॥ श्री रघुवंशम् ॥
॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’॥
☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (16 – 20) ॥ ☆
सर्ग-19
तज एक को मिलने हित दूसरी से अजब उसका प्रिय खेल सा बन गया था।
इसी से ही अक्सर अधूरे मिलन का रमणियों का भी उससे मन बन गया था।।16।।
कभी छोड़ जाते उसे कामनियाँ अपने कामेल कत से पकड़ के डराती।
कभी कुटिल भ्रूभंग से दृष्टि से या कभी करधनी से उसे बाँध लाती।।17।।
सुरत रात्रियां विदित दूती से जिनको छिपे बैठे अग्निवर्ण ने उनके पीछे।
सुनी उनकी शंका भरी वेदनायें- ‘‘न आये तो क्या होगा सखि! बिना पिय के।।18।।
जब पत्नियों साथ होता न तब होती वे नृर्तकियाँ जिनकी छवि वह बनाता।
पसीने से गीली अंगुलियों से प्रायः फिसलती कुची, उसमें ही समय जाता।।19।।
प्रिय प्रेम पाने से गर्वित सपत्नी से कर द्वेष, पर भावना को छुपाकर।
तज मान उसको बुलाती बहाने से, कराती थी मन का महोत्सव मनाकर।।20।।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈