हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 146 ⇒ बाप कमाई… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बाप कमाई”।)

?अभी अभी # 146 ⇒ बाप कमाई? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

सुनने में भले ही आपको यह अच्छा ना लगे, बाप तक क्यों चले गए, आप भाषा को थोड़ा झाड़ पोंछ लें, इसे अपने पिताजी की खून पसीने की, मेहनत की कमाई कह लें, लेकिन इससे सच नहीं बदलने वाला, कहलाएगी वह बाप कमाई ही।

सोचिए, आप जब पैदा हुए थे, तो क्या साथ लाए थे, मां ने आपको जन्म दिया, उसका दूध पीकर तो आप पले बढ़े, कैसे उतारेंगे दूध का कर्ज़, कभी सोचा है। माता पिता के कर्ज़ से उऋण होना इतना आसान भी नहीं।।

भले ही उस जमाने में आपके पिताजी दो पैसे कमाते थे फिर भी पूरे परिवार का पेट पालते थे।

आज जितनी जनसंख्या और महंगाई तब भले ही ना हो, फिर भी परिवार आज की तुलना में अधिक बड़ा और भरा पूरा होता था। नहीं पढ़ाया आपको किसी महंगे पब्लिक स्कूल में, फिर भी संस्कार तो दिए। बड़ों का आदर सम्मान करना, उन्हें प्रणाम करना।

जो भी चीज घर में आती थी, सबको बराबरी से बांटना, आपके त्योहारों पर कपड़े लत्तों का खयाल रखना, बीमार होने पर दवा दारू की व्यवस्था करना, कमाने वाला एक, और खाने वाले दस, फिर भी अपने से अधिक आपका ध्यान रखा, तब जाकर आप आज इस स्थिति में आ गए कि आपको यह शब्द भी चुभने लगा।।

मुझे यह स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं कि मैं तो आज भी बाप कमाई ही खा रहा हूं। मेरे माता पिता को गुजरे कई वर्ष गुजर गए, लेकिन जो अपार धन संपत्ति मेरे नाम कर गए हैं, वह पीढ़ियों तक खत्म नहीं होने वाली। आपको शायद भरोसा ना हो, अतः संक्षेप में उसका विस्तृत वर्णन दे रहा हूं।

मेरी माता से मुझे विरासत में संतोष धन मिला, और वह भी इतना कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा। जीवन भर केवल दो साड़ियों में अपना गुजारा करने वाली मेरी मां का पेट तब तक नहीं भरता था, जब तक घर के सभी सदस्यों का भोजन ना हो जाए। सादगी ही उनका आभूषण था, लेकिन वह अपनी सभी बहू बेटियों को सजा धजा देखना चाहती थी। दूसरों की खुशी में खुश होना, और उनके दुख दर्द में उनका हाथ बंटाना उनका स्वभाव था।।

इसके बिल्कुल विपरीत मेरे पिताजी स्वभाव से ही रईस थे। संघर्षों के बीच, मेहनत पसीने के बल पर, ईमानदारी, व्यवहार कुशलता, समय की पाबंदी और दरियादिली से, हमें अभावों से उन्होंने कोसों दूर रखा। मोहल्ले का पहला रेडियो हमारे घर ही आया था, जिसकी लाइसेंस फीस पोस्ट ऑफिस में भरने वे खुद जाते थे।

घर में रिश्तेदारों और चिर परिचित लोगों का आना जाना लगातार बना रहता था। तब रिश्तेदार भी महीनों और हफ्तों रुका करते थे, घर में उत्सव सा माहौल सदा बना रहता था। लेकिन मजाल है कभी गरीबी में आटा गीला हुआ हो। आज जैसा नहीं, कि अतिथि तुम कब जाओगे।।

खुद्दारी, आत्म सम्मान और स्वाभिमान हम सबको उनसे ही विरासत में मिले हैं। माता पिता के आशीर्वाद से बड़ी कोई बाप कमाई नहीं होती। वे हमारे लिए जमीन जायदाद भले ही नहीं छोड़ गए हों लेकिन उनकी साख और पुण्याई ही हमारी कुल जमा पूंजी है, जो उनके आशीर्वाद से अक्षुण्ण और सुरक्षित है। उनकी नेकी, ईमानदारी, और समय की पाबंदी ही हमारी बाप कमाई है। आज भी इस दुनिया में हमारे जैसा कोई रईस और सुखी इंसान नहीं, क्योंकि आज भी हमारे ऊपर हमारे माता पिता का वरद हस्त है, उनका स्थान हमारे हृदय में है और उनका आचरण हमारे व्यवहार में।

माता पिता हमारे प्रथम गुरु होते हैं और पालक भी ! हमारी सभी सांसारिक, भौतिक और आध्यात्मिक उपलब्धियों में उनका आशीर्वाद सदा हमारे साथ रहता है। आप क्या सोचते हैं, उनको रूष्ट कर कभी आप ईश्वर को मना लेंगे।।

हम भी खाली हाथ आए थे, और खाली हाथ ही जाएंगे, लेकिन अपनी आशीर्वाद रूपी बाप कमाई साथ लेकर जाएंगे, क्योंकि ऐसे माता पिता कहां सबको नसीब से मिलते हैं। रफी साहब एक सीधे सादे नेकदिल इंसान थे, कितनी मासूमियत से वह इतनी बड़ी बात कह गए ;

ले लो, ले लो

दुआएं मां बाप की

सर से उतरेगी

गठरी पाप की ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 50 – देश-परदेश – Black Friday ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 50 ☆ देश-परदेश – Black Friday ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज शुक्रवार प्रातः काल प्रतिदिन की भांति दैनिक समाचार पत्र को खंगालने का नित्यकर्म करते हुए पूरे पृष्ठ के दो विज्ञापन देख कर कुछ नया सा प्रतीत हुआ। घरेलू विद्युत उपकरण विक्रेताओं द्वारा” ब्लैक फ्राइडे” के नाम से लुभावनी छूट दिए जाने का उल्लेख था। अभी तक तो” गुड फ्राइडे” के बारे में ही सुना हुआ था, कि ईसाई धर्म का पालन करने वाले उस दिन को विशेष मानते हैं। अपने एक ईसाई मित्र से इस बाबत बात भी करी, उसने ब्लैक फ्राइडे के बारे में अपनी अनिभिज्ञता जाहिर कर दी।

पड़ोसी और भ्रमण मित्र मंडली से भी जानकारी ना मिलने पर “सबका सहारा” गुगल से पूछताछ करनी पड़ी। गुगल ने जानकारी दी की ये एक विशेष दिन अमेरिका देश में मनाया जाता है, नवंबर माह के अंतिम शुक्रवार को प्रति वर्ष मनाया जाता है। धन्यवाद ज्ञापन भी अपने परिचितों और नातेदारी में साझा कर औपचारिकता का निर्वहन किए जाने की परंपरा हैं।

वहां का बाज़ार इस मौके को भुनाने के लिए विक्रय दरों में कमी कर बिक्री में वृद्धि कर अपना उल्लू सीधा करता हैं। हमारे अपने इतने त्यौहार और परंपराएं है, कि कभी कभी एक ही दिन में दो / तीन त्यौहार मानने पड़ते हैं।

हम पश्चिम का अनुसरण करने की प्रतियोगिता में हमेशा अव्वल रहते हैं। बाज़ारवाद हमेशा जन साधारण को गुमराह करने के चक्कर में अपनी मौलिकता और पहचान से दूर कर पश्चिम की और अग्रसर करता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 145 ⇒ घी और केबीसी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घी और केबीसी”।)

?अभी अभी # 145 ⇒ घी और केबीसी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

जो केबीसी से करे प्यार, वो घी से कैसे करे इंकार ! ३.२० की राशि कम नहीं होती, सबसे पहले तो केबीसी में प्रवेश ही इतना आसान नहीं, प्रश्न तो खैर आसान ही पूछे जाते हैं, लेकिन पुरुषार्थ के पहले भाग्य की भी परीक्षा तो होती ही है।

कुछ लोग अक्सर आयएएस और आईपीएस की प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करते करते, टहलते हुए केबीसी में पहुंच जाते हैं, फटाफट ऐसे सीढियां चढ़ते हैं, जैसे किसी मंदिर में जा रहे हों, उम्र भी रहती है, जोश भी, और तीन चार लाइफलाइन भी। ।

कितना सुखद लगता है, अपनी उपलब्धि पर दर्शकों के साथ साथ खुद भी ताली बजाना, और उससे भी रोचक वह दृश्य, जब शुरुआत में ही, फास्टेस्ट फिंगर फर्स्ट में अव्वल आने पर दोनों हाथ ऊपर कर खुशी जाहिर करना, नाचना, yes, I have done it, और भावुक हो, आंसू बहाना। महिला प्रतिस्पर्धी के लिए बिग बी रूमाल भी तैयार रखते हैं, आंसू पोंछने के लिए।

३.२० की राशि जीत का वह पड़ाव है जहां आजकल प्रतियोगी की पांचों उंगलियां घी में, और सर गर्व से उपलब्धि की बुलंदियों पर। यहां तक पहुंचने के लिए, इस जन्म में, याददाश्त बढ़ाने के लिए, दिमाग तेज करने के लिए, जितना भी दूध बादाम का सेवन किया होगा, सब ब्याज सहित वसूल। मूल ३.२० की राशि के साथ, साल भर के लिए गाय का शुद्ध, दानेदार घी भी। ।

यही तो खूबी है केबीसी की ! जब केबीसी पर घी का इस तरह विज्ञापन और प्रचार होता है, तब अमित बाबू को अपनी जबान भी काबू में रखनी पड़ती है, कहीं गलती से मुंह से, कुछ मीठा हो जाए, नहीं निकल जाए। वैसे बिग बी इतने भोले भी नहीं। आप नहीं जानते, सिर्फ “कुछ मीठा हो जाए” बोलने का वह कितना वसूल करते हैं। यूं ही नहीं कोई करोड़पति नहीं बन जाता।

किसी टीवी प्रोग्राम को रुचिकर बनाने और टीआरपी बढ़ाने के लिए क्या नहीं करना पड़ता। कभी अपने भाई भतीजों तो कभी सामाजिक कार्यकर्ताओं और सेलिब्रिटीज को केबीसी में आमंत्रित करना पड़ता है, और तरीके से, इतने कठिन लगने वाले, आसान सवाल पूछना पड़ता है, कि कम से कम, और अधिक अधिक, २५ लाख तो वह जीतकर ही जाए। ।

सफलता की सीढियां इतनी आसान नहीं होती बाबू मोशाय ! कहीं कहीं तो गाड़ी दस हजार पर ही अटक जाती है, और कहीं सरपट भागकर एक करोड़ पर पहुंच जाती है। लेकिन क्या कोई व्यक्ति केवल एक पायदान और चढ़कर, सात गुना राशि जीत सकता है। इतने मूर्ख तो नहीं होंगे केबीसी वाले।

दूर क्यों जाएं, इसी मंगलवार को एक और सज्जन केबीसी में करोड़पति बनने जा रहे हैं, देखते हैं, वे एक करोड़ पर ही अटक जाते हैं, अथवा सात करोड़ अपनी मुट्ठी में करके जाते हैं, वैसे उनकी पांचों उंगलियां तो घी में पहले से ही, हैं ही।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 207 – कर्मण्येवाधिकारस्ते! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 207 कर्मण्येवाधिकारस्ते! ?

एक युवा व्यापारी मिले।  बहुत परेशान थे। कहने लगे, “मन लगाकर परिश्रम से अपना काम करता हूँ  पर परिणाम नहीं मिलता। सोचता हूँ काम बंद कर दूँ।” यद्यपि उन्हें  काम आरम्भ किए बहुत समय नहीं हुआ है। किसी संस्था के अध्यक्ष मिले। वे भी व्यथित थे। बोले,” संस्था के लिए जान दे दो पर आलोचनाओं के सिवा कुछ नहीं मिलता। अब मुक्त हो जाना चाहता हूँ इस माथापच्ची से।” चिंतन हो पाता, उससे एक भूतपूर्व पार्षद टकराए। उनकी अपनी पीड़ा थी। ” जब तक पार्षद था, भीड़ जुटती थी। लोगों के इतने काम किए। वे ही लोग अब बुलाने पर भी नहीं आते।”

कभी-कभी स्थितियाँ प्रारब्ध के साथ मिलकर ऐसा व्यूह रच देती हैं कि कर्मफल स्थगित अवस्था में आ जाता है। स्थगन का अर्थ तात्कालिक परिणाम न मिलने से है। ध्यान देने योग्य बात है कि स्थगन किसी फलनिष्पत्ति को कुछ समय के लिए रोक तो सकता है पर समाप्त नहीं कर पाता।

स्थगन का यह सिद्धांत कुछ समय के लिए निराश करता है तो दूसरा पहलू यह है कि यही सिद्वांत अमिट जिजीविषा का पुंज भी बनता है।

क्या जीवित व्यक्ति के लिए यह संभव है कि वह साँस लेना बंद कर दे?  कर्म से भी मनुष्य का वही सम्बंध है जो साँस है। कर्मयोग की मीमांसा करते हुए भगवान कहते हैं,

‘न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।’

कोई क्षण ऐसा नहीं जिसे मनुष्य बिना कर्म किए बिता सके। सभी जीव कर्माधीन हैं। इसलिए गर्भ में आने से देह तजने तक जीव को कर्म करना पड़ता है।

इसी भाव को गोस्वामी जी देशज अभिव्यक्ति देते हैं,

‘कर्मप्रधान विश्व रचि राखा।’

जब साँस-साँस कर्म है तो उससे परहेज कैसा? भागकर भी क्या होगा? ..और भागना संभव है क्या? यात्रा में धूप-छाँव की तरह सफलता-असफलता आती-जाती हैं। आकलन तो किया जाना चाहिए पर पलायन नहीं। चाहे लक्ष्य बदल लो पर यात्रा अविराम रखो। कर्म निरंतर और चिरंतन है।

सनातन संस्कृति छह प्रकार के कर्म प्रतिपादित करती है- नित्य, नैमित्य, काम्य, निष्काम्य, संचित एवं निषिद्ध। प्रयुक्त शब्दों में ही अर्थ अंतर्निहित है। बोधगम्यता के लिए इन छह को क्रमश: दैनिक, नियमशील, किसी कामना की पूर्ति हेतु, बिना किसी कामना के, प्रारब्ध द्वारा संचित, तथा नहीं करनेवाले कर्म के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

इसमें से संचित कर्म पर मनन कीजिए। बीज प्रतिकूल स्थितियों में धरती में दबा रहता है। स्थितियाँ अनुकूल होते ही अंकुरित होता है। कर्मफल भी बीज की भाँति संचितावस्था में रहता है पर नष्ट नहीं होता।

मनुष्य से वांछित है कि वह पथिक भाव को गहराई से समझे, निष्काम भाव से चले, निरंतर कर्मरत रहे।

अपनी कविता ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ उद्धृत करना चाहूँगा-

भीड़ का जुड़ना / भीड़ का छिटकना,

इनकी आलोचनाएँ  / उनकी कुंठाएँ,

विचलित नहीं करतीं / तुम्हें पथिक..?

पथगमन मेरा कर्म / पथक्रमण मेरा धर्म,

प्रशंसा, निंदा से / अलिप्त रहता हूँ,

अखंडित यात्रा पर /मंत्रमुग्ध रहता हूँ,

पथिक को दिखते हैं / केवल रास्ते,

इसलिए प्रतिपल / कर्मण्येवाधिकारस्ते!

विचार कीजिएगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 महादेव साधना- 30 अगस्त 2023 को सम्पन्न हुई। हम शीघ्र ही आपको अगली साधना की जानकारी देने का प्रयास करेंगे। 🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 144 ⇒ सिमटती दीवारें… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सिमटती दीवारें”।)

?अभी अभी # 145 ⇒ सिमटती दीवारें? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

जब घर में बच्चे होते हैं,छोटा घर भी बड़ा लगने लगता है । बच्चे बड़े होने लगते हैं । समय के साथ,ज़रूरत के साथ, घर भी बड़ा होने लगता है । अचानक बच्चे बहुत बड़े हो जाते हैं । घर में नहीं समाते । उनके पर लग जाते हैं । वे परदेस चले जाते हैं । घर फिर छोटा हो जाता है ।बच्चों के बिना, घर बहुत ही छोटा हो जाता है ।

पहले घर, सिर्फ़ घर नहीं होता था,घर के साथ आँगन भी होता था,जिसमें आम,नीम,जाम और जामुन के पेड़ भी होते थे । आँगन में बाहर खाट पड़ी रहती थी,बच्चे खेलते रहते थे,सुबह-शाम दरवाज़े पर गाय रंभाती रहती थी । घर के साथ आँगन भी बुहारा जाता था । सभी वार त्योहार,शादी ब्याह तक उस अँगने में सम्पन्न हो जाते थे ।।

इंसानों के दायरे विस्तृत हुआ करते थे । कुछ घर-आँगन मिलकर मोहल्ला हो जाता था । सभी घर बच्चों के हुआ करते थे । कौन बच्चा किस घर में खा रहा है,और किस घर में सो रहा है,कोई हिसाब किताब नहीं रखा जाता था । एक घर के अचार की खुशबू कई दीवारें पार कर जाती थी ।

ज़िन्दगी घरों में नहीं,आंगनों में ही गुज़र जाती थी । गर्मी के दिनों में कौन घरों के अन्दर मच्छरदानी और आल आउट में सोता था ! माँ की लोरी और आसमान के तारे गिनते-गिनते,कब नींद लग जाती,कुछ पता ही नहीं चलता था । सुबह उठो,तो सूरज आसमान में सर पर नज़र आता था । अब किसी के घोड़े नहीं बिकते । सुबह का अलार्म,दूधवाला और अखबार वाला ,बच्चों के स्कूल की तैयारी और काम वाली बाई की दस्तक, सब नींद चुराकर ले जाते हैं ।।

अब घर बड़े हो गए,आँगन साफ़ हो गए, पड़ोस से सटी मोटी-मोटी दीवारें चार इंची हो गई, इस पार से उस पार की ताका-झाँकी, वस्तुओं का आदान-प्रदान बंद हो गया । सब घरों में सबके अपने अपने बेडरूम हो गए,अलग अलग सपने हो गए । इंसान सम्पन्न होता गया, अपने आप में सिमटता चला गया ।

आज घर की पक्की दीवारें महँगे एक्रेलिक पेंट से पुती हुई होती हैं,जिनमें एक खील भी ड्रिलिंग मशीन से ठोकी जाती है । याद आती हैं वे दीवारें,जिनमें ताक हुआ करती थी । बच्चे , पेंसिल,पेन जो हाथ लगे,से दीवारों पर चित्रकारी किया करते थे । आड़ी-तिरछी लकीरें बच्चों की मौज़ूदगी का अहसास दिलाती थी । हर भगवान के कैलेंडर के लिए एक नई खील ठोकी जाती थी । कपड़े खूँटी पर टांगे जाते थे ।

आज सहमी सी,सिमटी सी,साफ-सुथरी दीवारें बच्चों के लिए तरस जाती हैं । छोटे छोटे नाखूनों से दीवार में बड़े बड़े छेद कर दिये जाते थे, चोरी से वही मिट्टी खाई जाती थी । आज दीवारों से बात करने वाला कोई नहीं । महँगे कालीन को बच्चों से बचाया जाता है । बच्चे घर गंदा कर देते हैं । घरों को बच्चों से बचाया जाता है । घर मन मसोसकर रह जाता है ।घर की खामोश लिपी-पुती दीवारें मन ही मन सोचती हैं, अरे नादानों ! बच्चों से ही तो घर, घर होता है ।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 143 ⇒ विचार और शून्य… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचार और शून्य।)

?अभी अभी # 143 ⇒ विचार और शून्य? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या हम हमेशा ही सोचते, विचारते रहते हैं ! होते होंगे कुछ चिंतक और विचारक, लेकिन लगातार कौन सोचते रहता होगा। मेरी मां अक्सर शांत रहा करती थी, वह मितभाषी और मृदुभाषी थी। उनका चेहरा शांत था, लेकिन लगता था, जैसे वह हमेशा कुछ सोचती रहती हो। अगर पूछो तो यही जवाब मिलता था, नहीं कुछ नहीं !

लेकिन साफ नजर आ जाता था कि उनके सोचने की प्रक्रिया में मैने कुछ व्यवधान उत्पन्न कर दिया है। मुझे मालूम था, वह क्या सोचती थी। उन्हें सबकी चिंता रहती थी, वह सदा सबका भला ही सोचते रहती थी।

शायद सबकी मां ऐसी ही हो। हमें अपने आपके बारे में ही सोचने से फुर्सत नहीं मिलती, क्या हम किसी के बारे में सोचें। फिर भी हम सोचते ही रहते हैं, लोगों से विचार विमर्श भी करते ही रहते हैं।।

लिखने के लिए पहले विचार आता है, फिर उस विचार पर हम सोचना शुरू कर देते हैं। वह विचार हमारा विषय बन जाता है। आप सोचते रहें, विचार आते चले जाएंगे, कितनों को आप अपने शब्दों अथवा लेखनी में कैद कर सकते हैं, आप ही जानो। कोई अगर बोलता है तो उसे रेकॉर्ड करना अथवा लिखना फिर भी आसान है, लेकिन हर सोचा हुआ विचार अथवा शब्द मूर्त रूप नहीं ले सकता। मन की गति और सोचने की गति से हम बराबरी नहीं कर सकते।

जब हम कुछ सोचते, विचारते नहीं, तब हम क्या करते हैं। क्या चुपचाप बैठे रहते हैं ! जो भी हमें उस अवस्था में देखता है, यही कहता है, किस सोच में डूबे हुए हो ? तो क्या वाकई हम कभी कभी सोच में इतने डूब जाते हैं, कि हमें यह भी पता नहीं चलता, हम क्या सोच रहे थे।।

होती है एक विचार शून्य अवस्था, जिसमें हमारा चित्त शांत रहता है, और विचारों का आवागमन भी बंद सा हो जाता है, मानो विचारों पर कर्फ्यू लगा हो। पलट, तेरा ध्यान किधर है। सामने वाला नहीं जानता, आपकी अवस्था क्या है, क्योंकि उस समय आपका ध्यान उसकी ओर भी नहीं है।

योग में ध्यान की अवस्था बड़ी विचित्र है। अष्टांग योग में ध्यान का स्थान सातवां है, यानी यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहारऔर धारणा के बाद ध्यान का नंबर आता है, जिसके बाद तो सीधे समाधि ही लग जाती है। नहीं भाई, नहीं उलझना हमें इस योग के झंझट में, खास कर यम नियम की बात तो हमसे करो ही मत। अपने तो आसन वासन भले और बाबा रामदेव वाला अनुलोम विलोम और कपालभाति। और पते की बात बताऊं, साधो, सहज समाधि भली।।

सोचते सोचते कभी हम शून्य में चले जाते हैं, बस वही अवस्था तो विचार शून्य अवस्था है। दो विचारों के बीच कुछ समय ऐसा आ जाता है, जब हम कुछ भी नहीं सोचते, एक शून्य सा व्याप्त हो जाता है, अंदर, बस वही ध्यान है, लेकिन उसका समय बहुत कम होता है। जितनी शून्य की अवस्था बढ़ती जाएगी, उतना ध्यान का समय भी बढ़ता जाएगा।

साधन, चिंतन, मनन और स्वाध्याय सृजन के उत्तम सोपान हैं। शरीर और मन का निरोगी होना ही सहजावस्था है। इस अवस्था में हम खुद से ऊपर उठकर कुछ सोच विचार सकते हैं, कई अच्छे विचार इस समय मन में प्रवेश करते हैं, जिन शुभ संकल्पों का जीवन में क्रियान्वन संभव है। विचार की तरह, शून्य भी एक अनूठी उपलब्धि है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #198 ☆ ख़ामोशी एवं आबरू ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ामोशी एवं आबरू। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 198 ☆

☆ ख़ामोशी एवं आबरू 

‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते, कभी समझा नहीं पाते।’ शब्द ब्रह्म है, सर्वव्यापक है, सृष्टि का मूलाधार व नियंता है और समस्त संसार का दारोमदार उस पर है। सृष्टि में ओंम् शब्द सर्वव्यापक है, जो अजर, अमर व अविनाशी है। इसलिए दु:ख, कष्ट व पीड़ा में व्यक्ति के मुख से ‘ओंम् तथा मां ‘ शब्द ही नि:सृत होते हैं। परमात्मा ने शिशु की उत्पत्ति व संरक्षण का दायित्व मां को सौंपा है। वह नौ माह तक भ्रूण रूप में गर्भ में पल रहे शिशु का, अपने लहू से सिंचन व भरण-पोषण करती है, जो किसी करिश्मे से कम नहीं है। जन्म के पश्चात् शिशु के मुख से पहला शब्द ओंम, मैं व मां ही प्रस्फुटित होता है। मां के संरक्षण में वह पलता-बढ़ता है और युवा होने पर वह उसके लिए पुत्रवधु ले आती है, ताकि वह भी सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर अपने दायित्व का वहन कर सके।

घर में गूंजती बच्चों की किलकारियां सुनने को आतुर मां… अपने आत्मज के बच्चों को देख पुनः उस अलौकिक सुख को पाना चाहती है और यह बलवती लालसा उसे हर हाल अपने आत्मजों के परिवार के साथ रहने को विवश करती है। वहां रहते हुए वह ख़ामोश रहकर हर आपदा सहन करती रहती है, ताकि हृदय में खटास उत्पन्न न हो और कटुता के कारण दिलों में दूरियां न बढ़ जाएं। वह परिवार रूपी माला के सभी मनकों को स्नेह रूपी डोरी में पिरोकर रखना चाहती है, ताकि घर में सामंजस्य व सौहार्द बना रहे। परंतु कई बार यह ख़ामोशी उसके अंतर्मन को सालने लगती है।

वैसे ख़ामोशी की सार्थकता, सामर्थ्य व प्रभाव- क्षमता से सब परिचित हैं। ख़ामोशी सबकी प्रिय है और वह आबरू को ढक लेती है, जो समय की ज़बरदस्त मांग है। ‘रिश्ते ख़ामोशी का आभूषण धारण कर न केवल जीवित रहते हैं, बल्कि पनपते भी हैं। वे केवल उसकी शोभा ही नहीं बढ़ाते…उसके जीवनाधार हैं।’ लड़की जन्मोपरांत पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे में, विवाह के पश्चात् पति के घर की चारदीवारी में और उसके देहांत के बाद पुत्र के आशियां में सुरक्षित समझी जाती है। परंतु आजकल ज़माने की हवा बदल गई है और वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सो! समय की नज़ाकत को देखते हुए बचपन से ही उसे मौन रहने का पाठ पढ़ाया जाता है और असंख्य आदेश-उपदेश दिए जाते हैं; प्रतिबंध लगाए जाते हैं और हिदायतें भी दी जाती हैं। अक्सर भाई के साथ प्रिय व असामान्य व्यवहार देख उसका हृदय क्रंदन कर उठता है और उसके समानाधिकारों की मांग करने पर, उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि ‘वह कुल-दीपक है, जो उन्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा।’ परंंतु तुम्हें तो यह घर छोड़ कर जाना है… सलीके से मर्यादा में रहना सीखो। खामोशी तुम्हारा श्रृंगार है और तुम्हें ससुराल में जाकर सबकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए ख़ामोश रहना है… नज़रें झुका कर हर हुक्म बजा लाना है तथा उनके आदेशों को वेद-वाक्य समझ हर आदेश की अनुपालना करनी है।

इतनी हिदायतों के बोझ तले दबी वह नवयौवना, पति के घर की चौखट लांघ, उस घर को अपना घर समझ सजाने-संवारने में लग जाती है और सबकी खुशियों के लिए अपने अरमानों का गला घोंट, अपने मन को मार, ख्वाहिशों को दफ़न कर पल-पल जीती, पल-पल मरती है; कभी उफ़् नहीं करती है। परंतु जब परिवारजनों की नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरों की भांति उसकी पल-पल की गतिविधियों को कैद करती हैं और उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है। परंतु फिर भी वह ख़ामोश अर्थात् मौन रहती है; प्रतिकार अथवा विरोध नहीं दर्ज कराती तथा प्रत्येक उचित-अनुचित व्यवहार, अवमानना व प्रताड़ना को सहन करती है। परंतु एक दिन उसके धैर्य का बांध टूट जाता है और उसका मन विद्रोह कर उठता है। उस स्थिति में उसे अपने अस्तित्व का भान होता है। वह अपने अधिकारों की मांग करती है, परंतु कहां मिलते हैं उसे समानाधिकार …और वह असहाय दशा में तिलमिला कर रह जाती है। वह स्वयं को चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाती है, क्योंकि जिस घर को वह अपना समझती रही, वह उसका कभी था ही नहीं। उसे तो किसी भी पल उस घर को त्यागने का फरमॉन सुनाया जा सकता है।

अक्सर महिलाएं परिवार की आबरू बचाने के लिए ख़ामोशी का बुर्क़ा अर्थात् आवरण ओढ़े घुटती रहती हैं;  मुखौटा धारण कर खुश रहने का स्वांग रचती हैं। विवाहोपरांत माता-पिता के घर के द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं और पति के घर में वे सदा परायी अथवा अजनबी समझी जाती हैं…अपने अस्तित्व को तलाशती, हृदय पर पत्थर रख अमानवीय व्यवहार सहन करती, कभी प्रतिरोध नहीं करती। अन्तत: इस संसार को अलविदा कह रुख़्सत हो जाती हैं।

परंतु इक्कीसवीं सदी में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। बचपन से लड़कों की तरह मौज-मस्ती करना, वैसी वेशभूषा धारण कर क्लबों व पार्टियों से देर रात घर लौटना व अपने हर शौक़ को पूरा करना… उनके जीवन का मक़सद बन जाता है और वे अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने लगती हैं। सो! प्रतिबंधों व सीमाओं में जीना उन्हें स्वीकार नहीं, क्योंकि वे पुरुष की भांति हर क्षेत्र में दखलांदाज़ी कर सफलता प्रात कर रही हैं। अब वे सीता की भांति पति की अनुगामिनी बनकर जीना नहीं चाहतीं और न ही अग्नि-परीक्षा देना उन्हें मंज़ूर है। वे पति की जीवन-संगिनी बनने की हामी भरती हैं, क्योंकि कठपुतली की भांति नाचना उन्हें अभीष्ठ नहीं। वे स्वतंत्रता-पूर्वक अपने ढंग से जीना चाहती हैं। मर्यादा की सीमाओं व दायरे में बंध कर जीवन जीना उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके भयावह परिणाम हमारे समक्ष हैं। वे रिश्तों की अहमियत नहीं स्वीकारतीं; न ही घर-परिवार के क़ायदे-कानून उनके पांवों में बेड़ियां डाल कर रख सकते हैं। वे तो सभी बंधनों को तोड़ स्वतंत्रता-पूर्वक जीना चाहती हैं। सो! बात-बात पर पति व परिवारजनों से व्यर्थ में उलझना, उन्हें भला-बुरा कहना, प्रताड़ित व तिरस्कृत करना… उनके स्वभाव में शामिल हो जाता है, जिसके भीषण परिणाम तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं।

संयुक्त परिवारों का प्रचलन तो गुज़रे ज़माने की बात हो गया है। एकल परिवार व्यवस्था के चलते पति-पत्नी एक छत के नीचे अजनबी-सम रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व संबंध- सरोकारों से बेखबर… अपने-अपने द्वीप में कैद। वैसे हम दो, हमारे हम दो का प्रचलन ‘हमारा एक’ तक आकर सिमट गया। परंतु अब तो संतान को जन्म देकर युवा-पीढ़ी अपने दायित्वों का निर्वहन करना ही नहीं चाहती, क्योंकि आजकल वे सब ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास करने लगे हैं और ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ ने तो संस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं। इसलिए हर तीसरे घर की लड़की तलाक़शुदा दिखाई पड़ती है। लड़के भी अब इसी सोच में आस्था व विश्वास रखने लगे हैं और वे भी यही चाहते हैं। परंतु उन्हें न चाहते हुए भी घर में सुख-शांति व संतुलन बनाए रखने के लिए उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। अक्सर अंत में वे उसी कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जिसका हर रास्ता अंधी गलियों में खुलता है अर्थात् विनाश की ओर जाता है। सो! वे भी ऐसी आधुनिक जीवन-संगिनी से निज़ात पाना बेहतर समझते हैं। अक्सर लड़के तो आजकल विवाह करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को सीखचों के पीछे देखने की भयावह कल्पना-मात्र से कांप उठते हैं। शायद! यह विद्रोह व प्रतिक्रिया है– उन ज़ुल्मों के विरुद्ध, जो महिलाएं वर्षों से सहन करती आ रही हैं।

‘शब्द व सोच दूरियां बढ़ा देते हैं। कई बार दूसरा व्यक्ति उसके मन के भावों को समझना ही नहीं चाहता और कई बार वह उसे समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है…दोनों स्थितियां भयावह व गंभीर हैं।’ इसलिए वह अपनी सोच, अपेक्षा व भावों को उजागर भी नहीं कर पाता। इन असामान्य परिस्थितियों में मन की दरारें इस क़दर बढ़ती चली जाती हैं ,जो खाई के रूप में मानव के समक्ष आन खड़ी होती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा’ अर्थात् अजनबी बनकर जीने से बेहतर है– संबंध-विच्छेद कर, स्वतंत्रता व सुक़ून से अपनी ज़़िंदगी जीना। जब ख़ामोशियां डसने लगें और हर पल प्रहार करने लगें, तो अवसाद की स्थिति में जीने से बेहतर है… उनसे मुक्ति पा लेना। जीवन में केवल समस्याएं नहीं हैं, धैर्यपूर्वक सोचिए और संभावनाओं को तलाशने का प्रयास कीजिए। हर समस्या का समाधान उपलब्ध होता है और उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते। आवश्यकता है, शांत मन से उसे खोजने की… अपनाने की और विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की। इसलिए ‘व्यक्ति जितना डरेगा, लोग उसे उतना डरायेंगे’…सो! हिम्मत करो, सब सिर झुकायेंगे। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस धारणा-भावना को हृदय से निकाल बाहर फेंक दें, क्योंकि आपाधापी भरे युग में किसी के पास किसी के लिए समय है ही कहां… सब अपने- अपने द्वीप में कैद हैं। सो! व्यर्थ की बातों में मत उलझिए, क्योंकि दु:ख में व्यक्ति अकेला होता है और सुख में तो सब साथ खड़े दिखाई देते हैं।

इसलिए दु:ख आपका सच्चा मित्र है, सदा साथ रहता है… सबक़ सिखाता है और जब छोड़कर जाता है, तो सुख देकर जाता है। वास्तव में दोनों का एक स्थान पर इकट्ठे रहना संभव नहीं है। इसलिए संसार में रहते हुए स्वयं को आत्म- सीमित अर्थात् आत्मकेंद्रित मत कीजिए, क्योंकि यहां अनंत संभावनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह मत सोचिए कि ‘मैं नहीं कर सकता।’ सो! पूर्ण प्रयास कीजिए और सभी विकल्प आज़माइए। परंतु यदि फिर भी सफलता न प्राप्त हो, तो उस विषम व असामान्य परिस्थिति में अपना रास्ता बदल लेना श्रयेस्कर है, ताकि आबरू सुरक्षित रह सके।

ख़ामोशी मौन का दूसरा रूप है। मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया न देने से समस्याएं, बाधाओं के रूप में आपका रास्ता नहीं रोक सकतीं…स्वत: समाधान निकल आता है। इसलिए समस्या के उपस्थित होने पर क्रोधित होकर त्वरित निर्णय मत लीजिए… चिंतन-मनन कीजिए…सभी पहलुओं पर सोच-विचार कीजिए: समाधान आपके सम्मुख होगा। यही है…जीने की सर्वश्रेष्ठ कला। परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए ख़ामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं। ख़ामोशी अथवा मौन रहना उर्वरक है, जो परिवार में प्रेम व रिश्तों को गहनता प्रदान करता है। दोनों स्थितियों में प्रतिदान का भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि वह हमें स्वार्थी बनाता है। सो! किसी से आशा व अपेक्षा मत रखिए, क्योंकि अपेक्षा ही दु:खों का कारण है और मांगना तो मरने के समान है, परंतु देने में सुख व संतोष का भाव निहित है। इसलिए सहनशक्ति बढ़ाएं। यह सर्वश्रेष्ठ दवा है और ख़ामोशी की पक्षधर है, जिसके संरक्षण में संबंध फलते-फूलते व पूर्ण रूप से विकसित होते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ कामिल बुल्के जयंती विशेष – हिन्दी आंदोलन के अग्रदूत कामिल बुल्के ☆ श्री नवेन्दु उन्मेष ☆

श्री नवेन्दु उन्मेष

एक सितंबर बाबा कामिल बुल्के की जयंती पर विशेष

(1 सितंबर 1909 – 17 अगस्त 1982)

☆ आलेख ☆ हिन्दी आंदोलन के अग्रदूत कामिल बुल्के ☆ श्री नवेन्दु उन्मेष

भारत वर्ष साधु संतों की भूमि है। समस्त विश्व में भारतीय संतों की वाणी गूंजती है। संत ईसाई हो अथवा हिन्दू या मुसलमान उसका संदेश मानव जाति के लिए होता है। संत चाहे देशी हो या विदेशी उसका ज्ञान पूरे विश्व के लिए होता है। बाबा कामिल बुल्के जन्म से बेल्जियम और धर्म से ईसाई थे किंतु उनकी आत्मा भारतीय थी।

भारतीय दर्शन में उनकी गहरी रूचि थी और मातृभाषा फलेमिश रहते हुए भी वे आजीवन हिन्दी के प्रति समर्पित रहे। वे अपने आपको विशुद्ध भारतीय मानते थे। उनका हृदय हिन्दी के प्रति समर्पित था। वे हिन्दी पर किसी प्रकार का आक्षेप बर्दाश्त नहीं सकते थे। हिन्दी की रक्त उनके रग-रग में दौड़ती थी। वे जो भी सोचते-विचारते और करते सब हिन्दी में और हिन्दी  के अतिरिक्त किसी भी भाषा में नहीं। उनका कहना था कि हिन्दी जन-जन की भाषा है। यह भारतीय जनमानस की भाषा है और पूरे भारत में सभी कार्य व्यवहार में इसका व्यवहार होना चाहिए।

वे एक बार जोर देकर बोले थे- ‘-हिन्दी को रोटी के साथ जोड़ दो।‘ अर्थात् नौकरी उसे ही मिलनी चाहिए जिसे हिन्दी आती हो। वे हिन्दी प्रेमियों को बहुत मानते थे उनसे हिन्दी के संबंध में घंटो तरह-तरह की बातें करते। हिन्दी के प्रति उनके विचार जानने की भलीभांति कोशिश करते लेकिन हां, हिन्दी प्रेमी यदि उनके समक्ष अंग्रेजी में बातें करते या अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करते तब वे बिगड़ खड़े होते तथा उसे समझाते हुए कहते ’-तुम हिन्द देश के वासी हो इसलिए तुम्हें हिन्दी में बोलना चाहिए।‘

ज्ञातव्य है कि बाबा बुल्के सर्वत्र अपने भाषणों में कहा करते थे – ’हिन्दी बहुरानी है और अंग्रेजी नौकरानी।‘ किंतु एक बार हिन्दी-अंग्रेजी संबंधी वार्तालाप के दौरान  उन्होंने मुझसे कहा था – ‘कौन सा काम ऐसा है जिसे हिन्दी में नहीं किया जा सकता यदि सभी मिल-जुल कर ईमानदारी से कार्य करें तो प्रातः सूरज के उगने के साथ अंग्रेजी को हरी झंडी दिखाई जा सकती है।’

फादर कामिल बुल्के के मुख्य प्रकाशन 

  • (हिंदी) रामकथा : उत्पत्ति और विकास, 1949
  • हिंदी-अंग्रेजी लघुकोश, 1955
  • अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश, 1968
  • (हिंदी) मुक्तिदाता, 1972
  • (हिंदी) नया विधान, 1977
  • (हिंदी) नीलपक्षी, 1978

(साभार – विकिपीडिया)

मैं कुछ वर्षो तक उनके सानिध्य में रहा और उनके आचार-विचार, क्रिया कलाप को निकट से देखा। सादे वस्त्रों में सरल, सौम्य और सौजन्यपूर्ण बाबा बुल्के सरस्वती के एक विनम्र पुत्र नजर आते थे। रांची शहर के पुरूलिया रोड पर कुतुबमिनार की तरह गगनचुंबी कैथोलिक गिरिजाघर है जिसके ठीक सामने ईसा मसीह की एक विशाल प्रतिमा है जो पुरूलिया रोड पर चलने वाले राहगीरों को आशीर्वाद देती हुई दिखाई देती है। ठीक इसी गिरजाघर के बगल में है – मनेरसा हाउस कैथोलिक संन्यासियों का आश्रम। इसी के एक हिस्से में रहते थे तुलसी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान और हिन्दी संत कामिल बुल्के। वर्षो पूर्व उन्होंने संन्यास ले लिया था और अपने आपको ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दिया। उनका जन्म बेल्जियम में हुआ था जहां उन्होंने इंजीनियरिंग पढ़ी थी। भला इंजीनियर का साहित्य से क्या लगाव। पर अपने मन कुछ और है विधन के कुछ और। कामिल बुल्के जो इंजीनिरिंग के अध्येता थे और कहां साहित्य के अध्येता हो गये। संभवतः पहले संस्कृत के अध्ययन की और झुके बेंल्जियम से भारत चले आये। संस्कृत के ही एक श्लोक में कहा गया है कि राजा की पूजा अपने देश में ही होती है परंतु विद्वान की पूजा सर्वत्र होती है। विद्वान के लिए बेल्जियम क्या और भारत क्या। भारत आकर हमेशा हिन्दी आंदोलन में अग्रसर रहे। एक बार मैंने उन्हें उनके निवास स्थान पर एक विदेशी पादरी को जो उनसे अंग्रेजी में बोल रहा था डांटते हुए सुना था ’-तुम इतने दिनों से भारत में रहे हो, तुमने आज तक हिन्दी नही सीखी और अंग्रेजी में बोलते हो, बहुत शर्म की बात है।‘

बाबा को रांची से बेहद प्यार था। वे रांची को अपनी साधना स्थली मानते थे। एक बार मेरे पिता कविवर रामकृष्ण उन्मन से कहा था- ‘मैं भारतीय हूं, हिन्दी मेरी भाषा है और भारत मेरा घर। यही रांची के कब्र्रिस्तान में मेरे लिए थोड़ी सी भूमि सुरक्षित है और मरणोपरांत भी यही रहूंगा।’

जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें गैंगरिन नामक बीमारी ने घेर लिया था। रांची में इलाज के बाद जब उनकी बीमारी ठीक नहीं हुई तो उन्हें पटना के कुर्गी अस्पताल में भर्ती कराया गया जिन्हें देखने के लिए मैं अपने पिता के साथ उस अस्पताल में गया था। अस्पताल के बिस्तर में भी उन्हें इस बात की चिंता थी कि उन्हें अगर कुछ समय की मोहलत मिल जाती तो वे शायद हिन्दी के लिए कुछ और कर जाते। 17 अगस्त 1982 को उनका निधन नई दिल्ली में हो गया। यहां तक कि उनका अंतिम संस्कार भी नई दिल्ली में किया गया। शव को रांची लाने को लेकर मेरे पिता फादर पी पोनेट से मिले और उनकी अंतिम इच्छा बतायी लेकिन मिशन ने शव का अंतिम संस्कार नई दिल्ली के निकोल्सन कब्रिस्तान में करने का निर्णय लिया।

© श्री नवेन्दु उन्मेष

संपर्क – शारदा सदन,  इन्द्रपुरी मार्ग-एक, रातू रोड, रांची-834005 (झारखंड) मो  -9334966328

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 142 ⇒ साधो, ये मुर्दों का गांव ..!! ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साधो, ये मुर्दों का गांव ..!!।)

?अभी अभी # 142 ⇒ साधो, ये मुर्दों का गांव ..!! ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

ना इंसान की, ना भगवान की, ना जमीन की ना आसमान की, ये तो दास्तां है एक अलग ही संसार कीये सच है या झूठ, अफसाना है या हकीकत, थोड़ी ज़मीनी थोड़ी आसमानी, ये है, तेरी, मेरी, उसकी कहानी

मैं भूत प्रेत से नहीं डरता, फिर भी डर का भूत मेरे अंदर ही मौजूद रहता है, मुझे डराने के लिए वैसे सांप बिच्छू ही काफी है

होते हैं कुछ अति व्यस्त लोग, जिन पर हमेशा काम का भूत सवार रहता है, और जिन फुरसती लोगों पर एक बार प्यार का भूत सवार हो जाता है, तो जिंदगी भर नहीं उतरताजो हमेशा आतंक के साये में जिंदगी गुजारते हैं, डर का भूत कभी उनका पीछा नहीं छोड़ता। ।

जीव, आत्मा और परमात्मा का खेल ही यह संसार हैजीवात्मा और परमात्मा के बीच कहीं आत्मा का भी निवास होता हैजब किसी सीधी सादी आत्मा को दुष्टात्माओं द्वारा इस जीवन में ज्यादा परेशान किया जाता है, तो मरने के बाद वे प्रेत योनि में जाकर प्रेतात्मा बन जाती हैकहते हैं, भूत प्रेत हमेशा साथ साथ किसी इमली के पेड़ पर अथवा किसी खंडहरनुमा हवेली में निवास करते हैंगुमनाम है कोई, बदनाम है कोई

हमने तो डायन भी नहीं देखीजिस इंसान का रोज महंगाई डायन से वास्ता पड़ता हो, उसे क्या कोई डायन डराएगीचुड़ैल शब्द सुनने में अच्छा लगता हैकोई नहीं जानता यह चुड़ैल कोई सास है या बहू ! वैसे बदमिजाज, चिड़चिड़ी और हमेशा गुस्सा करने वाली महिलाओं को अगर चुड़ैल कहा जाए तो गलत भी नहीं

बहना कुछ मर्द भी राक्छस से कम नहीं होते। ।

शैतानी करने से कोई बच्चा वास्तविक रूप में शैतान नहीं बन जाताजब इंसान में ही साधु और शैतान का फर्क मिट जाए, तो शक, शंका, भय और आतंक के माहौल में इंसानियत कहां तलाशी जाएआज कहां है किसी के होठों पर सचाई, और दिल में भलाई !

साधो, ये मुर्दों का गांव ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 141 ⇒ स्पर्श (Sense of touch) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्पर्श (Sense of touch)”।)

?अभी अभी # 141 ⇒ स्पर्श (Sense of touch) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक पौधा होता है छुईमुई का (Mimosa pudica), जिसे छुओ, तो मुरझा जाता है, और थोड़ी देर बाद पुनः पहले जैसी स्थिति में आ जाता है। हर पालतू प्राणी, स्पर्श का भूखा होता है, इंसान की तो बात ही छोड़िए। छेड़ा मेरे दिल ने तराना तेरे प्यार का, किसी वाद्य यंत्र के तार मात्र को छूने से वह झंकृत हो जाता है, स्पर्श की महिमा जानना इतना आसान भी नहीं।

हमारी पांच ज्ञानेंद्रियां हैं, आंख, नाक, कान, जीभ और त्वचा ! वैसे तो कर्मेंद्रियां भी पांच ही हैं, लेकिन त्वचा ही वह ज्ञानेंद्रिय है, जहां हमें कभी सुई तो कभी कांटा चुभता है, और गर्मागर्म चाय जल्दी जल्दी सुड़कने से जीभ जल जाती है। चाय का जला, कोल्ड्रिंक भी फूंक फूंक कर पीता है।।

बड़ों के पांव छूना, हमारे संस्कार में है। मंदिर में प्रवेश करते ही, हमारे हाथ एकाएक जुड़ जाते हैं। हमारी इच्छा होती है, मूर्ति के करीब जाकर प्रणाम करें, वह तन का ही नहीं, मन का भी स्पर्श होता है। कुछ भक्त तो अपने इष्ट के सम्मुख साष्टांग प्रणाम भी करते हैं, जिसमें शरीर के सभी अंग(पेट को छोड़कर) ठुड्डी, छाती, दोनों हाथ, घुटने, पैर और पूरा शरीर धरती को स्पर्श करता है। इसे साष्टांग दंडवत प्रणाम भी कहते हैं। अहंकार त्यागकर स्वयं को अपने इष्ट अथवा ईश्वर को सौंप देना ही साष्टांग दंडवत प्रणाम का अर्थ है।

समय के साथ मानसिक स्पर्श अधिक व्यावहारिक हो चला है। मुंह से बोलकर अथवा चिट्ठी पत्री में ही पांव धोक, प्रणाम और दंडवत होने लग गए हैं। हृदय पर हाथ रखकर भी आजकल प्रणाम किया जाने लगा है। नव विवाहित युगल जब बड़ों को प्रणाम करता था तो दूधों नहाओ और पूतों फलो तथा मराठी में महिलाओं को अष्टपुत्र सौभाग्यवती का आशीर्वाद मिलता था।।

हैजा एक संक्रामक बीमारी है। महामारी की बात छोड़िए, हाल ही में, मानवता ने कोरोनावायरस जैसी त्रासदी का सामना किया है, जिसके आगे विज्ञान क्या, ईश्वरीय शक्ति भी नतमस्तक हो गई थी। इंसान इंसान से दूर हो गया था, मंदिर का भगवान भी अपने भक्त से दूर हो गया था। लेकिन सृजन और प्रलय सृष्टि का नियम है, आज मानवता पुनः खुली हवा में सांस ले रही है। प्रार्थना और पुरुषार्थ में बल है। God is Great !

स्पर्श एक नैसर्गिक गुण है। इसे भौतिक सीमाओं में कैद नहीं कर सकते। डाली पर खिला हुआ एक फूल हमारे मन को स्पर्श कर जाता है। फूलों का स्पर्श अपने इष्ट को, अपने आराध्य को और अपनी प्रेमिका को, कितना आनंदित और प्रसन्न कर जाता है। पत्रं पुष्पं, नैवेद्यं समर्पयामी ! एक फूल तेरे जूड़े में, कह दो तो लगा दूं मैं; गुस्ताखी माफ़।।

एक नवजात, फूल जैसे बालक का स्पर्श, एक बालक का अपने गुड्डे गुड़ियों और आज की बात करें तो टैडी बच्चों की पहली पसंद होती है। मिट्टी के खिलौनों में बच्चों का स्पर्श जान डाल देता है। आज हमारे हाथ का मोबाइल और डेस्कटॉप महज कोई हार्डवेयर अथवा सॉफ्टवेयर नहीं, अलादीन का चिराग है। मात्र स्पर्श से खुल जा सिम सिम।

अब बहुत पुरानी हो गई स्पर्श की थ्योरी, जब आंखों आंखों में ही बात हो जाती है और दिल से दिल टकरा जाता है, मत पूछिए क्या हो जाता है। नजरों के तीर से दिल घायल होता है, फिर भी कोई शिकवा शिकायत नहीं, कोई एफआईआर नहीं।।

किसी के मन को छूना आज जितना आसान है, उतना ही कठिन है, किसी के मन को पढ़ पाना। कोई गायक किसी गीत को अपने होठों से मात्र छू देता है और वह गायक और गीत अमर हो जाता है। ये किसने गीत छेड़ा।

स्पर्श शरीर की नहीं, मन की वस्तु है। केवल सच्चे मन से मीठा बोला जाए, तो रिश्तों में चाशनी घुल जाए। किसी तन और मन से बीमार व्यक्ति को संजीदा शब्दों का स्पर्श भी कभी कभी संजीवनी का काम करता है। और कुछ नहीं है, स्पर्श चिकित्सा अथवा spiritual healing, कुछ दिल से दिल की बात कही, और रो दिए। लोगों पर हंसना छोड़िए, किसी के आंसू पोंछिए, रूमाल से नहीं, अपने शब्दों के स्पर्श से॥ 

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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