हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कौड़ी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

 ? संजय दृष्टि – कौड़ी  ??

समय समय पर

वे उछालते रहे,

सत्ता और संपदा

के चलनी सिक्के,

सृजन की कौड़ी

मुट्ठी में बांधे,

मैं डटा रहा

समय के अंत तक…!

© संजय भारद्वाज

प्रात: 9:58 बजे 31.7.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 174 ☆ भरोसा उठ गया है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – भरोसा उठ गया है।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 174 ☆  

? कविता – भरोसा उठ गया है ?

है कपास

या है बिन पानी का टुकड़ा बादल का

टंका हुआ आसमान पर

सहेजे हुए सुई ।

 

सेल्फ एडिटिंग के इस जमाने में

विश्वसनीयता की खोज

रूई के ढेर में सुई की खोज सी बेमानी है ।

 

बिन धागे सुई का कोई काम नहीं

कतली बिना रूई बेमानी है

 

नोंक बिना सुई और

बदरी बिन पानी, बेमानी है

फरेबी है दुनियां , इंतिहा है

इंसा सरा सर बेपानी है ।

 

सफेदी झकाझक

आकर्षक है

और

स्याह आसमान

गुमनामी है।

 

भरोसा उठ गया है

गीत गजल कविता से

शब्द भरोसा न दे सके जो

तो हैं निरर्थक , बेनामी है

           

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 121 ☆ गीत – श्रम की देवी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 121 ☆

☆ गीत – श्रम की देवी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

श्रम की देवी तुम्हें नमन

करता हूँ बारंबार।

जीवन में संघर्ष बहुत हैं

जाती किस्मत हार।।

 

धूप ताप में पत्थर तोड़ो।

रिश्तों को ममता से जोड़ो।

जीवन भी है एक पहेली।

रोज हथौड़ी बने सहेली।

 

बच्चा देख रहा अपलक

लुटा रहा है प्यार।

श्रम की देवी तुम्हें नमन

करता हूँ बारंबार।।

 

पथ का बनना बहुत कठिन है।

झेली वर्षा , शीत , तपन है।

कितने श्रम से बनते पथ हैं।

तब जाकर के बढ़ते हम हैं।

 

ममता लटक रही कंधों पर

ईश्वर खेवनहार।

श्रम की देवी तुम्हें नमन

करता हूँ बारंबार।।

 

श्रम का मूल न पूरा मिलता।

आदिकाल से झेले जनता।

खुशी कहाँ है अज्ञानों में।

ढूँढें नकली सामानों में।

 

बच्चा रोए अगर कभी तो

माँ ही करे दुलार।

श्रम की देवी तुम्हें नमन

करता हूँ बारंबार।।

 

श्रम का मूल्य न समझे कोई

हार – हार निर्धनता रोई

कागज में सब चले ठीक है

नेताओं की नई सीख है

 

भूख प्यास में कभी – कभी तो

जीवन जाता हार।

श्रम की देवी तुम्हें नमन

करता हूँ बारंबार।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#144 ☆ अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय अप्रतिम रचना “अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो…”)

☆  तन्मय साहित्य # 144 ☆

☆ अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो

शब्द अटपटे ये, समझो।

 

साँसों का विज्ञान अलग

टिका हुआ साँसों पर जग

प्रश्न  जिंदगी के बूझो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

पाना हैं मीठे फल तो

स्वच्छ रखें हम जल-थल को

आम-जाम आँगन में बो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

मन भारी जब हो जाए

पीड़ा सहन न हो पाए

बच्चों जैसा जी भर रो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

कितना खोटा और खरा

अपने भीतर झाँक जरा

क्यों देखे इसको-उसको

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

संसद के गलियारों में

अपने राजदुलारों में

खेल चल रहा है खो-खो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

गर अधिकार विशेष मिले

भूलें शिकवे और गिले

दूजों को उनका हक दो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

बहुत जटिल जीवन अभिनय

मन में रखें न संशय-भय

अभिनव कला-मर्म सीखो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ए जिंदगी ज़रा तुझे समझ ले… ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

सुश्री रुचिता तुषार नीमा

(युवा साहित्यकार सुश्री रुचिता तुषार नीमा जी द्वारा आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना ए जिंदगी ज़रा तुझे समझ ले…।) 

☆ कविता – ए जिंदगी ज़रा तुझे समझ ले… ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

जरा देख लूं तुझको एक पल ठहरकर

फिर ये मौका मिले न मिले,,,

बहती जा रही तू वक्त में सिमटकर

ए जिंदगी जरा तुझे समझ तो ले…..

 

कहाँ तक आ चुके हम कहां से चलकर

फिर भी मुकाम का पता न चले,,,

हर दिन नई ख्वाइशों नए अरमान संजोकर

इस दिल को सुकून कभी न मिले….

 

जो मिला है उसमें मन को तू खुशकर

अपने चाहतों को तृप्त कर ले,,,,

ये चाहतों की दौड़ है अंतिम छोर तक

इसको समझकर अब तू छोड़ दे….

 

ज़रा ठहरकर यहीं, इसी क्षण को थामकर

ज़रा खुद में थोड़ा सा फिर झांक ले,,,,

कि खत्म होने से पहले तेरा ये सफर

ए जिंदगी ज़रा तुझे समझ तो ले…..

© सुश्री रुचिता तुषार नीमा

इंदौर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 44 – प्रो. सरन घई – “मातृभूमि से दूर पर, है हिंदी से प्यार” ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में  हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री मनोज जी द्वारा 30  जुलाई 2022 को कनाडा में आयोजित एक लघु द्वि-राष्ट्रीय कवि गोष्ठी में  विश्व हिन्दी संस्थान (कनाडा) के अध्यक्ष एवं लोकप्रिय साहित्यिक ई-पत्रिका “प्रयास” के सम्पादक प्रो. सरन घई जी को प्रदत्त प्रशस्ति पत्र में उल्लेखित कविता।

श्री सरन घई जी को उनकी हिंदी के प्रति अगाध प्रेम, निष्ठा और लगन को देखते हुए श्री मनोज कुमार शुक्ल, संस्थापक,मंथन संस्था, जबलपुर (मध्य प्रदेश) भारत की ओर से यह प्रशस्ति पत्र  भेंट किया गया। लगभग 50 पुस्तकों के रचयिता प्रो.सरन घई, कनाडा के काफी लोकप्रिय हिन्दी साहित्यकार हैं।

श्री सरन घई जी के निवास स्थान पर भारत से पधारे समाचार पत्र जनसत्ता के पूर्व सम्पादक श्री शंभूनाथ शुक्ला जी के मुख्य आतिथ्य एवं मनोजकुमार शुक्ल “मनोज” जबलपुर, श्री दिनेश रघुवंशी, श्रीमती सरोजिनी जौहर, के विशिष्ट आतिथ्य एवं कनाडा के योगाचार्य, लोकप्रिय कवि श्री संदीप त्यागी जी के कुशल संचालन में कनाडा के चुनिंदा कवियों का एक मिनि द्वि-राष्ट्रीय कवि गोष्ठी का आयोजन सम्पन्न हुआ। कनाडा के मुख्य कवि श्री भगवत शरण श्रीवास्तव, श्री डॉ विनोद भल्ला, श्री पाराशर गौड़, श्री युक्ता लाल, श्री श्याम सिंह, श्रीमती साधना जोशी, श्रीमती मीना चोपड़ा, श्री भूपेंद्र विरदी, डॉक्टर संतोष वैद, श्री रविंद्र लाल, श्री गौरव, श्री उत्कर्ष तिवारी, श्री राम भल्ला, कीर्ति शुक्ला एवं सरोज शुक्ला आदि कवियों ने अपनी एक से बढ़कर एक रचनाएं प्रस्तुत की इसके पश्चात कार्यक्रम में भारत से पधारे हुए कवियों का प्रो. सरन घई जी ने अंग वस्त्र, संस्था-स्मृति चिन्ह एवं अभिनंदन पत्र देकर सम्मानित किया। सभी ने आदरणीय डॉ सरन घई जी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की।

आप प्रत्येक मंगलवार को श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी की भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं।)

✍ मनोज साहित्य # 44 – प्रो. सरन घई – “मातृभूमि से दूर पर, है हिंदी से प्यार” ☆

(प्रशस्ति पत्र – आदरणीय प्रो. सरन घई जी, विश्व हिन्दी संस्थान, कनाडा – ३० जुलाई  2022 )

“विश्व हिन्दी संस्थान”, अनुपम इसकी शान।

परचम है लहरा रहा, भारत का सम्मान।।

धन्य हुए हम आज हैं, मिला सुखद संजोग।

फिर अवसर है आ गया, कवि सम्मेलन योग।।

सात बरस के बाद का, लम्बा था वैराग्य।

पाया है सानिध्य अब , मुझे मिला सौभाग्य।।

मातृभूमि से दूर पर, है हिंदी से प्यार।

सरन घई की नाव है, खेते हैं पतवार।।

केनेडा की धरा में, अद्भुत बड़ा “प्रयास”।

हिन्दी दिल में है बसी, सुखद हुआ अहसास ।।

देश प्रेम की यह छटा, राष्ट्र भक्ति उद्गार ।

दिल में दीपक है जला, फैल रहा उजियार ।।

भारत की सरकार ने, हिन्दी का सम्मान।

राष्ट्रवाद की गूँज से, बनी जगत पहचान।।

आओ मिल वंदन करें, हिंदी का हम आज।

विश्व पटल पर छा गयी, भारत को है नाज।।

(श्री मनोज कुमार शुक्ल ” मनोज ” जी की फेसबुक वाल से साभार )

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्थापक, “मंथन” संस्था, जबलपुर म. प्र. (भारत)

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भूमिकाएँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

 ? संजय दृष्टि – भूमिकाएँ ??

नहीं देना चाहता

कोई दोष तुम्हें,

तुम न छलते तो

कोई और छलता,

एक साधन बना,

एक निमित्त हुआ,

देह की अवधि

बीत जाने पर

जब मिलेंगे विदेह,

अपने-अपने

अभिनय पर

आप इतराएँगे,

अपनी-अपनी

भूमिका के निर्वहन का

साझा उत्सव मनाएँगे..।

© संजय भारद्वाज

(प्रात: 5:50 बजे, 01 अगस्त, 2022)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 133 – कविता ☆ हर हर महादेव ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक विषय पर आधारित महादेव को समर्पित रचना “हर हर महादेव”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 133 ☆

☆ कविता  🌿 हर हर महादेव 🙏

घर घर पूजे सावन में, शिव भोले भंडारी।

आदि अनंत के देव हैं, इनकी महिमा न्यारी।

 

भांग धतूरा बिल्व पत्र, इनको लगती हैं प्यारी।

दूध दही मधु निर्मल जल से, अभिषेक हुआ भारी।

 

धूप कपूर करें आरती, बम बम कहे दूनिया सारी।

नंदीगण की करें सवारी, गौरा मैया लागे प्यारी ।

 

जटाजूट में गंग विराजे, गोद गणपति मूषकधारी।

देव देवालय पूजे जाते, पार्थिव रुप धरे त्रिपुरारी।

 

शिव शंकर अवघर दानी, त्रिभुवन के अधिकारी।

प्रलय कर्ता कहलाते शंभु, महाकाल त्रिनेत्र धारी ।

 

सावन का है रुप निराला, शंकर हैं डमरु धारी।

रिमझिम बादल बरस रहे, जन जन के हितकारी।

 

भक्त लेकर चले कांवरिया, शिव शंकर के धाम ।

मन में श्रद्धा लेकर पहुंचे, सफल हुए सब काम।

 

भोले शंकर अविनाशी, कैलाश पति के वासी।

जनम जनम से करु तपस्या, शीलू तुम्हारी दासी।

 

🌿 हर हर महादेव 🌿

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 99 – गीत – याद तुम्हारी… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – याद तुम्हारी…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 99 – गीत – याद तुम्हारी✍

आती-जाती याद तुम्हारी

जैसे कोई राजकुमारी।

 

याद ,याद को नयन तुम्हारे जिन्हें प्यार छलकता है

होठों में रहता है जो कुछ उसको भी दे तरसता है

भाव भंगिमा ऐसी लगती

जैसे कोई राजकुमारी।

 

कोमल नरम अंगुलियां जैसे रेशम ,चंदन डूबा हो

बिखरे बिखरे केश कि जैसे मनसिब का मंसूबा हो।

गंधवती है देह तुम्हारी

जैसे कोई फूल कुमारी।

 

बंद बंद आंखों से देखा लगा कि कोई अपना है

खुली खुली आँखों से देखा लगा के दिन का सपना है।

यों आती है याद तुम्हारी

जैसे कोई किरन कुँवारी।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 101 – “…वे खत आज मिले…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “…वे खत आज मिले…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 101 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “वे खत आज मिले”|| ☆

खोंसे गये कभी छप्पर में

वे खत आज मिले

जिनमें धन की विनती के

निर्मित थे कई किले

 

मेरी फीस और कपड़ो की

जिदें भरी जिनमें

जूते फटे नही अच्छे लगते

पहनूँ दिन में

 

भरे हुये थे सारे खत

मेरी फरमाइश से

याफिर अमें भरे हुये थे

शिकवे और गिले

 

मगर पिता का मेरे प्रति

कुछ आग्रह था ऐसा

बिना किसी शंका-संशय

के भिजवाते पैसा

 

जीवन भर वे खटते आये

पथ पर अडिग रहे

फर्ज निभाते आये  अपना

प्रण से नहीं हिले

 

और पढाई कर के यों  तो

कमा रहा खासा

पर कर पाया ना पूरी

मैं बापू की आसा

 

जीवन भर जिसकी

एवज में मिले उन्हें छाले

अब भी उनके सभी

अंग दिखते है छिले- छिले

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

19-07-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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