हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 168 ☆ मुक्तिका – रूप की धूप ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है – मुक्तिका – रूप की धूप )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 168 ☆

☆ मुक्तिका – रूप की धूप  ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

रूप की धूप बिखर जाए तो अच्छा होगा

रूप का रूप निखर आए तो अच्छा होगा

*

दिल में छाया है अँधेरा सा सिमट जाएगा

धूप का भूप प्रखर आए तो अच्छा होगा

*

मन हिरनिया की तरह खूब कुलाचें भरना

पीर की पीर निथर आए तो अच्छा होगा

*

आँख में झाँक मिले नैन से नैना जबसे

झुक उठे लड़ के मिले नैन तो अच्छा होगा

*

भरो अँजुरी में ‘सलिल’ रूप जो उसका देखो

बिको बिन मोल हो अनमोल तो अच्छा होगा

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२८.११.२०१५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #218 – 105 – “वो नज़र दोनों चुराते ही रहे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “वो  नज़र  दोनों  चुराते  ही  रहे…” ।)

? ग़ज़ल # 105 – “वो  नज़र  दोनों  चुराते  ही  रहे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी में अक्सर एक भरम रहा,

आदमी  ताज़िंदगी  बरहम  रहा।

हाथ पर  हाथ धरे  वो बैठी रही,

यार मेरा  खून  थोड़ा गरम रहा।

वो  नज़र  दोनों  चुराते  ही  रहे,

मुहब्बत का मगर बीच भरम रहा।

आँख रोती रात दिन फुरकत ए ग़म,

दिल मगर दोनों ही तरफ़ नरम रहा।

सूरत  वस्ल की  नज़र में  है नहीं,

आतिश उसे मिले बिना दरहम रहा।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आउट ऑफ बॉक्स ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – आउट ऑफ बॉक्स ? ?

माप-जोखकर खींचता रहा

मानक रेखाएँ जीवन भर

पर बात नहीं बनी,

निजी और सार्वजनिक

दोनों में पहचान नहीं मिली,

आक्रोश में उकेर दी

आड़ी-तिरछी, बेसिर-पैर की

निरुद्देश्य  रेखाएँ;

यहाँ-वहाँ अकारण

बिना प्रयोजन,

चमत्कार हो गया!

मेरा जय-जयकार हो गया,

आलोचक चकित थे-

आउट ऑफ बॉक्स थिंकिंग का

ऐसा शिल्प आज तक

देखने को नहीं मिला,

मैं भ्रमित था-

रेखाएँ, फ्रेम, बॉक्स,

आउट ऑफ बॉक्स,

मैंने यह सब कब सोचा था भला?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 95 ☆ मुक्तक ☆ ॥ बस तारीख महीना साल नहीं, हाल बदलना है ॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 95 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।बस तारीख महीना साल नहीं, हाल बदलना है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

बस कैलेंडर ही  नहीं   साल बदलना है।

जीने का कुछअंदाज ख्याल बदलना है।।

नई पीढ़ी सौंपकर जानी विरासत अच्छी।

दुनिया का यह बदहाल हाल बदलना है।।

[2]

हर समस्या का   कुछ   निदान  पाना है।

जन जन जीवन को   आसान बनाना है।।

बदलनी है समाज की सूरत और सीरत।

हर दिल से हर दिल का तार   जुड़ाना है।।

[3]

शत्रु के नापाक इरादों पर   भी काबू पाना है।

उन्हें ध्वस्त करना खुद को मजबूत बनाना है।।

दुनिया को देना है विश्व गुरु भारत का पैगाम।

शांति का संदेश सम्पूर्ण  संसार में फैलाना है।।

[4]

वसुधैव कुटुंबकम् सा यह   संसार बनाना है।

मानवता का सबको     ही प्रण दिलाना है।।

नर नारायण सेवा का भाव जगाना मानव में।

इस धरा को ही स्वर्ग से भी सुंदर बनाना है।।

[5]

जीवन शैली खान पान का   रखना है ध्यान।

आचरण वाणी को भी करना है मधु समान।।

प्रगतिऔर प्रकृति मध्य रखनाअपनत्व भाव।

विविधता में एकता को  बनना है अभियान।।

[6]

माला में हर गिर गया मोती  अब पिरोना है।

अब हर टूटा छूटा   रिश्ता   पाना खोना है।।

आंख मेंआंसू नहींआए किसीका दर्दों गम में।

हर कंटीली राह पर फूलों को   बिछोना है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 158 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – गजल – “नाम रिश्तों के जो देते थे खुशी हर एक को…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “नाम रिश्तों के जो देते थे खुशी हर एक को…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – गजल – “नाम रिश्तों के जो देते थे खुशी हर एक को…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

 

मन के हर सुख चैन का अब खो गया आधार है

दुख का कारण बन गया खुद अपना ही परिवार है।

धुल गया है जहर कुछ वातावरण में इस तरह

जो जहाँ है अजाने ही हो चला बीमार है।

पहले घर-घर में जो दिखता प्रेम का व्यवहार था

आज दिखता झुलसा-झुलसा हर जगह वह प्यार है।

नाम रिश्तों के जो देते थे खुशी हर एक को

अब नहीं आता नजर वह स्नेह का संसार है।

बिखरती मुस्कान थी चेहरे पै जिनके नाम सुन

अब वो सुख सपना गया हो उजड़ा-सा घरबार है।

उनको जिनको कहते थे सब अपने घर की आबरू

वृद्धों को अब घर में रहने का मिटा अधिकार है?

बढ़ गई है धन की हर मन में अनौखी लालसा जिससे

धन केन्द्रित ही सारा हो रहा व्यवहार है।

जमाने की नकल करना आदमी यदि छोड़कर

समझदारी से चले तो ‘विदग्ध’ वह होशियार है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आत्मतत्व ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – आत्मतत्व ? ?

आत्मतत्व है तो

देह प्राणवान है,

बिना आत्मतत्व

देह निष्प्राण है..,

दो पहलुओं से

सिक्का ढलता है,

परस्परावलंबिता से

जगत चलता है,

माना आत्मऊर्जा से

देह प्रकाशवान है पर

देह बिना आत्म भी

दिवंगत विधान है..!

© संजय भारद्वाज 

(प्रात: 5.56 बजे, 7.12.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #212 ☆ भावना के दोहे … ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 212 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे …  डॉ भावना शुक्ल ☆

हवाएं धीमी बह रही, बजे मधुर संगीत।

नई कहानी वो कहे, है जीवन की रीत।।

कलियां कैसे मिल रही, जैसे मिलती बाह।

 कली खिली है ह्रदय में, है आपस में चाह।।

पत्ते – पत्ते झर रहे, झरता है संगीत।

सुख -दुख के वो गा रहे, गाए प्यार का गीत।।

हौले- हौले चल रही, पकड़े ठंडक हाथ।

मौसम करवट बदलता, ठंडी हवा के साथ।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #194 ☆ संतोष के दोहे – शीत ऋतु ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे  – शीत ऋतुआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 194 ☆

☆ संतोष के दोहे  – शीत ऋतु ☆ श्री संतोष नेमा ☆

सर्द हवाएं कह रहीं, बच कर रहिये आप

उचित समय जब भी मिले, धूप लीजिये ताप

वृद्ध सदा बच कर रहें, खून जमे तत्काल

बी पी, हृदयाघात में, करे ठंड बेहाल

काँटों सी चुभने लगी, खूब कपाती ठंड

लगती है जैसे नियति, बाँट रही हो दंड

दांतों का चुम्बन बढ़ा, लाली लिए कपोल

आँखों में है धुंध सी, वदन रहा अब डोल

पिय से कहती रात जब, सदा रहो तुम पास

तड़का लगता देह का, तब बुझती है प्यास

ठंडी से ठंडक मिले, बढ़े मिलन की आस

ज्ञानी कहते ठंड में, रहो पिया के पास

जिनको गर्मी में रहा, रवि से बहुत मलाल

वही ठंड में कर रहे, उसका बहुत खयाल

उठकर देखो सुबह से, लेते सूरज- ताप

लेकर प्याली चाय की, पेपर बांचें आप

श्रमिक कभी ना सोचता, क्या गर्मी क्या ठंड

रोजी-रोटी के लिए, सहे नियति के दंड

पूस माह की ठंड में, रहें न पिय से दूर

प्रेम बरसता उस घड़ी, खुशी मिले भरपूर

कहता है संतोष अब, तापो खूब अलाव

पर रक्खो सबके लिए, दिल में सदा लगाव

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “विवाह मंगल गीत…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

☆ “विवाह मंगल गीत…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

मंगलमय हो, हर दिन हर क्षण, मंगलमय हो  जीवन सारा

आज सभी हम आशिष देते, शुभमंगल सहजीवन सारा । 

बरसे आग किसीके मुखसे,

दूजा मुख बरसाये पानी।

हाथ एकका बढे पोछने,

ऑंख दूजेकी बरसे पानी।

सहजीवन का अर्थ यही है, आशिष साथ सदा है हमारा।

शुभमंगल सावधान बोलो, मंगलमय हो  जीवन सारा

दिन अच्छे हो या बूरे हो,

आते जाते रहते ही है ।

कसकर थामो हाथ दूजेका,

सहजीवन ये तब टिकता है।

जीवन की है यही कहानी, घर घर मे है यही नजारा।

शुभमंगल सावधान बोलो, मंगलमय हो  जीवन सारा।

नफरतका जब त्याग करे तो,

मनमें प्यार ही प्यार रहेगा।

क्रोध जहरको पी सकते तो,

मनमे अमृत ही बरसेगा।

सावधचित्त सुनो ये जुबानी, सुखही सुख बरसे तब सारा।

शुभमंगल सावधान बोलो, मंगलमय हो  जीवन सारा

मंगलमय हो, हर दिन हर क्षण, मंगलमय हो  जीवन सारा

आज यहीं हम चाहे हर दिन, शुभमंगल  सहजीवन सारा।

© श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

email : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आत्मतत्व ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – आत्मतत्व ? ?

आत्मतत्व है तो

देह प्राणवान है,

बिना आत्मतत्व

देह निष्प्राण है..,

दो पहलुओं से

सिक्का ढलता है,

परस्परावलंबिता से

जगत चलता है,

माना आत्मऊर्जा से

देह प्रकाशवान है पर

देह बिना आत्म भी

दिवंगत विधान है..!

© संजय भारद्वाज 

(प्रात: 5.56 बजे, 7.12.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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