(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आम चुनाव…“।)
अभी अभी # 317 ⇒ आम चुनाव … श्री प्रदीप शर्मा
गर्मियाँ शुरू। अगले माह में आम चुनाव ! मुझे चुनाव से अधिक रुचि आम में रहती है। आम चुनाव तो पाँच वर्ष में एक बार आते हैं, हम तो हर वर्ष अपनी पसंद के आम चुन-चुनकर खाते हैं।
अभी आम का मौसम नहीं, आम चुनाव का मौसम है। आम ही नहीं, चुनाव के वक्त तो आदमी भी बौरा जाता है। पसंद अपनी अपनी ख़याल अपना अपना।।
हमारे यहाँ नंदलालपुरे में आमों की मंडी लगती थी। मुझे चुनाव का अधिकार नहीं था ! फिर भी अपने पिताजी की उँगली पकड़, मैं आम चुनाव के लिए निकल पड़ता था। सब तरफ आमों की खुशबू। आम के बाज़ार से, अच्छे आमों का चुनाव कोई हँसी खेल नहीं। हर दुकानदार अपने अपने आमों की ढेरी सजाए, ग्राहक ढूंढा करता था।
आम, चूसने वाले भी होते थे, और काटने वाले भी ! चुनाव आपको करना पड़ता था, आपको चूसने वाला चाहिए या काटने वाला।
अंगूर की तरह कभी कभी आम भी खट्टा साबित हो जाता था, जब चुनाव सही नहीं होता था। अपने आम को कोई खट्टा नहीं कहता। दुकानदार एक आम उठाकर देता था, लीजिये चखिए ! आप हाथ आगे कर देते ! ऐसे नहीं, पूरा आम चखिये। आप पर आंशिक प्रभाव तो पड़ ही चुका होता था। दिखाने वाला आम मीठा ही होता है। घर आकर पता चलता था, हमारा चुनाव गलत था।।
70 साल से आम खा रहा हूँ। आम चुनाव में भी भाग ले रहा हूँ। आज तक आम की पहचान नहीं कर पाया। आखिर आम होते ही कितने हैं। गुजरात का अगर केसर है, तो महाराष्ट्र के रत्नागिरी का हापुस। जो लोग महँगी पौष्टिक बादाम नहीं खा पाते, वह सीज़न के बदाम आम खाकर ही संतोष कर लेते हैं। दशहरी आम तो मानो शहद का टोकरा हो। तोतापरी तो नाम से ही लगता है, सिर्फ तोतों के लिए बना है।
आम फलों का राजा है। आम के चुनाव में अगर बनारस के लंगड़े का जिक्र न हो, तो चुनाव अधूरा है। चाहो तो काटकर खाओ, चाहो तो रस बनाओ। लेकिन आश्चर्य है कि आज तक किसी ने इसके नाम पर आपत्ति नहीं ली है। बनारस का आम, और लंगड़ा ? हो सकता है, इस आम चुनाव के पश्चात बनारस के आम को भी दिव्यांग आम घोषित कर दिया जाए।।
अभी तो अमराइयाँ बोरा रही हैं। आम और आम चुनाव का वास्तविक मज़ा तो मई माह में ही आएगा। सूँघ सूँघ कर, चख चख कर चुनाव करें, कहीं आम खट्टे न निकल जाएं। कुछ लोग आम का अचार डालते हैं ! उन्हें सख्त हिदायत दी जाती है कि अच्छे आमों का ही चयन करें।
अचार ऐसा डालें, जो टिकाऊ हो। ध्यान रहे ! आमों का मध्यावधि चुनाव नहीं होता।।
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – बिन पानी.! मुश्किल जिंदगानी..! आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 207 ☆
☆ आलेख – विश्व जल दिवस विशेष – बिन पानी.! मुश्किल जिंदगानी..!☆ श्री संतोष नेमा ☆
विख्यात कवि रहिमन जी ने कहा है कि –
रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥
अर्थात पानी के बगैर सब कुछ बेकार सा है आजकल हम देख रहे हैं कि आदमी के अंदर का पानी तो खत्म हो ही रहा है.! पर ये बाहरी पानी भी ऑक्सीजन पर नजर आ रहा है.! प्रकृति ने यूं तो अपनी ओर से सभी को एक समान प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध कराए हैं.! पर व्यावहारिक जीवन में हम देखते हैं कि इन संसाधनों का सबसे ज्यादा उपयोग धनवान लोग ही कर पा रहे हैं.! गरीब तो आज भी अपनी मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा है.? कहने को तो पृथ्वी के तीन चौथाई हिस्से में पानी है पर अफसोस यह पीने लायक नहीं है.! पेय जल मात्र तीन प्रतिशत ही है.! उसमें भी कुछ अंश ग्लेशियर एवं बर्फ के रूप में है.! इन परिस्थितियों के बावजूद भी कुछ लोग पानी पर अपना एकाधिकार समझते हैं.! और बेतरकीब ढंग से पानी का बेजा इस्तेमाल जैसे उनकी फितरत बन गई है.! गाड़ियों की धुलाई,बाग़ बगीचों की सिचाई, स्वीमिंग पुल की भराई, गैर जरूरी कार्यों में खर्च, जैसे रईसों की जरूरत बन गई है.! अब वो अपना देखें कि जरूरतमंदों, गरीबों के लिए सोचें.? आज यही सवाल सबसे बड़ा है.! आदमी इतना स्वार्थी एवं आत्मकेंद्रित हो गया है कि उसे अपने अलावा किसी की समस्याएं नजर आती ही नहीं.! आए दिन हम देखते हैं कि चाहे नगर हों, महानगर हों, गाँव हों,कस्बे हों हर जगह पेयजल की समस्याएं बिकराल रूप धारण किये हुए हैँ.! विगत वर्ष दक्षिण अफ्रीका की राजधानी केपटाउन को जल विहीन शहर घोषित किया गया.! यह आधुनिक युग की सबसे बड़ी त्रासदी एवं दुर्भाग्य है.? हम दूर क्यों जाएं अपने देश में भी तमाम ऐसे शहर एवं इलाके हैं जहां जहां पर पानी की समस्या सुरसा की तरह बढ़ रही है.! राजस्थान,महाराष्ट्र,आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्यप्रदेश झारखण्ड, आदि प्रदेशों में भूमिगत जल स्तर बहुत नीचे आता जा रहा है.! भूमिगत जल का दोहन बड़ी तेजी के साथ लगातार जारी है.! जल स्रोतों की भी अपनी एक सीमाएं हैं जो कहीं ना कहीं हम भूल रहे हैं.! वैसे तो राज्य सरकारें एवं भारत सरकार भी घर घर जल पंहुचाने तमाम योजनाओं पर काम कर रही हैँ. ! हर घर जल योजना जल जीवन मिशन का एक भाग है, जिसे भारत में जल शक्ति मंत्रालय द्वारा लॉन्च किया गया है., पर यह सारी योजनाएं जल के स्रोतों पर ही तो आधारित हैं इसका भी हमें ध्यान रखना होगा.! जल के महत्व को दर्शाते हुए न जाने कितने कथन प्रचलित हैं जिनमें जल ही जीवन है,जल है तो कल है,जल बचाओ जीवन बचाओ,पानी की रक्षा देश की सुरक्षा, पानी बचाओ पृथ्वी बचाओ, जल ही जीवन का आधार है, आओ हम जल रक्षक बनें आदि अनेकों प्रेरक कथन हम सबके लिए अनुकरणीय एवं प्रेरक तो हैँ. पर हम कितने गंभीर हैँ ये हमें सोचना होगा! सरकारों द्वारा भी जल शक्ति अभियान, जल संरक्षण योजनाएं, अटल भू जल योजना,जैसी अनेकों योजनाएं भी जल संरक्षण के लिए तेजी से काम कर रही हैँ.! जल सिर्फ मानव जीवन को ही प्रभावित नहीं करता बरन तमाम व्यवसाय,उद्योग धंधे, निवेश आदि भी इससे पूरी तरह प्रभावित होते हैं.! अभी हाल ही में आईटी हब बेंगलुरू में बढ़ती पानी की समस्या को देखते हुए तमाम बड़ी कंपनियां वहां से पलायन की मानसिकता से दूसरी जगह तलासने में लग गईं हैँ.? ये दूसरा पहलू हमारे विकास की रफ़्तार को पीछे ढकेल सकता है.?
जल की प्रत्येक बूँद हमारे लिए कीमती है. इसे बचाने का हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए.! यूँ तो पुरी दुनिया में 22 मार्च को जल संरक्षण के लिए विश्व जल दिवस मनाया जाता है. जिसकी शुरुआत दरअसल 22 दिसंबर, 1992 को संयुक्त राष्ट्र असेंबली में प्रस्ताव लाया गया था, जिसमें ये घोषणा की गई कि 22 मार्च को विश्व जल दिवस के रूप में मनाया जाएगा. इसके बाद 1993 से दुनियाभर में 22 मार्च को विश्व जल दिवस के रूप में मनाया जाने लगा. कैपटाउन जैसे शहर में तो प्रति व्यक्ति जल उपयोग करने की सीमाएं भी तय कर दी गई है जो जल की भयावह स्थिति को बयां करती हैँ.! कुछेक विश्लेषक तो यहाँ तक कहते हैं कि तीसरा विश्व युद्ध भी जल को लेकर हो सकता है.!! परिस्थितियां आपके सामने हैँ .! शासन अपने स्तर पर विभिन्न योजनाओं के माध्यम से काम कर रहा है पर इन सब के बावजूद यदि किसी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है तो वह हैँ हम और आप.! जब तक हम उपभोक्ता अंदर से स्वयं जागरूक ना होंगे तब तक जल संरक्षण के सार्थक परिणाम मिलना मुश्किल है.! हम जल के संरक्षण का असली महत्व समझकर उसे अपने जीवन में शामिल करें और उसके प्रति कृतज्ञ रहें। जल संरक्षण के प्रति हमें सचेत करने के लिए ही तमाम सामाजिक,एवं शासकीय संस्थाएं तेजी से काम कर रही हैँ. ! ना जाने कितने कवि और शायर इस विषय को लेकर अपनी कलम के माध्यम से उद्वेलित हैं.! अब यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप कब जागेंगे.? वक्त रहते जागना ही हम सबके हित में है अन्यथा कैप्टाउन जैसी स्थिति हमारे यहाँ निर्मित होने में देर न लगेगी.! अब तो आँखों का पानी भी सूख रहा है.? अभी समय आ गया है अपने अंदर के एवं बाहर के पानी को बचाने का.!
“पानी खूब बचाइये,पानी है अनमोल
बिन पानी जीवन नहीं,समझें इसका मोल”
आइये हम सब यह प्रण करें कि हम व्यर्थ पानी न बहाएंगे,इसका समुचित उपयोग और बचत कर जल संवर्धन में सहायक बनेंगे.! ताकि हमारा भविष्य उज्जवल हो.अन्यथा हमें यही कहना पड़ेगा कि “बिन पानी..! मुश्किल ज़िंदगानी.”
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बलि बोल कहे बिन उत्तर दीन्ही…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 187 ☆ बलि बोल कहे बिन उत्तर दीन्ही… ☆
आम बोलचाल की भाषा के मानक तय होते हैं जिन्हें सुनते ही अपने आप विशिष्ट अर्थ निकलता है। लिखने पढ़ने वालों को इनका उपयोग करते समय सतर्कता बरतनी चाहिए। शब्द ब्रह्म होते हैं जिनका अस्तित्व ब्रह्मांड में बना रहता है, जो देर सबेर लौट कर आते हैं। इसलिए अनुभवी लोग कहते हैं, तोल मोल के बोल, अच्छा और सच्चा बोलो।
जब तक भाषा पर पकड़ मजबूत न हो अपनी बातों को बोलते समय ध्यान रखना चाहिए। एक बार अनर्थ हो तो उसे अनेकार्थी बनने से कोई नहीं रोक सकता। सब लोग अपनी मर्जी से व्याख्या करते हैं।
कहते हैं क्षमा बड़न को चाहिए छोटो को उत्पात। पर प्रश्न ये है, कि कोई कब तक युवा बना रहेगा कभी तो बुजुर्ग होना होगा, यदि समझदारी नहीं दिखाई तो जिम्मेदारी मिलने से रही। आखिर मुखिया को मुख सा होना चाहिए जो-
पाले पोसे सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।
जितने लोग उतनी बातें, पर कुछ मुद्दों में सभी एक सुर से सही का साथ देते हैं और भीड़ में अकेले रह जाने का दर्द तो गलती करने वाले को भुगतना होगा। खैर जब जागो तभी सबेरा समझते हुए क्षमा मांगो और नयी शुरुआत करते हुए सर्वजन हितात सर्व जन सुखाय पर चिंतन करके राष्ट्रप्रेमी विचारों के साथ आगे बढ़ो।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “झोली भर दे…“।)
अभी अभी # 316 ⇒ झोली भर दे… श्री प्रदीप शर्मा
आप जब बाजार सौदा खरीदने जाते हैं, तो झोला लेकर जाते हैं, कीमत चुकाते हैं, झोला भरकर घर ले आते हैं, लेकिन जब मंदिर में ईश्वर से कुछ मांगने जाते हैं, तो अपनी श्रद्धानुसार पत्रं पुष्पम् समर्पित कर झोली फैला देते हैं। ईश्वर आपकी मुराद पूरी कर देता है, आपकी झोली भर देता है। कहा जाता है, आप उसके दर पर भले ही खाली हाथ जाओ, वह आपको कभी खाली हाथ वापस नहीं भेजता, आपकी झोली भरकर ही भेजता है।
यह पूरी तरह आस्था का मामला है। हर सवाली वहां भिखारी बनकर ही जाता है। दुनिया के सभी ताज, टोपी और पगड़ी वाले को हमने उसके आगे झुकते देखा है, और जो नहीं झुका, उसे बिगड़ते, बर्बाद होते भी देखा है। सीना छप्पन का हो, अथवा ताज हीरों का, उसकी चौखट पर कोई सर रगड़ता है तो कोई नाक।
उसकी किरपा हो तो मालामाल और उसका कोप हो तो सब ख़ाक।।
आखिर क्या होती है यह झोली और इसे कैसे फैलाया जाता है। मैं जब अपनी मां के साथ मंदिर जाया करता था, तो मां कुछ देर के लिए भगवान के सामने आंख बंद कर, अपना आंचल फैला देती थी। मैं घर आते वक्त पूछता था, मां आपने भगवान से क्या मांगा ? मां ने कभी जवाब नहीं दिया, लेकिन मुझे आज महसूस होता है, जिस मां के आंचल में मुझे जिंदगी की सारी खुशियां मिली हैं, मां ने झोली फैलाकर मेरे लिए वो खुशियां ही मांगी होंगी, क्योंकि मां ने अपने लिए भगवान से कभी कुछ नहीं मांगा।
किसी मां के पास साड़ी है तो किसी बहन के पास दुपट्टा। वह उसे जब ईश्वर के सामने फैलाती है, तो वह झोली बन जाती है। इधर झोली फैलाई, उधर मुराद पूरी हुई। मैं जब भी मंदिर गया हूं तो यंत्रवत् मेरी आंखें बंद हो जाती हैं और हाथ भी जुड़ जाते हैं लेकिन मेरे पास फैलाने के लिए कोई झोली नहीं होती। आंख खोलता हूं, पंडित जी प्रसाद देते हैं, मैं उसे श्रद्धा से ग्रहण कर, रूमाल फैलाकर उसमें बांध लेता हूं। मेरे लिए वही मेरी झोली है। भगवान का वह प्रसाद ही उनकी मुझ पर कृपा है। मुकेश का यह एक गीत गुनगुनाता मैं उसके दर से खुशी खुशी घर आ जाता हूं ;
बहुत दिया देने वाले ने तुझको।
आंचल ही न समाये तो क्या कीजे।।
झोली से बचपन याद आ गया। गांव में सहपाठियों के साथ खेलना, खेत में, अमराई में घुस जाना। पत्थर फेंककर अमियां तोड़ना, कमीज की नन्हीं सी जेब, छोटे छोटे हाथ। मजबूरन कमीज को ही झोली बनाते और जितनी कच्ची कच्ची केरियां झोली में समातीं, लेकर भाग खड़े होते।
इच्छाएं बढ़ती गईं, झोली बड़ी होती चली गई। झोली नहीं, चार्टर ऑफ डिमांड्स हो गई। देने वाले का क्या है, वह तो जिसे देना होता है, छप्पर फाड़कर भी दे ही देता है।
कभी दूसरे के लिए भी झोली फैलाकर देखें, कितना सुख मिलता है। वैसे इस सनातन प्रार्थना में झोली फैलाकर यही सब तो मांगा गया है उस सर्व शक्तिमान से ;
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख– लंदन से 4 – मिस्टर सोशल के फेसबुक अपडेट।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 267 ☆
आलेख– लंदन से 4 – मिस्टर सोशल के फेसबुक अपडेट
मिस्टर सोशल सोते, जागते, खाते, पीते, मीटिंग में हों, या किसी के घर गए हों, टीवी देख रहे हों या वाशरूम में हों, कोई उनसे बात कर रहा हो या वे किसी से रूबरू हों, वे सदा मोबाइलमय ही रहते हैं । मोबाइल ही उनकी लेखनी है, मोबाइल ही बजरिए फेसबुक उनकी प्रदर्शनी है ।
गुड मॉर्निंग दोस्तों ( बिस्तर पर पड़े पड़े) उनका पहला अपडेट आया ।
सुबह नींद देर से खुली, सूरज पहले ही ऊग आया था, पड़ोसी के मुर्गे की बांग तो सुनाई नहीं दी शायद वह भी आज देर तक सोता रह गया, या क्या पता कल रात उसके जीवन का अंत हो गया हो।
टूथ पेस्ट खत्म हो गया है, आफिस में व्यस्तता इतनी है कि लाना ही भूल जाता हूं। आज तो बेलन चलाकर सीधे टूथ ब्रश पर बचा खुचा पेस्ट निकाल कर काम चला लिया है। शाम को याद से लाना होगा। ( ब्रश करने के बाद चाय पीते हुए )
नाश्ते में उबले अंडे, केवल सफेद भाग और स्प्राउट। आफ्टर आल हेल्थ इज वेल्थ । ( नाश्ते की टेबल से)
तैयार होने के बाद उन्होंने स्वयं को मोबाइल के सेल्फी मोड में निहारा, और एक क्लिक कर लिया । सेल्फी चेंप दी … रेडी फार आफिस ।
तीन मित्रों और बास के मिस्ड काल थे, बातें कर लीं । व्हाट्स एप भी चैक किया,संपर्क में बने रहना चाहिए। नो क्मयूनिकेशन गैप इन लाइफ ।
(आफिस जाते समय कार से)
टिंग की आवाज हुई एक मेल का नोटिफिकेशन था । उन्होंने बिना विलंब मेल खोला, अरे वाह प्रकाशक ने उनकी आगामी किताब के कवर पेज के तीन आप्शन भेजे थे । तुरंत उन्हें फेसबुक पर पोस्ट करते हुए लिखा । शुभ सूचना, नई किताब का कवर भेजा है प्रकाशक ने।आप ही बताएं किसे फाइनल करूं ?
इसके बाद जब तक कार चौराहे के लाल सिग्नल पर खड़ी रही उन्होंने फटाफट अपनी सुबह से की गई पोस्ट पर आए लाइक्स और कमेंट पर इमोजी के जरिए सबको रिस्पांस किया । सबसे ज्यादा कमेंट सेल्फी वाली पोस्ट पर थे । कुछ मातहत और संपर्क के लोग जिनके काम उनके पास अटके थे, ने गुड मॉर्निंग से लेकर अब तक के सारे पोस्ट लाइक किए थे । वे लोग जैसे उनके फेसबुक कास्ट का इंतजार ही करते रहते हैं कि कब वे कुछ पोस्ट करें और वे लाइक और कमेंट करें । शेयर करने जैसे पोस्ट उनके कम ही होते हैं, क्योंकि उन्हें जमाने से अधिक आत्म प्रवंचना पसंद है। वे सोशल प्लेटफार्म पर शिक्षा लेते नहीं देते हैं।
आफिस पहुंचने से पहले वे सर्फिंग करते हुए दस बीस अनजाने फेसबुक के दोस्तों को लाइक्स भी बांट देते हैं, जन्मदिन पर बधाई दे देते हैं । यह सोशल बोनी कहलाती है, क्योंकि सद्भावना प्रतिक्रिया में ये लोग भी उनकी पोस्ट लाइक्स करते ही हैं, जो पोस्ट की रीच को रिच कर उन्हें टेकसेवी बनाती है।
जब यह सब निपट गया, और फिर भी आफिस टाइम ट्रैफिक जाम के चलते उन्हें कार्यालय पहुंचने में विलंब लगा तो उन्होंने खिड़की से नजर बाहर घुमाई, और सीधे फेसबुक पर उनकी कविता जन्मी…
ट्रैफिक में रेंगती हुई कार
कार के अगले दाहिने कोने पर
ड्राइवर, स्टीयरिंग संभाले हुए
पिछले बाएं कोने पर
गद्देदार सीट पर मैं
विचारों की कश्मकश
लक्ष्य बड़े हैं
फेसबुक दोस्त महज पांच हजार हैं
और मुझे अपने विचार पहुंचाने हैं
सारी दुनियां में
हर हृदय तक
उन्हें लगा एक अच्छी कविता बन चुकी है। बिना देर किए उन्होंने रचना फेसबुक पर चिपका दी । साथ में एक तुरंत लिया हुआ ट्रैफिक का फोटो भी । कमेंट आने शुरू हो गए। जब त्रिवेंद्रम से सुश्री स्वामीनाथन का लाइक आया तो उन्हें आभास हो गया कि वास्तव में रचना बढ़िया बन गई है। उन्होंने रचना कापी की और एक भक्त संपादक को अखबार के रविवारीय परिशिष्ट के लिए, फोटो सहित मेल कर दी । साथ ही अपनी आगामी किताब के कलेवर के लिए भी डाक्स में सेव कर ली ।
आफिस आ गया था, वे मुस्कराते हुए कार से उतरे और सोशल मीडिया से रियल लाइफ में एंटर हो गए ।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – “अजंता एलोरा से संख्यात्मक रूप से समृद्ध धामनार की गुफाएं”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 163 ☆
☆ आलेख – अजंता एलोरा से संख्यात्मक रूप से समृद्ध धामनार की गुफाएं ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
प्राचीनकाल में मालवा प्रांत शिक्षा, दीक्षा और धर्म का प्रचार का सबसे बड़ा व प्रभावी केंद्र रहा है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार वर्तमान दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग वाला रास्ता प्राचीन काल में व्यापारियों का भारत में व्यापार करने का प्रमुख मार्ग रहा है। इसी मार्ग की चंदनगिरी पहाड़ी पर धम्मनगर बसा हुआ था। यह वही इतिहास प्रसिद्ध धम्मनगर है जहां एक ही शैल को तराश कर धर्मराजेश्वर मंदिर, ब्राह्मण, बौद्ध और जैनन गुफाएं बनी हुई है।
संख्यात्मक दृष्टि से देखें तो अजंता एलोरा और धम्मनार की गुफाओं में सर्वाधिक गुफाएं यहीं धम्मनगर में स्थित है। दिल्ली मुंबई मार्ग के रास्ते में शामगढ़ रेल मार्ग से 22 किलोमीटर दूर स्थित चंदवासा गांव है। इसी गांव से 3 किलोमीटर अंदर जंगल में धम्मनगर जिस का वर्तमान नाम धमनार है, स्थित है। यहां के जंगल में स्थित चंदनगिरी पहाड़ियों के 2 किलोमीटर हिस्से में गुफाएं फैली हुई है।
इतिहासकार जेम्स टाड़ सन 1821 में यहां आए थे। तभी उन्होंने अश्वनाल की आकृति की श्रृंखला में बनी 235 गुफाओं की गणना की थी। तभी से यह दबी, छुपी और पर्यटन आकाश से विलुप्त हुई गुफाएं अस्तित्व में आई है। चूंकि ये गुफाएं चंबल अभ्यारण व आरक्षित वन क्षेत्र में होने से यहां ठहरने, खाने-पीने और आवास की व्यवस्था नहीं होने से यह पर्यटन क्षेत्र में विकसित नहीं हो पाई।
इसी कारण से इस क्षेत्र की अधिकांश गुफाएं रखरखाव के अभाव में खंडहर में तब्दील हो गई है। इतिहासकार जेम्स फर्गुसन ने यहां आकर गुफाओं की गणना की थी। उन्हें यहां की 170 गुफाएं महत्वपूर्ण लगी। इसी के बाद पुरातत्व विभाग ने इनकी गणना की। जिनकी संख्या 150 से अधिक निकली। इनमें से 51 गुफाओं को पुरातत्व विभाग ने संरक्षित घोषित किया है।
जैसा कि पूर्व में बताया गया है यह क्षेत्र चंबल अभ्यारण में होने से यहां पर सुबह से शाम तक ही गुफाओं के दर्शन करने के लिए आया जा सकता है। यदि आप भूले-भटके संध्या के समय आ गए तो आपको 22 किलोमीटर दूर शामगढ़ जाकर विश्राम व खानपान आदि का लुफ्त उठाना पड़ेगा।
गुफाओं की संख्या व इतिहास की दृष्टि से देखें तो धम्मनगर की गुफा संख्या की दृष्टि से अजंता-एलोरा से सर्वाधिक ठहरती है। चूंकि अजंता की गुफाएं 200 से 600 ईसा पूर्व में निर्मित हुई थी। यहां बौद्ध धर्म से संबंधित चित्रण और बारीकी शिल्पकार की गई है। वहीं एलोरा की गुफाएं पांचवी से सातवीं शताब्दी के बीच निर्मित हुई थी, जिनमें से 17 हिंदू धर्म की गुफाएं, 12 बौद्ध धर्म की गुफाएं तथा 5 जैन धर्म की गुफाएं पाई गई है। इस तरह एलोरा में 34 गुफाएं विश्व धरोहर घोषित की गई है।
चूंकि कालक्रम के अनुसार अजंता से चौदह शताब्दी बाद धम्मनार की गुफाएं निर्मित हुई है। यह आठवीं और नौवीं शताब्दी में निर्मित गुफाएं हैं। जबकि अजंता की गुफाएं 200 से 600 ईसा पूर्व में निर्मित हुई थी। उन्हीं की तर्ज, शैली, वास्तुकला और उसी तरह के एक शैल पर उत्कीर्ण करके बनाए गई हैं। इसलिए उनसे संख्या में ज्यादा होने के कारण उनसे उत्कृष्ट थी।
इसकी उत्कृष्टता को कई कारणों से समझा जा सकता है। एक तो यहां भी परंपरा के अनुसार ब्राह्मण धर्म गुफाएं हैं। इसके लिए धर्मराजेश्वर का मंदिर लेटराइट पत्थर को तराश कर बनाया गया है। फर्क इतना है कि अजंता-एलोरा का कैलाश मंदिर दक्षिण भारती द्रविड़ शैली में बना हुआ है जबकि धर्मराजेश्वर का मंदिर उत्तर भारतीय नागरिक शैली में उत्कीर्ण है। दोनों मंदिरों में मुख्य मंदिर के साथ-साथ 7 लघु मंदिर हैं। यहां पर द्वार मंडप, सभा मंडप, अर्ध मंडप, गर्भ ग्रह और कलात्मक उन्नत शिखर जो कलशयुक्त है, उत्कीर्ण हैं।
दूसरा इसे व्यापारक्रम से भी समझा जा सकता है। यहां समुद्र मार्ग से व्यापार करने वाले व्यापारी इसी मार्ग से गुजरते थे। उनके लिए यहां ठहरने, विहार करने और विश्राम की उत्तम व्यवस्था थी। इस दौरान वे धर्म की शिक्षा-दीक्षा के लिए भी समय निकाल लिया करते थे।
प्राचीन काल में धर्म के प्रचार-प्रसार, शिक्षा-दीक्षा, विहार-आहार और पूजा-पाठ, प्रार्थना-अर्चना आदि कार्य प्रमुख केंद्र था। यहीं से विभिन्न प्रांत, प्रदेश, देश, विदेश में धर्म के प्रचार-प्रसार, शिक्षा-दीक्षा के लिए अनुयाई जाते-आते थे। इस कारण भारत की ह्रदय में स्थित होने से यह स्थान संपूर्ण भारत के लिए महत्वपूर्ण केंद्र था।
गुफाओं की समृद्धि के आधार पर देखें तो यहां की गुफाओं में बौद्ध धर्म, जैन धर्म से संबंधित धर्म की शिक्षा का चित्रण, भित्ति पर शिल्पकारी और गौतम बुद्ध की प्रतिमाएं विभिन्न मुद्रा में ऊपरी उकेरी गई है। यहां बुद्ध की बैठी, खड़ी, लेटी, निर्वाण, महानिर्वाण शैली की कई प्रतिमा लगी हुई है। इन गुफाओं में स्तुप, चैत्य, विहार और महाविहार की उत्तम व्यवस्था थी।
इसके लिए यहां उपासना गृह, पूजा स्थल, अर्चना के कक्ष तथा ध्यान केंद्र के लिए उपयुक्त स्थान बने हुए हैं। यहां पर निर्माण मुद्रा में बैठी गौतम बुद्ध की बड़ी-बड़ी मूर्तियां उकेरी गई है। इस जैसी मूर्तियां अजंता-एलोरा में भी देखी जा सकती है।
यहां की गुफाओं में से सात नकाशीदार गुफाएं हैं। इन 51 क गुफाओं में स्तुप, चैत्य, मार्ग और आवास बने हुए हैं। शैल उत्कीर्ण खंभे, लंबा-चौड़ा दालान, आवास श्रृंखला, ध्यान केंद्र, उपासना केंद्र, पूजा-अर्चना स्थल की एक लंबी श्रृंखला है।
इसके बारे में कहा जाता है कि जब ओलिवर वंश का शासन था तब यहां शिक्षा का बहुत बड़ा केंद्र मालव में था। उस समय पूरे मालवा प्रांत में उल्लेखनीय शिक्षा-दीक्षा दी जाती थी। यहां पर उत्कृष्ट वास्तु व भवनकला, पच्चीकारी व पत्थर पर मीनाकारी के उत्कृष्ट शिक्षा-दीक्षा, पूरी वैज्ञानिक रीतिनिति व योजना को मूर्त देकर दी जाती थी। इसी समय यहां के राष्ट्रकूट शासन ने हिरण्यगर्भ यज्ञ किया था। जिसने बौद्ध धर्म के अनुयाई जो पूर्व में हिंदू धर्म से धीरे-धीरे बौद्ध धर्म में पर दीक्षित हुए थे उन्हें ब्राह्मण धर्म में परिवर्तित किया गया था।
चूंकि एलोरा की 17 हिंदू गुफा, 12 बौद्ध गुफा, 7 जैन गुफा कालक्रम अनुसार हिंदुओं के बौद्ध धर्म से जैन धर्म के क्षेत्र में विकसित होने हुए आगे बढ़ने की कथा कहती है। वहां हिरण्यगर्भ यज्ञ की बात सही प्रतीत होती है।
वैसे धम्मनगर की गुफाएं विश्व की उत्कृष्ट बौद्धविहार की गुफाएं, धर्म की उपासना का केंद्र, शिक्षा-दीक्षा के महत्वपूर्ण स्थल के साथ प्राचीन व्यापारी मार्ग का महत्वपूर्ण स्थान थी। इसमें दो राय नहीं है। आप यहां इंदौर, भोपाल, उदयपुर से हवाई जहाज से होकर शामगढ़ पहुंच सकते हैं। मंदसौर से 75 किलोमीटर दूर शामगढ़ से 22 किलोमीटर तथा चंदवासा से 3 किलोमीटर जंगल में स्थित इस स्थान पर बस व निजी साधन द्वारा आप सकुशल आ सकते हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बॉन्ड एंबेसेडर…“।)
अभी अभी # 315 ⇒ बॉन्ड एंबेसेडर… श्री प्रदीप शर्मा
हम भी अजीब हैं। हमारी पीढ़ी को आप चाहें तो बॉन्ड एंबेसेडर कह सकते हैं। ऐसा कौन इंदौरी होगा, जिसने स्टार लिट टॉकीज में अंग्रेजी फिल्में नहीं देखी हों। जेम्स बॉन्ड 007 तब बच्चे बच्चे की जबान पर होता था। क्या नाम था उसका, सीन कॉनेरी, जिसे कुछ लोग सीन सीनरी भी कहते थे।
अंग्रेजी कभी हमारी मादरे ज़ुबां नहीं रही, फिर भी हमें अंग्रेजी फिल्मों से विशेष प्रेम रहा। वैसे भी प्रेम रोमांस और मारधाड़ की कोई भाषा नहीं होती।
भाषा के बारे में हमारी पुख्ता जानकारी यह कहती है कि अंग्रेजी और उर्दू तो कोई जुबान ही नहीं है। कोई ग्रीक और लैटिन से निकली है, तो कोई अरबी और फ़ारसी से। अगर हमें संस्कृत आती, तो हम भी कभी हिंदी में बात ही नहीं करते। सब समय समय की बात है।।
वह डॉन का नहीं, गॉडफादर और घोड़े पर हैट लगाए काउब्वॉय का जमाना था। हम साइकिल पर चलने वाले तब एंबेसेडर कार को ऐसे देखते थे, जैसे आज लोग विदेशी कारों को देखते हैं। इक्की दुक्की फिएट और एंबेसेडर कारें ही सड़कों पर दौड़ा करती थी। मारुति तो तब पैदा भी नहीं हुई थी।
हम तब इतने गये गुजरे भी नहीं थे। हमें एंबेसेडर का एक और मतलब भी मालूम था, राजदूत। राजदूत से खयाल आया, मोटर साइकिल भी तो दो ही थी, राजदूत और रॉयल एनफील्ड। वेस्पा, लैंब्रेटा ने पूरे देश को आपस में बांट रखा था। चल मेरी लूना (मोपेड) का भी तब कहीं अता पता नहीं था।।
कई जेम्स बॉन्ड आए और चले गए, और हिंदी फिल्मों में डॉन का प्रवेश हो गया।
स्टार लिट और बेम्बिनो जैसे टॉकीज नेस्तनाबूद हो गए। कल का जेम्स बॉन्ड 007 बूढ़ा बरगद हो गया, और इधर हमारे देश में ही नए ब्रांड एम्बेसडर पैदा हो गए। जितने ब्रांड उतने एंबेसेडर। कोई चार दिन गुजरात में गुजारने की बात करता रहा तो कोई जुबां केसरी से खुशबू महकाता रहा।
इसी बीच एक ऐसे इंडियन ब्रांड एंबेसेडर ने जन मानस में प्रवेश किया, जिसने सभी जेम्स बॉन्डों, गॉडफादरों और कॉब्वॉयज को पीछा छोड़ दिया। कभी वह समंदर में समाधि लगाता तो कभी हरमंदर में। अफ्रीकन सफारी को भी मानो अपना ब्रांड एंबेसेडर मिल गया हो। हमें कभी कभी तो उसे देखकर हमारे हीरो हेमिंग्वे की याद आने लगती।
आज भी वही भारत का जेम्स बॉन्ड 007 है और इंडियन ब्रांड एंबेसेडर भी। फौलादी इरादों के लिए फ़ौलादी बदन भी होना चाहिए। आज भले ही हम कल जैसे स्टार लिट टॉकीज में अंग्रेजी फिल्में नहीं देख पा रहे हों, लेकिन एडवेंचर, रोमांच और बहादुरी का बॉन्ड, हमारा भारतीय ब्रांड एंबेसेडर हमारे बीच हो, तो देशभक्ति के साथ साथ, मनोरंजन की तो पूरी गारंटी। स्वदेशी बॉन्ड, इंडियन ब्रांड एंबेसेडर हमारा परिवार।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उम्मीद की भैंस…“।)
अभी अभी # 314 ⇒ उम्मीद की भैंस… श्री प्रदीप शर्मा
मुझे भैंस से विशेष लगाव है, और अधिकतर मैं इसी का दूध पीता चला आया हूं क्योंकि इसका दूध गाढ़ा और मलाईदार होता है। गाय का दूध अधिक पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक होता है, यह जानते हुए भी शायद मेरी अक्ल घास चरने चली जाती है, जो मैं अधिक मलाई और स्वाद के चक्कर में भैंस के दूध को ही अधिक पसंद करता हूं।
बचपन में मैंने भी बहुत गाय का दूध पीया है। सुबह स्विमिंग पूल में तैरने जाना और वापसी में एक ग्वाले के यहां पीतल के बड़े ग्लास में शुद्ध गाय के इंस्टंट यानी ताजे कच्चे का सेवन करना और अपनी सेहत बनाना।।
आज भी केवल दो ही दूध तो आम है, गाय का और भैंस का। होता है बकरी का दूध भी, जिसे गांधीजी पीते थे। जो लोग बकरी पालते हैं, वे बकरी का तो दूध पी जाते हैं और बकरा बेच खाते हैं। बकरा खाने से बकरा बेच खाना उनके लिए अधिक आय का साधन भी हो सकता है।
भैंस की तरह बकरी भी उम्मीद से होती है। वह भी खैर मनाती होगी कि बकरी ही जने। अगर बकरी हुई तो दूध देगी और अगर बकरा हुआ तो वह बलि का बकरा ही कहलाएगा। अगर बकरी का भी उम्मीद के वक्त भ्रूण परीक्षण हो, तो वह भी मेमना गिरा देना ही पसंद करेगी। मुर्गी दूध नहीं अंडे देती है और अगर उम्मीद से हुई तो मुर्गा भी दे सकती है। आज तक किसी उम्मीद की मुर्गी ने सोने के अंडे नहीं दिए, खाने के ही दिए हैं।।
उम्मीद पर दुनिया जीती है। भैंस ही उम्मीद से नहीं होती, गाय भी उम्मीद से होती है। वह भी या तो बछिया जनेगी अथवा बछड़ा। दान की बछिया के दांत नहीं गिने जाते, यानी यहां भी बछड़े का दान नहीं होता, बछिया देख किसकी बांछें नहीं खिलेंगी। रोज जब भी शिव जी को जल चढ़ाएं तो नंदी महाराज को नहीं भूलें, लेकिन अगर उम्मीद की भैंस पाड़ा जन दे, तो नाउम्मीद ना हों, समझें एक और नंदी ने अवतार लिया है।
प्राणी मात्र की सेवा से पुण्य मिलता है, लेकिन ईश्वर गवाह है, गौ सेवा की तो बात ही निराली है। गाय भैंस पालने के लिए तो आपको डेयरी खोलनी होगी, स्टार्ट अप में इसका भी प्रावधान है। आप चाहें तो देश में फिर से घी दूध की नदियां बहा सकते हैं। उम्मीद पर ही तो दुनिया कायम है। कुक्कुट पालन भी एनिमल हस्बेंड्री का ही एक प्रकार है। सेवा की सेवा, और मेवा ही मेवा।।
भैंस में भले ही अक्ल ना हो, वह चारा खाती हो, लेकिन जिनकी अक्ल भैंस चरने नहीं जाती, वे ही भैंस का चारा खा सकते हैं। आम के आम और गुठलियों के दाम। चारा बेचने से चारा खाने में अधिक समझदारी है। यानी भैंस का दूध भी डकारा और चारा भी खा गए। मेरे भाई, फिर गोबर को क्यूं छोड़ दिया।
अन्य पशुओं की तुलना में भैंस अधिक शांत प्राणी है, क्योंकि मन की शांति के लिए ये कहीं हिमालय नहीं जाती, बस चुपके से पानी में चली जाती है। आप भी पानी में पड़े रहो, देखिए कितनी शांति मिलती है। हर भैंस पालक की भी यही उम्मीद होती है कि उसकी भैंस अधिक दूध दे, और जब भी जने, तो बस पाड़ी ही जने, पाड़ा ना जने।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख– लंदन से 3 – अंतर्राष्ट्रीय लंदन पुस्तक मेले से।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 267 ☆
आलेख– लंदन से 3 – अंतर्राष्ट्रीय लंदन पुस्तक मेले से
प्रतिष्ठित लंदन पुस्तक मेले का आयोजन इस वर्ष 12से14 मार्च 2024 तक हो रहा है। 1971 से प्रति वर्ष यह वृहद आयोजन होता आ रहा है। यह एक ऐसा आयोजन है जिसमे दुनिया भर से लेखकों, प्रकाशकों, बुक एजेंट, कापीराइट और पुस्तक प्रेमियों का भव्य जमावड़ा होता है। इस अंतर्राष्ट्रीय आयोजन में विभिन्न देशों, विभिन्न भाषाओं, के स्टाल्स देखने मिले। ओलंपिया लंदन में पश्चिम केंसिंग्टन में एक ऐतिहासिक प्रदर्शनी स्थल है, जहां यह आयोजन होता है।
लंदन पुस्तक मेले के माध्यम से साहित्यिक एजेंट, लेखक, संपादक और प्रकाशक आगामी पुस्तक परियोजनाओं पर चर्चा करने, बातचीत करने और व्यवसायिक संबंध बनाने के लिए एकत्रित होते हैं। किताबों की खरीदी, विक्रय, विमोचन, लेखकों से साक्षात्कार, कापीराइट, अनुवाद, आदि के अलग अलग सेशन विशेषज्ञ करते हैं।
नेटवर्किंग इवेंट होते हैं, जो मेले के बाद भी प्रकाशन क्षेत्र से जुड़े लोगों को परस्पर जोड़ने का काम करते हैं।
भारत का स्टाल अभी भी इंडिया नाम से ही मिला। नेशनल बुक ट्रस्ट और वाणी प्रकाशन के ही स्टाल्स थे। विभिन्न भारतीय भाषाओं की चंद किताबें प्रदर्शित थी। मुझे आशा खेमका की आत्म कथा India made me, and Britain enabled me, एवं पद्मेश गुप्ता जी के कहानी संग्रह डैड ऐंड के हिंदी तथा उसके AI से किए गए अंग्रेजी अनुवाद की किताबों के विमोचन में सहभागी रहने का अवसर मिला।
दिल्ली के पुस्तक मेले की स्मृतियां दोहराते हुए यहां घूमना बहुत अच्छा लगा। यद्यपि दिल्ली में अनेकों परिचित लेखकों से भेंट हो जाती थी, पर यहां व्यक्तिगत न सही कुछ परिचित लेखकों की किताबों से रूबरू जरूर हुआ।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 75 ☆ देश-परदेश – रस ☆ श्री राकेश कुमार ☆
भारत की रसमलाई दुनियाभर में दूसरा सबसे स्वादिष्ट चीज डेजर्ट
बाल्यकाल में सबसे प्रिय गन्ने का रस हुआ करता था। हाथ गाड़ी वाला घर के बाहर आकर पुकार लगाता था। पहले इकन्नी बाद में दस पैसे में रसपान सुविधा उपलब्ध हुआ करती थी।
रसगुल्ले जब कोई परिचित हांडी में भेंट स्वरूप लेकर घर पर आता था, तो हम भाई बहन रस पर नज़र रखते थे, क्योंकि रसगुल्ले की संख्या की तो गणना हो जाती थी, रस की हांडी में तो कोई भी बाजी मार सकता था। वैसे बाद में ब्रेड के साथ रस के शाही टोस्ट बनने लगे थे। हांडी को साफ कर गर्मियों में पक्षियों के लिए जल भर कर पुण्य कमाया जाता था।
पाठशाला में जब माध्यमिक स्तर पर पहुंचे तो पता चला रस के ग्यारह भेद भी होते हैं। गुरुजन जब मुंह जबानी पूछते थे, तो हमेशा आठ/नौ ही याद आते थे।
आज प्रकाशित समाचार से जानकारी प्राप्त हुई कि हमारे देश की रसमलाई विश्व की दूसरी सबसे स्वादिष्ट “चीज़” द्वारा निर्मित मिठाई है।
चीज़ शब्द हमारे यहां बहुतायत से उपयोग किया जाता हैं। कपड़े की दुकान पर अक्सर हम लोग कहते है, कोई बढ़िया चीज दिखाएं। युवाकाल में जब कोई आकर्षित अपरिचित युवती पर दृष्टि पड़ जाती थी, तो मित्र कहा करते थे “क्या चीज” है।
हम भी कहां फालतू चीज़ों में उलझ गए है। मलाई पर ध्यान देना चाहिए। सरकारी सेवा में कार्यरत अधिकतर लोग “मोटी मलाई” हासिल कर लेते हैं। कुछ विभाग में तो मलाई वाली पोजीशन भी होती है। हमारे यहां तो दूध पर भी मलाई नहीं जम पाती है। सप्रेटा दूध में मलाई क्या खाक आयेगी।
अब आप जब भी रसमलाई खायेंगे तो और अधिक स्वादिष्ट लगेगी, क्योंकि किसी विदेशी संस्था ने इसकी पुष्टि जो कर दी।