(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 111 ☆ देश-परदेश – रंगों की दुनिया ☆ श्री राकेश कुमार ☆
बचपन में लाल, हरा, नीला, काला, पीला और सफेद रंग ही सुने और देखे थे। वो तो बाद में भूरा, ग्रे आदि को समझा था।
आरंभ में नए रंगों का ईजाद पशु पक्षियों या सब्जी फल के नाम से जाने जाना लगा था। गुलाबी को गाज़री रंग कहने लगे थे, बाद में कपड़े वालों ने जबरदस्ती कपड़े बेचने के लिए गुलाबी और गाजरी को अलग रंग बना दिया था। हरा और तोते के रंग को भी अलग अलग मान्यता मिल चुकी हैं। मूंगे रत्न से भी एक नया रंग पैदा हो गया हैं।
ये सब छोड़िए सबसे आसान रंग सफेद और काला रंग की भी फैमिली बन चुकी हैं। काले में टेलीफोन ब्लैक, जेड ब्लैक, तवा ब्लैक ना जाने कितनी शाखाएं बन चुकी हैं। व्हाइट में भी स्नो व्हाइट, ऑफ वाइट, मून वाइट, क्रीमी वाइट ना जाने कितने रंग इन कपड़े और पेंट कंपनियों ने बना डाले हैं।
हमारे देश की महिलाएं स्वयं के बनाए हुए रंग भी बहुत पसंद करती हैं। कत्थे, भूरा रंग को कोकाकोला या काफी रंग कहना हो या फिर नारंगी रंग को फेंटा कलर के नाम से वस्त्र खरीद कर ये कहना ये ही कलर सबसे अधिक फैशन में हैं।
ऊपर की फोटो को पढ़ कर एक मित्र जो सूरत से साड़ियों मंगवा कर बेचता है का फोन आया। उसने कुछ प्रसिद्ध कॉफी शॉप के नाम लेकर कहा कि आज वहां चलकर कॉफी की फोटो खींचेंगे और पियेंगे भी, जिस कॉफी का रंग सबसे अच्छा और आकर्षित होगा, उसकी फोटो को सूरत भेज कर उसी रंग की साड़ियां मंगवाकर 2025 में अग्रणी रहेंगे। किसी को इस बाबत बताना नहीं, पूरे बाजार में इस नए रंग “मोचा मुस” की मार्केटिंग कर “पांचों अंगुलियां घी में” कर लेंगे।
आप लोग भी बाज़ार जाकर मोचा मुस रंग की पैंट/ शर्ट पहनकर 2025 फैशन के ब्रांड एंबेसडर बन सकते हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बात अभी अधूरी है…“।)
अभी अभी # 545 ⇒ बात अभी अधूरी है श्री प्रदीप शर्मा
बीमारियां कई तरह की होती हैं, कुछ का इलाज किया जा सकता है, कुछ लाइलाज होती हैं। हम यहां वात रोग की नहीं, बात रोग की ही बात कर रहे हैं, जो बिना बात के शुरू होता है, और सारी बातें हो जाने के बाद भी, बात अधूरी ही रह जाती है।
बाल मनोविज्ञान यह कहता है कि बोलने की कला बच्चा, सुन सुनकर ही सीखता है। बच्चों से बात करने में बड़ा मजा आता है, खास कर, जब वे चार छः महीने के हों। उनकी आंखें एक जगह टिकनी शुरू हो जाती हैं, और वे हर आवाज को बड़े गौर से सुनते हैं।
एक झुनझुने की आवाज से वे रोना भूल जाते हैं, लोरी सुनाओ तो सो जाते हैं, और मचलते बालक को गाय अथवा तू तू किंवा माऊ, यानी बिल्ली दिखाओ तो बहल जाते हैं।।
उनकी स्मरण शक्ति बहुत तेज होती है। एक एक शब्द को वे ध्यान से सुनते ही नहीं, हमारे हाव भाव को भी नोटिस करते हैं। हमारी अनावश्यक लाड़ भरी बातें सुनकर भी वे आनंदित होते हैं, किलकारी मारते हैं। लेकिन हम नहीं जानते, वे हमारे बिना बताए ही कितना सीख जाते हैं।
फिर शुरू होता है उनके बोलने का अध्याय। लड़कों को अपेक्षा लड़कियां अधिक जल्दी बोलना और चलना सीख लेती हैं, क्योंकि उन्हें जीवन में शायद अधिक बोलना चालना पड़ता है। अपनी सीमित वाक् क्षमता में छोटे छोटे वाक्य बनाना उनकी खूबी होता है। वे वही बोलते हैं जो वे सीखते हैं, बस उनका बोलने का अंदाज अपना अलग ही होता है।।
बस यहीं से बोलने की जो शुरुआत होती है तो फिर बोलना कभी नहीं थमता। जो बालक अंतर्मुखी होते हैं, वे सोचते अधिक हैं, बोलते कम हैं। और कालांतर में यही उनका स्वभाव बन जाता है।
हर घर में हां, हूं की यह बीमारी आजकल आम है। महिलाओं का स्वर तो स्पष्ट सुनाई दे जाता है़, पुरुष की आवाज सुनने के लिए कानों पर जोर देना पड़ता है। अजी सुनते हो, शब्द कितने पुरुषों के कानों तक पहुंचता है, कोई नहीं जानता। घर में पत्नी को अगर बोलने की बीमारी है तो पति को भूलने की। कितनी बातें याद दिलानी पड़ती हैं, पर्स, रूमाल, चाबी, चश्मा, हद है।।
सुबह सोते बच्चों को उठाना इतना आसान भी नहीं होता। पच्चीस आवाज लगाओ, सबके चाय नाश्ते, टिफिन की तैयारी करो, बोल बोलकर थक जाते हैं, लेकिन किसी के कान में जूं नहीं रेंगती। काम वाली बाई की अलग किचकिच।
दोपहर में थोड़ा आराम मिला तो अड़ोस पड़ोस में मन बहला लिया, फोन पर एक दो घंटे बात कर ली, तो मन हल्का हो जाता है। जो आराम बातों से मिलता है, उसका जवाब नहीं। बातों की कोई कमी नहीं, बस शिकायत यही है कि आजकल कोई बात करने वाला ही नहीं मिलता। अकेले में क्या दीवारों से सर फोड़े। आदमी का टाइम तो यार दोस्तों में कट जाता है, हमारी किटी पार्टी इनको अखरती है।।
यह घर घर की बात है। जिसके पास कुछ बोलने का है, वही बोलेगा। जिसने मुंह में दही जमा रखा है, वह क्या बोलेगा। हमें घर गृहस्थी की, बाल बच्चों की फिक्र है, चिंता है, इसलिए बोलना ही पड़ता है।
गलत बात हम बोलते नहीं, किसी की गलत बात सुनते नहीं। साफ बोलना सुखी रहना। मन में किसी बात को दबाकर रखना परेशानी का कारण बन जाता है। बोलने से इंसान हल्का हो जाता है। समय इतना कम है, बहुत सा काम बाकी है। बाकी बातें, बाद में। असली बात अभी अधूरी है।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 267 ☆ सहजता…
सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोय।
जिन सहजै विषया तजै, सहज कहावै सोय।।
कबीरदास जी लिखते हैं कि सहज-सहज सब कहते हैं, परन्तु सहजता को समझते या पहचानते नहीं। जिन्होंने सहजरूप से विषय-वासनाओं का परित्याग कर दिया है, कामनाओं से मुक्त हो गये हैं, वे ही सहज हैं।
व्यापक परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो जीवन सरल है पर सिक्के का दूसरा पहलू है कि सरल होना, सबसे कठिन है। सरलता पर कुटिलता के अतिक्रमण ने मनुष्य की कुलीनता को ही ढक दिया है। मनुष्य कुल का होना बुद्धि के वरदान से सम्पन्न होना है पर मनुष्य अपने बनाये कृत्रिम मानकों की रक्षा में जीवन भर मुखौटे लगाकर जीता है, चेहरे पर चेहरे चढ़ाकर जीता है।
केंचुली उतारते साँप को देखा,
कौन अधिक विषधर,
चेहरे चढ़ाते इंसान को देखा…!
मंच या परदे पर कलाकार मुखौटा लगाने को विवश है। वह भूमिका समाप्त होते ही मुखौटा निकाल देता है पर निजी जीवन में प्रतिदिन, निरंतर, अविराम मुखौटा लगाता है आदमी। अधिकांश मामलों में मुखौटा लगाये-लगाये ही उसकी मृत्यु भी हो जाती है, अर्थात जीवन के विराम लेने तक लगा रहता है मुखौटा अविराम।
सहज होना, सरल होना, सत्य के साथ होना। यूँ भी ‘सहज’ का शाब्दिक अर्थ देखें तो ‘सह’ याने साथ में और ‘ज’ याने जन्मा। सृष्टि का होना, उसमें उसके एक घटक मनुष्य का होना, परम सत्य है। सत्य के जगत में लुकाव-छिपाव हो ही नहीं सकता। पक्षी और प्राणी जगत इस सत्य के साथ जीवन व्यतीत करता है। अपवाद केवल मनुष्य है। मनुष्य जो दिखता है, अधिकांश मामलों में वह होता नहीं। बेहतर होने के बजाय बेहतर दिखने, बेहतर प्रदर्शित होने की लिप्सा, उसे सत्य से असत्य, सरल से कठिन, सहज से जटिल की ओर ले जाती है। ओढ़ी हुई यह जटिलता मनुष्य के जीवन-आनंद को नष्ट करती है। धारा को रोक दिया तो प्रवाह का नाश अवश्यंभावी है।
‘पाखंड’ शीर्षक की अपनी कविता स्मरण आ रही है,
मुखौटों की/ भीड़ से घिरा हूँ,
किसी चेहरे तक/ पहुँचूँगा या नहीं
….प्रश्न बन खड़ा हूँ,
मित्रता के मुखौटे में/ शत्रुता छिपाए,
नेह के आवरण में/ विद्वेष से झल्लाए,
शब्दों के अमृत में/ गरल की मात्रा दबाए,
आत्मीयता के छद्म में/ ईर्ष्या से बौखलाए,
मनुष्य मुखौटे क्यों जड़ता है,
भीतर-बाहर अंतर क्यों रखता है?
मुखौटे रचने-जड़ने में/ जितना समय बिताता है
जीने के उतने ही पल / आदमी व्यर्थ गंवाता है,
श्वासोच्छवास में कलुष ने
अस्तित्व को कसैला कर रखा है,
गंगाजल-सा जीवन जियो मित्रो,
पाखंड में क्या रखा है..?
जीवन को गंगाजल-सा रखो ताकि धारा बनी रहे, प्रवाह बना रहे, जीने का आनंद धाराप्रवाह रहे।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी
इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेथी और मेथीदाना…“।)
अभी अभी # 544 ⇒ मेथी और मेथीदाना श्री प्रदीप शर्मा
***Fenugreek ***
मैं कल भी थी, आज भी मेथी हूं, और कल भी मेथी ही रहूंगी। जिस प्रकार दाने दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है, मेरे हर दाने पर मेथीदाना लिखा होता है। मैं जब तक हरी हूं, एक पत्तेदार सब्जी हूं।
न जाने क्यों मुझे कभी आलू के साथ, तो कभी पालक के साथ जोड़ दिया जाता है। जब भी घर में दाल स्वादिष्ट बनी, उसमें मैं मौजूद थी। पालक को अगर पनीर पर घमंड है तो मुझे भी मलाई पर। पालक पनीर को अगर कोई टक्कर दे सकता है तो सिर्फ मटर मेथी मलाई।।
मुझमें तोरापन है ! तोरा अगर मन दर्पण कहलाए, तो मेरा तोरा पन भी बहुत काम आए। मैं करेले जैसी कड़वी भी नहीं लेकिन सभी गुण के गाहक मेरे नियमित ग्राहक हैं। मुझे खेत से तोड़ना जितना आसान है, मुझे सुधारना उतना ही मुश्किल काम है। बच्चे बड़े सब जब मटर छीलते हैं तो केवल छिलके ही बच रह जाते हैं। मुझे छीलना इतना आसान नहीं। मुझे तोड़कर सुधारना पड़ता है। बिना टूटे मैं नहीं बनती।
लोग ठंड के मौसम में मुझे धूप में सुखा देते हैं। इसमें मेरा कसूर सिर्फ इतना है कि मैं सूखने के बाद भी कसूरी मेथी बन जाती हूं जिसे हलवाई अपनी रसोई को और स्वादिष्ट बनाने के लिए अक्सर प्रयोग करते हैं। कसूरी मेथी नहीं, तो सब्जियों में स्वाद नहीं। जहां मैं थी, वहां स्वाद था। जहां मैं नहीं, वहां खाना बेस्वाद।।
स्वस्थ व्यक्ति है जहां, मेथीदाना है वहां ! अगर कढ़ी में मेथीदाना नहीं हो काहे की कढ़ी ! शुगर के दाने का अगर कोई दुश्मन है तो वह सिर्फ मेथीदाना है। जोड़ों में दर्द और आर्थराइटिस में मेथी के लड्डू का सेवन जाड़ों में ही किया जाता है।
नाम भले ही मेरा मेथी है, जहां स्वास्थ्य है, स्वाद है, अगर कोई भाजी है तो मेथी, अगर कोई दाना है तो वह सिर्फ मेथीदाना है। मैं थी, मैं हूं और मैं रहूंगी और आपको सदा स्वस्थ रखूंगी। मेरा आपसे यह वादा है।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हथियार…“।)
अभी अभी # 543 ⇒ हथियार श्री प्रदीप शर्मा
यहाँ किसी अस्त्र-शस्त्र, ब्रह्मास्त्र अथवा तोप-तमंचे-तलवार का ज़िक्र नहीं हो रहा है, यहाँ तक कि एक मामूली से पत्थर को भी हथियार नहीं बनाया जा रहा है। हम उस प्रकृति-प्रदत्त हथियार की यहाँ चर्चा करने जा रहे हैं जो प्रकृति ने हर प्राणी को केवल अपनी सुरक्षा के लिए प्रदान किए हैं।
‘लाठी में गुन बहुत है,
सदा राखिये संग।
गहर नदी, नाला जहां
तहाँ बचावे अंग। ‘
गिरधर कवि कितने भोले थे!
उन्हें लाठी में भी सब गुण ही नज़र आए, केवल अपनी सुरक्षा के लिए झपटते हुए कुत्ते पर ही उसका प्रयोग करते थे। लाठी से किसी का सर भी फोड़ा जा सकता था, उन्हें यह गुमान न था।
हथियार का आम उपयोग सुरक्षा और प्रहार के लिए किया जाता है। हर जीव को अपनी सुरक्षा करने का अधिकार है। कोई भी साँप अथवा बिच्छू आदतन अथवा इरादतन आपको डसने कभी नहीं आएगा। अपनी सुरक्षा के लिए ज़हरीला डंक उसका मुख्य हथियार है, तीखे दाँत, चोंच और नाखून की भी पशु-पक्षियों के लिए यही उपयोगिता है।
मानव सभ्यता में शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए, उसे परास्त करने के लिए हथियारों का उपयोग किया जाता है। जो जीता वही सिकंदर! जीत का नशा और हार का गम। सभ्य-असभ्य कहें या देव असुर, कोई फर्क नहीं।
जानवर, जानवर रह गया, मनुष्य सभ्यता में बहुत आगे निकल गया। देवासुर संग्राम, महाभारत, कलिंग युद्ध, एक नहीं दो-दो विश्व-युद्ध, निस-दिन खून-खराबे, नए-नए हथियार लेकिन क्या कभी पेट भरा ?
और उधर आम आदमी ग़रीबी और लाचारी की लड़ाई में ही संघर्षरत है। आज लड़ाई में हथियारों की इतनी कमी है, कि हथियारों पर ही लड़ाई हो रही है। किसे मालूम था कि बोफोर्स और रॉफेल जैसे अत्याधुनिक हथियार बिना चले ही राजनैतिक लड़ाई के हथियार बन बैठेंगे?
इंसान दिमाग की खाता है! उसे जब लड़ना होता है, वह किसी भी चीज को हथियार बना लेता है। आज के समय में धर्म, राजनीति, साहित्य, समाज-सेवा सब उसके लिए हथियार का काम कर रहे हैं। जहाँ मीठी ज़ुबान तक कटारी का काम कर रही है, नैनों से ही तीर चल रहे हों, आशिक घायल हो रहे हों वहाँ हथियारों की कमी नहीं।
एक आग रोशनी के लिए जलाई जाती है, ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए अलख जगाई जाती है। जिस पत्थर को आपस में रगड़कर अग्नि जलाई जाती है, जिससे महल, मकान, धर्मशालाएं बनाई जाती है, जब वह पत्थर ही हथियार की तरह इस्तेमाल होने लगे तो बस यही कहा जा सकता है –
‘ये शमा तो जली, रौशनी के लिए,
इस शमा से कहीं आग लग जाए
तो शमा क्या करे। ‘
व्यंग्य भी काँटे से काँटा निकालने वाली एक विधा ही है। विसंगतियों के समाज में एक कड़वी दवा है। यह एक ऐसा हथियार है, जो केवल उपचार के काम आता है। परसाई, शरद, श्रीलाल की पीढ़ी ने इसे व्यंग्य की चाशनी में सराबोर ज़रूर किया लेकिन उनके प्रहार ने सृजन को नई ऊंचाइयां दीं।
यह हथियार घातक नहीं लेकिन इसका निशाना अचूक है। कहीं यह कड़वा नीम है, तो कहीं करेला! आखिर भरवां करैला किसे पसंद नहीं?
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख याद व विवाद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 258 ☆
☆ याद व विवाद… ☆
“भूलने की सारी बातें याद हैं/ इसलिए ज़िंदगी में विवाद है।” इंसान लौट जाना चाहता/ अतीत में/ जीना चाहता उन पलों को/ जो स्वर्णिम थे, मनोहारी थे/ खो जाना चाहता/ अतीत की मधुर स्मृतियों में/ अवगाहन करना चाहता, क्योंकि उनसे हृदय को सुक़ून मिलता है और वह उन चंद लम्हों का स्मरण कर उन्हें भरपूर जी लेना चाहता है। जो गुज़र गया, वह सदैव मनभावन व मनोहारी होता है। वर्तमान, जो आज है/ मन को भाता नहीं, क्योंकि उसकी असीमित आशाएं व आकांक्षाएं हृदय को कचोटती हैं, आहत करती हैं और चैन से बैठने नहीं देती। इसका मूल कारण है भविष्य के सुंदर स्वप्न संजोना। सो! वह उन कल्पनाओं में डूब जाना चाहता है और जीवन को सुंदर बनाना चाहता है।
भविष्य अनिश्चित है। कल कैसा होगा, कोई नहीं जानता। अतीत लौट नहीं सकता। इसलिए मानव के लिए वर्तमान अर्थात् आज में जीना श्रेयस्कर है। यदि वर्तमान सुंदर है, मनोरम है, तो वह अतीत को स्मरण नहीं करता। इसलिए वह कल्पनाओं के पंख लगा उन्मुक्त आकाश में विचरण करता है और उसका भविष्य स्वत: सुखद हो जाता है। परंतु ‘इंसान करता है प्रतीक्षा/ उन बीते पलों की/ अतीत के क्षणों की/ ढल चुकी सुरमई शामों की/ रंगीन बहारों की/ घर लौटते हुए परिंदों के चहचहाने की/ यह जानते हुए भी/ कि बीते पल/ लौट कर नहीं आते’– यह पंक्तियाँ ‘संसार दु:खालय है और ‘जीवन संध्या एक सिलसिला है/ आँसुओं का, दु:खों का, विषादों का/ अंतहीन सिसकियों का/ जहाँ इंसान को हर पल/ आंसुओं को पीकर/ मुस्कुराना पड़ता है/ मन सोचता है/ शायद लौट आएं/ वे मधुर क्षण/ होंठ फिर से/ प्रेम के मधुर तराने गुनगुनाएं/ वह हास-परिहास, माधुर्य/ साहचर्य व रमणीयता/ उसे दोबारा मिल जाए/ लौट आए सामंजस्यता/ उसके जीवन में/ परंतु सब प्रयास निष्फल व निरर्थक/ जो गुज़र गया/ उसे भूलना ही हितकर/ सदैव श्रेयस्कर/ यही सत्य है जीवन का, सृष्टि का। स्वरचित आँसू काव्य-संग्रह की उपरोक्त पंक्तियाँ इसी भाव को प्रेषित व पोषित करती हैं।
मानव अक्सर व्यर्थ की उन बातों का स्मरण करता है, जिन्हें याद करने से विवाद उत्पन्न होते हैं। न उनका कोई लाभ नहीं होता है, न ही प्रयोजन। वे तत्वहीन व सारहीन होते हैं। इसलिए कहा जाता है कि मानव की प्रवृत्ति हंस की भांति नीर-क्षीर विवेकी होनी चाहिए। जो अच्छा मिले, उसे ग्रहण कर लें और जो आपके लिए अनुपयोगी है, उसका त्याग कर दीजिए। हमें चातक पक्षी की भांति स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूंदों को ग्रहण करना चाहिए, जो अनमोल मोती का रूपाकार ग्रहण कर लेती हैं। सो! जीवन में जो उपयोगी, लाभकारी व अनमोल है– उसे उसका ग्रहण कीजिए व अनमोल धरोहर की भांति संजो कर रखिए।
इसी प्रकार यदि मानव व्यर्थ की बातों में उलझा रहेगा; अपने मनो-मस्तिष्क में कचरा भर कर रखेगा, तो उसका शुभ व कल्याण कभी नहीं हो सकेगा, क्योंकि पुरानी, व्यर्थ व ऊल-ज़लूल बातों का स्मरण करने पर वाद-विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है, जो तनाव का कारण होती है। इसलिए जो गुज़र गया, उसे भूलने का संदेश अनुकरणीय है।
हमने अक्सर बुज़ुर्गों को अतीत की बातों को दोहराते हुए देखा है, जिसे बार-बार सुनने पर कोफ़्त होती है और बच्चे-बड़े अक्सर झल्ला उठते हैं। परंतु बड़ी उम्र के लोग इस तथ्य से अवगत नहीं होते कि सेवा-निवृत्ति के पश्चात् सब फ्यूज़्ड बल्ब हो जाते हैं। भले ही वे अपने सेवा काल में कितने ही बड़े पद पर आसीन रहे हों। वे इस तथ्य को स्वीकारने को लेशमात्र भी तत्पर नहीं होते। जीवन की साँध्य वेला में मानव को सदैव प्रभु स्मरण करना चाहिए, क्योंकि अंतकाल केवल प्रभु नाम ही साथ जाता है।
सो! मानव को विवाद की प्रवृत्ति को तज, संवाद की राह को अपनाना चाहिए। संवाद समन्वय, सामंजस्य व समरसता का संवाहक है और अनर्गल बातें अर्थात् विवाद पारस्परिक वैमनस्य को बढ़ावा देता है; दिलों में दरारें उत्पन्न करता है, जो समय के साथ दीवारों व विशालकाय दुर्ग का रूप धारण कर लेती हैं। एक अंतराल के पश्चात् मामला इतना बढ़ जाता है कि उस समस्या का समाधान ही नहीं निकल पाता। मानव सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है; हैरान-परेशान रहता है, जिसका अंत घातक की नहीं; जानलेवा भी हो सकता है। आइए! हम वर्तमान में जीना प्रारंभ करें, सुंदर स्वप्न संजोएं व भविष्य के प्रति आश्वस्त हों और उसे उज्ज्वल व सुंदर बनाएं। हम विवाद की राह को तज/ संवाद की राह अपनाएं/ भुला ग़िले-शिक़वे/ दिलों में क़रीबियाँ लाएं/ सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की/ राह पर चल/ धरा को स्वर्ग बनाएं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हार और उपहार…“।)
अभी अभी # 542 ⇒ हार और उपहार श्री प्रदीप शर्मा
इस बार शादी की सालगिरह पर पत्नी ने मुझसे उपहार स्वरूप सोने का हार मांगा है। मेरी गिरह में इतना पैसा नहीं है, वह भी जानती है, लेकिन सोना एक ऐसी चीज है, जिससे किसी का पेट नहीं भरता। जितना सोना, उतनी अधिक भूख।
देव उठ गए हैं ! शादियों का मौसम है। ज्वैलर्स की चांदी है। जितनी कभी शहर में पान की दुकानें होती थीं, उतनी आज ज्वैलर्स की दुकानें हो गई हैं।।
मेरा शहर भी अजीब है ! लोग यहां सराफा आभूषण खरीदने नहीं, चाट और पकवान खाने जाते हैं। सही भी है ! सोना चांदी भूख बढ़ा भी देते हैं। जो भला आदमी, आभूषण नहीं खरीद सकता, वह सराफा की चाट तो खा ही सकता है।
मंदी और तेजी दो विरोधाभासी शब्द है। मंदी में कीमतें कम नहीं होती, व्यापारी की ग्राहकी कम हो जाती है। जैसे जैसे बाज़ार में मंदी बढ़ती जाती है, भावों में तेजी और ग्राहकी एक साथ बढ़ने लगती है। जितनी भीड़ कभी पान की दुकान पर लगती थी, उतनी आज एक ज्वैलर की दुकान पर देखी जा सकती है।।
उपहार में पत्नी को हार देने की समस्या का समाधान भी पत्नी ने ही कर दिया। उसके एक कान का भारी भरकम बाला कहीं गुम गया। मैं उस वक्त शहर में नहीं था, इसलिए ढूंढो ढूंढो रे साजना, मेरे कान का बाला, जैसी परिस्थिति से बच गया।
महिलाओं के बारे में एक भ्रम है कि उनके पेट में कोई बात नहीं पचती। मैं इससे असहमत हूं। कई बार ऐसे मौके आए हैं, जब अप्रिय प्रसंगों को पत्नी ने मुझसे छुपाया है। आप इसके दो अर्थ लगा सकते हैं ! एक, वह मुझे दुखी नहीं देखना चाहती। दो, वह मुझसे डरती है। मुझे कान के बाले के गुमने की कानों कान खबर भी नहीं होती, अगर मैं उसे यह नहीं कहता, वे कान के बालेे कहां हैं, जो मैंने तुम्हें 25 वीं सालगिरह पर दिलवाए थे।।
कुछ बहाने बनाए गए, काम की अधिकता का बखान किया गया, लेकिन जब बात न बनी, तब राज़ खुला, कि अब दो नहीं, एक ही कान का बाला अस्तित्व में है। उसे लगा, अब सर पर पहाड़ टूटने वाला है। मुझे उल्टे खुश देखकर उसे आश्चर्य भी हुआ। क्यों न, इस एक बाले के बदले में एक गले का हार ले लिया जाए इस सालगिरह पर, मैंने सुझाव दिया।
नेकी और पूछ पूछ ! उसके चेहरे के भावों को मैंने पढ़ लिया। तुरंत ज्वेलर से संपर्क साधा गया। बीस प्रतिशत के नुक़सान पर वह बाला बेचा गया, और एक अच्छी रकम और मिलाने पर उपहार-स्वरूप एक हार क्रय कर लिया गया।।
उपहार में दिए हार को हम गले में धारण कर सकते हैं, जीवन में मिली हार को हम गले लगाने से कतराते हैं। हमें हमेशा जीत ही उपहार में चाहिए, हार नहीं। ऐसा क्यों है, जीत को सम्मान, हारे को हरि नाम।
सुख दुख, सफलता असफलता को गले लगाना ही हारे को हरि नाम है। शादी की सालगिरह पर उपहार का हार भी एक सकारात्मक संदेश दे सकता है, कभी सोचा न था।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “विचार मंथन…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 22२ ☆ विचार मंथन… ☆
कभी – कभी हम सब अनजाने ही नादानी कर बैठते हैं और फिर जोर- जोर से उसके प्राश्चित हेतु प्रयास करने लगते हैं। ऐसा ही एक बार अनोखेलाल जी के साथ हुआ। जब ये अपने दोस्त के घर में चाय पी रहे थे तभी हैंडल इनके हाथ में आ गया और कप नीचे, जिससे चाय कालीन में फैल गयी अब तो इन्होंने आदत के अनुरूप जेब से फेवीक्विक निकाला और हैंडल को कप से लगाते हुए बोले, भाभी जी फीस दीजिये आपके इस टूटे हुए कप को सुधार दिया। तभी उनकी छोटी बिटिया तपाक से बोल पड़ी, “अंकल ये कारपेट कौन साफ करेगा …? वैसे भी मम्मी कहतीं हैं कि आप तो जब देखो सिर खाने चले आतें हैं, अपने न सही तो दूसरे के समय की कद्र करनी चाहिए।”
अब तो वहाँ एक अनचाहा सन्नाटा छा गया, अनोखेलाल जी उठे और चुप चाप जाते हुए सोच रहे थे कि शायद कोई उन्हें रुकने के लिए कहे।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक लोटा जल !…“।)
अभी अभी # 541 ⇒ एक लोटा जल ! श्री प्रदीप शर्मा
हम यहां किसी जलोटा का जिक्र नहीं कर रहे, सिर्फ एक लोटा जल का गुणगान कर रहे हैं। एक हुए हैं गिरधर कविराय, जिन्हें लाठी में तो गुण ही गुण नजर आते हैं, लेकिन एक लोटे जल के बारे में वे चुप्पी साध लेते हैं, जब कि लाठी और लोटे का चोली दामन का साथ है। लाठी के अन्य दो ब्रांड एंबेसेडर गांधी और संघ ने भी लाठी का सहारा तो लिया है, लेकिन लोटे और जल को अनदेखा ही किया है।
लोटा हमारी भारतीय संस्कृति का अंग है। वैसे तो खुले में शौच भी कभी हमारी संस्कृति का ही अंग था, लेकिन जब जल और जंगल ही नहीं रहेंगे तो हमें घर में ही शौचालय की ओर रुख करना पड़ेगा।।
वैसे जहां लोटा है, वहीं ग्लास भी है। कौन मांगता है आजकल एक लोटा जल, पीने के लिए एक ग्लास पानी से ही काम चलाना पड़ता है। जब कि सभी जानते हैं कि ग्लास कांच को कहते हैं, और जिसका अपभ्रंश गिलास है। एक लोटा जल ही सनातन है, जब कि एक ग्लास पानी, आज की कड़वी हकीकत।
आइए, अब हम एक लोटा जल की ओर रुख करते हैं। कहने को कवि गिरधर की तरह हम भी कह सकते हैं, लोटे में गुण बहुत हैं, सदा राखिए संग। कुआं, नदी, तालाब, सभी जगह एक लोटा ही काम आता है। एक रस्सी लोटे के मुंह में बांधी, और कुएं से जल निकाल लिया और ॐ नमः शिवाय।
आज भले ही घरों के बाथरूम में लोटे का स्थान प्लास्टिक के मग ने ले लिया हो, सुबह सुबह उठते ही एक लोटा जल का सेवन हम तांबे के पात्र से ही करते हैं।।
हम सूर्य देवता के साथ ही जाग जाते हैं, और स्नान ध्यान के पश्चात् सबसे पहले एक लोटा जल ॐ आदित्याय नम: कहते हुए पूर्व दिशा में सूरज को अर्पित कर देते हैं। जो शिव भक्त होते हैं, वे उसके बाद एक लोटा जल से शिवजी का भी अभिषेक करते हैं।
जो प्रकृति प्रेमी होते हैं और जिन्हें प्रकृति में ही ईश्वर नजर आता है, वे भी घर के तुलसी के पौधे में ही एक लोटा जल से अपनी आस्था को पुष्ट कर लेते हैं। उनके लिए प्रकृति का हर पौधा उतना ही पवित्र है, जितनी एक आस्तिक के लिए तुलसी माता। वैसे भी औषधि ही आस्था की जननी है। आरोग्य से बड़ा कोई धर्म नहीं, कोई आस्था नहीं।।
सूर्य नमस्कार, सूर्य और अपने अन्य आराध्य इष्ट का एक लोटे जल से अभिषेक कभी आस्था का विषय था, आज के कलयुग में जब आस्था से चमत्कार होने लग जाएं, किसी का कैंसर और किसी की गंभीर समस्या भी हल होने लग जाए, तो आस्था और चमत्कार दोनों को नमस्कार है।
चमत्कार ही चमत्कार है, सिर्फ आस्था का सवाल है, एक लोटा जल पीजिए, सूर्य देवता को भी अर्घ्य दीजिए और शिव जी का अभिषेक कीजिए। श्री शिवाय नमस्तुभ्यं का जाप करें अथवा किसी धाम के दरबार में अर्जी लगाएं, आपकी म..र..जी..।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “क्रोध और अपमान…“।)
अभी अभी # 540 ⇒ क्रोध और अपमान श्री प्रदीप शर्मा
क्रोध और अपमान एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी ने आपका सम्मान किया हो, और आपको क्रोध आया हो। क्रोध को पीकर किसी का सम्मान भी नहीं किया जा सकता। इंसान और पशु पक्षियों की तरह, शब्द भी अपनी जोड़ी बना लेते हैं। खुदा जब हुस्न देता है, तो नज़ाकत आ ही जाती है। बांसुरी कृष्ण के मुंह लग जाती है और गांडीव अर्जुन के कंधे पर ही शोभायमान होता है। हुस्नलाल के साथ भगतराम ही क्यों ! शंकर प्यारेलाल की जोड़ी नहीं बनी, लक्ष्मीकांत जयकिशन के लिए नहीं बने। जहां कल्याणजी हैं, वहां आनंदजी ही होंगे, नंदाजी अथवा भेरा जी नहीं। धर्मेंद्र हेमा की जोड़ी भी रब ने क्या बनाई है। शब्दों की ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे।
करेला और नीम चढ़ा ! भाई तुम आम के पेड़ पर भी चढ़ सकते थे। अगर आपका सार्वजनिक सम्मान हो रहा हो तो आपके मन में लड्डू ही फूटेंगे, आप अपमान के घूंट थोड़े ही पिएंगे। हंसी के साथ खुशी है, वार के साथ त्योहार, आदर के साथ अगर सत्कार है तो नौकरी के साथ धंधा। आसमान में अगर खुदा है तो ज़मीन पर बंदा है। धंदा जो कभी तेज रहा करता था, आजकल मंदा है। सूरज है तो किरन है, चंदा है तो चांदनी है।।
शब्दों में आपस में दोस्ती भी है और दुश्मनी भी। जब दुश्मनी की बात आएगी तो सांप – नेवले, भारत – पाकिस्तान और भारत – चीन का जिक्र होगा। कांग्रेस मोदीजी को फूटी आंखों नहीं सुहाएगी और कंगना कभी शिव सेना को माफ नहीं कर पाएगी। देव – असुर कभी एक थाली में बैठकर खाना नहीं खाएंगे, मोदीजी अब कभी चाय पीने लाहौर नहीं जाएंगे। न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी।
जिस तरह बर्फ कभी जमती और कभी पिघलती है, शब्द भी कभी कभी जमते और पिघलते रहते है। ये ही शब्द कभी शोले बन जाते हैं तो कभी शब्दों को सांप सूंघ जाता है। शब्दों की मार से ही कभी किसी को सदमा होता है तो किसी को दमा। शब्द कानों में शहद भी घोल सकते हैं और ज़हर भी। कभी शब्द आंसू बनकर बह निकलते हैं तो कभी आग उगलने लगते हैं।।
शब्द ही भ्रम भी है और ब्रह्म भी। शब्दों का भ्रम जाल ही माया जाल है। शब्द ही जीव है, शब्द ही ब्रह्म। कभी नाम है तो कभी बदनाम। सस्ता शब्द अगर मूंगफली है तो महंगा शब्द बादाम। राम तेरे कितने नाम।
क्या कोई ऐसी रामबाण दवा है इस संसार में कि दुर्वासा को कभी क्रोध न आवे, चित्त की ऐसी स्थिति बन जावे कि मान अपमान दोनों उसमें जगह न पावे। शब्द मार करने के पहले ही पिघल जावे, तो शायद हमें क्रोध ही न आवे। शकर आसानी से पानी में घुल जाती है, सभी रंग मिलकर एक हो जाते। हमारा चित्त बड़ा विचित्र। यहां शब्द ही नहीं पिघल पाते। काश क्रोध और अपमान भी आसानी से द्रवित हो जावे। कितना अच्छा हो यह चित्त, बाल मन हो जावे, सब कुछ अच्छा बुरा, बहुत जल्द भूल जावे। लाख डांटे – डपटे, मारे मां, बच्चा मां से ही बार बार जाकर लिपट जावे।।