हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #176 ☆ “इंसानियत का मज़हब है…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना – “इंसानियत का मज़हब है…”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 176 ☆

 ☆ “इंसानियत का मज़हब है☆ श्री संतोष नेमा ☆

वक्त के बदलते ही, शराफत नहीं रही

दिल में अब पहली सी, मुहब्बत नहीं रही

हद हो गई आज, बेहयाई की यहाँ तक

आँखों में हया की, नफ़ासत नहीं रही

इश्क़ का बोलबाला, हर तरफ जहान में

सच हुआ नदारत, अब सदाकत नहीं रही

 तक़्ब्बुर में जीता है, माटी का पुतला

इंसा में पहले सी, रफाक़त नहीं रही

सियासत में कैसे कैसे, लोग आ गये

सांप और नेवले में, अदावत नहीं रही

इंसानियत का मज़हब है सबसे आला

“संतोष” जुर्म करके, नदामत नहीं रही

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “रास्ते…” – दो कविताएं ☆ श्री संजय सरोज ☆

श्री संजय सरोज 

(सुप्रसिद्ध लेखक श्री संजय सरोज जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। आप वर्तमान में असिस्टेंट कमिश्नर, (स्टेट-जी एस टी ) के पद पर कार्यरत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  भावप्रवण कविता  – “रास्ते…)

☆ कविता ☆ ? रास्‍ते… – दो कविताएं ??

रास्ते – एक 

सर्पिल रास्ते,

दोनों तरफ खड़े  हुए लंबे दरख़्त ,

शाखें मिलने को, लिपटने को, गुथने को तैयार ,

जैसे बुन रही हों,

पैराहन किसी के।

 

दरख़्तों के पीले पत्ते ,

सूखकर टूट कर बिखरते हुए रास्तों पर,

और उन  पर आती तीखी चटक कोपलें,

जैसे गहरा कर रही हों ,

रंग  किसी शाम के।

 

बोझिल दरख़्त,

शाम ढलने से पहले ही ,

फैल गई हैं परछाइयां जिनकी रास्तों पर ,

जैसे थक कर पसर गए हो,

दिनभर से अपना ही रास्ता तके तके….

 

रास्ते भाग- दो 

रास्ते लंबे ,

अनंत, दूर क्षितिज तक,

गुजरती रात के साए में ,

जो जाते हैं समंदर तक।

 

तट पर बिछी रेत,

बिखरे हैं सीपी, शंख तमाम ,

गुजरते बादलों के बीच,

चांद लटक आया है नीचे तक।

 

सूंघने खुशबू सांसो की,

सुनने संगीत धड़कनों का,

पर चुपचाप लौट गया है वो,

छोड़कर हमें समंदर की लहरो पर,

दूर कहीं गुम हो जाने तक ……..

 

©  श्री संजय सरोज 

नोयडा

मो 72350 01753

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जिजीविषा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – जिजीविषा ??

गहरी मुँदती आँखें;

थका तन;

छोड़ देता हूँ बिस्तर पर,

सुकून की नींद

देने लगती है दस्तक,

सोचता हूँ,

क्या आख़िरी नींद भी

इतने ही सुकून से

सो पाऊँगा…?

नींद, जिसमें

सुबह किए जानेवाले

कामों की सूची नहीं होगी,

नहीं होगी भविष्य की

ऊहापोह,

हाँ कौतूहल ज़रूर होगा

कि भला कहाँ जाऊँगा…!

होगा उत्साह,

होगी उमंग भी

कि नया देखूँगा,

नया समझूँगा,

नया जानूँगा

और साधन

मिले न मिले,

तब भी

नया लिखूँगा..!

© संजय भारद्वाज 

22.7.19, रात्रि 10.37 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 168 ☆ गीत – माँ ठंडी पुरवइया रे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 168 ☆

☆ गीत – माँ ठंडी पुरवइया रे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

माँ धरती की चूनर धानी

माँ ही छाँव छवइया रे।

 

कल्पतरू – सी माँ रे भइया

माँ ठंडी पुरवइया रे।।

 

नौ माहों तक पीर सह गई

अपने बच्चे की खातिर।

धूप – ताप में शिकन न लाई

भूख प्यास भी भूली फिर।।

 

माँ है सोना , माँ ही चाँदी

माँ ही भूल – भुलइया रे।।

 

चक्की पर वह बेझर पीसे

कभी पीसती मकई को।

चकला पीसे दाल बनाए

कभी कूटती धनई को ।।

 

माँ श्रम देवी, माँ ही पूजा

माँ बचपन की गइया रे।।

 

चौका चूल्हा काम निरे थे

कभी कपास बिनोला रे।

 

रोटी सेंकी हाथ जलाए

उफ भी कभी न बोला रे।।

 

माँ ही काशी, माँ ही मथुरा

माँ ही पार लगइया रे।।

 

देर से सोना जल्दी जगना

माँ की थी सृष्टि ऐसी।

बिन सालन के खुद रह जाए

माँ की दृष्टि रही वैसी।।

 

माँ ममता की मूरत भइया

माँ ही नाव खिवइया रे।।

 

माँ का आँचल कभी न भीगे

माँ की सेवा से तर लें।

माँ ही गीता, वेद , उपनिषद

प्रेम का सागर खुद भर लें।।

 

माँ ने जैसे हमको पाला

वैसे गवें बधइया रे।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #6 ☆ कविता – “शहर…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #6 ☆

 ☆ कविता ☆ “शहर…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

मेरा शहर रूठा नहीं

भीतर से मेरे मिटा नहीं

चाहें रहूं मैं कहीं

जल उसका सूखा नहीं

 

वो गलियां वो गालियां

वो कलियां वो रलियां

यहां नहीं दिखाई देती

वो ममता भरी जिंदगियां

 

वो भी थोडी ही वैसा ही है

वोह भी तो अकेला ही है

अब ना इधर जान के मायने है

ना उधर पहचान की जरूरत है

 

शाम को मै आंसू बहाता हूं

वो अब बस शराब बहाता है

गुज़रे हुए जमाने की

बस यादें जलाता है

 

अब वहां लोग तो बहुत हैं 

इंसान तो पहले से कम हैं

जैसे यहां जमीन तो बहुत है

मगर पानी पहले से कम है….

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #190 – कविता – आइने में स्वयं के… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “आइने में स्वयं के)

☆  तन्मय साहित्य  #190 ☆

☆ आइने में स्वयं के☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कर्म से है निकट का रिश्ता

नहीं हूँ जानता मैं भेद कि,

सत्कर्म और दुष्कर्म क्या

धर्म के अंदर छिपा

वह मर्म क्या

 

निर्विवादी वाद

पूँजी,धर्म जाति विवाद भाषा

इन सभी से दूर हट कर

जानता हूँ सिर्फ इतनी बात

शोषित पीड़ित दुखियों के

रहूँ मैं हर घड़ी में साथ

 

गंध पर

प्रतिबंध में नहीं चाहता

स्वच्छंद विचरे

किंतु थकित निराश बोझिल

छंद से अनुबंध कर ले

तो मधुर सूरसाज निकले

 

पाप क्या संताप क्या

है पुण्य जाप अलाप क्या

इष्ट और विशिष्ट

है नहीं लक्ष्य मेरा

बस जरा सी बात

केवल जानता हूँ

आईने में हृदय के

मैं स्वयं क्या आप क्या!

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 15 ☆ खींच कर लकीर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “खींच कर लकीर।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 15 ☆ खींच कर लकीर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

पानी पर

खींचकर लकीर

भरते हैं सागर का दम।

 

अंगद का पाँव जमा

चाट लोकतंत्र

आँखों में धूल झोंक

भोग राजतंत्र

 

फिर बैठे

बन गए अमीर

लौलुपता नहीं हुई कम।

 

भावों के ऊसर में

शब्दों की फसल

छंद के लिफ़ाफ़े में

रख कोई ग़ज़ल

 

और कहें

स्वयं को कबीर

पाल रहे मीर का भरम।

 

तिनकों पर इतराएँ

डकराएँ खूब

अघा गए चर-चरकर

निर्धन की दूब

 

फैलाएँ

झूठ,बन फकीर

बेचें ईमान और धरम ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ देर से बज़्म में आते है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “देर से बज़्म में आते है…“)

✍ देर से बज़्म में आते है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जिनके दीदार को हम आँख लगा के बैठे

बाल वो छत पे सुखाने को नहा के बैठे

सामने बज़्म में आते ही फिरा ली आँखें

ये सितम देखिये वो ओट बना के  बैठे

देश के काम न आने से सही मर जाते

जो अपने प्राण घरों में हैं  बचा के बैठे

नाथने काश मिले इनको सपेरा कोई

नाग जो कुंडली सत्ता पे जमा के बैठे

किससे फरियाद करें कौन सुनेगा बतला

आज मुंसिफ ही सभी हक़ को दबा के बैठे

देर से बज़्म में आते है सदर शर्म नहीं

पहली सफ़ में जो भी बैठे थे उठा के बैठे

देख सोने के हिरन को वो चला है पीछे

जिनको शिद्दत से अरुण दिल में बसा के बैठे

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 11 – शीश पर काल रहा मँडरा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – शीश पर काल रहा मँडरा।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 11 – शीश पर काल रहा मँडरा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

कितना गर्म मिजाज

चतुर्दिक सन्नाटा पसरा

प्यासे सर-सरि विकल

जान का दिखता है खतरा

 

धरती के वन काट,

लील ली हमने हरियाली

लपटों की फुफकार

अकालों की छाया काली

कोसों दूर जानलेवा

हैं पानी के डबरा

 

किरणों के कोड़े बरसाता

सूर्य निकलता है

कोलतार मरुजल के जैसा

हमको छलता है

बचा नहीं पाते लपटों से

अब छतरी-छतरा

 

अर्थ-पिशाचों ने

धरती का आँचल फाड़ा है

पाँव कुल्हाड़ी मारी

मौसमचक्र बिगाड़ा है

इसीलिए तो आज

शीश पर काल रहा मँडरा

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 88 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 88 – मनोज के दोहे… ☆

1 सावन

सावन के त्यौहार हैं, पूजन-पाठ प्रसंग।

रक्षाबंधन-सूत्र से, चढ़ें नेह के रंग।।

2 बादल

उमड़-घुमड़ बादल चले, लेकर प्रेम फुहार।

तन-मन अभिसिंचित करें,जड़-चेतन उपकार।।

3 मेघ

मेघ बरसते हैं वहाँ, जहाँ प्रभु घनश्याम।

उनकी कृपा अनंत है, मानव मन विश्राम।।

4 झड़ी

झड़ी लगी आनंद की, गिरिजा-शिव परिवार।

सावन-भादों घर रहें, महिमा अपरंपार।।

5 चौमास

कर्म-धर्म का योग ले, आया है चौमास।

मंगलमय खुशहाल का, माह रहा है खास।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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