हिन्दी साहित्य – कविता ☆ वसीयत… ☆ काव्य नंदिनी ☆

 ? वसीयत… ☆ काव्य नंदिनी ?

(ई- अभिव्यक्ति में कवियित्री काव्य नंदिनी जी  का हार्दिक स्वागत। हम समय समय पर आपकी भावप्रवण रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय कविता ‘वसीयत‘। ) 

 

जिंदगी एक कहानी नहीं हकीकत है

इस पर भी यह एक सच्ची और खरी खोटी नियत है

इसलिए इसमें सिर्फ मर्द और औरत की कहानी है

क्योंकि आज भी आंचल में दूध और आंखों में पानी है

सच्चाई कितनी भी अनदेखी की जाए मगर यह हकीकत है

आज भी औरत जन्म देती है नाम पिता का चलता है

सदियों से चला यह दस्तूर आज भी चलता है

समाज कितना भी आधुनिकता की दौड़ में शामिल हो

बस यही एक सच्ची और खरी खोटी नियत है

कि आज भी मर्द औरत को समझता है सिर्फ अपनी वसीयत है

 

© काव्य नंदिनी

जबलपुर, मध्यप्रदेश 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (76-80)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (76 – 80) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

मुनिगण आवागमन से पूर्ण है यह स्थान।

शोक पापहारी यहाँ तमसा तट स्नान।।76अ।।

 

इष्ट देव पूजन यहाँ देता मन को शांति।

सौम्य प्रकृति मन की यहाँ हरती सकल अशांति।।76ब।।

 

ऋतु ऋतु के नव पुष्प-फल पूजन हित नीवार।

मुनि कुमारियाँ करेंगी पीड़ा का परिहार।।77।।

 

अपने बल अनुरूप रख भरे घड़ों का भार।

सींच पौधों को पाओगी उनका शिशुवत प्यार।।78।।

 

अभिनंदन स्वीकारती दया भाव से साथ।

सीता आश्रम आई जहाँ मृग थे शांत सनाथ।।79।।

 

चंदा की अंतिम कला ज्यों ओषधि हित सार।

बाल्मीकि आश्रम को हुई सिय भी उसी प्रकार।।80।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 124 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  होली पर्व पर विशेष  “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 124 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  ☆

फसल प्यार की लग रही, आई खुशियां पास।

आँचल में उम्मीद के, हरदम जगती आस।।

 

कंचन काया देखकर, मन होता बेचैन।

मिलने को आकुल लगन, कब आएगा चैन।।

 

फसल खेत में पक गई,  सुंदर है खलिहान।

पाकर श्रम का पुण्यफल, खुश हो रहे किसान।।

 

धानी फसलें देखकर, मुस्काते खलिहान।

बढ़ता है भंडार गृह, करता काम किसान।।

 

माटी से सुंदर बने, काया सुभग अनूप ।

गढ़ता रूप कुम्हार जब, अपने ही अनुरूप।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #114 ☆ साधौ हरि से हो गई प्रीत… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “साधौ हरि से हो गई प्रीत…। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 114 ☆

☆ साधौ हरि से हो गई प्रीत…

जा दिन से लगि प्रीत साँवरे, मिल ग्यो मन को मीत

दिल में मोरे श्याम बसत हैं, बजे मधुर संगीत

लगो रहत चित चाक सदा ही, छोड़ी जग की रीत

बदल गए दिन मन मोहन से, गए बुरे दिन बीत

मन मयूरा झूम के नाचे, गाये हरि के गीत

श्याम शरण “संतोष”चाहता, करके काम पुनीत

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (71-75)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (71 – 75) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

 

अश्रुपोंछ रोदन विरत सिया ने किया प्रणाम।

मुनि ने आशीर्वाद दे मन को दिया विराम।।71।।

 

कहा उन्होंने ध्यान बल से मुझको है ज्ञान।

है मिथ्या अपवाद पर होनी है बलवान।।72अ।।

 

पुत्री तुम निर्दोष हो तजो मनः संताप।

अन्य देश में पिता गृह में हो समझो आप।।72ब।।

 

जग संकटहारी सतत् दृढ़प्रतिज्ञ हैं राम।

पर तुम प्रति व्यवहर से कुद्ध मैं उनके नाम।।73।।

 

श्वसुर तुम्हारे दशरथ सखा मेरे विख्यात।

पिता जनक ज्ञानी बड़े तव सज्जन अवदात।।74अ।।

 

तुम पावन पतिव्रता हो अग्र पूज्य अविभाज्य।

इससे मेरे स्नेह का तुम पर है साम्राज्य।।74ब।।

 

तापस आश्रम में यहाँ रहो निडर निर्बाध।

हो पूरी निर्विघ्न तव पुत्र प्राप्ति की साध।।75अ।।

 

होंगे पूरे पुत्र के सभी जात संस्कार।

स्नेह पूर्ण होंगे यहाँ सबके सब व्यवहार।।75ब।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 102 ☆ गीत – तुझको स्वयं बदलना होगा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक गीत  “तुझको स्वयं बदलना होगा”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 102 ☆

☆ गीत – तुझको स्वयं बदलना होगा ☆ 

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।

जीवन की हर बाधाओं से

हँसते – हँसते लड़ना होगा।।

 

कर्तव्यों से हीन मनुज जो

अधिकारों की लड़े लड़ाई।

प्रकृति के अनुकूल न चलता

आत्ममुग्ध हो करे बड़ाई।

झूठे सुख के लिए सदा ही

देख रहा ना पर्वत – खाई।

धन  – संग्रह की होड़ लगी है

मन कपटी है चिपटी काई।

 

हे मानव ! तू सँभल ले अब भी

तुझको स्वयं भुगतना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

जो सन्तोषी इस धरती पर

वह ही सुख का मूल्य समझता।

वैभवशाली, धनशाली का

सबका ही सिंहासन हिलता।

उद्यम कर, पर चैन न खोना

अपना लक्ष्य बनाकर चलना।

परहित – सा कोई धर्म नहीं है

देवदूत बन सबसे मिलना।

 

समय कीमती व्यर्थ न खोना

तुझको स्वयं समझना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

सामानों की भीड़ लगाकर

अपने घर को नरक बनाए।

सारा बोझा छूटे एक दिन

उल्टे – पुल्टे तरक चलाए।

उगते सूरज योग करें जो

उनकी किस्मत स्वयं बदलती।

कर्म और पुरुषार्थ , भलाई

यहाँ – वहाँ ये साथ हैं चलतीं।

 

परिस्थितियां जो भी हों साथी

तुझको स्वयं ही ढलना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (66 – 70) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

 

फिर प्रसूति पश्चात मैं तप में हो तल्लीन।

प्रभु से माँगूगी तुम्हें हो विनीत अतिदीन।।66।।

 

वर्णों और आश्रमों का नृप पर रक्षा भार।

होता इससे भी मेरा उचित तुम्हें उद्धार।।67।।

 

‘‘ठीक कहूँगा राम से मैं यह करूण पुकार’’

कह लक्ष्मण ओझल हुये, उठा रूदन-चीत्कार।।68।।

 

था सीता के क्लेश में दुखी हर एक वन ठौर।

शिखी भीत, पुष्पाश्रु तरू मृग ने उगले कौर।।69।।

 

व्याधाहत पक्षी को लख श्लोक रूप में शोक।

जिनका था वह वाल्मीकि कर न सके दुख-रोक।।70अ।।

 

कुश समिधा ले लौटते पा रोदन-आभास।

अनुमानित पथ पार कर पहुँचे सीता पास।।70ब।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अंतरराष्ट्रीय जल दिवस विशेष – बिन पानी सब सून ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है अंतरराष्ट्रीय जल दिवस पर आपकी अत्यंत विचारणीय कविताएं – बिन पानी सब सून )

☆ कविता ☆ विश्व जल दिवस विशेष – बिन पानी सब सून ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

धरती-आसमाँ-आदमी सभी सूखे

कहीं नहीं है पानी

आँख सहेजी वरना कब का

मर गया होता पानी.

हजार फुट खोदने पर भी

पानी नहीं लगा

फिर और खोदा

तो थोड़ा-सा लगा,

हाय-री किस्मत

वह भी पानी नहीं

हज़ार फुट खोदनेवालों का

पसीना निकला.

वह बेगैरत नहीं

शायद प्यासा रहा होगा

वरना आदमी का खून

इतनी जल्दी

पानी नहीं होता.

ये सागर से घिरे,

वो शीश पर

गंगा धारण करते

‘ देवता अमर है ‘

आदमी की तरह

प्यासे नहीं मरते.

नल पर कितनी भीड़ है

देख मेरी सरकार

दो कलसे की खातिर

टांके लग् गए

चार.

गरीब आदमी पानी से

प्यास ही नहीं

भूख भी मिटाता है

कैसे ?

एक रोटी की कमी

दो लोटे पानी पी

पूरी करता है

ऐसे.

” क्या यह पानी

पीने योग्य है ? “

” हाँ,

यदी सच में प्यास लगी हो.”

जोखू, फिर

गंदा पानी पी रहा

उसे ‘ ठाकुर का कुआँ ‘ तो मिला

मगर सूखा हुआ.

उस दिन भी उसे

ठाकुर का कुआँ नहीं

कुएँ का पानी ही

तो चाहिए था.

कुदरत से

एक -तिहाई धरती

और दो-तिहाई

पानी मिला है,

फिर प्यास क्यों ?

जाँच हो,

ये घोटाला

कब से चला है ?

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 

अंतरराष्ट्रीय जल दिवस पर श्री संजय भरद्वाज , अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे के विशेष आलेख / नाटक आप निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं >>

? संजय दृष्टि 👉  अंतरराष्ट्रीय जल दिवस विशेष – बिन पानी सब सून ?

? यूट्यूब लिंक 👉 अंतरराष्ट्रीय जल दिवस विशेष – नाटक – ” जल है तो कल है” ?

 

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#125 ☆ हक न छीनें परिश्रम का…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  “हक न छीनें  परिश्रम का….”)

☆  तन्मय साहित्य  #125 ☆

☆ हक न छीनें  परिश्रम का…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

घाम, सूरज का तपाये

बारिशें, जी भर भिंगाये

निठुर जाड़ा तो जड़ों तक

शीत में तन-मन कँपाये।

 

वे सदा रहते खुले में

खेत में खलिहान में

गुनगुनाते साथ श्रम के

चाय के बागान में,

बेबसी भीतर दबे दुखदर्द

ये किसको सुनाए…..

 

मुँह अंधेरे जब उठे

चिंता सताए पेट की

निगल, बासी कौर कुछ

ड्योढ़ी चढ़े फिर सेठ की,

झिड़कियों को अनसुना कर

पसीने में वे बहाए…….

 

राज-मिस्त्री मजदूरों के

साथ असंगठित हैं जो

करें चिंता श्रमजीवी

समुदाय की अधपेट हैं वो

हक न छीनें परिश्रम का

उसी से अट्टालिकाएँ…..

 

वे सदा मुस्तेद सीमा पर

अथक अविराम से

युद्ध या हो विभीषिकाएँ

डोर ये ही थामते,

मौसमों से जूझते, पथ में

कई है विषमताएँ…….

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 19 ☆ कविता – वृक्ष की पुकार ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक कविता  “वृक्ष की पुकार”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 19 ✒️

?  कविता – वृक्ष की पुकार —  डॉ. सलमा जमाल ?

रुकती हुई,

सांसो के मध्य,

कल सुना था मैंने,

कि तुमने कर दी,

फिर एक वृक्ष की,

” हत्या “

इस कटु सत्य का,

हृदय नहीं,

कर पाता विश्वास,

” राजन्य “

तुम कब हुए, नर पिशाच ।।

 

अंकित किया, एक प्रश्न ?

क्यों ? केवल क्यों ?

इतना बता सकते हो,

तो बताओ ? क्यों त्यागा,

उदार जीवन को ?

क्यों उजाड़ा,

रम्य वन को ? क्यों किया,

हत्याओं का वरण ?

अनंत – असीम,जगती में

क्या ? कहीं भी ना,

मिल सकी, तुम्हें शरण ? ।।

 

अच्छा होता

तुम, अपनी

आवश्यकताएं,

तो बताते,

शून्य, – शुष्क,

प्रदूषित वन जीवन,

की व्यथा देख,

रोती है प्रकृति,

जो तुमने किया,

क्या वही थी हमारी नियति ?।।

 

शैशवावस्था में तुम्हें,

छाती पर बिठाए,

यह धरती,

तुम्हारे चरण चूमती,

रही बार-बार,

रात्रि में जाग – जाग

कर वृक्ष,

तुम्हें पंखा झलते रहे बार-बार,

तब तुम बने रहे,

सुकुमार,

अपनी अनन्त-असीम,

तृष्णाओं के लिए,

प्रकृति पर करते रहे

अत्याचार ।।

 

हम शिला की

भांति थे,

निर्विकार,

तुम स्वार्थी –

समयावादी,

और गद्दार,

तभी वृद्ध,

तरुण – तरुओं,

पर कर प्रहार,

आयु से पूर्व,

उन्हें छोड़ा मझधार,

रिक्त जीवन दे,

चल पड़े

अज्ञात की ओर,

बनाने नूतन,

विच्छन्न प्रवास ।।

 

किस स्वार्थ वश किया,

यह घृणित कार्य ?

क्या इतना सहज है,

किसी को काट डालना,

काश !

तुम कर्मयोगी बनते,

प्रकृति के संजोए,

पर्यावरण को बुनते,

प्रमाद में  विस्मृत कर,

अपना इतिहास,

केवल बनकर रह

लगए, उपहास ।।

 

काश ! तुमने सुना होता,

धरती का, करुण क्रंदन,

कटे वृक्षों का,

टूट कर बिखरना,

गिरते तरु की चीत्कार,

पक्षियों की आंखोंका, सूनापन,

आर्तनाद करता, आकाश,

तब संभव था, कि तुम फिर,

व्याकुल हो उठते,

पुनः उसे, रोपने के लिए ।।

 

अपना इतिहास,

बनाने का करते प्रयास,

तब तुम, वृक्ष हत्या,

ना कर पाते अनायास ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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