हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (16-20)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (16 – 20) ॥ ☆

सर्ग-19

तज एक को मिलने हित दूसरी से अजब उसका प्रिय खेल सा बन गया था।

इसी से ही अक्सर अधूरे मिलन का रमणियों का भी उससे मन बन गया था।।16।।

 

कभी छोड़ जाते उसे कामनियाँ अपने कामेल कत से पकड़ के डराती।

कभी कुटिल भ्रूभंग से दृष्टि से या कभी करधनी से उसे बाँध लाती।।17।।

 

सुरत रात्रियां विदित दूती से जिनको छिपे बैठे अग्निवर्ण ने उनके पीछे।

सुनी उनकी शंका भरी वेदनायें- ‘‘न आये तो क्या होगा सखि! बिना पिय के।।18।।

 

जब पत्नियों साथ होता न तब होती वे नृर्तकियाँ जिनकी छवि वह बनाता।

पसीने से गीली अंगुलियों से प्रायः फिसलती कुची, उसमें ही समय जाता।।19।।

               

प्रिय प्रेम पाने से गर्वित सपत्नी से कर द्वेष, पर भावना को छुपाकर।

तज मान उसको बुलाती बहाने से, कराती थी मन का महोत्सव मनाकर।।20।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#134 ☆ किसे पता था….… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना “किसे पता था….…”)

☆  तन्मय साहित्य # 134 ☆

☆ किसे पता था….… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कब सोचा था

ऐसा भी कुछ हो जाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से

अनायास यूँ  सब कुछ खो जाएगा।

 

कितने जतन, सुरक्षा के पहरे थे

करते वे चौकस हो कर रखवाली

प्रतिपल को मुस्तैद

स्वाँस संकेतों पर बंदूक दोनाली,

 

किसे पता,

कब बिन आहट के

गुपचुप मोती छिन जाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से…………..।

 

खूब सजे सँवरे घर में हम खुद पर

ही थे आत्ममुग्ध, खुद पर लट्टू थे

भ्रम में सारी उम्र गुजारी,समझ न पाए

केवल भाड़े के टट्टू थे,

 

किसे पता,

बिन पाती बिन संदेश

पँखेरू उड़ जाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से…………………।

 

कितना था विश्वास प्रबल कि,

इस मेले में नहीं छले हम जायेंगे

मृगतृष्णाओं को पछाड़ कर,

लौट सुरक्षित,साँझ ढले वापस आएंगे,

 

किसे पता,

त्रिशंकु सा जीवन भी

ऐसे सम्मुख आएगा

बँधी हुई मुट्ठी से…………।

 

लौट-लौट आता वापस मन

कितना है अतृप्त बुझ पाती प्यास नहीं

पदचिन्हों के अवलोकन को

किन्तु राह में अब है कहीं उजास नहीं,

 

किसे पता,

तन्मय मन को, आखिर में 

ऐसे भटकाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से अनायास यूँ

सब कुछ खो जाएगा।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 28 ☆ ग़ज़ल – प्रीत के हिंडोले में… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण हिंदी ग़ज़ल “प्रीत के हिंडोले में…”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 27 ✒️

?  ग़ज़ल – प्रीत के हिंडोले में… — डॉ. सलमा जमाल ?

प्रीत के हिंडोले में ,

झूलती जवानी है ।

फूल हैं क़दमों तले ,

निगाहें आसमानी हैं ।।

 

मुझे रोक ना सकेगी दुनियां,

रूढ़ियों की जंज़ीरों से ।

मैं बहती हुई नदिया हूं ,

भावना तूफ़ानी है ।।

 

झर – झर , झरते – झरने ,

कल-कल करतीं नदियां ।

कर्मरत रहना ही ,

सफ़ल ज़िन्दगानी है ।।

 

चांदी की हों रातें ,

सोने भरे हों दिन ।

ऐसा स्वर्ग धरती पर ,

हमने लाने की ठानी है ।।

 

सपनों के पंख पसारे ,

क्षितिज के पार हम चलें । ‌

रात भीगी – भीगी है ,

भोर धानी – धानी है ।।

 

मेरा प्यार एक इबादत है ,

मेरे प्यार में शहादत भी है ।

हर हाल में ‘ सलमा ‘ को ,

वफ़ा ही निभानी है ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (11-15)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (6 – 10) ॥ ☆

सर्ग-19

कमलिनी का पा गंध जैसे कि गजराज उन्तत्त हो आप आ जाता सर में।

वैसे हि मधुगंध पा अग्निवर्ण भी रमणियों के संग आ घुसा मझधर में।।11।।

 

वहां अकेले में, नशे में खो सुध-सुध पिया उससे जूठी सुरा सुन्दिरियों ने।

बकुल वृक्ष सा उसने भी अनेक मुख की सुरा पी बिकल हो विवश इन्द्रियों से।।12।।

 

सदा मोह में मोद देती थी उसको कभी या तो वीणा कभी कामिनी या।

मधुर भाषिणी सुखद है दोनों निश्चित, हृदय में समाती जो संगीत स्वर गा।।13।।

 

जब अग्निवर्ण खुद बजाता था तबला, तो हिलता वलय था औ’ थी कण्ठमाला।

हर लेता था मन, वो यों नर्तकियों को कि शरमा के रह जाती थी रम्यबाला।।14।।

 

करते हुये नृत्य श्रम से पसीने से पुँछ गये तिलक वाली नृत्यांगना को।

मुँह की हवा दे, पसीना सुखा चूम लज्जित किया उसने तो वासना को।।15।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 35 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 35 – मनोज के दोहे

(ग्रीष्म, चिरैया, गौरैया, लू, तपन)

ग्रीष्म-तप रहा मार्च से, कमर कसे है जून।

जब आएँगे नव तपा, तपन बढ़ेगी दून।।

दूँगा सबको भून।।

 

पतझर में तरु झर गए, ग्रीष्म मचाए शोर ।

उड़ीं चिरैया देखकर, कल को यहाँ न भोर।।

 

गौरैया दिखती नहीं, ममता देखे राह।

दाना रोज बिखेरती, रही अधूरी चाह।।

 

भरी दुपहरी में लगे, लू की गरम थपेड़।

कर्मवीर अब कृषक भी, लगते सभी अधेड़।।

 

सूरज की अब तपन का, दिखा रौद्र अवतार।

सूख रहे सरवर कुआँ, सबको चढ़ा बुखार।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (6 – 10) ॥ ☆

सर्ग-19

राजा था रसरंग में लीन ऐसा प्रजा दर्शनों को तरसने लगी थी।

रहा नृप का अंतः पुरों में ही डेरा, खुशी तरूणियों की बरसने लगी थी।।6।।

 

कभी मंत्रियों की विनय पर प्रजा पर अनुग्रह किया तो चरण भर दिखाये।

जो लटकाये गये खिड़की से सिर्फ दो क्षण, कोई कभी मुख छवि नहीं देख पाये।।7।।

 

नखकांति कोमल, जो रवि की किरण से खिले कमल की सी थी ऐसे चरण को।

विनत नमन करके ही सब राजदरबारी जाते थे नित अपनी सेवा-शरण हो।।8।।

 

यौवन से कामिनि के उन्नत उरोजों के संघात से क्षुबध जल-चल-कमल युक्त।

जल से ढकी सीढ़ियों के भवन मे रसिक उसने की काम क्रीड़ा हो उन्मुक्त।।9।।

 

वहां रमणियों के जलाभिषेक से धुले प्राकृत नयन, अधरों ने उसके मन को।

मोहित किया अधिक क्योंकि नहीं था कोई आवरण ढंके सुन्दर वदन को।।10।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 90 – गीत – ओ, मेरे हमराज… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – ओ, मेरे हमराज।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 90 –  गीत – ओ, मेरे हमराज…✍

जरा जोर से बोल दिया तो

हो बैठे नाराज

ओ, मेरे हमराज।

 

माना मन की बहुत पास हो, लेकिन योजन दूरी है

दुविधाओं के व्यस्त मार्ग पर, चलना भी मजबूरी है कोलाहल के बीच खड़े हम चारों ओर समाज।

ओ मेरे हमराज..

 

यादों के आंगन में बिखरी, छवियों की रांगोली है

शायद तुमने केश सुखाकर, गंध हवा में घोली है

चुप्पी की चादर के नीचे, सोई हैआवाज।

ओ मेरे हमराज ओ मेरे…

 

कितना तुम्हें मनाऊं मानिनि पैसे क्या मैं समझाऊं

जिसने मुझको गीत बनाया, उसको मैं कैसे गाऊं

सब कुछ तो कह डाला तुमसे,

कैसा लाज लिहाज।

जरा जोर से बोल दिया तो हो बैठे नाराज।

ओ मेरे हमराज।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 92 – “इंतजार करते-करते हैं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “इंतजार करते-करते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 92 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “इंतजार करते-करते हैं”|| ☆

इस घर के इतिहास कथन में, निम्न बिन्दु उभरे

भूखे रहे पिता कुछ दिन, तब जा कर कहीं मरे

 

पता चला है बडे

पुत्र के मरने में दारू-

की थी उच्च भूमिका

ऐसा कहती मेहरारू

 

कोई औरत थी जो चुपके उस से मिलती थी

आती थी वह पहिन-पहिन कर बेला के गजरे

 

वह जो है अड़तीस बरस की इस घर की बेटी

मिला नहीं उसको सुयोग्य वर जब कि वही जेठी

 

सूख गई है माँ अनगिन

उपवास – बिरत रखते

इंतजार करते-करते हैं

कई बरस गुजरे

 

एक और भाई जो क़द में

कुछ लगता छोटा

मगर वही है इन सब में

बेशक थोडा खोटा

 

वही शहर में अपनी तिकड़म को जारी रखने

काम किया करता है सारे पीले-लाल-हरे

 

बड़ी बहू विधवा होकर भी

बनी-ठनी रहती

चलती है जब झूम-झूम के

हिलती है धरती

 

कहती मेरा करम फूटना था आकर इस घर

कोट-कंगूरे, मेहराबें तक

यहाँ सभी अखरे

 

नौकरानियाँ जिद्दी जिसको जो करना करतीं

इन्हें देख कर उम्मीदें तक

आहें हैं भरतीं

 

सासू के घटिया मिट्टी के

जीर्ण -शीर्ण  भान्डों

को खंगाल देती हैं सन्ध्या

दिखा- दिखा नखरे

 

जो मुनीम था यहाँ गृहस्थी के हिसाब खातिर

वही एक है कर्मचारियों में सबसे शातिर

 

घर का कोई बन्दा उससे जो हिसाब मांगे

काले नाग सरीखा वह

उन  सब पर है  विफरे

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

10-05-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 139 ☆ हरियाली ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता “हरियाली”।)  

☆ कविता # 139 ☆ हरियाली ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

तुम्हारा हरियाली से 

इस तरह नाराज होकर 

सूख जाने का कोई 

न कोई मतलब होगा 

तुम्हारा इस तरह से 

नाराज होकर सूख जाना 

फिर सूख कर खड़े रहना 

हरियाली को आहत करता है

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 83 ☆ # जुहू चौपाटी पर एक शाम # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# जुहू चौपाटी पर एक शाम #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 83 ☆

☆ # जुहू चौपाटी पर एक शाम # ☆ 

(मुंबई दर्शन में जुहू चौपाटी परजो देखा उसको शब्दों में पिरोया है…)

जुहू की एक शाम

आप सबके नाम

शाम धीरे धीरे ढल रही थी

किनारे किनारे लाइटें

धीमें धीमें जल रही थी

ठंडी ठंडी हवा बह रही थी

आलिंगन बध्द युगलों को

कुछ कह रही थी

आ रहे थे रेले के रेले

लग रहे थे मेले के मेले

सज रही थी चौपाटी

सजे हुए थे ठेले

समंदर में ऊंची ऊंची

उठ रही थी लहरें

सिहर उठे थे लोग

जो थे किनारे पर ठहरे

शुभ्र शुभ्र लहरें

पांवों को चूम रही थी

छोटे, बड़े, तरूनाई

मस्ती में झूम रहीं थी

रेत के छोटे छोटे कण

पांव की उंगलियों में सज रहे थे

बिछिया बनकर

 धीमे धीमे चुभ रहे थे

रात धीरे धीरे आगे सरक रही थी

पागल पवन मदहोश हो

बहक रही थी

चांद तारे अंबर में

चमक रहे थे

भीगे भीगे वस्त्रों में

यौवन आग से दहक रहे थे

 

हम भी अपनी पत्नी के साथ

लेकर हाथ में हाथ

हमको भी लहरों के बीच

होना पड़ा खड़ा

पत्नी को खुश करने

लहरों से भीगना पड़ा

हम किनारे पर आकर बैठ गए

किराए की चटाई पर लेट गए

लहरों ने हमको

छेड़ना नहीं छोड़ा

यहां पर भी

भिंगोना नहीं छोड़ा

हम पुरानी यादों में खो गये

जवानी के दिन हमको

याद आ गये

विमान की गड़गड़ाहट ने

हमारी शांति लूटी

हमारी तंद्रा टूटी

हमने पाव भाजी खाई

आसमान के चांद को दी बधाई

धीरे धीरे ढल रही थी

मदहोश रात

बादलों में छुपी हुई थी

तारों की बारात

लहरें अभी भी

आ रही थी, जा रही थी

अपने प्रियतम समुद्र में

समा रहीं थी

और

हम दोनों

हाथों में हाथ लिए

निश:ब्द बिना कुछ कहे

आंखों में आंखें डालें

जज़्बातों को

संभाले संभाले

चल रहे थे

अपने अपने

ठिकाने की तरफ

धीरे धीरे ——!

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares