हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #129 ☆ एक बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं आपकी  “एक बुन्देली पूर्णिका। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 129 ☆

☆ एक बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा ☆

बाप मताई खों आंख दिखा रए, शरम ने आई।

करनी अपनी खूब लजा रए, शरम ने आई।

 

कभउं जो कोउ के काम ने आबे, मूंड पटक लो,

खुद खों धन्ना सेठ बता रए, शरम ने आई।

 

झूठ-फरेब कुकर्म करे, दौलत के लाने।

तीरथ जा खें पुण्य कमा रए, शरम ने आई।

 

पढ़वे लिखवे में तौ, सबसे रहे पछारूं,

अब नेता बन धौंस जमा रए, शरम ने आई।

 

भूखी अम्मा घर में, परी परी चिल्लाबे,

बाहर भंडारे करवा रए, शरम ने आई।

 

धरम-करम “संतोष”छोड़ खें, सारे भैया,

दौलत के लाने भैरा रए, शरम ने आई।

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 118 ☆ वंदना गीत – निर्धनों को मान दे दो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 118 ☆

☆ वंदना गीत – निर्धनों को मान दे दो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

भगवती माँ शारदे तुम

शिष्टता का ज्ञान दे दो

हर बुराई दूर करके

मधुर वंशी तान दे दो

 

प्रेम का दीपक जलाओ

सत्य पथ पर तुम चलाओ

ज्ञान का आलोक देकर

हर मुसीबत से बचाओ

 

मैं भलाई कर सकूँ माँ

सभ्यता , सम्मान दे दो

 

सुरभि का सामर्थ्य देना

धरणि – सा परमार्थ देना

व्योम अक्षय सार का तुम

शुभ्र नूतन पार्थ देना

 

विनय भावों को सदा ही

अब नई पहचान दे दो

 

द्वेष ,तम को तुम हटा दो

दृष्टि नूतन – सी छटा दो

सत्य के नित अर्थ देकर

सरस सावन की घटा दो

 

नम्रता सदपंथ देकर

निर्धनों को मान दे दो

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#140 ☆ तन्मय दोहे – मायावी षड्यंत्र…2 ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय “तन्मय दोहे – मायावी षड्यंत्र…2”)

☆  तन्मय साहित्य # 140 ☆

☆ तन्मय दोहे – मायावी षड्यंत्र…2 ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जब से मेरे गाँव में, पहुँचे शहरी भाव।

भाई-चारे  प्रेम के, बुझने लगे अलाव।।

 

भूखों का मेला लगा, तरह-तरह की भूख।

जर,जमीन,यश, जिस्म की, जैसा जिसका रूख।।

 

खादी तन पर डालकर, बगुले  बनते हंस।

रच प्रपंच मिल कर रहे, लोकतंत्र विध्वंस।।

 

धर्म-पंथ के नाम पर, अलग-अलग है सोच

लोकतंत्र  लँगड़ा रहा, पड़ी  पाँव में  मोच।

 

वेतन-भत्ते सदन में, सह-सम्मति से पास।

दाई-जच्चा वे स्वयं, फिर क्यों रहें उदास।।

 

जिनके ज्यादा अंक है, अपराधों में खास।

है उनके ही   हाथ में, प्रजातंत्र  की  रास।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 32 ☆ बीता बचपन… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण गीत  “बीता बचपन… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 32 ✒️

? गीत – बीता बचपन… — डॉ. सलमा जमाल ?

मन करता इक बार मैं फिर से ,

बीता बचपन जी लूं ।

चैंयां- मैंयां, छुपन- छुपाई ,

घोर-घोर रानी खेलूं ।।

 

अम्मा की मैं लाडली बेटी,

दादी की चंदा रानी ,

मामा- मामी गोदी उठाएं,

नानी कहती कहानी ,

दादा-नाना घोड़ा बनें ,

पिता की बाहों में सो लूं ।

मन करता ——————–।।

 

बस्ता दे शाला को भेजा ,

 छूटा घर और भाई ,

भाई- बहन और सखी सहेली,

के संग उमर बिताई ,

बोझ पढ़ाई और होमवर्क को,

एक बार फिर झेलूं ।

मन करता ——————।।

 

ईद, दीपावली, रक्षाबंधन ,

होली की पिचकारी,

शैतानी पर डांटते पड़ोसी,

 दुश्मन- दुनिया सारी,

बाग, खेत, सावन के झूले,

 झूल आकाश को छू लूं ।

मन करता —————-।।

 

हुई सयानी तो बाबुल ने,

मुझको किया है पराया,

चार कहार व डोली द्वार पे,

लाया किसी का जाया,

“सलमा” विदाई की बेला में,

सीने से लग रो लूं ।

मन करता —————-।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ भीतर की बारिश ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

सुश्री रुचिता तुषार नीमा

(युवा साहित्यकार सुश्री रुचिता तुषार नीमा जी द्वारा आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता भीतर की बारिश ।) 

☆ कविता – भीतर की बारिश  🌧️☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

 भीग रही है धरती सारी

झूम रहा है नील गगन

हर तरफ है छटा निराली

नाच रहा मयूर हो मगन

 

तेरे करम की बारिश में

तर बतर है सारा चमन

मुझ पर भी रहम कर मालिक

धोकर मेरे अंतर का अहम

 

मुझको भी कर तू निर्मल

बहाकर मेरे सारे अवगुण

कि तुझमें ही रम जाऊ मैं

भूलकर सारे रंज ओ गम

 

कर दे तेरे करम की बारिश

बाहर भी और भीतर भी

तर हो जाए और तर जाएं

अबकी बारिश में फिर हम।

© सुश्री रुचिता तुषार नीमा

इंदौर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – हौसला.. ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  हौसला..✍️ ??

अपने दुखों से पूछा मैंने-

क्या तुम असीम हो?

उनकी आँखों में

भय उतर आया,

विस्मित मैंने

देखा चारों ओर,

अपने पीछे, अपने

हौसले को खड़ा पाया..!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 130 – कविता ☆ आलिंगन ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “आलिंगन”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 130 ☆

☆ कविता ☆ आलिंगन 🌨️🌿

बादल भी करते हैं बातें,

बरस- बरस कर काटी रातें।

चौपालों में बैठ के जोगी,

गीत मल्हार प्रेम से गाते।।

 

देख धरा की व्याकुल तपन,

लिए नैनों में अनेक सपन।

आलिंगन करने को आतुर,

बांहें फैलाए बादल आते।।

 

पंछी अब जोड़े हैं तिनका,

माला फेरते जोगी मनका।

महल अटारी खूब बनाया,

ये जीवन हैं चार दिनों का।।

 

धरा भी अब तो डोल रही,

मानवता अब नहीं कहीं।

असत्य का बोलबाला,

सत्य कहीं दिखता नहीं।।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 41 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 41 – मनोज के दोहे

देख पसीना बह रहा, कृषक खड़ा है खेत।

जेठ पूस सावन-झरे, हर फसलों को सेत।।

 

जेठ उगलता आग है, श्रमिक रहा है ताप।

अग्नि पेट की शांत हो, करे कर्म का जाप।।

 

अग्नि-परीक्षा की घड़ी, करो विवेकी बात।

आपस में मिलकर रहें, दुश्मन को दें मात।।

 

मरघट में ज्वाला जली, दे जाती संदेश।

मानव की गति है यही, छोड़ चला वह वेश।।

 

सूरज का आतप बड़ा, दे जाता संताप।

वर्षा ऋतु ही रोकती, सबका रुदन-प्रलाप।।

 

खुश होता है वह श्रमिक, उसको मिले रसूख।

उसके घर चूल्हा जले, मिटे पेट की भूख।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 96 – गीत – आओ तो केवल तुम आओ! ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – आओ तो केवल तुम आओ!…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 96 – गीत – आओ तो केवल तुम आओ!✍

आओ तो केवल तुम आओ

मत सपनों की भीड़ लगाओ।

 

संवादी सपने जब आते

यादों की बाती उकसाते

दिया नहीं घावों पर मरहम

किंतु नमक तो मत छिड़काओ।

आओ तो केवल तुम आओ

 

सपनों की तासीर गर्म है

अश्क आंख का देह धर्म है

विषम भूमि में क्या उपजेगा

मत पानी में आग लगाओ।

आओ तो केवल तुम आओ

 

आग नाग का एक वंश है

एक दाह है एक  दंश   है

सुध  बुध    खो       दे

कोई ऐसा राग सुनाओ ।

आओ तो केवल तुम आओ।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 98 – “गीले इतिहासों का…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “गीले इतिहासों का…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 98 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “गीले इतिहासों का”|| ☆

विरवा की शाखों में

चिडिया की पाँखो में

क्या-क्या टटोल गया

बादल आषाढ़ का

इमरत सा घोल गया

 

नीम की निबौरी में

घर-घर की मोरी में

बासमती चावल की

खुली नई बोरी में

 

हाथ चार हाथ कहीं

गठरी सी खोल गया

 

सुरमे की आँखो में

खोज रही बाँको में

दाँत चमक जाते हैं

विद्युती -ठहाकों में

 

छोटी पटरानी का

धीरज फिर डोल गया

 

छप्पर से नहीं चुई

पानी की बूँद नई

खोज रही भूसे में

जैसे कोई सुई

 

सजा हुआ यौवन बस

माटी के मोल गया

 

छाती में आग कहीं

चूनर में दाग कहीं

बिखर गया सहसा ही

रितु का पराग कहीं

 

गीले इतिहासों का

जैसे भूगोल गया

बादल आषाढ का

इमरत सा घोल गया

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

१०-०६-२०२२

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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