(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ककहरा…“।)
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चुप्पी और मौन …“।)
अभी अभी # 368 ⇒ चुप्पी और मौन … श्री प्रदीप शर्मा
चुप्पी और मौन (silence & taciturnity)
“होठों को सी चुके तो जमाने ने ये कहा,
ये चुप सी क्यूं लगी है, अजी कुछ तो बोलिए “
जहां कहने को तो बहुत हो, लेकिन होठों पर ताला लगा हो, ऐसी चुप्पी बड़ी जानलेवा होती है। जहां बोलने से मना कर दिया जाए, चुप रहने की हिदायत दी जाए, वहां अक्सर खुसुर फुसुर अवश्य चला करती है।
चुप्पी और शांति का अनुभव हम सबने कक्षा में लिया है। जब तक कक्षा में सर नहीं आते, बातचीत शोर और कोलाहल का रूप धारण कर लेती है और जैसे ही मास्टर जी ने प्रवेश किया, सबके बोलने पर एकदम ब्रेक लग जाता है। कक्षा में एकदम पिन ड्रॉप सायलेंस।।
लेकिन यह भी स्थायी नहीं होता। आपस में बातचीत कौन नहीं करता। वह उम्र ही बोलने की होती है। उधर खिसक, पूरी जगह घेरकर बैठी है। लगता है, आज नहाकर नहीं आई। देख, चोटी कैसे बिखर रही है। वह कुछ जवाब दे, उसके पहले ही पकड़े जाते हैं। एक चॉक फेंककर उन्हें आगाह किया जाता है। तेरे को तो बाद में देख लूंगी।
मौन हमारे स्वभाव में नहीं। आखिर क्या है मौन। क्या सिर्फ चुप रहना ही मौन है। चुप्पी को साधना पड़ता है, और मौन धारण करना पड़ता है। चुप रहने का स्वभाव ही मौन है।।
मौन का संबंध हमारे भीतर से होता है, जबकि चुप्पी बाहर घटित होती है। मौन का अर्थ अन्दर और बाहर से चुप रहना है। चुप्पी में बहुत कुछ कहने को रह जाता है। जब कि मौन में मन में केवल शांति होती है। शायद विचार गहरी नींद में सोये रहते हों।
हम भाई बहन स्टेच्यू का खेल खेला करते थे। बिना सूचना दिए और बिना आगाह किए, एकदम स्टेच्यू ! जैसे हो, वैसे एकदम बुत बन जाओ।
न हिलना, न डुलना, न बोलना न चालना। खेल खेल में अनुशासन, चंचलता में अस्थाई विराम।।
ध्यान भी एक तरह से मौन का अभ्यास ही है। एकांत में आप किससे बोलोगे। चित्त तो फिर भी भटकता है, चलिए आंखें मूंदकर देखते हैं। क्या आंख मूंदकर भी कुछ दिखता है, अजी बहुत कुछ दिखता है। सपने अक्सर आंख मूंदकर ही देखे जाते हैं।
स्वप्न दिवा भी होते हैं, जो खुली आंखों से भी देखे जाते हैं ;
तोरा मन बड़ा पापी सांवरिया रे।
मिलाए छल बल से नजरिया रे।।
साहिर इसीलिए कहते हैं, मन रे, तू काहे ना धीर धरे। चुप्पी से मौन भला होता है, और मौन से भी दिव्य मौन श्रेष्ठ होता है। ऐसा मौन किस काम का, जहां स्लेट पर लिख लिखकर और उंगलियों के इशारों और हाव भाव से मन के उद्गार प्रकट किए जाएं।
मौन, एकांत और ध्यान की ही एक पद्धति का नाम विपश्यना है। जहां आपस में बोलने चलाने की भी मनाही होती है। बिना चुप्पी साधे भी कभी मौन सधा है। कहीं भी साधें, जहां बोलना आवश्यक हो, वहीं बोलें, अन्यथा चुप्पी साधें।
साधना ही मौन है, मौन एक अनुशासन है, अपने मन पर अपना शासन है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संतन को कहां सीकरी से काम…“।)
अभी अभी # 367 ⇒ संतन को कहां सीकरी से काम… श्री प्रदीप शर्मा
एक राजकीय सत्ता होती है जिसके अधीन जनता रहती है। एक परम सत्ता होती है जिसके अधीन उसका दास संत रहता है।
संत वह होता है, जिसकी ना तो किसी से दोस्ती होती है, और ना ही किसी से बैर।
सत्ता तो फिर भी सत्ता ही होती है। राजा होता है, उसकी प्रजा होती है, राजा के मंत्री संतरी होते हैं, दरबारी होते हैं, राज ज्योतिषी होते हैं, राजवैद्य होते हैं, आचार्य होते हैं, पुरोहित और राज पुरोहित होते हैं। राजा के यश और कीर्ति की पताका चारों दिशाओं में फहराती रहती है।।
राजा कितना भी धर्मप्राण हो, उसे सत्ता का मद तो रहता ही है, किसी संत की कीर्ति जब उसके कानों तक पहुंचती है, तो वह उनका सम्मान करना चाहता है, उन्हें अपने दरबार का रत्न बनाना चाहता है। संत कुम्भनदास को जब फतेहपुर सीकरी से दरबार में हाजिर होने का हुक्म होता है, तो बेचारे संत चले तो आते हैं, लेकिन वहां भरे दरबार में यह कहने से नहीं चूकते ;
संतन को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पनहियाँ टूटी,
बिसरि गयो हरि नाम।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत।
तिनको करिबे परी सलाम।।
कुभंनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम …
सिर्फ कुम्भनदास ही नहीं, कबीरदास, तुलसीदास, और सूरदास का भी यही हाल था। उधर मेवाड़ की महारानी मीरा को भी ऐसा वैराग्य चढ़ा कि वह कुल की लाज मर्यादा छोड़ संतों के बीच उठने बैठने लगी।
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।।
संत महात्मा आज भी हैं, भक्त और भगवान भी हैं। आज संत ईश्वर से अधिक जन जन से जुड़े हुए हैं, उनमें जन कल्याण की भावना इतनी प्रबल है कि वे जंगल, कंदरा, और अपनी पर्ण कुटीर छोड़ ज्ञान और भक्ति की धारा को गृहस्थों की ओर मोड़ रहे हैं, उनके लिए बड़े बड़े आश्रम, मंदिर और गौ शालाओं का निर्माण कर रहे हैं। आज उन्हीं की बदौलत इस देश में धर्म ध्वजा फहरा रही है।
इस युग के कुंभ के आयोजन में भी आपको एक नहीं, असंख्य कुम्भनदास डुबकी लगाते नजर आएंगे। कोई जगतगुरु तो कोई महामंडलेश्वर। आज के संत पहले अमृतपान करते हैं, और फिर अपने अमृत वचनों से भक्तों को रसपान करवाते भी हैं।।
परम सत्ता के ही निर्देश से ऐसे परम संत कभी स्वाभिमान यात्राओं से धर्म का बिगुल बजाते हैं तो कभी रथ यात्रा निकालते हैं, भ्रष्ट सत्ता तंत्र का अंत करते हैं, और देश को सनातन धर्म की ओर अग्रसर करते हैं।।
विदेशी कारों और हवाई जहाजों में अब उनके पांवों को कोई कष्ट नहीं होता। पहले प्यासा कुंए के पास आता था, आजकल कुंआ ही चलकर प्यासे के पास आ रहा है। संतों की आजकल अपनी राजधानी है, उनकी अपनी सत्ता है। कोई संत मुख्यमंत्री है तो कोई संत राज्यपाल।
संत और सीकरी के बीच आज सीधी हॉटलाइन है। आज का संत अन्याय सहन करता हुआ, भक्ति भाव में डूब भजन नहीं लिखा करता, कभी उसके अंदर का परशुराम जाग उठता है, तो कभी महर्षि दुर्वासा। दो जून की रोटी के लिए वह चार जून का इंतजार भी नहीं करता। आज वह सत्ता बनाने और बदलने में सक्षम है। संत के हाथों में आज सत्ता और देश सुरक्षित है। बोलो आज के आनंद की जय ! बोलो सब संतन की जय।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक आलेख – उंगली पर नाचता लोकतंत्र।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 283 ☆
आलेख – उंगली पर नाचता लोकतंत्र
भारत के लोकतंत्र की रीढ़ उसके चौंकाने वाले निर्णय लेते मतदाता हैं। सारे कथित बुद्धिजीवी और ढ़ेरों वरिष्ठ पत्रकार, आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस तथा एक्स्ट्रा पोलेशन के ग्राफ से हर चुनाव के परिणाम के पूर्वानुमान लगाते रह जाते हैं और देश के मतदाता अपने तरीके से निर्णय लेकर बरसों से कुरसियों पर काबिज क्षत्रपों को भी उठा कर खड़ा करने की ताकत रखते हैं। भारत में जनता खुद पर राज करने के लिये खुद ही अपने नेता चुनकर अपनी सरकारें बना लेते हैं। विशेषज्ञ एनालिसिस करते रह जाते हैं। भारत के मतदाता के निर्णय में भावना भी होती है, राष्ट्रभक्ति भी और दीर्घगामी परिपक्व सोच भी दिखती है। फ्री बीज से मताधिकार को प्रभावित करने के क्या कुछ प्रयत्न नहीं होते हैं, पर क्या सचमुच उससे परिणाम बदलते हैं? सरे आम धर्म और जाति के कार्ड खेले जाते हैं, राजनैतिक दल वोटर आबादी के अनुसार उम्मीदवार चुनते दिखते हैं किंतु क्या इससे पिछले ७७ सालों में लोकतंत्र कमजोर होता दिखता है? क्षेत्रीयता, आरक्षण, प्रलोभन, धन बल, बाहुबल, झूठा डर हमारे परिपक्व और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को कितना प्रभावित कर पाता है? दुनियां की अनेक विदेशी शक्तियां देश के चुनावों को प्रभावित करने के लिये स्पष्ट रूप से मीडीया के जरिये मनोवैज्ञानिक चालें चलती हैं और परोक्ष तरीकों से विदेशी धन हमारे चुनावों में इस्तेमाल करने की कोशिशें होती हैं, “लेकिन कुछ बात है कि हमारी हस्ती हम ही हैं”। क्या भारत के संविधान को बदलने की जरूरत है? क्या डेढ़ महीनो की लम्बी अवधि तक सरकारों को ठप्प करके चुनाव चलने चाहिये?
संविधान संशोधन आवश्यक हैं भी तो कितने और क्या? ये सारी बातें प्रत्येक बुद्धिजीवी, साहित्यकार, पत्रकारिता में अभिरुचि रखने वालों और हमारे युवा कहे जाने वाले देश की नव युवा आबादी को हमेशा से परेशान करती रही हैं। सब इसके उत्तर चाहते हैं। घर परिवार में, मित्रों में आपस में, टी वी चैनलों पर पैनल डिस्कशन्स में खूब बहस होती हैं, चाय की गुमटियों पर जाने कितनी चाय पी जाती है, कितने ही पान खाये जाते हैं, बहस होती है, किन्तु गणना से पहले कोई निर्णायक अंतिम परिणाम नहीं निकल पाते।
भारतीय चुनावों को समझने के इच्छुक युवाओ के लिये आदर्श आचार संहिता, चुनाव प्रक्रिया, उम्मीदवारों की योग्यता, राजनैतिक दलों की पात्रता हर वोटर को समझना जरूरी है। हमारी संस्कृति में भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा कर प्रजा जनो को वृष्टि आपदा से बचा लिया था। हर गृहणी पर आरोप लगता है कि वह अपनी उंगली पर अपने पति को नचा रही है। उसकी उंगली में कितनी ताकत प्रधानमंत्री जितनी शक्ति संहित होती है, या केवल राष्ट्रपति की ताकत सी नजर भर आती है, यह वास्तविकता तो सारी गृहस्थी का भार उठाये वह महिला ही जानती है। मतदाता के वोट डाल चुकने की सहज पहचान के लिये उसकी उंगली पर त्वरित रूप से न मिटने वाली स्याही से निशान लगा दिया जाता है, पोलिंग बूथ पर खड़ा मतदाता दरअसल वह मदारी है जिसकी उंगली पर लोकतंत्र नाचता है, उसे रिझाने मनाने बड़ी बड़ी रैलियां, रोड शो, सभायें होती हैं। धड़कने थामें खुद मतदाता भी चुनाव परिणामों का इंतजार करते हैं, यह जानते हुये भी कि बहुत कुछ रातों रात बदलने वाला नहीं है, कोई नृप होय हमें का हानि, चेरी छोड़ न हुई हैं रानी !
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 84 ☆ देश-परदेश – मुम्बई मतलब बॉलीवुड ☆ श्री राकेश कुमार ☆
जब भी मुम्बई की बात होती है, तो हमारा मीडिया बॉलीवुड को भी उसके साथ फेविकोल से जोड़ देता हैं। बीस मई को वहां भी आम चुनाव था।
टीवी चैनल ने इस मौके को कवर करने के लिए अपने अपने स्टूडियों में प्रातः आठ बजे से ही विशेषज्ञों की पूरी टीम बैठा दी थी उनके संवाददाता मुम्बई के फिल्मी बाहुल क्षेत्रों में मुस्तैदी से तैनात कर दिए गए थे।
हमारे जैसे फुरसतिया भी सुबह का नाश्ता छोड़ मोबाइल के न्यूज चैनल पर इंतजार करने लगे कि कौन कौन अभिनेता अपने मताधिकार का प्रयोग करने आयेंगे?
एक टीवी चैनल दर्शकों को मुफ्त में हेलीकॉप्टर यात्रा का प्रलोभन भी दे रहा हैं। लालच में ना पड़े। वैसे, ईरान में हाल ही में एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना का शिकार हो गया हैं।
आरंभ में सुश्री जानवी कपूर जी सज धज कर पधारी, तो टीवी वाले कहने लगे कितनी सुबह सुबह नहा धोकर फिल्मी लोग वोट दे रहे हैं। लाइव चैनल पर किसी ने लिखा वो अभी रात्रि क्लब से सीधा वोट डालने आई हैं।
फिर फरहान अख्तर अपनी बहन जोया अख्तर और पुरानी वाली मम्मी जी के साथ वोट देने आए हैं। पिता श्री जावेद अख्तर जोड़ों के दर्द के कारण प्रातः नही आ सके, दोपहर बाद नई वाली पत्नी के साथ वोट डाल कर गए
हिंदू धर्म को मानने वाले, और दो दो विवाह कर चुके वृद्ध धर्मेंद्र भी दूसरी पत्नी के साथ वोट डालकर क्या संदेश दे रहे थे, युवाओं को मेरे जैसे बनो!
अक्षय कुमार पान मसाला वाले भी जल्दी पहुंच गए थे। मीडिया बार बार जोर देकर कह रहा था, देखो बड़े बड़े फिल्मी दिग्गज प्रातः ही वोट दे रहे है, सभी नागरिक इनको फॉलो कर जल्दी वोट देवें।
फिल्मी चेहरे जो हमेशा अपना संपूर्ण जीवन मुखोटे लगा कर जीते है, क्या सीख देंगे, जनमानस को ? पान मसाला खाओ, ऑनलाइन रमी खेलो या मिलावटी जानलेवा मसालों का सेवन करों।
“कर लो दुनिया मुट्ठी में” का नारा देने वाले के अभागे पुत्र भी, जोकि स्वास्थ्य के लिए प्रतिदिन मरीन लाइंस पर दौड़ते हुए दिखाई देते है, भी दौड़ते हुए प्रातः काल ही वोट कर चले गए।
चंद पैसों की खातिर, जनता के विश्वास को धोखा देकर आर्थिक, मानसिक और शारीरिक हानि ही तो पहुंचा रहें हैं, ये फिल्मी दुनिया के so called सितारे।
के.चू.आ. भी प्रयास रत है, गिरते हुए मतदान प्रतिशत में वृद्धि की जा सके। इस बार की चुनाव तिथियां अधिकतर सप्ताह के आरंभ या अंत में रखकर जनता को घूमने का मौका देना, कहीं मतदान के कम प्रतिशत का ठीकरा इसी कारण पर तो नहीं फोड़ा जायेगा।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सफलता का मूल मंत्र…“।)
अभी अभी # 366 ⇒ सफलता का मूल मंत्र… श्री प्रदीप शर्मा
क्या परिश्रम, पुरुषार्थ और भाग्य के अलावा भी सफलता का कोई मूल मंत्र हो सकता है। कार्य सिद्धि के लिए कई लोग मंत्र का उपयोग करते हैं। कहीं साधना में मंत्र का प्रयोग होता है तो कुछ लोग मंत्र के जरिये सिद्धियां हासिल कर लेते हैं।
आखिर क्या है यह मंत्र, कुछ शब्दों का समूह ही तो है। एक ही शब्द को अगर बार बार बोला जाए, तो वह जप हो जाता है। लोग तो मंत्र जपने के लिए माला का भी प्रयोग करते हैं। कभी सुनिए मुकेश का यह गीत फिल्म शारदा(1957) ;
जप जप जप जप जप जप रे।
जप रे प्रीत की माला।।
कुछ मंत्र गुरु द्वारा कान में फूंके जाते हैं, तो कुछ मंत्रों का लगातार जाप करने से कार्य सिद्धि भी हो सकती है अथवा मंत्र भी सिद्ध हो सकता है। जो स्वयं एक लाख बार मंत्र का जाप नहीं कर सकते, वे पंडितों द्वारा यज्ञ हवन के साथ इनका पाठ करवाते हैं।
महामृत्युंजय मंत्र की महिमा से कौन परिचित नहीं।।
अपने इष्ट की स्तुति भी मंत्र के द्वारा ही की जा सकती है। कुछ बीज मंत्र होते हैं। बीज मंत्र को वैदिक मंत्रों का सार बोला गया है। ॐ को बीज मंत्र माना गया हैं।
कॉलेज के दिनों में सुबह जल्दी उठकर पढ़ने से याद अच्छी तरह हो जाता था। प्रातः सुबह सड़क पर एक बाबा की आवाज से अक्सर नींद खुल जाया करती थी। आज भी वे शब्द कानों में गूंजते रहते हैं ;
जपा कर जपा कर
हरि ॐ तत्सत् जपा कर।
महामंत्र है यह,
जपा कर जपा कर।।
रटने से कोई चीज याद हो जाती है और जपने से निर्दिष्ट फल की प्राप्ति होती है। मोहन की बांसुरी में क्या कोई मंत्र था, जो ब्रज के गोप गोपिकाएं और गैयाएं मंत्रमुग्ध हो जाती थी ;
मधुबन में राधिका नाचे रे।
गिरधर की मुरलिया बाजे रे।।
कलयुग नाम अधारा। आप जिसका नाम लो, वही सिद्ध हो जाता है। कुछ लोग राम नाम की चादर ओढ़ लेते हैं तो कुछ श्रीकृष्ण: शरणं मम। समय के साथ मूल मंत्र भी बदले हैं और उनके उपयोग भी।
मनुष्य की बुद्धि का क्या है। वह शक्ति का सदुपयोग भी कर सकता है, और दुरुपयोग भी। आखिर आसुरी शक्ति भी तो शक्ति का ही एक रूप है। संसारी लोग अपने निहित स्वार्थ के लिए तंत्र मंत्र का सहारा लेकर सामने वाले का अनिष्ट करते हैं। जहां विद्या है, वहीं अविद्या भी है।।
समय का फेर देखिए। आराध्य की जगह अपने प्रिय नेताओं की भक्ति शुरू हो गई है। नारा ही सफलता का मूल मंत्र हो गया है। बच्चे बच्चे की जबान पर जय श्रीराम के साथ अपने नेता का नाम जुड़ा है। कोई अतिशयोक्ति नहीं, अगर भक्त लोग इस बार, अबकी बार 400 पार का मंत्र जपना शुरू ना कर दें।
सामूहिक जाप का बड़ा महत्व होता है। शब्द ही ब्रह्म है। अगर, अबकी बार 400 पार, आपको भी मंत्रमुग्ध करता है, तो आप भी इसका सामूहिक पाठ कर सकते हैं। अबकी बार 400 पार, का दिन में, चार सौ बार पाठ करें। अग्रिम गारंटी वाला जग जाहिर मंत्र है यह।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 241 – अपरिग्रह- ☆
नववर्ष के आरंभिक दिनों में एक चित्र प्राय: देखने को मिलता है। कोई परिचित डायरी दे जाता है। प्राप्त करनेवाले को याद आता है कि बीते वर्षों की कुछ डायरियाँ कोरी की कोरी पड़ी हैं। लपेटे रखे कुछ कैलेंडर भी हैं। डायरी, कैलेंडर जिनका कभी उपयोग ही नहीं हुआ।
मनुष्य से अपेक्षित है अपरिग्रह। मनुष्य ने ‘बाई डिफॉल्ट’ स्वीकार कर लिया अनावश्यक संचय। जो अपने लिये भार बन जाए वह कैसा संचय?
इसी संदर्भ में विपरीत ध्रुव की दो घटनाएँ स्मरण हो आईं। हाऊसिंग सोसायटी के सामने की सड़क पर रात दो बजे के लगभग दूध की थैलियाँ ले जा रहा ट्रक पेड़ से टकराकर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। भय से ड्राइवर भाग खड़ा हुआ। आवाज़ इतनी प्रचंड थी कि आसपास के 500 मीटर के दायरे में रहनेवाले लोग जाग गए। आवाज़ से उपजे भय के वश कुत्ते भौंकने लगे। देखते-देखते इतनी रात गए भी भीड़ लग गई। सड़क दूध की फटी थैलियों से पट गई थी। दूध बह रहा था। कुछ समय पूर्व भौंकने वाले चौपाये अब दूध का आस्वाद लेने में व्यस्त थे और दोपाये साबुत बची दूध की थैलियाँ हासिल करने की होड़ में लगे थे। जिन घरों में रोज़ाना आधा लीटर दूध ख़रीदा जाता था, वे भी चार, छह, आठ जितना लीटर हाथ लग जाए, बटोर लेना चाहते थे। जानते थे कि दूध नाशवान है, टिकेगा नहीं पर भीतर टिक कर बैठा लोभ, अनावश्यक संचय से मुक्त होने दे, तब तो हाथ रुकें!
खिन्न मन दूसरे ध्रुव पर चला आता है। सर्दी के दिन हैं। देर रात फुटपाथ पर घूम-घूमकर ज़रूरतमंदों को यथाशक्ति कंबल बाँटने का काम अपनी संस्था के माध्यम से हम करते आ रहे हैं। उस रात भी मित्र की गाड़ी में कंबल भरकर निकले थे। लगभग आधी रात का समय था। अस्पताल की सामने की गली में दाहिने ओर के फुटपाथ पर एक माई बैठी दिखीं। एक स्वयंसेवक से उन्हें एक कंबल देकर आने के लिए कहा। आश्चर्य ! माई ने कंबल लेने से इंकार कर दिया। आश्चर्य के निराकरण की इच्छा ने मुझे सड़क का डिवाइडर पार कर उनके सामने खड़ा कर दिया। ध्यान से देखा। लगभग सत्तर वर्ष की अवस्था। संभवत: किसी मध्यमवर्गीय परिवार से संबंधित जिन्होंने जाने किस विवशता में फुटपाथ की शरण ले रखी है।… ‘माई ! आपने कंबल नहीं लिया?’ उनके चेहरे पर स्मित उभर आया। अपने सामान की ओर इशारा करते हुए साफ़ भाषा में स्नेह से बोलीं, “बेटा! मेरे पास दो कंबल हैं। मेरा जीवन इनसे कट जाएगा। ज़्यादा किसलिये रखूँ? इसी सामान का बोझ मुझसे नहीं उठता, एक कंबल का बोझ और क्यों बढ़ाऊँ? किसी ज़रूरतमंद को दे देना। उसके काम आएगा!”
ग्रंथों के माध्यम से जिसे समझने-बूझने की चेष्टा करता रहा, वही अपरिग्रह साक्षात सामने खड़ा था। नतमस्तक हो गया मैं!
कबीर ने लिखा है,
कबीर औंधि खोपड़ी, कबहुँ धापै नाहि।
तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहि।
पेट भरा होने पर भी धापा हुआ अथवा तृप्त अनुभव न करो तो यकीन मानना कि अभी सच्ची यात्रा का पहला कदम भी नहीं बढ़ाया है। यात्रा में कंबल ठुकराना है या दूध की थैलियाँ बटोरनी हैं, यह स्वयं तय करो।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक
श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गधे घोड़े में अंतर…“।)
अभी अभी # 365 ⇒ गधे घोड़े में अंतर… श्री प्रदीप शर्मा
इंसान का इंसान से हो भाईचारा, लेकिन गधे घोड़े में अंतर पहचानें, यही पैगाम हमारा। वैसे तो इंसान इतना गधा भी नहीं, कि वह गधे घोड़े में अंतर ना पहचान सके, लेकिन फिर भी इंसान कभी कभी धोखा खा ही जाता है।
वैसे घोड़ा भी सिर्फ इंसान की ही सवारी के काम आता है। घोड़े से अच्छा तो उल्लू है, जिस पर लक्ष्मी जी सवार हैं। मूषक पर गणेश जी विराजमान हैं, और शेर पर पहाड़ां वाली शेरां वाली मां वैष्णो देवी। उधर शिवजी ने बैल पर सवारी कर ली तो उनके पुत्र कार्तिकेय ने मोर की। वह तो भला हुआ रामदेवरा के बाबा रामदेव पीर ने घोड़े की सवारी कर ली और मेवाड़ के महाराणा प्रताप के चेतक ने दुनिया में अपना नाम कर लिया लेकिन बेचारा गधा, फिर भी, ना घर का रहा, और ना घाट का।।
वैसे घोड़ा सिर्फ वीरों की सवारी ही नहीं होता, युद्ध में अश्व सेना होती थी, अश्वारोही होते थे, उनके लिए अश्व शाला होती थी। महाभारत के युद्ध में तो चतुरंगिनी और
अक्षौहिणी सेना का वर्णन है, जिनमें हाथी हैं, घोड़े हैं, रथ हैं और पैदल सिपाही हैं, लेकिन बेचारा गधा वहां भी नदारद है।
घोड़े पर जो घुड़सवार बैठता है, वह वीर कहलाता है, जो घोड़ी पर बैठता है, वह वर कहलाता है। समझदार इंसान वैसे एक बार ही घोड़ी चढ़ता है, बार बार घोड़ी तो कोई गधा ही चढ़ता होगा।।
घोड़े की खरीद फरोख्त को हॉर्स ट्रेडिंग कहा जाता है। अरबी घोड़े बहुत महंगे होते हैं। घोड़े की रेस में भी किसी खास घोड़े पर ही बोली लगाई जाती है। हारने पर कई रईस सड़कों पर आ जाते हैं। लेकिन जब से राजनीति में हॉर्स ट्रेडिंग शुरू हुई है, घोड़े गधे एक ही चाल चलने लगे हैं। वैसे शतरंज के खेल में भी आपको हाथी, घोड़ा, ऊंट और सैनिक मिलेंगे, लेकिन गधे को वहां भी कोई लिफ्ट नहीं। गधा ना तो खुद भाग सकता है और ना ही कोई इस पर सवार होना चाहता है। इससे तो खच्चर और टट्टू भला, जो पहाड़ों में बोझा भी ढोते हैं और सवारियों को भी।
राजनीति की हॉर्स ट्रेडिंग में घोड़े तो घोड़े, गधों के भी भाव बढ़े रहते हैं। जो राजनीति के चाणक्य होते हैं, वे ही गधे घोड़े में अंतर कर सकते हैं। शतरंज के इस खेल में कौन प्यादा कब वजीर बन जाए, और कौन घोड़ा ढाई घर चल मात ही दे दे, कुछ कहा नहीं जा सकता।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “योगाग्नि एवं क्रोधाग्नि…“।)
अभी अभी # 364 ⇒ योगाग्नि एवं क्रोधाग्नि… श्री प्रदीप शर्मा
हम यहां वेद और आयुर्वेद की चर्चा नहीं कर रहे, ना ही उस जठरग्नि का जिक्र कर रहे, जिसके कारण हमारे पेट मेंअक्सर चूहे दौड़ा करते हैं, और जब कड़ाके की भूख लगती है, तो जो खाने को मिले, उसे कच्चा चबा जाने का मन करता है।
हमारा शरीर हो, अथवा यह सृष्टि, पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और आकाश, इन पांच तत्वों का ही तो सब खेल है। अग्नि को साधारण बोलचाल की भाषा में हम आग बोलते हैं। सोलर सिस्टम तक हम भले ही नहीं जाएं, सोलर एनर्जी तक हम जरूर पहुंच गए हैं। गरीब का चूल्हा और एक मजदूर की बीड़ी आज भी आग से ही जलती है। इतनी दूर बैठा सूरज, देखिए कैसा आग उगल रहा है। आपके पास जो आयेगा, वो जल जायेगा।।
अग्नि का धर्म ही जलाना है, खाक करना है। कलयुग में हम कितने सुखी हैं, कोई कितना भी जले, हमें बददुआ दे, हमारा बाल भी बांका नहीं होता। अगर सतयुग होता तो कोई भी सिद्ध पुरुष क्रोध में हमें शाप देकर भस्म कर देता।
आज भी आयुर्वेदिक चिकित्सा में भस्म का बहुत महत्व है। हमने बचपन में अपनी मां को राख से बर्तन मांजते देखा है, और यज्ञ और हवन की भस्म हमने भी माथे पर लगाई है।
एक अग्नि योग की होती है, जहां यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि अवस्था के पश्चात योगियों के सारे काम, क्रोध, लोभ और मोह के विकार जल कर खाक हो जाते हैं, और उसमें योगाग्नि प्रज्वलित हो जाती है। हजारों वर्षों तक ये योगी तपस्या किया करते थे, तब जाकर भोलेनाथ प्रसन्न होते थे। मांग वत्स वरदान।।
यह सब सुनी सुनाई गप नहीं, हमारा सनातन धर्म है। मत करो भरोसा, हमें क्या। लेकिन हमारी बात अभी खत्म नहीं हुई। परशुराम, महर्षि विश्वामित्र और दुर्वासा के क्रोध के चर्चे तो आपने सुने ही होंगे। शिव जी के तीसरे नेत्र से कौन नहीं डरता। जहां योगाग्नि होगी, वहीं क्रोधाग्नि भी अवश्य मौजूद होगी। अग्नि तो अग्नि है, उसका काम ही भस्म करना है।
मर्यादा पुरुषोत्तम हों अथवा वासुदेव कृष्ण, कहीं अचूक रामबाण तो कहीं सुदर्शन चक्र, अगर एक बार चल गए तो बिना अपना काम किए, कभी वापस नहीं आते। बहुत सोच समझकर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया जाता था।।
हमारे पास आज योगाग्नि तो है नहीं, लेकिन क्रोधाग्नि की कोई कमी नहीं। क्रोध में खुद ही जलते भुनते रहते हैं। शक्ति का प्रयोग उन्हें ही करना चाहिए, जिनमें विवेक बुद्धि हो, तप और स्वाध्याय का बल हो। अग्नि से ही ओज
है, अग्नि से ही संहार है।
दुधारी तलवार है, योगाग्नि क्रोधाग्नि।
क्रोध आया, किसी पर हाथ उठा दिया, गाली गलौच कर ली, अपने ही कपड़े फाड़ लिए, हद से हद, अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार ली, लो जी, हो गई तसल्ली। क्या करें योगाग्नि तो है नहीं। ईश्वर समझदार है, कभी बंदर के हाथ में तलवार नहीं देता।।
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख गुण और ग़ुनाह… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 232 ☆
☆ गुण और ग़ुनाह… ☆
‘आदमी के गुण और ग़ुनाह दोनों की कीमत होती है। अंतर सिर्फ़ इतना है कि गुण की कीमत मिलती है और ग़ुनाह की उसे चुकानी पड़ती है।’ हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। गुणों की एवज़ में हमें उनकी कीमत मिलती है; भले वह पग़ार के रूप में हो या मान-सम्मान व पद-प्रतिष्ठा के रूप में हो। इतना ही नहीं,आप श्रद्धेय व वंदनीय भी बन सकते हैं। श्रद्धा मानव के दिव्य गुणों को देखकर उसके प्रति उत्पन्न होती है। यदि हमारे हृदय में उसके प्रति श्रद्धा के साथ प्रेम भाव भी जाग्रत होता है तो वह भक्ति का रूप धारण कर लेती है। शुक्ल जी भी श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति स्वीकारते हैं। सो! आदमी को गुणों की कीमत प्राप्त होती है और जहां तक ग़ुनाह का संबंध है,हमें ग़ुनाहों की कीमत चुकानी पड़ती है; जो शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना रूप में हो सकती है। इतना ही नहीं,उस स्थिति में मानव की सामाजिक प्रतिष्ठा भी दाँव पर लग सकती है और वह सबकी नज़रों में गिर जाता है। परिवार व समाज की दृष्टि में वह त्याज्य स्वीकारा जाता है। वह न घर का रहता है; न घाट का। उसे सब ओर से प्रताड़ना सहनी पड़ती है और उसका जीवन नरक बन कर रह जाता है।
मानव ग़लतियों का पुतला है। ग़लती हर इंसान से होती है और यदि वह उसके परिणाम को देख स्वयं की स्थिति में परिवर्तन ले आता है तो उसके ग़ुनाह क्षम्य हो जाते हैं। इसलिए मानव को प्रतिशोध नहीं; प्रायश्चित करने की सीख दी जाती है। परंतु प्रायश्चित मन से होना चाहिए और व्यक्ति को उस कार्य को दोबारा नहीं करना चाहिए। बाल्मीकि जी डाकू थे और प्रायश्चित के पश्चात् उन्होंने रामायण जैसे महान् ग्रंथ की रचना की। तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली के प्रति बहुत आसक्त थे और उसकी दो पंक्तियों ने उसे महान् लोकनायक कवि बना दिया और वे प्रभु भक्ति में लीन हो गए। उन्होंने रामचरित मानस जैसे महाकाव्य की रचना की, जो हमारी संस्कृति की धरोहर है। कालिदास महान् मूर्ख थे, क्योंकि वे जिस डाल पर बैठे थे; उसी को काट रहे थे। उनकी पत्नी विद्योतमा की लताड़ ने उन्हें महान् साहित्यकार बना दिया। सो! ग़ुनाह करना बुरा नहीं है,परंतु उसे बार-बार दोहराना और उसके चंगुल में फंसकर रह जाना अति- निंदनीय है। उसे इस स्थिति से उबारने में जहां गुरुजन, माता-पिता व प्रियजन सहायक सिद्ध होते हैं; वहीं मानव की प्रबल इच्छा-शक्ति,आत्मविश्वास व दृढ़-निश्चय उसके जीवन की दिशा को बदलने में नींव की ईंट का काम करते हैं।
इस संदर्भ में, मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहूंगी कि यदि ग़ुनाह किसी सद्भावना से किया जाता है तो वह निंदनीय नहीं है। इसलिए धर्मवीर भारती ने ग़ुनाहों का देवता उपन्यास का सृजन किया,क्योंकि उसके पीछे मानव का प्रयोजन द्रष्टव्य है। यदि मानव में दैवीय गुण निहित हैं; उसकी सोच सकारात्मक है तो वह ग़लत काम कर ही नहीं सकता और उसके कदम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर नहीं हो सकते। हाँ! उसके हृदय में प्रेम,स्नेह,सौहार्द,करुणा, सहनशीलता,सहानुभूति,त्याग आदि भाव संचित होने चाहिए। ऐसा व्यक्ति सबकी नज़रों में श्रद्धेय,उपास्य,प्रमण्य व वंदनीय होता है। ‘जाकी रही भावना जैसी,प्रभु तिन मूरत देखी तैसी’ अर्थात् मानव की जैसी सोच,भावना व दृष्टिकोण होता है; उसे वही सब दिखाई देता है और वह उसमें वही तलाशता है। इसलिए सकारात्मक सोच व सत्संगति पर बल दिया जाता है। जैसे चंदन को हाथ में लेने से उसकी महक लंबे समय तक हाथों में बनी रहती है और उसके बदले में मानव को कोई भी मूल्य नहीं चुकाना पड़ता। इसके विपरीत यदि आप कोयला हाथ में लेते हो तो आपके हाथ काले अवश्य हो जाते हैं और आप पर कुसंगति का दोष अवश्य लगता है। कबीरदास जी का यह दोहा तो आपने सुना होगा, ‘कोयला होय न ऊजरा,सौ मन साबुन लाय’ अर्थात् व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन लाना अत्यंत दुष्कर कार्य है। परंतु बार-बार अभ्यास करने से मूर्ख भी विद्वान बन सकता है। इसलिए मानव को निराश नहीं होना चाहिए और अपने सत् प्रयास अवश्य जारी रखने चाहिए। यह कथन कोटिश: सत्य है कि यदि व्यक्ति ग़लत संगति में पड़ जाता है तो उसको लिवा लाना अत्यंत कठिन होता है,क्योंकि ग़लत वस्तुएं अपनी चकाचौंध से उसे आकर्षित करती हैं–जैसे माया रूपी महाठगिनी अपनी हाट सजाए सबका ध्यान आकर्षित करने में प्रयासरत रहती है।
शेक्सपीयर भी यही कहते हैं कि जो दिखाई देता है; वह सदैव सत्य नहीं होता और हमें छलता है। सो! सुंदर चेहरे पर विश्वास करना स्वयं को छलना व धोखा देना है। इक्कीसवीं सदी में सब धोखा है, छलना है,क्योंकि मानव की कथनी- करनी में बहुत अंतर होता है। लोग अक्सर मुखौटा धारण कर जीते हैं। इसलिए रिश्ते भी विश्वास के क़ाबिल नहीं रहे। रिश्ते खून के हों या अन्य भौतिक संबंध–भरोसा करने योग्य नहीं हैं। संसार में हर इंसान एक-दूसरे को छल रहा है। इसलिए रिश्तों की अहमियत रही नहीं; जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा मासूम बच्चियों को भुगतना पड़ रहा है। अक्सर आसपास के लोग व निकट के संबंधी उनकी अस्मत से खिलवाड़ करते पाए जाते हैं। उनकी स्थिति बगल में छुरी ओर मुंह में राम-राम जैसी होती है। वे एक भी अवसर नहीं चूकते और दुष्कर्म कर डालते हैं,क्योंकि उनकी रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई जाती। वास्तव में उनकी आत्मा मर चुकी होती है,परंतु सत्य भले ही देरी से उजागर हो; होता अवश्य है। वैसे भी भगवान के यहां सबका बही-खाता है और उनकी दृष्टि से कोई भी नहीं बच सकता। यह अकाट्य सत्य है कि जन्म-जन्मांतरों के कर्मों का फल मानव को किसी भी जन्म में भोगना अवश्य पड़ता है।
आइए! आज की युवा पीढ़ी की मानसिकता पर दृष्टिपात करें, जो ‘खाओ पीयो,मौज उड़ाओ’ में विश्वास कर ग़ुनाह पर ग़ुनाह करती चली जाती है निश्चिंत होकर और भूल जाती है ‘यह किराये का मकाँ है/ कौन कब तक ठहर पायेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।’ यही संसार का नियम है कि इंसान कुछ भी अपने साथ नहीं ले जा सकता। परंतु वह आजीवन अधिकाधिक धन-संपत्ति व सुख- सुविधाएं जुटाने में लगा रहता है। काश! मानव इस सत्य को समझ पाता और देने में विश्वास रखता तथा परहितार्थ कार्य करता तो उसके ग़ुनाहों की फेहरिस्त इतनी लंबी नहीं होती। अंतकाल में केवल कर्मों की गठरी ही उसके साथ जाती है और कृत-कर्मों के परिणामों से बचना सर्वथा असंभव है।
मानव के सबसे बड़े शत्रु है अहं और मिथ्याभिमान; जो उसे डुबा डालते हैं। अहंनिष्ठ व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को हेय मानता है। इसलिए वह कभी दयावान् नहीं हो सकता। वह दूसरों पर ज़ुल्म ढाने में विश्वास कर सुक़ून पाता है और जब तक व्यक्ति स्वयं को उस तराजू में रखकर नहीं तोलता; वह प्रतिपक्ष के साथ न्याय नहीं कर पाता। सो! कर भला, हो भला अर्थात् अच्छे का परिणाम अच्छा व बुरे का परिणाम सदैव बुरा होता है। शायद! इसीलिए शुभ कर्मण से कबहुं न टरौं’ का संदेश प्रेषित है। गुणों की कीमत हमें आजीवन मिलती है और ग़ुनाहों का परिणाम भी अवश्य भुगतना पड़ता है; उससे बच पाना असंभव है। यह संसार क्षणभंगुर है,देह नश्वर है और मानव शरीर पृथ्वी,जल,वायु, अग्नि व आकाश तत्वों से बना है। अंत में इस नश्वर देह को पंचतत्वों में विलीन हो जाना है; यही जीवन का कटु सत्य है। इसलिए मानव को ग़ुनाह करने से पूर्व उसके परिणामों पर चिन्तन-मनन अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने के पश्चात् ही आप ग़ुनाह न करके दूसरों के हृदय में स्थान पाने का साहस जुटा पाएंगे।