हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “लोग भूल जाते हैं…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कविता – लोग भूल जाते हैं ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

लोग भूल जाते हैं

खराब मौसम और

गर्दिश के दिनों में

की गयी मदद ।

लोग भूल जाते हैं

संघर्ष के दौर में

अंधेरी काली रातों में

अपनी दहलीजों पर

दीया जला कर

राह दिखाने वालों को ।

लोग इस्तेमाल करते हैं

दूसरों के कंधों को

सीढ़ियों की तरह

और तमन्ना रखते हैं

आकाश छू लेने की ।

कोई नहीं जानता

वे लोग अपने अंधे सफर में

कहां गिर जाते हैं

कहां छूट जाते हैं

और कब लोग

उन्हें भूल जाते हैं ,,,,

कोई नहीं जानता

लोग कब भूल जाते हैं ,,,

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – साधन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  साधन  ? ?

(कवितासंग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’)

असंख्य आदमियों की तरह

आज एक और

आदमी मर गया,

अपने पीछे वे ही

अमर प्रश्न छोड़ गया,

समकालीन प्रश्न-

अब यह आदमी नहीं रहा

ऐसे में हमारा क्या होगा?

सार्वकालिक प्रश्न-

जन्म से पहले

आदमी कहाँ था,

मृत्यु के बाद

आदमी कहाँ जाएगा?

लगता है जैसे

कई तरह के प्रयोगों का

रसायन भर है आदमी,

जीवन की थीसिस के लिए

शोध और अनुसंधान का

साधन भर है आदमी।

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 140 ☆ गीत – ।।एक ही मिला जीवन कि कहानी बन कर जाओ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 140 ☆

☆ गीत ।।एक ही मिला जीवन कि कहानी बन कर जाओ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

।। विधा।। गीत ।।

***

एक ही मिला जीवन कि कहानी बन कर जाओ।

हर किसी के दिल में  निशानी  बन कर जाओ।।

***

भुला न पाए कोई  वो  किस्सा  बन कर जाना।

करना कुछ भीड़ का मत हिस्सा बन कर जाना।।

जीवन अनमोल कि सूरत पहचानी बन कर जाओ।

एक ही मिला जीवन कि कहानी बन कर जाओ।।

***

ये जीवन तभी सफल कि कुछ खास बनाकर जाना।

फिर न मिलेगी जिंदगी कि इतिहास बनाकर जाना।।

मत रुकें कभी कदम कि वो  रवानी बनकर जाओ।

एक ही मिला जीवन कि कहानी बन कर जाओ।।

***

यह जिंदगी जैसी  भी बस  एक बार मिलती है।

कोशिश वालों को  सफलता बार-बार मिलती है।।

हर किसीके दिल की तुम दीवानगी बनकर जाओ।

एक ही मिला जीवन कि कहानी बन कर जाओ।।

***

जिंदगी पल – पल हर  क्षण बस ढलती जा रही है।

जैसे कि बस रेत  मुठ्ठी  से फिसलती जा रही है।।

सहयोग साथ रखना कि मत अभिमानी बनकर जाओ।

एक ही मिला जीवन कि कहानी बनकर जाओ।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 206 ☆ कविता – निभानी सब को अपनी जिम्मेदारी चाहिये… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – निभानी सब को अपनी जिम्मेदारी चाहिये। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 206 ☆ कविता – निभानी सब को अपनी जिम्मेदारी चाहिये ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

स्वार्थ की अब राजनीति है,  स्वार्थ मय व्यवहार है

सत्ता हथि‌याने को बढ़ा है हर जगह तकरार है।

समस्यायें हल न होती आये दिन नित बढ रहीं

राजनीति में लेन-देन का अब गरम बाजार है।।

 *

समझ हुई कम,  दिख रहा है, बुद्धि भी बीमार है

हौसले लेकिन बड़े हैं, पाने को अधिकार है।

 *

दल के प्रति निष्ठा घटी है दल में भी गुट बन गये-

लड़खड़ाती रहती इससे आये दिन सरकार है।

 *

भूल गये उनको जिन्होंने देश के हित जान दी

कल की पीढी के हित लगाई बाजी अपने प्राण की।

 *

हँसते फाँसी पे फूले त्याग सब कुछ देशहित

गजब की निष्ठा थी जिनको देश के सम्मान की

 *

दूरदर्शी अव रहे,  कम दृष्टि ओछी हो गई

स्वार्थ में डूबी समझ ज्यों अचानक खो गई

 *

बढ़ती जाती द्वेष-दुर्भावना  की मन में भावना

जाने क्यों सद्‌भावना की ऐसी दुर्गति हो गई

 *

राजनीति को सूझ-बूझ  समझदारी चाहिये

और सब जन सेवकों को खबरदारी चाहिये ।

 *

देश ने तो सब को, सब कुछ चाहिये जो सब दिया

निभाना अब सब को अपनी जिम्मेदारी चाहिये

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #33 – गीत – सिसक रहीं बागों की कलियाँ… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतगीत – सिसक रहीं बागों की कलियाँ

? रचना संसार # 33 – गीत – सिसक रहीं बागों की कलियाँ…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

सिसक रहीं बागों की कलियाँ,

नागफनी के डेरे हैं।

श्वाँस हुई जहरीली अब तो,

अपने आँख तरेरे हैं।।

 **

मौन वृक्ष हिय आरी चलतीं,

दिवस हुए हैं अंधियारे।

कुंठाओं का सागर छलता,

संशय के बादल न्यारे।।

पुष्प गुलाबों के मुरझाए,

सभी भाग्य के फेरे हैं।

 *

सिसक रही बागों की कलियाँ,

नागफनी के डेरे हैं।।

 **

हैं पनिहारिन के घट रीते,

नीड पंछियों के  टूटे।

बिन मौसम होती बरसातें,

अपना घर खुद नर लूटे।।

शोकाकुल धरती माता है,

उर में दुख बहुतेरे हैं।

 *

सिसक रही बागों की कलियाँ,

नागफनी के डेरे हैं।।

 **

प्यासा नभ प्यासी नदिया है,

लाती उमस हवाऐं हैं।

स्वारथ ने मानव के देखो

रच ली स्वयं व्यथाऐं हैं।।

तन मन देखो व्याकुल होता,

पाये घाव घनेरे  हैं।

सिसक रही बागोंं की कलियाँ,

नागफनी के डेरे हैं।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #260 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 260 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

थाम लिया है आपने, चलते रहना संग।

थामें रहना राह में,  हूँ मैं आधा अंग।।

*

साथी तुमको मानना,  स्वामी मेरे आज।

दासी के इस रूप में, करती सारे काज।।

*

मिलते थे हम आपसे, वही पुरानी याद।

पूरी की है आपने, सपनों की फरियाद।।

*

तू मोहन का रूप है,  मैं राधिके सुजान।

मिलती है प्रभु आपसे , राधा को पहचान।।

*

जीवन जीने की कला, तुझ से सीखी मीत।

तेरा ही गुण गा रहे, लिखते तुझपर गीत।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #242 ☆ एक बुंदेली पूर्णिका – जा दुनिया ने सगी कोऊ की… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी – एक बुंदेली पूर्णिका – जा दुनिया ने सगी कोऊ की आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 242 ☆

☆ एक बुंदेली पूर्णिका – जा दुनिया ने सगी कोऊ की☆ श्री संतोष नेमा ☆

सबको  बोझा   मूडे   धरत  हो

भैया  काहे खों  सिर  धुनत  हो

*

बखत  पड़े कोऊ काम न  आबे

सुध  ओरन  की  खूब  धरत हो

*

इनकी   उनकी   छोड़ो   भईया

दंद – फंद   में   काय  परत   हो

*

कैसे  रख  हो  प्रसन्न  सभै  खोँ

चिंता  सब  की  काय  करत हो

*

अपनी  सोचो  अपनी  देख  लो

जबरन  सच्चाई   सें   डरत   हो

*

भईया  कब  लौ सुन हो  सबकी

सब  के  लाने   काय   मरत   हो

*

जा  दुनिया  ने  सगी  कोऊ  की

“संतोष”  पीछू  काय  भगत  हो

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – माप ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  माप ? ?

मुट्ठी भर राख में

सिमट गया है,

यह वही आदमी है,

जो खुद को

माप की परिधि से

बड़ा समझता रहा

जीवन भर …!

?

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 6:13 बजे, 20 मार्च 2024

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जावेगी। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 231 ☆ बाल गीत – ज्ञानवर्धक कविता पहेली –  बूझो तो जानें … ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 231 ☆ 

बाल गीत –  ज्ञानवर्धक कविता पहेली –  बूझो तो जानें ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

ग्रेट डिजर्ट कहते जिसे

बच्चों वो है कौन?

सबसे गर्म भूमि जिसकी

रहता बिल्कुल मौन।

क्षेत्रफल में है तीसरा

पूर्व में है जिसके लालसागर।

उत्तर में है भूमध्य सागर

पश्चिम अटलांटिक महासागर।

 *

रेखा कर्क गुजरती

जिसके होकर मध्य।

उसमें एमी कौसी शिखर

देश कई कर बध्य।

 *

वानवे लाख वर्ग किलोमीटर

फैला जिसका क्षेत्र।

उपोष्णकटिबंधीय है मगर

फैला रेत ही रेत।

 *

माली, मोरक्को,मिस्र, लीबिया

और चाड , अल्जीरिया।

फैला सूडान , नाइजर गणराज्य तक

और लगा बुर्किना , नाइजीरिया।

उत्तर सहारा रेगिस्तान 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #259 – कविता – ☆ हम अकेले ही चले थे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “हम अकेले ही चले थे” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #259 ☆

☆ हम अकेले ही चले थे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

हम अकेले ही चले थे

और तब तक ही भले थे।

 

थी नहीं पाबन्दियाँ, प्रतिकूल मन के

कुल मिलाकर साथ में अपने स्वजन थे

समन्वय सौहार्द्र निश्छल भावना से

बढ़ रहे थे राह में अपने जतन से,

फिर लगे जुड़ने हितैषी

स्वार्थ में फूले फले थे।

 

बीज अलगावी विषैले बो रहे ये

घाव खुद के खून से ही धो रहे ये

ये प्रपंची नासमझ भी तो नही हैं

खोद कब्रें स्वयं उसमें सो रहे ये

सिरफिरों की भीड़ से घिर

हम छलावे से छले थे।

 

सम्प्रदायों पंथ पक्षों के झमेले

हाथ मे खंजर लिए वे खेल खेलें

चौक चौराहे न गलियाँ है सुरक्षित

रक्तबीजों की तरह चहुँ ओर फैले

नीतिगत निर्णायकों से रहे

लंबे फासले थे।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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