हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 125☆ गीत – कर भलाई जिंदगी में ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 125 ☆

☆ गीत – कर भलाई जिंदगी में ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

कर भलाई जिंदगी में

क्या पता दिन-रात का है।।

 

जो समय के साथ चलते

लक्ष्य तो मिलता सदा है

भाग्य का पुरुषार्थ से ही

कर्मफल करना अदा है

 

ध्वंस से खुद दूर रहना

खेल अब शह – मात का है।।

 

झुक रही है डाल फल से

नम्रता यह पेड़ की है

सृष्टि भी उपकार करती

दृष्टि सीधी भेड़ की है

 

है वही संबंध अपना

पेड़ से जो पात का है।।

 

तुम सरल इतने न बनना

शत्रु यदि देता चुनौती

हर तरह प्रतिरोध करना

किंतु मत करना मनौती

 

भेद मत कर आदमी से

प्रश्न इस हालात का है।।

 

तुम परखकर पाँव रखना

मुश्किलों से डर न जाना

धैर्य का आकाश बनकर

मुस्कराना पार पाना

 

पक्ष रख विश्वास बनकर

साथ अब बरसात का है।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #124 – अष्टविनायक…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 124 – अष्टविनायक…! ☆

🕉️

मोरगावी मोरेश्वर

होई यात्रेस आरंभ

अष्ट विनायक यात्रा

कृपा प्रसाद प्रारंभ….!

🕉️

गजमुख सिद्धटेक

सोंड उजवी शोभते

हिरे जडीत स्वयंभू

मूर्ती अंतरी ठसते….!

🕉️

बल्लाळेश्वराची मूर्ती

पाली गावचे भूषण

हिरे जडीत नेत्रांनी

करी भक्तांचे रक्षण….!

🕉️

महाडचा विनायक

आहे दैवत कडक

सोंड उजवी तयाची

पाहू यात एकटक….!

🕉️

थेऊरचा चिंतामणी

लाभे सौख्य समाधान

जणू चिरेबंदी वाडा

देई आशीर्वादी वाण…!

🕉️

लेण्याद्रीचा गणपती

जणू निसर्ग कोंदण

रुप विलोभनीय ते

भक्ती भावाचे गोंदण….!

🕉️

ओझरचा विघ्नेश्वर

नदिकाठी देवालय

नवसाला पावणारा

देई भक्तांना अभय….!

🕉️

महागणपती ख्याती

त्याचा अपार लौकिक

रांजणगावात वसे

मुर्ती तेज अलौकिक….!

🕉️

अष्टविनायक असे

करी संकटांना दूर

अंतरात निनादतो

मोरयाचा एक सूर….!

🕉️

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#148 ☆ नवगीत – लगा चोंच में खून… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय नवगीत “लगा चोंच में खून…”)

☆  तन्मय साहित्य # 148 ☆

☆ नवगीत – लगा चोंच में खून… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

वृक्षों की फुनगी पर बैठे झूम रहे हैं

वे कलियों को निर्ममता से चूम रहे हैं।

 

लगा चोंच में खून

इसे अब कैसे पोंछें

सौ-सौ बल माथे पर

मिले न हल जो सोचें,

रक्त सने जो दाग

बता कुंकूम रहे हैं

वे कलियों को …..

 

बाहर से गंभीर

सशंकित हैं भीतर में

जाल बिछा दे कब कोई

है इसके डर में,

बदल बदल कर

डाल-डाल अब घूम रहे हैं

वे कलियों को …..

 

झुरमुट के उस पार

उपजते प्रश्न रोज हैं

मची जंग अर्थों पर

सँग में महाभोज है,

बौने शब्द नपुंसक हल

बस गूँज रहे हैं

वे कलियों को …..

 

बहे हवा की धाराएँ

भी अजब गजब है

है अनंत विस्तार

अलक्षित सा जो नभ है,

अर्थशास्त्र में अपने

कल को ढूँढ रहे हैं

वे कलियों को निर्ममता

से चूम रहे हैं।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 36 ☆ कविता – बहना की पाती… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  “बहना की पाती… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 36 ✒️

? कविता – बहना की पाती… — डॉ. सलमा जमाल ?

सावन बरसा है आंगन में,

आंसू लहराए नैनन में,

सोच रही हूं मैं मन में,

कौन प्रतिबिंबित उर दर्पण में।

यह कैसा परिवर्तन है,

चारों ओर शांति अकंपन है,

मैंने यह नेह पत्र भेजा है,

मन के भावों को सहेजा है।।

 

भाई का दीप्त तो हो यश मयंक,

जग में चमके बन शत् मयंक,

जीवन तेरा बीते निशंक,

मैं चाहे पाऊं कलंक।

यौवन में छलके पौरुष बल,

होगा मेरे जीवन का संबल,

मेरे भाग्य नहीं लिखा सुखभोग,

जीवन मेरा है त्याग योग।।

 

बहना ना मांगती ऐश्वर्य धन,

मुझे ना चाहिए राजभवन,

धन और सेवा में नहीं मेल,

यह सब है भाग्य का खेल।

ससुराल मेरे लिए है जेल,

मेरा जीवन कोल्हू का बैल,

यह दहेज पीड़ित की गाथा है,

जीवन में दुख और निराशा है।।

 

सब अपने में रहते हैं खोए,

पति के पाप कौन धोए,

व्देष – दम्भ – छल – घात लिए,

मद – मोह – लोभ – स्वार्थ लिए।

भोगवादी ना कहलाते महान,

लेने को बैठे हैं मेरे प्राण,

विवाह नारी का दृढ़ बंधन है,

पति धूल माथ का चंदन है।।

 

राखी के पैसे नहीं पास,

केवल है दुखी जीवन निराश,

यह कैसी कठिन परीक्षा है,

यह आंसू बहन की दीक्षा है।

गर पाती सुखों की सेज यहां,

कर देती तुम्हें भेंट जहां,

साड़ी का टुकड़ा साक्षी है,

तेरी बहना की यह राखी है।।

 

करती पाती बंद इसी क्षण।

आ रहे हैं शायद पति परमेश्वर।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सिंधी साहित्य – कविता ☆ ‘साथ-साथ’… श्री संजय भरद्वाज (भावानुवाद) – ‘साणु-साणु…’ ☆ प्रा लछमन हर्दवाणी ☆

प्रा लछमन हर्दवाणी

(ई-अभिव्यक्ति में प्रा लछमन हर्दवाणी जी का हार्दिक स्वागत है। 3 मई 1942 को जन्मे प्रा लछमन हर्दवाणी जी ने अल्पायु में विभाजन की विभीषिका और उससे जुड़ी पीड़ा को अनुभव किया है। आपका समाज में एक बहुआयामी एवं ओजस्वी व्यक्तित्व के रूप में सम्माननीय स्थान है। सिंधी साहित्य में आपका महत्वपूर्ण योगदान है। मराठी साहित्य के ज्ञाता होने के साथ ही आप एक बहुभाषी अनुवादक भी हैं। आपके मराठी, हिन्दी एवं सिंधी भाषा में अनुवादित साहित्य का अपना विशिष्ट  स्थान है। हाल ही में आपकी 100वीं पुस्तक प्रकाशित हुई है।

आज प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की हिंदी कविता “साथ-साथ का प्रा लछमन हर्दवाणी जी द्वारा सिंधी भावानुवाद।)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना 

? साथ-साथ  ??

चलो कहीं

साथ मिल बैठें,

न कोई शब्द बुनें,

न कोई शब्द गुनें,

बस खामोशी कहें,

बस खामोशी सुनें…!

© संजय भारद्वाज

सुबह 9:43 बजे, 25.08.22
प्रा लछमन हर्दवाणी जी द्वारा सिंधी भावानुवाद   
? साणु-साणु… ??
हलु त हलूं किथे

साणु मिली विहूं

न कोई शब्दु सोचूं

बस् खामोशी चऊं

खामोशी बुधूं …!

© प्रा लछमन हर्दवाणी

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘साथ-साथ’… श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Together…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem “साथ-साथ  .  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना 

? साथ-साथ  ??

चलो कहीं

साथ मिल बैठें,

न कोई शब्द बुनें,

न कोई शब्द गुनें,

बस खामोशी कहें,

बस खामोशी सुनें…!

© संजय भारद्वाज

सुबह 9:43 बजे, 25.08.22
 English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi
? Together… ??

Let’s go and sit

somewhere, together

No crafting of confabulations,

No chiming of words,

Let reticence only speak,

Listening to the eerie silence…!

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 48 – मनोज के दोहे…. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है   “मनोज के दोहे…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 48 – मनोज के दोहे …. 

कण-पराग के चुन रहे,भ्रमर कर रहे गान।

कली झूमतीं दिख रही, प्रकृति करे अभिमान।।

 

नयनों में काजल लगा, देख रही सुकुमार।

चितवन गोरा रंग ले, लगे मोहनी नार।।

 

खोली प्रेम किताब की, सभी हो गए धन्य।

नेह सरोवर डूब कर, फिर बरसें पर्जन्य।।

 

तन पर पड़ी फुहार जब, वर्षा का संकेत।

सावन की बरसात में, कजरी का समवेत।।

 

गौरैया दिखती नहीं, राह गईं हैं भूल।

घर-आँगन सूने पड़े, हर मन चुभते शूल।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जलप्रलय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

माधव साधना सम्पन्न हुई। दो दिन समूह को अवकाश रहेगा। बुधवार 31 अगस्त से विनायक साधना आरम्भ होगी।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

 ? संजय दृष्टि – जलप्रलय ??

चम्मच, कटोरी,

प्याली, कड़छी,

हरेक, आदिग्रंथों में

वर्णित जलप्रलय

की धमकी देता रहा,

उधर अथाह समंदर,

पेट में पानी लिए,

चुपचाप मुस्कराता,

मंद-मंद बहता रहा..!

 © संजय भारद्वाज

3:15 बजे दोपहर, 17.10.2018

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 103 – खोज रही है तुम्हें निगाहें… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

 

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके खोज रही है तुम्हें निगाहें।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 103 – खोज रही है तुम्हें निगाहें✍

व्याकुल मन है, आकुल बाँहें खोज रही है तुम्हें निगाहें।

 

 नव बसंत उतरा है भू पर सौरव से भर उठी दिशाएँ

तरुओं ने नव पल्लव पाए गर्भवती हो गई लताएँ

वातावरण रसीला हो तो मन में उभरे चाहें।

 

सरिता की कल कल की धारा भी मौन निमंत्रण देती है

और नशीली हवा चहक कर सम्मोहित कर देती है

मधुर मदिर आमंत्रण की ही सभी देखते राहें।

 

मेरे नयन प्रतीक्षा कुल है मनमोहन ने रास रचा है

रास निमज्जित अर्पित है जो जितना भी शेष बचा है

 

वृंदावन की सुधियों को अब पूजें और निबाहें

व्याकुल मन है खोज रही है तुम्हें निगाहें।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 105 – “ऊपर से उड़-उड़ जाती है…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “ऊपर से उड़-उड़ जाती है…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 105 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “ऊपर से उड़-उड़ जाती है”|| ☆

पहुँचा नहीं बाढ़ से

राहत को कोई अमला

छत पर खड़ी उदास

जोहती वाट रही कमला

 

गायें भूखी बँधी थान पर

जायें कहाँ जायें

भीगे, वस्त्र, बिछावन,

लत्तर गहरी विपदायें

 

आटा भीग गया डिब्बे का

“करता कुछ” कह कर

भिनसारे ही निकल

गया था बेचारा रमला

 

बच्चा चिल्लाता छप्पर से

भूख लगी मैया

मैया कहती हमको रोटी

पहुँचाओ भैया

 

है खराब मौसम ,डरता

है बाकी जीव -जगत

नहीं सहा जाता पानी

का यह भारी हमला

 

ऊपर से उड़-उड़ जाती है

बड़ी चील गाड़ी

रमला खड़ा दूर टीले पर

खुजलाता दाढ़ी

 

कभी बचाओ, कभी

भूख का, शोर सुनाई दे

लगता जैसे कक्षा में

कोई बोले इमला

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

27-08-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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