(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आम सभा…“।)
अभी अभी # 393 ⇒ आम सभा… श्री प्रदीप शर्मा
भले ही आम चुनाव संपन्न हो गए हों, सरकारों का गठन भी शुरू हो गया हो, लेकिन मेरा आम चुनाव अभी भी जारी है। लोग आम चुनाव में पार्टी चुनते हैं, मैं चुनाव में अपनी पसंद का आम चुनता हूं।
जिस तरह राजनीति में आम आदमी की अपनी पसंदीदा पार्टी होती है, उसी तरह आम में भी मेरी पसंद होती है। आम के चुनाव के मौसम में मुझे किसी एक आम को नहीं चुनना, कभी लंगड़ा, कभी बदाम, कभी दशहरी तो कभी देसी आम को ही चूसना।
असली आम चुनाव तो वही है, जिसमें आदमी आम को चूसे, लेकिन यह कैसा आम चुनाव, जिसमें एक चुना हुआ आदमी, आम आदमी को काटे, छीले, चूसे और फेंके।।
आमों की सभा में से अक्सर मुझे अपनी पसंद का आम चुनना पड़ता है, आम मीठा भी हो, रसदार भी हो, और सस्ता भी हो। आम आदमी की पसंद अगर आम होती है, तो खास की कुछ खास। बदाम, तोतापरी, और दशहरी अगर आम है, तो बनारस का लंगड़ा, चौसा, गुजरात का केसर, और रत्नागिरी का अल्फांसो खास। जिनके घरों में अल्फांसो की पेटी आती है, वे आम नहीं, खास किस्म का आम खाते हैं।
एक आम देसी भी होता है, जो काटा नहीं, चूसा जाता है। आम चूसना, गन्ना चूसना जितना मुश्किल भी नहीं। लेकिन देसी आम धीरे धीरे बड़े शहरों से दूर होता चला जा रहा है। वैसे भी देसी आम चूसने से बेहतर है, अल्फांसो आम को काटकर खाया जाए और आम आदमी को चूसा जाए।।
हमें आम सभा में देसी आम कहीं नजर नहीं आता। इसलिए हमारा आम चुनाव भी एक तरह का गठबंधन ही होता है, कभी बनारस का लंगड़ा तो कभी गुजरात का केसर। बादाम ना सही, बदाम आम ही सही।
बरसों बाद हमारी देसी आम चूसने की मुराद पूरी हुई, जब अचानक हमारी बहन के सौजन्य से हमारे घर में देसी आम का प्रवेश हुआ। किसी परिचित के बगीचे के देसी आम थे। बस फिर क्या था, तबीयत से धोया, और टूट पड़े सब मिलकर। आम को पहले नर्म यानी पिलपिला करना, फिर उसका ढक्कन खोलकर मुंह से लगाना।
चूसते जाओ, चूसते जाओ, जैसे भ्रष्ट नेता, अफसर और व्यापारी आपको चूसता है, तब तक, जब तक गुठली बाहर ना आ जाए, लेकिन अपना दामन बचाकर, क्योंकि आम आदमी का आक्रोश कभी भी फूट सकता है। हम भी मनोयोग से मिल जुलकर आम चूसते रहे, जब तक आख़री आम ना चुक गया। अहा, क्या आम सभा थी और हम सबके चेहरों पर वही भाव था, जो आम चुनाव के बाद, बहुमत से जीतने के बाद किसी नेता का होता है। देसी आम चुनाव सम्पन्न, आम सभा समाप्त।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 245 ☆ पुनरपि जननं पुनरपि मरणं..
श्मशान में हूँ। देखता हूँ कि हर क्षेत्र की तरह यहाँ भी भारी भीड़ है। लगातार कोई ना कोई निष्प्राण देह लाई जा रही है। देह के पीछे सम्बंधित मृतक के परिजन और रिश्तेदार हैं।
दहन के लिए चितास्थल खाली मिलना भी अब भाग्य कहलाने लगा है। दो देह प्रतीक्षारत हैं। कुछ समय बाद दो खाली चितास्थलों पर चिता तैयार की जाने लगी हैं। मृतक के परिजन और रिश्तेदार केवल ज़बानी निर्देश तक सीमित हैं। सारा काम तो श्मशान के कर्मचारी कर रहे हैं।
पुरोहित अंतिम संस्कार कराने में जुटे हैं। हर संस्कार की भाँति यहाँ भी उनसे शॉर्टकट की अपेक्षा है। मृतक के पुत्र, पौत्र, निकटवर्ती अपने केश अर्पित कर रहे हैं। उपस्थित लोगों में से अधिकांश के चेहरे पर घर या काम पर जल्दी जाने की बेचैनी है। ज़िंदा रहने के लिए महानगर की शर्तें, संवेदनाओं को मुर्दा कर रही हैं। इन मृत संवेदनाओं की तुलना में मरघट मुझे चैतन्य लगता है। यूँ भी देखें तो महानगरों के मरघट की अखंड चिताग्नि ‘मणिकर्णिका’ का विस्तार ही है।
मानस में जच्चा वॉर्ड के इर्द-गिर्द भीड़ का दृश्य उभरता है। अलबत्ता वहाँ आनंद और उल्लास है, चेहरों पर प्रसन्नता है। प्रसूतिगृह में जीव के आगमन का हर्ष है, श्मशान मेंं जीव के गमन का शोक है।
बार-बार आता है, बार-बार जाता है, फिर-फिर लौट आता है। जीव अन्यान्य देह धारण करता है। चक्र अनवरत है। विशेष बात यह कि जो शोक या आनन्द मना रहे हैं, वे भी उसी परिक्रमा के घटक हैं। आना-जाना उन्हें भी उसी रास्ते है। जीवन का रंगमंच, पात्रोंं से निरंतर भूमिकाएँ बदलवाता रहता है। आज जो कंधा देने आए हैं, कल उन्हें भी कंधों पर ही आना है।
‘भज गोविंदम्’ के 21वें पद में आदिशंकराचार्य जी महाराज कहते हैं-
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे॥
भावार्थ है कि बार-बार जन्म होता है। बार-बार मृत्यु आती है। बार-बार माँ के गर्भ में शयन करना होता है। बार-बार का यह चक्र अनवरत है। यही कारण है कि संसार रूपी महासागर पार करना दुस्तर है। वस्तुत: काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, राग-द्वेष, निंदा सभी तरह के राक्षसी विषयों का यह संसार महासागर है। यह अपरा है, यहाँ किनारा मिलता ही नहीं। ऐसे राक्षसों के अरि अर्थात मुरारि, भवसागर पार करने की शक्ति प्रदान करें।
श्मशान से श्मशान तक की यात्रा से मुक्त होने का पहला चरण है भान होना। भान रहे कि सब श्मशान की दिशा में यात्रा कर रहे हैं। यह पंक्तियाँ लिखनेवाला और इन्हें पढ़नेवाला भी। श्मशान पहुँँचने के पहले निर्णय करना होगा कि पार होने का प्रयास करना है या फेरा लगाते रहना है। ..इति।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नंगे पाॅंव (Bare foot)…“।)
अभी अभी # 392 ⇒ नंगे पाॅंव (Bare foot) श्री प्रदीप शर्मा
अगर कुछ विशेष अवसरों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश समय हम पांव में कुछ ना कुछ पहने ही रहते हैं। वस्त्र की तरह जूते चप्पल से भी हमारा चोली दामन का साथ है।
महल हो या कुटिया, अमीर हो या गरीब, पांव में कुछ ना कुछ तो पहने ही रहता है।
द्वापर में जब बचपन के सखा सुदामा द्वारकाधीश श्रीकृष्ण से मिलने उनके महल पहुंचे, तो द्वारपाल गवाह हैं, ठाकुरजी अपने परम मित्र से मिलने नंगे पांव ही दौड़ पड़े। महल कोई हमारे घरों की तरह 2BHK तो नहीं होता। आप जब भी अपने आराध्य को पुकारेंगे, वे इसी तरह नंगे पांव दौड़ते चले आएंगे, आखिर उन्हें भी तो अपने भक्त की लाज बचानी है।।
एक हम हैं, दरवाजे पर घंटी बजी, कोई आया है, हम पहले अपनी अवस्था देखते हैं, यूं ही मुंह उठाकर द्वार नहीं खोल देते, चश्मा, चप्पल, कुर्ता सब तलाशना पड़ता है। यह मामला लाज, शर्म का नहीं, तमीज, तहजीब और एटिकेट्स का है।
हमारे घर में हम नंगे पांव रहें, अथवा नंगे बदन, क्या फर्क पड़ता है। इनवर्टर रहित घर में जब गर्मियों के मौसम में अचानक बिजली गुल हो जाती है, तो शर्ट उतारकर उससे ही पंखा करना पड़ता है। लेकिन जब घर से बाहर कदम रखते हैं, तो कौन नंगे पांव और नंगे बदन जाता है।।
वैसे भी घरों में नंगे बदन की छूट भी केवल पुरुषों के लिए ही है, महिलाओं की अपनी मर्यादा होती है, फिर भी इसकी क्षतिपूर्ति वे, घर से बाहर, फैशन की आड़ में, नंगी बाहें और नंगी पीठ से कर लेती हैं, लेकिन नंगे पांव चलना तो उन्हें भी शोभा नहीं देता।
आपने गालियां तो सुनी होंगी लेकिन भारतीय व्यवहार कोश में नंगी नंगी गालियां भी हैं, सज्जन पुरुष उन्हें शालीन तरीके से भद्दी भद्दी अथवा गंदी गंदी गालियां कहते हैं।
कड़वा सच तो खैर होता ही है, क्या आप जानते हैं, नंगा सच भी होता है। Bare foot की तरह bare truth.
हमें यह बात कभी हजम नहीं हुई कि हमाम में सब नंगे होते हैं। हमें तो हमाम का मतलब ही पता नहीं था, क्योंकि घर में बाथरूम ही नहीं था। एक पत्थर पर बैठकर नहाते थे, और हमाम साबुन बार बार हाथ से फिसल जाता था। मुंह पर साबुन का झाग, टटोलते रहो हमाम, अपनी इज्जत बचाते हुए।
जिस देश में सन् २०१४ तक अधिकांश जनता खुले में शौच जाती थी, वह घर भी नहाकर ही आती थी, नदी नाले, तालाब, कुंए बावड़ी बहुत होंगे उस जमाने में। आपने सुना नहीं ;
मोहे पनघट पे,
नंदलाल छेड़ गयो
रे मोहे पनघट पे ….
हमाम में सब नंगे नहीं होते। यह हमारी भारतीय सनातन संस्कृति को विकृत तरीके से पेश करने का एक कुत्सित प्रयास है, हम इसकी कड़े शब्दों में भर्त्सना करते हैं।।
पुराने रसोई घर और चौकों चूल्हों के पास जूते चप्पल नहीं ले जाए जाते थे, और मंदिर में तो कतई नहीं। आज भी गुरुद्वारों और वैष्णव मंदिरों में केवल जूते चप्पल ही नहीं, मोजे पहनकर जाना भी मना है। वैसे हाथ धोकर ही मंदिर और गुरुद्वारे में प्रवेश किया जाता है। नंगे पांव, लेकिन नंगे सिर नहीं। सिर पर कुछ भी, ओढ़नी, टोपी, रूमाल सब चलेगा। रब के आगे मत्था यूं ही नंगे सिर नहीं टेका जाता।
आपने सुना नहीं, राधे राधे बोलो, चले आएंगे बिहारी ! जैसे हैं, वैसे ही दौड़े दौड़े चले आते हैं ठाकुर जी, नंगे पांव। जब किसी आत्मीय का जब द्वार पर स्वागत करें, तो नंगे पांव करें और विदाई भी नंगे पांव ही। कहीं कहीं तो जीवन में सहजता हो, स्वाभाविकता हो, अनन्य प्रेम हो।।
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख कलम से अदब तक… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 236 ☆
☆ कलम से अदब तक… ☆
‘अदब सीखना है तो कलम से सीखो; जब भी चलती है, सिर झुका कर चलती है।’ परंतु आजकल साहित्य और साहित्यकारों की परिभाषा व मापदंड बदल गए हैं। पूर्वोत्तर परिभाषाओं के अनुसार…साहित्य में निहित था…साथ रहने, सर्वहिताय व सबको साथ लेकर चलने का भाव, जो आजकल नदारद हो गया है। परंतु मेरे विचार से तो ‘साहित्य एहसासों व जज़्बातों का लेखा-जोखा है; भावों और संवेदनाओं का झरोखा है और समाज के कटु यथार्थ को उजागर करना साहित्यकार का दायित्व है।’
साहित्य और समाज का चोली-दामन का साथ है। साहित्य केवल समाज का दर्पण ही नहीं, दीपक भी है और समाज की विसंगतियों- विश्रृंखलताओं का वर्णन करना, जहां साहित्यकार का नैतिक दायित्व है; उसके लिए समाधान सुझाना व उपयोगिता दर्शाना भी उसका प्राथमिक दायित्व है। परंतु आजकल साहित्यकार अपने दायित्व का निर्वाह कहां कर रहे है…अत्यंत चिंतनीय है, शोचनीय है। महान् लेखक मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य की उपादेयता पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि ‘कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है.. ताक़तवर होती है’ अर्थात् जो कार्य तलवार नहीं कर सकती, वह लेखक की कलम की पैनी धार कर गुज़रती है। इसीलिए वीरगाथा काल में राजा युद्ध-क्षेत्र में आश्रयदाता कवियों को अपने साथ लेकर जाते थे और उनकी ओजस्विनी कविताएं सैनिकों का साहस व उत्साहवर्द्धन कर उन्हें विजय के पथ पर अग्रसर करती थीं। रीतिकाल में भी कवियों व शास्त्रज्ञों को दरबार में रखने की परंपरा थी तथा उनके बीच अपने राजाओं को प्रसन्न करने हेतु अच्छी कविताएं सुनाने की होड़ लगी रहती थी। श्रेष्ठ रचनाओं के लिए उन्हें स्वर्ण मुद्राएं भेंट की जाती थी। बिहारी का दोहा ‘नहीं पराग, नहीं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल/ अलि कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल’ द्वारा राजा जयसिंह को बिहारी ने सचेत किया गया था कि वे पत्नी के प्रति आसक्त होने के कारण, राज-काज में ध्यान नहीं दे रहे, जो राज्य के अहित में है और विनाश का कारण बन सकता है। इसी प्रकार भक्ति काल में कबीर व रहीम के दोहे, सूर के पद, तुलसी की रामचरितमानस के दोहे- चौपाइयां गेय हैं, समसामयिक हैं, प्रासंगिक हैं और प्रात:-स्मरणीय हैं। आधुनिक काल को भी भक्तिकालीन साहित्य की भांति विलक्षण और समृद्ध स्वीकारा गया है।
सो! सत्-साहित्य वह कहलाता है, जिसका प्रभाव दूरगामी हो; लम्बे समय तक बना रहे तथा वह परोपकारी व मंगलकारी हो; सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् के विलक्षण भाव से आप्लावित हो। प्रेमचंद, शिवानी, मनु भंडारी, मालती जोशी, निर्मल वर्मा आदि लेखकों के साहित्य से कौन परिचित नहीं है? आधुनिक युग में भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, निराला, बच्चन, नीरज, भारती आदि का सहित्य अद्वितीय है, शाश्वत है, समसामयिक है, उपादेय है। आज भी उसे भक्तिकालीन साहित्य की भांति उतनी तल्लीनता से पढ़ा जाता है; जिसका मुख्य कारण है…साधारणीकरण अर्थात् जब पाठक ब्रह्मानंद की स्थिति तक पहुंचने के पश्चात् उसी मन:स्थिति में रहना पसंद करता है तथा उस स्थिति में उसके भावों का विरेचन हो जाता है…यही भाव-तादात्म्य ही साहित्यकार की सफलता है।
साहित्यकार अपने समाज का यथार्थ चित्रण करता है; तत्कालीन समाज के रीति-रिवाज़, वेशभूषा, सोच, धर्म आदि को दर्शाता है…उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों का दिग्दर्शन कराता है… वहीं समाज में व्याप्त बुराइयों को प्रकाश में लाना तथा उनके उन्मूलन के मार्ग दर्शाना…उसका प्रमुख दायित्व होता है। उत्तम साहित्यकार संवेदनशील होता है और वह अपनी रचनाओं के माध्यम से, पाठकों की भावनाओं को उद्वेलित व आलोड़ित करता है। समाज में व्याप्त बुराइयों की ओर उनका ध्यान आकर्षित कर जनमानस के मनोभावों को झकझोरता, झिंझोड़ता व सोचने पर विवश कर देता है कि वे ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हैं, दिग्भ्रमित हैं। सो! उन्हें अपना रास्ता बदल लेना चाहिए। सच्चा साहित्यकार मिथ्या लोकप्रियता के पीछे नहीं भागता; न ही अपनी कलम को बेचता है; क्योंकि वह जानता है कि कलम का रुतबा संसार में सबसे ऊपर होता है। कलम सिर झुका कर चलती है, तभी वह इतने सुंदर साहित्य का सृजन करने में समर्थ है। इसलिए मानव को उससे अदब व सलीका सीखना चाहिए तथा अपने अंतर्मन में विनम्रता का भाव जाग्रत कर, सुंदर व सफल जीवन जीना चाहिए…ठीक वैसे ही जैसे फलदार वृक्ष सदैव झुक कर रहता है तथा मीठे फल प्रदान करता है। इन कहावतों के मर्म से तो आप सब अवगत होंगे… ‘अधजल गगरी, छलकत जाए’ तथा ‘थोथा चना, बाजे घना’ मिथ्या अहं भाव को प्रेषित करते हैं। इसलिए नमन व मनन द्वारा जीवन जीने के सही ढंग व महत्व को प्रदर्शित दिया गया है। मन से पहले व मन के पीछे न लगा देने से विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न नहीं होती, बल्कि नमन व मनन एक- दूसरे के पूरक हो जाते हैं। वैसे भी इनका चोली-दामन का साथ है। एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन है। यह सामंजस्यता के सोपान हैं और सफल जीवन के प्रेरक व आधार- स्तंभ हैं।
प्रार्थना हृदय का वह सात्विक भाव है; जो ओंठों तक पहुंचने से पहले ही परमात्मा तक पहुंच जाती है… परंतु शर्त यह है कि वह सच्चे मन से की जाए। यदि मानव में अहंभाव नहीं है, तभी वह उसे प्राप्त कर सकता है। अहंनिष्ठ व्यक्ति स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है, केवल अपनी-अपनी हांकता है तथा दूसरे के अस्तित्व को नकार उसकी अहमियत नहीं स्वीकारता। सो! वह आत्मजों, परिजनों व परिवारजनों से बहुत दूर चला जाता है। परंतु एक लंबे अंतराल के पश्चात् समय के बदलते ही वह अर्श से फ़र्श पर पर आन पड़ता है और लौट जाना चाहता है…अपनों के बीच, जो सर्वथा संभव नहीं होता। अब उसे प्रायश्चित होता है… परंतु गुज़रा समय कब लौट पाया है? इसलिए मानव को अहं को त्याग, किसी भी हुनर पर अभिमान न करने की सीख दी गई है, क्योंकि पत्थर की भांति अहंनिष्ठ व्यक्ति भी अपने ही बोझ से डूब जाता है, परंतु निराभिमानी मनुष्य संसार में श्रद्धेय व पूजनीय हो जाता है।
‘विद्या ददाति विनयम्’ अर्थात् विनम्रता मानव का आभूषण है और विद्या हमें विनम्रता सिखलाती है… जिसका संबंध संवेदनाओं से होता है। संवेदना से तात्पर्य है… सम+वेदना… जिसका अनुभव वही व्यक्ति कर सकता है, जिसके हृदय में स्नेह, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता, करुणा, त्याग आदि भाव व्याप्त हों…जो दूसरे के दु:ख की अनुभूति कर सके। परंतु यह बहुत टेढ़ी खीर है…दुर्लभ व दुर्गम मार्ग है तथा उस स्थिति तक पहुंचने के लिए वर्षों की साधना अपेक्षित है। जब तक व्यक्ति स्वयं को उसी भाव-दशा में अनुभव नहीं करता; उनके सुख-दु:ख में अपनत्व भाव व आत्मीयता नहीं दर्शाता …अच्छा इंसान भी नहीं बन सकता; साहित्यकार होना, तो बहुत दूर की बात है; कल्पनातीत है।
आजकल समाजिक व्यवस्था पर दृष्टिपात करने पर लगता है कि संवेदनाएं मर चुकी हैं, सामाजिक सरोकार अंतिम सांसें ले रहे हैं और इंसान आत्म-केंद्रित होता जा रहा है। त्रासदी यह है कि वह निपट स्वार्थी इंसान अपने अतिरिक्त किसी अन्य के बारे में सोचता ही कहां है? सड़क पर पड़ा घायल व्यक्ति जीवन-मृत्यु से संघर्ष करते हुए सहायता की ग़ुहार लगाता है, परंतु संवेदनशून्य व्यक्ति उसके पास से नेत्र मूंदे निकल जाता हैं। हर दिन चौराहों पर मासूमों की अस्मत लूटी जाती है और दुष्कर्म के पश्चात् उन्हें तेज़ाब डालकर जला देने के किस्से भी आम हो गए हैं। लूटपाट, अपहरण, फ़िरौती, देह-व्यापार व मानव शरीर के अंग बेचने का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है। यहां तक कि चंद सिरफिरे अपने देश की सुरक्षा बेचने में भी कहां संकोच करते हैं?
परंतु कहां हो रहा है… ऐसे साहित्य का सृजन, जो समाज की हक़ीकत बयान कर सके तथा लोगों की आंखों पर पड़ा पर्दा हटा सके। आजकल तो सबको पद-प्रतिष्ठा, नाम-सम्मान व रूतबा चाहिए, वाहवाही सबकी ज़रूरत है; जिसके लिए वे सब कुछ करने को तत्पर हैं, आतुर हैं अर्थात् किसी भी सीमा तक झुकने को तैयार हैं। यदि मैं कहूं कि वे साष्टांग दण्डवत् प्रणाम तक करने को प्रतीक्षारत हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
सो! ऐसे आक़ाओं का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है, जो नये लेखकों को सुरक्षा प्रदान कर, मेहनताने के रूप में खूब सुख-सुविधाएं वसूलते हैं। सो! ऐसे लेखक पलक झपकते अपनी पहली पुस्तक के प्रकाशित होते ही बुलंदियों को छूने लगते हैं, क्योंकि उन आक़ाओं का वरद्-हस्त नये लेखकों पर होता है। सो! उन्हें फर्श से अर्श पर आने में समय लगता ही नहीं। आजकल तो पैसा देकर आप राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय अथवा अपना मनपसंद सम्मान खरीदने को स्वतंत्र हैं। सो! पुस्तक के लोकार्पण करवाने की भी बोली लगने लगी है। आप पुस्तक मेले में अपने मनपसंद सुविख्यात लेखकों द्वारा अपनी पुस्तक का लोकार्पण करा कर प्रसिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। अनेक विश्व-विद्यालयों द्वारा पीएच•डी• व डी•लिट्• की मानद उपाधि प्राप्त कर, अपने नाम से पहले डॉक्टर लगाकर, वर्षों तक मेहनत करने वालों के समकक्ष या उनसे बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर उन्हें धूल चटा सकते हैं; नीचा दिखा सकते हैं। परंतु ऐसे लोग अहंनिष्ठ होते हैं। वे कभी अपनी ग़लती कभी स्वीकार नहीं करते, बल्कि दूसरों पर आरोप-प्रत्यारोप लगा कर अहंतुष्टि कर सुक़ून पाते हैं। यह सत्य है कि जो लोग अपनी ग़लती नहीं स्वीकारते, किसी को अपना कहां मानेंगे? सो! ऐसे लोगों से सावधान रहने में ही सब का हित है।
जैसे कुएं में उतरने के पश्चात् बाल्टी झुकती है और भरकर बाहर निकलती है…उसी प्रकार जो इंसान झुकता है; कुछ लेकर अथवा प्राप्त करने के पश्चात् ही जीवन में पदार्पण करता है। यह अकाट्य सत्य है कि संतुष्ट मन सबसे बड़ा धन है। परंतु ऐसे स्वार्थी लोग और…और…और की चाह में अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। वैसे बिना परिश्रम के प्राप्त फल से आपको क्षणिक प्रसन्नता तो प्राप्त हो सकती है, परंतु उससे संतुष्टि व स्थायी संतोष प्राप्त नहीं हो सकता। इससे भले ही आपको पद-प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाए; परंतु सम्मान नहीं मिलता। अंतत: सत्य व हक़ीक़त के उजागर हो जाने के पश्चात् आप दूसरों की नज़रों में गिर जाते हैं।
‘सत्य कभी दावा नहीं करता कि मैं सत्य हूं और झूठ सदा शेखी बघारता हुआ कहता है कि ‘मैं ही सत्य हूं। परंतु एक अंतराल के पश्चात् सत्य लाख परदों के पीछे से भी सहसा प्रकट हो जाता है।’ इसलिए सदैव मौन रह कर आत्मावलोकन कीजिए और तभी बोलिए; जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों। सो! मनन कीजिए, नमन स्वत: प्रकट हो जाएगा। जीवन में झुकने का अदब सीखिए; मानव-मात्र के हित के निमित्त समाजोपयोगी लेखन कीजिए…सब के दु:ख-दर्द की अनुभूति कीजिए। वैसे संकट में कोई नज़दीक नहीं आता, जबकि दौलत के आने पर दूसरों को आमंत्रण देना नहीं पड़ता…लोग आप के इर्दगिर्द मंडराने लगते हैं। इनसे बच के रहिए…प्राणी-मात्र के हित में सार्थक सृजन कीजिए…यही ज़िंदगी का सार है; जीने का मक़सद है। सस्ती लोकप्रियता के पीछे मत भागिए …इससे आप की हानि होगी। इसलिए सब्र व संतोष रखिए, क्योंकि वह आपको कभी भी गिरने नहीं देता… सदैव आपकी रक्षा करता है। ‘चल ज़िंदगी नयी शुरुआत करते हैं/ जो उम्मीद औरों से थी/ ख़ुद से करते हैं’… इन्हीं शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देती हूं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुफ़्त हवा…“।)
अभी अभी # 391 ⇒ मुफ़्त हवा… श्री प्रदीप शर्मा
जब हरि ओम् शरण ने यह भजन गाया होगा ;
ना ये तेरा, ना ये मेरा
मंदिर है भगवान का।
पानी उसका, भूमि उसकी
सब कुछ उसी महान का …
तब शायद उन्हें यह अंदेशा नहीं होगा कि भले ही भूमि और जल पर उस महान का वरद हस्त है, शुद्ध हवा पर अब किसी की नजर लग गई है। आबोहवा अब हवा हो गई, आब अलग हो गया, हवा अलग हो गई। हवा में अब वो आब नहीं। अरे ओ आसमां वाले, तेरे पास भी इसका कोई जवाब नहीं।
तब हम शुद्ध हवा को ही ऑक्सीजन समझते थे। स्कूल कॉलेज के दिनों में उठाई साइकिल, और निकल पड़े कस्तूरबा ग्राम, टिंछा बाल, पाताल पानी और देवगुराड़िया। पीने के लिए पानी की बोतल कभी साथ नहीं रखी, लेकिन साइकिल में पंक्चर और हवा भराने के लिए पैसे ज़रूर रखना पड़ते थे, क्योंकि पग पग रोटी, डग डग नीर की व्यवस्था तो हो सकती थी लेकिन साइकिल के लिए मुफ्त हवा तब भी उपलब्ध नहीं थी।।
एक होता है कृषि विज्ञान जिसे हम एग्रीकल्चर कहते हैं, इसी तरह एक उद्यान विज्ञान भी होता है, जिसे हार्टिकल्चर कहा जाता है। खेती तो किसान ही कर सकता है, महानगरों को हवादार, प्रदूषण मुक्त और पर्यावरण युक्त बनाने के लिए जितना वृक्षारोपण जरूरी है, उतने ही बाग बगीचे भी। एक वर्ष हो गया सुबह घर से निकले, शुद्ध हवा का सेवन किए। मुंह पर मास्क लगाकर शुद्ध हवा तो छोड़िए, मुंह से शुद्ध बोल तक नहीं निकल पाते। मास्क कोई हवा में उड़ता लाल दुपट्टा मलमल का नहीं, एक संस्कारी बहू के पल्ले की तरह, मास्क को कायदे से मुंह पर ही होना चाहिए।
आवश्यकता आविष्कार की जननी है। किसे पता था कि जैन मुनियों की तरह हमें भी पानी को उबालकर और छानकर पीना पड़ेगा, मुंह पर कोरोना से बचाव के लिए मास्क पहनना पड़ेगा। कौन जानता था, अहिंसा के देश में, जहां कीड़े मकोड़ों तक को नहीं मारा जाता, कोई जैविक हथियार इतना शक्तिशाली सिद्ध होगा जो हमें पूरी तरह अशक्त, अहिंसक और असहाय बना देगा। पर्यावरण इतना निस्तेज हो जाएगा कि फेफड़ों में ऑक्सीजन की कमी हो जाएगी और कृत्रिम ऑक्सीजन के अभाव में लाचार इंसान सांस तक नहीं ले पाएगा। किसकी सांस आखरी हो, पता नहीं।।
जहां चाह है, वहां राह है। अच्छे दिनों का इंतजार और अभी, और अभी, और सही। साल भर में कोरोना ने बहुत कुछ सिखाया है, कपूर, अजवाइन, तुलसी, गिलोय, गर्म पानी की भाप और लंबी गहरी सांस। गर्मी तो है, पर लोहा ही लोहे को काटता है। सुबह सुबह तो गर्म पानी पी ही लीजिए। केवल सरकार पर ही नहीं, उस अलबेली सरकार पर भी भरोसा रखें। वेक्सिन का दौर चल रहा है। सभी टीवी सीरियल के पार्ट 2 पर्दे पर आ गए हैं। मोदी सरकार की भी तीसरी पारी शुरू हो गई है। करन अर्जुन आएं ना आएं, हमारे अच्छे दिन आएंगे, आएंगे, जरूर से आएंगे। फिर सबका चेहरा गुलाब सा खिलेगा पर्दा हटेगा, हुस्न का जलवा फिर बिखरेगा। तब हम सब चैन की सांस लेंगे।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “उदित उदयगिरि मंच पर…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
कहते हैं मंत्रो में बहुत शक्ति होती है। शब्दों की महिमा से हम सभी परिचित हैं पर केवल इनके बल पर जीवन नहीं जिया जा सकता। जिसको सामंजस्य करना नहीं आया उसके लिए सब बेकार है। कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब देखकर अनदेखा करना हितकर होता है। जहाँ सत्य को स्वीकार करने से सुकून मिलता है वहीं बहुत कुछ छोड़ देने से जीवन में शांति बनी रहती है। सब कुछ अपने अनुसार हो यही आदत एक दिन इस दुनिया में हमें अकेला कर देती है।
एक -एक कदम चलते हुए ईंट से ईंट से जोड़ने की कला में माहिर व्यक्ति अपना आशियाना बखूबी तैयार कर लेता है। जिसके पास हिम्मत हो उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती। माना कि संख्या बल का महत्व होता है पर योग्य व्यक्ति सब कुछ अपने अनुसार करता जाता है भले ही हवा का रुख बदलने लगा हो किंतु वो नाविक ही क्या जो धार के विपरीत जाकर अपने मनवांछित तट पर न पहुंच सके। यही कुशलता उसे विजेता बनाती है। शक्ति के साथ एकजुटता के रंग में रंगते हुए मिलजुलकर चलते रहिए। सत्य का साथ सभी देते हैं।
योग्य और अनुभवी लोगों का साथ जिसके पास हो उसे कोई हरा नहीं सकता है। बुजुर्गों का आशीर्वाद , छोटों का प्यार सबको सहेजते हुए आगे बढ़ते रहिए, सारा विश्व आपके निर्णयों का लोहा मानता है। अतः केवल सच्चे मन से कार्य करते हुए सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास, सबका विश्वास के मूलमंत्र पर अडिग रहिए।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “✓ लोफर √ • Loafer •“।)
अभी अभी # 390 ⇒ ✓ लोफर √ • Loafer • श्री प्रदीप शर्मा
दिन बुरे होते हैं, आदमी बुरा नहीं होता, फिर भी बुरे आदमी के लिए हमारा शब्दकोश तैयार रहता है।
आवारा, श्री 420, बेईमान, मि.नटवरलाल, अमानुष, चरित्रहीन, बंडलबाज, बनारसी ठग, नमकहराम, लुच्चा, लफंगा और लोफर। हम तो लोफर को भी हिंदी शब्द ही समझते थे, लेकिन यह तो अंग्रेजी शब्द निकला।
अन्य हिंदी शब्दों में यह इतना घुल मिल गया कि हम भी इसे बदमाश ही समझने लगे। जब अंग्रेजी डिक्शनरी उठाई तो इसका अर्थ आलसी निकला।
बद अच्छा, बदनाम बुरा। हमें अचानक फिल्म लोफर का यह गीत आ गया ;
आज मौसम बड़ा बेईमान है
बड़ा बेईमान है,
आज मौसम
आने वाला कोई तूफ़ान है
कोई तूफ़ान है,
आज मौसम ..
एक आलसी, लोफर के जीवन में क्या तूफान आएगा। लेकिन जब घूरे के दिन बदल सकते हैं, तो अवगुण भी गुण में क्यों नहीं ढल सकता। जब से हमें लोफर शब्द का अर्थ मालूम हुआ, हमें इस शब्द से प्रेम होने लग गया। आलसी के बजाय अगर कोई हमें प्रेम से लोफर कहे, तो हम कतई बुरा नहीं मानेंगे।।
क्या शब्द के भी दिन बदलते हैं ? एक हिंदी शब्द का प्रयोग हमने बंद कर दिया था, क्योंकि उससे किसी जाति विशेष का अपमान होता था। गांधीजी अस्पृश्य लोगों के लिए हरिजन शब्द लाए, तो क्या इससे क्या वे हरि के जन हो गए ! हरि के जन तो हम भी हैं। हम जिसे मोची कहते थे, वे रातों रात रैदास हो गए, और जिस डाल पर बैठे, उसी को काटने वाले कालिदास हो गए। सूरदास जब माइंड करने लग गए तब उन्हें दृष्टिहीन नहीं, दिव्यांग कहा जाने लगा।
हमने रैदास को पुनः मोची बनाया और उसे अत्याधुनिक, वातानुकूलित फीनिक्स मॉल में बाटा की बराबरी में बैठाया। आज लोग बाटा को भूल बैठे हैं, और मोची शूज को गले लगा रहे हैं।।
बेचारा बाटा मरता क्या न करता, ब्रांडेड शूज के बाजार में टिकना इतना आसान नहीं होता। महिलाओं और पुरुषों में बराबरी का सौदा है, ब्रांडेड शूज। विदेशी जूतों की एक दर्जन कंपनी से अगर लोहा लेना है तो कुछ तो नया करना ही पड़ेगा। बाटा कंपनी ने भी आलस छोड़ा और लोफर शूज की जबरदस्त रेंज बाजार में उतार दी। अब लोफर का अपना स्टेटस है, उपभोक्ताओं में लोफर शूज की अपनी अलग पहचान है।
फैशन वही, जो संस्कार और संस्कृति को आपस में जोड़े। एक समय था, जब पुरुष जूते के जोड़े पहनता था और स्त्री चप्पल अथवा सैंडिल। अब धोती कुर्ता, पैंट पायजामा, कुर्ता कुर्ती सबके साथ लोफर शूज पहने जा सकते हैं। आप भी आलस छोड़ो, लोफर शूज पहनो। यकीन मानिए, लोग आपका चेहरा नहीं, आपके शूज से नजर नहीं हटाएंगे। सस्ता रोए बार बार, लोफर रोए एक बार।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – उधमसिंग और भगत सिंह में अद्भुत साम्य।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 288 ☆
आलेख – उधमसिंग और भगत सिंह में अद्भुत साम्य
भगत सिंह तथा राम प्रसाद बिस्मिल से उधमसिंह बहुत प्रेरित थे. देशभक्ति के तराने गाना उन्हें बहुत अच्छा लगता था. उधमसिंग और भगत सिंह के जीवन में अद्भुत साम्य था. क्रांति का जो कार्य देश में भगत सिंह कर रहे थे उधमसिंग देश से बाहर वही काम कर रहे थे. भगत सिंह से उनकी पहली मुलाकात लाहौर जेल में हुई थी. दोनों क्रांतिकारियों की कहानी में बहुत दिलचस्प समानताएं हैं. दोनों ही पंजाब से थे. दोनों ही नास्तिक थे. उधमसिंग और भगत सिंह दोनों ही हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे. दोनों की जिंदगी की दिशा तय करने में जलियांवाला बाग कांड की बड़ी भूमिका रही. दोनों को लगभग एक जैसे मामले में सजा हुई. जहाँ स्काट की जगह भगत सिंह ने साण्डर्स पर सरे राह गोली चलाई वहीं उधमसिंह को जनरल डायर की जगह ड्वायर को निशाना बनाना पड़ा , क्योकि डायर की पहले ही मौत हो चुकी थी. भगत सिंह की तरह उधमसिंह ने भी फांसी से पहले कोई धार्मिक ग्रंथ पढ़ने से इनकार कर दिया था. उधमसिंह भी सर्व धर्म समभाव में यकीन करते थे. इसीलिए उधमसिंह अपना नाम मोहम्मद आज़ाद सिंह लिखा करते थे. उन्होंने यह नाम अपनी कलाई पर भी गुदवा लिया था.इतिहासकार प्रोफेसर चमनलाल कहते हैं, ”उधम सिंह बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे. उन पर भगत सिंह और उनसे जुड़े आंदोलन का बहुत प्रभाव था. उम्र में वे भगत सिंह से बड़े थे किन्तु वे क्रांति के वैचारिक मंच पर सदैव भगत सिंह को स्वयं से ज्यादा परिपक्व मानते थे. उधम सिंह भगत सिंह की तरह लेखक नहीं थे. रिकॉर्ड पर उनके पत्र ज़्यादातर व्यक्तिगत स्तर पर लिखे गए थे लेकिन कुछ पत्रों में राजनीतिक मामलों का भी ज़िक्र मिलता है. उधम सिंह दृढ़ता से बोलते थे. अदालत में उनके भाषण भगत सिंह की तर्ज पर होते थे. जब उधमसिंह पर माइकल ओ डायर की हत्या के अभियोग का मुकदमा चला तो उन्होने बहुत गंभीरता और ढ़ृड़ता से अपनी बात रखी थी. उन्होने कहा था टेल पीपल आई वॉज़ अ रिवॉल्यूशनरी.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – ” थप्पड़…“।)
अभी अभी # 389 ⇒ थप्पड़ … श्री प्रदीप शर्मा
थप्पड़ तेरे कितने नाम, चांटा, तमाचा, रेपटा, झापड़ तमाम। अगर थप्पड़ का संधि विच्छेद किया जाए, तो जो थप से पड़े, वह थप्पड़। थप शब्द भी तबले की थाप का करीबी ही प्रतीत होता है, थाप में प्रहार भी है, और ध्वनि भी।
जिस तरह क्रिकेट, हॉकी और फुटबॉल जैसे खेल मैदान में खेले जाते हैं, थप्पड़ का दायरा सिर्फ गाल तक ही सीमित होता है। ईश्वर ने दो गोरे गोरे गाल शायद इसीलिए बनाए हैं, कि अगर आप अहिंसा के पुजारी हो, तो कोई अगर आपके एक गाल पर थप्पड़ मारे, तो आप उसे दूसरा गाल भी पेश कर सकें।।
जो अहिंसा में विश्वास रखते हैं, वे भले ही किसी को थप्पड़ ना मारें, लेकिन थप्पड़ खाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। हमारा जन्म तो थप्पड़ खाने के लिए ही हुआ था। पैदा होते से ही अगर नहीं रोओ, तो कभी नर्स तो कभी दाई से थप्पड़ मानो हमारा पैदाइशी तोहफा था। बाद में तो थप्पड़ ही हमारा स्कूल का होमवर्क था, और थप्पड़ ही हमारी पढ़ाई का सबक।
हमने बचपन में जवाब देने पर भी थप्पड़ खाया है और चुप रहने पर भी। हमें याद नहीं, कभी पिताजी ने हमें प्यार से चपत मारी हो, ऐसा सन्नाकर चांटा मारते थे, कि पांचों उंगलियां गालों पर नजर आ जाती थी। लेकिन बाद में मां का प्यार दुलार थप्पड़ का सारा दर्द सोख लेता था, और वही पिताजी रात को हमारे लिए कुल्फी लेकर आते थे, और अपने हाथों से, प्यार से खिलाते थे। हमें तब कहां दबंग का यह डायलॉग याद था, पिताजी आपके थप्पड़ से नहीं, प्यार से डर लगता है।।
कुछ छड़ीमार गुरुजन शिष्यों में विद्या कूट कूटकर भरना चाहते थे। मुक्का, घूंसा, लप्पड़, और जब स्केल और पेंसिल से काम नहीं हो पाता था, तो इंसान से मुर्गा बनाकर भी देख लेते थे। बाद में थक हारकर यही उद्गार व्यक्त करते थे, इन गधों को इंसान नहीं बनाया जा सकता।
आज भले ही हमें थप्पड़ मारने वाला कोई ना हो, लेकिन पिताजी और गुरुजनों के थप्पड़ का सबक हमें आज तक याद है। काश, आज भी कोई हमारे कान उमेठे, थप्पड़ मारे।
जो लोग शाब्दिक हिंसा के पक्षधर होते हैं, वे केवल शब्दों के प्रहार से ही अपने प्रतिद्वंदी के मुंह पर ऐसा तमाचा जड़ते हैं, कि वह तिलमिला जाता है। स्मरण रहे, शब्द रूपी तमाचा, गाल पर नहीं, मुंह पर जड़ा जाता है।।
कूटनीति का नाम राजनीति है। यहां बल की जगह बुद्धि का प्रयोग अधिक किया जाता है। बुद्धि बल से बड़ा कोई बल नहीं। चरित्र हनन से लगाकर इनकम टैक्स और ईडी के छापों से जो काम कुशलतापूर्वक संपन्न किया जा सकता है, वह बल प्रयोग द्वारा नहीं किया जा सकता।
राजनीति काजल की कोठरी है, इसका फायदा उठाकर कई राजनेता यहां काले कारनामे भी कर जाते हैं, और अपनी छवि भी स्वच्छ बनाए रखना चाहते हैं। लेकिन जब ऐसे नेता मुंह की खाते हैं, तो जनता से सरे आम थप्पड़ भी खाते हैं, चेहरे पर कालिख पुतवाते हैं, छापे भी पड़वाते हैं और जेल की हवा भी खाते हैं। कहती रहे जनता, आप तो ऐसे न थे।।
हिंसा हिंसा है, शाब्दिक हो अथवा शारीरिक ! खेद है, शाब्दिक हिंसा का खेल आजकल राजनीति में इतना बढ़ गया है कि प्रतिकार स्वरूप आम जनता भी शारीरिक हिंसा पर उतर आई है। शब्दों का घाव अधिक गहरा होता है, यह फिर भी तमाचा खाने वाला नहीं समझ पाता ..!!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बड़े होने का सबब…“।)
अभी अभी # 387 ⇒ बड़े होने का सबब… श्री प्रदीप शर्मा
कोई जन्म से बड़ा अथवा महान नहीं होता। सब बड़े होते हैं, हाथी भी और चींटी भी। चींटी कितनी भी बड़ी हो जाए, लेकिन हाथी नहीं बन सकती। केवल बड़ा होने से भी कुछ नहीं होता, आदमी हाथी से छोटा होता है, फिर भी शान से हाथी की सवारी करता है, उस पर अंकुश लगाता है। होगा शेर जंगल का राजा, सर्कस के शेर से तो कागज़ का शेर भला।
बढ़ना और विकसित होना प्रकृति का नियम है। कल अगर आपका जन्मदिन था तो आज आप सिर्फ एक दिन और बड़े हो पाए, एक वर्ष और बढ़ने के लिए आपको अभी 364 और दिनों का इंतजार करना पड़ेगा। समय से बड़ा कोई नहीं होता। अच्छा समय चुटकियों में गुजर जाता है, दुःख के दिन पहाड़ से प्रतीत होते हैं।।
प्रकृति के कुछ नियम हैं। यहां अगर सभी कुछ नियत है तो कहीं कहीं नियति भी है। सृष्टि में, अलग अलग प्रजाति के जीव और वनस्पति हैं, कहीं बीज में पूरा वृक्ष समाया हुआ है तो कहीं सागर के सीपी में मोती। आम खाने के लिए बबूल का पेड़ नहीं लगाया जाता, क्योंकि बबूल पर आम नहीं पैदा होते। जानवरों में भी घोड़े, गधे और खच्चर पैदा होते हैं केवल एक इंसान ही ऐसा प्राणी है जिसका भविष्यफल जाना जा सकता है। मनुष्य में विकास की सभी संभावनाएं निहित हैं। उसका जन्म नियत है, नियति सबकी अलग अलग है। भाग्य और प्रारब्ध का खेला केवल इंसान ने ही खेला।
मेहनत का फल इंसान को ही मिलता है, बेचारे जानवर को तो सिर्फ घास ही नसीब होती है। किसी पेड़ की, अथवा किसी घोड़े, ऊंट, और बंदर की जन्म कुंडली नहीं बनती, क्योंकि इनमें और कुछ बनने की संभावनाएं हैं ही नहीं। मनुष्य में नर से नारायण और नारी से नारायणी का खयाल बुरा नहीं। और जहां खयाल ही बुरा हो, वहां तो फिर इस इंसान का भगवान ही मालिक है। अच्छे लोगों को अन्य सब लोग बुरे नजर आ रहे हैं। वे सबको अच्छा बनाने में लगे हुए हैं। लगता है, पूरे देश को बदल डालेंगे।
अगर ऐसा नहीं होता तो शायद किसी नारी कंठ से यह पुकार नहीं उठती ;
तुमको तो करोड़ों साल हुए
बताओ गगन गंभीर !
इस प्यारी प्यारी दुनिया में
क्यों अलग अलग तकदीर ?
आज का युग सीख देने का नहीं, सीखने का है। छोटे छोटे बच्चे अभी से एक बड़ा इंसान बनने का सपना देखने लगते हैं। उनके माता पिता भी, जो वे खुद नहीं बन पाए, अथवा अपने जीवन में नहीं कर पाए, अपने बच्चों में उसकी संभावनाएं तलाशते हैं। आज अधिक अवसर है, अधिक संभावनाएं हैं। जल्द ही बच्चों के पाठ्यक्रम से बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर जैसे नीति वाक्य नदारद हो जाएंगे। हमें पंछी और परमार्थ से क्या लेना देना। अर्जुन की तरह केवल मछली की आंख पर ही हमारा निशाना होता है। क्या आज आपको संतोषी सदा सुखी और रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी, जैसे आउट ऑफ डेट लेक्चर सुन हंसी नहीं आती ? लगता है, आप जीवन में कुछ बनना ही नहीं चाहते।।
जब एक छोटा आदमी, बड़ा आदमी बन जाता है, तो लोग उसे और बड़ा बनाने में लग जाते हैं। उसे और बड़ा बनाने के प्रयास में उन्हें कितना भी छोटा होना पड़े, उन्हें उसमें भी अपना बड़प्पन नजर आता है। बिग भी, एक बड़े आदमी के बेटे होते हुए भी, संघर्ष और पुरुषार्थ से बड़े हुए और आज इतने बड़े हो गए, कि अब छोटा होना उनके बस में ही नहीं। जब इंसान के दाने दाने में केसर का दम नजर आता है, तो उसे लोगों की नजर लग जाती है। वह भी मन में सोचता है, बड़ा होना भी अभिशाप है। लेकिन गरीब होने से यह अभिशाप अच्छा है।
अगर बड़ा बनना है, तो छोटे दिखते रहो। अच्छा पहनो, अच्छा ओढ़ो। नम्रता और विनम्रता से अच्छा कोई परिधान नहीं।
आजकल पत्थर उछालने पर प्रतिबंध है इसलिए दुष्यंत कुमार क्षमा करें, आसमान में सुराख करने के और भी तरीके होंगे। लोकतंत्र में सबको बराबरी का अवसर मिलता है। हाथ कंगन को आरसी क्या, एक चाय वाले को ही ले लो। नर देखिए, नारायण नहीं बना, नरेन्द्र बन गया। लोग नारायण को भूल गए। इसे कहते हैं कुछ बनना। आप भी बनना तो एक और नरेन्द्र ही बनना, भूल से भी चाय वाला मत बन बैठना, कोई नहीं पूछेगा।।