हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 130 ☆ “किसी को मधुर गीतों सी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित ग़ज़ल – “किसी को मधुर गीतों सी…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #130 ☆ ग़ज़ल – “किसी को मधुर गीतों सी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

दुनिया में मोहब्बत भी क्या चीज निराली है।

रास आई तो अमृत है न तो विषभरी प्याली है।।

 

इसने यहाँ दुनियामें हर एक को लुभाया है

पर दिल है साफ जिनका उनकी ही खुशहाली है।

 

सच्चों ने घर बसाये, झूठों के उजाड़े हैं

नासमझों के घर रहते सुख-शांति से खाली हैं।

 

जिनसे न बनी वह तो उनके लिये गाली है।

जो निभ न सके संग मिल, वे जलते रहे दिल में

जिनने सही समझा है घर उनके दीवाली है।

 

कुछ के लिये ये मीठी मिसरी से सुहानी है

पर कुछ को कटीली ये काँटों भरी डाली है।

 

मन के जो भले उनको यह रात की रानी है

जो स्वार्थ पगे मन के, उनको तो दुनाली है।

 

जिसने इसे जो समझा उसके लिये वैसी है

किसी को मधुर गीतों सी, किसी को बुरी गाली है।

 

जग में ’विदग्ध’ दिखते दो रूप मोहब्बत के

कहीं चाँद सी चमकीली कहीं भौंरे से काली है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – देहरी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – देहरी ??

आर या पार,

जानता हूँ ;

देहरी पर

सिमटा है संसार,

देवता या दानव,

देखता हूँ ;

देहरी पर

ठिठका है मानव…!

© संजय भारद्वाज 

प्रात: 11:45 बजे, 4 मई 2023

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #180 ☆ कैसे कहूं…? ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक भावप्रवण रचना “कैसे कहूं…?।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 180 – साहित्य निकुंज ☆

☆ कैसे कहूं…? ☆

भाव मन में 

बहने लगे 

अनायास

कैसे कहूं।

 

कुछ न आता समझ

व्यक्त कैसे करूं

मन की बातें

कैसे कहूं।

 

दिल पर 

छाई है उदासी

बेवजह

कैसे कहूं।

 

उनके शब्दों में

 है जान 

मिलती है प्रेरणा

कैसे कहूं।

 

बिखरे शब्द 

लगे समिटने

मिला आकर

कैसे कहूं।

 

आयेगा वो पल

 चमकेगी किस्मत

समझोगे तब

कैसे कहूं।

 

है मंजिल सामने

वहीं है खास

हो जाती हूं नि:शब्द

कैसे कहूं।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #166 ☆ “संतोष के दोहे… कर्म पर दोहे” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे … कर्म पर दोहे”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 166 ☆

☆ “संतोष के दोहे …कर्म पर दोहे☆ श्री संतोष नेमा ☆

कर्मों पर होता सदा, कर्ता का अधिकार

कर्म कभी छिपते नहीं, करते वो झंकार

कर्मों से किस्मत बने, कर्म जीवनाधार

कभी न पीछा छोड़ते, फल के वो हकदार

जैसी करनी कर चले, भरनी वैसी होय

कर्मों की किताब कभी, बांच सके ना कोय

सबको मिलता यहीं पर, पाप पुण्य परिणाम

जो जिसने जैसे किये, बुरे भले सब काम

तय करते हैं कर्म को, स्व आचार- विचार

कर्मों से सुख-दुख मिलें, तय होते व्यबहार

पाप- पुण्य की नियति से, करें सभी हम कर्म

सदाचरण करते चलें, यही हमारा धर्म

अंत काम आता नहीं, करो कमाई लाख

साथ चले नेकी सदा, तन हो जाता राख

गया वक्त आता नहीं, समझें यह श्रीमान

करें समय पर काम हम, रखें समय का मान

कर्म करें ऐसे सदा, जिसमें हो “संतोष”

कोई कभी न दे सके, जिसकी खातिर दोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बुद्ध पूर्णिमा विशेष “बुद्धं शरणम् गच्छामि” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

“बुद्धं शरणम् गच्छामि☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

मानवता की सीख से, जगा दिया संसार।

हे गौतम ! तुमने दिया, हमको जीवन-सार।।

सामाजिक नवचेतना, का बाँटा था प्यार।

प्रेम-नेह के दीप से, दूर किया अँधियार।।

कपिलवस्तु के थे कुँवर, ख़ूब किया   पर त्याग।

ज्ञान-खोज में लग गए, गाया सत् का राग।।

संन्यासी बन तेज का, दिया दिव्य उपहार।

बुद्ध ज्ञान के पुंज थे, परम मोक्ष का सार।।

धम्मं शरणम् ले गए, सारे जग को बुद्ध।

प्रेम, शांति की सीख से, बंद कराये युद्ध।।

मार्ग दिखाया सत्य का, हुआ अहिंसा-गान।

हर दुर्गुण को दूर कर, ख़ूब रचा उत्थान।।

बौद्धधर्म के दर्श से, किया नवल यह लोक।

सतत् साधना से किया, दूर सभी का शोक।।

मानवता का ज्ञान दे, गौतम बने महान।

सचमुच में सिद्धार्थ थे, परम शक्ति का मान।।

सदियों यह जग बुद्धमय, युग-युग तक गुणगान।

हर मानव मानव बना, पाई नव पहचान।।

नमन् करूँ, वंदन करूँ, गाऊँ श्रद्धागीत।

हे गौतम ! तुम हो सदा, मानवता के मीत।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सत्य की राह… ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ कविता – सत्य की राह… ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

मैं जिंदगी की राह में बढ़ती चली गई

मैं दरकिनार मुश्किलें करती चली गई।

देखे हैं मेंने डगमगाते झूठ के कदम

सच का हाथ थामे मैं बढ़ती चली गई।

 

सफाई से बोलते हैं झूठ आज यहां लोग

जिंदगी के सच से मैं लड़ती चली गई।

देखा है मेने झूठ को करते हुए गुरूर

सच को ही साथ मैं लिए दृढ़ ही खड़ी रही।

 

माखन भी झूठ से ही लगाते हैं यहां लोग

कड़वी दवाई सच की पिलाती चली गई।

रिश्ते निभाएं दिल से कभी झूठ से नही

कर्म पथ पे सच के साथ चलती ही मैं गई।

 

झूठ से होती हैं दिलों में भी दूरियां

चली सच की राह दूरियां मिटाती चली गई।

©  डॉ निशा अग्रवाल

(ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सार्वकालीन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सार्वकालीन ??

मेरा समय

क्षुब्ध है मुझसे,

निरर्थक बिता देने से

क्रुद्ध है मुझ पर,

पर यह केवल

मेरा सत्य नहीं है,

स्वयं को कर्ता समझ कर

जब कभी इस कविता को बाँचोगे,

इसमें प्रयुक्त ‘मेरा’ को

स्वयं पर भी लागू पाओगे,

इसलिए कहता हूँ,

अपने समय का

और हर समय का

सार्वभौम यथार्थ कहती है,

कविता समकालीन होती है,

कविता सार्वकालीन रहती है!

© संजय भारद्वाज 

रात्रि 12:10 बजे,28.4.22

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 158 ☆ बाल गीत – बादल जी हैं बड़े चितेरे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 158 ☆

☆ बाल गीत – बादल जी हैं बड़े चितेरे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

बादल जी हैं बड़े चितेरे।

आसमान में चित्र उकेरे।।

 

कहीं चलाते घोड़ा गाड़ी

कभी चलाते हल और बैल।

कभी भागते ट्रैक्टर लेकर

करते नित्य अनोखे खेल।।

 

कभी – कभी तो सूर्य को घेरें

जल्दी आकर बड़े सवेरे।।

 

शेर कभी भालू बन जाते

कभी बनें चितकबरे जिराफ।

कभी उड़ें पर्वत के ऊपर

कभी निकालें मुख से भाप।।

 

सोनी , मौनी , जॉनी खुश हैं

जादूगर बादल को  टेरे।।

 

कभी मौसमी वर्षा लाते

खूब बरसते झम – झम – झम – झम।

कभी ठंड में ठंड बढ़ाते

कभी बरसते बिल्कुल कम – कम।।

 

कभी – कभी ओले बरसाते

खूब बर्फ के लगते डेरे।।

 

काम करें वह बड़ी लगन से

बुझती है धरती की प्यास।

पौधे – पेड़ प्रफुल्लित होते

हरी – भरी हो जाती घास।।

 

बिन स्वार्थ के वह तो बरसें

सच में लगते बड़े कमेरे।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #180 – बाल गीत – कष्ट हरो मजदूर के… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है  बाल गीत “कष्ट हरो मजदूर के…”)

☆  तन्मय साहित्य  #180 ☆

बाल गीत – कष्ट हरो मजदूर के… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(बाल गीत संग्रह “बचपन रसगुल्लों का दोना” से एक बालगीत)

चंदा मामा दूर के

कष्ट हरो मजदूर के

दया करो इन पर भी

रोटी दे दो इनको चूर के।।

 

तेरी चाँदनी के साथी

नींद खुले में आ जाती

सुबह विदाई में तेरे

मिलकर गाते परभाती,

ये मजूर न माँगे तुझसे

लड्डू मोतीचूर के

चंदा मामा दूर के

कष्ट हरो मजदूर के।।

 

पंद्रह दिन तुम काम करो

तो पंद्रह दिन आराम करो

मामा जी इन श्रमिकों पर भी

थोड़ा कुछ तो ध्यान धरो,

भूखे पेट  न लगते अच्छे

सपने कोहिनूर के

चंदा मामा दूर के

कष्टहरो मजदूर के।।

 

सुना आपके अड्डे हैं

जगह जगह पर गड्ढे हैं

फिर भी शुभ्र चाँदनी जैसे

नरम मुलायम गद्दे हैं,

इतनी सुविधाओं में तुम

औ’ फूटे भाग मजूर के

चंदा मामा दूर के

दुख हरो मजदूर के

दया करो इन पर भी

रोटी दे दो इनको चूर के।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 05 ☆ सूरज सगा कहाँ है… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “सूरज सगा कहाँ है।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 05 ☆ सूरज सगा कहाँ है… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

घेर हमें अँधियारे बैठे

जाने कब होगा भुन्सारा

सूरज अपना सगा कहाँ है?

 

जले अधबुझे दिए लिए

अब भी चलती पगडंडी

सड़कें लील गईं खेतों को

फसल बिकी सब मंडी

 

गाँव गली आँगन चौबारा

निठुर दलिद्दर भगा कहाँ है?

 

रिश्ते गँधियाते हैं

संबंधों में धार नहीं है

मँझधारों में नैया

हाथों में पतवार नहीं है

 

डूब चुका है पुच्छल तारा

चाँद-चाँदनी पगा कहाँ है?

 

नहीं जागती हैं चौपालें

जगता है सन्नाटा

अपनेपन से ज़्यादा महँगा

हुआ दाल व आटा

 

कैसे होगा राम गुजारा

भाग अभी तक जगा कहाँ है?

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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