमि के अनुसार अलग अलग चित्र संप्रेषित होते हैं.

वर्तमान  में विश्व में आतंकवाद, देश में सांप्रदायिकता, जातिवाद, सामाजिक उत्पीड़न तथा आर्थिक शोषण आदि के सूक्ष्म रूप में हिंसा की मनोवृत्ति समाज में  तेज़ी से फैलती जा रही है, यह दशा हमारी शिक्षा, समाज में नैतिक मूल्यो के हृास, सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं की गतिविधियो और हमारी संवैधानिक व्यवस्थाओ व आर्थिक प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह लगाती है, साथ ही उन सभी प्रक्रियाओं को भी कठघरे में खड़ा कर देती है जिनका संबंध हमारे संवेदनात्मक जीवन से है. समाज से सद्भावना व संवेदना का विलुप्त होते जाना यांत्रिकता को जन्म दे रहा है. यही अनेक सामाजिक बुराईयो के पनपने का कारण है. स्त्री भ्रूण हत्या, नारी के प्रति बढ़ते अपराध, चरित्र में गिरावट, चिंतनीय हैं.  हमारी सभी साहित्यिक विधाओं और कलाओ का  औचित्य तभी है जब वे समाज के सम्मुख उपस्थित ऐसे ज्वलंत अनुत्तरित प्रश्नो के उत्तर खोजने का यत्न करती दिखें. समाज की परिस्थितियो की अवहेलना साहित्य और पत्रकारिता कर ही नही सकती. क्योकि साहित्यकार या पत्रकार  का दायित्व है कि वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ स्थितियों में भी समाज के लिये मार्ग प्रशस्त करे. समाज का नेतृत्व करने वालो को भी राह दिखाये.

राजनीतिज्ञो के पास अनुगामियो की भीड़ होती है पर वैचारिक दिशा दर्शन के लिये वह स्वयं साहित्य का अनुगामी होता है. साहित्यकार का दायित्व है और साहित्य की चुनौती होती है कि वह देश काल परिस्थिति के अनुसार समाज के गुण अवगुणो का अध्ययन एवं विश्लेषण  करने की अनवरत प्रक्रिया का हिस्सा बना रहे और शाश्वत तथ्यो का अन्वेषण कर उन्हें लोकप्रिय तरीके से समुचित विधा में प्रस्तुत कर समाज को उन्नति की ओर ले जाने का वैचारिक मार्ग बनाता रहे.समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने का दायित्व मीडिया व पत्रकारिता का ही है. इसके लिये साहित्यिक संसाधन उपलब्ध करवाना ही नही, राजनेताओ को ऐसा करने के लिये अपनी लेखनी से विवश कर देने की क्षमता भी लोकतांत्रिक प्रणाली में पत्रकारिता के जरिये रचनाकार को सुलभ है.

प्राचीन शासन प्रणाली में यह कार्य राजगुरु, ॠषि व मनीषी करते थे. उन्हें राजा स्वयं सम्मान देता था. वे राजा के पथ दर्शक की भूमिका का निर्वाह करते थे. हमारे महान ग्रंथ ऐसे ही विचारको ने लिखे हैं जिनका महत्व शाश्वत है. समय के साथ बाद में कुछ राजाश्रित कवियो ने जब अपना यह मार्गदर्शी नैतिक दायित्व भुलाकर केवल राज स्तुति का कार्य संभाल लिया तो साहित्य को उन्हें भांड कहना पड़ा. उनकी रचनाओ ने भले ही उनको किंचित धन लाभ करवा दिया हो पर समय के साथ ऐसी लेखनी का साहित्यिक मूल्य स्थापित नही हो सका. कलम की ताकत तलवार की ताकत से सदा से बड़ी रही है. वीर रस के कवि राजसेनाओ का हिस्सा रह चुके हैं, यह तथ्य इस बात का उद्घोष करता है कि कलम के प्रभाव की उपेक्षा संभव नही. जिस समय में युद्ध ही राज धर्म बन गया था तब इस तरह की वीर रस की रचनायें हुई.जब  विदेशी आक्रांताओ के द्वारा हमारी संस्कृति का दमन हो रहा था तब तुलसी हुये.  भक्तिरस की रचनायें हुई. अकेली रामचरित मानस, भारत से दूर विदेशो में ले जाये गये मजदूरो को भी अपनी संस्कृति की जड़ो को पकड़े रखने का संसाधन बनी.

जैसे जैसे नई कम्प्यूटर साक्षर पीढ़ी बड़ी होगी, स्मार्ट सिटी बनेंगी, इंटरनेट और सस्ता होगा तथा आम लोगो तक इसकी पहुंच बढ़ेगी यह वर्चुएल लेखन  और भी ज्यादा सशक्त होता जायेगा, एवं  भविष्य में  लेखन क्रांति का सूत्रधार बनेगा. युवाओ में बढ़ी कम्प्यूटर साक्षरता से उनके द्वारा देखे जा रहे ब्लाग के विषय युवा केंद्रित अधिक हैं.विज्ञापन, क्रय विक्रय, शैक्षिक विषयो के ब्लाग के साथ साथ स्वाभाविक रूप से जो मुक्ताकाश कम्प्यूटर और एंड्रायड मोबाईल, सोशल नेट्वर्किंग, चैटिंग, ट्विटिंग,  ई-पेपर, ई-बुक, ई-लाइब्रेरी, स्मार्ट क्लास, ने सुलभ करवाया है, बाजारवाद ने उसके नगदीकरण के लिये इंटरनेट के स्वसंपादित स्वरूप का भरपूर दुरुपयोग किया है. मूल्यनिष्ठा के अभाव में  हिट्स बटोरने हेतु उसमें सैक्स की वर्जना, सीमा मुक्त हो चली है. पिछले दिनो वैलेंटाइन डे के पक्ष विपक्ष में लिखे गये ब्लाग अखबारो की चर्चा में रहे.

प्रिंट मीडिया में चर्चित ब्लाग के विजिटर तेजी से बढ़ते हैं, और अखबार के पन्नो में ब्लाग तभी चर्चा में आता है जब उसमें कुछ विवादास्पद, कुछ चटपटी, बातें होती हैं, इस कारण अनेक लेखक  गंभीर चिंतन से परे दिशाहीन होते भी दिखते हैं. हिंदी भाषा का कम्प्यूटर लेखन साहित्य की समृद्धि में  बड़ी भूमिका निभाने की स्थिति में हैं, ज्यादातर हिंदी ब्लाग कवियों, लेखको, विचारको के सामूहिक या व्यक्तिगत ब्लाग हैं जो धारावाहिक किताब की तरह नित नयी वैचारिक सामग्री पाठको तक पहुंचा रहे हैं. पाडकास्टिंग तकनीक के जरिये आवाज एवं वीडियो के ब्लाग, मोबाइल के जरिये ब्लाग पर चित्र व वीडियो क्लिप अपलोड करने की नवीनतम तकनीको के प्रयोग तथा मोबाइल पर ही इंटरनेट के माध्यम से ब्लाग तक पहुंच पाने की क्षमता उपलब्ध हो जाने से इलेक्ट्रानिक लेखन और भी लोकप्रिय हो रहा है.

आज का लेखक और पत्रकार  राजाश्रय से मुक्त कहीं अधिक स्वतंत्र है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार हमारे पास है. लेखन, प्रकाशन, व वांछित पाठक तक त्वरित पहुँच बनाने के तकनीकी संसाधन अधिक सुगम हैं. अभिव्यक्ति की शैली तेजी से बदली है. माइक्रो ब्लागिंग इसका सशक्त उदाहरण है. पर आज नई पीढ़ी में  पठनीयता का तेजी हृास हुआ है.  किताबो की मुद्रण संख्या में कमी हुई है. आज  चुनौती है कि पठनीयता के अभाव को समाप्त करने के लिये पाठक व लेखक के बीच उँची होती जा रही दीवार तोड़ी जाये.

पाठक की जरूरत के अनुरूप लेखन तो हो पर शाश्वत वैचारिक चिंतन मनन योग्य लेखन की ओर पाठक की रुचि विकसित की  जाये. आवश्यक हो तो इसके लिये पाठक की जरूरत के अनुरूप शैली व विधा बदली जा सकती है,प्रस्तुति का माध्यम भी बदला जा सकता है.अखबारो में नये स्तंभ बनाये जा सकते हैं.  यदि समय के अभाव में पाठक छोटी रचना चाहता है, तो क्या फेसबुक की संक्षिप्त टिप्पणियो को या व्यंग के कटाक्ष करती क्षणिकाओ को साहित्यिक विधा की मान्यता दी जा सकती है ? यदि पाठक किताबो तक नही पहुँच रहे तो क्या किताबो को पोस्टर के वृहद रूप में पाठक तक पहुंचाया जावे ? क्या टी वी चैनल्स पर रचनाओ की चर्चा के प्रायोजित कार्यक्रम प्रारंभ किये जावे? ऐसे प्रश्न भी विचारणीय हैं.

जो भी हो हमारा समय उस परिवर्तन का साक्षी है जब समाज में  कुंठाये, रूढ़ियां, परिपाटियां टूट रही हैं. समाज हर तरह से उन्मुक्त हो रहा है, परिवार की इकाई वैवाहिक संस्था तक बंधन मुक्त हो रही है, अतः हमारी  पीढ़ी की चुनौती अधिक है. आज हम जितनी मूल्यनिष्ठा और गंभीरता से अपने  दायित्व का निर्वहन करेंगे कल इतिहास में हमें उतना ही अधिक महत्व दिया जावेगा.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #37 ☆ शाश्वत तो मिट्टी ही है ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 37 ☆

☆ शाश्वत तो मिट्टी ही है ☆

हम पति-पत्नी यात्रा पर हैं। दाम्पत्य की साझा यात्रा में अधिकांश भौगोलिक यात्राएँ भी साझा ही होती हैं। बस का स्लीपर कोच.., कोच के हर कम्पार्टमेंट में एसी का असर बनाए रखने के लिए स्लाइडिंग विंडो है। निजता की रक्षा और  धूप से बचाव के लिए पर्दे लगे हैं। मानसपटल पर छुटपन में खेला ‘घर-घर’ उभर रहा है। इस डिब्बेनुमा ही होता था वह घर। दो चारपाइयाँ साथ-खड़ी कर उनके बीच के स्थान को किसी चादर से ढककर बन जाता था घर। साथ की लड़कियाँ भोजन का जिम्मा उठाती और हम लड़के फौजी शैली में ड्यूटी पर जाते। सारा कुछ नकली पर आनंद शत-प्रतिशत असली। कालांतर में हरेक का अपना असली घर बसा और तब  समझ में आया कि ‘दुनिया  जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है। मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।’ यों भी बचपन में निदा फाज़ली कहाँ समझ आते हैं!

जीवन को समझने- समझाने की एक छोटी-सी घटना भी अभी घटी। रात्रि भोजन के पश्चात बस में चढ़ रहा एक यात्री जैसे ही एक कम्पार्टमेंट खोलने लगा, पीछे से आ रहे यात्री ने टोका, ‘ये हमारा है।’ पहला यात्री माफी मांगकर अगले कम्पार्टमेंट में चला गया। अठारह-बीस घंटों के लिए बुक किये गए लगभग  6 x 3 के इस कक्ष से सुबह तक हर यात्री को उतरना है। बीती यात्रा में यह किसी और का था, आगामी यात्रा में किसी और का होगा। व्यवहारिकता का पक्ष छोड़ दें तो अचरज की बात है कि नश्वरता में भी ‘मैं, मेरा’ का भाव अपनी जगह बना लेता है। जगह ही नहीं बनाता अपितु इस भाव को ही स्थायी समझने लगता है।

निदा के शब्दों ने चिंतन को चेतना के मार्ग पर अग्रसर किया। सच देखें तो नश्वर जगत में शाश्वत तो मिट्टी ही है। देह को बनाती मिट्टी, देह को मिट्टी में मिलाती मिट्टी। मिट्टी धरातल है। वह व्यक्ति को बौराने नहीं देती पर सोना, कनक है।  ‘कनक, कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय, या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।’

बिहारी द्वारा वर्णित कनक की उपरोक्त सर्वव्यापी मादकता के बीच धरती पकड़े रखना कठिन हो सकता है, असंभव नहीं। मिट्टी होने का नित्य भाव मनुष्य जीवन का आरंभ बिंदु है और उत्कर्ष बिंदु भी।

इति।

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 9: 49 बजे, रविवार 25.2.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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