हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 91 ☆ नवगीत – जाल न फैला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित नवगीत – जाल न फैला।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 91 ☆ 

☆ नवगीत – जाल न फैला 

*

जाल न फैला

व्यर्थ मछेरे

मछली मिले कहाँ बिन पानी।

*

नहा-नहा नदियाँ की मैली

पुण्य,  पाप को कहती शैली

कैसे औरों की हो खाली

भर लें केवल अपनी थैली

लूट करोड़ों, 

बाँट सैंकड़ों

ऐश करें खुद को कह दानी।

*

पानी नहीं आँख में बाकी

लूट लुटे को हँसती खाकी

गंगा जल की देख गंदगी

पानी-पानी प्याला-साकी

चिथड़े से

तन ढँके गरीबीे

बदन दिखाती धनी जवानी।

*

धंधा धर्म रिलीजन मजहब

खुली दुकानें, साधो मतलब

साधो! आराधो, पद-माया

बेच-खरीदो प्रभु अल्ला रब

तू-तू मैं-मैं भुला,

थाम चल

भगवा झंडा, चादर धानी।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

10.4.2018

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #122 ☆ कविता – अरमान ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 122 ☆

☆ ‌कविता – अरमान ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

मैं बचपन ‌हूं मेरी आंखों में सपने ‌पलते‌ है,

मै‌ पलता हूं सड़कों पे दिल में अरमान ‌मचलते हैं ।

मैं ‌बचपन ‌नही अमीरों का जो‌ महलों में पलते हैं,

जिनका‌ जीवन सुख में बीता‌ कालीन‌ पे‌‌ चलते है।

मैं खेतों में ‌मजदूरी करता सड़कों पे ‌पत्थर ढोता,

भठ्ठों‌ पर ईंटें ढ़ोता और ढाबों पर ‌प्लेटें धोता।

फिर भी भूखा ‌पेट‌ मै ‌सोता अपनी क़िस्मत पर‌ रोता,

भूखा बचपन मुरझाया तन कोई दया की भीख ना देता।

आंखों के आंसू सूख चले आशाओं में दिन ढ़लते हैं ,

मैं बचपन ‌हूं मेरी आंखों में भी सपने ‌पलते‌ है ।।1।।

 

मैंने भी सपना देखा सच उसको पूरा करने दो,

आगे बढ़ने कुछ करने का‌ अरमान मचलने दो।

मत रोको मुझको पढ़ने दो आगे बढ़ने दो,

जीवन की कठिन डगर है फिर भी चलने दो।

गिरते गिरते मैं उठता हूं मुझे संभलने दो,

उम्मीदों ‌की डोर पकड़ कर आगे बढ़ने दो।

कठिनाइयों से  जूझ रहा हूं जीवन को सँवरने दो।

मैं बचपन ‌हूं मेरी आंखों में भी सपने ‌पलते‌ है।।2।।

 

मैं भविष्य हूं भारत का‌ मुझे कर्ज चुकाना है,

कुर्बानी वतन की खातिर दे सर को कटाना है।

अपने देश समाज के प्रति मुझे फर्ज निभाना है,

अशिक्षा की तोड़ बेड़ियां उसे आजाद कराना है।

मुझमें सुभाष गांधी पलते हैं उनको पलने दो,

मैं बचपन ‌हूं मेरी आंखों में भी सपने ‌पलते‌ है।।3।।

 

हम‌ सभी ‌पढे़ हम सभी बढ़े, उम्मीद का नारा है,

हम सब‌ में बचपन खिलता है जीवन धन प्यारा है।

हम समाज की आशायें है यही तो जीवन धारा है ,

उन्मुक्त गगन में उड़ने को अब पंख पसारा है।

परवाज़ गगन में करने दो पंछी सा उड़ने दो,

अरमान उमड़ते बादल से अब उन्हें घहरनें दो ।

मैं बचपन ‌हूं मेरी आंखों में भी सपने ‌पलते‌ है।।4।।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

२३–५—२०२०

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (21 – 25) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

वस्त्राभूषण बदल कर करने कुछ आराम।

अतिथि गये नेपथ्य में जहां आसन अभिराम।।21।।

 

धुले हाथ से सेवकों ने कर के केश-सिंगार।

धूप-गंध से सुखाकर छवि को दिया निखार।।22।।

 

पुष्पमाल मोती गुंथी से सज्जित कर माथ।

पद्यराग मणि नाथ दी, नवल प्रभा के साथ।।23।।

 

चंदन-कस्तूरी मिला कर वपु का अँगराग।

गो-रोचन से पत्रवत चित्र लिखे सानुराग।।24।।

 

मुक्ता की माला पहिन चित्रित हंस दुकूल।

नई राज्य- श्री वधू पा नृपति जंचा अनुकूल।।25।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #141 – ग़ज़ल-27 – “मुहब्बत सियासत में सब जायज़…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “मुहब्बत सियासत में सब जायज़ …”)

? ग़ज़ल # 27 – “मुहब्बत सियासत में सब जायज़ …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

नज़र मिलते ही दिल में उतर जाते हैं,

इश्क़ज़दा चेहरों के रंग बदल जाते हैं।

 

एकसा नहीं रहता आशिक़ों का मिज़ाज,

वक़्त के साथ सबके ढंग बदल जाते हैं।

 

माशूक़ का चेहरा खिला सुर्ख़ ग़ुलाब सा,

ख़ाली बटुआ देख के रंग बदल जाते हैं।

 

जो क़समें खाते सदियों साथ चलने की,

पहली फ़ुर्सत उनके ढंग बदल जाते हैं।

 

समा जाना चाहते थे जो एक दूसरे में,

नशा उतरते उनके अंग बदल जाते हैं।

 

नादानियाँ तो सभी करते हैं जवानी में,

आरोपी को देख इल्ज़ाम बदल जाते हैं।

 

ज़िंदगी में पत्थर तो हम सभी उठाते हैं,

मुलज़िम सामने देख संग बदल जाते हैं। 

 

सियासती चेहरों के रंग को क्या कहिए,

चाल के हिसाब उनके ढंग बदल जाते हैं।

 

मौत की सज़ायाफ़्ता क़ैद में सब ज़िंदगी,

कुव्वत हिसाब कूच के ढंग बदल जाते हैं।

 

कई मुखौटा लगाकर चलते हैं हम सब,

क़ज़ा की चौखट सबके रंग बदल जाते हैं।

 

मुहब्बत सियासत में सब जायज़ ‘आतिश’

दाँव लगता देख उनके ढंग बदल जाते हैं।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 80 ☆ गजल – ’’है राह एक सबकी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “है राह एक सबकी…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 80 ☆ गजल – है राह एक सबकी…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

हमें दर्द दे वो जीते, हम प्यार करके हारे,

जिन्हें हमने अपना माना, वे न हो सके हमारे।

ये भी खूब जिन्दगी का कैसा अजब सफर है,

खतरों भरी है सड़के, काटों भरे किनारें।।

 

है राह एक सबकी मंजिल अलग-अलग है,

इससे भी हर नजर में हैं जुदा-जुदा नजारे।

बातें बहुत होती हैं, सफरों में सहारों की

चलता है पर सड़क में हर एक बेसहारे।

 

कोई किसी का सच्चा साथी यहाँ कहाँ है ?

हर एक जी रहा है इस जग में मन को मारे।

चंदा का रूप सबको अक्सर बहुत लुभाता,

पर कोई कुछ न पाता दिखते जहां सितारे।

 

देखा नहीं किसी ने सूरज सदा चमकते

हर दिन के आगे पीछे हैं सांझ औ’ सकारे।

सुनते हैं प्यार की भी देते हैं कई दुहाई।

थोड़े हैं किंतु ऐसे होते जो सबके प्यारे।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चक्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – चक्र ??

दैदीप्यमान रहा

मुखपृष्ठ पर कभी,

फिर भीतरी पृष्ठों पर

उद्घाटित हुआ,

मलपृष्ठ पर

प्रभासित है इन दिनों..,

इति में आदि की छाया

प्रतिबिम्बित होती है,

उद्भव और अवसान की

अपनी आभा होती है!

© संजय भारद्वाज

श्रीविजयादशमी 2019, अपराह्न 4.27 बजे।

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ग़ज़ल – हर दिल कहीं न कहीं बहुत ग़मज़दा सा है…☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना हर दिल कहीं न कहीं बहुत ग़मज़दा सा है…)

☆ ग़ज़ल – हर दिल कहीं न कहीं बहुत ग़मज़दा सा है… ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

दिल से दिल का रिश्ता जोड़  कर देखो।

अमनों चैन की   तरफ मोड़  कर देखो।।

[2]

नफरतों को करो जरा अलविदा दिल से।

महोब्बत का   लबादा ओढ़  कर देखो।।

[3]

बहुत प्यारी जिंदगी अमानत ऊपर वाले की।

बात गलत जो भी हो जरा छोड़ कर देखो।।

[4]

बाँटने से तो खुशियाँ दुगनी हो जाती हैं।

ये हँसी ठहाके जरा तुम फोड़ कर देखो।।

[5]

बहुत सबाब मिलता   मिल बांट कर खाने में।

किसीकी खुशी लिए चादर सिकोड़ कर देखो।

[6]

हर दिल कहीं न कहीं बहुत ग़मज़दा सा है।

तुम किसी का दर्द जरा  निचोड़ कर देखो।।

[7]

हंस दुनिया आनी जानी इक़ सराय ही तो है।

तुम  दिलों की गाँठ का धागा तोड़ कर देखो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (16-20)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (16 – 20) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

अभिमंत्रित जल से अतिथि कर पवित्र-स्नान।

वर्षा सिंचित तड़ित सम हुये अधिक द्युतिमान।।16।।

 

तब अभिषेक समाप्ति पर किया अतिथि ने दान।

भिक्षु भी पा जो कर सके यज्ञ-दक्षिणा दान।।17।।

 

हो प्रसन्न उनने दिये आशीर्वाद अनेक।

जो भविष्य हित सुरक्षित थे अनुकूल विशेष।।18।।

 

बंसी सब छोड़े गये मृत्युदंड हुये माफ।

भारवहन से मुक्त वृष दोहन से सब गाय।।19।।

 

तोता-मैना भी सही हो पिंजड़ों से मुक्त।              

करने लगे विहार वे स्वेच्छा से उन्मुक्त।।20।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सृष्टि ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – सृष्टि  ??

तुम समेटती रही

अपनी दुनिया और

मुझ तक आकर ठहर गई,

मैं विस्तार करता रहा तुम्हारा

और दुनिया तुममें

सिमट कर रह गई,

अपनी-अपनी दृष्टि है प्रिये!

अपनी-अपनी सृष्टि है प्रिये!

© संजय भारद्वाज

(सुबह 10.25 बजे, 17.6.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #120 ☆ नीको लगे यह ब्रज हमारो ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  भावप्रवण रचना “नीको लगे यह ब्रज हमारो। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 120 ☆

☆ नीको लगे यह ब्रज हमारो 

कन कन में बसते मन मोहन, मोहक राज दुलारो

ब्रज की रज चंदन सी महके, वृंदावन है प्यारो

जित बसते हों राधेरमना, सुख मिलतो है सारो

रहे  कबहुँ न दुख को अंधेरों, पास रहे उजियारो

ब्रज की बोली बड़ी रसीली, प्रेम पाग उचारो

ब्रज की रज “संतोष” लपेटें, कहते प्रभु अब तारो

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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