हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #228 – 115 – “कहता जंग जीती है मैंने, अरे जीतकर हारा है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल कहता जंग जीती है मैंने, अरे जीतकर हारा है…” ।)

? ग़ज़ल # 114 – “कहता जंग जीती है मैंने, अरे जीतकर हारा है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ये हमने  जो गुजारा है,

ये जीवन है या कारा है।

*

न आज़ाद  परिंदों जैसा,

देह  घरौंदा  हमारा  है।

*

क्यों अब तू हैरान रहता,

यही  पिंजर  गवारा है।

*

प्यार कभी  न ठुकराना,

न फिर मिलना दुबारा है।

*

यहीं   झगड़ेंगे  उलझेंगे,

न  कोई  दूसरा चारा है।

*

कहता जंग जीती है मैंने,

अरे  जीतकर  हारा  है।

*

है आतिश की क़िस्मत वही,

बुझना  सबको  न्यारा  है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मृत्यु ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – मृत्यु ? ?

बूढ़ा हो चला हूँ;

कभी भी मर जाऊँगा,

बुज़ुर्ग का संवाद जारी था..,

मेरी आँखों में

उतरने लगे दृश्य-

सड़क-दुर्घटनाओं में

नौजवान बाइक सवारों की

नित होनेवाली

आकस्मिक मृत्यु के,

रैगिंग, आपसी संघर्ष

लेन-देन, क्रोध और

अधिकांशतः अकारण

नये खून की हत्याओं के किस्से,

परीक्षा-नौकरी-प्रेम में

असफलता के चलते;

मौत के गले लग जानेवाले

युवाओं के समाचार,

यहाँ तक कि

कुछेक को कोख में भी

मरणांतक पीड़ाएँ होती,

बूढ़ा होना, मरने की

अनिवार्य शर्त नहीं होती!

© संजय भारद्वाज  

(22 अगस्त 2016, रात्रि 8:57 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ महाशिवरात्रि साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा। 🕉️💥

 अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 107 ☆ मुक्तक – ।। बीत गई सदियां होली जैसा कोई उपहार नहीं है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 107 ☆

☆ मुक्तक – ।। बीत गई सदियां होली जैसा कोई उपहार नहीं है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

हर रंग है मस्त   फाग   की फुहार है।

हर रंग से रंगीन   रंगों  की बौझार है।।

भंग की गोली  हुरियारों की है टोली।

लाल पीला नीला सा  हर क़िरदार है।।

[2]

भीग कर भी आदमी हो रहा निहाल है।

कपड़ों का सबके हो   रहा बुरा हाल है।।

गिर रही दीवार   गले   मिल रहें हैं लोग।

अब मनमुटाव का  बचा नहीं सवाल है।।

[3]

छोटे बड़ेआज सबका ही ऊंचा जलाल है।

होलिका नफरत दहन करने का ख्याल है।।

हर गम भुला दिया है होली   के धमाल में।

उड़ रहा हर ओर ही   गुलाल ही गुलाल है।

[4]

नशीली रंगभरी बयारी छा जाती है होली में।

हर आदमी पर खुमारी छा लाती है होली में।।

बेल बूटे हर फूल पत्ते पर झूमती है नई रंगत।

हर किसी पर मस्त सवारी छा पाती है होली है।।

[5]

सीने में किसी के मलाल सवाल बाकी नहीं है।

कोई भी धमाल    होली में रहता बाकी नहीं है।।

सारी फिजा बन जाती है एक खूबसूरत नजारा।

दिलों में नफरती मैला गुलाल रहता बाकी नहीं है।।

[6]

पवित्र पावन पर्व होली जैसा कोई त्यौहार नहीं है।

दिल को दिल से जोड़ने वाला कोई व्यवहार नहीं है।।

होली स्नेह प्रेम मिलन का है नायाब अनोखा उत्सव।

बीत गई सदियां होली    जैसा कोई  उपहार नहीं है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 169 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “बड़ा कौन है?…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “बड़ा कौन है?..। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “बड़ा कौन है?” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

बड़ा नहीं बनता है कोई पद से या अधिकार से

बड़ा कहा जाता है मानव मन के सोच-विचार से।

 *

जिनके मन में दयाभाव औ करुणा का आगार है

उनका आदर करता आया सदा सकल संसार है।

 *

महावीर, गौतम औ’ गाँधी तीनों बड़े उदार थे

इससे माने जाते सबसे बड़े संत संसार के ।

 *

मिला बड़प्पन कभी न राजा, सिंहासन या ताज को

दिया बड़प्पन दुनिया ने मन की मीठी आवाज को।

 *

कभी झलकता नहीं बड़प्पन कोई आकार प्रकार से

पर सौंदर्य निखरता दिखता मन के ममता-प्यार से।

 *

छोटा हो भी बड़ा वही है जिसकी प्रेमल रहा

जिसके मन परिवार पड़ौसी औ’ जग की परवाह।

 *

छोटा-बड़ा हुआ करता है मानव निज व्यवहार से

नहीं कभी भी धन संग्रह से, पद से या अधिकार से।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “ऋतु बसंत…” ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता खंडकर

 ☆ कविता  – “ऋतु बसंत” 🦋 ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

बसंत ऋतुमें बोयेंगे बीज

खुशियों के,खुशहाली के,

प्यार की फसल लहरायें,

रिश्तों की गहराई में!

आओ,सृष्टी के सृजन का

सुस्वागतम्, मिल के करे,

प्रकृती की ये प्रसन्नता,

तन-मन में, भर के झूमें!

ताल-सुर की ये मिलाप, 

सुनकर कोयल भी चौंकै,

फल-फूलों की बहार का उत्सव,

उम्मीदों का करें !

   ☆        

© सुश्री प्रणिता खंडकर

ईमेल – [email protected] वाॅटसप संपर्क – 98334 79845.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #224 ☆ – बसंत… – ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  आपकी कविता बसंत)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 224 – साहित्य निकुंज ☆

☆ बसंत… ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

बसंत आता है

मन को लुभाता है

चहुँ ओर

फ़ैल रही है हरियाली

झूम रही है डाली डाली

धरती ने हरीतिमा का किया शृंगार

मन में उठी उमंग की फुहार

प्रेम प्यार की कोपलें फूटी

खिलने लगे फूल और कलियाँ

छा गई सब ओर खुशियाँ

फ़ैली है बसंत की महक

गूंज रही पक्षियों की चहक

जीवन में खिलने लगे नये रंग

लगा लिया कलियों ने अंग

देखो आ गया बसंत

आ गया बसंत।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मुट्ठी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – मुट्ठी ? ?

समय को

मुट्ठी में रखने का

सूत्र पता होने का

जिसे भ्रम रहा,

कालांतर में ज्ञात हुआ,

वह स्वयं सदा

समय की मुट्ठी में

बंधा रहा…!

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 5:59 बजे, 20 मार्च 24

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का 51 दिन का प्रदीर्घ पारायण पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। 🕉️

💥 साधको! कल महाशिवरात्रि है। शुक्रवार दि. 8 मार्च से आरंभ होनेवाली 15 दिवसीय यह साधना शुक्रवार 22 मार्च तक चलेगी। इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे।💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #38 ☆ कविता – “इंसान…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 39 ☆

☆ कविता ☆ “इंसान…☆ श्री आशिष मुळे ☆

इंतज़ार मे दोनों बैठें है कब से

के मै कुछ बन जाऊ

कहता है मेरा ज़मीर मुझसे

इंसान हूँ इंसान ही रहने वाला हूँ

 

कहता है एक खामोशी से

के तू जानवर है

कहे दूसरा जोरों से

नहीं तू तो दिव्य है

 

वैसे तो मुझमें ये दोनों बसते है

लेकिन वो मै नहीं हूँ

बसता है विवेक भी मुझमें

कहता है हरपल के मै आदमी हूँ

 

मुझे जानवर बनना पड़ता है

दिव्य कुछ करने के लिए

कभी दिव्य भी बन जाता हूँ

बस रोजी रोटी के लिए

 

मगर ना मै जानवर हूँ

ना मै दिव्य हूँ

जानवरों की दिव्य दुनिया का

मै तो बस एक इंसान हूँ

 

मै तो बस एक इंसान हूँ

जानवरों को भी पालता हूँ

मै तो बस एक इंसान हूँ

राह दिव्यों को भी दिखाता हूँ

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 197 ☆ बाल कविता – आओ मुर्गी आओ जी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 197 ☆

बाल कविता – आओ मुर्गी आओ जी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

आओ मुर्गी आओ जी।

अपने बच्चे लाओ जी।।

दाना लाए गेहूँ , मक्का

खूब मजे से खाओ जी।।

 *

नाम हमारे राम , राधिका

अपना नाम बताओ जी।।

 *

पेट भरे जब दाना खाकर

अपने गीत सुनाओ जी।।

 *

कहाँ गए हैं मुर्गे राजा

उनकी बाँग सुनाओ जी।।

 *

क्या उड़ सकतीं खुले गगन में

उड़कर हमें दिखाओ जी।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #222 – व्यंग्य कविता – ☆ मृत्युपूर्व शवयात्रा की जुगाड़… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है होली पर एक व्यंग्य कविता मृत्युपूर्व शवयात्रा की जुगाड़…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #222 ☆

☆ मृत्युपूर्व शवयात्रा की जुगाड़… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(होली पर एक व्यंग्य कविता)

मृत्यु पूर्व, खुद की

शवयात्रा पर करना तैयारी है

बाद मरण के भी तो

भीड़ जुटाना जिम्मेदारी है।

*

जीवन भर एकाकी रह कर

क्या पाया क्या खोया है

हमें पता है, कलुषित मन से

हमने क्या-क्या बोया है,

अंतिम बेला के पहले

करना कुछ कारगुजारी है।

मृत्युपूर्व खुद की शवयात्रा

पर करना………

*

तब, तन-मन में खूब अकड़ थी

पकड़  रसुखदारों  में  थी

बुद्धि, ज्ञान, साहित्य  सृजन

प्रवचन, भाषण नारों में थी,

शिथिल हुआ तन, बोझिल मन

इन्द्रियाँ स्वयं से हारी है।

मृत्युपूर्व…….

*

होता नाम निमंत्रण पत्रक में

“विशिष्ट”, तब जाते थे

नव सिखिए, छोटे-मोटे तो

पास फटक नहीं पाते थे,

रौबदाब तेवर थे तब

अब बची हुई लाचारी है।

मृत्युपूर्व……

*

अब मौखिक सी मिले सूचना

या अखबारों में पढ़ कर

आयोजन कोई न छोड़ते

रहें उपस्थित बढ़-चढ़ कर,

कब क्या हो जाये जीवन में

हमने बात विचारी है।

मृत्युपूर्व…….

*

हँसते-मुस्काते विनम्र हो

अब, सब से बतियाते हैं

मन-बेमन से, छोटे-बड़े

सभी को गले लगाते हैं,

हमें पता है,भीड़ जुटाने में

अपनी अय्यारी है।

मृत्युपूर्व…….

*

मालाएँ पहनाओ हमको

चारण, वंदन गान करो

शाल और श्रीफल से मेरा

मिलकर तुम सम्मान करो,

कीमत ले लेना इनकी

चुपचाप हमीं से सारी है।

मृत्युपूर्व…….

*

हुआ हमें विश्वास कि

अच्छी-खासी भीड़ रहेगी तब

मिशन सफल हो गया,खुशी है

रामनाम सत होगा जब,

जनसैलाब दर्शनीय, इतना

मर कर भी सुखकारी है।

मृत्युपूर्व…….

*

हम न रहेंगे, तब भी

शवयात्रा में अनुगामी सारे

राम नाम है सत्य,

साथ, गूँजेंगे अपने भी नारे,

जीतेजी उस सुखद दृश्य की

हम पर चढ़ी खुमारी है

मृत्युपूर्व……………

*

शव शैया से देख भीड़

तब मन हर्षित होगा भारी

पद्म सिरी सम्मान प्राप्ति की

कर ली, पूरी तैयारी,

कहो-सुनो कुछ भी,पर यही

भावना सुखद हमारी है।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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