हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 15 (96-103)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #15 (96 – 103) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -15

लक्ष्मण बिन रह राम गये सिर्फ तीन चतुरांश।

विकल रहे ज्यों धर्म हो एक पाद विकलांग।।96।।

 

कुश लव थे अंकुश सदृश जहाँ शत्रु गजराज।

अतः कुश और शरावती का दिया उन्हीं को राज।।97।।

 

उत्तर प्रति फिर चल पड़े सब अनुजों के साथ।

चले राम जहाँ, त्याग गृह थी अयोध्या भी साथ।।98।।

 

अश्रु सिक्त था मार्ग वह चले जहाँ रघुनाथ।

वानर असुरों ने किया वहाँ भी उनका साथ।।99।।

 

भक्तों पर कर के कृपा भगत-वछल-श्रीराम।

स्वर्गारोहण हित किया सरयू को सोपान।।100अ।।

 

जो सरयू में नहाता जाता सीधे स्वर्ग।

हो उसका संसार में चाहे कोई भी वर्ग।।100ब।।

 

सरयू में मेला लगा पुण्य प्राप्ति की बात।

गोप्रतीर्थ के नाम से जग में हुई विख्यात।।101।।

 

वानर-भालू ने किया देव रूप जब प्राप्त।

किया राम ने अयोध्या स्वर्ग रूप संज्ञात।।102।।

 

रावण का वध, विष्णु ने राम के रूप में धर, जगभार मिटाया,

भेज विभीषण को दक्षिण हनुमान को उत्तर ओर पठाया।

 

कर जग का कल्याण जरूरी अपना प्रण संपूर्ण निभाया।

होकर अन्तर्धान, स्वरूप को राम ने विष्णु के रूप मिलाया।।103।।

 

पन्द्रहवां  सर्ग समाप्त

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता – विचार☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कविता – विचार ??

विचारों का उत्सव मनुज,

विचारों का विप्लव मनुज,

विचारों का वारिधि मनुज,

विचारों की परिधि मनुज,

विचारों की अकुलाहट मनुज,

विचारों की टकराहट मनुज,

विचार हैं तो ही आचार है,

आचार मनुजता का आधार है,

विचार-विनिमय बनाये रहना,

तुम मनुजता बचाये रखना..!

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 9:31 बजे, 21 जनवरी 2022)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #127 ☆ भावना के मुक्तक ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के मुक्तक। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 127 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के मुक्तक ☆

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

लहर उठती है सागर में किनारों से वो मिल जाए।

असर दिल पे जो होता है इशारों में वो कह जाए।

दिलवालों से पूछो तो लगन दिल की ये कैसी है।

मिलन दिल का जो होता है वो चेहरा बता जाए।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

कहानी ये मैं कहता हूँ तुझे मैं ये सुनाता हूँ ।

तेरे गीतों में जादू है उसे मैं गुनगुनाता हूँ ।

तेरी धड़कन जो कहती है उसे मैंने ही समझा है।

नहीं शिकवा कोई तुझसे शिकायत मैं बताता हूं।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

प्रेम है लाजमी जिंदगी के लिए।

तुम समर्पण करो बंदगी के लिए।

जिंदगी तो अकेले  ही निभती नहीं

हमसफ़र चाहिए जिंदगी के लिए।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #117 ☆ साधौ जीवन के दिन चार… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “साधौ जीवन के दिन चार…। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 117 ☆

☆ साधौ जीवन के दिन चार… 

राह ताकती मृत्यु हर पल, करिए तनिक  विचार

स्वारथ से अब बाहर निकलो, बदलो अब आचार

समय चूकि पछिताना होगा, तब होगे लाचार

दर्द बांट लो इक दूजे का, जिसमें जीवन सार

राजा हो या रंक वहाँ पर, सबकी एक कतार

हरि चरण”संतोष”चाहता, केशव सुनो पुकार

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 15 (91-95)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #15 (91 – 95) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -15

 

यों उन चारों बंधु ने पुत्रों को दे राज।

किया दिवंगत जननियों के तर्पण और श्राद्ध।।91।।

 

तब आ मुनि के वेश में राम निकट यमराज।

कहा जो देखे हमें कोई, उसे आप दें त्याग।।92।।

 

कहा राम ने ‘‘हो तथा’’। प्रकट हुये यमराज।

ब्रह्मा का आदेश है चलें स्वर्ग महराज।।93।।

 

लक्ष्मण ने सुन बात यह दुर्वासा भय त्रस्त।

जो दर्शन हितराम के की सब बात निरस्त।।94।।

 

योगी लक्ष्मण ने किया सरयू तट तन त्याग।

राम प्रतिज्ञा को किया मन से खुद चरितार्थ।।95।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #113 – अपनों को भी क्या पड़ी है? ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – “अपनों को भी क्या पड़ी है ?।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 113 ☆

☆ कविता – अपनों को भी क्या पड़ी है ? ☆ 

वह भूख से मर रहा है।

दर्द से भी कराह रहा है।

हम चुपचाप जा रहे हैं

देखती- चुप सी भीड़ अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

सटसट कर चल रहे हैं ।

संक्रमण में पल रहे हैं।

भूल गए सब दूरियां भी

आदत यह सिमट अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

वह कल मरता है मरे।

हम भी क्यों कर उससे डरें।

आया है तो जाएगा ही

यही तो जीवन की लड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

हम सब चीजें दबाए हैं।

दूजे भी आस लगाए हैं।

मदद को क्यों आगे आए

अपनों में दिलचस्पी अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

हम क्यों पाले ? यह नियम है।

क्या सब घूमते हुए यम हैं ?

यह आदत हमारी ही

हमारे ही आगे खड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

नकली मरीज लिटाए हैं।

कोस कर पैसे भी खाएं हैं।

मर रहे तो मरे यह बला से

लाशें लाइन में खड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

कुछ यमदूत भी आए हैं ।

वे परियों के  ही साए हैं।

बुझती हुई रोशनी में वे

जलते दीपक की कड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

कैसे इन यादों को सहेजोगे ?

मदद के बिना ही क्या भजोगे ?

दो हाथ मदद के तुम बढ़ा लो

तन-मन  लगाने की घड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

20/05/2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता – संजय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कविता – संजय   ??

दिव्य दृष्टि की

विकरालता का भक्ष्य हूँ,

शब्दांकित करने

अपने समय को विवश हूँ,

भूत और भविष्य

मेरी पुतलियों में

पढ़ने आता है काल,

वरद अवध्य हूँ,

कालातीत अभिशप्त हूँ!

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 105 ☆ कविता – शस्य श्यामला माटी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं भावप्रवण कविता  “शस्य श्यामला माटी”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 105 ☆

☆ शस्य श्यामला माटी ☆ 

अपनी संस्कृति को पहचानो, इसका मान करो।

शस्य श्यामला माटी पर, मित्रो अभिमान करो।।

 

गौरव से इतिहास भरा है भूल न जाना।

सबसे ही बेहतर है होता सरल बनाना।

करो समीक्षा जीवन की अनमोल रतन है,

जीवन का तो लक्ष्य नहीं भौतिक सुख पाना।

 

ग्राम-ग्राम का जनजीवन, हर्षित खलिहान करो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

उठो आर्य सब आँखें खोलो वक़्त कह रहा।

झूठ मूठ का किला तुम्हारा स्वयं ढह रहा।

अनगिन आतताइयों ने ही जड़ें उखाड़ीं,

भेदभाव और ऊँच-नीच को राष्ट्र सह रहा।

 

उदयाचल की सविता देखो, उज्ज्वल गान करो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

तकनीकी विज्ञान ,ज्ञान का मान बढ़ाओ।

सादा जीवन उच्च विचारों को अपनाओ।

दिनचर्या को बदलो तन-मन शुद्ध रहेगा,

पंचतत्व की करो हिफाजत उन्हें बचाओ।

 

भारत, भारत रहे इसे मत हिंदुस्तान करो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

भोग-विलासों में मत अपना जीवन खोना।

आपाधापी वाले मत यूँ काँटे बोना।

करना प्यार प्रकृति से भी हँसना- मुस्काना,

याद सदा ईश्वर की रखना सुख से  सोना।

 

समझो खुद को तुम महान  श्वाशों में प्राण भरो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 15 (86-90)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #15 (86 – 90) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -15

 

यज्ञ पूर्ण कर विदा कर ऋषि और अतिथि तमाम।

पुत्र केन्द्रित प्रेम रख विवश रह गये राम।।86।।

 

युधाजित की विनय पर सिंधु देश का राज्य।

दिया राम ने भरत को सहित प्रेम अविभाज्य।।87।।

 

जीत वहाँ गन्धर्वों को दे वीणा और गान।

भरत प्रभावी नृपति बन जीत सके सम्मान।।88।।

 

तक्ष और पुष्कल सुतों को दे अपना राज्य।

भरत लौट आये पुनः भ्रात राम के पास।।89अ।।

 

तक्षशिला और पुष्पपुर थी उनके आवास।

जो दोनों हुई बाद में उन्हीं नाम से ख्यात।।89ब।।

 

रामाज्ञा से लखन ने बना दिया निज हाथ।

अंगद व चंद्रकेतु को कारापथ का नाथ।।90।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 22 ☆ कविता – खुशियों की बरसात — ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक कविता  “खुशियों की बरसात”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 22 ✒️

?  कविता – खुशियों की बरसात — डॉ. सलमा जमाल ?

ख़ुशियों की भी ज़िन्दगी में ,

बरसात होना चाहिए ।

सह लिए ग़म बेशुमार ,

अब तो जश्न होना चाहिए ।।

 

जैसे बारिश में गिरते

कच्ची मिट्टी के मकान ,

कल तक थी गुलज़ार बस्ती

बन गई आज मसान ,

दूसरी लहर गई हाल

बेहतर होना चाहिए  ।

ख़ुशियों की ————— ।।

 

आंधियां ऐसी चलीं 

अपने टूटते तारे हुए ,

नेताओं और ख़ुदग़र्ज़ों

के वारे – न्यारे हुए ,

तान छेड़ो पपीहा की

मोर रक़्स होना चाहिए ।

ख़ुशियों की ————– ।।

 

बिजली गिरे ओले बरसें

छाई हो घनघोर घटा ,

एक जैसा मौसम ना रहता

महकेगी फ़िर से फ़िज़ा ,

जो बहा दे रंज़ो ग़म

ऐसी बाढ़ होना चाहिए ।

ख़ुशियों की —————– ।।

 

बूंदा – बांदी रहमतों की

रिमझिम सावन की झड़ी ,

देखो तो नज़रें उठाकर

सामने उल्फ़त खड़ी ,

मांझी भूलने का ‘ सलमा ‘

हौसला होना चाहिए ।

ख़ुशियों की —————- ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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