हिंदी साहित्य – कविता ☆ सिद्धार्थ का यज्ञ  ☆ श्री आशीष गौड़ ☆

श्री आशीष गौड़

सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री आशीष गौड़ जी का साहित्यिक परिचय श्री आशीष जी के  ही शब्दों में “मुझे हिंदी साहित्य, हिंदी कविता और अंग्रेजी साहित्य पढ़ने का शौक है। मेरी पढ़ने की रुचि भारतीय और वैश्विक इतिहास, साहित्य और सिनेमा में है। मैं हिंदी कविता और हिंदी लघु कथाएँ लिखता हूँ। मैं अपने ब्लॉग से जुड़ा हुआ हूँ जहाँ मैं विभिन्न विषयों पर अपने हिंदी और अंग्रेजी निबंध और कविताएं रिकॉर्ड करता हूँ। मैंने 2019 में हिंदी कविता पर अपनी पहली और एकमात्र पुस्तक सर्द शब सुलगते  ख़्वाब प्रकाशित की है। आप मुझे प्रतिलिपि और कविशाला की वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं। मैंने हाल ही में पॉडकास्ट करना भी शुरू किया है। आप मुझे मेरे इंस्टाग्राम हैंडल पर भी फॉलो कर सकते हैं।”

आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता सिद्धार्थ का यज्ञ

☆ कविता ☆ सिद्धार्थ का यज्ञ ☆ श्री आशीष गौड़ ☆

मेरी सारी सशक्त कामनाओं में मुझे बारंबार अब भी वही खिड़की नज़र आती है ।

 

जहां से, मैं रोज़ एक ज्वलंत लकड़ी को देखा करता था।

 

धुएँ से धुलते कुहासे में, उस पेड़ के नीचे मुझे सिद्धार्थ नज़र आते थे ।

 

फिर रोज़ रोज़ उन शाखाओं को वह काटते रहे ।

अपने घर के आँगन में उन्हें जलाते रहे ॥

 

हर दिन मैंने, उस खिड़की से पेड़ को पूरा जलता देखा ।

नहीं मैंने नहीं जलाया था उसकी टहनियों को ।

 

मेरा सरोकार तो सिर्फ़ सिद्धार्थ को बदलते देखना था ।

 

मैं रोज़, खिड़की से उन्हें ढूँढता ।

मैं रोज़ उनकी चमड़ी क्षण क्षण झुलसती देखता ॥

 

वह लोग लकड़ी जलाने में लगे रहे और मैं सिद्धार्थ को देखने में।

पूरा पेड़ जल गया और खिड़की खुली की खुली रही ।

 सिद्धार्थ का यज्ञ पूरा हुआ और

बुद्ध पेड़ छोड़ के चले गये ।

 

उस खिड़की से अब सूखा पेड़ दिखता है जिसका मेरुदंड सीधा है और सामने के घर का दरवाज़ा खुला है ॥

 

©  श्री आशीष गौड़

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 206 ☆ हम अभियंता ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है हम अभियंता…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 206 ☆

☆ हम अभियंता ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

हम अभियंता!, हम अभियंता!!

मानवता के भाग्य-नियंता…

*

माटी से मूरत गढ़ते हैं,

कंकर को शंकर करते हैं.

वामन से संकल्पित पग धर,

हिमगिरि को बौना करते हैं.

नियति-नटी के शिलालेख पर

अदिख लिखा जो वह पढ़ते हैं.

असफलता का फ्रेम बनाकर,

चित्र सफलता का मढ़ते हैं.

श्रम-कोशिश दो हाथ हमारे-

फिर भविष्य की क्यों हो चिंता…

*

अनिल, अनल, भू, सलिल, गगन हम,

पंचतत्व औजार हमारे.

राष्ट्र, विश्व, मानव-उन्नति हित,

तन, मन, शक्ति, समय, धन वारे.

वर्तमान, गत-आगत नत है,

तकनीकों ने रूप निखारे.

निराकार साकार हो रहे,

अपने सपने सतत सँवारे.

साथ हमारे रहना चाहे,

भू पर उतर स्वयं भगवंता…

*

भवन, सड़क, पुल, यंत्र बनाते,

ऊसर में फसलें उपजाते.

हमीं विश्वकर्मा विधि-वंशज.

मंगल पर पद-चिन्ह बनाते.

प्रकृति-पुत्र हैं, नियति-नटी की,

आँखों से हम आँख मिलाते.

हरि सम हर हर आपद-विपदा,

गरल पचा अमृत बरसाते.

सलिल’ स्नेह नर्मदा निनादित,

ऊर्जा-पुंज अनादि-अनंता…

हम अभियंता…

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१८-४-२०१४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ सारी धूप साँझ तक… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ कविता ☆ सारी धूप साँझ तक… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

अनाज गोदाम में

रहनेवाली

चिड़िया बेखौफ होती है

आश्वस्त भी

कि कभी खत्म न होगा

अन्न भंडार

चलता रहेगा

ये सिलसिला

 

जिन्दगी के दिन में

उम्र की धूप

धूप की उम्र

सिर्फ एक बार

जलवा दिखाती है

 

धूप का सोना

इकट्ठा करता हुआ मनुष्य

कभी

सोच भी नहीं पाता

कि सारी धूप

साँझ तक है

साँझ ने आकर

रुक जाना है

सदा के लिये

 

सोच में यही

चूक हो जाती है

इसी मोड़ पर

सारी कविताएं

मूक हो जाती हैं।।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समंदर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – समंदर ? ?

लहरें आकर

क्यों बार-बार

टकराती रहीं मुझसे,

पता ही न चला…,

थपेड़ों के लिए

जगह बनाते-बनाते

मन कब समंदर हो गया,

पता ही न चला..!

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 8ः 15 बजे, 26.9.18

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्रीगणेश साधना सम्पन्न हुई। पितृ पक्ष में पटल पर छुट्टी रहेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 132 ☆ मुक्तक – ॥ वरिष्ठ नागरिक, खेलनी उसी जोश से दूसरी पारी ॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 132 ☆

☆ मुक्तक ॥ वरिष्ठ नागरिक, खेलनी उसी जोश से दूसरी पारी॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

अब   शुरू हो गई  जीवन की दूसरी  पारी है।

अब अपनी रुचियाँ पूरी  करने की   बारी  है।।

जो अभिरुचि रह गई थी  सुप्त    अब  तक।

अब खत्म हो गई  जैसे  समय की   लाचारी है।।

[2]

मिल गई हमें जैसे    कि   दूसरी जिंदगानी अब।

पत्नी की दी गई समझ मेंआ रही कुरबानीअब।।

साथ पत्नी का  अब और अधिक भाने    लगा  है।

पत्नी लगती है  और अधिक प्यारी दीवानी   अब।।

[3]

छूटी हुई रिश्तों  की  दुनियादारी निभानी है अब।

घर के बच्चों को भी  जिम्मेदारी सिखानी है अब।।

काम के बोझ से  मुस्कुरा भी न पाए खुल कर।

हँसती   हुई  एक  महफ़िल हमें जमानी है  अब।।

[4]

कुछ जीवन में  सेवा कार्य  करने हैं अब हमको।

वरिष्ठ नागरिक के  कर्तव्य   भरने हैं अब हमको।।

अपने  अनुभव को बांटना  है समाज परिवार में।

कुछ धर्म-कर्म परोपकार कार्य तरने हैं अब हमको।।

[5]

रुकना नहीं थमना नहीं  बढ़ना  है हमको आगे।

जोड़ने हैं   अब हमको दोस्ती के टूटे हुए धागे।।

रखना हैअपने स्वास्थ्य का खूब ख्याल हमको।

ऊर्जा जोश तन-मन मेंअब भी रोज़ हमारे जागे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 196 ☆ जो जैसा है सोचता वैसे करता काम… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “जो जैसा है सोचता वैसे करता काम…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 196 ☆ जो जैसा है सोचता वैसे करता काम… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चेहरा है शरीर का ऐसा अंग प्रधान

जिससे होती आई है हर जन ही पहचान।

द्वेष भाव संसार में है एक सहज स्वभाव

जाता है बड़ी मुश्किल से कर ढेरों उपाय ।

 *

स्वार्थ, द्वेष हैं शत्रु दो सबके प्रबल महान

जो उपजाते हृदय में लोभ और अभियान |

 *

होती प्रीति की भावना गुण-दोषों अनुसार

पक्षपात होता जहाँ दुखी वही परिवार

 *

जिनका मन वश में सदा औ खुद पर अधिकार

उन्हें डरा सकता नहीं कभी भी यह संसार ।

 *

इस दुनियाँ में हरेक का अलग अलग संसार

वैसा करता काम जन जैसा सोच विचार

 *

बहुतों को होता नहीं खुद का पूरा ज्ञान

 क्योंकि उनकी बुद्धि को हर लेता अभिमान।

 *

 हर एक जैसा सोचता वैसे करता काम

सहना पड़ता भी किये करमो का परिणाम ।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ ऐंठन ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ कविता ☆ ऐंठन ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

अंधेरा

लील लेता है

सारे रंग

रूप पर कालिख पोतकर

गगनभेदी

अट्टहास करता है

*

अचरज है

लोग

अंधेरे पर इल्जाम

देने की बजाय

अपनी आँखों पर

शक करने लगते हैं

*

बावजूद इसके कि

सुबह के सप्ताश्वरथ को

रोकना

नामुमकिन है

यहां किसी दुर्धर्ष योद्धा की भी

दाल नहीं गलती

*

एक रात की

बादशाहत पर

ऐंठता है

अंधेरा

सब कुछ जानता है

पर मानता नहीं।।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – अंजुरी (काव्य-संग्रह)– पुष्पा गुजराथी ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 14 ?

?अंजुरी (काव्य-संग्रह)– पुष्पा गुजराथी  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- अंजुरी 

विधा- कविता

कवयित्री – पुष्पा गुजराथी 

? ढलती दुपहरी की अंजुरी में ओस की बूँदें  श्री संजय भारद्वाज ?

माना जाता है कि कविता लिखना संतान को जन्म देने जैसा है। तथापि निजी अनुभव प्रायः कहता है कि कविता संतान की नहीं अपितु माँ की भूमिका में होती है। कवि, कविता को चलना सिखा नहीं सकता बल्कि उसे स्वयं कविता की उंगली पकड़ कर चलना होता है। एक बार उंगली थाम ली तो अंजुरी खुद-ब-खुद संवेदना की तरल अभिव्यक्ति से भर जाती है। पुष्पा गुजराथी की अनुभूति ने कविता की उंगली इतने अपनत्व से थामी है कि उनकी अंजुरी की अभिव्यक्ति नवयौवना नदी-सी श्वेत लहरियों वाला वस्त्र पहने झिलमिल-झिलमिल करती दिखती है।

पुष्पा गुजराथी की कविताओं के ये पन्ने भर नहीं बल्कि उनके मन की परतों पर लिखे भावानुभवों के संग्रहित दस्तावेज़ हैं। कवयित्री ने हर कविता लिखने से पहले संवेदना के स्तर पर उसे जिया है। यही कारण है कि उनकी कविता स्पंदित करती है। यह स्पंदन इन दस्तावेज़ों की सबसे बड़ी विशेषता और सफलता है।

ओशो दर्शन कहता है कि उद्गम से आगे की यात्रा धारा है जबकि उद्गम की ओर लौटने के लिए राधा होना पड़ता है। पुष्पा गुजराथी इन कविताओं में धारा और राधा, दोनों रूपों में एक साथ प्रवाहित होती दिखती हैं। ये कविताएँ कभी अतीत की केंचुली उतारकर जीवन का वसंतोत्सव मनाना चाहती हैं तो कभी अतीत के सुर्ख़ गुलाब की पंखुड़ियाँ सहेज कर रख लेती हैं। कभी धूप और बरखा के मिलन से उपजा  इंद्रधनुषी रंग वापस लौटा लाना चाहती हैं तो कभी यादों को यंत्रणाओं की शृंखलाओं-सा सिलसिला मानकर स्वयं को थरथराती दीपशिखा घोषित कर देती हैं। कवयित्री कभी सरसराती हवा के परों पर सवार हो जाती हैं तो कभी हौले से आकाश से नीचे उतर आती हैं, यह जानकर कि आकाश में घर तो बनता नहीं।

पुष्या गुजराथी की ‘अंजुरी’ को खुलने के लिए जीवन की ढलती दुपहरी तक प्रतीक्षा क्यों करनी पड़ी, यह मेरे लिए आश्चर्य का विषय है।  आश्चर्य से अधिक सुखद बात यह है कि ढलती दुपहरी में खुली अंजुरी में भी ओस की बूँदे ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं। यह बूँदें उतनी ही ताज़ा, चमकदार और स्निग्ध हैं जितनी भोर के समय होती हैं।

कच्चे गर्भ-सी रेशमी यह नन्हीं ‘अंजुरी’ पाठक के मन के दरवाज़े पर हौले से थाप देती है, मन की काँच-सी पगडंडियों पर अपने पदचिह्न छाप देती है। पाठक मंत्रमुग्ध होकर कविता के कानों में गुनगुनाने लगता है- ‘आगतम्, स्वागतम्, सुस्वागतम् ।’

हिंदी साहित्य में पुष्या गुजराथी की सृजनधर्मिता का स्वागत है। वे निरंतर चलती रहें –

जागो !

उठो चलो।

चलते ही रहो,

चलना ही तुम्हारी मंज़िल है,

अगर रुके तो ख़त्म !

हर एक के हिस्से में आता है,

दर्द अपना-अपना,

किसी के हिस्से चलने का !

किसी के हिस्से रुकने का !

कवयित्री को ढेरों शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #23 – ग़ज़ल – आज मिलती है कहां शर्मो -हया लोगों में… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम – ग़ज़ल – आज मिलती है कहां शर्मो -हया लोगों में

? रचना संसार # 23 – ग़ज़ल – आज मिलती है कहां शर्मो -हया लोगों में…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

मुझको मंज़ूर नहीं और से कमतर होना

मेरी फ़ितरत में ही ईमान की चादर होना

 *

काम मुश्किल ही है क़िस्मत का सिकंदर होना

सर बुलंदी को भी साथ में लश्कर होना

 *

चाह सबकी ही रही मीर सा बेहतर होना

बस में सबके तो नहीं यार सुख़नवर होना

 *

आज मिलती है कहां शर्मो -हया लोगों में

कितना दुश्वार है तहज़ीब का ज़ेवर होना

 *

मेरी हसरत है यही हो ये ज़ुबां भी शीरी

खलता है बहुत इसका भी नश्तर होना

 *

लोग उँगली ही उठाते हैं सदा नेकी पर

कितना मुश्किल है ज़माने में पयम्बर होना

 *

मौत आने का नहीं तय है समय भी मीना

क्या ज़रूरी है तेरे जिस्म का जर्जर होना

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #251 ☆ भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष  ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 251 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

घर  आँगन में बैठते, पति पत्नी के संग।

पुरखों का हैं आगमन, उनका हैं सत्संग।।

*

श्राद्ध पक्ष में हम करें, करें  पिंड का दान।

पितरों का तर्पण करें, करते वो कल्याण।।

*

गौ का  ग्रास निकालते, काग श्वान का भाग।

आस लगाए बैठते, गौ माता अरु काग।।

*

श्रद्धा प्रादुर्भाव से, श्राद्ध पक्ष में आज।

पुरखों के आशीष से, बनते बिगड़े काज।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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