हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – भय  ? ?

साँप का भय

बहुत है मनुष्य में,

दिखते ही बर्बरता से

कुचल दिया जाता है,

सूँघते ही दोपाया

जान बचाकर भागता है,

मनुष्य का भय

बहुत है साँप में..!

© संजय भारद्वाज 

(संध्या 5:30 बजे, 7 दिसंबर 2015)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्राद्ध पक्ष में साधना नहीं होगी। नियमितता की दृष्टि से साधक आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना करते रहें तो श्रेष्ठ है। 💥

🕉️ नवरात्र से अगली साधना आरंभ होगी। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 86 ☆ मुक्तक ☆ ।।यहीं इसी धरती पर हमें, स्वर्ग बनाना है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 86 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।यहीं इसी धरती पर हमें, स्वर्ग बनाना है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

हो विरोध कटुता फिर बात प्यार की नहीं होती।

हो मत मन भेद तो बात इकरार की नहीं होती।।

जब दिल का कोना कोना नफरत में   लिपटता है।

तो कोई बात आपस में सरोकार की नहीं होती।।

[2]

हम भूल जाते कोई अमर नहीं एक दिन जाना है।

जाकर प्रभु से ही  कर्मों का खाता जंचवाना है।।

ऊपर जाकर स्वर्ग नर्क की चिंता मत करो अभी।

हो तेरी कोशिश   हर क्षण   यहीं स्वर्ग बनाना है।।

[3]

एक ही मिला जीवन   कि बर्बाद नहीं करना  है।

मन में नकारात्मकता    आबाद   नहीं करना है।।

चाहें सब के लिए सुख तो हम भी सुख ही पायेंगे।

भूल से भी किसीको गलत फरियाद नहीं करना है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 150 ☆ ‘स्वयं प्रभा’ से – “क्योंकि परम्परागत सब प्यार खो गया है” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “क्योंकि परम्परागत सब प्यार खो गया है। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘स्वयं प्रभा’ से – “क्योंकि परम्परागत सब प्यार खो गया है” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

दुनियाँ दुखी है क्योंकि सदाचार खो गया है

लालच का हर एक मन पै अधिकार हो गया है।

 

रहते थे साथ हिलमिल छोटे-बड़े जहाँ पर

वहाँ द्वेष-बैर-कटुता व्यवहार हो गया है।

 

संतोष की गली में उग आई झाड़ियाँ हैं

जिनसे फिर पार जाना दुश्वार हो गया है।

 

मन सब जो सच्चाई से बातें किया करते थे

बढ़ चढ़ बताना उनका अधिकार हो गया है।

 

जीवन सरल था सादा उलझनें थी बहुत कम

अब नई मुश्किलों का अम्बार हो गया है।

 

इस नये जमाने में नित नई आँधियाँ हैं

सब धूल धूसरित सा संसार हो गया है।

 

एक ओर तो प्रगति हुई पर बढ़ी सौ बुराई

क्योंकि परम्परागत सब प्यार खो गया है।

 

प्रत्येक घर गली में जहाँ प्रेम उमगता था  

वहाँ पर ‘विदग्ध’ लौ बिन अँधियार हो गया है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “चालायचे  तेजाकडे…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “चालायचे  तेजाकडे…” ☆ श्री सुनील देशपांडे

आलो असे शून्यातूनी मी, चाललो शून्याकडे.

आलो जरी तिमिरातूनी मी, चाललो तेजाकडे.

तिमिर शोषी तेज तेंव्हा, कृष्णविवरे उगवती.

कृष्णविवरे टाळूनी मी, चाललो तेजाकडे.

तेजांध मी होईन तेव्हा दृष्टीपुढे फाके प्रभा.

तिमिर अन तेजांधता समजेल फरक तेजाकडे.

आधीन देहाच्या जरी, आसक्ती देहाची नसे.

जायचे सोडून सारे, चालायचे तेजाकडे.

अंतरे किती राहिली, का तयाची चिंता आता?

येईल जेव्हा हाक तेव्हा, चालायचे तेजाकडे.

© श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

email : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अक्स ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अक्स ? ?

कैसे चलती है क़लम

कैसे रच लेते हो रोज़?

खुद से अनजान हूँ

पता पूछता हूँ रोज़,

खुदको हेरता हूँ रोज़,

दर्पण देखता हूँ रोज़,

बस अपने ही अक्स

यों ही लिखता हूँ रोज़!

© संजय भारद्वाज 

( प्रातः 11:10 बजे, 6.6.2019 )

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #202 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 202 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  डॉ भावना शुक्ल ☆

उद्योग

बढ़ता है उद्योग जब, करते खूब प्रचार।

दिन दूनी निशि चौगुनी, बढ़े बहुत व्यापार ।।

पहचान

वाणी सबकी  हो मधुर, वही बने पहचान।

शब्द -शब्द से झर रहे, खिले मधुर मुस्कान।।

अथाह

प्यार अथाह नहीं करो, जाना मुझको दूर।

अभी परीक्षा शेष है, जाने को मजबूर  ।।

हेलमेल

हेलमेल परिवार में, खिलते रंग हजार।

खुशियों के फूल बरसे, फूलों सा व्यवहार।।

उजियार

चाँद चमकता गगन में, फैल रहा उजियार।

चाँद समेटे चाँदनी, उसका है अधिकार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #187 ☆ कर्म ही हैं हमारी विरासत… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना कर्म ही हैं हमारी विरासत…। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 187 ☆

☆ कर्म ही हैं हमारी विरासत☆ श्री संतोष नेमा ☆

कभी  हमें  भी आजमा  कर  देख

दर्द  दिल  के  हमें  बता  कर  देख

इश्क़ होता है कैसा समझ जाओगे

दिल  हम  से  जरा  लगा  कर देख

वक्त ने हमको सताया है बहुत

दर्द गमों  का पिलाया  है बहुत

हम  गैरों   की  बात  क्या  करें

अपनों ने ही हमें रुलाया है बहुत

हम उनके तलबगार होकर रह गए

बिन उनके बे-करार होकर रह गये

वो समझ सके ना रवायत इश्क की

हम  फूल थे  अंगार  होकर  रह गए

मैं सब  के लिए  प्यार  लाया हूं

प्रेम की  शीतल  बहार लाया हूँ

कभी दिल  से मुझे  समझियेगा

प्रकृति का सुंदर उपहार लाया हूं

एक दिन दुनिया से गुजर जाएंगे

न  जाने  किसे  कब याद आएंगे

कर्म ही हैं हमारी विरासत संतोष

जो  सबको  हमारी याद दिलाएंगे

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कुंडलिया – बेटी कभी न बोझ ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ कुंडलिया – बेटी कभी न बोझ ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे 

[1]

करना मत तुम भेद अब, बेटा-बेटी एक।

बेटी प्रति यदि हेयता, वह बंदा नहिं नेक।।

वह बंदा नहिं नेक, करे दुर्गुण को पोषित।

बेटी हो मायूस, व्यर्थ ही होती शोषित।।

दूषित हो संसार, पड़ेगा हमको भरना।

संतानों में भेद, बुरा होता है करना।।

[2]

बेटा कुल का नूर है, तो बेटी है लाज।

बेटा है संगीत तो, बेटी लगती साज़।।

बेटी कभी न बोझ, बढ़ाती दो कुल आगे।

उससे डरकर दूर, सदा अँधियारा भागे।।

जहाँ पल रहा भेद, वहाँ तो मौसम हेटा।

नहिं किंचित उत्थान, जहाँ बस भाता बेटा।।

[3]

गाओ प्रियवर गीत तुम, समरसता के आज।

सुता और सुत एक हैं, जाने सकल समाज।।

जाने सकल समाज, बराबर दोनों मानो।

बेटी कभी न बोझ, बात यह चोखी जानो।।

संतानों से नेह, बराबर उर में लाओ।

फिर सब कुछ जयकार, अमन के नग़मे गाओ।।

[4]

जाने कैसी भिन्नता, मान रहे हैं लोग।

बेटा-बेटी भेद का, पाले बैठे रोग।।

पाले बैठे रोग, बेटियाँ होतीं आहत।

बेटी कभी न बोझ, करो नहिं ख़ुद को तुम क्षत।

कहता सच मैं आज, भले कोई नहिं माने।

बेटा-बेटी एक, सकल यह युग अब जाने।।

[5]

अँधियारा छाने लगा, भरी दुपहरी आज।

सामाजिक अपराध का, करते हम सब काज।।

करते हम सब काज, भेद संतति में देखें।

बेटी को तो बोझ, मूर्ख ही केवल लेखें।।

दोनों एक समान, सदा कुल का उजियारा।

मिलकर करते दूर, आज घर का अँधियारा।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भोर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – भोर ? ?

सारी रात

बदलता हूँ करवट

अजीब बेचैनी;

अजीब पीड़ा से,

जैसे काटती है रात

प्रसव-वेदना से

कराहती कोई स्त्री,

लगता है-

प्रसव की भोर आएगी

कुछ नया लिखा जाएगी!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #19 ☆ कविता – “राह…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 19 ☆

☆ कविता ☆ “राह…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

ना मैं इनका हूँ 

ना मैं उनका हूँ 

जिनमें जितनी अच्छाई

उतना मैं उनका हूँ 

 

किसी की चाहत

किसी का करार है

किसी का दर्द भी

अच्छाई की निशानी है

 

सदियों से बना रहें

कहीं सूंखी कहीं गीली

जिसकी सड़क जहां पक्की

राह मेरी वहीं है

 

शिकायतों के मुकाम हैं

मगर समय बहुत कम है

राहें बदलना समझदारी है

जब मंज़िल अपनी तय है

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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