हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अभी चुनाव का माहौल है जरा रुकिए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “अभी चुनाव का माहौल है जरा रुकिए“)

✍ अभी चुनाव का माहौल है जरा रुकिए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

अजीब खेल है इन हाथ की लकीरों का

लिए है हाथ में क़ासा धनी ज़खीरों का

अगर नजर वो इनायत की फेर लेता है

गुलाम होता है राजा यहाँ फ़क़ीरों का

 *

अभी चुनाव का माहौल है जरा रुकिए

वहाँ पे डेरा है तलवार और तीरों का

 *

यहाँ तो फैसले सिक्कों के दम पे होते हैं

नहीं हैं काम गवाहों काऔर नजीरों का

 *

अँधेरी रात भी चमके है पूर्णिमा बनकर

ये पायेबाग ये काशाना है अमीरों का

 *

चढ़े है सूली पे अपना वतन बचाने को

ये देश प्रेम शहीदों के है जमीरों का

 *

जिसे भी देखिए रुसवाईयाँ समेटे है

ये हाल कैसा है इस देश के वज़ीरों का

 *

वफ़ा जो ज़ज़्बा है  गंगा के जैसा पाक अगर

मिलन जरूरी नहीं होता है शरीरों का

 *

कहाँ अब फ़ूक के घर राह कोई दिखलाता

अरुण अजीब सा यह काम है कबीरों का

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 38 – फूल मेरी किताब में आये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – फूल मेरी किताब में आये।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 38 – फूल मेरी किताब में आये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

लाख चेहरे, हिसाब में आये 

उनके जैसे, न ख्वाब में आये

*

उम्र का, हुस्न पर चढ़ा पानी 

अंग उनके, शबाब में आये

*

उसकी खुशबू से, खूब परिचित हूँ 

चाहे कितने नकाब में आये

*

गुफ्तगू मुझसे, बात दुश्मन की 

ज्यों कि, हड्डी कबाब में आये

*

याद मेरा पता तो है उसको 

कोरे पन्ने, जवाब में आये

*

नाम का जाम पी लिया तेरा 

अब, नशा क्या शराब में आये

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अक्षय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अक्षय ? ?

पत्थर से टकराता प्रवाह

उकेर देता है

सदियों की गाथाएँ

पहाड़ों के वक्ष पर,

बदलते काल

और ॠतुचक्र

के संस्मरण

लिखे होते हैं

चट्टानों की छाती पर,

और तो और

जीवाश्म होते हैं

उत्क्रांति का एनसाइक्लोपीडिया,

और तुम कहते हो

लिखने के लिए शब्द नहीं मिलते!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 114 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 114 – मनोज के दोहे… 

रामलला की आरती,  करता भारत वर्ष।

मंदिर फिर से सज गया,  जन मानस में हर्ष।।

*

मन मंदिर में रम गए,  श्याम वर्ण श्री राम।

शायद कारागार से,  मुक्त दिखें घन श्याम।।

*

प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम,  बना अयोध्या धाम।

सूर्यवंश के मणि मुकुट,  रघुनंदन श्री राम।।

*

आल्हादित सरयू नदी,  लौटा स्वर्णिमकाल।

सजा अयोध्या नगर है,  उन्नत संस्कृति भाल।।

*

हर्षोल्लास का पल अब,  लाया है चौबीस।

देश तरक्की कर रहा,  मिले कौशलाधीश।।

*

धनुषबाण लेकर चले,  निर्भय सीता-राम।

सरयू तट पर सज गया,  राम अयोध्या धाम।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीत गाता हूँ मैं… ☆ श्री रामनारायण सोनी ☆

श्री रामनारायण सोनी

?कविता गीत गाता हूँ मैं ? श्री रामनारायण सोनी ?

अक्षरों से शब्द तक का यह सफर

चेतना फिर हो चले जिस में प्रखर

भाव की उत्प्रेरणा जब जागती है

तब कहीं इक गीत होता है मुखर

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

वेदना, संवेदना, प्रतिवेदना मिल

हो गलित इक धार में बहने लगे

खुद बहे पहले, सभी उसमें बहें

तो समझ लो गीत हैं उठने लगे

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत का उत्थान भी इक ज्वार है

गीत काली रात का अभिसार है

गीत भावों की विकल अभिव्यंजना

गीत अधरों का मधुर श्रृंगार है

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

प्रियतमा के नैन से जब नीर बहता

श्वाँस में प्रश्वाँस में है गीत चलता

जब प्रणय की रागिनी में हो घुला

छ्न्द बन्दों में स्वयं ही गीत ढलता

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत करुणा की मृदुल सी धार है

गीत घुंघरू की मुखर झंकार है

गीत दिल के बादलों से झर रही

झिरमिराती सी मधुर मनुहार है

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत हैं उत्सव, हैं गीत भी कलरव

स्वर्ग भी हैं ये, हैं और ये रौरव

सुख के और दुःख के अधिमान भी

हैं पुरातन के पुरोधा और अभिनव

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत हैं आलाप उठता कण्ठ से

गीत भीगा है कहीं मकरन्द से

गीत उठता नाद है मिरदंग से

झर रहा अनुराग हो हर छ्न्द से

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत लय है गीत सुर है ताल भी

गीत गति है गीत मद्धिम चाल भी

शौर्य का आह्वान करते गीत हैं

गीत मारक शक्ति भी है ढाल भी

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत गाथागीत बन जग में रमा

लोकरंजक गीत ने बाँधा समा

लोकमंगल गीत बिन कैसे शुरू

गीत ही हर उत्स की है मधुरिमा

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

प्रीत की पावन धरा में बीज सा

भावना के सिन्धु में है मीन सा

पुष्प के हर अंग में अभ्यंग में

महमहाता गीत है मधुमास सा

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत जीवन जीवनी के गा रहा

प्रेम की पगडण्डियों पे ला रहा

एक बन्जारा समझलो आज मैं

कारवाँ के गीत अपने गा रहा

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री रामनारायण सोनी

२५.०१.२४

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 174 – गीत – बिना मोल अब तेरे हाथ बिकानी हूँ…. ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका एक अप्रतिम गीत – बिना मोल अब तेरे हाथ बिकानी हूँ।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 174 – गीत  –  बिना मोल अब तेरे हाथ बिकानी हूँ…  ✍

 

मोल लगाया था जग ने मैं बिकी नहीं

बिना मोल अब तेरे हाथ बिकानी हूँ

मंत्र चलाया, जादू डाला

तार तार चादरिया

झूठ खबर ही भिजवा देता

मैं आती साँवरिया

मैं भी तो मीरा सी दरद दिवानी हूँ।

 

जाने किस चुम्बक ने खींचा

खिंची चली में आई

क्या है तेरा कर्ज पावना

आज करूं भरपाई

तुम कहते मधुमती मुझे, मैं पानी हूँ।

मां पहले ही भेज दिया था

देह फूल अब लाई

करो विसर्जित मां का संसार प्राणों की पहुनाई

रंगी पिया के रंग में प्रेम दिवानी।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 172 – “उम्मीदों की आँखों में…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  उम्मीदों की आँखों में...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 172 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “उम्मीदों की आँखों में...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

सूटकेस- चमकीले में कुछ

कपड़ों को लेकर

बढ़ने लगी धूप दुपहर की

दिखा रही तेवर

 

कंघी करती दिखी खोल

रेशम से बालों को

कजरौटी के लिये

छान मारा सब आलों को

 

रही सम्हाल स्वयंका पल्लू

तिरछी आँखों से

यहाँ बादलों के जब देखे

फटे हुये नेकर

 

नई बहू से भाभी बनकर

अभी ओसारे पर

छिछली -छिछली फैल गई

है फिर चौबारे पर

 

क्यों औधे मौसम के रुख

को समझ नहीं पाया

बेचारा लहलह उठा

इसबार नीम-देवर

 

खपरैलो से छन-छन कर

छारके* दिखे सम्हले

आखिर कब तक सहें

सूर्य के आतप के हमले

 

उम्मीदों की आँखों में

बस नई चमक लेकर

लगा अटारी पहन रही है

सम्हल सम्हल जेवर

 

छारके= खपरैल से छनकर आये

धूपके गोले/ धूप विन्दु

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

27-01-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पगडंडी-(2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – पगडंडी-(2) ? ?

वे खोदते रहे

जड़, ज़मीन, धरातल

महामार्ग बनाने के लिए,

नवजात पादप रौंदे गए

वानप्रस्थी विटप धराशायी हुए,

वह अथक चलता रहा

पगडंडी गढ़ता रहा,

पगडंडी के दोनों ओर

आशीर्वाद बरसाते

अनुभवी वृक्ष खड़े रहे,

चहुँ ओर बिखरी हरी घास से

पगडंडी को आशीष मिले,

महामार्ग और सरपट टायर के

समीकरण विशेष हैं,

पर पग और पगडंडी

शाश्वत हैं, अशेष हैं,

विधाता!

परिवर्तन की अपरिवर्तनीयता से

अमरबेलों को बचाए रखना,

पग और पगडंडी के रिश्तों को

यूँ ही सदाफूली बनाये रखना..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 162 ☆ # ठंड और कोहरा # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# ठंड और कोहरा #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 162 ☆

☆ # जरा संभल कर चलों #

हवा का रूख बदल रहा है

जरा संभल कर चलो

मौसम बदल रहा है

जरा संभल कर चलो

*

बदल रहीं है ज़मीं

बदल रहा आसमान है

बदलाव की रूत है

बदल रहा इन्सान है

यह बदलाव छल रहा है

जरा संभल कर चलो

*

नफ़रत के बादलों से

आकाश भर गया है

बिजलियों की कड़क से

हर शख्स डर गया है

हर पथ जल रहा है

जरा संभल कर चलो

*

कहीं फैली है रोशनी

तो कहीं पर घना अंधेरा है

कहीं पर है विलासिता

तो कहीं पर फांकों ने डाला डेरा है

भूखा गरीब हाथ मल रहा है

जरा संभल कर चलो

*

अपनों ने जिन्हें ठुकरा दिया

उन्हें गैरों ने संभाला है

बच्चों ने जिन्हें छोड़ दिया

उन्हें वृध्दाश्रमों ने पाला है

हर रिश्ता मतलब में ढल रहा है

जरा संभल कर चलो

*

बर्फीली वादियों में

एक मंदिर बनाया था

बर्फ से मूरत बनाकर

मंदिर में सजाया था

“श्याम” वो हिमखंड पिघल रहा है

जरा संभल कर चलो

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 171 ☆ मुक्तिका – सुभद्रा ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है दोहा सलिला – अक्षर आराधना)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 171 ☆

☆ मुक्तिका – सुभद्रा ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

वीरों का कैसा हो बसंत तुमने हमको बतलाया था।

बुंदेली मर्दानी का यश दस दिश में गुंजाया था।।

*

‘बिखरे मोती’, ‘सीधे सादे चित्र’, ‘मुकुल’ हैं कालजयी। 

‘उन्मादिनी’, ‘त्रिधारा’ से सम्मान अपरिमित पाया था।।

*

रामनाथ सिंह सुता, लक्ष्मण सिंह भार्या तेजस्वी थीं। 

महीयसी से बहनापा भी तुमने खूब निभाया था।।

*

यह ‘कदंब का पेड़’ देश के बच्चों को प्रिय सदा रही। 

‘मिला तेज से तेज’ धन्य वह जिसने दर्शन पाया था।।

*

‘माखन दादा’ का आशीष मिला तुमने आकाश छुआ। 

सत्याग्रह-कारागृह को नव भारत तीर्थ बनाया था।।

*

देश स्वतंत्र कराया तुमने, करती रहीं लोक कल्याण। 

है दुर्भाग्य हमारा, प्रभु ने तुमको शीघ्र बुलाया था।।

*

जाकर भी तुम गयी नहीं हो; हम सबमें तुम ज़िंदा हो। 

आजादी के महायज्ञ को तुमने सफल बनाया था।।

*

जबलपुर की जान सुभद्रा, हिन्दुस्तां की शान थीं।  

दर्शन हुए न लेकिन तुमको सदा साथ ही पाया था।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१५-२-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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