हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 83 ☆ गजल – ’’जुड़ गया है आंसुओं का…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “जुड़ गया है आंसुओं का …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 83 ☆ गजल – जुड़ गया है आंसुओं का…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

बीत गये जो दिन उन्हें वापस कोई पाता नहीं

पर पुरानी यादों को दिल से भुला पाता नहीं।

बहती जाती है समय के साथ बेवस जिंदगी

समय की भँवरों से बचकर कोई निकल पाता नहीं।

तरंगे दिखती हैं मन की उलझनें दिखती नहीं

तट तो दिखते हैं नदी के तल नजर आता नहीं।

आती रहती हैं हमेशा मौसमी तब्दीलियॉ

पर सहज मन की व्यथा का रंग बदल पाता नहीं।

छुपा लेती वेदना को अधर की मुस्कान हर

दर्द लेकिन मन का गहरा कोई समझ पाता नहीं।

उतर आती यादें चुप जब देख के तन्हाइयाँ

वेदना की भावना से कोई बच पाता नहीं।

जगा जाती आके यादें सोई हुई बेचैनियाँ

किसी की मजबूरियों को कोई समझ पाता नहीं।

जुड़ गया है आंसुओं का यादों से रिश्ता सघन

चाह के भी जिसको कोई अब बदल पाता नहीं।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (41-45)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (41 – 45) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -18

सिंहासन पर बैठे राजा के लधु आलक्तक-युक्त चरण।

जो पाद-पीठ पर जम न सकें, राजाओं ने उनको किया नमन।।41।।

 

ज्यों इन्द्रनील मणि छोटा भी कहलाता गुण से महानील।

त्यों ही महाराज सुदर्शन नाम था सार्थक देख शील।।42।।

 

चामर से नित जिसके गालों पै खेलती थी काली अलकें।

उस बाल नृपति की आज्ञा हित जल-निधि तक उत्सुक थी पलकें।।43।।

 

स्वर्णाभूषण-भूषित ललाट पै तिलक सजाये राजा ने।

हँसते हँसते की तिलक हीन अरि की सब सुन्दर वनितायें।।44।।

 

था कुसुम शिरीष सदृश कोमल, थक देता था भूषण उतार।

फिर भी सक्षमता से अपनी धारे था, धरती राज्य भार।।45।।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #133 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 133 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

चलन हो चुका है लिखने का तो अब

अदब कम, हुनर कम, तमाशा बहुत है

 

इरादा  है मिलन का तुमसे लेकिन

समझो तो तुम ये इशारा बहुत है

 

लगाई है उम्मीद हमने जो अब तुमसे                

लगता है इसमे अब हताशा बहुत है।

 

हम पर किया है अपनो ने ही भरोसा

लगाई है उनने हमसे आशा बहुत है ।

 

न जाने क्यों लूटती  बेटी की अस्मत

जहां मे दिखावे का तमाशा बहुत है ।

 

करें हम अब किस पर इतना भरोसा

करीब से रिश्तों को तराशा बहुत है ।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #123 ☆मनाली यात्रा … संतोष  के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  आपकी मनाली यात्रा पर “संतोष के दोहे …  । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 123 ☆

☆ मनाली यात्रा … संतोष  के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

कहता हिमगिरि आपसे, मुझसे ऊँचा कौन

सुन सवाल सब हो गए, शीश झुकाकर मौन

 

उन्नत है मेरा शिखर, धवल हमारा रंग

मन मोहक हैं वादियाँ, अजब निराले ढंग

 

साहस, दृढ़ता जो रखे, हो मजबूत शरीर

आता वही करीब तब, भजकर श्री रघुवीर

 

टेढ़े- मेढे रास्ते, जो होते हैं तंग

सिखलाते हैं जो हमें, जीवन के सब ढंग

 

हिम आच्छादित शैल से, बहती निर्मल धार

नदियों की कल-कल कहे, मेरी सुनो पुकार

 

धवल चाँदनी बर्फ की, जिसका ओर न छोर

मचल-मचल तारुण्य ज्यों, बढ़े  प्रेम की ओर

 

ऊपर से काँपे बदन, अंदर प्रीत-हिलोर

कैसे कोई कर सका, यहाँ  तपस्या घोर

 

घाटी दर घाटी चढ़ो, चलो शिखर की राह

जीवन पथ पर बढ़ चलो, रख मंज़िल की चाह

 

अटल इरादे हिम-शिखर, सिखलाते हैं रोज

पानी है गर सफलता, दिल में रखिये ओज

 

लतिकाओं तरु कुंज में, झरनों का संगीत

मानो प्रियतम कह रहा, आ जाओ मनमीत

 

सिर पर हिमगिरि सोहता, बनकर मुकुट विशाल

भारत माँ गर्वित हुई, दमक उठा है भाल

 

हवा सनक कर कह रही, मुझसे बचिए आप

शाल ओढ़ स्वेटर पहन, दें शरीर को ताप

 

मनमोहक-सा लग रहा, बर्फीला आघात

तपते दिल की भूमि पर, सुख का ज्यों हिमपात

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (36 – 40) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -18

अवसान देख कर राजा का सचिवों को ‘पुत्र’ को राज दिया।

हो प्रजा न दीन अनाथ, ‘सुदर्शन’ को इससे ही मिला ताज।।36।।

 

ज्यों बाल चंद्र से नभ, नीरज कलिका से सर, सिंह शिशु से वन।

त्यों बाल सुदर्शन से शोभित था तब रघुकुल का सिंहासन।।37।।

 

होगा कल पिता समान यही कहते थे देख उसे सब जन।

जैसे छोटा बादल बढ़ पुरवाई सँग ढक लेता है नील गगन।।38।।

 

हस्तप संग बैठा वह बालक पथ में हरता था सबका मन।

सब पिता सदृश उसको प्रणाम करते थे कर उसके दर्शन।।39।।

 

बालक था सुदर्शन, अतः बड़ा दिखता था भारी सिंहासन।

पर स्वर्ण कांति से आभा उसकी फैल, थी देती आश्वासन।।40।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अटल सत्य ! ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम् ☆

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आई आई एम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। आप सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत थे साथ ही आप विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में भी शामिल थे।)

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी ने अपने ‘प्रवीन  ‘आफ़ताब’’ उपनाम से  अप्रतिम साहित्य की रचना की है। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम भावप्रवण रचना अटल सत्य !  

? अटल सत्य ! ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम् ☆ ?

समीप आता है मेरे

जीवन का वो काल

जब तुम देख सकोगे

मुझमें होते अगोचर,

– कुछ सूखे पत्ते, या वो भी नहीं,

– ठंड से कांपती,

लटकती जर्जर डालियों पर,

जहाँ कभी दुर्लभ पक्षी

देर तक कुछ मीठे गीत गाते थे…

अब तुम मुझमें मात्र

कुछ ऐसे ही दिन देख पाओगे

जैसे सूर्यास्त के पश्चात,

कालिमायुक्त ढलता धुंधलका

धीरे-धीरे गहन रात्रि में

समा जाता है…,

अटल मृत्यु का वो स्वरूप,

जो सभी को अपने में समा लेता है…

मुझमें भी तुम ऐसी ही

अग्नि प्रदीप्ति देख सकोगे

मृत्यु-शय्या पर सज्जित मेरे अवशेष

अंगारों में सुलगती अस्थियाँ

भस्म-स्वरूप होने को व्याकुल,

ये अग्नि-पोषित, अग्नि-भक्षित

नश्वर शरीर में है प्रगाढ़ प्रेम तुम्हारा

पर इसे तुम कहाँ समझ पाते हो,

उसी कुएं का आलिंगन करते हो,

जो तुम्हें लीलने को है तत्पर…

~ ‘प्रवीन  ‘आफ़ताब

© कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

पुणे

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 159 ☆ कविता – कैमरा मेरा… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय कैमरा मेरा…इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 159 ☆

? कविता – कैमरा मेरा… ?

 

हर बार एक नया ही चेहरा कैद करता है कैमरा मेरा…

खुद अपने आप को अब तक

कहाँ जान पाया हूं, 

खुद की खुद में तलाश जारी है

हर बार एक नया ही रूप कैद करता है कैमरा मेरा

प्याज के छिलकों की या

पत्ता गोभी की परतों सा

वही डी एन ए किंतु

हर आवरण अलग आकार में,

नयी नमी नई चमक लिये हुये

किसी गिरगिट सा,

या शायद केलिडेस्कोप के दोबारा कभी

पिछले से न बनने वाले चित्रों सा 

अक्स है मेरा.

झील की अथाह जल राशि के किनारे बैठा

में देखता हूं खुद का

प्रतिबिम्ब.

सोचता हूं मिल गया मैं अपने आप को

पर

जब तक इस खूबसूरत

चित्र को पकड़ पाऊं

एक कंकरी जल में

पड़ती है

और मेरा चेहरा बदल जाता है

अनंत

उठती गिरती दूर तक

जाती

लहरों में गुम हो जाता हूं मैं.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 111 ☆ कविता – सतरंगी दोहे … ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 110 ☆

☆ कविता – सतरंगी दोहे … ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

तड़क – फड़क बिजली करे, कृषक सुनें घबरायँ।

खुले गगन में जो फँसें, वे सब भी पछतायँ।।

 

पानी अमृत तत्व है, इसको सदा बचायँ।

जीवन का आधार यह, बेजा नहीं बहायँ।।

घूँट – घूँट कर ही सदा , पानी पीएँ आप।

भोजन सँग जो जल पिएँ , गैस, कब्ज हों ताप।।

 

हवा प्राण की तत्व है, करें भोर में योग।

पौधे खूब लगाइए, नहीं बढेंगे रोग।।

 

गुस्सा भी तूफान है, इससे बचिए आप।

सागर से भी कब बचें , बढ़ें सुनामी ताप।।

 

पेड़ झुकें आँधी चले, नहीं कभी घबरायँ।

विषम परिस्थिति ये कहे, नम्र सदा बन जायँ।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (31 – 35) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -18

 

दे राज्य पुत्र को वंशावलि रक्षित लख, पुष्कर नहा तीन।

सब विषय विकारों से विमुक्त ब्राह्मिष्ठ हो गये ब्रह्मलीन।।31।।

 

पत्नी ने ‘पुत्र’ की पूनम को सुन्दर सुपुत्र को दिया जन्म।

नक्षत्र पुष्य था ‘पुष्य’ नाम ही रखा गया उसका न अन्य।।32।।

 

दे ‘पुष्य’ को अपना-राज्य भार, जैमिनि मुनि से पा आत्मज्ञान।

ले मुक्ति कामना, योग सीख जीवन से हो गये मुक्त प्राण।।33।।

 

‘ध्रुव-संधि’ पुत्र थे पुष्यराज के, सत्य संध ध्रुव के समान।

जिसने बन राजा, जीत शत्रुओं को नित पाया यश महान।।34।।

 

शिशुचंद्र से सुधर ‘सुदर्शन’ को बचपन में ही करके अनाथ।

‘ध्रुव-संधि’ पिता ने मृगया में तजे प्राण उलझकर सिंह साथ।।35।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#133 ☆ शहर… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना “शहर…”)

☆  तन्मय साहित्य # 133 ☆

☆ शहर… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

खूबसूरत सा चमकता इक शहर

हर किसी पर, ढा रहा है ये कहर।

 

भवन बँगले फ्लेट और अपार्टमेंट

ढूंढने  से  भी मिला  नहीं एक घर।

 

माँ-पिता, मौसी, बुआ, ताऊ  कहाँ

मॉम-डैड, कज़न यहां सिस्टर  ब्रदर।

 

भावना, संवेदना से  शून्य  चेहरे

प्रेम  करुणा से  रहित सूने महल।

 

दौड़ – भाग अजब  यहाँ रफ्तार है

है किसे  फुर्सत  घड़ी भर ले ठहर।

 

कैद  घड़ियों में हुआ  अब आदमी

है कहाँ  अब साँझ, सुबहो-दोपहर।

 

अब निगलने भी लगा यह गाँव को

फैलता  ही  जा रहा  इसका जहर।

 

गीत भी है गजल भी इस शहर में

किंतु  कंठों में  नहीं है  मधुर  स्वर।

 

एक, दूजे से अपरिचित  सब यहाँ

कब  बहेगी  नेह  की   मीठी नहर।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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