हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पुरस्कृत आलेख – मुंशी प्रेमचंद जी : कथा संवेदना के पितामह… ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पुरस्कृत आलेख ☆ मुंशी प्रेमचंद जी : कथा संवेदना के पितामह… ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव

 ‘प्रेमचन्द जी की भाव अनुरागी साहित्य तरंगिणी’ 

साहित्य का किसलिए निर्माण किया जाता है ? इसके जवाब के लिए मुंशी प्रेमचंद जी के शब्दों का आधार लें तो, “साहित्य केवल मनोरंजन की वस्तु नहीं और नायक एवं नायिका के विरह और मिलन का राग नहीं अलापता। उसका उद्देश्य है बहुत दूरगामी है। जीवन की समस्याओं का चित्रण, उन पर अपने विचारों के आधार पर समीक्षा करना और समस्या के निवारण का प्रयत्न करना। साहित्य का सम्बन्ध उतना बुद्धि से नहीं, जितना भावों से है। बुद्धि का प्रदर्शन करना है तो दर्शन शास्त्र है, विज्ञान है, नीतिपाठ है।भावाभिव्यक्ति के लिए उपन्यास, कहानियाँ और नाटक हैं।”

उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण, सम्पादकीय जैसे बहुविध प्रांतों में साहित्य सृजन करने वाले मुंशी प्रेमचंद (धनपत राय श्रीवास्तव-जन्म:३१ जुलाई १८८०, मृत्यु:८ अक्टूबर १९३६) के साहित्य में ३०० से अधिक कहानी, ३ नाटक, १५ उपन्यास, ७ बाल-पुस्तकें आदि शामिल हैं। वे न केवल बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे, अपितु उनके यथार्थवादी लेखन में हर प्रकार की मानवी संवेदनाओं का मार्मिक चित्रण है। उस समय का हिंदी साहित्य काल्पनिक, धार्मिक और पौराणिक चरित्रों पर आधारित था। इसके विपरीत मुंशी जी के साहित्य में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का चित्रण किया गया। इसी कारण प्रेमचंद जी का साहित्य तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक दस्तावेज प्रतीत होता है, जिसमें समाज-सुधार आंदोलन, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आंदोलनों के सामाजिक प्रभावों का वास्तववादी चित्रण है। मुंशी जी के साहित्य में दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, लिंग भेद, विधवा विवाह, शहरों की आधुनिकता से जूझता गाँवों का पिछड़ापन, स्त्री-पुरुष विषमता और समानता का द्वंद्व आदि उस दौर की समस्याएं प्रमुखता से दिखाई देती हैं। उनके साहित्य की प्रमुख देन है यथार्थवाद के चौखटे में समाने को उत्सुक भारतीय संस्कृति का आदर्शवाद! उनके द्वारा निर्मित व्यक्तिचित्र भावानुभूति एवं भावाभिव्यक्ति की चरम सीमा लांघकर हमारे दिलो-दिमाग में स्थाई रूप से बसे हैं। उन गरीबों का एक एक चीथड़ा हमारे ह्रदय को तार-तार कर देता है। जब जमींदार उन पर लाठी बरसाता है, तो उनकी चीखें हमारे कानों के पर्दों को मानों चीर देती हैं। उनकी भूख-प्यास हमें त्रासदी पहुँचाती है। १ गाय खरीदने को तरसने वाले ‘गोदान’ के होरी के जीवनान्त को कैसे भूलें हम ? मुझे आभास होता है कि, ‘पूस की रात’ कहानी के हल्कू और मुन्नी नायक नायिका न होकर महज़ ३ रुपए का कम्बल ही असली नायक है, जिसके अभाव में हल्कू पूस की रात की भीषण सर्दी का सामना करते-करते अधमरा हो जाता है। ‘कफ़न’ कहानी के बाप-बेटे घीसू और माधव की जिन्दा लाशें एवं माधव की घरवाली की वास्तविक लाश, दोनों में कुछ अधिक फर्क नहीं महसूस होता। ‘निर्मला’ मात्र उपन्यास की नायिका नहीं है, वह भारत के स्त्री वर्ग की त्रासदी को उजागर करती है। दहेज़ के अभाव में विवाह टूटना, अधेड़ उम्र के व्यक्ति से विवाह होना, एक बेटी के मातृत्व का बोझ और समाज से घोर उपेक्षा, इन सबसे ‘यमराज’ ही उसे मुक्ति दिलाता है। मृत्युदाता की प्रतीक्षा करने वाली ऐसी ‘निर्मला’ आज के समाज में भी जीवित है। मुंशी जी की भावाभिव्यक्ति से पशुधन भी अछूता नहीं था। ‘दो बैलों की कथा’ कहानी के ‘हीरा एवं मोती’ एक संवेदनशील पात्र बन पड़े हैं। इस मुई गरीबी के दाग की ऐसी क्या मज़बूरी है कि, कोई भी साबुन उसे मिटा नहीं पाया, चाहे वह किसी भी छाप का हो। यह ‘गरीबी की रेखा’ जिस किसी ने खींची है, वह तो लक्ष्मण रेखा की भांति अमर, अमिट और अजेय बन गई है। लोग कहते हैं कि, मुंशी प्रेमचंद हो या सत्यजीत रे हो, उन्होंने भारत की गरीबी के ग्लैमर के पत्ते को भुनाया है, लेकिन साहित्य हो या फिल्म हो, वे तो समाज का दर्पण होते हैं न! अगर यह न होता तो, हमें ‘गोदान’ की धनिया और झुनिया यूँ हमारे समक्ष मानों जीते-जागते इंसान के रूप में नजर नहीं आते। क्या समाज में ‘गबन’ उपन्यास के नायक-नायिका रमानाथ और जलपा मौजूद नहीं है ? लालच और नैतिकता का पतन तो आज कई गुना वृद्धिगत हुआ है।

‘नमक का दरोगा’ प्रेमचंद द्वारा रचित लघु कथा है, जो आज के दिन भी सामायिक लगती है। एक सम्मानित ईमानदार सरकारी नौकर अर्थात नामक नमक का दरोगा वंशीधर और भ्रष्टाचारी प्रतिष्ठित जमींदार पंडित अलोपीदीन के बीच का यह ‘धर्मयुद्ध’ है। मुन्शी जी की कहानी ऐसे बुनी गई है कि, किसी भी हिंदी फिल्म के ईमानदार नायक और बेईमान खलनायक की कहानी लगे। सत्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा और कर्मपरायणता जैसे मानव मूल्यों का आदर्श रूप यहाँ बहुत असरदार तरीके से प्रस्तुत किया गया है। इस सिलसिले में मुझे मुंशी जी की ‘परीक्षा’ नामक कहानी का स्मरण हुआ। अपने राजा के लिए अपना उत्तराधिकारी योग्य दीवान चुनने वाले सुजानसिंह परीक्षार्थियों की सत्यनिष्ठा और परोपकार की परीक्षा लेते हैं एवं माटी से सने साधारण युवक में ‘दीवान’ खोज लेते हैं।

कुल मिलाकर देखें तो प्रेमचंद जी के पात्र भारतीय संस्कृति का सच्चा रूप दर्शाते हैं। उनके ‘सौंधी देसी मटमैली भावनाओं से परिपूर्ण’ साहित्य में पिता का वात्सल्य, पुत्र का समर्पण, पत्नी का पवित्र प्रेम और ऐसे ही कई नातों के मनमोहक ‘माया जाल’ फैले हैं।

अगर मुंशी प्रेमचंद द्वारा निर्मित पात्र अमर हैं, तो उनकी असीम लेखन प्रतिभा व गहन अवलोकन शक्ति के कारण। क्या हम इस आपा-धापी के युग में अभी भी अपनी संवेदनशीलता को संजोए हुए हैं ? अगर इसकी जाँच पड़ताल करनी है तो, एक ‘परीक्षा’ देनी होगी। प्रेमचंद के किसी उपन्यास या कहानी की पुस्तक को पढ़ना होगा। पढ़ते-पढ़ते क्या आपकी ऑंखें नम हुईं ? क्या ‘गोदान’ के होरी के ‘अंतिम समय’ आपके मन में उथल-पुथल मची ? क्या ‘निर्मला’ का एक अधेड़ के साथ विवाह का प्रसंग पढ़ने पर आपको उसकी विवशता जान अपनी किसी विवशता का आभास हुआ ? अगर ऐसा है तो, आपकी रगों में लाल-नीला खून ही नहीं, अपितु जीवंत संवेदना की लहरें भी दौड़ रही हैं। आप एक भावनाशील इंसान हैं। समाज परिवर्तन हेतु हमें ऐसे ही ‘जिन्दादिल’ इंसानों की जरुरत है।

© डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

ठाणे

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 469 ⇒ माड़ साब ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “माड़ साब।)

?अभी अभी # 469 ⇒ माड़ साब? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह सरकारी दफ्तरों में एक किस्म बड़े बाबू की होती है, ठीक उसी तरह सरकारी स्कूलों में शिक्षक की एक किस्म होती है, जिसे माड़ साब कहते हैं। बड़े बाबू, नौकरशाही का एक सौ टका शुद्ध, टंच रूप है, जिसमें रत्ती भर भी मिलावट नहीं, जब कि शिक्षा विभाग में माड़ साब जैसा कोई शब्द ही नहीं, कोई पद ही नहीं।

माड़ साब, एक शासकीय प्राथमिक अथवा माध्यमिक विद्यालय के अध्यापक यानी शिक्षक महोदय, जिन्हें कभी मास्टर साहब भी कहा जाता था, का अपभ्रंश यानी, बिगड़ा स्वरूप है। ।

हमें आज भी याद है, हमारी प्राथमिक स्कूल की नर्सरी राइम, ए, बी, सी, डी, ई, एफ, जी, क्लास में बैठे पंडित जी … (रिक्त स्थानों की पूर्ति आप ही कर लीजिए) होती थी। यह तब की बात है, जब छम छम छड़ी की मार से, विद्या धम धम आती थी। बेचारे पंडित जी, कब मास्टर जी हो गए, और जब अधेड़ होते होते, माड़ साब हो गए, उन्हें ही पता नहीं चला।

इस प्राणी में यह खूबी है, कि यह केवल सरकारी स्कूलों में ही नजर आता है। हायर सेकंडरी के कुछ वरिष्ठ शिक्षक लेक्चरर अथवा व्याख्याता कहलाना अधिक पसंद करते हैं। आजकल प्राइवेट स्कूल, पब्लिक स्कूल कहलाए जाने लगे हैं, वहां सर अथवा टीचर किस्म के शिक्षक उपलब्ध होते हैं, जिनकी तनख्वाह माड़ साहब जितनी तो नहीं होती, लेकिन जिम्मेदारी धड़ी भर होती है। ।

वैसे यहां सरकारी स्कूलों में शिक्षिका भी होती हैं, जिन्हें कभी सम्मान से बहन जी कहा जाता था। लेकिन जब बहन जी भी घिस घिस कर भैन जी कहलाने लगी, तो उन्हें सम्मान से मैडम अथवा टीचर जी कहकर संबोधित किया जाने लगा।

मैडम शब्द के बारे में भी हमारे कार्यालयों में बड़ी भ्रांति है। शिक्षा के क्षेत्र से प्रचलित यह शब्द किसी विवाहित महिला के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए, लेकिन माड़ साब की तरह और मिस्टर की तरह मैडम शब्द हर कामकाजी महिला, और एक आम शिक्षिका के लिए प्रयुक्त होने लग गया। ।

एक बार स्थिति बड़ी विचित्र पैदा हो गई, जब किसी बैंक में एक रिटायर्ड फौजी पेंशनर ने किसी महिला कर्मचारी से पूछ लिया, are you married ? उस बेचारी कुछ दिन पहले ही लगी लड़की ने कह दिया, no Sir, I am still a bachelor ! इस पर उस पेंशनर ने आश्चर्य व्यक्त किया, why then, these people call you Madam, I dont understand. आपके साथी आपको मैडम क्यों कहते हैं, मुझे समझ में नहीं आता।

वैसे मास्टर शब्द को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए ! जो किसी भी विधा में, अपने इल्म में दक्ष हो, उसे मास्टर कहा जाता है। मास्टर्स की डिग्री वैसे भी बैचलर्स की डिग्री से बड़ी होती है। ।

संगीत और नृत्य में मास्टर जी, किसी उस्ताद अथवा गुरु से उन्नीस नहीं होते।

अध्यात्म के क्षेत्र में जो अदृश्य शक्तियां अमृत काल में, साधकों की सहायता करती हैं, उन्हें भी मास्टर ही कहते हैं। महावतार बाबा, युक्तेश्वर गिरी और लाहिड़ी महाशय की गिनती ऐसे ही मास्टर्स में होती है।

माड़ साब के साथ ऐसा कोई धर्मसंकट नहीं। उन्हें माड़ साब सुनने की वैसे ही आदत है, जैसे एक बड़े बाबू आजीवन घर और बाहर बड़े बाबू ही कहलाते चले आ रहे हैं। मेरे कई पारिवारिक और घनिष्ठ मित्रों को मुझे भी मजबूरन माड़ साब ही कहना पड़ता है। अगर कभी गलती से उनका नाम लेने में भी आ गया, तो सामने वाला सुधार कर देता है, अच्छा वही माड़ साब ना। ।

रिश्तों पर आजकल घनघोर संकट चल रहा है। प्रेम के संबंध और रिश्ते गायब होते जा रहे हैं, रिटायर्ड अकाउंटेंट और शिक्षाकर्मी और शिक्षाविद् जैसे भारी भरकम शब्द अधिक प्रचलन में है। कल ही मैने अपने एक प्रिय माड़ साब को खोया है, ईश्वर इन रिश्तों की रक्षा करे ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 100 – देश-परदेश – हिम्मत-ए-मर्दां मदद-ए-ख़ुदा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

आलेख # 100 ☆ देश-परदेश – हिम्मत-ए-मर्दां मदद-ए-ख़ुदा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज के समाचार पत्र में मुख्य बिंदु के रूप में प्रकाशित पेरिस में हुए ओलंपिक का मंथन पढ़ा। अच्छा लगा, हमारे पैराओलिंपिक खिलाड़ियों का प्रदर्शन साधारण ओलंपियंस के मुकाबले कहीं बेहतर रहा है।

मन में जिज्ञासा जाग्रत हुई, ऐसा क्यों हो रहा है? सभी इस देश की माटी से जुड़े हुए हैं। प्रशिक्षण सुविधा ओलंपियन खिलाड़ियों के लिए भी बेहतर हैं। वो बिना किसी के निजी सहयोग से एक स्थान से दूसरे स्थान आसानी से भी आ जा सकते हैं। पैराओलिंपियाई खिलाड़ी को समाज में भी उचित सम्मान नहीं मिलता हैं।

आशा करते हैं, देश की सरकार उनका भी अभिनंदन करेगी, जन मानस भी उनकी वापसी पर उतना ही स्वागत सत्कार करेगा, जितना विनेश फोगट का हुआ था, या हमारे क्रिकेटर का भी होता है। सदी के महानायक उनको भी केबीसी में आमंत्रित कर सकते हैं। इन खिलाड़ियों को भी उद्योग जगत अपने उत्पाद का विज्ञापन करवा कर, अन्य को भी प्रेरित कर सकते हैं। सच्चाई, तो आने वाला समय ही बता पाएगा।

इस बाबत कुछ प्रबुद्ध मित्रों से बातचीत भी हुई, अंत में ये निष्कर्ष निकला कि हम अधिकतर भारतीय कठिन समय/ परिस्थितियों आदि में अपनी योग्यता का बेहतर प्रदर्शन करते हैं। ये सब पैराओलैंपियन बहुत कठिनाई से अपना जीवन व्यतीत करते हैं। हिम्मत और हौंसला बुलंद हो तो कुछ भी मुमकिन हो सकता हैं। हमारे यहां वैसे भी कहते है” मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 468 ⇒ बच्चे, मन के सच्चे ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बच्चे, मन के सच्चे।)

?अभी अभी # 468 ⇒ बच्चे, मन के सच्चे? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बच्चे जब पैदा होते हैं, तो भगवान का रूप होते हैं, उनमें कोई विकार नहीं होता, अच्छा बुरा, सच झूठ, बड़ा छोटा, और पाप पुण्य से वे परे रहते हैं। लेकिन जैसे जैसे वे बड़े होते जाते हैं, उनकी लीला पर भी माया का प्रभाव पड़ने लगता है।

कौन माता पिता नहीं चाहते, उनकी संतान बड़ी होकर अपने कुल और वंश का नाम ऊंचा करे। उसकी अच्छी परवरिश होती है और उसे अच्छे संस्कार दिए जाते हैं। शिक्षा दीक्षा और नैतिक मूल्यों का भी पाठ पढ़ाया जाता है। सच बोलने की तो उसको एक तरह की घुट्टी ही पिलाई जाती है। फिर अचानक ऐसा क्या हो जाता है कि अम्मा देख, तेरा मुंडा बिगड़ा जाए, वाली नौबत आ जाती है। ।

बच्चे शैतानी करते हैं, और उन्हें बार बार उनके भले के लिए टोका भी जाता है, क्योंकि बालक अबोध होता है, उसे अच्छे बुरे का भान नहीं रहता। नन्हा सा बालक, मौका देखते ही मिट्टी मुंह में भर लेता है, मिट्टी क्या उसका बस चले तो वह सांप बिच्छू भी मुंह में भर ले। हर चीज उसको मुंह में लेने की आदत जो होती है।

समझाने, पुचकारने और जरूरत पड़ने पर उसे डांटा भी जाता है, और मूसल से बांधा भी जाता है। माखन चोरी और झूठ जैसी बाल लीलाएं तो कन्हैया भी करते थे, अगर हमारा कन्हैया करता है, तो क्या गलत करता है। ।

लेकिन ऐसा नहीं होता। बच्चों को सबक सीखने पाठशाला भी जाना पड़ता है, और शैतानी करने पर दंडित भी होना पड़ता है। बढ़ती उम्र, संगति और परिवेश का असर तो उस पर पड़ता ही है।

हर बच्चा हरिश्चंद्र का अवतार नहीं होता। झूठ बोलना वह हम से ही सीखता है। बच्चों से मार मारकर सच उगलवाया जाता है। ज्यादा लाड़ प्यार और अधिक सख्ती, दोनों ही इस स्थिति में काम नहीं आती। बढ़ती उम्र में भी अगर आपका बालक सुशील, सुसंस्कृत और आज्ञाकारी है तो आप एक खुशनसीब अभिभावक हैं।।

बाल मन बड़ा विचित्र होता है। बढ़ती उम्र के बच्चों की अपनी समस्या होती है, जहां एक कुशल पेरेंटिंग की जरूरत होती है। बाल मनोविज्ञान समझना इतना आसान भी नहीं। मन्नू भंडारी का आपका बंटी बाल मनोविज्ञान का एक अनूठा दस्तावेज है। माता पिता के टूटते संबंधों का असर बालक पर भी पड़ता है। बाल संवेदना आपका बंटी का मूल विषय है।

नई पौद ही तो गुलशन को गुलजार करती है। एक एक बच्चा इस देश की रीढ़ की हड्डी है। पालक, शिक्षक, मित्र, पड़ोसी, रिश्तेदार सभी की इसमें भागीदारी होती है। केवल सच्चाई और ईमानदारी ही बच्चों के चरित्र का निर्माण करती है। बच्चे झूठ क्यों बोलते हैं, यह प्रश्न आज भी विचारणीय है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 256 – उड़ जाएगा हंस अकेला… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 256 उड़ जाएगा हंस अकेला… ?

आनंदलोक में विचरण कर रहा हूँ। पंडित कुमार गंधर्व का सारस्वत कंठ हो और दार्शनिक संत कबीर का शारदीय दर्शन तो इहलोक, आनंदलोक में परिवर्तित हो जाता है। बाबा कबीर के शब्द चैतन्य बनकर पंडित जी के स्वर में प्रवाहित हो रहे हैं,

उड़ जाएगा हंस अकेला

जग दर्शन का मेला…!

आनंद, चिंतन को पुकारता है। चिंतन की अंगुली पकड़कर विचार हौले-हौले चलने लगता है। यह यात्रा कहती है कि ‘मेल’ शब्द से बना है ‘मेला।’ मिलाप का साकार रूप है मेला। दर्शन जगत को मेला कहता है क्योंकि मेले में व्यक्ति थोड़े समय के लिए साथ आता है, मिलाप का आनंद ग्रहण करता है, फिर लौट जाता है अपने निवास। लौटना ही पड़ता है क्योंकि मेला किसीका निवास नहीं हो सकता। गंतव्य के अलावा कोई विकल्प नहीं।

विचार अब चलना सीख चुका। उसका यौवनकाल है। उसकी गति अमाप है। पलक झपकते जिज्ञासा के द्वार पर आ पहुँचा है।  जिज्ञासा पूछती है कि महात्मा कबीर ने ‘हंस’ शब्द का ही उपयोग क्यों किया? वे किसी भी पखेरू के नाम का उपयोग कर सकते थे फिर हंस ही क्यों? चिंतन, मनन समयबद्ध प्रक्रिया नहीं हैं। मनीषी अविरत चिंतन में डूबे होते हैं। समष्टि के हित का भाव ऐसा, सात्विकता ऐसी कि वे मुमुक्षा से भी ऊपर उठ जाते हैं। फलत: जो कुछ वे कहते हैं, वही विचार बन जाता है। अपने शब्दों की बुनावट से उपरोक्त रचना में द्रष्टा कबीर एक अद्वितीय विचार दे जाते हैं।

विचार कीजिएगा कि हंस सामान्य पक्षियों में नहीं है। हंस श्वेत है, शांत वृत्ति का है। वह सुंदर काया का स्वामी है। आत्मा भी ऐसी ही है, सुंदर, श्वेत, शांत, निर्विकार। हंस गहरे पानी में तैरता है तो हज़ारों फीट ऊँची उड़ान भी भरता है। आकाशमार्ग की यात्रा हो अथवा वैतरणी पार करनी हो, उड़ना और तैरना दोनों में कुशलता वांछनीय है।

हंस पवित्रता का प्रतीक है। शास्त्रों में हंस की हत्या, पिता, गुरु या देवता की हत्या के तुल्य मानी गई है।

हंस विवेकी है। लोकमान्यता है कि दूध में जल मिलाकर हंस के सामने रखा जाए तो वह दूध और जल का पृथक्करण कर लेता है। संभवत:  ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ मुहावरा इसी संदर्भ में अस्तित्व में आया। हंस के नीर-क्षीर विवेक का भावार्थ है कि स्वार्थ, सुविधा या लाभ की दृष्टि से नहीं अपितु अपनी बुद्धि, मेधा, विचारशक्ति के माध्यम से उचित, अनुचित को समझना। मनुष्य जब भी कुछ अनुचित करना चाहता है तो उसे चेताने के लिए उसके भीतर से ही एक स्वर उठता है। यह स्वर नीर-क्षीर विवेक का है, यह स्वर हंस का है। हंस को माँ सरस्वती के वाहन के रूप में मिली मान्यता अकारण नहीं है।

कारणमीमांसा से उपजे अर्थ का कुछ और विस्तार करते हैं। दिखने में हंस और बगुला दोनों श्वेत हैं। मनुष्य योनि हंस होने की संभावना है। विडंबना है कि इस संभावना को हमने गौण कर दिया है।  हम में से अधिकांश बगुला भगत बने जीवन बिता रहे हैं। जीवन के हर क्षेत्र में बगुला भगतों की भरमार है। हंस होने की संभावना रखते हुए भी भी बगुले जैसा जीना, जीवन की शोकांतिका है।

मनुष्य को बुद्धि का वरदान मिला है। इस वरदान के चलते ही वह नीर-क्षीर विवेक का स्वामी है। विवेक होते हुए भी अपनी सुविधा के चलते ढुलमुल मत रहो। स्पष्ट रहो। सत्य-असत्य के पृथक्करण का साहस रखो। यह साहस तुम्हें अपने भीतर पनपते बगुले से मुक्ति दिलाएगा, तुम्हारा हंसत्व निखरता जाएगा। जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य जी कहते हैं कि महर्षि वेदव्यास जब महाभारत का वर्णन करते हैं तो पांडवों का उदात्त चरित्र उभरता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वे पांडवों के प्रवक्ता हैं। सनद रहे कि महर्षि वेदव्यास सत्य के प्रवक्ता हैं।

अपनी एक कविता स्मृति में कौंध रही है,

मेरे भीतर फुफकारता है

काला एक नाग,

चोरी छिपे जिसे रोज़ दूध पिलाता हूँ,

ओढ़कर चोला राजहंस का

फिर मैं सार्वजनिक हो जाता हूँ…!

दिखावटी चोले के लिए नहीं अपितु उजला जीवन जिओ अपने भीतर के हंस के लिए। स्मरण रहे, वह समय भी आएगा जब हंस को उड़ना होगा सदा-सर्वदा के लिए। इस जन्म की अंतिम उड़ान से पहले अपने हंस होने को सिद्ध कर सको तो जन्म सफल है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 गणेश चतुर्थी तदनुसार आज शनिवार 7 सितम्बर को आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार मंगलवार 17 सितम्बर 2024 तक चलेगी।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है- ॐ गं गणपतये नमः। 🕉️

साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें।

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 467 ⇒ हरतालिका तीज ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हरतालिका तीज।)

?अभी अभी # 467 हरतालिका तीज? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज गणेश चतुर्थी है, कल हरतालिका थी। बचपन में हम इसे हड़ताली तीज कहते थे, क्योंकि इस दिन घर में महिलाओं की खाने पीने की छुट्टी रहती थी। हमारे भारतवर्ष में, वर्ष भर में इतने व्रत उपवास और तीज त्योहार होते हैं कि शायद ही कोई दिन खाली जाता होगा।

कुछ विशेष दिनों को छोड़कर मुझे याद नहीं रहता, आज कौन सी तिथि है। यही हाल हमारी धर्मपत्नी जी का है, उन्हें सभी तिथि, वार और त्योहार तो कंठस्थ हैं, लेकिन अगर पूछा जाए, आज तारीख क्या है, तो वे अखबार की ओर नजरें दौड़ाती हैं। ।

वार त्योहार और तिथि का तो यह हाल है कि आप बस गिनते जाओ गिनती की तरह। गुड़ी पाड़वा, भाई दूज, सातोड़ी तीज, गणेश चतुर्थी, कभी नागपंचमी तो कभी ऋषि पंचमी, बैंगन छठ, सीतला सप्तमी, जन्माष्टमी, विजया दशमी, डोल ग्यारस/देव उठनी ग्यारस, बज बारस, धनतेरस, अनंत चतुर्दशी, और गुरु/बुद्ध पूर्णिमा अथवा सर्व पितृ अमावस्या। मजाल है एक तिथि खाली छूट जाए। किसी का आज श्रावण सोमवार, किसी का मंगलवार तो किसी का बुधवार का व्रत। गुरुवार को एक टाइम, शुक्र है शुक्रवार बच गया। फिर शनिवार का व्रत। एकादशी कैसे भूल सकते हैं। बस, संडे ही ऑफ समझिए।

यों तो महिलाओं के लिए सभी त्योहार और व्रत उपवास महत्वपूर्ण होते हैं लेकिन करवा चौथ और हरतालिका तीज की बात ही कुछ और है क्योंकि ये दोनों व्रत वे हमारे लिए करती हैं। हरतालिका व्रत तो कुंवारी कन्याएं भी कर सकती हैं ताकि उन्हें शिव जी जैसा पति मिल सके। पुरुष को सब कुछ पका पकाया ही मिल जाता है।

उसे अच्छी पत्नी पाने के लिए इतने पापड़ नहीं बेलने पड़ते। ।

निर्जला व्रत किसे कहते हैं, बाप रे !आदमी का तो गुटका नहीं छूटता, वह क्या व्रत करेगा। इसे कहते हैं व्रत और निष्ठा ! विष्णु भगवान का ऑफर ठुकरा दिया पार्वती जी ने, शिव जी को पाने के लिए। बात वही, लेकिन इसमें गूढ़ अर्थ है, आप नहीं समझोगे। दिल लगा जब शिव जी से, तो विष्णु जी क्या चीज हैं। यहां तो पुरुष सिर्फ दहेज का माल देखता है, वह क्या समझे, गुण क्या चीज होती है।

आज एक आदर्श पुरुष नारी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर व्रत उपवास भले ही कर ले, उनके साथ हरतालिका और करवा चौथ का व्रत भी रख ले, फिर भी उसकी निष्ठा और समर्पण में वह बात नहीं जो एक भारतीय नारी में है। इतना धर्मपरायण पुरुष नहीं हो सकता कि रात भर गीत गाता हुआ जागरण करे। उसे नौकरी धंधे भी संभालना है। उसका कंधा बड़ा है, भले ही पत्नी better half हो। ।

पुरुष इतना लालची है कि जब वह इश्वर को अपने जप तप से प्रसन्न कर लेता है तो वरदान में धन, संपत्ति और औलाद मांगता है, जब कि स्त्री इतनी आत्म संतुष्ट होती है, कि ईश्वर से वह, और कुछ नहीं, बस एक अच्छा वर मांगकर ही संतुष्ट हो लेती है। मांग के साथ तुम्हारा, मैने मांग लिया संसार। अब तो मांग भरो सजना।

पुरुष की अपेक्षाओं का कोई अंत नहीं। उसे तो अपनी होने वाली वधू में भी एक सर्वगुण सम्पन्न स्त्री की तलाश होती है।

हमें भी अपनी होने वाली धर्मपत्नी से कई आशाएं, अपेक्षाएं और अरमान थे। हम चाहते थे, उसके भी कुछ सपने हों, अरमान हों, अपने पति से भी कुछ अपेक्षाएं हों।

इसी उद्देश्य से जब हमने विवाह से पहले उनके सपनों, अरमानों और लक्ष्य के बारे में जानकारी ली, तो उनका एक ही जवाब था, मेरा तो जीवन का एक ही सपना है, मुझे एक अच्छा पति मिल जाए बस। हम समझ गए, तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा और तुम्हीं देवता वाला मामला है यह तो। समर्पण नहीं, टोटल सरेंडर। दिल के अरमाॅं (खुशी के?) आंसुओं में घुल गए। ।

अगर हमारी महिलाएं इतनी धार्मिक और पतिव्रता नहीं हों, तो बेचारे संत महात्माओं के कथा प्रवचन कौन सुने। शिव कथा, भागवत कथा, अथवा नानी बाई का मायरा, श्रोता अधिकतर महिलाएं ही होती हैं। कहीं कहीं तो सास बहू एक साथ भी देखी जा सकती हैं।

पुरुष जैसा भी हो चलेगा।

बस संसार ऐसा ही चलना चाहिए। बेहतर की उम्मीद पुरुष से ही की जा सकती है। नारी ने तो घर के बाहर भी अपनी उपयोगिता सिद्ध ही नहीं कर दी, अपना लोहा भी मनवा लिया है। आधुनिकता की कितनी भी हवा बह ले, वह एक भारतीय नारी के आदर्श, संस्कार, और समर्पण को कम नहीं कर सकती। गृहस्थी की गाड़ी दो पहिये पर ही चलेगी, चाहे घर में साइकिल हो अथवा चार पहिये का वाहन। निष्ठा और समर्पण ही भारतीय नारी का वास्तविक आभूषण है, अनमोल गहना है। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 466 ⇒ कांच और कैमरा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कांच और कैमरा।)

?अभी अभी # 466 ⇒ कांच और कैमरा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिसे दुनिया आइना, शीशा अथवा दर्पण कहती है, हमारे घर में उसे कांच कहा जाता था। तब साधारण घरों में आईने वाली स्टील की आलमारी और दहेज वाली, कांच लगी, ड्रेसिंग टेबल भी नहीं होती थी, ना तो कोई अटैच बाथ होता था और ना ही कोई बैडरूम। हां घरों के आले में एक जगह कांच, कंघा और एक छोटी लोहे की डब्बी, अथवा कांच की शीशी में खोपरे का तेल रखा जाता था। ठंड में खोपरे का तेल ठरक जाता था, यानी जम जाता था। स्कूल जाने की जल्दी में उसे नहाने के गर्म पानी में डुबकी दी जाती थी, वह बेचारा, इस उपकार के फलस्वरूप, अंदर से पिघल जाता था। कभी कभी आपातकाल में सरसों का तेल ही बालों में चुपड़ लिया जाता था। कुछ संपन्न घरों में दीवारों पर फ्रेम में किसी तस्वीर की तरह टंगा, आइना भी नजर आ जाता था।

मुझे कैमरे का शौक ना तब था, न आज है। एक समय था, जब अखबारों और पत्रिकाओं में विज्ञापन आते थे, जापानी कैमरा, वीपीपी डाक से मंगाइए, मात्र ५० रुपए में।

सत्तर और अस्सी के दशक में शादियों के एल्बम धड़ाधड़ बनते थे। जिसके घर भी मिलने जाओ, वह शादी का एल्बम जरूर चाव से दिखाता था। कुछ श्वेत श्याम तस्वीरें तो बाबा आदम के जमाने की लगती थी। लेकिन कितना रंगीन होता था न, शादी का एल्बम। ।

गर्मी की छुट्टियां हों अथवा एलटीसी लिया हो, शिमला मसूरी के साथ साथ तीरथ भी ही जाता था। बहती गंगा में कौन हाथ नहीं धोता। बैडिंग अथवा होल्डाल के साथ साथ एक अदद कैमरे की व्यवस्था भी की जाती थी। बाद में तो कैमरे के रोल भी रंगीन मिलने लग गए थे। यात्रा के बाद कैमरे के रोल धुलवाने पड़ते थे, अच्छा खासा इंतजार हुआ करता था। आज की तरह नहीं कि, लिया मोबाइल और खचाखच बीस पच्चीस एक जैसी तस्वीर खींच डाली। कुछ प्रिंट खराब भी निकल जाती थी। यानी बड़ा महंगा शौक था, फोटोग्राफी का।

कुछ टूरिस्ट स्पॉट्स पर तो पेशेवर फोटोग्राफर घूमा करते थे, आपके फोटो खींचकर बाद में डाक से भिजवा दिया करते थे।

अब तो खुदखेंच का जमाना है, आप चाहो तो मोदी जी के साथ सेल्फी हो जाए। ।

अगर दर्पण झूठ नहीं बोलता, तो कैमरा भी कड़वा सच नहीं छुपाता। कुछ दिनों से मुझे अपना चेहरा बदला बदला, और सिर के बाल उड़े उड़े, यानी

उजाड़ फसल, और बचे खुचे बाल, मानो धूप में सफेद किये हुए, नजर आने लगे हैं।

अपनों से तो आप नजर छुपा सकते हो, लेकिन अपने आपको कैसे छुपाओगे। कैमरा तो दर्पण का भी बाप है। अगर खुद की सूरत से इतना ही प्यार है, तो बालों को डाई करो, अमिताभ की तरह दाढ़ी रख लो, सफेदी वरदान बन जाएगी। ।

यही तो फर्क है, सूरत और सीरत में। पुरानी मशहूर अभिनेत्रियों को ही देख लीजिए, कहां गया उन हूरों का नूर। लेकिन सब कितनी मशहूर। जीवन का

अध्यात्म अपने अंदर झांकने में है, आईने और कैमरे से शिकायत करने में नहीं। बाहर सब कांच ही कांच है, असली हीरा तो हमारे अंदर ही मौजूद है।

शैलेन्द्र ने शायद आज से सत्तर वर्ष पूर्व यानी सन् १९५३ में ही मेरे लिए यह गीत लिखा होगा, फिल्म शिकस्त का, जो मुझे आज भी प्रेरणा दे रहा है, मेरी आंखें खोल रहा है;

नई जिंदगी से प्यार करके देख।

रूप का सिंगार करके देख।।

इसपे जो भी है,

निसार करके देख।

नई ज़िंदगी से प्यार करके देख।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #248 ☆ चर्चा  और आरोप… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख चर्चा  और आरोप… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 248 ☆

☆ चर्चा  और आरोप… ☆

चर्चा  और आरोप यह दोनों ही सफल व्यक्ति के भाग्य में होते हैं। लोगों के दृष्टिकोण को लेकर ज़्यादा मत सोचिए, क्योंकि सबसे ज़्यादा वे लोग ही आपका मूल्याँकन करते हैं, जिनका ख़ुद कोई मूल्य व अस्तित्व नहीं होता। आज के प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में मानव एक-दूसरे को पछाड़ कर आगे निकल जाना चाहता है, क्योंकि वह कम समय में अधिकाधिक धन व शौहरत पाना चाहता है और भीड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहता। वैसे भी मानव अक्सर दूसरों को सुखी देखकर अधिक दु:खी रहता है। उसे अपने सुखों का अभाव इतना नहीं खलता; जितना दूसरों के प्रति ईर्ष्या भाव आहत करता है। यह एक ऐसी लाइलाज समस्या है, जिसका निदान नहीं है। आप अपनी सुरसा के मुख की भाति बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश लगा कर संतोष व सुख से जी सकते हैं और दूसरों के बढ़ते कदमों को देख उनका अनुकरण तो कर सकते हैं। स्पर्द्धा भाव को अपने अंतर्मन में संजोकर रखना श्रेयस्कर है ,क्योंकि मन में ईर्ष्या भाव जाग्रत कर हम आगे नहीं बढ़ सकते। ईर्ष्या भाव मन में अक्सर तनाव व अवसाद को जन्म देता है, जो आपको अलगाव की स्थिति प्रदान करता है।

चर्चा सदा महान् लोगों की होती है, क्योंकि वे आत्मविश्वासी, दृढ़-प्रतिज्ञ व परिश्रमी होते हैं। भीड़ प्रतिगामी नहीं होते हैं। उसके बल पर वे जीवन में जो चाहते हैं, उस मुक़ाम को हासिल करने में समर्थ होते हैं। उनका सानी कोई नहीं होता। दूसरी ओर आरोप भी संसार में उन्हीं लोगों पर लगाए जाते हैं, जो लीक से हटकर कुछ करते हैं। वे एकाग्रचित्त होकर निरंतर अपने पथ पर अग्रसर होते हैं, कभी विचलित नहीं होते।

अक्सर आरोप लगाने व आलोचना करने वाले वे लोग ही होते हैं, जिनका अपना दृष्टिकोण व अस्तित्व नहीं होता। वे बेपैंदे लोट होते हैं और  उन्हें थाली का बैगन भी कहा जा सकता है। वे मात्र दूसरों पर आरोप लगा कर प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। ऐसे लोग दूसरों की आलोचना करने में अपना अमूल्य समय नष्ट करते हैं। ‘बिन साबुन पानी बिना, निर्मल किए सुभाय’ वैसे तो कबीर ने भी निंदक के लिए अपने आँगन में कुटिया बनाने का सुझाव दिया है, क्योंकि यही वे प्राणी होते हैं, जो निष्काम भाव से आपको अपने दोषों, कमियों व  अवगुणों से अवगत कराते हैं।

‘तुम कर सकते हो’ जी हाँ! सो! असंभव शब्द को अपने शब्दकोश से बाहर निकाल दीजिए। आप में असीमित शक्तियाँ संचित हैं, परंतु आप उनसे अवगत नहीं होते हैं। आइंस्टीन ने जब बल्ब का आविष्कार किया तो उसे अनेक बार असफलताओं का सामना करना पड़ा। उसके मित्रों ने उससे उस खोज पर अपना समय नष्ट न करने का अनेक बार सुझाव दिया। परंतु उसका उत्तर सुन आप चौंक जाएंगे। अब उसे इस दिशा में पुन: अपना समय नष्ट नहीं करना पड़ेगा कह कर उनके तथ्य की पुष्टि की। अब मैं नए प्रयोग कर शीघ्रता से अपनी मंज़िल को अवश्य प्राप्त कर सकूंगा और उसे सफलता प्राप्त हुयी।।

मुझे स्मरण हो रही है अस्मिता की स्वरचित पंक्तियाँ– ‘तूने स्वयं को पहचाना नहीं।’ नारी अबला नहीं है। उसमें असीम शक्तियाँ हैं, परंतु उसने उन्हें पहचाना नहीं।’ वैसे भी इंसान यदि अपना लक्ष्य निर्धारित कर निरंतर परिश्रम करता रहता है तो वह एकदिन अपनी मंज़िल को अवश्य प्राप्त कर सकता है। अवरोध तो राह में आते रहते हैं। परंतु उसे अपनी मंज़िल पाने के लिए अनवरत बढ़ना होगा। ‘कुछ तो लोग कहेंगे/ लोगों का काम है कहना’ पंक्तियाँ मानव को संदेश देती हैं कि लोग तो दूसरों को उन्नति करते देख प्रसन्न नहीं होते बल्कि टाँग खींचकर आलोचना अवश्य करते हैं। उसे व्यर्थ के आरोपों-प्रत्यारोपों में उलझा कर सुक़ून पाते हैं। परंतु बुद्धिमान व्यक्ति उनसे प्रेरित होकर पूर्ण जोशो-ख़रोश से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। अब्दुल कलाम के मतानुसार ‘ सपनें वे देखें, जो आपको सोने न दें।’ आप रात को सोते हुए सपने न देखें, बल्कि उन सपनों को साकार करने में जुट जाएं और मंज़िल पाने तक चैन से न सोएं। यह सफलता-प्राप्ति का अमोघ मंत्र है।

आप प्रशंसा से पिघलें नहीं, निंदा से पथ-विचलित न हों तथा दोनों स्थितियों में सम रहते हुए अपने निर्धारित पथ पर अग्रसर हों, जब तक आप मंज़िल को प्राप्त नहीं करते। आप इन दोनों स्थितियों को सीढ़ी बना लें तथा लोगों के मूल्यांकन से विचलित न हों। आप अपने भाग्य-विधाता हैं और कठिन परिश्रम व आत्मविश्वास द्वारा वह सब प्राप्त कर सकते हैं, जिसकी आपने कल्पना भी नहीं की थी।

अंत में मैं यह कहना चाहूँगी कि इसके लिए सकारात्मक सोच की दरक़ार है।  सो! जीवन में नकारात्मकता को प्रवेश न करने दें। जीवन में प्रेम, सौहार्द, त्याग, विनम्रता, करुणा आदि सद्भावों को विकसित करें, क्योंकि यह दैवीय गुण मानव को उसकी मंज़िल तक पहुंचाने में मील का पत्थर साबित होते हैं तथा उस व्यक्ति में पंच विचार दस्तक नहीं दे सकते। आप स्वयं में, अपने अंतर्मन में इन गुणों को विकसित कीजिए और बढ़ जाइए अपनी राहों की ओर– जहाँ सफलता आपका स्वागत अवश्य करेगी।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 465 ⇒ विचार और अभिव्यक्ति… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचार और अभिव्यक्ति।)

?अभी अभी # 465 ⇒ विचार और अभिव्यक्ति? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Thoughts & expression

क्या आपने Thought of ocean (थॉट ऑफ़ ओशन) यानी विचारों के महासागर के बारे में सुना है?

विचार हम उसे मानते हैं, जो प्रकट हो। यानी हम व्यक्त को ही विचार मानते हैं। फिर उस विचार का क्या, जो हमारे मन में पैदा तो होता है, लेकिन वह व्यक्त नहीं हो पाता। हमारी अभिव्यक्ति की विधा आज भी बोलने, लिखने और रिकॉर्ड करने तक ही सीमित है। वैसे दिव्यांग मूक बधिरों तक के लिए बिना बोले भी सांकेतिक भाषा विकसित हो चुकी है, दृष्टिबाधित के लिए ब्रेल और द्रुत गति से लिखने के लिए पिटमैन की शॉर्ट हैंड लिपि भी मौजूद है। आप लिखें और आप ही बांचे।

मन और बुद्धि जब मिल बैठते हैं, तो विचारों का जन्म होता है। श्रुति, स्मृति और संचित संस्कार हमारे अंदर एक थिंक टैंक का निर्माण करते हैं। लेकिन असल में शून्य के महासागर में कई विचार मछली की तरह तैरते रहते हैं। करिए, कितना शिकार करना है विचारों का। ।

मन का काम संकल्प विकल्प करना है। जो भी दृश्य आंखों के सामने आता है, वह मन में विचारों को जन्म देता है। विचार, विचार होते हैं, अच्छे बुरे नहीं होते। अगर बुरा विचार आपने मन में रख लिया, तो कोई हर्ज नहीं।

अच्छे विचार ही तो आपको एक अच्छा इंसान बनाते हैं। कौन आपके मन में झांकने बैठा है?

दुनिया में पूरा खेल व्यक्त विचारों का ही तो है। अगर बुरे विचार तो बुरा आदमी, और अच्छे विचार तो अच्छा आदमी। इसीलिए दास कबीर भी कह गए हैं ;

ऐसी वाणी बोलिए ,मन का आपा खोए,

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए.

यानी बात मन, वचन और कर्म पर आ गई। अब अगर हमारे अंदर काम, क्रोध, लोभ और मोह के संस्कार हैं तो हम क्या करें, अपने मुंह पर ताला लगा लें। बस छान छानकर अच्छे विचारों को बाहर निकालो और बुरे विचारों को डस्टबिन में डाल दो।

आजकल तो कचरा भी री – साइकल हो रहा है, घूरे से सोना बनाया जा रहा है, लेकिन बेचारे बुरे विचार यहां से वहां तक रोते फिर रहे हैं, कोई घास नहीं डाल रहा। सबको अच्छे विचारों की तलाश है। ट्रक के ट्रक भरकर अच्छे विचार लाए जा रहे हैं और उनसे मोटिवेशनल स्पीच तैयार हो रही है। कितनी डिमांड है आजकल अच्छे विचारों की। ।

एक गंदी मछली की तरह ही एक बुरा विचार पूरे समाज में गंदगी फैलाता है। अच्छे विचारों की खेती के लिए ही तो हम कीचड़ में कमल खिलाते हैं। जब बुद्धि, ज्ञान और विवेक काम नहीं करते, तो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का सहारा लेते हैं। स्वच्छ भारत का संकल्प जितना आसान है उतना ही मुश्किल है, अच्छे विचारों के भारत का संकल्प।

काश हमारे मन में ऐसा कोई प्युरिफायर होता जो हमारे विचारों को फिल्टर कर देता, अच्छे विचार थिंक टैंक में, बुरे विचार नाली में। हो सकता है, संतों के पास कोई ऐसी फिटकरी हो, जिसके डालते ही, विचारों की गंदगी नीचे बैठ जाती हो, और चित्त पूरा साफ हो जाता है। जहां मन में मैल नहीं, वहां तो बस पूरा तालमेल ही है। हमारे आपके विचार आपस में कितने मिलते हैं। ।

है न ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ शिक्षक दिवस विशेष – आदर्श शिक्षक की गुणधर्मिता  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ शिक्षक दिवस विशेष – आदर्श शिक्षक की गुणधर्मिता  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

अच्छा शिक्षक उत्साही, मिलनसार, सहज, शिक्षार्थियों के साथ तालमेल विकसित करने में सक्षम, अपने छात्रों के विकास के लिए प्रतिबद्ध, मिलनसार, शिक्षार्थियों में लोकप्रिय  और आदर्श प्रतिमान के रूप में अपनी स्थिति के प्रति हमेशा सचेत होता है।एक अच्छे शिक्षक में  कई तरह के हार्ड और सॉफ्ट स्किल्स भी होते हैं जिन्हें प्रभावी शिक्षकों को निखारना चाहिए, जैसे कि कक्षा प्रबंधन से लेकर भावनात्मक बुद्धिमत्ता तक। अपने सबसे अच्छे शिक्षक के बारे में सोचें। जब शिक्षकों के पास आवश्यक ज्ञान और कौशल होगा, तभी वे इतना बड़ा कार्य करने की स्थिति में होंगे।

एक सफल या आदर्श शिक्षक वह शिक्षक होता है जिसे छात्र प्रसन्नता से याद करते हैं, अच्छी तरह से पढ़ाना जानते हैं कि प्रत्येक छात्र समझता है। यह वह शिक्षक है जो स्पष्ट रूप से, संक्षेप में और विषय पर पढ़ाता है। एक शिक्षक की सफलता उसका नियमित शिक्षण है।एक सफल या आदर्श शिक्षक वह शिक्षक होता है जिसे छात्र प्रसन्नता से याद करते हैं, अच्छी तरह से पढ़ाना जानते हैं कि प्रत्येक छात्र समझता है। यह वह शिक्षक है जो स्पष्ट रूप से, संक्षेप में और विषय पर पढ़ाता है। एक शिक्षक की सफलता उसका नियमित शिक्षण है।

एक शिक्षक के रूप में, आप अपने छात्रों की विविध आवश्यक -ताओं को पूरा करने वाले प्रभावी पाठों की योजना बनाने और उन्हें प्रस्तुत करने के लिए जिम्मेदार हैं। आपको अपने विषय के बारे में जानकारी होनी चाहिए और प्रासंगिक पाठ्यक्रम मानकों और सीखने के परिणामों से अवगत होना चाहिए।

एक अच्छे शिक्षक के कुछ गुणों में संचार, सुनना, सहयोग,सहानुभूति और धैर्य के कौशल शामिल हैं। प्रभावी शिक्षण की अन्य विशेषताओं में एक आकर्षक कक्षा उपस्थिति, वास्तविक दुनिया में सीखने का महत्व, सर्वोत्तम प्रथाओं का आदान-प्रदान और सीखने के प्रति आजीवन प्रेम शामिल हैं।

एक शिक्षक का कर्तव्य है कि वह छात्रों को बौद्धिक, सामाजिक, शारीरिक, भावनात्मक और नैतिक रूप से विकसित करने में मदद करे ताकि उनका सर्वांगीण विकास किया जा सके। जब शिक्षकों के पास आवश्यक ज्ञान और कौशल होगा, तभी वे इतना बड़ा कार्य करने की स्थिति में होंगे।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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