हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ ☆ लेखनी सुमित्र की # 89 – दोहे ☆☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 89 –  दोहे ✍

अनुभव होता प्रेम का, जैसे जलधि तरंग ।

नस -नस में लावा बहे, मन में रंगारंग।।

 

उसे जानता कौन जो, सागर का विस्तार ।

मंदिर या मस्जिद नहीं, कहलाता वह प्यार।।

 

आयत कहता हूं उसे, कहता उसे कुरान।

मेरे लेख प्रेम है, गीता वेद पुरान।।

 

परिभाषा दें प्रेम की, किसकी है औकात।

कभी मरुस्थल- सा लगे कभी चांदनी रात।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 34 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 34 – मनोज के दोहे

(फसल, मिट्टी, खलिहान, अन्न, किसान)

हरित क्रांति है आ गई, भारत बना महान।

फसल उगा कर भर रहा, पेट और खलिहान।।

 

मिट्टी की महिमा अलग, सभी झुकाते माथ।

जनम-मरण शुभ-कार्य में, सँग रहता साथ।।

 

कृषक भरें खलिहान को, रक्षा करें जवान।

खुशहाली है देश में, सभी करें यशगान।।

 

अन्न उपजता खेत में, श्रम जीवी परिणाम।

बहा पसीना कृषक का, सुबह रहे या शाम।।

 

कुछ किसान दुख में जिएँ, कष्टों की भरमार।

उपज मूल्य अच्छा मिले, मिलकर करें विचार।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पराकाष्ठा… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – पराकाष्ठा… ??

मिलन उनके लिए

प्रेम का उत्कर्ष था,

राधा-कृष्ण का

मेरे सामने आदर्श था!

© संजय भारद्वाज

30.11.2020, दोपहर 2:05 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (21 – 25) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -18

 

फिर इंद्र वज्रधारी के वज्र सम करता जो था गहन घोष।

उस वज्रनाम उन्नाभ-पुत्र ने बन नृप पाला रत्नकोष।।21।।

 

जब ‘वज्र-नाभ’ भी नहीं रहे तब ‘शखंण’ उनके पुत्ररत्न।

ने धरती पर कर राज्य, पाये धरती से मणिधन बिना यत्न।।22।।

 

शखंण के निधन पर व्युषिताश्व ने पाया राज्य अयोध्या का।

सागर तीरों पर थे जिसके अनगिनत अश्वदल औ योद्धा।।23।।

 

कर विश्वनाथ का आराधन पाया था विश्व-सह सुत उसने।

जो मित्र था दुनियां का, सक्षम था विश्व का पालन करने में।।24।।

 

वह ‘विश्वसह’ हुआ असह्य शत्रुओं को ज्यों अनल अनिल तरू को।

हिरण्याक्ष शत्रु भगवान विष्णु सम हिरण्याभ पाकर सुत को।।25।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #139 ☆ कुंपण माणुसकीचे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 139  ?

☆ कुंपण माणुसकीचे

माती, लाकुड, कौलाने घर शांत राखले

सिमेंट, वाळू, लोखंडाने खूप तापले

 

दोन फुटांच्या भिंतींचे घर जरी कालचे

वीतभराच्या भिंतीवर येऊन ठेपले

 

सारवलेली छान ओसरी स्वच्छ घोंगडे

खांद्यावरचा नांगर ठेवत अंग टेकले

 

घराभोवती होते कुंपण माणुसकीचे

काटेरी तारांचे कुंपण मात्र टोचले

 

पान सुपारी सोबत चालू होत्या गप्पा

पारावरती जमले होते लोक थोरले

 

हायजीनची उगाच पात्रे हवी कशाला

केळीच्या पानात जेवणे खूप चांगले

 

पाश्चात्त्यांच्या संस्कृतीचे गुलाम झालो

प्राचीन संस्कृतीचे आम्ही पंख छाटले

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 92 – “कमर-कमर अंधियारा…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कमर-कमर अंधियारा…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 92 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “कमर-कमर अंधियारा”|| ☆

 

एक बहिन गगरी

कलशा एक भाई

लौट रही पनघट से

मुदिता भौजाई

 

प्यास बहुत गहरी पर

उथली घड़ोंची

पानी की पीर जहाँ

गई नहीं पोंछी

 

एक नजर छिछली पर

जगह-जगह पसरी है

सम्हल-सम्हल चलती है

घर की चौपाई

 

कमर-कमर अंधियारा

पाँव-पाँव दाखी

छाती पर व्याकुल

कपोत सदृश पाखी

 

एक छुअन गुजर चुकी

लौट रही दूजी

लम्बाया इन्तजार

जो था चौथाई

 

नाभि-नाभि तक उमंग

क्षण-क्षण गहराती है

होंठों ठहरी तरंग

जैसे उड़ जाती है

 

इठलाती चोटी है पीछे को

उमड़ -घुमड़

आज यह नई सन्ध्या

जैसे बौराई

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

10-05-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भाषा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – भाषा ??

नवजात का रुदन;

जगत की पहली भाषा,

अबोध की खिलखिलाहट;

जगत का पहला महाकाव्य,

शिशु का अंगुली पकड़ना;

जगत का पहला अनहद नाद,

संतान का माँ को पुकारना;

जगत का पहला मधुर निनाद,

प्रसूत होती स्त्री, केवल

एक शिशु को नहीं जनती,

अभिव्यक्ति की संभावनाओं के

महाकोश को जन्म देती है,

संभवतः यही कारण है;

भाषा स्त्रीलिंग होती है..!

अपनी भाषा में अभिव्यक्त होना अपने अस्तित्व को चैतन्य रखना है।….आपका दिन चैतन्य रहे।

© संजय भारद्वाज

(रात्रि 3:14 बजे, 13.9.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 138 ☆ अहसास ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता “अहसास”।)  

☆ कविता # 137 ☆ अहसास ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

अपने गांव की 

पगडंडी पर

चलते हुए

धूप क्यों नहीं

लग रही है ?

 

जबकि शहर में

दुपहरी काटे नही

 कटती चाहे

कितनी भी फेक दे

एसी अपनी हवा,

 

गांव की गली

 में अमलतास

पसर जाता है

हमें देखकर,

 

और शहर के

अमलतास में

चल जाता है

बुलडोजर विकास

के नाम पर,

 

गांव के आंगन में

दाना चुगने आ गई

गौरैया की भीड़

हमें देखकर,

 

जबकि शहर में

गौरैया आंगन से

गायब सी हो गई

नहीं दिखती बहुत

चाहने पर,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 82 ☆ # ये महानगर है # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता “# ये महानगर है #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 82 ☆

☆ # ये महानगर है # ☆ 

ये महानगर है

सपनों का शहर है

दौड़ते हुए पांव है

कहीं धूप कहीं छांव है

कुछ पाने की तड़प है

तपती हुई सड़क है

खाली खाली हाथ है

सपनों का साथ है

आंखों में एक आस है

होंठों पर प्यास है

झुलसाती दोपहर है

ये महानगर है

 

जो दौड़ते दौड़ते गिर गया

वो दुखों से घिर गया

कितने रोज गिरते हैं

कितने रोज मरते हैं

किसको इसकी खबर है

सरकारें बेखबर है

सब अपने में मस्त हैं

रोटी कमाने में व्यस्त हैं

ना सर पर छप्पर

ना रहने को घर है

हां जी यह महानगर है

 

इस शहर के कई रंग है

यहां कदम कदम पर जंग है

यहां अमीर भी है

यहां गरीब भी है

यहां पल पल

बनते बिगड़ते नसीब भी है

ज़मीन से उठकर

कोई सितारा बन गया

लोगों की आंखों का

तारा बन गया

कोई अपनी प्रतिभा से

लोगों के दिलों में घर कर गया

कोई फुटपाथ पर जन्मा

फुटपाथ पे मर गया

ये शहर सबको देता अवसर है

हां भाई! ये महानगर है

 

जिनको यहां आना है

शिक्षित होकर आयें

अपने पसंद के क्षेत्र में जायें

संघर्ष करें, मेहनत करें

ना घबरायें

लक्ष्य को पाने

तन-मन से जुट जाएं

वो ही जीतकर

बाजीगर कहलाए

हार के आगे जीत है

आंसुओं के आगे प्रीत है

जो सदा जीतने के लिए

खेला है

उसके ही आगे पीछे

लगा मेला है

यहां हर रोज बनती

एक नई खबर है

हां भाई हां! यह महानगर है /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (16-20)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (16 – 20) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -18

तब गये अहिनगु लोक त्याग, ‘परियात्र’ उठा सिर नग समान।

राजा हुये वैभवयुक्त सफल, निज पिता अहिनगु से महान।।16।।

 

पारियात्र पुत्र ‘शिल’ नामक था, जिसका था वक्षस्थल विशाल।

उसने अरियों को जीत बाण से भी, निज रक्खा विनत भाल।।17।।

 

तब विनत विवेकी युव ‘शिल’ को युवराज बनाकर राजा ने।

सुख पाया क्योंकि वैसे तो आती रहती सुख बाधायें।।18।।

 

आतृप्ति विषय-भोगो में तो, यौवन में लगती सुखदायी।

सौंदर्य-भोग में अक्षमता पर वृद्धावस्था नित लाई।।19।।

 

उस ‘शिल’ राजा का पुत्र हुआ ‘उन्नाभ’ जो था निश्चय गँभीर।

था विष्णु सदृश राजाओं के समुदाय में अनुपम धीर-वीर।।20।।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares