(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्याऊ और …“।)
अभी अभी # 97 ⇒ प्याऊ और… श्री प्रदीप शर्मा
यह तब की बात है, जब मिल्टन के वॉटर कंटेनर और बिसलेरी की बॉटल का आविष्कार नहीं हुआ था, क्योंकि हमारे प्रदेश में कुएं, बावड़ी, नदी तालाब, ताल तलैया और सार्वजनिक प्याऊ की कोई कमी नहीं थी। शायद आपने भी सुना हो ;
मालव धरती गहन गंभीर,
डग डग रोटी, पग पग नीर
हम बचपन में, सरकारी स्कूल में कभी टिफिन बॉक्स और वॉटर बॉटल नहीं ले गए। कोई मध्यान्ह भोजन नहीं, बस बीच में पानी पेशाब की छुट्टी मिलती थी, जिसे बाद में इंटरवल कहा जाने लगा।
इतने बच्चे, कहां का पब्लिक टॉयलेट, मैदान की हरी घास में, किसी छायादार पेड़ की आड़ में, तो कहीं आसपास की किसी दीवार को ही निशाना बनाया जाता था। हर क्लास के बाहर, एक पानी का मटका भरा रहता था, तो कहीं कहीं, पीने के पानी की टंकी की भी व्यवस्था रहती थी। कुछ पैसे जेब खर्च के मिलते थे, चना चबैना, गोली बिस्किट से काम चल जाता था।
शहर में दानवीर सेठ साहूकारों ने कई धर्मशालाएं बनवाई और सार्वजनिक प्याऊ खुलवाई। हो सकता है, कई ने कुएं बावड़ी भी खुदवाए हों, लेकिन सार्वजनिक पेशाबघर की ओर कभी किसी का ध्यान नहीं गया। क्योंकि यह जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन अथवा नगर पालिका की ही रहती थी। हो सकता है, नगरपाल से ही नगर पालिका शब्द अस्तित्व में आया हो। ।
आज भी शहर में आपको कई ऐसी धर्मशालाएं और सार्वजनिक प्याऊ नजर आ जाएंगी, जिनके साथ दानवीर सेठ साहूकार का नाम जुड़ा हो, लेकिन इनमें से किसी के भी नाम पर, शहर में कोई सार्वजनिक पेशाब घर अथवा शौचालय नजर नहीं आता। इतिहास गवाह है, केवल एक व्यक्ति की इन पर निगाह गई, और परिणाम स्वच्छ भारत अभियान के तहत खुले में शौच से मुक्ति, घर घर शौचालय, और सार्वजनिक शौचालय और पेशाबघर के निर्माण ने देश का कायाकल्प ही कर दिया।
इसके पूर्व सुलभ इंटरनेशनल ने पूरे देश में सुलभ शौचालयों का जाल जरूर बिछाया, लेकिन उसमें जन चेतना का अभाव ही नज़र आया।
पानी तो एक आम आदमी कहीं भी पी लेगा, लेकिन पेशाब या तो घर में ही की जा सकती है अथवा किसी पेशाब घर में। भाषा की अपनी एक सीमा होती है, और शर्म और हया की अपनी अपनी परिभाषा होती है। कुछ लोग इसे लघुशंका कहते हैं तो कुछ को टॉयलेट लग जाती है।
मौन की भाषा सर्वश्रेष्ठ है, बस हमारी छोटी उंगली कनिष्ठा का संकेत ही काफी होता है, अभिव्यक्ति के लिए। जिन्हें अधिक अंग्रेजी आती है वे इस हेतु पी (pee) शब्द का प्रयोग करते हैं। बच्चे तो आज भी सु सु ही करते हैं। खग ही जाने खग की भाषा। ।
एक समग्र शब्द प्रसाधन सभी को अपने आपमें समेट लेता है। बोलचाल की भाषा में आज भी इन्हें पब्लिक टॉयलेट कहा जाता है, पुरुष और महिला के भेद के साथ। प्रशासन ऐप द्वारा भी आजकल आपको सूचित करने लगा है, यह सुविधा आपसे कितनी दूरी पर है।
हर समस्या का हल सुविधा से ही होता है, लेकिन कुछ आदिम प्रवृत्ति आज भी पुरुष को स्वेच्छाचारी, उन्मुक्त और उच्छृंखल बनाए रखती है। सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान और मल मूत्र का विसर्जन वर्जित और दंडनीय अपराध है लेकिन उद्दंडता सदैव कानून कायदे और अनुशासन का उल्लंघन ही करती आ रही है। हद तो तब होती है, जब इनके कुछ शर्मनाक कृत्य लोक लाज और मान मर्यादा की सभी हदें पार कर जाते हैं, और कुछ ऐसा कर जाते हैं, जो आम भाषा में कांड की श्रेणी में शामिल हो जाता है, कभी तेजाब कांड तो कभी पेशाब कांड ! एक जानवर कभी अपनी कौम को शर्मिंदा नहीं करता, लेकिन एक इंसान ही अक्सर इंसानियत को शर्मिंदा करते देखा गया है। हम कब सुधरेंगे।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भाव और अभाव“।)
अभी अभी # 96 ⇒ भाव और अभाव… श्री प्रदीप शर्मा
अचानक मुझे टमाटर से प्रेम हो गया है, क्योंकि उसके भाव बढ़ गए हैं। जब इंसान के भी भाव घटते बढ़ते रहते हैं, तो टमाटर क्यों पीछे रहें। हमारे टमाटर जैसे लाल लाल गाल यूं ही नहीं हो जाते। आम आदमी वही जो अभाव में भी सिर्फ टमाटर और प्याज़ से ही काम चला ले।
सभी जानते हैं, An apple a day, keeps the doctor away. एक सेंवफल रोज खाएं, डॉक्टर को दूर भगाएं ! यह अलग बात है, आदमी यह महंगा फल तब ही खाता है, जब वह बीमार पड़ता है। अंग्रेजी वर्णमाला तो a फॉर एप्पल से ही शुरू होती है, बेचारा टमाटर बहुत पीछे लाइन में खड़ा रहता है। ।
हमने भी हमारी बारहखड़ी में टमाटर को नहीं, अनार को पहला स्थान दिया। अ अनार का और आ आम का। एक अनार सौ बीमार ! और आम तो फलों का राजा है, शुरू से ही खास है। बेचारा टमाटर ककहरे में उपेक्षित सा, ठगा सा, ट, ठ, ड, ढ और ण के बीच पड़ा हुआ है। उसे अपनी मेहनत का “फल” कभी नहीं मिला, उसे बस अमीरों के सलाद में स्थान मिला, और हर आम आदमी तक उसकी पहुंच ही उसकी पहचान रही है।
सब्जियों के बीच अच्छा फल फूल रहा था, लेकिन प्याज की तरह उसको या तो किसी की नज़र लग गई, अथवा किसी लालची व्यापारी की उस पर नज़र पड़ गई। अभाव में पहले कोई वस्तु गायब होती है, और बाद में उसके भाव बढ़ते हैं। शायद इसी कारण, आज टमाटर जबर्दस्त भाव खा रहा है। ।
एक समय था, जब टमाटर की एक ही किस्म होती थी। फिर अचानक टमाटर की एक और किस्म बाजार में प्रकट हो गई। यह टमाटर, कम खट्टा और कम रसीला, और कम बीज वाला होता है। सलाद के लिए आसानी से कट जाता है। हमें तो पुराने देसी टमाटर ही पसंद हैं, क्या खुशबू, क्या स्वाद, और क्या रंग रूप। दोनों ही खुद को स्वदेशी कहते हैं, पसंद अपनी अपनी।
पाक कला महिलाओं की रसोई से निकलकर पंच सितारा संस्कृति में शामिल हो गई है। पहले कभी, मेरी सहेली और गृह शोभा के रसोई विशेषांक प्रकाशित होते थे, तरला दलाल और शेफ संजीव कपूर का नाम चलता था।
आज होटलों का खाना महंगा होता जा रहा है, घरों में भी फास्ट फूड और पिज्जा बर्गर पास्ता का प्रवेश हो गया है।।
बिना प्याज टमाटर की ग्रेवी के कोई सब्जी नहीं बनती। घर के मसाले गायब होते जा रहे हैं, शैजवान सॉस का घरों में प्रवेश हो गया है। cheese पनीर नहीं, तो सब्जी में स्वाद नहीं। ऐसे में आम आदमी कभी प्याज के आंसू बहाता है, तो कभी टमाटर को अपनी पहुंच से बाहर पाता है।
आजकल महंगाई के विरुद्ध प्रदर्शन और आंदोलन नहीं होते। महंगाई अब डायन नहीं, हमारी सौतन है। विकास में हमारे कदम से कदम मिलाकर हमारा साथ देती है। अधिक अन्न उपजाओ, अधिक कमाओ। यह असहयोग का नहीं, सहयोग का युग है।।
आम आदमी भी आजकल समझदार हो गया है। वह स्वाद पर कंट्रोल कर लेगा, लेकिन उफ नहीं करेगा। इधर बाजार में महंगे टमाटर, और उधर सोशल मीडिया पर लाल लाल, स्वस्थ, चमकीले टमाटरों की तस्वीरें उसे ललचाती भी हैं, उसके मुंह में पानी भी आता है, लेकिन वह अपने आप पर कंट्रोल कर लेता है। उसने टमाटर का बहिष्कार ही कर दिया है।
वह जानता है, सभी दिन एक समान नहीं होते। आज अभाव के माहौल में जिस टमाटर के इतने भाव बढ़े हुए हैं, कल वही सड़कों पर रोता फिरेगा। कोई पूछने वाला नहीं मिलेगा।
भूल गया वे दिन, जब किसान की लागत भी वसूल नहीं होती थी, और वह तुझे यूं ही खेत में पड़े रहने देता था। आज तुम्हारे अच्छे दिन हैं और उपभोक्ता के परीक्षा के दिन। दोनों मिल जुलकर रहो, तो दाल में भी टमाटर पड़े और बच्चों के चेहरे पुनः टमाटर जैसे खिल उठें।।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 74 – पानीपत… भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
नोस्टाल्जिया का अर्थ है अतीत के सुनहरे दौर में खो जाना और वर्तमान को उपेक्षित करते हुये उदासीनता का आवरण पहनना. ये सिंड्रोम नये परिवेश में घुलमिल जाने में अवरोधक बन जाता है और कार्यक्षमताओं में भी कमी आ जाती है. “मैं तो भूल चली बाबुल का देश (पिछली शाखा) पिया का घर (वर्तमान शाखा) प्यारा लगे”, जैसी भावना शनैः शनैः शनि की गति से आ पाती है. ये काल संक्रमण काल कहलाता है पर शाखाओं को टॉरगेट देने वाले ये धैर्य अफोर्ड नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें लक्ष्य देने वालों की काल गणना में भी ये संक्रमण काल नहीं पाया जाता.
जिस तरह विदेशी दौरों पर जाने वाली क्रिकेट टीमें अभ्यास मैच और वार्म अप मैंच खेलकर नये माहौल में सहज हो जाती हैं, वैसी सुविधाएं बैंक तो क्या किसी भी कार्यालय/संस्था में नहीं होती. स्थानांतरण की प्रक्रिया में तालमेल का अभाव, आने वाले से पहले ही जाने वाले को मुक्त कर देता है. यहाँ भी ऐसा ही हुआ, जाने वाले पहले ही जा चुके थे, आने वाले एकदम से दौड़ने की मन:स्थिति में नहीं आ पा रहे थे. क्रिकेट का 20-20 मैच भी ऐसा ही होता है, पहले ओवर में ही बाउंड्री या सिक्सर के प्रयास कभी बॉल को बाउंड्री पार भेजते हैं तो कभी बैटर, (पुराना नाम बेट्समैन) को पेवेलियन. शाखा के संचालन में नेतृत्व को, टेस्टमैच के बेट्समैन की तरह परफॉर्म करने के लिये अनुमत करना आदर्श स्थिति मानी जाती है, टाईमबाउंड असाइनमेंट और गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में 20-20 मैच की संस्कृति हर संस्था की संस्कृति बन गई है.
आधुनिक युग की इस प्रतिस्पर्धा के दौर में आदर्श स्थिति की जगह मार्केट और विपणनकला ही नीतियों का निर्धारण करते हैं. खरगोश और कछुए की कहानी इस दौर में प्रभावी नहीं है. इस कारण भी जो मैन्युपुलेशन, विंडोड्रेसिंग और चमचागिरी में निपुण होते हैं, वो झूठे कमिटमेंट के जाल में अपने बॉस को मंत्रमुग्ध कर हरेक के लिये “राजा बेटा”का उदाहरण बन जाते हैं. ऐसे उदाहरण हर संस्था की कार्य संस्कृति में पाये जाते हैं.
ये श्रंखला भी क्लासिक टेस्टमैच की गति से ही चलती रहेगी ताकि क्लाइमेक्स की जगह खेल की कलात्मकता का आनंद लिया जा सके. धन्यवाद
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – परसाई के शीर्षक, हमें शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 220 ☆
आलेख – परसाई के शीर्षक, हमें शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं…
व्यंग्य लेखों में शीर्षक का महत्व सर्वविदित है. शीर्षक वह दरवाजा होता है जिससे पाठक व्यंग्य में प्रवेश करता है. शीर्षक पाठकों को रचनाओ तक सहजता से खींचता है. शीर्षक सरल, संक्षिप्त और जिज्ञासा वर्धक होना चाहिये. वस्तुतः जिस प्रकार जब हम किसी से मिलते हैं तो उसका चेहरा या शीर्ष देखकर उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के विषय में अनुमान लगा लिया जाता है ठीक उसी प्रकार शीर्षक को पढ़कर व्यंग्य के अंतर्निहित मूल भाव के विषय में शीर्षक से अनुमान लगाया जा सकता है.
केवल सनसनीखेज शीर्षक हो पर व्यंग्य में पाठक को विषयवस्तु न मिले तो जल्दी ही व्यंग्यकार पाठकों का विश्वास खो देता है. शीर्षक-लेखन अपने आप में एक कला है. शीर्षक में शब्दों के स्थान का निर्धारण भी एक महत्वपूर्ण तत्व होता है. परसाई जी के लेख पढ़ना तो वैचारिक विमर्श होता ही है, उनके लेखों के शीर्षक भी स्वयं में विचार मंथन का अवसर देते हैं. परसाई के अनेक लेखों के शीर्षक शाश्वत बोध देते हैं. उनके शीर्षकों पर फिर फिर नये नये लेख लिखे जा सकते हैं. परसाई रचनावली के छै खण्ड हैं. उनके लगभग हजार से ज्यादा लेख इस समग्र रचनावली में समाहित हैं.
इन समाहित लेखों में परसाई के अनेक शीर्षक कौतूहल पैदा करते हैं, उनमें प्रश्नवाचक चिन्ह तथा मार्क आफ एक्सक्लेमेशन भी मिलता है. आखिर एकता क्यों हो ? बोल जमूरे इस्तीफा देगा? भेड़ें और भेड़िए ! बाबा की गौमाता ! आदि ऐसे ही शीर्षक हैं.. परसाई न्यूनतम शब्दों में ही बड़ी बात कहने की क्षमता रखते हैं. आत्मसम्मान की शैलियां, बारात की वापसी, आरोप ही आरोप, भगत की गत, जैसे शीर्षकों में वे शब्द चातुर्य करते हैं. परसाई के लंबे शीर्षकों में भी प्रायः एक वाक्य या वाक्यांश हैं. लंबे शीर्षकों में वाक्य विन्यास में कर्ता और क्रिया के अनुक्रम में परिवर्तन मिलता है. भारत-पाक युद्ध और मेरी तलवार, आचार्य जी एक्सटेंशन और बगीचा, अब युद्ध जहर भी नहीं, भगवान का रिटायर होना, रिटायर्ड भगवान की आत्मकथा, भूत पिशाच का हनुमान चालीसा, आवारा युवकों के जरिए आवारा क्रांति, वादे पूरे करो मत करो, आदम की पार्टी का घोषणा पत्र आदि उनके व्यंग्य लेखों के ऐसे ही शीर्षक हैं
सामान्यतः सिद्धांत है कि शीर्षक छोटा होना चाहिए लेकिन लेख की समग्र अर्थाभिव्यक्ति की दृष्टि से अधूरा नहीं होना चाहिए. परसाई के कुछ एक या दो शब्दों के लघु शीर्षक देखिये आमरण अनशन, अकाल उत्सव, अफसर कवि, बेमिसाल, अनुशासन, अमरता, अभिनंदन, असहमत, आदमी की कीमत, बदचलन, भोलाराम का जीव, आदि जब हम इन लेखों को पढ़ते हैं तब शीर्षक अपनी संपूर्णता में अभिव्यक्त होता जाता है तथा लेख का कंटेंट शीर्ष से बाद में भी स्मरण रहता है.
अनेक लेखों में वे दो तीन शब्दों के शीर्षक से भी एक उत्सुकता, तथा चमत्कार पैदा करने में पारंगत थे. मसलन उनके लेखों के शीर्षक हैं… अपना पराया, अमरत्व अभियान, असिस्टेंट लोकनायक, अश्लील पुस्तकें, असुविधा भोगी, अभाव की दाद, एयरकंडीशंड आत्मा, अमेरिकी छत्ता, अरस्तु की चिट्ठी, आत्मज्ञान क्लब, वैष्णव की फिसलन, विधायकों की महंगी गरीबी, अपने लाल की चिट्टी, वधिर मुख्यमंत्री, मूक मुख्यमंत्री, बंधुआ मुख्यमंत्री, आंदोलन दवाने वालों का आंदोलन, अखिल भारतीय मंत्री संघ का पत्र, अपनी कब्र खोदने का अधिकार इस तरह के समसामयिक लेखों के उनके शीर्षक प्रासंगिक रूप से आकर्षक होते थे. बेताल की कथा, कहा जाता है कि शीर्षक जिज्ञासापरक होना चाहिये, परंतु उसे जानबूझकर सनसनीखेज नहीं बनाना चाहिए. द्वि-अर्थी, पक्षपातपूर्ण, अभद्र व अश्लील शीर्षक नहीं होना चाहिए. परसाई जी इस मापदण्ड पर शत प्रतिशत खरे उतरते हैं. भारत सेवक की सेवा, आना और ना आना राम कुमार का, अपने-अपने इष्ट देव, अपनी-अपनी बीमारी, आफ्टर ऑल आदमी, असफल कवि सम्मेलनों का अध्यक्ष, अब और लोकतंत्र नहीं, बेचारा कॉमन मैन, भगवान को घूस, बेचारा भला आदमी, अपनी-अपनी हैसियत जैसे शीर्षकों से उनके लेख उस समय तो पठनीय थे ही आज भी रुचिकर हैं. सामान्यतः कहा जाता है कि समसामयिक व्यंग्य साहित्य की उम्र ज्यादा नहीं होती, वह अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर छपता जरूर है किन्तु अखबार के साथ ही रद्दी में बदल जाता है किन्तु परसाई रचनावली पढ़ने से समझ आता है कि क्यों वे इतने सशक्त व्यंग्य हस्ताक्षर के रूप में पहचाने जाते हैं. आज के व्यंग्य लेखक परसाई के पठन से, उन की शैली व चिंतन को समझ कर बहुत कुछ सीख सकते हैं.
मुहावरों, लोकोक्तियों लोकप्रिय फिल्मी गीतों या शेरो शायरी के मुखड़ों को भी शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता है. इस तरह के प्रयोग से परसाई ने भी अनेक लेखों के शीर्षकों को आकर्षक बनाया है. उदाहरण के लिये अभी दिल्ली दूर है, सब सो मिलिए धाय, अहले वतन में इतनी शराफत कहां है जोश, सुजलाम् सुफलाम्, वैष्णव जन और चौधरी की पीर, सबको सन्मति दे भगवान, आई बरखा बहार, अपने-अपने भगीरथ, बलिहारी गुरु आपकी आदि.
भ्रष्टाचार वितरण कार्यक्रम, भावना का भोजन, सरकार चिंतित है, बिना माइंड के लाइक माइंडेड, सदाचार का ताबीज, सड़े आलू का विद्रोह, साहब का सम्मान, सज्जन दुर्जन और कांग्रेस जन, सर्वोदय दर्शन, वर्क आउट स्लिप आउट ईट आउट, भारत को चाहिए जादूगर और साधु जैसे शीर्षको के उनके व्यंग्य लेख समर्थ साहित्य हैं. और अब गीता आंदोलन, अकाली आंदोलन फासिस्टी और देश, बांझ लोक सभा को तलाक, भूत के पांव पीछे, भारतीय राजनीति का बुलडोजर, भारतीय भाषाओं का रेडियो कवि सम्मेलन, भजन लाल का भजन, यज्ञदत्त का यज्ञ भंग, बिना जवाब की आवाजें, स्वर्ग में नर्क जैसे शीर्षकों में परसाई शब्दों से खेलते मिलते हैं.
साहित्य शोध प्रक्रिया, सम्मान की भूमिका, साहित्य और नंबर दो का कारोबार, बेपढ़ी समीक्षा जैसे लेखो में वे साहित्य जगत पर कटाक्ष करते हैं तो, ये विनम्र सेवक, बेचारे संसद सदस्य, जैसे लेखों मे राजनीतिज्ञो को अपनी कलम के निशाने पर लेते हैं. बकरी पौधा चर गई में परसाई वृक्षारोपण में होते भ्रष्टाचार पर प्रहार करते हैं. यशोदा मैया का माखन में उनका इशारा माखन चट करते भ्रष्ट अफसरो और मंत्रियो के काकस की ओर है. ये सारे विषय दशकों के बाद आज भी उतने ही ज्वलंत हैं जितने परसाई के समय में थे. उन्हें धर्म नहीं आंदोलन चाहिए ऐसे शीर्षक हैं जिन्हें पढ़कर लगता है जैसे परसाई आज के प्रसंगो पर लिख रहे हों. यदि हम परसाई के समय में स्वयं को वैचारिक रूप उतारकर पूरा लेख पढ़ें तो परसाई के लेखो के शीर्षक हमें शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं.
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 42 ☆ देश-परदेश – सेवानिवृत्ति: सुविधाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆
गुलाबी नगर (जयपुर) के गुलाब बाग (Rose Garden) में गुलाबी मौसम की शाम हमेशा की तरफ सेवानिवृत्त हो चुके हमारे जैसे फुरसतिये किसी भी विषय को लेकर यदा कदा अदरक वाली चाय की चुस्कियों पर चर्चा कर ही लेते हैं।
कल का विषय सेवानिवृत्त हो चुके व्यक्तियों को उनकी संस्था द्वारा उपलब्ध कराए जानी वाली सुविधाओं पर केंद्रित था। चूंकि विषय का चयन हमारे द्वारा हुआ था, तो चर्चा का आग़ाज़ भी हमें करना पड़ा। वैसे पंजाबी भाषा में भी एक कहावत है कि “जेड़ा बोले वो ही दरवाज़ा खोले” अर्थात जब घर के द्वार पर दस्तक होने के समय जो सबसे पहले बोलेगा उसी को उठ कर आगंतुक के लिए द्वार खोलना होगा।
बैंक कर्मी की कलम/ कंप्यूटर हमेशा करोड़ों पर चलती हैं। जीवन के करीब करीब चार दशक ब्याज देन/लेन करते रहने के कारण बैंक कर्मी को सामान्य ब्याज दर से एक प्रतिशत अतिरिक्त ब्याज मिलता है। बैंक के अतिथि ग्रह और अवकाश ग्रह में उपलब्ध होने की स्थिति में कुछ दिन रहने की सुविधा भी मिल जाती है।
वहां बैठे हुए अन्य संस्थाओं से सेवा निवृत्त मित्र मज़ाक में बोले बस इतना सा में ही प्रसन्न रहते हो। एक सुरक्षा प्रहरी ने सैन्य हॉस्पिटल और कैंटीन की सुविधा का वर्णन किया, हालांकि सस्ती दर पर मदिरा की सुविधा को उन्होंने खुले आम उजागर नहीं किया,परंतु सर्वज्ञात है।
एयर इंडिया से सेवानिवृत्त मित्र बोले उनके स्वयं, पत्नी के अलावा भी पिता और माता के साथ-साथ सभी भाई और बहनों को भी किसी एक स्थान जिसमें विदेश भी शामिल है कि मुफ्त हवाई यात्रा सुविधा मिलती है। रेलवे से सेवानिवृत्त मित्र ने भी मुफ्त रेल यात्रा सुविधा का जिक्र किया।
उच्च न्यायालय में न्यायाधीश से सेवानिवृत्त साथी बोले उनको नगर से बाहर आने जाने के समय स्टेशन/ विमान तल तक निशुल्क कार की व्यवस्था उपलब्ध करवाई जाती हैं।
दिन छोटे होने के कारण,शाम अब जल्दी ढल जाती है, इसलिए चर्चा को भी विराम दे दिया गया। आप की जानकारी में यदि किसी अन्य विभाग द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं की जानकारी हो अवश्य साझा करें।
☆ आलेख – धर्म स्थापना के लिए ईश्वर के अवतार… ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
श्रीकृष्ण मुख से निकला वेदामृत ही ‘गीता’…
धर्म क्या है ? धर्म की हानि होने पर उसकी पुनर्स्थापना के लिए ईश्वर को समय-समय पर अलग-अलग रूपों और नामों से क्यों प्रकट होना (जन्म लेना) पड़ता है ? क्या द्वापर युग में परमेश्वर ने ही भगवान श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट होकर ‘वेदों’ में निहित ‘धर्म’ का ज्ञान गीता के माध्यम से अर्जुन को दिया था ? इसे समझने के लिए हमें पहले यह जानना होगा कि वेद क्या हैं ? और वेदों में क्या है ? वास्तव में ‘धर्म’ शब्द बहुत व्यापक अर्थ समेटे हुए है। विविध शक्तिपुंजों / ईश्वर पर श्रद्धा-भक्ति, उपासना-आराधना, पूजा-पाठ तो धर्म है ही, सद्गुण, सदाचरण, न्याय, अहिंसा, कर्त्तव्य तथा बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय का मार्ग भी मनुष्य का परमधर्म है। यह तमाम जानकारी वेदों में निहित है। वेद शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के ‘विद’ से हुई है। वेद का अर्थ है ‘ज्ञान के ग्रन्थ’। विद् से ही विद्या, विद्वान और ज्ञान शब्द बने। आत्मोत्थान-समाजोत्थान के लिए ‘वेद’ सनातन मार्ग दर्शक हैं। ‘वेद’ श्रीनारायण का दिया हुआ दिव्य ज्ञान है। जब-जब ईश्वर इस सृष्टि को रचता है तब-तब परमेश्वर के द्वारा इस ज्ञान का प्रादुर्भाव ब्रह्मा के हृदय में होता है। ब्रह्मा ही सृष्टि के प्रथम देव हैं। इनसे यह ज्ञान ऋषियों-गुरूओं को और फिर शिष्यों तथा समाज को पहुँचता आया है। सम्भवतः इसी कारण वेदों को ‘श्रुति’ भी कहा जाता है। महर्षि भगवान व्यास ने इस ज्ञान को लिपिबद्ध किया। वेद-ज्ञान को चार भागों में बांटा गया, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों के तत्व ज्ञान को वेदांत या उपनिषद कहते हैं। चारों वेदों सहित ‘गीता’ में भी योग शब्द का प्रयोग मुख्यतः संयोग, प्रयत्न, सिद्धि और विशिष्ट शक्ति के रूप में किया गया है।
शक्ति की उपासना-साधना और ज्ञान से प्राप्त सामर्थ्य का दुरूपयोग भी सदा से होता आया है। शक्ति सम्पन्न लोग जब निरंकुश होकर समाजोत्थान के मार्ग से विचलित हो जाते हैं और वेदों द्वारा वर्जित अथवा वेद विरूद्ध कार्य करते हुए सामाजिक व्यवस्था तहस-नहस कर अत्याचार-अनाचार और अराजकता की हदें पार कर देते हैं, तब समाज को अनीति की पोषक निरंकुश शक्तियों से मुक्त कर पुनः धर्म और सुनीति की स्थापना के लिए प्रभु को जन्म लेना पड़ता है। द्वापर युग में निर्मित इन्हीं परिस्थितियों के समाधान के लिए परम प्रभु को श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लेना पड़ा। श्रीकृष्ण ने कंस सहित अनेक अत्याचारी राजाओं और उनके अनुचरों को समाप्त किया। भौमासुर का वध कर सोलह हजार राजकुमारियों को मुक्त कराया। निर्वस्त्र नहाती युवतियों को मर्यादा का पाठ पढ़ाया। अनेक प्रयत्नों के बाद भी जब कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध (महाभारत) होना निश्चित हो गया तब श्रीकृष्ण ने स्वयं शस्त्र न उठाने की बात कहते हुए अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया। युद्धभूमि में अर्जुन जब विपक्ष में खड़े स्वजनों को देखकर विचलित हो गया और क्षत्रिय धर्म-कर्त्तव्य भूलकर उसने युद्ध से इन्कार करते हुए अपने शस्त्र रख दिए तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो वेद सम्मत उपदेश दिए वही गीता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को तरह-तरह के उदाहरणों से धर्म का मर्म बताकर समझाते हैं कि धर्मनीति, अधिकार और कर्त्तव्य का पालन करते हुए युद्ध से भी पीछे नहीं हटना चाहिये।
‘अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सड्ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्म कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ।।’
(यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा।)
सनातन धर्म में भाग्य को प्रधानता नहीं दी गई है। वेद, उपनिषद और गीता तीनों ही कर्म (प्रयत्न) का महत्व बताते हुए इसे कर्त्तव्य मानते हैं। यही पुरुषार्थ है। धर्म और नीतिशास्त्रों में बताया गया है कि कर्म के बिना गति नहीं। वैदिक मान्यताओं के अनुरूप ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं ।’ मनुष्य जो भी अच्छा-बुरा अर्थात् पुण्य व पाप कर्म करता है उस कर्म का फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कर्म को प्रधान मानते हुए लिखा है – ‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करे तो तस फल चाखा।’ वेदों, शास्त्रों, पुराणों सहित सभी ग्रन्थों में ईश्वर प्राप्ति के तीन मार्ग बताए गए हैं। इनमें सबसे ऊपर कर्म को रखा गया है, द्वितीय ज्ञान और तृतीय भक्ति व उपासना। विराट ईश्वर के अवतार श्रीकृष्ण ने भी ‘गीता’ में उन्हें प्राप्त करने के यही तीन मार्ग बताए हैं। ऋग्वेद भी कहता है ‘सं गच्छध्वम् सं वदध्वम् ।’ साथ चलें मिलकर बोलें। उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करें जिस पर पूर्वज चले हैं।
जीवन में कर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। हमें फल प्राप्ति की चिंता न करते हुए कार्य करते रहना चाहिये। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है –
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’
यहाँ श्रीकृष्ण जी के कथन में यह निहित है कि यदि हम लक्ष्य या उद्देश्य प्राप्ति के लिये कर्म करते जाएंगे तो उसका फल तो हमें मिलना ही है। अतः कर्म करें, फल प्राप्ति को लेकर निश्चिंत रहें। कहा गया है कि ‘बुद्धिः कर्मानुसारिणी’ अर्थात बुद्धि भी कर्म का अनुसरण करती है। जब बुद्धि और कर्म का योग होता है तो सफलता अवश्य प्राप्त होती है।
उपनिषद के अनुसार ‘शरीरमाद्यां खलु धर्मसाधनम्।’ शरीर सभी धर्मों/दायित्वों को पूरा करने का साधन है। इसी को कृष्ण गीता में कहते हैं –
‘नियंत कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि चते न प्रसिद्धयेद कर्मणः।।’
(तू शास्त्र अनुसार कर्त्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।)
श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं –
‘न मे पार्थस्ति कर्त्तव्यं जिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।’
(हे अर्जुन मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्त्तव्य है और न ही कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है तो भी मैं कर्म में रत रहता हूँ।)
वेदों में वर्णित ‘यज्ञ’ शब्द की श्रीकृष्ण जी ने गीता में विस्तृत सरल व्याख्या कर जीवन में यज्ञ और हवन की सार्थकता बताई है – भगवान श्रीकृष्ण ने पूजन रूप, परमात्मा रूप, आत्म रूप, संयम रूप, इन्द्रिय रूप, तपस्या रूप, योगरूप सहित द्रव्य संबंधी यज्ञ, स्वाध्याय रूप ज्ञान-यज्ञ का उल्लेख किया है। उन्होंने ज्ञान-यज्ञ को सभी यज्ञों से महत्वपूर्ण बताते हुए कहा है कि –
‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।।
अर्थात् इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। इस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने आप ही आत्मा को पा लेता है।
श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ में वेद विधानों को इस तरह मान्य किया है –
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्र्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान।।’
तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोमरस को पीने वाले, पापरहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलस्वरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं।
परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने सत्पुरुषों को आश्वासन एवं दुर्जनों को चेतावनी देते हुए गीता में कहा है –
‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानम्धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम ।।’
(हे भारत ! जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का बोलबाला बढ़ता है, तब-तब मैं धर्म के उत्थान के लिए लोगों के सम्मुख साकार रूप में प्रकट होता हूँ।
‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे।।’
(साधु/सज्जन पुरुषों (लोगों) का उद्धार करने के लिए, पाप / दुष्कर्म करने वालों का विनाश करने और धर्म को अच्छी तरह से स्थापित करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।) (यहाँ धर्मसंस्थापनार्थाय का अर्थ वेदों में वर्णित धर्म-ज्ञान ही है।)
श्रीमद्भगवद्गीता के इन श्लोकों में श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से पूरे संसार के समक्ष समय-समय पर अपने जन्म लेने का कारण और अपनी असीमित शक्ति को भी दर्शा दिया है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हुस्न और इश्क “।)
अभी अभी # 95 ⇒ हुस्न और इश्क … श्री प्रदीप शर्मा
ऐ हुस्न ज़रा जाग, तुझे इश्क जगाए ! और अगर हुस्न नहीं जागे, तो इश्क क्या करे। बस, ठंडी आहें भरे। हुस्न जब सोता है, बड़ा मासूम होता है। जागता है, सीधा आईने के पास जाता है। आइना नहीं, हुस्न नहीं। आईने की कोई सूरत नहीं होती, हुस्न को अपनी ही सूरत पर गुमान होता है, गुरूर होता है। हुस्न को यकीन है, आइना झूठ नहीं बोलता।
अगर हुस्न जाग जाए, और इश्क सो जाए, तो इश्क को कौन जगाए। हुस्न एक आग है, जिसमें वह खुद नहीं जलता। सुबह का सूरज उसी हुस्न की एक आग है। वह एक ऐसा आफताब है, जिसे देख कुदरत अंगड़ाई लेती है। इश्क जाग उठता है। इश्क सुबह के सूरज की इबादत करता है। फूल खिलते हैं, कलियां मुस्कुराती हैं, भंवरे गुनगुनाते हैं। हुस्न का जलवा ही सूर्योदय है। ।
जैसे जैसे सूरज आसमान पर चढ़ता है, उसका हुस्न परवान चढ़ता है। वह तपकर आग का गोला हो जाता है। हमने जलवा दिखाया तो जल जाओगे। आप उस जलवे से आंख नहीं मिला सकते। हुस्न की आग से नज़रें मिलाई नहीं जाती, नजर झुकाकर भी इश्क किया जाता है।
हुस्ने जाना इधर आ, आइना हूं मैं तेरा। इश्क हुस्न को परदे में रखना चाहता है, उसे पूजना चाहता है। उसके हुस्न को किसी की नजर ना लगे, उसे ताले में बंद करना चाहता है। घूंघट के पट खोल रे, तुझे पिया मिलेंगे। जो हुस्न आग है, आफताब है, पाक साफ है, क्या उससे नज़रें मिलाना इतना आसान है। ।
बाल कृष्ण ने मिट्टी क्या खाई, माता यशोदा ने गुस्से में जो नंदलाला का मुंह खोला, तो होश खो बैठी। वहां कृष्ण की लीला थी या जलवा था। माया अपना काम कर गई। यशोदा जान तो गई, लेकिन किसी को बताने की स्थिति में भी नहीं रही।
अर्जुन ने भी देखा था सारथी नटवर श्रीकृष्ण के हुस्न का जलवा कुरुक्षेत्र में, जब वह शस्त्र छोड़, शरणागत हो गया था।
कृष्ण का विराट स्वरूप जब सामने आया तो होश उड़ गए। ।
हुस्न से चांद भी शरमाया है।
सूरज अगर आग है तो चंद्रमा शीतलता का प्रतीक ! चंद्रमा की अपनी कोई रोशनी नहीं। सूरज की ही परछाई है वह। ये जमीं चांद से बेहतर नजर आती है हमें। चांद से बेहतर ही है यह जमीं, क्योंकि यहां सूरज की रोशनी है, जीवन है, प्राण है, प्रेम है, शांति है। जहां भी तेज है, ओज है, रोशनी है, प्रकाश है, सब सूरज का ही जलवा है। हुस्न के कई रूप हैं, कई रंग हैं। कोई सच्चा आशिक ही उसको पहचान पाता है।
सुंदरता में प्रेम है, भक्ति है, समर्पण है। सब में रब तो बाद में होगा, क्यों न सब रब में ही समा जाए। पहले किसी से दिल तो लगे, फिर शुरू हो दिल्लगी। हुस्न का जलवा हो, तो हम भी कर लें बंदगी ;
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 198☆ गुरुत्वाकर्षण
आदमी मिट्टी के घर में रहता था, खेती करता था। अनाज खुद उगाता, शाक-भाजी उगाता, पेड़-पौधे लगाता। कुआँ खोदता, कुएँ की गाद खुद निकालता। गाय-बैल पालता, हल जोता करता, बैल को अपने बच्चों-सा प्यार देता। घास काटकर लाता, गाय को खिलाता, गाय का दूध खुद निकालता, गाय को माँ-सा मान देता। माटी की खूबियाँ समझता, माटी से अपना घर खुद बनाता-बाँधता। सूरज उगने से लेकर सूरज डूबने तक प्रकृति के अनुरूप आदमी की चर्या चलती।
आदमी प्रकृति से जुड़ा था। सृष्टि के हर जीव की तरह अपना हर क्रिया-कलाप खुद करता। उसके रोम-रोम में प्रकृति अंतर्निहित थी। वह फूल, खुशबू, काँटे, पत्ते, चूहे, बिच्छू, साँप, गर्मी, सर्दी, बारिश सबसे परिचित था, सबसे सीधे रू-ब-रू होता । प्राणियों के सह अस्तित्व का उसे भान था। साथ ही वह साहसी था, ज़रूरत पड़ने पर हिंसक प्राणियों से दो-दो हाथ भी करता।
उसने उस जमाने में अंकुर का उगना, धरती से बाहर आना देखा था और स्त्रियों का जापा, गर्भस्थ शिशु का जन्म उसी प्राकृतिक सहजता से होता था।
आदमी ने चरण उटाए। वह फ्लैटों में रहने लगा। फ्लैट यानी न ज़मीन पर रहा न आसमान का हो सका।
अब आदमियों की बड़ी आबादी एक बीज भी उगाना नहीं जानती। प्रसव अस्पतालों के हवाले है। ज्यादातर आबादी ने सूरज उगने के विहंगम दृश्य से खुद को वंचित कर लिया है। बूढ़ी गाय और जवान बैल बूचड़खाने के रॉ मटेरियल हो चले, माटी एलर्जी का सबसे बड़ा कारण घोषित हो चुकी।
अपना घर खुद बनाना-थापना तो अकल्पनीय, एक कील टांगने के लिए भी कथित विशेषज्ञ बुलाये जाने लगे हैं। अपने इनर सोर्स को भूलकर आदमी आउटसोर्स का ज़रिया बन गया है। शरीर का पसीना बहाना पिछड़ेपन की निशानी बन चुका। एअर कंडिशंड आदमी नेचर की कंडिशनिंग करने लगा है।
श्रम को शर्म ने विस्थापित कर दिया है। कुछ घंटे यंत्रवत चाकरी से शुरू करनेवाला आदमी शनैः-शनैः यंत्र की ही चाकरी करने लगा है।
आदमी डरपोक हो चला है। अब वह तिलचट्टे से भी डरता है। मेंढ़क देखकर उसकी चीख निकल आती है। आदमी से आतंकित चूहा यहाँ-वहाँ जितना बेतहाशा भागता है, उससे अधिक चूहे से घबराया भयभीत आदमी उछलकूद करता है। साँप का दिख जाना अब आदमी के जीवन की सबसे खतरनाक दुर्घटना है।
लम्बा होना, ऊँचा होना नहीं होता। यात्रा आकाश की ओर है, केवल इस आधार पर उर्ध्वगामी नहीं कही जा सकती। त्रिशंकु आदमी आसमान को उम्मीद से ताक रहा है। आदमी ऊपर उठेगा या औंधे मुँह गिरेगा, अपने इस प्रश्न पर खुद हँसी आ रही है। आकाश का आकर्षण मिथक हो सकता है पर गुरुत्वाकर्षण तो इत्थमभूत है। सेब हो, पत्ता, नारियल या तारा, टूटकर गिरना तो ज़मीन पर ही पड़ता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “निवासी“।)
अभी अभी # 94 ⇒ निवासी … श्री प्रदीप शर्मा
~~ resident of ~~
निर्गुण कौन देस को बासी ? हमें कुछ लोगों का नाम तो पता होता है, लेकिन उनका पता नहीं मालूम होता। अक्सर सभी दस्तावेजों में नाम और पते का कॉलम हुआ करता है, जिसे अंग्रेजी में name and address कहते हैं। कल का तस्वीर वाला पहचान पत्र आज का आधार कार्ड बन गया है। पूरा नाम, यानी पुरुष हुआ तो पिता का नाम, और अगर स्त्री हुई तो पति अथवा पिता का नाम।
पुरुष का क्या है, समाज ही पितृसत्तात्मक है, बचपन से बुढ़ापे तक वह कागज़ों, दस्तावेजों में son of ही रहेगा यानी किसी का पुत्र ही रहेगा। वह कभी ऑन रेकाॅर्ड किसी का पति नहीं हो सकता। ।
ले जाएंगे, ले जाएंगे, दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे, और सबसे पहले दस्तावेजों में उसका नाम चेंज करवाएंगे। पत्नी के पिता की जगह अपना नाम जुड़वाएंगे। स्त्री को अधिकार है, वह शादी के बाद भी अपनी वही पहचान बनाए रखे, लेकिन दस्तावेजों में अब आपको किसी की पत्नी होना ही होगा।
अगर एक पुरुष की पहचान उसके पिता से है तो क्या एक स्त्री की पहचान उसकी मां से नहीं हो सकती। कौन पूछता है किसी से उसकी मां का नाम। सब जगह बाप का ही राज है।।
भूलिए मत, आप यह भी बताएं, आप पुरुष हैं या स्त्री ! फिर आप जिस देश के वासी हैं, वह आपकी राष्ट्रीयता होगी। होगा ईश्वर का वास सब जगह, आपको अपना वर्तमान निवास भी दर्शाना होगा। शपथ पत्र, एग्रीमेंट, वसीयत और संपत्ति के दस्तावेजों में पहले निवासी यानी resident of की जगह पूरा पता लिखा जाता था।
आप जहां जन्मे, वह अगर आपका ननिहाल होगा। आपकी पत्नी तो अपने बाबुल का घर छोड़ अपने ससुराल आई। आप जहां जाते हैं, वहां आपका निवास हो जाता है। जिनका निवास स्थायी होता है, वे उसे एक सुंदर नाम भी देते हैं। एक बंगला बने न्यारा। । ।
सूरज निवास, कल्याण भवन, सीता बिल्डिंग और संतोष कुटी। सेठ साहूकारों की कोठी और राजा महाराजाओं के तो महल होते थे। समय ने कई महलों को मटियामेट कर दिया तो कुछ ही हेरिटेज होटल में परिवर्तित हो गए। आज लाल बाग, और राजवाड़ा अगर दर्शनीय स्थल है, तो शिव विलास पैलेस का कहीं कोई पता नहीं।
आम आदमी का भी अपना सपनों का महल होता है, एक आशियाना होता है। मातृ छाया, मातृ स्मृति, परिश्रम, पुण्याई, तुलजाई, संकल्प, ईश कृपा और साईं निवास भी देखे जा सकते हैं। ।
व्यापार व्यवसाय, नौकरी धंधा और उच्च अध्ययन के लिए लोग पहले परदेस जाते थे, आजकल विदेश जाते हैं, और वहीं बस जाते हैं। वर्षों से लोग विदेशों में रह रहे हैं, उन्हें वहां की नागरिकता भी मिल चुकी है, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी।
पहले एक भारतीय के लिए विदेश आकर्षण था, समय की मांग थी, वहां उसका उज्ज्वल भविष्य था। आज यह आकर्षण आवश्यकता में बदल चुका है, बेटे, बेटी, बहू, दामाद और नाती पोते भी जब वहीं होंगे तो आपको भी वहीं जाना होगा, वह भी एक निश्चित समय के लिए। ।
जो कभी विदेश प्रवास कहलाता था, आज एक भारतीय वहां का नागरिक बन चुका है। आज जब वह अपने देश आता है तो प्रवासी भारतीय कहलाता है। सरकार उसके लिए रेड कार्पेट बिछाती है, उद्यम और व्यापार के लिए सभी सुविधाएं मुहैया करवाती है। लेकिन घर वापसी इतनी आसान नहीं होती।
अपने घर से, अपने देश की मिट्टी से प्रेम किसे नहीं होता। एक आम इंसान अविनाशी नहीं, जो घट घट व्यापक अंतर्यामी है। वह तो आज जहां रह रहा है, वही उसका घर है, वही उसका निवास है, कोई भारतीय है तो कोई प्रवासी भारतीय। सबकी एक ही मजबूरी है। रहना यहां, और अब जाना कहां। ।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अबला और बलमा“।)
अभी अभी # 93 ⇒ अबला और बलमा… श्री प्रदीप शर्मा
हर औरत अबला नहीं होती, विशेष कर, वह तो कभी नहीं, जिसका बलमा उसके लिए मोटर कार लेकर आया हो। बला की खुशनसीब औरतें होती हैं वे महिलाएं, जिनके अपने बलम होते हैं। बालम कहें, बलम कहें, अथवा बालमा। कुछ रसिक, तो कुछ, जुल्मी भी होते हैं।
इश्क की ही तरह भाषा पर भी किसी का जोर नहीं चलता। बला और अबला में भले ही जमीन आसमान का अंतर हो, सनम और सजन में भला क्या भेद हो सकता है। सनम ही की तरह केवल सजन अथवा साजन नहीं होते, सजनी भी होती है। हमें नहीं पता था, बम्बई के बाबू ऐसे भी होते थे ;
चल री सजनी अब काहे सोचे
कजरा ना बह जाए रोते रोते
हमने तो ऐसे भी साजन देखे हैं जो बड़े प्यार से अपनी सजनी से कहते हैं ;
एक बात कहता हूं तुमसे
ना करना इन्कार !
क्या ?
आ तोहे सजनी, ले चलूं नदिया के पार ;
और सजनी को भी देखिए जरा ;
तेरे बिना साजन,
लागे ना जिया हमार। ।
स्त्री के प्यार और समर्पण की तुलना कभी पुरुष के प्यार अथवा निष्ठा से नहीं की जा सकती। कितनी भोली होती होगी वह नायिका जो अपने नायक के लिए ऐसे भाव रखती होगी ;
बलमा अनाड़ी मन भाए
काह करूं, समझ न आए
लेकिन इस स्वार्थी पुरुष अथवा तथाकथित मर्द की पसंद कोई अबला, अभागी, दुखियारी नारी नहीं होती। उसे तो बस उसकी रेशमी जुल्फें, गुलाबी गाल और शराबी आंखें ही पसंद आती हैं।
ताली हमेशा दो हाथों से बजती है। क्या आपने सुना नहीं !
भंवरा बड़ा नादान रे। फिर भी जाने ना, कलियन की पहचान रे।
और उधर पुरुष को देखिए ;
कलियों ने घूंघट खोले
हर फूल पे भंवरा डोले ;
यानी हिसाब बराबर, इधर मन डोले, तन डोले, और उधर, ये कौन बजाए बांसुरिया। ।
पुरुष के लिए प्यार हमेशा जिंदाबाद रहा है और रहेगा लेकिन अगर एक बार औरत ने अपनी दास्तान सुनाई, तो आप रो पड़ेंगे।
साहिर तो हमेशा मर्दों के पीछे हाथ धोकर ही पड़े रहते हैं ;
औरत ने जनम दिया मर्दों ने उसे बाजार दिया।
जब जी चाहा, मचला कुचला
जब जी चाहा दुत्कार दिया। ।
साहिर और निराला की वह तोड़ती पत्थर वाली औरत अब समय के साथ चलना सीख चुकी है। मां, बहन, बेटी और पत्नी के अलावा आज उसके कई रंग रूप हैं, कई उत्तरदायित्व हैं। आज वह परिस्थितियों से लोहा लेना सीख गई है।
त्याग और समर्पण के साथ संस्कार परम्परा और संस्कृति का निर्वाह आज भी वह वैसे ही कर रही है, जैसा सदियों से करती आ रही है। कभी पुरुष के हाथ में हाथ, तो कभी मां के रूप में आंचल का प्यार और सर पर हाथ, तो कभी प्रेमिका के रूप में, शायद यह शुभ संकेत देती हुई ;