हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – धूप ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – धूप ? ?

एसी कमरे में

अंगुलियों के इशारे पर

नाचते तापमान में,

चेहरे पर लगा लो

कितनी ही परतें,

पिघलने लगती है

सारी कृत्रिमता

चमकती धूप के साये में,

मैं सूरज की प्रतीक्षा करता हूँ,

जिससे भी मिलता हूँ

चौखट के भीतर नहीं,

तेज़ धूप में मिलता हूँ..!

 © संजय भारद्वाज 

(प्रात: 7:22 बजे, 25.1.2020)

 अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 93 ☆ मुक्तक ☆ ।।थोड़ा थोड़ा बदलो एक दिन रोशन नाम हो जायेगा।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 93 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।थोड़ा थोड़ा बदलो एक दिन रोशन नाम हो जायेगा।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

थोड़ा थोड़ा रोज बदलो  काम हो जायेगा।

देखना एक  दिन रोशन नाम हो जायेगा।।

कर्म से गुजर कर लिखो दिलकी कलम से।

एक दिन देखते देखते वो पैगाम हो जायेगा।।

[2]

जो दोगे सम्मान तो अधिक  होकर  आएगा।

सबको साथ ले चलो इंतजाम हो जायेगा।।

सहयोग सद्भावना होते हैं मूलमंत्र जीवन के।

साथ करो काम अभियान सफल हो पायेगा।।

[3]

अनुभव से सीखो   आगे आराम हो जायेगा।

मांगों सबकी दुआ     नेक नाम तू पायेगा।।

हटा   कर घृणा भरो   भाव  प्रेम का केवल।

नफरत डोर कटते ही प्यार  ईनाम लायेगा।।

[4]

पहले दूसरे को नहीं खुद को बदलना जरूरी है।

जब सब मिलके बदलेंगे तब बात होगी पूरी है।।

एक दस सौ बदलें तो राष्ट्र भी    बदल जायेगा।

प्रेम निर्मलधारा में बह जायेगी सब मगरूरी है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 156 ☆ “राम लला का मंदिर मन हो” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “राम लला का मंदिर मन हो। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ “राम लला का मंदिर मन हो” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

एक साथ मिलकर बोलो सब,  जय जय सियाराम

उद्घोष करो जयकारे का ,  जय जय सियाराम

 

अंतर्मन से , जिसने भी , जब जहाँ पुकारा

आजानुभुज ने दिया सहारा, जय जय सियाराम

 

खुद को धोखा देते नाहक, लाख जतन से पाप छिपाते

कमलनयन से छिपा न कुछ भी , जय जय सियाराम

 

केवट वाला भोलापन हो, सरयू के प्रवाह सा जीवन

कौशलेंद्र कृपालु हैं भगवन , जय जय सियाराम

 

काटें वे जीवन के बंधन , करें समर्पण राघव को मन

बस शबरी सा प्रेम करें हम , जय जय सियाराम

 

बने अयोध्या यह शरीर, राम लला का मंदिर मन हो

भक्ति करें किंचित हनुमत सी , तो ये मानव योनि सफल हो

जय राम जय राम , जय जय सियाराम

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मौन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – मौन ? ?

हर बार परिश्रम किया है,

मूल के निकट पहुँचा है

मेरी रचनाओं का अनुवादक,

इस बार जीवट का परिचय दिया है,

मेरे मौन का उसने अनुवाद किया है,

पाठक ने जितनी बार पढ़ा है

उतनी बार नया अर्थ मिला है,

पता नहीं उसका अनुवाद बहुआयामी है

या मेरा मौन सर्वव्यापी है..!

© संजय भारद्वाज 

(रात्रि 10:40 बजे, 19.1.2020)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #210 ☆ भावना के दोहे … ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 210 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे …  डॉ भावना शुक्ल ☆

नयन- नयन को ढूँढते, करें रतजगा आज।

आयेंगे प्रियतम मगर, बजेंगे मन में  साज।।

प्रियतम की आहट हुई, मन में उठी उमंग।

आ जाओ अब प्रिये तुम, साथ जिएंगे संग।।

 बनकर प्रहरी आज वो, खड़ा हुआ है द्वार।

प्रिय से कैसे हो मिलन, कैसे हो उद्धार।।

मन को निर्मल रखो तुम, करो नहीं मलीन।

अंतर्मन की प्रेरणा, नहीं बनो तुम दीन।।

परछाई आई अभी, मिलने को चुपचाप।

नहीं सुनाई दी हमें, उसकी तो पदचाप।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #193 ☆ संतोष के दोहे – श्रम वीर ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे  – श्रम वीरआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 193 ☆

☆ संतोष के दोहे  – श्रम वीर ☆ श्री संतोष नेमा ☆

साहस, जज्बा, होसला, जीत गये श्रम वीर

सरकारों की मदद से, सीना गिरि का चीर

देव भूमि के देव सब, मिल कर हुए सहाय

करके रक्षा सभी की, स्वयं गये हर्षाय

दुनिया भी अब चकित है, श्रम का देख बचाव

देख सभी की प्रार्थना, और देख सदभाव

मिल कर सब ने बचा ली, मजदूरों की जान

बचाव दल की भूमिका, अद्भुत बड़ी महान

संकट की हर घड़ी में, सब मिल  रहिये साथ

मिलता है “संतोष” तब, ऊँचा होता माथ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समीक्षा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – समीक्षा ? ?

आज कुछ

नया नहीं लिखा?

उसने पूछा..,

मैं हँस पड़ा,

वह देर तक

पढ़ती रही मेरी हँसी,

फिर ठठाकर हँस पड़ी,

लंबे अरसे बाद मैंने

अपनी कविता की

समीक्षा पढ़ी..!

© संजय भारद्वाज 

(रात्रि 12:46 बजे, 23.12.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #25 ☆ कविता – “नशा…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 25 ☆

☆ कविता ☆ “नशा…☆ श्री आशिष मुळे ☆

ना निकालो बाहर मुझे

डूबा हूं और पीने दो मुझे

यहां बार बार हजार बार

मरकर बस अब जीने दो मुझे

 

घूम घूम झूम झूम

थिरकने दो मुझे

दर्या-ए-दिल में आज

बस बह जाने दो मुझे

 

कहीं बनूं दीप

कहीं बनूं आग

चाहें जैसे सुलगाओ

आज बस जलने दो मुझे

 

आए क्यों सामने

ए पर्दा नशीं

झलक क्या देखी

आती नहीं अब नींद मुझे

 

जानम जानम दर्द-ए-मन

भर दिया प्याला क्यों

प्यासे हमेशा अब होंठ मेरे

चूमा जान-ए-जाना मुझे क्यों

 

था मैं बस आशिष

बनाया मुझे हशीश जो

गर अब छु दूं किसीको

कहीं खो न जाए होश वो

 

देखता सपने नींद में

मुझे जगाया क्यों

अब हूं बस दीवाना

सिखाया मुझे क्यों

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 185 ☆ बाल गीत – वर्षा की हो गई विदाई ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 185 ☆

☆ बाल गीत – वर्षा की हो गई विदाई ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

शरद पूर्णिमा गई क्षितिज में

      वर्षा की हो गई विदाई।

चुपके – छुपके घूमघाम कर

    थोड़ी – सी अब सर्दी आई।।

 

काँस फूलते धवल नवेले

    हरसिंगारी पुष्प खिले हैं।

दिन तो बहुत गए  हैं छोटे

      रातों के अब पंख लगे हैं।

 

भोर हुई है शीतल मोहक

   मौसम है अनुपम सुखदाई।।

 

दूर नहीं है दीवाली भी

    हर घर में हो रही सफाई।

बच्चों में है नई तरंगें

     खेलें – कूदें पिदम – पिदाई।

 

नए – नए उपहार खरीदें

      खुशियों ने बारात चढ़ाई।।

 

चंपा, गेंदा महक रहे हैं

     खूब खिला है सदाबहार।

पक्षी भी आनन्दित होकर

    गाएं मिलकर राग – मल्हार।

 

सूरज भी अब सुखद लग रहे

   हवा खूब ही मन को भायी।।

 

हाफ शर्ट भी नहीं सुहाए

     फूल अस्तीनी निकलीं शर्ट।

पंखे, कूलर बंद हो गए

     मौसम ने कर दिया अलर्ट।

 

गर्म वस्त्र कम्बल भी निकले

     निकलीं लोई और रजाई।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #208 – कविता – ☆ प्रभाव… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके “प्रभाव…”।)

☆ तन्मय साहित्य  #208 ☆

☆ प्रभाव… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कुछ बातें, जो उसके

संस्कारगत

सोच के विपरीत थी

के बावजूद 

लंबे समय से

साध रखी थी चुप्पी

प्रसंगवश एक दिन

कुछ देर को जुबान क्या खुली

घेर लिया गया वह

अपनों के द्वारा

लगा..

दूध में अनचाहे गिर गई

खटास,

और पल भर में

बदल गई मिठास संबंधों की।

 

अपने पर किए गए

एहसानों व तर्कों के

वार से परास्त

उसने

फिर एक बार

लगा लिया ताला मुँह पर

फेंक दी चाबी

किसी अनजानी जगह

यह जानकर कि,

अधुनातन हवाओं का दबाव

खुद के प्रभाव से

कहीं अधिक भारी है।

 

वह घर का सबसे बड़ा था

बिना किसी दुर्भावना के

अच्छे के लिए लड़ा था

पर छोटे तो

आखिर होते ही हैं अबोध

भले ही वे विरोध में हो

फिर भी अच्छे ही होते है।

अब वह अनन्य भाव से

स्वयं में रमा है

जारी जीवनचक्रीय

परिक्रमा है।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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