हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 153 ☆ “सबके भगवान तो एक ही हैं” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “सबके भगवान तो एक ही हैं। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ “सबके भगवान तो एक ही हैं” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

दुनियाँ है बड़ी बिखरी सी कड़ी, पर सबकी बनावट एक सी है

हर रोज छटा नई होती है पर धरती की सजावट एक सी है

जलथल नभ ताप पवन मौसम सारी दुनियाँ में एक से हैं

रोना गाना खुशियाँ औ गम, हर देश में सबके एक से हैं ।।

पूरब पश्चिम हो देश कोई इन्सान की सूरत एक सी है

गति मति रति चाल चलन जीवन की जरूरत एक सी है।

दिन रात सुबह और शाम कहीं भी हों, सब होते एक से हैं

सब सूरज, चाँद सितारों के संग जगते और सोते एक से हैं

संसार में हर एक प्राणी की अपनी सक्रियता एक सी है

है साफ इसी से इस सारी दुनियाँ का रचियता एक ही है।

है तथ्य यही है तत्व वही उसे राम कहो या रहीम कहो

रब, वाहे गुरु, अल्लाह, मसीह, जरश्रुस्त या कृष्ण, करीम कहो

जो जैसा चाहे ध्यान करे, पूजा अर्चन या याद करे

मंदिर मस्जिद गिरजा गुरुद्वारे में जाके अरदास करे।

जब तत्व है एक तो भेद कहाँ ? उसका सन्मान तो एक ही है

साकार हो या आकार रहित जग का भगवान तो एक ही है

अपने अज्ञान के चक्कर में, हम अलग नाम ले फूले हैं

रंग रूप धर्म या बोली के फिरकों में बँट कर भूले हैं ।।

भूले राही अब राह पै आ जग के इन्सान तो एक ही हैं

हमने ही उसे कई नाम दिये सबके भगवान तो एक ही हैं।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पगडंडी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – पगडंडी  ? ?

कुछ राजपथ, कुछ स्वर्णपथ,

मद-भोग के पथ,

विलास के कुछ पथ,

चमचमाती कुछ सड़कें,

विकास के ‘एलेवेटेड’ रास्ते,

चमकीली भीड़ में

शेष बची संकरी पगडंडी,

जिनसे बची हुई हैं

माटी की आकांक्षाएँ,

जिनसे बनी हुई हैं

घास उगने की संभावनाएँ,

बार-बार, हर बार

मन की सुनी मैंने,

हर बार, हर मोड़ पर

पगडंडी चुनी मैंने,

मेरी एकाकी यात्रा पर

अहर्निश हँसनेवालो!

राजपथ, स्वर्णपथ,

विलासपथ चुननेवालो!

तुम्हें एक रोज़

लौटना होगा मेरे पास,

जैसे ऊँचा उड़ता पंछी

दाना चुगने, प्यास बुझाने

लौटता है धरती के पास,

कितना ही उड़ लो,

कितना ही बढ़ लो,

रहो कितना ही मदमस्त,

माटी में पार्थिव का क्षरण

और घास की शरण

हैं अंतिम सत्य..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #206 ☆ भावना के दोहे … चाँद ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे … चाँद)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 206 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … चाँद  डॉ भावना शुक्ल ☆

चाँद देखता चाँदनी, लगी मिलन की आस।

मिलजुल कर कब साथ हो, आए दिन वह पास।।

देख रहा है चाँद तो, बस चकोर की ओर।

नजर नजर से कह रही, हुई सुहानी भोर।।

चंद्रमुखी को देखकर, चाँद हुआ बेचैन।

कब होगा अपना मिलन, कब आएगा चैन।।

शरद सुहानी आ गई, छाई पूनम रात।

रखना बाहर खीर तुम, रात अमृत बरसात।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 27 – सूर्य उगाना होगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – उनकी मालगुजारी।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 27 – सूर्य उगाना होगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

मिले रोशनी तुम्हें

तुम्हीं को सूर्य उगाना होगा 

 

उद्यत हों जब हाथ 

उठाने जली मशालों को 

तब शायद पहचान मिले 

पिछड़े संथालों को 

एक साथ अब इन्कलाब का

बिगुल बजाना होगा 

 

धरे हाथ पर हाथ 

न कोई हल होगा मसला 

करो संगठित अब कुदाल 

अपने गेंती तसला 

बिखरे हुए स्वरों को

अब इक साथ मिलाना होगा

 

अगर समझ लोगे कीमत 

अपने मतपत्रों की 

ताकत खुद बढ़ जाएगी 

संसद के सत्रों की 

तिमिर निराशा का मिटवाने

शौर्य जगाना होगा

 

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 105 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 105 – मनोज के दोहे… ☆

अष्टभुजा सिंह वाहनी, कर जग का कल्याण।

विकट युद्ध है चल रहा, बचें सभी के प्राण।।

दुर्गा दुर्गति को हरे, सुख शांति विस्तार।

दुश्मन का संहार कर, करे भक्त उद्धार।।

आतंकों` का अंत हो, सुखद शांति का वास।

आपस में सद्भावना, हो दुश्मन का नास।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – शपथ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

🌹 🌻 विजयादशमी 🌻🌹

देह में विराजता है परमात्मा का पावन अंश। देहधारी पर निर्भर करता है कि वह परमात्मा के इस अंश का सद्कर्मों से विस्तार करे या दुष्कृत्यों से मलीन करे। परमात्मा से परमात्मा की यात्रा का प्रतीक हैं श्रीराम। परमात्मा से पापात्मा की यात्रा का प्रतीक है रावण।

आज के दिन श्रीराम ने रावण पर विजय पाई थी। माँ दुर्गा ने महिषासुर का मर्दन किया था।भीतर की दुष्प्रवृत्तियों के मर्दन और सद्प्रवृत्तियों के विजयी गर्जन के लिए मनाएँ विजयादशमी।

त्योहारों में पारंपरिकता, सादगी और पर्यावरणस्नेही भाव का आविर्भाव रहे। अगली पीढ़ी को त्योहार का महत्व बताएँ, त्योहार सपरिवार मनाएँ।

विजयादशमी की हृदय से बधाई।🌹

संजय भारद्वाज

? संजय दृष्टि – शपथ  ? ?

जब भी

उबारता हूँ उन्हें,

कसकर जकड़ लेते हैं 

और

मिलकर

डुबोने लगते हैं मुझे,

सुनो-

डूब भी गया मैं तो

मुझे यों श्रद्धांजलि देना,

मिलकर

डूबतों को उबारने की

शपथ लेना !

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 238 ☆ कविता – शायद हल हो युद्ध ही… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता शायद हल हो युद्ध ही)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 238 ☆

? कविता – शायद हल हो युद्ध ही ?

एक ही आस्था के केंद्र हैं दोनो के

पर दोनो बिल्कुल अलग अलग हैं

 

तमाम कोशिशों से बनाते हैं

तरह तरह के अत्याधुनिक मैटेरियल्स

तान दी जाती हैं

ऊंची ऊंची बड़ी भव्य इमारतें

 

इमारतों में

होते हैं प्रयोग अन्वेषण

बनते हैं नए नए हथियार !

 

सुरंग नुमा

कुछ दूसरी जगहों पर

पनपती हैं

अधिकारो की साजिशें

 

उड़ते हैं

मिसाइल्स अहम के

बकायदा भवन खाली करने की चेतावनियां दी जाती हैं

गिराए जाते हैं बम और राकेट

नष्ट कर दिए जाते हैं शहर

 

शायद हल हो युद्ध ही

क्रूरता का

पता नहीं जीतता कौन है

पर हर बार हार जाती है

इंसानियत…!

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विजयदशमी पर्व विशेष – असत्य पर सत्य की पावन विजय – दशहरा ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ असत्य पर सत्य की पावन विजय – दशहरा ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे 

है असत्य पर सत्य की, विजय दशहरा पर्व।

पराभूत दुर्गुण हुआ, धर्म कर रहा गर्व।।

है असत्य पर सत्य की, विजय और जयगान।

विजयादशमी पर्व का, होता नित सम्मान।।

जीवन मुस्काने लगा, मिटा सकल अभिशाप।

है असत्य पर सत्य की, विजय दशहरा ताप।।

है असत्य पर सत्य की, विजय लिए संदेश।

सदा दशहरा नम्रता, का रखता आवेश।।

है असत्य पर सत्य की, विजय लिए है वेग।

विजयादशमी पर्व है, अहंकार पर तेग।।

नित असत्य पर सत्य की, विजय खिलाती हर्ष।

सदा दशहरा चेतना, लाता है हर वर्ष।।

तय असत्य पर सत्य की, विजय बनी मनमीत।

इसीलिए तो राम जी, लगते पावन गीत।।

नारी का सम्मान हो, मिलता हमको ज्ञान।

है असत्य पर सत्य की, विजय दशहरा आन।।

है असत्य पर सत्य की, विजय सुहावन ख़ूब।

राम-विजय से उग रही, धर्म-कर्म की दूब।।

 यही सार-संदेश है, यही मान्यता नित्य।

है असत्य पर सत्य की, विजय‌ बनीआदित्य।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 162 – गीत – सच सच कहना… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत –सच सच कहना।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 162 – गीत – सच सच कहना…  ✍

सच सच कहना मुझसे पहले और कभी खटका था द्वार ?

 

राजमार्ग के ठीक किनारे

बना हुआ है घर तेरा

कितने चेहरे आते जाते

होता कितनों का फेरा।

जान बूझकर था कि भूल से और कभी भी सुनी गुहार

 

शक सन्देह नहीं है तुम पर

पर विश्वास पनपता है

कमजोरी है हर मनुष्य की

रूप कि अच्छा लगता है

ऐसा कोई रूप विमोही क्या पहले भी गया पुकार

 

सिर्फ सवाल किये हैं मैंने

बिल्कुल नहीं बुरा मानो

मेरे मन की क्या बतलाऊँ

अपने मन की तुम जानो।

सच सच कहना मुझसे पहले और कभी खटका था द्वार ?

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 161 – “सम्भव नहीं हुआ है अब…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  लगती चिडियाँ खूब फुदकने)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 161 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “लगती चिडियाँ खूब फुदकने” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

सुबह-सुबह उसके घर की

छप्पर धुंधुआती है –

जबभी ,भोजन मिलने की

आशा जग जाती है

 

लगती चिडियाँ खूब फुदकने

छपर पर सहसा

ताली खूब बजाता पीपल

जैसे हो जलसा

 

सारे जीव प्रसन्न तो दिखें

मुदित वनस्पतियाँ

पूरे एक साल में ज्यों

दीवाली आती है

 

घर के कीट पतंग सभी

यह सुखद खबर पाकर

एक दूसरे को समझाने

लगे पास जाकर

 

यह सुयोग इतने दिन में

गृहस्वामी लाया है

जिस की सुध ईश्वर को

मुश्किल से आपाती है

 

यों सारा पड़ोस खुश होकर

आशा में डूबा

शायद आज पूर्ण हो पाये

अपना मंसूबा

 

जो रोटीं उधार उस दिन

की हैंवापस होंगीं

ठिठकी यह कल्पना,

सभी की , जोर लगाती है

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

05-10-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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