हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 95 ☆ मुक्तिका…मीर मानो या न मानो… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित मुक्तिका…मीर मानो या न मानो…. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 95 ☆ 

☆ मुक्तिकामीर मानो या न मानो… ☆

जब हुए जंजीर हम

तब हुए गंभीर हम

 

फूल मन भाते कभी हैं

कभी चुभते तीर हम

 

मीर मानो या न मानो

मन बसी हैं पीर हम

 

संकटों से बचाएँगे

घेरकर प्राचीर हम

 

भय करो किंचित न हमसे

नहीं आलमगीर हम

 

जब करे मन तब परख लो

संकटों में धीर हम

 

पर्वतों के शिखर हैं हम

हैं नदी के तीर हम

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२४-५-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (31 – 35) ॥ ☆

सर्ग-19

 

जब ऊबकर पास बैठे किसी के वह अन्यत्र जाने का करता बहाना।

‘‘अभी आया मैं कार्यवश जा रहा हूँ’-तो रमणी पकड़ रुद्ध करती थी जाना।।31।।

 

सघन रति थकित कामनियां वक्ष अपने बना कंठ-सूत्री मिलन का बहाना।

रगड़ उसकी छाती पै हर अगरू चंदन स्व अनुराग से चाहती लेट जाना।।32।।

 

मिलन कामना से चले उसके संचार की सूचना चेरियों से सब पाकर।

आ सामने अंधेरे में उसे रोक, ताने दे घर खुद ले जाती छुपाकर।।33।।

 

पा चंद्र किरणों सी रमणियों का स्पर्शसुख वह कुमद सम रात भर जागता था।

औ’ दिन में सो कुमुदिनी सा सही में वह दूसरा कुमुदाकर हो गया था।।34।।

 

थे दतक्षत से अधर दर्द देते औ’ नखक्षतों सै दुखी जंघिकायें।

पर वेणु-वीणा सजा गायिकायें, रिझाने सुरतहित थी करती अदायें।।35।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 84 ☆ गजल – ’’आदमी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “आदमी…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 84 ☆ गजल – आदमी…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

आदमी से बड़ा दुश्मन आदमी का कौन है ?

गम बढ़ा सकता जो लेकिन गम घटा सकता नहीं।।

हड़प सकता हक जो औरों का भी अपने वास्ते

काट सकता सर कई, पर खुद कटा सकता नहीं।।

बे वजह, बिन बात समझे, बिना जाने वास्ता

जान ले सकता किसी की, जान दे सकता नहीं।।

कर जो सकता वारदातें, हर जगह, हर किस्म की

पर किसी को, मॉगने पर प्यार दे सकता नहीं।।

चाह कर भी मन के जिसकी थाह पाना है कठिन

हँस तो सकता है, मगर खुल कर हँसा सकता नहीं।।

रहके भी बस्ती में अपना घर बनाता है अलग

साथ रहता सबके फिर भी साथ पा सकता नहीं।।

नियत गंदी, नजर पैनी, चलन में जिनके दगा

बातें ऐसी घाव जिनका सहज जा सकता नहीं।।

सारी दुनियाँ में यही तो कबड्डी का खेल है

पसर जो पाया जहां पर, फिर सिमट सकता नहीं।।

कैसे हो विश्वास ऐसे नासमझ इन्सान पर

जो पटाने में है सबको खुद पै पट सकता नहीं।।           

लगाना चाहता हूँ पर कहीं भी मन नहीं लगता

जगाना चाहता उत्साह पर मन में नहीं जगता।।

न जाने क्या हुआ है छोड़ जब से तुम गई हमको

उदासी का कुहासा है सघन, मन से नही हटता

वही घर है, वही परिवार, दुनियाँ भी वही जो थी

मगर मन चाहने पर भी किसी रस में नही पगता।।

तुम्हें खोकर के सब सुख चैन घर के उठ गये सबके

घुली है मन में पीड़ा किसी का भी मन नहीं लगता।।

तुम्हारे साथ सुख-संतोष-सबल जो मिले सबको

उन्हीं की याद में उलझा किसी का मन नहीं लगता।।

अजब सी खीझ होती है मुझे तो जगमगाहट से

अचानक आई आहट का वनज अच्छा नहीं लगता।।

हमेशा भीड़-भड़भड़ से अकेलापन सुहाता है

तुम्हारी याद में चिंतन-मनन में मन नहीं लगता।।

सदा बेटा-बहू का प्यार-आदर मिल रहा फिर भी

तुम्हारी कमी का अहसास हरदम, हरजगह खलता।।

न जाने जिंदगी के आगे के दिन किस तरह के हों

नया दिन अच्छा हो फिर भी गये दिन सा नहीं लगता।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कोहरे के आँचल से # पूस की सुबह… ☆ सौ. सुजाता काळे ☆

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगणी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी द्वारा रचित एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “पूस की सुबह…। )

☆ कोहरे के आँचल से # पूस की सुबह ☆ सौ. सुजाता काळे ☆

सूरज ठिठुर गया है, छिप गया है,

चाँद की रजाई ओढ कर।

हवा भी चल रही है पुरवाई से,

हिमनग गोद में लिए।

 

अभी अभी फिर से उतर आई है किरणें,

आँगन में पूस के प्रकोप के बाद भी।

थोडी सी तपिश मिल रही है,

ठिठुरती हुई धरती को।

 

रेशमी किरणों का जाल ओढकर,

अब लुप्त हो रही हैं ओस की बूंदे,

कोहरे के बादल का आँचल है पहने,

पूस की सुबह आज मेरे आँगन

उतर आई है।

© सुजाता काळे

पंचगणी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (26 – 30) ॥ ☆

सर्ग-19

 

प्रिया चरणों में जब आलक्तक लगाता, वसन प्रियतमा का अगर उधड़ जाता।

जघन देखने में ही वह डूब जाता चरण में सही ढंग न रंग लगा पाता।।26।।

 

चुम्बन न दे अपना मुँह मोड़ लेती, हटाते अधोवस्त्र कर रोक लेती।

असहयोग भी अग्निवर्ण को मगर नित बढ़ावा ही देता था, बस नेति नेति।।27।।

 

जब नारियां दर्पणों से निरखती सुरत चिन्ह, वह पीछे छुप बैठ जाता।

दिखा अपना प्रतिबिम्ब दर्पण में उनकी, स्वतः ‘ही’-‘ही’ करके प्रिया को लजाता।।28।।

 

निशान्ते शयन छोड़ते अग्निवर्ण से रमणियाँ थी चुम्बन की करती प्रतीक्षा।

कि जिसमें गले के सुकोमल भुजाओं, चरणतल पै चरणों की होती अपेक्षा।।29।।

 

उसे शक्र से भव्य निज राजसी वेष भी कभी दर्पण में भाया न ऐसे।

वदन पै बने दन्तक्षत औ’ नखक्षत को भूषण सदृश देख होता था जैसे।।30।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #134 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 134 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

मन से मन तो मिल रहा, ओ प्यारे मनमीत।

मन ही मन में गूंजता, तेरा अपना गीत।।

 

मिलते ही मन मिल गए, ओ प्यारे मनमीत।

सांस सांस में बज उठा, प्रेम प्यार का गीत।।

 

पारिजात के वृक्ष का, होता ही उपयोग।

योगी सदा बता रहे, इसका योग प्रयोग।।

 

बारिश होती झूमकर, झरने लगे प्रपात।

मिलते ही आनंद में, खुश होती बरसात।।

 

गरमी कैसी बढ़ रही, उगल रही अंगार।

धरती व्याकुल हो रही, कर दो अब उद्धार।।

 

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #123 ☆मनाली यात्रा … संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  मनाली यात्रा में रचित  “संतोष के दोहे …  । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 124 ☆

☆ मनाली यात्रा … संतोष  के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

पेड़ उचककर कह रहा, मुझसे कौन महान

गिरि के सीने में खड़ा, जाने सकल जहान।।

 

मुझसे ही मौसम चले, देता सर्द बयार

मैं तूफां को रोकता, मुझसे करिए प्यार।।

 

चीड़ समुन्नत नीलगिरि, शीशम  साल चिनार

पर्वत की शोभा यही, मौसम के हकदार।।

 

वृक्ष बिना सूना लगे, गिरि का विस्तृत भाल

जीवन औषधि दे यही, करता मालामाल।।

 

शैल ऊँचाई दे रहा, पर एकाकी ठाँव

पेड़ों की यह संपदा, देती शीतल छाँव।।

 

कार्बन अवशोषित करें, हमें हवा दें शुद्ध

वाहक वर्षा के यही, समझें सभी प्रबुद्ध।।

 

जीवों को देते शरण, करें खूब उपकार

पेड़ लगाकर नित नए, करें प्रकृति से प्यार।।

 

खूब मिले “संतोष” धन, चलो प्रकृति की ओर

पेड़ लगाकर ही मिले, हमें सुहानी भोर।।

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (21 – 25) ॥ ☆

सर्ग-19

 

बिता रात्रि अन्यत्र थक, प्रात आकर सुरति चिन्ह धारें सता खण्डिता को।

क्षमा मांग फिर शिथिल व्यापार करके व्यथित करता अतृप्ति दे खुद दुखी हो।।21।।

 

जब कभी वह स्वप्न में नाम लेता किसी और का, तो दुखी नायिकायें।

बदल करवटें रो तिरस्कार करती थी, उसको पलंग पै जता निज व्यथायें।।22।।

 

पा दूतियों से इशारा स्वगृह तज रची पुष्पा-शैय्या के कुंजों में जाता।

भयभीत, पत्नी कुपित होगी, फिर भी सदा दायिों संग भी मिलता-मिलाता।।23।।

 

सुन नाम प्यारी का तुमसे हमारा भी हो भाग्य ऐसा-ये होती है इच्छा।

यों नाम सुन उस विलासी से कोई उपालम्भ दे रमणी लेती परीक्षा।।24।।

 

झरे केश कुसुमों व विच्छिन्न हारों, टूटी करघनी पाके गुँझटे शयन में।

आलक्तक लगी चादरों से था दिखता वे रतिबंध भोगे जो थे उसने उनमें।।25।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 161 ☆ कविता – हथियार बना गर्व… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता – हथियार बना गर्व… ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 161 ☆

? कविता – हथियार बना गर्व… ?

हर तरफ

गर्व बिखरा पड़ा है

लाल नीला पीला हरा गर्व

लाउड गर्व ,

ताजा गर्व ,  

पुरखों वाला पुराना गर्व

बेदाग गर्व

धब्बेदार गर्व

असरदार गर्व

फरमे बरदार गर्व

किताबों में बंद ,

उजागर गर्व

इमारतों में कैद

झाड़ फानूसो पर लटका गर्व

फांसी के तख्ते पर झूलता गर्व,

वो याद करता

वो भूलता गर्व

हथियार बना गर्व

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 112 ☆ कविता – महान ग्रंथों की पहेलियाँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 112 ☆

☆ कविता – महान ग्रंथों की पहेलियाँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

1.
रामायण के कौन रचियता, बच्चो बोलो नाम।
अद्भुत रचना की है उनने, दशरथनंदन राम।।

2.
कृष्ण, अर्जुन संवाद हुआ है, वह ग्रंथ है कौन।
शिक्षा, ज्ञान, कर्म बतलाती, बिल्कुल रहकर मौन।।

3.
तुलसीदास ने ग्रंथ लिखा है, उसका नाम बताओ।
राम की जिसमें कथा निराली, सच की विजय सुनाओ।।

4.
वेद हैं कितने प्यारे बच्चो, संख्या तो बतलाओ।
सदा सत्य का ज्ञान कराएँ, अलग-अलग बतलाओ।।

5.
सबसे पहला वेद कौन है, जल्दी बोलो नाम।
जीवन का सदमार्ग बताए, आए जनहित काम।।

6.
वेदों के कुल मंत्र हैं कितने, जिसमें अदभुत ज्ञान।
अथक अर्थ हैं उसमें बच्चो, सुख पाते हैं कान।।

7.
वेदों में श्लोक हैं कितने, संख्या जल्दी बतलाओ।
वेदव्यास ने किया संपादन, कुछ तो ज्ञान कराओ।।

8.
महाभारत है ग्रंथ पुराना, उसके लेखक कौन।
शिक्षा, नीति , ज्ञान सिखाए, अब हैं बिल्कुल मौन।।

9.
सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथ लिखा है, उनका बोलो नाम।
वेदों का सब सार बताए, किए देश हित काम।।

10.
धर्मशास्त्र इतिहास लिख गए, भारत रत्न मिला है।
नाम बताओ उनका बच्चो, देश का किया भला है।।

11.
कितने हैं पुराण लिखे गए, संख्या जल्दी बतलाओ।
देवों की सब कथा कहानी, कुछ तो आज हमें सुनाओ।।

 

उत्तर – 1.महर्षि बाल्मीकि जी, 2.श्रीमद्भागवत गीता,3. रामचरित मानस, 4.चार वेद( ऋग्वेद, अर्थववेद, यजुर्वेद, सामवेद), 5. ऋग्वेद, 6. तेईस हजार चार सौ उनासी, 7. चार लाख, 8.महर्षि वेदव्यास जी, 9.महर्षि दयानंद , 10.डॉ पी. वी. काणे जी , 11. अट्ठारह

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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